एक अंग्रेज इतिहासकार ने सवाल पूछा कि क्या गांधी जी के सामने अंग्रेज़ी
कैथोलिक सेना की जगह इवैंजेलिकल सेना होती या इस्लामिक सेना होती या हिटलर की
आर्यन सेना होती तो क्या उनकी रणनीति वही असहयोग और स्वराज वाली होती.
परमेश्वर और इंसान के संबंध को दर्शाती, इन चार सदियों से युद्धरत विचारों के नजरिये
से देखें, तो बात में काफी वज़न है.
तो क्या जब पंद्रहवी शताब्दी में इंग्लैंड की महारानी मैरी, जिन्हें ब्लडी
मैरी भी कहा जाता है, ने इंग्लैंड में कैथोलिक धर्म के प्रसार में हज़ारों
“हेरेटिक्स” यानि विधर्मियों को जिंदा जलाया था या जब 700वीं शताब्दी में जर्मन
राजा चर्लेस्मागने (Charles Magne) ने एक मिडिल ईस्टर्न यहूदी के रूप में जन्में
ईश्वर पुत्र जीसस क्राइस्ट के विचारों को यूरोप का मुख्य धर्म, राज शक्ति के बल पर
बनवाया. उसका असर गांधी जी की रणनीति पर पड़ा.
श्रोत - विकिपीडिया - मैरी टोडर (ब्लडी मैरी)
अगर अल अन्दुलस यानि स्पेन के रास्ते यूरोपियन जिहाद पर निकले तारीक और मूसा, दमस्कस के खलीफ़ा के दिए सीधे आदेशों की अनसुनी
कर के स्पेन में समय नहीं बर्बाद करते और सीधे इस्ताम्बुल जो कि क्रिस्चियन गढ़ था,
पर हमला करते, तो आज यूरोप का धर्म इस्लाम होता. तो क्या गाँधी की रणनीति दो
अरबजनरलों की 700वी सदी में की गयी अनुशासन हीनता से पूरी तरह बदल गयी.
और साथ ही दुनिया की आज की तस्वीर भी.
क्या द्वितीय विश्व युद्ध नहीं होता? अगर जर्मन लोगों ने मिडिल ईस्ट से उपजे
धर्म सिद्धांत से थोडा आगे बढ़ कर कृष्ण की गीता उठा ली होती और आर्य अनार्य की
परिभाषा जो कृष्ण ने पहले दो पन्नों में ही कर्म आधारित कर दी है उसे अपनाया होता.
हिटलर जिसने, आर्य सभ्यता और स्वस्तिका को जर्मन लोगों के ऊंचे कुल की परिभाषा
बताया और चढ़ आया, इससे दुनिया बच सकती थी.
आज दुनिया में जो हो रहा है वो पहले भी हो चुका है और इसके बीज इतिहास में
हैं. कई छोटी बढ़ी घटनाएँ, युद्ध, नीतियां, फैसले इतिहास की दिशा बदल
देते हैं और इन समीकरणों के बीच हैं, दुनिया की और उस समय एवं स्थान की संस्कृति, अध्यात्म और धर्म.
रोम ले लें या मिस्र (Egypt) या यहूदि, जब भी किसी
समाज के लोग इन तीन मापदंडों से उलट काम करते हैं, सभ्यताएँ समाप्त हो जाती हैं या
लम्बी गुलामी को प्राप्त होती हैं.
भारत के सन्दर्भ में इनको समझने के लिए यह समझ लें कि यूरोप और अमेरिका के अगर
कोई नेता, अभिनेता खड़ा होता है तो लोग पूछते हैं कि इनका चर्च कौन सा है? सेनेट और
कांग्रेस के बड़े नेता, ओबामा हों या मीच मेकाउनेल, सन्डे सर्विस के दौरान चर्च में
बच्चों और बड़ों को अध्यात्म सिखाते हैं, अमेरिका प्रोटेस्टेंट सोच जनित अध्यात्म
और उससे उपजे धर्म पर आधारित है और इनकी संस्कृति यूरोपियन है.
वहीँ यूरोप - यूरोपियन संस्कृति, क्राइस्ट के कैथोलिक सिद्धांतो पर आधारित
अध्यात्म और उससे उपजे धर्म पर आधारित है. यहाँ भी जनता, नेता, अभिनेता इन्हीं मानदंडों
को आधार कर कर्म करते हैं.
चीन को देखें तो वहां के लोग कनफ़्युसियस के सिद्धांतो पर चलते हैं और नेता
बाकायदा इनकी ट्रेनिंग पाते हैं, उसके बिना कोई चारा नहीं है.
अगर संस्कृति, अध्यात्म और धर्म एक राष्ट्र की दिशा देते हैं और अगर इन
तीनों की दिशा सही हो तो नेतृत्व में बदलाव जितना भी आये, देश व समाज सुरक्षित
रहता है.
हमारे पिछले कार्यक्रमों को देखें तो -
आज हमारे नेता, अभिनेता सेल्फी टॉप करने के लिए कतार लगा कर खड़े हैं. अमिताभ
बच्चन एक तरफ़ बिग बिलियन में अति उन्माद और उपभोक्तावाद बेचते हैं, वही दूसरी तरफ़ अगर बुलाओ
तो सफ़ेद कुरता पहन कर नदी बचाओ पर भाषण भी दे आते हैं.
हम अपनी नदियों को मार रहे हैं, गंगा पर बाँध बना कर गंगत्व खत्म कर रहे हैं,
कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को कॉल सेण्टर आधारित कर रहे हैं.
किसान खेती छोड़ कर उबर में गाडी चलाये तो विकास हुआ माना जाता है.
हिंदुस्तान अपनी संस्कृति, अध्यात्म और धर्म से परे कभी चीन बनना चाहता है तो
कभी अमेरिका.
हमारी अर्थव्यस्था इधर उधर की कॉपी है, हमारा समाज आज जिससे भी पूछो बोलता है,
बस टिप्पिंग पॉइंट है और पॉलिटिक्स कंफ्यूज, बस आपसी विवाद में उलझी है.
तो क्या है भारत की संस्कृति, अध्यात्म और धर्म, आइए इसपर चर्चा शुरू करते
हैं.
हमारी आज की चर्चा में हमारे साथ जुडें हैं कृषा. कॉम के एडिटर-इन-चीफ श्री
विवेक शर्मा, रेडियोलाजिस्ट डॉ. अमित पाठक, समग्र शहरी
डिजाइन विशेषज्ञ श्री आनंद प्रकाश, सामाजिक वैज्ञानिक आचार्य चंद्रभूषण तिवारी तथा
सामाजिक नवप्रवर्तक एवं बैलेटबॉक्स इंडिया के संस्थापक श्री राकेश प्रसाद. जिनसे
हम भारतीय धर्म, अध्यात्म एवं संस्कृति से जुड़े विभिन्न पहलुओं के बारे में जानने
का प्रयास करेंगे.
