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यूरोपियन उपनिवेश में अमेरिकन नरसंहार से बदला वैश्विक जलवायु का समीकरण – यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन का शोध

Indian Colonization and a $45 Trillion Fake-Narration - Tracking World Economics, Culture and Politics

Indian Colonization and a $45 Trillion Fake-Narration - Tracking World Economics, Culture and Politics Opinions & Updates

ByDeepika Chaudhary Deepika Chaudhary   Contributors Rakesh Prasad Rakesh Prasad 41

जब यूरोप अपने पुनर्जागरण के प्रारंभिक समय में था, अमेरिका के साम्राज्य में लगभग 60 मिलियन से अधिक की जनसंख्या का जमावड़ा हुआ करता था, किन्तु 1492 में यूरोपीय उपनिवेश का हिस्सा बना अमेरिका महामारियों, भुखमरी, वृहद् नरसंहार का शिकार हुआ, जिसने मूल आबादी को तबाह कर दिया. अमेरिका में कृषि के लिहाज से हुआ यह पतन इतना विनाशकारी था कि इसने वैश्विक जलवायु के समीकरण को ही बदल कर रख दिया और इसका नतीजा 16वीं सदी में आए "लिटिल आइस एज" (अल्प हिमयुग) के रूप में देखा गया.

जर्नल क्वाटर्नेरी साइंस रिव्यूज में प्रकाशित एक अध्ययन की गणना के अनुसार, यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने दक्षिण, मध्य और उत्तरी अमेरिका में शासन के लगभग 100 वर्षों में 56 मिलियन अमेरिकन मूल के लोगों की मृत्यु हुई, जो दुनिया की 10 प्रतिशत जनसंख्या के लगभग बराबर थे. जिससे बड़ी संख्या में कृषि योग्य भूमि निर्जन रह गयी और पुनर्वनरोपण अत्याधिक मात्रा में हुआ. अध्ययन के अनुसार, लगभग फ्रांस के आकार में एक क्षेत्र में वृक्षों और वनस्पतियों की बेतहाशा वृद्धि से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) की भारी कमी हुई, जो जलवायु परिवर्तन का कारण बनी.

शोधकर्ताओं ने पाया कि 1610 तक पृथ्वी को ठंडा करने के लिए कार्बन का परिवर्तित स्तर पर्याप्त था. अध्ययन के सह-लेखकों में से एक, यूसीएल भूगोल के प्रोफेसर मार्क मसलिन ने सीएनएन को बताया कि,

"वर्ष 1492 में कोलंबस के समय तक भी CO2 और जलवायु अपेक्षाकृत स्थिर थी. जिसके बाद पृथ्वी की ग्रीनहाउस गैसों में होने वाला यह पहला बड़ा बदलाव है. यदि हम एक बार केलिए सभी कारणों को संतुलित कर अध्ययन करें और अनुभव करें कि लिटिल आइस एज क्यों इतना प्रचंड था...तो पाएंगे कि इसका कारण लाखों लोगों का नरसंहार था."

जब यूरोप अपने
पुनर्जागरण के प्रारंभिक समय में था, अमेरिका के साम्राज्य में
लगभग 60 मिलियन से अधिक की

हालाँकि इस अध्ययन से पूर्व कुछ वैज्ञानिकों ने 1600 के दशक में तापमान परिवर्तन, जिसे "लिटिल आइस एज" कहा गया था, के पीछे तर्क दिया था कि यह केवल प्राकृतिक बलों के कारण हुआ था.

परन्तु पुरातात्विक साक्ष्यों, ऐतिहासिक डेटा और अंटार्कटिक की बर्फ में पाए गए कार्बन के विश्लेषण के संयोजन से, यूसीएल के शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया कि

"किस प्रकार वनीकरण, जो यूरोपीय लोगों के आगमन के कारण प्रत्यक्ष रूप से बढ़ा था, वैश्विक ठंड का एक प्रमुख घटक बना."

