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भारतीय शहर बनाम भारतीय गाँव : एक तथ्यपूर्ण परिचर्चा

भारतीय कृषि व्यवस्था : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य एवं भविष्य की योजना

भारतीय कृषि व्यवस्था : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य एवं भविष्य की योजना गाँव बनाम शहर

ByRakesh Prasad Rakesh Prasad   Contributors Anand Prakash Anand Prakash Prem Singh Prem Singh Deepika Chaudhary Deepika Chaudhary Raman Kant Raman Kant Venkatesh Dutta Venkatesh Dutta {{descmodel.currdesc.readstats }}

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गाँव बनाम शहर - अर्थशाश्त्र, समाजशास्त्र और पॉलिटिक्स तीनो का सही भारतीय परिवेश ही गाँव और शहर के इस

गाँव बनाम शहर - 

अर्थशाश्त्र, समाजशास्त्र और पॉलिटिक्स तीनो का सही भारतीय परिवेश ही गाँव और शहर के इस संघर्ष को बचा सकता है- प्रेम सिंह 

गाँव और शहर, यानि भारत की समग्रता को परिभाषित करती दो सबसे महत्वपूर्ण इकाइयां. जिनके साथ पूरे देश का आर्थिक, सामाजिक और लोकतांत्रिक आदि ढांचा अंतर्निहित है. लम्बे समय से इन दोनों व्यवस्थाओं के मध्य एक अंतर पसरा हुआ है, जो निरंतर बढ़ता भी जा रहा है. आज आवश्यकता है सही अर्थों में गांव और शहर को परिभाषित कर उनकी आधारभूत संरचनाओं को समझने की. गांव और शहर के मध्य कायम संघर्ष को भलीभांति परख कर उसके लिए बेहतर नीति निर्धारण कर उनका योजनाबद्ध क्रियान्वन करने की.

इस विषय की बारीकियों का उचित प्रकार से मंथन करने के लिए बैलेटबॉक्स इंडिया के द्वारा किसान और रूरल एक्सपर्ट्स, साइंटिस्ट्स, अर्बन प्लानर्स, सोशल साइंटिस्ट्स को मंत्रणा के लिए आमंत्रित किया गया, जिनमें राकेश प्रसाद ( सीनियर  रिसर्चर, बैलेटबॉक्स इंडिया), प्रेम सिंह जी (आवर्तनशील कृषि विशेषज्ञ, बुन्देलखंड), आनंद प्रकाश जी (शहरी नियोजन विशेषज्ञ), वेंकटेश दत्ता जी (नदी विशेषज्ञ और पर्यावरण वैज्ञानिक) एवं रमनकांत त्यागी जी (नदी विशेषज्ञ एवं निदेशक, नीर फाउंडेशन) ने विशेष रूप से अपना दृष्टिकोण हमारे साथ साझा किया.

प्रस्तुत हैं, इस चर्चा के केंद्रीय बिंदु ...

1. गांव और शहर का सही अर्थ एवं परिभाषा और इन दोनों के मध्य संबंधों की व्याख्या  -      

भारतीय परिप्रेक्ष्य में गांव और शहर दो ऐसी धुरियाँ हैं, जो एक दूसरे से गहनता से जुड़ी हुई हैं..परन्तु इसके बाद भी दोनों में बड़े पैमाने पर अंतर आ चुका है. जिसका अध्ययन व्यापक तौर पर किया जाना न केवल वर्तमान समय की आवश्यकता है, बल्कि भारत के भविष्य का निर्माण भी इस पर निर्भर है.

चर्चा में इस विषय पर सर्वप्रथम प्रेम सिंह जी ने प्रकाश डालते हुए अपना मंतव्य रखा:  

गाँव बनाम शहर - अर्थशाश्त्र, समाजशास्त्र और पॉलिटिक्स तीनो का सही भारतीय परिवेश ही गाँव और शहर के इस

यदि वैश्विक परिप्रेक्ष्य के अनुसार देखा जाये तो किसी भी देश में बहुत से समुदाय निवास करते हैं. जब कईं आर्थिक उपक्रमों को करने वाले समुदाय एक-दूसरे के साथ मिलकर सामाजिक न्याय एवं आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ रहते हैं, तो वह स्थान ग्राम है.

सभ्यता और असभ्यता के आधार पर ग्रामों और शहरों का विभाजन -

ग्रामों की यह व्यवस्था केवल भारत ही नहीं अपितु नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश में भी पाई जाती है, परन्तु ग्रामों को उचित ढंग से पूरे विश्व में कभी परिभाषित किया ही नहीं गया और जो ग्राम अभी विकासशील अवस्था में थे, इतिहासकारों द्वारा उनका अध्ययन करके उन्हें पिछड़ा कहा गया तथा बताया गया कि शहरों में नागरिक यानि सभ्य समाज रहता है. इस प्रकार सभ्यता और असभ्यता के आधार पर ग्राम और शहरों का विभाजन कर दिया गया.

बाज़ार ही शहर है -

शहर वह स्थान है, जहां एक बड़ी जनसंख्या के क्रियान्वन के लिए वृहद सत्ता निवास करती है और इतनी बड़ी जनसंख्या की पूर्ति के लिए बाज़ार की व्यवस्था की जाती है, उस बाज़ार का ही दूसरा नाम शहर है. यदि आज हम सारी दुनिया को उत्पादक एवं गैर-उत्पादक के रूप में बाँट दें, तो गैर-उत्पादक वर्ग शहर में केन्द्रित होकर उत्पादक वर्ग को नियंत्रित करने का कार्य करता है.

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इस प्रकार दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली सभी वस्तुएं जैसे, खाद्य पदार्थ, वस्त्रों के लिए कच्चा माल, गृह निर्माण में उपयुक्त सामग्री इत्यादि का उत्पादन ग्रामों में होता है, परन्तु उनके क्रिया-प्रणाली का नियंत्रण अपने लाभ के लिए शहरों के माध्यम से किया जाता है.

गांव वह स्थान है, जहां पर सम्पूर्ण विकास के साथ मनोवैज्ञानिक एवं आत्मिक तृप्ति तथा आर्थिक समृद्धि हो.

गांव एवं शहर के स्वरुप को समझाने के लिए रमन कांत जी ने अपना वक्तव्य रखते हुए कहा :  

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प्रकृति के सान्निध्य एवं परस्पर प्रेम भाव का आधार है ग्राम-संस्कृति -

गांवों का प्रकृति के साथ बेहद लगाव है, ग्रामीण अपनी मेहनत से अन्न, दूध, फल, सब्जियां इत्यादि उगाते हैं और हर वास्तु को आपस में साझा करते हैं, फिर चाहे वह खाद्य वस्तु हो, बीज-खाद हो, पशुधन हो या अन्य कोई वस्तु. सामूहिक उत्सवों में भी ग्रामवासी परस्पर सहयोग से मिलजुल कर कार्य करते हैं. इस तरह प्रेम-भाव की अनुभूति और प्रकृति के साथ जुड़ाव केवल गांवों में ही मिलता है.

यदि हमारे ग्राम समृद्ध हो जायें और वहां से पलायन रुक जाए तो देश आर्थिक रूप से समृद्ध होकर शक्तिशाली राष्ट्र बन सकता है. गांधी जी के अनुसार, “यह देश ग्रामों का देश है.”, वास्तव में हम शहरी देश नहीं हैं.

विभिन्न चक्रों में बंटा है शहरी जीवन -

यदि शहरों को देखा जाए, तो दो हिस्सों में शहरों को बांटा जा सकता है. एक, गांव के नजदीक बसे कस्बें, जो गांव से ही छोटे व्यापार शुरू कर बड़े व्यापार तक पहुंचे और प्रगति कर कस्बों के रूप में स्थापित हो गये; उदाहरण के लिए मेरठ. मेरठ में आधी से अधिक आबादी आस-पास के देहात की ही है.

दूसरा, दिल्ली या मुम्बई जैसे पुराने नगर हैं, जहां इन छोटे कस्बों से पुराने धनी लोग, बड़े बड़े व्यापारी आकर स्थापित हो गये. अंततः यह बड़े व्यापारी दिल्ली, मुम्बई आदि महानगरों से विदेशों में जाकर बस रहे हैं, इस प्रकार यह एक चक्र की तरह चल रहा है.

गांव से कस्बें, कस्बों से छोटे शहर, छोटे शहर से बड़े शहर और बड़े शहरों से विदेश, यानि एक पूरी प्रक्रिया चल रही है. जो पलटकर बेहद कम आ रही है, केवल कुछ ही लोग हैं, जो विदेशों या बड़े नगरों से गांवों का रुख कर रहे हैं. विशेषकर जिन्हें अपनी जमीन से आत्मिक जुडाव है, वें गांवों में कृषि, बागवानी या फिर समाज सेवा के उद्देश्य से वापस भी आते हैं.

कम हुई है ग्रामों की आर्थिक आत्मनिर्भरता -

यदि हम देखें कि शहर और गांवों के मध्य संबंध क्या है, तो पायेंगें कि वर्तमान व्यवस्था में यदि किसान को अपनी वस्तुएं (सब्जियां, फल, दूध आदि) बेचनी है, तो वे शहर की ओर रुख करते हैं और शहर उन्हें बदले में पैसा देता है.