भाग 1 - भारत की संस्कृति, अध्यात्म और धर्म
का अर्थ एवं परिभाषा :
भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिक विचारधारा को सिद्धांत रूप
में आगे बढ़ाने का कार्य कर रहे श्री विवेक शर्मा जी ने संस्कृति, धर्म और
अध्यात्म को परिभाषित करते हुए बताया –
धर्म के अंतर्गत विकृति आवश्यक है -
धर्म के आक्रामक रूप को विकृति माना गया है,
परन्तु यह विकृति
भी आवश्यक है, संस्कृति लाने में. बिना नकारत्मकता के सकारात्मक
नहीं हो सकते जैसे समुद्र में तरंग उठती है अक्रामक रूप में मगर फिर शांत हो जाती
है. तो इन दोनों को ही स्वीकृत करना होगा तथा पहले जानना होगा कि धर्म क्या है?
वैज्ञानिक तौर पर
हमारे ऋषियों ने धर्म के बारे में क्या कहा है?
एक सुप्रसिद्ध ऋषि वचन है.. धारयति इति धर्मा,
यानि जिसे धारण
किया जाता है, उसे धर्म कहते हैं. लेकिन धारण तो हम वस्त्र भी
करते हैं, विचार को भी हम धारण करते हैं और जो भी हम धारण
करते हैं, उसे उतारा भी जा सकता है.
जिस विचार को हम धारण करते हैं, उसे अभिव्यक्त
करें पूर्ण रूप से..तो वह धर्म है और इस अभिव्यक्तिकरण के पूरा होने को हम
संस्कृति कहते हैं. यह एक मूलभूत प्रक्रिया है, जिसे आप इस्लाम
धर्म, ईसाई धर्म और यहां तक के हमारे ऋषि धर्म में भी
यही है.
सकारात्मक विचारों को धारण कर अभिव्यक्त करना धर्म है -
धर्म को अक्सर लोग किसी संप्रदाय की संस्कृति से मानकर चलते
हैं और इस प्रकार हम गलती कर बैठते हैं. मूल रूप से धर्म किसी भी सकारात्मक एवं
विकासोन्मुख विचार को धारण करके उसको अभिव्यक्त करना.
धर्म की पूरी परिभाषा भगवान कृष्ण ने गीता में कही है. गीता
के अध्याय तीन में अंतिम श्लोक में यह बात कही गयी है कि हमारे शरीर का एक विशेष
अनुक्रम है, जिसमें बुद्धि सबसे ऊपर,
फिर मन,
फिर इन्द्रियां
एवं फिर शरीर होता है.
धर्म को उन्होंने स्वधर्म की परिभाषा से बताया है, हर व्यक्ति की
विचार धारण करने की एवं अभिव्यक्त करने की एक क्षमता होती है. संस्कृति जब होती है,
जब हम बुद्धि,
मन,
इन्द्रियों और
शरीर से अपने विचारों को अभिव्यक्ति देते हैं, तब संस्कृति होती
है और सभी धर्मों में यह समान है और इसमें विकृति तब आती है, जब हम इसे एक रूप में व्यक्त करते हैं तो धर्म में विकृति
आ जाती है, जैसे दैहिक रूप से या मानसिक रूप से कर दें तो
विकृति आ जाती है.
आत्म-अनुशासन से दूर की जा सकती है विकृति -
संतुलन का खो जाना विकृति है. आक्रामक धर्म और राजनीति
विकृति है और यह विकृति सिर्फ भगवान कृष्ण के बताए अनुशासन से,
जो अपने आप में
वैज्ञानिक है, उससे दूर की जा सकती है. केवल विवाद करने से ही
फायदा नहीं होगा.
समाधान का अर्थ मात्र हल करना नहीं होता है,
अपितु विरोध में
जो नकारात्मक कदम उठा है, उसके समान कदम
रखकर सही बात को पुरजोर ताकत से उसको अभिव्यक्त करे, तो वह समाधान
कहलाता है.
हिन्दू धर्म “धर्म” नहीं अपितु “संस्कृति” है -
हिन्दू संस्कृति को हिन्दू धर्म न कहकर संस्कृति कहा जाये,
अपितु सभी धर्मों
को संस्कृति कहा जाना चाहिए. यदि वह अनुशासन में हो रही है तो संस्कृति है और यदि
उसमें विकृति है, तो वह धर्म नहीं है, हमें उसका समाना
करना है. विकृति से हमे भागना नहीं है, जैसा कि श्री
कृष्ण ने गीता में उपदेश दिया है कि,
युद्धस्य विगतज्वरह् अथार्त श्री
कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि तुम्हें युद्ध करना है,
उससे भागना नहीं
है. क्योंकि विकृति दुर्योधन के रूप में अर्जुन के सामने आई थी,
जिससे वह भाग रहा
था, परन्तु उपदेश के उपरांत उसने इनका सामना किया. इसी तरह
हमारे युवाओं के सामने भी बड़ी आवश्यकता है कि जो भी चुनौती आई है,
उसका समाधान करें,
उससे भागे नहीं.
हिन्दू धर्म कोई धर्म नहीं है, यह सब संस्कृति
की अभिव्यक्तियां है, सभी विचारधारा से उत्पन्न हुई हैं. यह सब
स्मृति में आने के कारण अपनाई गयी संस्कृतियां हैं.
उदाहरण के रूप में हम देखते हैं कि साधु, जो गांजा आदि
नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं, क्या यह धर्म है?
यह धर्म नहीं
बल्कि विकृति है, जो भले ही शिव ने कभी की हो,
(वह उनका अनुशासन
था ) परन्तु अब जो हो रहा है वह विकृति है. इस तरह विभिन्न
विभिन्न स्थानों पर जो नकारात्मक हो रहा है, वह विकृति है.
आक्रामक होना एवं साहसी होने में बहुत अंतर है, साहसी सत्याग्रह
से होता है.
समाधान साहस के साथ करना होगा -
गांधी जी के बात करें, तो वह अहिंसा पर
क्यों आए? तो वह भी एक प्रकार का चरम था. यानि एक प्रकार
की विकृति वहां भी आई थी. अहिंसा का एक नियम है कि “अहिंसा परम धर्म
है” कि हमे अहिंसा का
पालन करना है, हमे उसको विचार, विनिमय और
संप्रेषण से किसी भी विवाद को सुलझाना है.
परन्तु यदि कोई पाशविक प्रवृति लेकर आए,
तो हमें क्या
करना है.? तो हमें समाधान साहस के साथ करना होगा और तब
उसके लिए युद्ध भी करना होगा. इसी लिए श्री कृष्ण ने कहा है कि साहस के साथ समाधान
करो.
दूसरी चीज आप देखेंगे कि धर्म इतने ज्यादा क्यों हैं?