लिटिल आइस एज यानि अल्प हिमयुग

लिटिल आइस एज शीतलन की वह अवधि थी, जो मध्यकालीन गर्म अवधि के बाद उत्पन्न हुई थी. हालांकि यह वास्तविक हिमयुग नहीं कहा जा सकता है. सर्वप्रथम यह शब्द वर्ष 1939 में फ्रांस्वा ई मैथेस द्वारा वैज्ञानिक साहित्य में पेश किया गया था, जो परंपरागत रूप से 16वीं से लगभग 18वीं शताब्दी तक फैली एक अवधि के रूप में परिभाषित किया गया. इस अवधि के दौरान तापमान में आई भारी गिरावट से लंदन में टेम्स नदी नियमित रूप से जम गयी थी, पुर्तगाल में बर्फ के तूफान आम थे और कृषि बाधित होने से कई यूरोपीय देशों में अकाल पड़ा.

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जब यूरोप अपने
पुनर्जागरण के प्रारंभिक समय में था, अमेरिका के साम्राज्य में
लगभग 60 मिलियन से अधिक की

PIC SOURCE - Frozen thames in 1610 due to Little Ice Age Period.

इसके सम्भावित कारणों में सौर विकिरण में चक्रीय परिवर्तन, ज्वालामुखी गतिविधियां, समुद्र के परिसंचरण में परिवर्तन, पृथ्वी की कक्षा में बदलाव और अक्षीय झुकाव, वैश्विक जलवायु में अंतर्निहित परिवर्तनशीलता और मानवीय आबादी में निरंतर घटाव, जिसमें अमेरिकन उपनिवेशीकरण के दौर में हुआ नरसंहार मुख्य रूप से शामिल किया गया है.

जलवायु परिवर्तन के वैश्विक परिणाम

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व्यापक पैमाने पर हुई इस मानवीय त्रासदी का सीधा मतलब यह था कि खेतों और जंगलों का प्रबंधन करने के लिए पर्याप्त श्रमिक बचे ही नहीं थे और मानवीय हस्तक्षेप के अभाव में सभी परिदृश्य अपनी प्राकृतिक संरचना में लौट आए. परिणामस्वरुप, वातावरण से कार्बन अवशोषित हो गया. प्राकृतिक आवास की इस पुन: वृद्धि की सीमा इतनी विशाल थी कि इसने पृथ्वी को "लिटिल आइस एज" की ओर अग्रसर कर दिया.

जब यूरोप अपने
पुनर्जागरण के प्रारंभिक समय में था, अमेरिका के साम्राज्य में
लगभग 60 मिलियन से अधिक की

PIC SOURCE - How temperature drops down during 16th century.

निरंतर घटते तापमान ने कार्बन चक्र में प्रतिपुष्टि को प्रेरित किया जिससे वातावरण में कार्बन डाईआक्साइड का स्तर और अधिक गिरता चलता गया..उदाहरण के लिए उक्त समय मिट्टी से बेहद अल्प सीओ 2 निकला. अंटार्कटिक बर्फ के विशलेषण में देखा गया कि 1610 में CO₂ में भारी गिरावट हुई. इस अवधि के दौरान, यूरोप से लेकर जापान तक भयंकर सर्दी और गर्मियों में ठंड के चलते अकाल और विद्रोह देखे गए.

अध्ययन पद्धति में शामिल तकनीकें

शोधकर्ताओं द्वारा अंटार्कटिक बर्फ का विशलेषण किया गया और चूंकि बर्फ वायुमंडलीय गैस को समाहित करती है और उजागर कर सकती है कि सदियों पूर्व वातावरण में कितनी कार्बन डाईआक्साइड मौजूद थी, जिससे ज्ञात हुआ कि 16वीं शताब्दी में कार्बन डाईआक्साइड का स्तर तकरीबन 7-10 पीपीएम तक गिर गया था, नतीजतन वातावरणीय तापमान 0.15 डिग्री सेल्सियस तक कम हो गया.