पूर्व में गांव आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर नहीं थे, क्योंकि उनमें धन के प्रति लालसा नहीं थी. वस्तुओं के बदले वस्तुओं के आदान प्रदान या बेहद कम धन में उनकी आजीविका चल जाया करती थी. परन्तु आज उनकी आर्थिक समृद्धि का सबसे बड़ा आधार शहर बन गया है.  

वेंकटेश जी ने गांव और शहर के मध्य पसरी विभिन्न समस्याओं को समझाते हुए अपने विचार हमारे सम्मुख रखे..उनके अनुसार :

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गांव की संस्कृति में जो रिश्ता अथवा संबंध था, वह काफी महत्वपूर्ण आयाम है. जिस प्रकार हमें अपने शरीर, अपने संबंधों की समझ, उनकी पहचान है, उसी प्रकार जो संबंध हमारा गांवों के साथ जुड़ा था, वो शहरों के साथ नहीं है.

उदाहरण के लिए शहरों में सभी जानते हैं कि पानी हमारे लिए है, किन्तु हम पानी के लिए हैं या नहीं, यह शहरों में नहीं समझा जाता. वही चीज ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में देखें तो गांववासी सोचते हैं कि पानी हमारे लिए है और हम पानी के लिए हैं.

इस प्रकार एक संबंध हुआ करता था. यह सहजीवी संबंध हमारे और प्रकृति के बीच था, जिसे अभी भी गांवों में देखा जा सकता है, उसका भी क्षरण हुआ है.

दूसरा, सर्वहित की अवधारणा ग्रामों में रही है, कि हम जो भी करें वह सबके हित में हो और हम किसी भी संसाधन को अधिक उपयोग नहीं करे. इससे तात्पर्य यह है कि हमारा उत्पादन, हमारी खपत, सब कुछ प्रकृति के साथ जुड़ी हुई हो तथा एक दूसरे की सहायता का भाव हो.

नव-शहरीकरण की बढती प्रवृति -

परन्तु शहरों में देखें तो नव-शहरीकरण की एक अवधारणा आई है, उसमें जब हम समृद्धि की बात करें तो हम संसाधनों का प्रयोग अपने सम्मान, अभिमान को बढ़ाने के लिए करते हैं, उसमें दूसरों का हित कहीं नहीं जुड़ा है. यही स्वार्थी प्रवृति आगे बढती रहती है.

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जो हमारी एक समझ थी कि वस्तुओं से नहीं बल्कि हमारे सही जीवन-निर्वहन से सम्मान बढ़ता है, वह कहीं न कहीं समाप्त होती गयी. यह नव-शहरीकरण की अवधारणा पाश्चात्य संस्कृति की उपज थी.

यदि विनोबा भावे जी एवं गांधी जी के ग्रामस्वराज्य के मॉडल पर केवल सैद्धांतिक क्रियान्वन करने के स्थान पर सही मंथन किया गया होता, तो आज स्थिति अलग होती. यह मॉडल स्वयं में दीर्घकालिक एवं उत्पादक मॉडल था.

अत्याधिक आयात से प्रभावित स्थानीय मार्किट -

आज का खाद्यान्न से जुड़ा आंकड़ा देंखे तो हमारी एग्री फ़ूड पालिसी के अंतर्गत अधिकतर खाद्यान्नों का इम्पोर्ट बाहर से किया जा रहा है. मतलब हम ज्यादा से ज्यादा वस्तुएं विदेशों से मंगवा रहे हैं और यह आंकड़ा इतना अधिक है कि हमारे गांवों का आत्म-संवहनीय ढांचा ही गड़बड़ा गया है.

उदाहरण के तौर पर बुन्देलखंड को लें तो यह क्षेत्र भारत में “दालों के कटोरे” के नाम से जाना जाता था, परन्तु फिर भी हम एक अनुमान के अनुसार लगभग 50 लाख टन डालें बाहर से मंगवा रहे हैं.

करीब 130 लाख टन खाने वाला तेल भी हम बाहर से मंगवा रहे है. जहां एक ओर तो हम आयात कर रहे हैं, वहीँ दूसरी ओर निर्यात पर बहुत से प्रतिबंद्ध भी लगा रखे हैं.

इस तरह हमारे व्यापारी समझते हैं कि ऑस्ट्रेलिया से मंगाना सस्ता है बजाय स्थानीय उत्पादन के. आज स्थिति यह है कि बाज़ार किसानों के लिए समृद्धिशाली नहीं रह गया है.

उत्पादन एवं स्थानीय बाज़ार जो कहीं न कहीं गांव की आत्मनिर्भरता की प्रणाली थी, उस पर बेहद प्रभाव पड़ा है और शहरों को हमनें, हमारे अर्थशास्त्रियों ने ग्रोथ इंजन बताया, परन्तु इस ग्रोथ इंजन में ईधन कहाँ से आयेगा, यह किसी ने नहीं सोचा.

ग्राम और शहरों के मध्य बिगड़ता तालमेल -

भारत की कृषि का सम्पूर्ण बजट देंखें तो जितना बजट हम पूरी कृषि में इस्तेमाल करते थे, उससे तीन गुना अधिक हमारा आयात बिल है, जो हमारे लिए खतरे का संकेत है.

यदि यही पैसा हम अपने गांवों और किसानों पर लगा देते तो शायद हमारे किसानों की आमदनी और उत्पादन दोनों ही बढ़ते, किन्तु वर्ष 2010-11 से लेकर 2015-16 तक की समयावधि में केवल हमारा आयात बिल 150 प्रतिशत बढ़ा है.

गांव और शहर के मध्य जो एक तालमेल था, वह खराब हुआ है. शहर वाले ये सोच रहे हैं कि बाहर से आयात करके हम आराम से जीवन निर्वाह कर सकते हैं, यही मॉडल अमेरिका और यूरोप में हो रहा है. सोचने वाला तथ्य यह है कि अगर सब लोग यही करे तो हमारे लिए उपजाएगा कौन? क्या हम कंप्यूटर, मोबाइल आदि खाकर जिन्दा रह सकते हैं

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गांव बनाम शहर विषय पर किये गये अपने शोध के माध्यम से राकेश जी ने अपने वक्तव्य रखे..उन्होंने बताया :  

"रूखे नैना, सूखी अँखियाँ, धुंधला धुंधला सपना"

आज गांव की तरफ़ रुख करें तो यही सुनाई देता है,

और शहर आते ही शोर है कि

"छोटे छोटे पेग मार बेबी छोटे छोटे पेग मार"

जय जवान जय किसान के नारे से शुरू हुआ ये देश आज किसानों को दिल्ली की सीमा पर जवानों से लड़ते हुए देख रहा है.

मैं आज एक शहरी हूँ, मेरा परिवारयुद्ध के दौरान किसान से सेना का जवान बना और धीरे धीरे खेती किसानी से अलग, शहर की ओर आया, मैं वापस जाना ज़रूर चाहता हूँ, मगर वो बाद की बात है. मुद्दा ये हैं कि मैंने दोनों सिरों को कुछ नजदीक से देखा है.

भारत में आज बुंदेलखंड के खेत हों या गुजरात के, उत्तर प्रदेश या बिहार के आज बड़े संकट में हैं और वेंकटेश जी, रमन जी और प्रेम सिंह जी भी इस पर सहमत होंगे कि ज़िम्मेदार शहर ही हैं. शहर पानी खींच रहे हैं, प्रदूषण दे रहे हैं, तापमान इनकी वजह से भी बढ़ रहा है, स्मोग जो गांव और शहर नहीं देखता, आज इन्हीं के बिग बिलियन डे की उपज है. देश की संसद में, पालिसी, प्लानिंग बॉडी में आज कितने ही एक्टिव किसान होंगे, कास्तकार हैं और कितने शहरी, या हार्वर्ड वाले ये भी एक रिसर्च का विषय है.

सीधा सपाट सोचा जाये तो शहर भ्रष्ट, कपटी, स्वार्थी, घमंडी लोगों से भरा हुआ है और इनका हुक्का पानी बंद कर देना चाहिए.

मगर थोडा और सोचा जाये तो भारत के शहरों की शुरुआत आर्मी या एयरफोर्स के केंट की तरह हुई थी, आप सारे पुराने शहर देखें, स्मार्ट सिटी ना देखें तो पाएँगे ये सब सेना के गढ़ थे और उनके आस पास ही सब बसा. तो शास्त्री जी ने जय जवान जय किसान का नारा क्यों दिया?

इतिहास में थोडा और पीछे जाकर देखा जाये तो, रोम, स्पार्टा, दमस्कस, अपनी इंडस वैली यानि सिन्धु घाटी सभ्यता या साउथ में चोल साम्राज्य, श्रीराम की अयोध्या, रावण की लंका, मथुरा नगरी, द्वारका नगरी, हस्तिनापुर सब शहर थे और इनके चारो ओर गाँव. मिथिला नगरी के राजा जनक को भी हल चलाते हुए ही सीता जी मिली थी.