श्रीमद भागवत
गीता, जो कि किसी धर्म विशेष का पालन नहीं करके सभी
सम्प्रदायों को साथ लेकर चलती है, उसमें श्री कृष्ण
ने कहा है कि “जो भी आप विचारधारा धारण करते हैं,
उसको इस नियम,
बुद्धि,
इन्द्रियों,
मन एवं शरीर के
अनुपात में पालन करे तो वह संस्कृति होगी, जो कि सर्व
कल्याणकारी होगा.
परन्तु यदि ऐसा नहीं करेंगे तो विकृति उत्पन्न होगी और
विकृति को दूर करने का समाधान संस्कृति को उजागर करना है. विकृति से लड़ना नहीं है.
दूसरा तथ्य जो उन्होंने बताया वह यह कि धर्म कोई एक ही नहीं होता है.
प्रज्ञा के आधार पर ज्ञान प्राप्त करना ही धर्म है -
“श्रेयान्स्वधर्मो
विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्”, जिसका अर्थ है कि
स्वधर्म ही धर्म है, आपका प्राकृतिक धर्म ही श्रेष्ठकर है. अपनी
विचारधारा को अभिव्यक्त करने का जो क्रम है, वही धर्म का
वास्तविक स्वरुप है. श्री कृष्ण ने बताया है कि आपको प्रज्ञा के आधार पर लगातार ज्ञान
प्राप्त करना है और उसे विकासोन्मुख प्रकार से अभिव्यक्त करते रहना है.
पर्यवरण संतुलन की दिशा में निरंतर कार्य कर रहे सामाजिक
नवप्रवर्तक आचार्य चंद्रभूषण तिवारी जी ने भारतीय धर्म, संस्कृति एवं अध्यात्म पर
अपने परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करते हुए कहा –
धर्म अबाध है -
धर्म किसी सीमा में बंधा हुआ नहीं है, यानि जिसको अलग न
किया जा सके सही मायने में वहीं धर्म होता है. प्रकृति में देंखे तो सभी का अपना
धर्म है. पदार्थ का धर्म है बने रहना, पेड़-पौधों का
धर्म है बढ़ना, पशु-पक्षियों का धर्म है जीना और मानव का धर्म
है सुखपूर्वक जीना.
आज जो हमने हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई धर्म माने हुए हैं,
उसी के कारण धर्म के नाम पर भेद हो रहे हैं. धर्म की वास्तविक परिभाषा यही है कि यदि
धर्म को समझ लिया जाये तो हम समझदारी के आधार पर जी सकते हैं, जिसका मतलब है कि जिस
तरह पदार्थ अपने धर्म पर कायम है, पशु-पक्षी अपने धर्म का पालन करते हैं लेकिन
मनुष्यों का कोई धर्म नही दिखता.
धर्महीनता के कारण होती समस्याएं -
मनुष्यों की अधर्मता की वजह से प्रकृति में ग्लोबल वार्मिंग
और परिवारों में फैमिली वार्मिंग होती है. वर्तमान में कहने के लिए हमने “वसुधैव
कुटुम्कब या सर्वे भवन्तु सुखिन” की बात तो की है,
परन्तु वास्तव
में हम चौखट से बाहर नहीं निकल पाए हैं.
इसीलिए पहले समझना है, समझ के जीना है और जी करके उसको कैसे
जिया? यह अगली पीढ़ी को समझाना है. मानव की श्रेष्ठता यही है कि पहले वो समझे,
फिर खुद जिये और
उसके बाद दूसरों को व्यक्त करे.
उदाहरण के तौर पर जैसे हम वैल्डिंग करना या कृषि करना
सिखाते हैं, उसमें से जो कृषि करना सिखा रहे हैं, वे नौकरी करते हैं और उसी से
अपना जीवन-यापन करते हैं. वास्तव में वह कृषि करते कभी दिखते नहीं,
बस पढाते हैं.
सार भी यही है, जो हमको काम करना सिखाता है, वास्तविकता में
वह उसको जीता नही है. वास्तव में सही को समझना है, उसे जीना है तथा
कैसे जिया वह अगली पीढ़ी को कह देना है.
मानवीय संस्कृति के सही आयाम को समझना -
यही मानव का धर्म है और यह किसी भौगौलिक घेरे में नहीं है,
बल्कि सर्वकाल,
सर्वदेश और
सर्वस्थान उपलब्ध है और मानवीय संस्कृति की बात करें तो मानवीय संस्कृति के यही
आयाम हैं कि समझना, जीना और कैसे जीए, वह कह देना.
शहरी नियोजन विशेषज्ञ आनंद प्रकाश जी ने धर्म, संस्कृति एवं
अध्यात्म पर अपना मंतव्य रखते हुए कहा -
यदि ऐतिहासिक तौर पर देंखे, तो हम कहाँ से चलकर कहाँ पहुंच
गए हैं, यह हम खुद भी नहीं समझ पाएंगे. भारत वर्ष का जो
इतिहास इंडस एवं सरस्वती नदी के बेसिन से वेदों, उपनिषदों और
वेदान्तों के रूप में आरम्भ हुआ था, वह पौराणिक कथाओं,
किस्म किस्म की
कहानियों से उन्मादी अवस्था तक पहुंच कर एकाएक समाप्त हो गया.
सनातनी एवं अन्य धर्मों के मध्य अंतर -
यदि एब्राह्मिक यानि सनातन धर्म एवं नॉन एब्राह्मिक के मध्य
पसरे प्रमुख अंतर को देंखे तो पाएंगे कि सनातन या वैदिक संस्कृति के अंतर्गत
व्यापक रूप से ब्रहमाण्ड के संबंधों, सत्य एवं आत्म-खोज
की अवधारणा को स्पष्ट किया गया है, वह अन्य कहीं
नहीं मिलता है.
दूसरी ओर नॉन एब्राह्मिक धर्म की ओर देखें,
चाहे वह ईसाई
धर्म हो या इस्लाम धर्म तो यहाँ एक परमात्मा, एक पुस्तक,
एक सिद्धांत को
माना गया है, जिसका सभी के द्वारा पालन किया जाता है.
वेदान्तों में ब्रह्म शब्द की सार्थकता -
विश्वास और धर्म की व्याख्या उनके लिए बेहद एकांगी या
एकआयामी है परन्तु क्या दुनिया इतनी एकआयामी हो सकती है? क्या यह ब्रह्माण
इतना एकांगी हो सकता है? इसकी एक बेहद
सटीक व्याख्या हमारे वेदान्तों में मिलता है.
वेदों में कहा गया है कि “अहं ब्रह्मास्मि”
यानि “मैं ही ब्रह्म
हुं”, तो स्वयं को जो
खोजने की प्रकिया है, वो भी वेंदों में स्थित है. साथ ही स्वयं और
ब्रह्म दोनों अलग-अलग बाते भी दी गयी हैं.