अध्ययन के प्रमुख लेखक अलेक्जेंडर कोच ने कहा,

"बर्फ के अंतर्भाग का अध्ययन कर पाया गया है कि 1610 में कार्बन डाईआक्साइड में भारी गिरावट दर्ज की गयी, जो भूमि के कारण थी, ना कि महासागरों के कारण, 16वीं सदी में तापमान में लगभग बड़ा बदलाव अत्याधिक ठंडी सर्दियों, ठंडे ग्रीष्मकाल और फसलों की बर्बादी का कारण बना."
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इसके साथ ही शोधकर्ताओं ने गणना की, कि स्थानीय लोगों को कितनी भूमि की आवश्यकता थी और कितनी भूमि बाद में अनुपयोगी रूप से छोड़ दी गयी. आंकलन के परिणामस्वरुप लगभग 55 मीटर हेक्टेयर कृषि क्षेत्र यानि फ्रांस के बराबर का क्षेत्र खाली हो गया और कार्बन डाइऑक्साइड-अवशोषित वनस्पति द्वारा पुन: यह क्षेत्र अधिग्रहित कर लिया गया.

उपनिवेशवाद से उन्नत हुई यूरोप की अर्थव्यवस्था

अध्ययन के परिणामस्वरुप न केवल जलवायु विज्ञान बल्कि भूगोल और इतिहास संबंधित शोधों में भी सहायता मिली है. प्रो. मैसलिन के अनुसार, स्थानीय अमेरिकन जनता की मृत्यु ने प्रत्यक्ष तौर पर यूरोपियन अर्थव्यवस्था की प्रगति में भागीदारी की. 

अमेरिकन कॉलोनियों से सींचे गए प्राकृतिक संसाधनों और भोजन ने यूरोप की आबादी के विस्तार में सहायता की. इसने यूरोपियन लोगों को जीविकापार्जन के लिए खेती बंद कर अन्य उद्योगों में अतिरिक्त धन के लिए काम करना शुरू कर दिया. अमेरिकी निर्वासन से अनजाने में ही सही परन्तु औद्योगिक क्रांति में विस्तार कर यूरोप को विश्व में अपना वर्चस्व बनाए रखने में अहम भूमिका निभाई.

भारत से भी ब्रिटेन द्वारा तकरीबन 45 ट्रिलियन डॉलर लूटे गए थे, जिसका दुष्प्रभाव आज तक भारतीय अर्थव्यवस्था, राजनीति, समाज इत्यादि पर देखा जा सकता है.

वर्तमान सन्दर्भ में इस घटना का विशलेषण –

अमेरिकन नरसंहार से उपजी स्थिति को यदि वैश्विक जलवायु को अस्थिर करने वाले घटक के रूप में देखा जाये और इसे वर्तमान के सन्दर्भ में रख कर देखें तो पाएंगे कि आज धरती पर इस घटना का ठीक विपरीत हो रहा है..यानि कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन निरंतर बढ़ता ही जा रहा है. बढ़ते औद्योगिक प्रदूषण ने ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा देकर ग्रीनहाउस गैसों को लगातार बढ़ाया है, जिससे तापमान में निरंतर परिवर्तन देखे जा रहे हैं.

जब यूरोप अपने
पुनर्जागरण के प्रारंभिक समय में था, अमेरिका के साम्राज्य में
लगभग 60 मिलियन से अधिक की

Photo by Mat Reding on Unsplash

आज देश-विदेश में हर मौसम अपने चरम पर जाकर अपना भयावह रूप दिखाने पर आमादा है, पोलर वोर्टेक्स, मई, 2018 में उत्तर भारत में आए तूफान और भीषण गर्मी से झुलसता ऑस्ट्रेलिया आदि मौसम के इसी पलटवार के उदाहरण के रूप में देखे जा सकते हैं. यदि इतिहास में हुई गलतियों को देख परख कर भी आज हम नहीं जागे तो हो सकता है भविष्य में मौसम के अधिक भयंकर स्वरुप देखने को मिलें.   

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