तो शहर तो हमेशा से हैं तो ये तो कोई बीमारी नहीं लगती, बल्कि एक समाज का अंग ही लगते हैं. तो आज ये विस्फोटक स्थिति क्यों नज़र आ रही है?

अब इतिहास को थोडा और खंगाला तो एक तस्वीर सामने आयी, जो कुछ हद तक आज क्या हो रहा है? उसके बारे में सन्दर्भ देती है.

इतिहास में गाँव ने संस्कृति दी है, त्यौहार दिए हैं, खाना दिया है, भारत भारत है, फ्रांस फ्रांस है केवल अपने गांवों की वजह से. गाँव समृद्धि के प्रतीक रहे हैं. किसानी का प्रतीक रहे हैं.

वही शहर हमेशा से एक राष्ट्र को स्टेबिलिटी देते हैं, सुरक्षा देते हैं. सिन्धु नदी में जब बाढ़ आती थी तो गाँव के लोग किले के अन्दर चले जाते थे, यूरोप में भी ठण्ड के समय किसान फसलें ले कर किले के अन्दर आ जाता था, स्पार्टा पर भी जब xerses की सेना चढ़ आई थी तो किले से सैनिक ही निकल कर मोर्चे पर खड़े थे. सिकंदर का आक्रमण या नादिर शाह इत्यादि सबने शहरों पर ही हमला किया.

बिर्लिन ने लन्दन पर ही बम बरसाए, अमेरिका ने हिरोशिमा नागासाकी पर ही.

आज यदि थोडा ध्यान से शहरों को देखा जाये तो दिखता है कि..

  • अगर मोटर गाड़ियाँ नहीं बनेंगी तो टैंक कैसे बनेंगे?
  • अगर कंक्रीट के घर नहीं बनेंगे तो कंक्रीट के बंकर कैसे बनेंगे?
  • हवाई जहाज़, एयर फ़ोर्स की ही प्रथम सीढ़ी है.
  • लोहा, सीमेंट, कंक्रीट, हथियार, ये सब शहर बिना मुमकिन नहीं.
  • गांधी जी के ग्राम स्वराज के सिद्धांत से जब हम कलाम के स्टील नीति की और आये तो उसके पीछे अंग्रेजों की कॉलोनी की सीख थी, जब सिर्फ बड़ी बंदूकों के बल पर अंग्रेज 45 ट्रिलियन डॉलर छीन ले गए और आज का जो गाँव बनाम शहर का संघर्ष सामने है, उसका बीज बो गए. विश्व युद्ध और उसके बाद वियतनाम था, जिसमें चालीस लाख किसानों और शहरियों को हवाई जहाजों से नेफाल्म बरसा कर भून दिया गया था और उसके बाद रेम्बो और जेम्स बांड की फ़िल्में बना कर करोड़ो कमा भी लिए.

गाँव बनाम शहर - अर्थशाश्त्र, समाजशास्त्र और पॉलिटिक्स तीनो का सही भारतीय परिवेश ही गाँव और शहर के इस

शहरों का मूल चरित्र ही करप्ट है, जो लगातार युद्ध की संस्कृति के ऊपर बना है, जहाँ लगातार राजनीति, जासूसी, सीमा पार के शहरों के हर तरह के बर्ताव की काट कैसे करें? इस तरह की बातों पर आधारित होता है.

मुद्दा यह है कि पहले शहर गाँव की महत्ता को समझते थे और संरक्षक होते थे और गाँव शहर को उसी तरह जीवित रखते थे, उत्तर में दिल्ली, पूर्व में कलकत्ता, दक्षिण में चेन्नई और पश्चिम में मुंबई ना हो तो बड़ी समस्या हो सकती है.

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मगर आज कुछ बड़ी फाल्ट लाइन खिंची हैं, जो इतिहास में भी हुई हैं और उनकी वजह से सभ्यताएँ ख़तम हुई हैं, मिस्त्र, इंडस वैली, रोम इत्यादि महाकाय शहर रहे हैं, जिनकी क्षमता आज के शहरों से कम नहीं थी, मगर आज इनको वैज्ञानिक ज़मीन से खोद खोद कर निकाल रहे हैं.

कहते हैं कि हड़प्पा की सडकों पर लोगों के अवशेष मिले हैं, जो ये बताते हैं कि कुछ बड़ी आपदा एकदम से आई और किसी को संभलने का मौका तक नहीं मिला.

रोम का भी यही हाल हुआ था, जब जर्मन ट्राइब्स, हून, गोथ्स, फ्रंक्स इत्यादि ने रोम को उलट पलट कर यूरोप को पांच सौ साल के डार्क एज में फेंक दिया था.

ऐसी स्थिति गाँव के अपनी आध्यात्मिकता से विमुख होने और शहरों के अपना नियंत्रण खो देने की वजह से हुआ.

2. गांव एवं शहर के मध्य संघर्ष कहाँ से, किस प्रकार शुरू हुआ? निरंतर मनन में रहने के बावजूद भी चीजों में बिखराव आने का क्या कारण रहा? आइये इस बिंदु पर अपने एक्सपर्ट पैनल का दृष्टिकोण जानते हैं.

गाँव बनाम शहर - अर्थशाश्त्र, समाजशास्त्र और पॉलिटिक्स तीनो का सही भारतीय परिवेश ही गाँव और शहर के इससर्वप्रथम प्रेम सिंह जी ने इस विषय पर अपना दृष्टिकोण साझा करते हुए कहा..

जितनी भी सभ्यताएं आती-जाती रही हैं, वें सभी हमारे सामने मृत अवस्था में पाई गयी और उनके खत्म होने का कारण उनका अत्याधिक वृद्धि करना रहा. समय उन्हीं को समाप्त करता है जो ओवर ग्रोथ कर जाते हैं.

बात यदि ग्रामीण प्रणाली के बारे में की जाये तो गांव की प्रवृति छोटी होती है, जब गांव बड़ा होने लगता है तो विकास की नई प्रणाली आरम्भ हो जाती है.

मात्र 2-4 जन से आरम्भ हुआ गांव पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ता चला जाता है और जैसे ही परिवारों की संख्या सैंकड़ों में पहुंचती है तो तालमेल बिगड़ना शुरू हो जाता है और एक नए गांव का निर्माण हो जाता है. इसी प्रकार पूरे देश में गांव विकसित हुए.

लैंड-सेटलमेंट एक्ट के नाम पर ग्राम्य-संस्कृति का दोहन -

हिंदुस्तान के परिप्रेक्ष्य में देखें तो लैंड सेटलमेंट एक्ट के नाम पर अंग्रजों ने बंगाल, बिहार आदि स्थानों पर जमीनों पर कब्जा करना आरम्भ कर दिया और इस तरह हमारे गांवों को तोड़ने की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी.

इस एक्ट के जरिये गांवों की व्यवस्था को प्रत्यक्ष रूप से प्रभवित किया गया, जो जमीनें पहले परिवारगत हुआ करती थी, उन्हें व्यक्तिगत कर दिया गया. पहले इन जमीनों पर सभी का अधिकार होता था, कभी भी किसी को भी ज़मीन दान या उपहार स्वरुप दे दी जाती थी.

उदाहरण के लिए कोई परिवार यदि गांव छोड़कर चला जाता था, तो उसकी ज़मीन गांव की ही संपति हो जाती थी. लैंड सेटलमेंट की व्यवस्था से पहले जब अंग्रेजों ने टैक्स एकत्रित किया तो वह करीब 9 लाख पौंड था, जो इस व्यवस्था के बाद बढ़कर तकरीबन 3 करोड़ पौंड तक जा पहुंचा. तब अंग्रेजों ने इस व्यवस्था से उत्साहित होकर कहीं महालवाडी, कहीं रेतवाडी और कहीं जमींदारी की प्रथाएं स्थापित कर दी.

बटाईदारी की व्यवस्था -

यानि इस व्यवस्था के जरिये निज लाभ के लिए अंग्रेजों ने आपस में गांवों को लडवाना शुरू किया और उसी एक्ट का क्रोध था, जो कहीं न कहीं 1857 की क्रांति के रूप में फूटा. जो सारे भारत के गांवों और किसानों के मध्य दिखाई दिया.

हमारा समाज कभी भी संसाधन विहीन नहीं था, वो मात्र दो टुकड़ों..भूमिहीन और पूंजीवाद में बंट कर रह गया था. वर्ष 1975 में बटाईदारी की व्यवस्था स्थापित हुई, जिसमें किसी का शोषण नहीं होता था.

देश के अलग अलग हिस्सों में भूमिस्वामी बटाईदारी के माध्यम से जमीन जोतने वाले को भी लाभ का हिस्सा दिया करते थे. परन्तु इसके बाद जैसे जैसे शहरी व्यवस्था बढ़ने लगी और लोगों को सस्ते बंधुआ मजदूरों की आवश्यकता होने लगी और इसके चलते भूमिहीन लोग गांव से शहर पलायन करने लगे.

इस तरह मजदूरों की संख्या, जो पहले नहीं के बराबर थी, वह निरंतर बढती चली गयी और उनका शोषण भी चालू हो गया.