दरअसल वेदों और वेदांतों की बात करे तो भगवान शब्द का कहीं
प्रयोग ही नही है और भगवान की कल्पना कोई नही कर सकता.
ईश्वर को प्रकृति का स्वरुप देना -
प्राकृतिक स्वरुप में हमने हमारे पूर्वजों के आधार पर ईश्वर
को मानवीय रूप देना आरम्भ कर दिया. जो हमारे पूर्वज थे उनके पास प्राकृतिक
शक्तियां थी, जिनकी तरफ वो देखते थे और जिनसे उनका जीवन
प्रभावित होता था, चाहे वो अग्नि हो, वायु हो,
नदियां हो, उनको
लगता था कि इन सभी चीजों से वो शक्ति प्राप्त कर सकते हैं.
इसी कारण अग्नि को अग्नि देव बना लिया, नदियों को अपनी मां
बना लिया और अपनी शक्तियों को व्यक्त कर दिया. इसका लाभ यह हुआ कि इंसान इन
शक्तियों को स्थापित करने में सफल रहा और उसकी सत्य की खोज पूरी हुई.
सम्पूर्ण वेदों के अंतर्गत सत्य की खोज से लेकर जीवन के
विभिन्न आयामों (राजनीतिक, आर्थिक,
प्रशासनिक आदि)
के साथ एक बेहतर संबंध स्थापित करना सिखाता है.
विकृतियों को समाप्त करने के लिए ईश्वरीय चरित्रों का
पुन्रअध्ययन करना होगा -
इस प्रकार हम यहां से चले और फिर बहुत से चरित्र जैसे श्री
राम, श्री कृष्ण आदि आए और आज के समय में हम जिन भी विकृतियों का
सामना कर रहे हैं, वह उन्हीं चरित्रों के साथ हमारी नासमझी और
उनके लिए जुनून का नतीजा है.
इन विकृतियों को दूर करने के लिए हमे देखना होगा कि जिस
धर्म को हम धारण करना चाह रहे हैं, उसको धारण करने
के स्थान पर उस धर्म के रूपकों को हमने धारण कर लिया है और वह भी उन्माद की हद तक,
इसलिए पहले हमें
इस उन्माद से दूर होना होगा.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश क्षेत्र में ग्रामों की बेहतरी के लिए
कार्यरत रेडियोलाजिस्ट डॉ. अमित पाठक जी ने भारत की धर्म, संस्कृति एवं अध्यात्म
की व्यापक व्याख्या करते हुए कहा –
धर्म एवं संस्कृति का हो पुनरावलोकन -
भारतीय धर्म एवं संस्कृति को लेकर गंभीर मनन की आवश्यकता है,
यह सोचने की
जरूरत है कि आज़ादी के समय या आज़ादी के बाद से लेकर अभी तक हम गांधीवाद पर चल रहे
हैं, आज़ादी के समय
गांधी जी के विचारों को लेकर ही नए भारत के निर्माण की नींव रखी गयी थी और निश्चय
किया गया था कि हम उसी आधार पर चलेंगे.
इस प्रकार प्रशन उठता है कि क्या आज़ादी के 70 साल बाद भी आज
वही भारत हमारे सामने है?
भारतीय संस्कृति संस्कारों वाली संस्कृति है,
इसके अनुसार हर
इंसान अपने संस्कारों के साथ जन्म लेता है. ये संस्कार व्यक्ति के पूर्वजन्म से
जुड़े होते हैं तथा इस जन्म में भी परिवार, परिवेश,
स्थिति एवं समाज
आदि के आधार पर व्यक्ति के संस्कार निर्मित होते हैं.
इस प्रकार प्रत्येक इंसान अपने संस्कारों से बना हुआ एक अलग
इंसान है. इसी प्रकार धर्म का चुनाव भी इंसान अपनी विचारधारा और संस्कारों के
अनुसार चुनाव करता है.
उदाहरण के लिए व्यक्ति यदि किसी होटल के बफे में जाता है,
तो उसके सामने
अनगिनत खाद्य पदार्थों की पसंद होती है, जिसमें से वह
अपनी पसंद के अनुसार चुनकर अपनी प्लेट में रख सकता है.
इसी तरह भारतीय संस्कृति एवं सभ्यताओं में भी केवल तीन या
चार विकल्प नहीं रखते हुए सभी का ध्यान रखा गया. आस्तिक, नास्तिक सभी को
वरीयता समान रूप से भारत में दी गयी और किसी को भी बांधा नहीं गया.
भारतीय स्पेक्ट्रम के अंतर्गत पहाड़ों में रहकर कंदमूल खाने
वालों को भी रखा गया और वहीं अघोरियों पर भी ध्यान दिया, जो शमशान घाट में
रहकर कुछ भी खा लेता है, वह भी जिसे आम
व्यक्ति खाने की सोच भी नहीं सकता.
व्यापकता है भारतीय संस्कृति का आधार -
इस प्रकार भारतीय संस्कृति की व्यापकता काफी अधिक है,
जितनी इंसान की
सोच हो सकती है उसे अपने अंदर संजोया और हर विचारधारा को सही माना,
यानि परमपद को
प्राप्त करने का अपना पृथक मार्ग चुनने का विकल्प हमारी सभ्यता में मिला.
दूसरी ओर यदि एब्राह्मिक विचारधारा की बात करें,
तो दुनिया
बायोपोलेरिटी पर चलती है, जिसमें पॉजिटिव
और नेगेटिव दोनों धाराएं होती है, तभी विद्युत
प्रवाह होता है.
एक तरफ ईस्टर्न एशिया में तावेज्म, कंफेशस आदि
सभ्यताएं निकली. वहीं अगर वेस्ट एशिया में जाएं तो इसका ठीक विपरीत मिलता है. वहां
एक ही बात, एक ही आधार माना गया है और यदि व्यक्ति इनके विपरीत
जाता है, तो उसे नर्क का भागी कहा जाता है.
जैसे तालिबानी मानसिकता में अगर उसके विभिन्न गये तो
व्यक्ति को मार देना चाहिए. वेस्टर्न विचारधारा के अंतर्गत काफी अच्छे दार्शनिक
निकले, जिन्होंने मानसिक संरचनाओं के ऊपर अपने विचार
रखे.
उन्होंने भारतीय मूल को आधार माना और अपनी परिभाषाएं देनी
शुरू की. किन्तु ये विचार यूनिवर्सिटी तक, सेमिनार हॉल तक
या किताबों तक सिमट कर रह गये.
ये तर्क-वितर्क चौपालों पर या आम लोगों के बीच नहीं हुई
अपितु सेमिनार में सम्पन्न होती है. यह सिद्धांत चंद किताबों में भी लिखें हैं,
परन्तु इनका
स्वरुप इतना जटिल है कि आम लोग इसे समझ ही नहीं पाते हैं.
इस प्रकार एक ओर हमने सभ्यता व संस्कृति के आधार
दर्शनशास्त्र एवं विचारों को सीमित कर दिया.
