विमुद्रीकरण का फैसला जिसे गोपनीय कहा गया वह वास्तव में गोपनीय था ही नहीं
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Swarntabh Kumar 110
वास्तव में नीचे दिए रिपोर्ट को देख कर यह पाता चलता है कि विमुद्रीकरण जिसे बेहद ही गोपनीय फैसला कहा गया था वह गोपनीय था ही नहीं. विमुद्रीकरण के फैसले के लगभग 15 दिन पहले दैनिक जागरण की यह रिपोर्ट वास्तव में सारी हकीकत बयान कर रही है. अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि जिस कालेधन को टारगेट बना कर विमुद्रीकरण का वार किया गया क्या वह सफल भी हो पाया? कहीं ऐसा तो नहीं बड़े लोगों को बचा कर आम लोगों के उपर ही कालेधन का सारा बोझ डाल दिया गया. 15 दिन पहले यह खबर आई तो यह कैसे संभव है कि कुछ और लोगों को इसके बारे में पाता ना रहा हो. सोचिए और पढ़िये यह रिपोर्ट.
विमद्रिकरण मुद्दे पर हम कई दिनों से रिसर्च इकठ्ठा कर रहे हैं, मगर जिस तरह से ख़ामियां और विसंगतियां सामने आती जा रही हैं वो ना सिर्फ़ इस मुद्दे मग़र एक बहुत बड़ी समस्या को उजागर कर रही है , वो है ज़िम्मेदारी और उसके द्वारा लगने वाली लग़ाम की है । आज़ क्या समाज सिर्फ चुनाव और उसके आस पास के आडम्बर के आस पास सिमट के रह गया है। अरे साहेब ये सब आरोप प्रधान मंत्री पर लग रहे हैं , लगाने वाले भी मुख्यमंत्री से ले कर प्रतिपक्ष के अधिपति हैं, अख़बार नवीस हैं मगर हो कुछ नहीं रहा है। आज संसद की, ऑन - रिकॉर्ड ऑफ रिकॉर्ड की कोई परवाह ही नहीं कर रहा , हर तरफ़ बस फेसबुक और ट्विटर मार्केटिंग चालू है।
क्या भारतीय समाज में वैचारिक, बौद्धिक, संस्थागत करप्शन इतना अंदर तक घुस गया है की बस हर मुद्दा वोट और टी आर पी से जुड़ गया है। लोग लाइन में लगे हैं, मर रहे हैं, खुलासे पर ख़ुलासे हो रहे हैं , भूकंप ले आने की बातें हो हैं, मगर फिर मीटिंग के बाद शांत हो जा रही हैं। संसद में दोनों पक्ष बोलते हैं की बात करना चाहते हैं , मगर ऐसा क्या हो जा रहा है की कोई बहस ही नहीं हो रही। फिर भी सब ऐसा चल रहा है की जैसे की बात ही नहीं हुई।
दोष यहाँ पर प्रधान मंत्री पर ही नहीं डाला जा सकता , प्रतिपक्ष का बर्ताव काफ़ी बचकाना, ग़ैर ज़िम्मेदाराना और सनसनी फ़ैलाने पर केंद्रित है। दूसरी तरफ सरकार भी जितना क़ानूनी ग्रे एरिया में खेल सकती है खेल रही है। आम आदमी बस एक वोटर या भुक्तभोगी बन के रह गया है, जो अपना ही तमाशा टीवी पर देख कर कभी ताली बजा रहा है, तो कभी रो रहा है।
इस पूरे मुद्दे में फायदा कुछ विदेशी वॉलेट कंपनियों, मीडिया चैनल्स या फिर कुछ विदेशी प्रोपेगंडा और पी. आर कंपनियों को मिल रहा है , आम आदमी जिसने पिछले साल बाढ़ , सुखाड़, स्मॉग, चिकुनगुनिया, डेंगू और फिर नोटबन्दी को देखा , आज फिर लाइन में लगा है।
ये देश कहाँ जा रहा है , ये सब कहाँ जा कर रुकेगा ? क्या कुछ किया जा सकता है ? क्या हम मिल कर कुछ कर सकते हैं ? ये मसला बोहोत बड़ा है और सही लोगों को साथ आना ही होगा। कृपया नीचे "कनेक्ट" का बटन दबा कर अपना समर्थन व्यक्त करें, और इस मुहीम से जुड़ें। याद रखें