ग्राम स्वराज्य की अवधारणा -

इसके उपरांत किसानों को लूटने के लिए पीडीएस सिस्टम लागु किया गया. यानि किसानों की वस्तुएं खरीदकर उन्हें गोदामों में भंडारण कर बेचे जाने की प्रक्रिया. इस तरह लगातार नए नए कानून बनाकर ग्रामों को तोड़ने का काम किया गया और आज भी हो रहा है.

यदि इन कानूनों को समाप्त कर दिया जाये तो गांवों को सही अर्थों में वह स्वतंत्रता और स्वायत्ता मिलेगी, जिसकी कामना स्वयं गांधी जी ने ग्राम स्वराज्य के अंतर्गत की थी. जेपी के सम्पूर्ण स्वराज की मांग के साथ भी हम किसान खड़े हो गये थे और वीपी सिंह जी के साथ भी किसानों ने अपने अधिकारों की मांग रखी थी.

गांव वाले हर समय स्वराज के लिए खड़े दिखेंगे, परन्तु हमारी संवैधानिक व्यवस्था के तहत हम कभी भी स्वराज नहीं अर्जित कर पाएंगे. जब तक नए सिरे से संविधान में स्वराज की परिभाषा को स्थापित नहीं किया जायगा तब तक किसानों को पूर्ण स्वराज नहीं मिल सकता.

किसानों को दिया जाये प्रतिनिधित्व -

आज तो शहरों की ओर पलायन की व्यवस्था है. इसका सम्पूर्ण अध्ययन करने पर आप देखेंगे कि हर गांव एक राष्ट्र की हैसियत रखता है. अंग्रेजों ने धीरे-धीरे क्रमबद्ध रूप से हमारे गांव और घरों पर कब्जा किया.

आज भले ही कहने के लिए लोकतंत्र है, परन्तु हम सब टूट चुके हैं और इसी के चलते शहरों का रुख करने के लिए विवश हैं. यहां तक कि शहरों को बचा पाने की भी कोई संभावना नहीं है, एक दिन यह शहरी संस्कृति ही विनाश का कारण भी बनेगी.

यदि वास्तविकता में देखा जाये तो अंग्रेजों की तो नीयत में खोट था, परन्तु आज तक हमारी सरकारों ने जटिल लोकतांत्रिक पैटर्न के चलते जो अनदेखी किसानहित में की, वह किसानों को पीछे धकेलने में अधिक सहायक सिद्ध हुई.

आज तक पदम् श्री पुरुस्कारों में किसानों का नामांकन नहीं किया जाता, संसद में भी किसानों का प्रतिनिधित्व ही नहीं है, किसानों का प्रतिनिधित्व देश भर में कहीं भी नहीं है.

देश के प्रतिष्ठित कृषि विद्यालयों में अथवा कृषि अनुसंधान केन्द्रों में उन अधिकारियों से नीतियां बनवाई जाती हैं, जिन्हें केवल कागजों पर कृषि की समझ है, जबकि वहां किसानों को होना चाहिए.

रमन कांत जी ने नदी के आस-पास एवं जैविक खेती से जुड़े अपने अनुभवों के आधार पर गांव एवं शहर के मध्य के संघर्षों एवं उनकी संरचना को स्पष्ट करते हुए कहा :

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किसानों पर किये गये नेशनल सैंपल सर्वे के आधार पर ज्ञात हुआ कि भारत में करीब 51 प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं. यदि सम्पूर्ण ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में देखें तो यदि गांव की किसानी, वहां की कृषि मजबूत नहीं होगी, तो ग्रामीण संरचना भी सुदृढ़ नहीं होगी.

जैसे जब कुछ लोगों ने हरियाणा से आकर दौराला ग्राम बसाया तो वें बैलगाड़ी से अकेले ही नहीं आए, बल्कि अपने साथ कुम्हार, लुहार, बढई, चर्मकार, ब्राहमण इत्यादि परिवारों को भी साथ लेकर चले, क्योंकि वे जानते थे कि इन सबकी आवश्यकता गांव में होगी. इस प्रकार ग्रामों की अपनी एक विशेष व्यवस्था है, जिसे कायम रखना आवश्यक है.

किसानों को बनाया जाये समृद्ध -

वर्तमान समय में यदि किसानों को समृद्ध नहीं बनाया गया, अगर किसानी को सशक्त नहीं किया गया, तो आने वाले समय में यह बड़ा खतरा होगा. वैश्विक परिद्रश्य की बात यदि करें तो पाएंगे कि कुछ वैश्विक मजबूरियों के चलते हम आज भी बाहर से वस्तुएं आयात कर रहे हैं, जबकि वह अपने देश में सुलभ है. उदाहरण के लिए हमारे देश में प्याज 20 रूपये किलो में उपलब्ध है, फिर भी पाकिस्तान से प्याज का आयात किया जा रहा है.

वरुण गांधी जी के द्वारा लिखी गयी पुस्तक “रूरल मेनीफेस्टो” के अंतर्गत किसानों से जुड़े इन खास मुद्दों को उठाने के लिए वरुण जी ने 11 राज्यों और 62 जिलों से करीब 80,000 किसानों से बात की है, जो वास्तव में एक बेहतरीन प्रयास है.

इस पुस्तक में समझाया है कि कैसे गांवों का स्वरुप बिगड़ता चला गया और कैसे उन्हें सुधारा जा सकता है. आज यदि किसानों को समृद्ध बनाना है, तो आयात को कम करके ईमानदारी से किसानों पर आर्थिक संसाधन लगाए जाने चाहिए.

अगर हमारे किसान, गांव समृद्ध होंगे तो देश मजबूत होगा, नहीं तो यूरोप, अमेरिका वाला मॉडल यहां भी जाएगा. यदि देश से पलायन रोकना है, तो सबसे पहले ग्रामों व किसानों को बचाना होगा.

नीति प्रबंधन के नजरिये से वेंकटेश जी ने गांव और शहर के बीच पसरे संघर्ष की तस्वीर रखते हुए अपने विचार प्रस्तुत किये, उन्होंने बताया :

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भारत में कहीं न कहीं नीति प्रबंधन की कमी रही है, हमनें बहुत से एक्ट बनाये, जिनमें गांव की संस्कृति और संवर्धन की समझ का भाव रहा. यदि एक्ट निर्माता चाहते तो गांव की जो संयुक्त संस्कृति है, उसके साथ मिलकर कार्य किया जा सकता था.

आज भी देखा जाये तो लैंड यूज़ एक्ट के अंतर्गत जो न्यू अर्बन पालिसी मॉडल है, उसमें कहीं भी गांव की समस्याओं को गंभीरता से नहीं लिया गया. इस तरह अर्बन पालिसी एवं रूरल डेवलपमेंट के मुद्दें पर एक अलगाव सा है, दोनों के मध्य एक बड़ी खाई है.

ग्रेड-1 भूमि के आवासीकरण पर लगे रोक -  

यदि शहरीकरण का मॉडल देखें तो एक अर्बन-कोर होता है, जहां लोग सबसे ज्यादा रहना पसंद करते हैं, इसके बाद कॉलोनी, पेरी-अर्बन क्षेत्र और ग्रामीण इलाके आते हैं..परन्तु इन सबके बीच खाद्य पदार्थों (फल, दूध, सब्जियां, अनाज आदि) का एकमात्र स्त्रोत गाँव ही है.

आज लैंड यूज़ एक्ट के अंतर्गत भ्रष्टाचार के कारण वर्ग-1 की कृषि भूमि को बेहद कम दामों पर बेच कर उसे आवासीय भूमि में परिवर्तित किया जा रहा है. जबकि इसके विपरीत बंजर भूमि या बेकार पड़ी भूमि को आवासीय भूमि में बदलना चाहिए था या फिर वर्ग-1 की भूमि पर इस प्रकार की फसलें लगाई जानी चाहिए थी कि उनकी बाज़ार में कीमत अधिक हो, जिससे स्वयं ही खरीदने वाला रुक जाता और चारागाह, तालाब आदि स्त्रोत बनते.

चकबंदी से बढती समस्याएं -

चकबंदी के बाद के माहौल को देखें तो पाएंगे कि जितनी भी ग्राम्य सम्पदा थी, सभी बिकती चली गयी और नतीजतन आज हमारे पास चारागाह भूमि तक का अभाव है. हमारे मवेशी सड़कों पर खुले आम घूम रहे हैं, उदाहरण के लिए बुन्देलखंड में अन्ना गायों की बढती समस्या इसी चकबंदी का परिणाम है.

इसी तरह से शहर और गांव की सीमाओं पर बने वन क्षेत्र का अधिग्रहण हो जाने से वन्य जीवों का भी प्राकृतिक रहवास समाप्त होता चला गया. पीलीभीत, लखीमपुर, शाहजहांपुर में जाकर देंखें तो जंगलों की कटाई इतने व्यापक स्तर पर हुई है कि वन्य जीव भी नहीं समझ पा रहे कि वें कहाँ जायें. जैसे टाइगर जो जंगलों में मिला करते थे, वो आज गन्ने के खेतों में मिल रहे हैं क्योंकि उनके हिस्से की भूमि हमने अधिग्रहण कर ली.