त्वरित विकास गति से रुका मानसिक विकास -
दूसरी तरफ एक दूसरा क्रम शुरू हुआ, मानवीय विकास के
ऐतिहासिक स्वरुप को देखें तो यह क्रम काफी धीमा था. आज से 80 हजार वर्ष या 50 हजार
वर्ष पूर्व जायें तो देखेंगे कि दस हजार वर्ष या फिर बीस हजार वर्ष में एक बदलाव
आता था.
अंतिम आइस ऐज युग के बाद से नव-पाषाण काल आया,
जिसके बाद से
काफी परिवर्तन हुए. कृषि सम्बन्धी विकास, सोसाइटी स्तर पर
विकास हए, जिन्हें सिंधु घाटी सभ्यता का नाम दिया गया.
यह सिंधु घाटी सभ्यता की गति अभी 200 वर्ष पूर्व तक चली आ
रही थी. इसमें परिवर्तन तो आता था, परन्तु वह इतना
धीमा था कि 4-5 पीढ़ियों के बाद आता था और जो भी तकनीक आती थी,
उसकी विकास दर
बेहद धीमी हुआ करती थी.
वर्तमान पीढ़ी में जो विकास हुआ, वो रेडियो,
टेलीविजन से होते
हुए इंटरनेट तक पहुंच चुका है, तो हमारा दिमाग
तो उस क्रमिक विकास की अवस्था के तौर पर निर्मित हो रखा है..परन्तु उसको यदि
त्वरित विकास के लिए कहा जाये, तो यह संभव नहीं
हो पायेगा.
हमारी पीढ़ी को आज जबरन जैसे पाषाण काल से लाकर
इलेक्ट्रानिक ऐज में डाल दिया गया है, जबकि हम मानसिक
रूप से इसके लिए तैयार ही नहीं थे.
भारत में यह समस्या सर्वाधिक है, क्योंकि 1947 में
भारत में वह होना चाहिए था, जो 1922 में
टर्की में हुआ. जहां कहा गया कि हर बच्चा जो जन्म लेगा वह स्कूल जाएगा.
सभी संस्कृतियों और सभ्यताओं के अच्छे विचारों को करना होगा
ग्रहण -
वेस्टर्न सिविलाइजेशन को लेकर मानसिकता बनी है कि हम अच्छे
हैं वो बुरे हैं. इससे हमें उबरना पड़ेगा. हर सभ्यता ने मानस विकास में योगदान
दिया है, हमें जरूरत है कि अच्छे बुरे को छोड़ें और हर
सभ्यता से अच्छे विचारों को लेकर आगे बढ़ें.
1947 से एजुकेशन सब तक नहीं पहुंचाई और औपनिवेशक युग को ही
आगे बढ़ावा दिया.ये आम हो गया है कि हम जो हिन्दी बोलते हैं,
यदि उसे कोई और
बोले तो हम मानते हैं कि सही है परन्तु भारत का ही कोई ग्रामीण बोले तो हम उसे
नकार देते हैं.
इस मानसिकता को हमको ठीक करना था, परन्तु वो ऐसे ही
चल रहा है. जिन्हें हम पिछड़ा मानते हैं, वह भी अपना हक
मांगने आ जाते हैं. इसे एक दिशा देना आवश्यक है. जो संघर्ष हमारे क्रांतिकारियों,स्वतंत्रता
सेनानियों ने किया,उस पर कार्य करना होगा.
भगत सिंह को तवज्जो मिलती है, क्योंकि वह
आक्रामक थे, उनसे युवाओं में जोश भरता है. स्वतंत्रता
सेनानियों ने जो क्रांति के लिए काम किया, वो सामाजिक
नवप्रवर्तक के कार्य थे और वे रुढ़िवादी के विरोध में कार्य करते थे.
गांधी के साथ सुभाष चंद्र बॉस को भी रखना चाहिए. गांधी और
सुभाष जैसे सेनानियों के बारे में बनी बुकलेट को बच्चों तक पहुंचाना चाहिए ताकि
सभी पीढ़ियों तक वह सब बातें पहुंचे. इससे धीरे धीरे वक्त के साथ भावी पीढ़ी
संस्कृति ढूंढ ही लेगी.
धर्म और संस्कृति की व्यापकता एवं इसकी भारतीय प्रासंगिकता
पर अपना पक्ष रखते हुए राकेश जी ने अपने विचार प्रस्तुत किये :
संस्कृति, अध्यात्म और धर्म को समझने के लिए हमें इतिहास को दो भागों
में बाँटना होगा.
करंट एज, यानि पिछले 2 हज़ार साल और उससे पहले का युग यानि करंट एज से पहले का
समय- तकरीबन दो से सात हज़ार साल पहले का समय.
विश्व के इतिहास को दो पेरेलल या समान्तर धाराओ में बाँटना ठीक होगा. सिन्धु
पूर्व और पश्चिम.
इसके कारण है.
संस्कृति किसी भी देश, समाज का सबसे मज़बूत बंधन है. संस्कृति बनती है
ज्योग्राफिकल यानि भौगोलिक सीमाओं से, जैसे समुन्द्र, पर्वत, नदियाँ जो एक मानव समूह को
एक जगह पर बांधते हैं. जब मानव धरती, पानी और पंच तत्वों से जुड़
कर काम करता है तो संस्कृति का निर्माण करता है, यानि रहने का तरीका, खाना पीना, घर बनाना,
भाषा, गीत इत्यादि.
अगर हिंदुस्तान का इतिहास देखें तो सिन्धु और हिन्दुकुश की पहाडियों तक आ कर
रुक जाता है और पश्चिम का इतिहास देखें तो वहां सिन्धु पूर्व की बातें मुश्किल ही
मिलती हैं. सिकंदर भी सिन्धु नदी तक ही सीमा बना पाया था.
इंडिया या हिंदुस्तान रोम के ईस्ट ऑफ़ इंडस या पर्शिया के हप्ता हिन्दू शब्दों
से आया हुआ लगता है.
यह महाद्वीप उतर में हिमालय, दक्षिण में समुद्र, पश्चिम में सिन्धु और पूर्व
में दुर्गम पहाड़ और जंगलों से बनता है और इसकी संस्कृति इन्हीं प्राकृतिक बाधाओं
के कारण कुछ अलग है.
वैसा ही अफ्रीका, यूरोप जैसे द्वीपों और इनके सबद्वीपों के लिए कहा जा सकता
है.
इसी संस्कृति से उपजता है, अध्यात्म यानि मानव और परमेश्वर का संबंध. सगुण और
निर्गुण स्वरुप उनकी व्याख्या, जुड़ाव और समझ.
अब इसी आध्यात्म के हिसाब से हमारा हमारी संस्कृति के साथ क्या व्यवहार हो, और
कैसे इस व्यवहार को आम जन द्वारा आसानी से निभाया जाए यह होता है धर्म.
पूर्व और पश्चिम के इतिहास को एक साथ मिला कर पढ़ें, तो एक बड़ी दिलचस्प तस्वीर
निकल कर आती है.
दोनों तरफ़ ही, इस युग की शुरुआत एक बड़ी बाढ़ से बताई गयी है, जहाँ भारत में मनु
को प्रथम मानव बताया गया है, वहीँ पश्चिम में नूह को.
दोनों को ईश्वर ने आकर आगाह किया था, दोनों ने ही एक बड़ी नाव बना कर जीव, जंतुओं की रक्षा की और
मानवता की शुरुआत की.
जहाँ बाइबिल बाढ़ का समय आज से तकरीबन 5 हज़ार साल पहले बताती है, पूर्व का
इतिहास पांच हज़ार साल पहले कृष्ण और महाभारत का समय बताता है. यानि दोनों की बाढ़
के समय में बड़ा अंतर है, मनु की बाढ़ 7500 साल पहले जब श्री राम का
युग था, उससे भी पहले की बात है.
अगर संस्कृति, अध्यात्म और धर्म के इतिहास को 5 हज़ार साल पहले की बाढ़ से
शुरू करें, तो भारत ने शुरुवात की श्री राम और कृष्ण के अध्यात्म के साथ, वेदों के
साथ, वहीँ पश्चिम ने शून्य से.
2500 बीसी से ले कर अगर 700 वीं सदी तक जाएँ, यानि तीन हज़ार साल का पश्चिमी
इतिहास, संगठित धर्म यानि यहूदी, इसाई और इस्लाम के आने से पहले. तो दुनिया की
संस्कृति, आध्यात्म और धर्म काफी एक जैसी थी.
यानि सब अपनी अपनी ज़मीन की प्रकृति की पूजा करते थे, जैसे नदियाँ, सूर्य, अग्नि, इत्यादि. अध्यात्म
भी इन्हीं से आता था, हर शहर, गाँव के अपने देवता, यानि निर्गुण परमेश्वर का
एक सगुण स्वरूप. जैसा आज भी भारत में, चीन में या पूर्व में देखा जाता है.
मिस्र के पिरामिड देखें या आजकल मनाये जा रहे त्यौहार, सब उनके अपने देव,
देवियों की बात करते हैं, जैसे अस्सिरियन मृत राजा एक बड़े गरुण जैसे पंछी पर बैठ
कर स्वर्ग जाते थे.
इतिहासकर क्रिसमस यानि 25 दिसम्बर को यूरोप के पुराने सूर्य से जुड़े त्यौहार
से जोड़ते हैं. मंडे, ट्यूसडे, इत्यादि देवी, देवता, ग्रहों के ऊपर थे, जैसे
मंडे यानि मून का डे, ट्यूसडे यानि तिउ यानि मंगल गृह का दिन इत्यादि.
नील नदी पर भी बाढ़ का मौसम घोषित करने के लिए पंछियों का प्रयोग और त्यौहार
उल्लेखित हैं. कुछ भ्रांतियां भी हैं, जैसे पर्शिया में ज़ोरास्थ्रियन धर्म और उसमे
इंद्र का वर्णन एक राक्षस की तरह. ऐसा लगता है की हमेशा से कुछ लोग प्रकृति को
पूजते थे और कुछ उससे लड़ते थे.
जैसे कृषि आधारित संस्कृति में पूजना ठीक लगता है, मगर नोमेडिक संस्कृति जैसे
रेगिस्तान, पहाड़ी इत्यादि विषम क्षेत्रो में इंसान को प्रकृति से लड़ते हुए और उस पर काबू
करने की कोशिश करते हुआ दिखाया गया है. अहुरा मज़्दा या वेदों में भी इस संकेत रूप
में देव और असुर संघर्ष में दिखाया गया है. आपकी ज़मीन पर प्रकृति कितनी मेहरबान है,
उस पर आप देव रहेंगे या असुर निर्भर है ऐसा लगता है.
मगर इन तीन हज़ार सालों में यानि 700 ईसवीं से पहले के समय में कुछ घटनाएं हुई,
जिन्होंने पूर्व और पश्चिम को परिभाषित किया :
1. अब्राहम का विद्रोह – यहूदी, इस्लाम और इसाई धर्म के
पिता अब्राहम एक मूर्तिकार के पुत्र थे, जो देवी देवताओं की मूर्तियाँ बनाते थे. उन्होंने
कहा कि मूर्ति पूजा गलत है और इससे कोई भी राजा अपने आप को भगवान बताता है. उन्होंने
बताया कि सिर्फ निर्गुण स्वरुप की पूजा होनी चाहिए.
2. बुद्ध का धर्म – जन्म आधारित जाति प्रथा और
दास प्रथा के खिलाफ़ इन्होने आवाज़ उठाई और एक निर्गुण-अध्यात्म आधारित धर्म का गठन
किया.
आज इन दोनों को समाज सुधार के प्रयासों को पूर्व और पश्चिम के मूल अंतर की तरह
देखा जा सकता है.
जहाँ अब्राहम ने अपनी संतानों के लिए जो कि परमेश्वर द्वारा चुनी गयी हैं और
आकाशवाणी के अनुसार तारों के सामान असंख्य होंगी. उनके संरक्षण में पूरी दुनिया का
अध्यात्म और धर्म, मानव कल्याण के लिए उचित जाना और अपनी मुहीम राजनीतिक तरीके से
शुरू की.
बुद्ध ने विरक्ति का भाव चुना और समाज सुधार का कार्य शुरू किया, धर्म,
संस्कृति और अध्यात्म धरती से जुड़े रहे. उन्होंने कोई युद्ध या तख्ता पलट की बात
नहीं की.
ये शायद श्री राम और कृष्ण के अध्यात्म से शुरू होने का नतीज़ा ही था या समाज
में एक बड़ा स्थान वेदों, रामायण, महाभारत के सगुण और
निर्गुण के अध्यात्म ने ले लिया था, जिनसे संघर्ष की जगह नहीं बची थी.
अब्राहम के बाद पश्चिम में अध्यात्म और धर्म संस्कृति से अलग होने लगे, पश्चिम
का पूरा इतिहास इसी तरह के धर्म युद्धों से भरा हुआ है.
अब्राहम के पुत्रों की इराक से शुरू हो कर इजराइल तक की यात्रा कई सौ साल के
युद्ध भरे इतिहास में दी गयी है.
दो और मुख्य घटनाएं हुई, जीसस क्राइस्ट का पहली सदी में यहूदी समाज में
जन्म, समाज सुधार की कोशिश और यहूदी राजा द्वारा रोम सम्राट के इशारों पर इनको
लाखों अन्य धर्म विरोधियों के साथ क्रूस पर चढ़ाया जाना.