आयात-निर्यात के संतुलन से समाप्त होगा ग्रामों-शहरों का संघर्ष -

भारत के ग्रामों में पहले बहुत अधिक चीनी नहीं खाई जाती थी, परन्तु फिर शहरों से दबाव पड़ा कि अधिक चीनी चाहिए, तो न केवल गन्ना अधिक मात्रा में उगाया गया, बल्कि चीनी की खपत भी गांव में बढ़ गयी. साथ ही चीनी बाहर से मंगवाई भी जा रही है और सस्ता है तो एक्सपोर्ट भी किया जाएगा. इस प्रकार आयात-निर्यात के मध्य जो संतुलन है, वह भी हमारी भूमि से जुड़ा है.

हमारे अर्बन मॉडल में जो नीति निर्धारण के नियामक हैं, उनमें किसानों की बात को रखा जाना चाहिए और जो लैंड-प्रीमियर की सही कीमत निर्धारित की जनि चाहिए. यानि अर्बन पालिसी के अंतर्गत गांव की समस्याओं को गंभीरता से लेकर चलना चाहिए ताकि ग्रामों और शहरों के बीच एक अलगाव न हो.

एक शहरी नियोजन विशेषज्ञ होने के अपने अनुभवों से आनंद जी ने वैश्विक स्तर पर ग्रामों एवं शहरों के मध्य संबंधों की व्याख्या करते हुए कहा :

गांव के लिए स्वायत्ता की बात होना एक बेहद महत्त्वपूर्ण मुद्दा है, क्योंकि आज आज़ादी के इतने वर्ष बाद भी जो पंचायत-राज व्यवस्था है, वह आज भी अपने पूर्ण स्वरुप में नहीं देखी जा सकी है. देखा जाये तो गांव के संसाधनों पर ही अंततः शहरवाले फल-फूल रहे हैं.

वैश्विक स्तर पर बढ़ रहा है शहरीकरण -

आज चीन में देंखें तो पायेंगें कि वहां शहरों का विस्तार इतना अधिक बढ़ा है कि मीलों चलने पर भी गांव नजर नहीं आते. शहरीकरण की रफ़्तार चीन में अत्याधिक तीव्र है, जबकि भारत इस मामले में खुशकिस्मत रहा है कि यहां अभी तक ऐसा नहीं है. वैश्विक परिद्रश्य में देंखें तो भारत का शहरीकरण दर बाकी के एशियाई देशों के मुकाबले काफी कम है, जो एक सकारात्मक बिंदु है. भारत में जहां यह दर 30-32 प्रतिशत के आस पास है, वहीं चीन में यह दर 60 प्रतिशत के करीब है.

जीवन की गुणवत्ता के आधार पर तय हो ग्रामों-शहरों की परिभाषा -

यदि हम नगर नियोजन के मानकों के आधार पर ग्राम और शहर की परिभाषा देखें तो 5000 से ऊपर की आबादी वाला क्षेत्र, जहां पर 75 प्रतिशत से कम कृषि की जाती है, वह शहर की श्रेणी में आता है.परन्तु ध्यान देने वाली बात यह है कि क्या यह परिभाषा गांव को गांव तथा शहर को शहर बनाती है?

वास्तव में गांव और शहर की परिभाषा का आधार जीवन गुणवत्ता होना चाहिए, न कि एक सीमित जनसंख्या को कृषि के नजरिये से जोड़कर गांव या शहर में वर्गीकृत कर देना. क्या यदि शहर कृषि करें तो क्या वह गांव हो जाएगा?

नगर नियोजकों को जीवन की गुणवत्ता और साथ ही उत्पादन की खपत के आधार पर यह तय करना होगा कि शहर और गांवों में किस प्रकार विकास किया जाये. प्रति व्यक्ति के आधार पर विद्युत, खाद्य, जल खपत इत्यादि को लेकर नए पैमाने तैयार करने होंगे तब शायद यह ग्राम व शहरी संघर्ष कम हो सके.

भारत में ग्रामों और शहरों के बीच की फाल्ट-लाइन्स को समझने की दिशा में राकेश जी ने अग्रलिखित वक्तव्य सभी के सम्मुख रखा :

गाँव बनाम शहर - अर्थशाश्त्र, समाजशास्त्र और पॉलिटिक्स तीनो का सही भारतीय परिवेश ही गाँव और शहर के इस

किसी भी देश की सलामती और समृद्धि गाँव और शहर के एक बैलेंस पर टिकी हुई है.

इसी बैलेंस से जुडी जो पहली फाल्ट लाइन देखि जा सकती है, वह है अर्थशास्त्र.

जिसमे गाँव की किसानी, कास्तकारी की जगह शहरी सर्विसेज पर जोर. यानि हार्वर्ड इत्यादि का पश्चिमी मॉडल.

विश्व हमेशा से ही खेती और इससे जुडी अर्थव्यवस्था के मामले में दोराहे पर खड़ा रहा है, इतिहास में भी पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों का अंतर्द्वंद काफी साफ़ दिखाई देता है.

गाँव और शहर का बैलेंस, यानि कितने लोग किस तरह से रहें, उस ज़मीन पर निर्भर करता है. जैसे यूरोप मुख्यतः शहर ही हैं, वहीँ पूर्व के देशो में ज्यादातर किसानी रही है.

हमारी खेती संस्कृति के पीछे बड़े आसान से कारण हैं – तीन तरफ़ से समुद्र, चौथी तरफ़ हिमालय, मानसून की व्यवस्था, प्राकृतिक विविधता – यह सब कहीं और नहीं दिखाई पड़ता. वेद हों या आयुर्वेद, इसी सात्विक वातावरण को आधार बनाया है.

इस संस्कृति को ही सोने की चिड़िया कहा जाता था.

किसी भी देश का आध्यात्म, संस्कृति, सोच – उस ज़मीन के खाने और पानी से ही बनते हैं.

पश्चिम इस लिहाज़ से काफी अलग रहा है. मौसम और बारिश अप्रत्याशित होने की वजह से विस्तृत खेती संभव नहीं रही है.

मामला सीधा है, इंसान को सूर्य की शक्ति को अपनी शक्ति में बदलना है, या तो यह काम खेती से उगी फसलें करें या फिर जहाँ फसलें नहीं उगती, वहां जानवर घास को पचा कर इंसान के हज़म कर सकने लायक मीट तैयार करे. क्योंकि हम घास तो नहीं खा सकते.

अमेरिका में आज सिर्फ 1.6 प्रतिशत लोग ही खेती कर रहे हैं, उसका कारण भी इतिहास में हैं, मौसम और ज़मीन कठिन रहे है, यही कारण है कि मायन जैसी सभ्यता भी इस ज़मीन को नहीं विकसित कर पाई. मशीनी और सीमित खेती यहाँ की मज़बूरी है और इसी कारण से गाँव और शहर का बैलेंस भी, जहाँ ज्यादातर लोग सर्विसेज से जुड़े हैं.

भारत में प्राकृतिक खेती, किसानी और कास्तकारी,  एक सोच है, जिसने भारत के समाज को एक इकाई की तरह बाँध रखा है.  संस्कृति, क्लाइमेट, पेड़ पौधे, नदी, तालाब, आध्यात्म, रोज़मर्रा के जीने का तरीका, तीज त्यौहार, समाज का आत्मविश्वास, गौरव, स्वास्थ्य और संबल सब इससे जुड़ा हुआ है.

“कोस कोस पे बदले पानी पांच कोस पे वाणी”, के पीछे अति सूक्ष्म प्राकृतिक खेती और उससे जुड़े व्यवसाय है, जीने का तरीका है. ये दालें और हल्दी ही पूरे भारत को बांधती हैं और उनसे जुड़ा आध्यात्म ही हमें दिशा देता है.

एक बड़ी उम्र के अमेरिकी से मैंने पुछा कि भाई यह दूध कहाँ से आता है? तो वो बोला कि दुकान की शेल्फ़ से, इसके ऊपर मुझे न पता, ना जानना.

भारत आज जिस गलत दिशा में जा रहा है, वो पश्चिम की अर्थनीति को सीधे सीधे कॉपी कर लेने की वजह से हो रहा है. जो हमारी ज़मीन से मेल नहीं खाती.

ये अर्थव्यस्था क्या है? अगर अमेरिका का उदाहरण लें तो.

समाज के खाने पीने की पूरी व्यवस्था मशीनी कर दी जाए, यानि प्रोसेस्ड फ़ूड. पूरे देश में बड़े बड़े औद्योगिक खेत कर दिए जाएँ, फसलें कुछ 2-3 प्रकार की हों, हार्डी हों, जो फैक्ट्री में प्रोसेस की जा सकें.

पशु धन, जैसे मवेशी, सूअर इत्यादि का इस्तेमाल हो और जो भी वेस्ट बचें या घास उगे, उनको हज़म कर मीट का उत्पाद करने में किया जाए. पूरे देश में एक ही तरह का खान पान हो, ब्रेड और मीट(बर्गर) और इसी के आस पास के 2-3 प्रकार के प्री डाइजेस्टिड खाने का प्रचलन हो, जैसे :

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चीज़ - (मवेशी जब अप्राकृतिक खाद्य खा कर दूध दे, तो उसे “रेनेट” का इस्तेमाल कर पहले से पचा कर चीज़ बना दिया जाता है) ये पिज़्ज़ा इत्यादि में इस्तेमाल होता है, क्योंकि दूध सीधे पीने से अपच और लाक्टोस इनटॉलेरेंस हो जाता है.