राज शक्ति द्वारा धर्म और अध्यात्म को जनता पर क्रूरता के साथ स्थापित करने का
ये पहला नमूना दिखा पहली सदी में, जब रोम ने दुनिया के पहले संगठित धर्म यानि
यहूदी को कुचलने के लिए लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा.
जीसस क्राइस्ट के बाद उनके बारह संतों को भी ढूंढ ढूंढ कर मारा गया, सिर्फ
पीटर एक जीवित रह गए थे, जिनकी बातें संतों के द्वारा मुह ज़बानी लोगों तक पहुंची
और अगले पांच सौ सालों में बाइबिल में लिखी गयी.
बारहवीं सदी तक भारत में बड़े बड़े साम्राज्य हुए, भारत में राजा ज़मीन के लिए लड़ते
थे या आक्रमणों का सामना करते थे या प्रजा के विद्रोह और राजशाही बदली जाती थी.
कभी नन्द, कभी चोल, कभी अशोका, चन्द्रगुप्त, चन्द्रगुप्त मौर्या इत्यादि.. मगर महाद्वीप की संस्कृति, अध्यात्म, और धर्म एक ही रहे. यानि
प्रकृति से जुड़े हुए, वेद, कृष्ण, राम, गीता, नदियाँ, मौसम, फसलें, कृषि इसके मूल
में रही.
वहीँ पश्चिम में बड़े बड़े राज अभियानों के तहत और बड़ी तेज़ी से अध्यात्म और धर्म
में बदलाव हुए और संस्कृति के साथ इनको मिलाया गया.
क्रिसमस का उदाहरण दिया ही गया है, हेलोवीन, ईस्टर, वैलेंटाइन डे
इत्यादि पुराने पगान त्यौहार थे, जो आम जनता को नए धर्म और अध्यात्म से जोड़ने के
लिए क्रिस्चियन संतों से जोड़ दिए गए.
यूरोप में मिडिल ईस्ट से उठे ईसा पुत्र के अध्यात्म को युद्ध जीतने के लिए,
राजाओं ने चर्च के साथ मिल कर धर्म युद्ध का नाम दिया. क्राइस्ट-दम और कॉनक्वेस्ट
द्वारा जर्मन कबीलों को एकजुट किया गया और पर्शिया यानि ईरान से युद्ध जीता गया.
सूर्य वंश और अग्नि वंश की लड़ाई में फैसला करने का नायब तरीका चार्लेस्मागने
ने निकाला. कैथोलिक धर्म को राज धर्म घोषित कर बड़ी तेज़ी से यूरोप में बल पूर्वक
लोगों को एक ही धर्म, एक ही अध्यात्म के अंतर्गत लाया गया. मंदिर, मूर्तियाँ, त्यौहार सब या तो गैर
कानूनी कर दिए गए या कैथोलिक धर्म में ही मिला लिए गए.
वहीँ अब्राहम के पहले पुत्र इस्माइल अब अरब संस्कृति के पिता थे. अरब संस्कृति
जो कि अभी भी पुराने अध्यात्म जैसे सूर्य, ब्रहस्पति इत्यादि की पूजा करती थी काफी
पीछे छूट रही थी.
700 वीं सदी में यहाँ से जन्म हुआ इस्लाम का, जिसने इतनी सदियों से, पुराने
प्रकृति, संस्कृति आधारित अध्यात्म और धर्म को पीछे छोड़ एक विस्फ़ोट की तरह अरब से निकल
कर पश्चिम और पूर्व का रुख लिया, जिहाद के रूप में.
एक समय लगभग पूरा यूरोप इस्लाम और अरब लड़ाकों के नियंत्रण में था, जिसने बाकि
यूरोप को बड़ी तेज़ी से क्राइस्ट और चर्च के अंतर्गत लाने के लिए विवश किया. बड़े
पैमाने पर पुराने यूरोप के तौर तरीक़ों को हटा कर एक फेथ यानि क्राइस्ट के अंतर्गत
लाया गया, बड़ी बड़ी सेना, बड़े बड़े युद्ध, एक तरफ़ जिहाद और एक तरफ़ कॉनक्वेस्ट लड़ें
गए.
शिया केलिफेट ने ईरान कब्जाया, बाकि कैलिफेट भी काफी तेज़ी से फैले और पूर्व
में काफी अन्दर तक चले गए, जिन्होंने इन देशों में भी अरब संस्कृति आधारित
अध्यात्म और धर्म को स्थानीय संस्कृति में मिला कर राज किया.
आज अगर संस्कृति, अध्यात्म और धर्म को इस रोशनी में देखें तो पाएँगे –
पश्चिम में धर्म और अध्यात्म ऊपर से राजा द्वारा राजनीति और सत्ता समीकरणों के
प्रभाव में संस्कृति के साथ बल और धर्म की बड़ी गद्दियों के साथ मिल कर विभिन्न
प्रचारों द्वारा मिलाये गए.
वहीँ पूर्व में संस्कृति, अध्यात्म और धर्म हज़ारों सालों के ज़मीनी
रिफार्म और सुधार अभियानों का फल रहे हैं.
भाग 2 - भारतीय समाज में धर्म, संस्कृति और अध्यात्म को लेकर आई भ्रांतियां
अथवा संघर्ष :
आज हमारा समाज धार्मिक रूप से बहुत सी भ्रांतियों में
विभक्त हो चुका है, जिनको समझ कर सही मंथन कर विचारधाराओं का आकलन करना अति आवश्यक
है. इसी विषय पर हमारे एक्सपर्ट पैनल के मध्य चर्चा हुई.
सर्वप्रथम विवेक जी ने इन भ्रांतियों पर अपना मंतव्य रखा,
उन्होंने कहा :
जहां तक सगुण और निर्गुण का सवाल है, ये सापेक्ष का
प्रश्न है. अभिव्यक्ति गुणात्मक है, जो परम सत्य होगा, वो ऐसे ही अभिव्यक्त होता है. सगुण और निर्गुण
में कोई अंतर नहीं है.
दूसरी बात जो भी विरोध और प्रगति की निशानियाँ होती है, जिन भी
संस्कृतियों का विरोध हुआ, तो विरोध संस्कृतियों का नहीं हुआ, बल्कि विकृतियों
का हुआ. विकृति का विरोध चाहे दैहिक, विचारात्मक कैसे भी हुआ हो वह होता रहेगा और
निरंतर इसी क्रम में हम आगे बढ़ते जाएंगे.
कितनी सभ्यताएँ हम जी चुके हैं, कितनी जीते
जाएंगे, ये निरंतर चलने
वाली प्रकिया है. जीवन अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है, जिसमें क्रमिक
विकास होता रहता है.
क्रमिक-उन्नति में केवल एक ही पक्ष की महत्ता हो, यह नहीं होता है, अपितु दूसरे पक्ष
की भी महत्ता है. यानि अर्जुन नहीं होगा, दुर्योधन नहीं होगा तो विजय कैसे प्राप्त की
जाएगी. भीष्म जैसे ज्ञानी भी गलत के साथ होंगे.