ब्रेड – गेहूं में काफी ज्यादा ग्लूटेन होने की वजह से रोटी या बिना ख़मीर का उत्पाद नहीं बनाया जाता. ख़मीर उठा कर ब्रेड बनाया जाता है, जिससे आम जन पचा सकें.

कोका कोला – ये कठिन खाद्य पदार्थ पचाने के लिए उपयोगी होता है. कई तरह की शराब या अल्कोहल भी इस्तेमाल किए जा सकते हैं.

विटामिन की गोली – विटामिन की गोलियां सबको दी जाएँ.

अमेरिका कैंसर कैपिटल है और मोटापे, दिल की बीमारी में भी काफी आगे है.

बड़े बड़े अस्पताल खोल दिए जाएँ और भांति भांति की बीमारियाँ और उनके इलाज़ सुगम करवाना सरकारी प्राथमिकता करा दी जाएँ.

“सर्विसेज” अर्थशास्त्र को चलाते रहने के लिए नए नए युद्ध के अविष्कार किये जाएँ, बड़ी सेना बनायीं जाए.

इस सेना का इस्तेमाल कर के छोटे मोटे देशों को डराया धमकाया जाए, एक “ग्लोबलिस्ट” या वैश्विक व्यापार का माहौल बनाया जाए.

क्योंकि अब सब कुछ एक सा है, एक जैसे उत्पाद, एक जैसी समस्याएँ, एक जैसे लोग, सब कुछ ऑटोमेट कर के सारी मोनोपोली शक्तियां, कुछ 3-4 लोगों के हाथ में आ जाएँ.

जैसे वालमार्ट – अमेरिका की 42% से ज्यादा संपत्ति का मालिक है. दुनिया में 82% धन सिर्फ 1% लोगों के पास है.

इन सब को चलाने के लिए ज़बरदस्त पुलिस की व्यवस्था. बड़े बड़े व्यापार और मार्केटिंग के तारीके. उनके लिए खुले बड़े बड़े राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय संस्थान.

इस तरीके से रह रहे लोगों के प्राकृतिक स्वभाव, इत्यादि को दबाने के लिए चमक दमक, जुआ, शराब, इत्यादि का इस्तेमाल किया जाए.

इस एक गड्ढे को दूसरे गड्ढे से भरना, फिर उसमें से निकलने की पूरी प्रक्रिया को नाम दिया जाए जी. डी. पी. का. जिसकी परिभाषा इन्हीं देशों में बैठे कुछ लोग कंट्रोल करें.

आज अमेरिका में चार करोड़ लोग सड़क पर सोने को विवश हैं, बेघर हैं, अस्सी प्रतिशत लोग दिवालिया होने से बस एक बीमारी भर दूर हैं. शक्ति के कुछ मज़बूत और चमकदार केंद्र हैं, बड़ी बिल्डिंगे हैं, जो टेलीविज़न और फिल्मों में दिखा कर शक्ति का प्रचार किया जाता है.

जहाँ एक आदमी तीन तीन नौकरियां कर के भी बस किसी तरह काम ही चला पा रहा है, वहीँ दूसरा, पूरा का पूरा डबल डेकर बोईंग जहाज सिर्फ अपने लिए रखता है.

आज भारत में जो भी हो रहा है, जो पूरा कनफ्लिक्ट है, इसी अर्थव्यवस्था की वजह से है. भारत के शहर आज भी अपनी कॉलोनी के समय की पश्चिम सेवा संस्कृति से उबर नहीं पाए हैं और अपनी कोई सोच नहीं है, कोई आर्थिक नीति नहीं है, कोई शिक्षा नीति नहीं है, कोई संसाधन नीति नहीं है, कॉल सेंटर और एक्सपोर्ट के बल पर भीषण गति से भागता भारत का शहरीकरण भारतीय कृषि का काल है.

ईर्ष्या, द्वेष, घमंड, अति-उन्माद, उपभोग और शक्ति के नशे से भरे हुए भारत के शहर भारत के गाँव को रोंद रहे हैं. भारत के शहर भारत के लिए नहीं, मगर एक पश्चिमी सिस्टम का पार्ट ज्यादा बन गए हैं. जो अपने संरक्षित गाँव का अति शोषण कर दुनिया का पेट भर रहे हैं. ज्यादा से ज्यादा बिजली की ज़रुरत ने नदियों का बहाव रोक दिया है, सीवरेज, शहरी कचरा, अति दोहन गाँव की खेती को समाप्त कर रहे हैं.

3. यदि समस्या है तो निश्चित रूप से उसका समाधान भी होगा, इसी तथ्य पर गौर करते हुए गांव और शहरों के मध्य उभरा संघर्ष, बड़ा अंतर और संस्कृति का ह्रास, जो निरंतर गहराता जा रहा है, हमने एक्सपर्ट पैनल के माध्यम से समस्याओं को समझने का प्रयत्न किया तथा उनके निराकरण सम्बन्धी सुझाव भी हमारी विशेषज्ञ टीम द्वारा दिए गये, जिनका वर्णन इस सेक्शन में किया गया है.

गाँव बनाम शहर - अर्थशाश्त्र, समाजशास्त्र और पॉलिटिक्स तीनो का सही भारतीय परिवेश ही गाँव और शहर के इसकृषि एवं ग्रामीण क्षेत्र विशेषज्ञ प्रेम सिंह जी ने ग्राम्य एवं शहरी संस्करण के अंतर्गत वर्तमान की विस्फोटक स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए अग्रलिखित सुझाव रखे :

आर्थिक रूप से पूरा विश्व जिस मॉडल को फोलो कर रहा है उसके साथ सामाजिक एवं आर्थिक मॉडल को प्रोत्साहित करने के लिए राजनीतिक मॉडल को लाने की विचारधारा उपजी है. यदि वैश्विक परिद्रश्य में ग्रामों की तस्वीर बदलनी है तो सैद्धांतिक रूप से हमें सोचना होगा.

100 ग्रामों का स्वस्थ मॉडल तैयार किया जाये -  

जिसके अंतर्गत 100 परिवारों का एक गांव निर्मित करना होगा जिसमें आर्थिक आत्मनिर्भरता, सामाजिक संपर्क एवं उचित शिक्षा व न्याय व्यवस्था इन तीनों आयामों को बिना ऊर्जा खर्च किये तथा बिना पैसा खर्च किये उपलब्ध करा सके, ऐसा मॉडल संपूर्ण विश्व में विकसित करना होगा तभी हम एक स्थायी जीवन की बात कर सकते हैं.

आइडलस्टिक मॉडल के आधार पर मानसिकता निर्मित नहीं हो -

जितने भी आईडलस्टिक मॉडल हैं, जो मानते हैं कि धरती ईश्वर ने बनाई है और प्रलय से एक दिन समाप्त हो जाएगी या फिर बिग बेंग थ्योरी, जो कहती है कि पूरा संसार एक धमाके से समाप्त हो जाएगा..इन सभी सिद्धांतों को दरकिनार करना होगा और बुद्धिमत्ता से सोच कर एक स्थायी टिकाऊ मॉडल का निर्माण करना होगा.

किसानों का उत्पादन हो सरकार के नियंत्रण से मुक्त -  

किसानों के उत्पादन को किसानों के ही हवाले करना होगा, किसानों के उत्पादन पर सरकार या अन्य किसी मध्यस्थ का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए और यह व्यवस्था हमारे संविधान में स्थापित करनी होगी. जब तक किसानों द्वारा उत्पादित वस्तुओं पर किसानों का नियंत्रण न होकर सरकार का नियंत्रण रहेगा, तब तक ग्रामों का विकास नहीं हो सकता.

विदेशी विध्वंशक मॉडलों से ले सबक -  

जिस प्रकार अमेरिका जैसे पश्चिम देश हर 25-30 वर्षों के अंतराल में आर्थिक मंदी के दौर से गुजरते हैं, एक दिन हिंदुस्तान में भी यही दौर आ जायेगा. जैसे ही ग्रामीण संस्कृति का ह्रास होने लगेगा और आधी से अधिक आबादी शहरों में रहने लगेगी, तो यह छोटे-छोटे कास्तगार समाप्त हो जायेंगे, उस दिन हम भी मंदी के दौर से गुजरेंगे.

भारत में आज की शहरी समृद्धि का प्रमुख कारण किसान और उनके द्वारा उपजाए गए खाद्यान्न हैं. जिनका वर्ष भर का भण्डारण कर बाजार पर निर्भरता लगभग समाप्त कर दी जाती है, हमारे किसान बाज़ार पर निर्भर नहीं हैं. परन्तु किसानों पर लगातार किया जा रहा नियंत्रण इस व्यवस्था को भी धीरे-धीरे समाप्त कर रहा है.

ग्रामों एवं शहरों की परिभाषा की हो पुनर्स्थापना -

वैश्विक इतिहासकारों द्वारा ग्रामों को असभ्य एवं शहरों को सभ्य की श्रेणी में विभक्त किया गया है, जबकि वास्तव में यह नहीं है. यदि देखे तो ग्रामीण समाज खेतों में शौचालय जाकर भी प्रदूषण नहीं फैलाता, क्योंकि वह खेतों को खाद प्राप्त कराता है.

वहीँ शहरों में लोग अपने अपशिष्ट एवं सीवेज के माध्यम से नदियों को प्रदूषित कर रहे हैं, तो कौन सभ्य एवं कौन असभ्य? यह स्वयं ही देखा जा सकता है.

इस प्रकार वर्षों से स्थापित मानसिकता को बदलना होगा ताकि धरती को बचाया जा सके. साथ ही आर्थिक मॉडल में परिवर्तन करना होगा, उसके पीछे के दर्शन को समझना होगा तथा इसके बाद आवर्तनशील अर्थशास्त्र के आधार पर हमें अपनी सामाजिक और आर्थिक कामयाबी सिद्ध करनी होगी तभी हम एक स्थायी समाज और स्थायी पृथ्वी की बात कर सकते हैं.

गांव एवं शहर के लिए नीति निर्माण के संबंध में रमनकांत जी ने अपने शब्द प्रस्तुत करते हुए कहा :

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पलायन को रोकने के लिए प्रयास करे सरकार -

सर्वप्रथम नीति पलायनवादी सोच को रोकने की होनी चाहिए. आज मीडिया की चकाचौंध से प्रभावित होकर ग्रामीण युवा वर्ग शहरों की ओर पलायन कर रहा है. सरकार को इसे रोकने के लिए बहुत से संसाधन ग्रामों में ही उपलब्ध कराने चाहिए.

ग्रामों में उपलब्ध करायी जाये सुविधाएं -

कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवन देकर सरकार को नवयुवकों के लिए रोजगार के अवसर बढाने की दिशा में कार्य करना होगा. चिकित्सा, शिक्षा, बिजली, रोजगार आदि पर मुख्य रूप से ध्यान देकर भी यह पलायन रोका जा सकता है.

इससे ग्रामों में तो विकास होगा ही, साथ ही शहरों के ऊपर से अतिरिक्त दबाव भी समाप्त होगा.

शहरों से दबाव को करना होगा कम -

इस बढ़ते दबाव के नतीजतन आप देखेंगे कि आज दिल्ली के पास अपना पानी नहीं है, यदि हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश दिल्ली को पानी देना बंद कर दें तो यहां हाहाकार मच जाएगा और यह एक बार जाट आंदोलन के दौरान हो भी चुका हैं.

भविष्य में भी जिस प्रकार गंगा का पानी घटता जा रहा है और हरियाणा एवं यू.पी के गांव सिंचाई के लिए नहरों का प्रयोग करते हैं, तो आगे आने वाले समय में वें शहरों में पानी देने से मना भी कर सकते हैं.

इसीलिए ग्रामों से जवानी के पलायन को रोकना होगा, बाकी आध्यात्म, जीवन, जीने का तरीका तो गांव की समृधि के साथ साथ स्वयं ही बदल जाएगा.  

गांव और शहरों के मध्य समन्वय स्थापित करने के लिए वेंकटेश जी ने अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहा :

गाँव बनाम शहर - अर्थशाश्त्र, समाजशास्त्र और पॉलिटिक्स तीनो का सही भारतीय परिवेश ही गाँव और शहर के इस

सहअस्तित्व की अवधारणा को करना होगा पुनर्स्थापित –

पाश्चात्य मॉडल के थोपें गए सिद्धांतों के स्थान पर भारत को कुछ नए परिभाषा स्थापित करने की आवश्यकता है, जिनमें गांव की समझ जुड़ी हुई हो. ग्रामों से जुड़ी परस्पर समझ, जिसमें सहअस्तित्व, स्थानीय योग्यताएं, स्थानीय स्त्रोत आदि संलग्नित है.

शहरीकरण पर ध्यानकेन्द्रण के स्थान पर गांवों को प्रमुखता –

वर्ष 2005 से 2014 तक निरंतर हमारा ध्यान शहरीकरण पर रहा है, जिसमें हमनें अर्बन विकास नीतियों का निर्माण कर सारा ध्यान शहरों पर केन्द्रित कर दिया और वर्ष 2015 से स्मार्ट सिटी की अवधारणा का ईजाद हुआ.

इस प्रकार गांवों को देखा ही नहीं जा रहा है और एक प्रकार से बैकफुट पर रखा जा रहा है. ग्रामों का क्या होगा? कैसे उनका उत्पादन प्रभावित होगा? उनके संसाधन कैसे बचे रहेंगे? इन सब पर ध्यान देना होगा.

लैंड-यूज़ पालिसी का नियमन –

लैंड-यूज़ पालिसी के अंतर्गत सरकार को ध्यान देना होगा कि किसानों की कृषि योग्य भूमि, जिसे बिल्डरों को सस्ते दामों में बेच कर उन पर सिटी निर्माण कर हमारे किसानों से ही वहां मजदूरी एवं माता-बहनों से बर्तन-चौका कराया जा रहा है, यानि गांवों को अर्बन क्षेत्रों में बदलकर प्राकृतिक संसाधनों को खत्म किया जा रहा है. इस व्यवस्था को बदलना होगा.

जीडीपी ग्रोथ का कांसेप्ट बदला जाये –

जीडीपी की हमेशा ग्रोथ करने वाली अवधारणा में भी परिवर्तन लाना होगा. स्थानीय अर्थव्यवस्था एवं स्थानीय ससाधनों को दांव पर लगाकर जीडीपी ग्रोथ दिखाना उचित नहीं है. ये सभी संस्कृति को जोड़ने नहीं तोड़ने का कार्य कर रही है.

अभी भी समय बाकी है –

नीति प्रबंधन में आए लूपहोल्स को समझने के लिए अभी भी हमारे पास कुछ समय शेष है, हमारे पास बहुत अच्छी संरचनाएं हैं. आज भी स्थिति को यदि रिवर्स किया जाये तो स्थिति नियंत्रित की जा सकती है. हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था लगभग 68 प्रतिशत है, लोग खेती से जुड़े हैं. इसलिए उनके बारे में हमें नए सिरे से सोचना होगा.

हरित क्रांति के बाद से पेस्टीसाइडस और फ़र्टिलाइज़रस का प्रयोग अत्याधिक बढ़ा है, करीब 60-70 पेस्टीसाइड कंपनी हैं, जो 500 से अधिक उत्पादन बना कर बेच रही हैं. इस प्रकार यह पेस्टीसाइड 60 लाख टन से ऊपर जा चुका है, साथ ही इसका निर्यात भी किया जा रहा है और यह सोचने वाली बात है कि इतनी अधिक मात्रा में पेस्टीसाइडस कहाँ उपयोग किया जा रहा है? क्या वास्तव में हमें इसकी आवश्यकता थी? साथ ही जो फ़र्टिलाइज़रस बाहर से आ रहे हैं, उनकी क्या आवश्यकता थी?

समानता का मॉडल क्रियान्वित किया जा सके –

हालांकि मार्किट की अपनी एक अलग परिभाषा है, लाभ एवं उत्पादन बाज़ार का प्रथम लक्ष्य होता है, परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा समानता और समरूपता का एक मॉडल है, जो स्थायी व दीर्घकालिक विकास को ध्यान में रखकर बनाया गया है.

इस सामाजिक समानता के मॉडल को हमें लाभ, उत्पादन एवं तकनीकी समीकरण से परे रखना होगा. केवल तकनीक और समृद्धि से ही सब कुछ प्राप्त नहीं किया जा सकता, हमें गांव की अर्थव्यवस्था को भी सुदृढ़ कर नीति निर्धारण के अंतर्गत लाना होगा.

अर्बन प्लानिंग से जुड़े अपने अनुभवों के आधार पर आनंद जी ने नीति निर्धारण के संबंध में ग्रामों और शहरों के परिप्रेक्ष्य में अपना मंतव्य रखते हुए कहा :

गाँव बनाम शहर - अर्थशाश्त्र, समाजशास्त्र और पॉलिटिक्स तीनो का सही भारतीय परिवेश ही गाँव और शहर के इस

आज हमें देखना होगा कि जब हमारी लगभग 66 प्रतिशत आबादी कृषि से जुड़ी है और मात्र 24 फ़ीसदी आबादी कृषि से इतर उद्योग-धंधों या सर्विसेज से जुड़ी है, तो हमारा फोकस इन 66% लोगों पर होना चाहिए.

यदि बात तकनीक की की जाती है तो हमे यह समझना होगा कि हम तकनीकों की खपत करने वाले लोगों में से हैं न कि तकनीकों का नियंत्रण करने वाले लोगों में से. तकनीकों का नियंत्रण करने वाले तो सीमा पार बैठे हैं. यदि पालिसी के स्तर पर देखा जाये तो यदि भविष्य में कोई स्मार्ट सिटी बनाई जाती है, तो उसका रिमोट-कंट्रोल हमारे नहीं बल्कि विदेशी ताकतों के हाथों में होगा.

इस प्रकार हम एक किस्म की गुलामी की ओर ही बढ़ रहे हैं. इसलिए हमें अर्बन डेवलपमेंट के स्थान पर इन सभी चीजों को पुनर्स्थापित करके इन 66 प्रतिशत लोगों के जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाना होगा.

“गुरुकुल की प्राचीन परम्परा, जिसके अंतर्गत बड़े से बड़े राजा के पुत्र को भी सभी वैभव त्याग कर देखा के लिए वन जाना पड़ता था, ठीक उसी प्रकार उस परम्परा का पुनरावलोकन होना शायद समय की मांग है, आज शहरवालों को गांवों की ओर रुख कर गांवों को समझना होगा.”

वैश्विक परिद्रश्य को ध्यान में रखते हमें गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए बहुत से मॉडल पर काम करना होगा. इस तरह हमारा पूरा ध्यान 66 प्रतिशत आबादी को सुदृढ़ करने की ओर होना चाहिए.  

ग्रामों और शहरों को आपसी कनफ्लिक्ट से बचाए रखने की दिशा में राकेश जी के द्वारा सुझाये गये उपाय इस प्रकार हैं :

गाँव बनाम शहर - अर्थशाश्त्र, समाजशास्त्र और पॉलिटिक्स तीनो का सही भारतीय परिवेश ही गाँव और शहर के इस

क्लाइमेट चेंज और पेरिस एग्रीमेंट को ले कर फ़्रांस में दंगे हो रहे हैं, ट्रम्प जी ने एक तंज़ भरा ट्वीट किया कि,

“लगता है फ्रांस के लिए पेरिस का एग्रीमेंट रास नहीं आ रहा. इन दंगों का कारण है कि यूरोप के नागरिक इन तीसरी दुनिया के देश जो कि गलत तरीके से चल रहे हैं, कोई पैसा नहीं देना चाहते, पर्यावरण इत्यादि के लिए. इनको भी ट्रम्प चाहिए, फ्रांस के लोग कितने प्यारे हैं.”

गाँव बनाम शहर - अर्थशाश्त्र, समाजशास्त्र और पॉलिटिक्स तीनो का सही भारतीय परिवेश ही गाँव और शहर के इस

ट्रम्प जी ने भी आज बोल दिया कि ये तीसरी दुनिया के लोग गलत तरीके से चल रहे हैं और हमारे शहरों को और गाँव को भी ये समझना होगा कि अब शासन सुधारने का समय आ गया है.

पालिसी के स्तर पर निम्नलिखित सुझाव हैं, जो गाँव और शहर को एक दूसरे का पूरक बनाने में मदद करेंगे.

1. एक्सपोर्ट आधारित नीति –

शहर जहाँ प्राकृतिक और मानव संसाधन का सीधा इस्तेमाल पश्चिम के देशों की समृद्धि में कर रहे हैं, उसका निदान करना होगा. हमारी एनर्जी की जो डिमांड है उसको अंतर्मुखी और बहिर्मुखी में बाँटना होगा, और पालिसी स्तर पर एक कृषि, पानी, संस्कृति प्रथम के आधार पर हमारे फैक्ट्री प्रोडक्ट्स का ऑडिट करना होगा.

खेती किसानी में भी एक्सपोर्ट में पर्यावरण और संस्कृति के नुक्सान पर गौर देना होगा. फ़ूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री कोल्ड स्टोरेज और फ़ूड वेस्ट पर फोकस करे, न कि खेती का पूरा प्रकार ही बदल दे.

इसी तरह इंडस्ट्री में खेती प्रोडक्ट्स के इस्तेमाल पर कठिन क़ानून बनें, जैसे पेट्रोल में एथोनल के कानून ने पूरा गन्ना ही बदल दिया, कपास की खेती ने पंजाब का जो हाल किया, चावल परोक्ष तौर पर पानी का एक्सपोर्ट है. अति उत्पादन पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए.

2. जनमानस में बदलाव -

ये एक कठिन बदलाव है और इसमें आम जन के मानस में बदलाव चाहिए. एक बारीक बात पुराने गाँव और शहर के मामले में दिखी, और वो ये थी की, राजा के पुत्र गाँव और गुरुकुल में शिक्षा लेते थे, जिससे इनका जुड़ाव सीधा था.

भारत की शिक्षा व्यवस्था में किसानी और कास्तकारी मुख्य विषय बना दिए जाएँ. जैसे इंजीनियरिंग में कई विषय बेकार के हैं और उनका स्थान सीधे स्थानीय किसान के साथ मिल कर काम करना ले सकता है. हर युवा कम से कम 2 साल किसानी करे और पूरी तरह स्थानीय किसान के साथ जुड़े.

3. सर्विसेज से कृषि की ओर जाने पर भी दिया जाये ध्यान -

आज पूरा जोर कृषि से सर्विसेज में जाने पर है, इसके उलट भी अभियान होने चाहिए, जैसे अगर कोई सर्विस से कृषि में जाना चाहे तो कौशल विकास कार्यक्रम हों, खेती की ज़मीन लीज़ लेना आसान और सुरक्षित बनाना स्थानीय स्तर पर किया जाए, आज कानून कठिन हैं, इन्हें रिफार्म करने की ज़रुरत है.

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Fix the issue.

The team works transparently and systematically fixing the issue, building the leaders of tomorrow.

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जुड़ें और फॉलो करें

ज्यादा से ज्यादा जुड़े लोग, प्रतिभाशाली समन्वयकों एवं विशेषज्ञों को आकर्षित करेंगे , इस मुद्दे को एक पकड़ मिलेगी और तेज़ी से आगे बढ़ने में मदद ।

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संगठित हों

हमारे समन्वयक अपने साथ विशेषज्ञों को ले कर एक कार्य समूह का गठन करेंगे, और एक योज़नाबद्ध तरीके से काम करना सुरु करेंगे

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समाधान पायें

कार्य समूह पारदर्शिता एवं कुशलता के साथ समाधान की ओर क़दम बढ़ाएगा, साथ में ही समाज में से ही कुछ भविष्य के अधिनायकों को उभरने में सहायता करेगा।

How can you make a difference?

Do you care about this issue? Do You think a concrete action should be taken?Then Follow and Support this Research Action Group.Following will not only keep you updated on the latest, help voicing your opinions, and inspire our Coordinators & Experts. But will get you priority on our study tours, events, seminars, panels, courses and a lot more on the subject and beyond.

आप कैसे एक बेहतर समाज के निर्माण में अपना योगदान दे सकते हैं ?

क्या आप इस या इसी जैसे दूसरे मुद्दे से जुड़े हुए हैं, या प्रभावित हैं? क्या आपको लगता है इसपर कुछ कारगर कदम उठाने चाहिए ?तो नीचे फॉलो का बटन दबा कर समर्थन व्यक्त करें।इससे हम आपको समय पर अपडेट कर पाएंगे, और आपके विचार जान पाएंगे। ज्यादा से ज्यादा लोगों द्वारा फॉलो होने पर इस मुद्दे पर कार्यरत विशेषज्ञों एवं समन्वयकों का ना सिर्फ़ मनोबल बढ़ेगा, बल्कि हम आपको, अपने समय समय पर होने वाले शोध यात्राएं, सर्वे, सेमिनार्स, कार्यक्रम, तथा विषय एक्सपर्ट्स कोर्स इत्यादि में सम्मिलित कर पाएंगे।
Communities and Nations where citizens spend time exploring and nurturing their culture, processes, civil liberties and responsibilities. Have a well-researched voice on issues of systemic importance, are the one which flourish to become beacon of light for the world.
समाज एवं राष्ट्र, जहाँ लोग कुछ समय अपनी संस्कृति, सभ्यता, अधिकारों और जिम्मेदारियों को समझने एवं सँवारने में लगाते हैं। एक सोची समझी, जानी बूझी आवाज़ और समझ रखते हैं। वही देश संसार में विशिष्टता और प्रभुत्व स्थापित कर पाते हैं।
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अपने सोशल नेटवर्क पर शेयर करें

Every small step counts, share it across your friends and networks. You never know, the issue you care about, might find a champion.

हर छोटा बड़ा कदम मायने रखता है, अपने दोस्तों और जानकारों से ये मुद्दा साझा करें , क्या पता उन्ही में से कोई इस विषय का विशेषज्ञ निकल जाए।

Got few hours a week to do public good ?

Join the Research Action Group as a member or expert, work with right team and get funded. To know more contact a Coordinator with a little bit of details on your expertise and experiences.

क्या आपके पास कुछ समय सामजिक कार्य के लिए होता है ?

इस एक्शन ग्रुप के सहभागी बनें, एक सदस्य, विशेषज्ञ या समन्वयक की तरह जुड़ें । अधिक जानकारी के लिए समन्वयक से संपर्क करें और अपने बारे में बताएं।

Know someone who can help?
क्या आप किसी को जानते हैं, जो इस विषय पर कार्यरत हैं ?
Invite by emails.
ईमेल से आमंत्रित करें
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