यदि अर्जुन और पांच पांडव द्रौपदी चीर हरण के समय अपने धर्म
को मानते और उसी समय उसे प्रतिकार और प्रतिबोध के रूप में समाप्त कर देते तो
महाभारत नहीं होता.
हमारा उद्देश्य जब एक होगा तो विकास का प्रवाह भी उसी दिशा
में होगा. बिना उद्देश्य के ऊर्जा का प्रवाह भी असंभव है. हमारे उद्देश्य जब तक
पृथक रहेंगे, तो गतियाँ भी
पृथक रहेंगी.
इसी कारण भगवान की अवधारणा आई, कि उसको प्राप्त
करने का उद्देश्य अगर सभी का एक होगा, तो सब एकजुट हो जायेंगे. परन्तु उसमें भी सबके
उद्देश्य अलग अलग हो गये.
इन प्रकार इन भ्रांतियों और भेदों को मानकर व ध्यान में
रखकर आगे बढ़ना ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए. इसके बाद अपने अंदर अनुशासन लाना
है. जब तक हमारे स्वयं के भीतर अनुशासन नहीं आएगा, तब तक हम दूसरों
को नहीं समझा पाएंगे.
यहां अनुशासन से तात्पर्य किसी व्यक्ति विशेष से नहीं होकर
बुद्धि से है. इसी अनुशासन के चलते जीसस, राम और कृष्ण, जो स्वयं में एक
सिद्धांत को व्यक्त करते हैं, किसी व्यक्ति विशेष को नहीं. हम भारतीय संस्कृति के अंतर्गत
भारत को “भा” यानि “आभा” और “रति” यानि “प्रकाश” की ओर देखते हैं.
सदियों से स्थापित धर्म, संस्कृति एवं अध्यात्म से जुड़े
भारतीय सिद्धांतों के वास्तविक रूप पर प्रकाश डालते हुए डॉ. अमित पाठक ने बताया :
आज के परिवेश में देखें तो भारत में लोगों को यह ज्ञान ही
नहीं है कि धर्म वास्तव में है क्या? इसको लेकर काफी
वाद-विवाद हुआ है, जिसके चलते लोगों ने विकृतियों को धर्म की
परिभाषा देना प्रारंभ कर दिया. उसके मूल स्वरुप से हट कर केवल सतही भाग देखते हैं.
इसका फायदा राजनीति के अंतर्गत शातिर लोग अपने स्वार्थ के लिए लेना प्रारंभ कर
देते हैं और यह स्थिति विश्व के लगभग हर देश में है.
भारत के संदर्भ में देखें तो यहां एक ऐसा समाज है,
जिसे शिक्षा से
पुश्तों से दूर रखा गया और अपने लाभ के लिए आधी-अधूरी शिक्षा दी गई. कहा जा सकता
है कि भारतीय समाज को औपनिवेशिक युग तक ही सीमित रखा और इसी कारण व्यक्ति अपना
आधार खोजने के क्रम में अधर्म की ओर चला गया. उसका मानसिक विकास नहीं होने दिया
गया.
उदाहरण के लिए देखें, तो एक ऐसा फ़कीर,
जिसने सभी को
सादा जीवन जीने की शिक्षा दी. उन्हीं के मंदिर में आज सोने,
चांदी के ढेर
दिखाई देंगे. उसी सोने को अगर बच्चों की बेहतर शिक्षा, स्पोंसरशिप,
स्कूल बनाने में
लगाएं तो करोड़ों गुना ज्यादा फायदा समाज को होगा. परन्तु इसके स्थान पर धर्म को
शोर-शराबे, सोने-चांदी तक सीमित कर दिया गया है. इससे केवल
विकृतियाँ पैदा हो रही हैं.
धर्म के इस नवीनीकरण के अंतर्गत भगवान को,
क्रांतिकारियों
को जातियों के आधार पर बांट दिया गया है. विकृति वाले लोग समाज को अपनी ओर ले
जाएंगें और विध्वंश होगा, इसीलिए बेहतर यही
है कि हम चीरहरण से पहले ही बुराइयों को रोक दें. ये पहल आज नहीं हुई तो विकृति
वाले लोग समाज को अपनी ही दिशा में ले जायेंगे.
अध्यात्म के साथ यदि संस्कृति को जोड़ा जायें. तो उसमें आ
रही भ्रांतियों के संबंध में आचार्य चंद्रभूषण जी ने अपना वक्तव्य रखते हुए कहा :
मानव स्वयं का अध्ययन नहीं कर पाता है,
जब वह स्वयं को
समझेगा तभी वह दूसरों को भी समझ पायेगा. भय और लालच के आधार पर हम निर्मित हुए हैं,
न कोई भयभीत रहना
चाहता है और न ही पूर्ण रूप से लालच के साथ जीना चाहता है, क्योंकि लोगों को
स्वर्ग का लालच है और नर्क का भय है. इसके आधार पर मनुष्य कहीं पहुंच नही पाया है.
मानव को सबंध पहचानना आना चाहिए. जब मनुष्य पदार्थ,
पेड़-पौधे,
पशु-पक्षियों,
भूमि,
वनों और जानवरों
आदि से अपने सबंध पहचानता है, तभी वह अपने
स्वधर्म को समझ पाता है, साथ ही जब वह
सबंध पहचानता है, तब अपने भय से मुक्त रहता है और नियंत्रित हो
जाता है.
सबके मंगल कल्याण में ही अपने मंगल कल्याण को सुनिश्चित
करता है. इसके उपरांत उसे जीना आ जाता है और वह दूसरों को भी यह शिक्षा देना आरम्भ
कर देता है.
वास्तव में धरती पर कोई अज्ञानी और मूर्ख रहना नही चाहता और
यही मानव की खूबसूरती है, इसीलिए हर मनुष्य
जिम्मेदार और समझदार होना चाहता है. एक बार यदि मानव सही को समझ जाएगा,
तो उसको वह
व्यक्त करने लगेगा और शिक्षण में भी यह व्यवहार आ जाएगा.
हमको अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए,
क्योंकि उन लोगों
ने हमें इतनी अच्छी धरती, भाषा और भाव से
सजाया है, ताकि हम सब मिल कर रहे और धरती को स्वर्ग बना
सके.
अध्यात्म में हो रहे राजनीतिकरण को समाज में फैली
भ्रांतियों का प्रमुख कारण मानते हुए आनंद जी ने इस विषय को समझाते हुए स्पष्ट
किया :
धर्म का राजनीतिकरण -
आज के परिदृश्य में देखें तो, हमारे यहां मंदिरों का बेजा
पॉलिटिकल इस्तेमाल बहुत सालों से हो रहा है. कभी वो चीज दिखती नही है और कभी अचानक
से नजर आने लगती है. हम अपने मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थलों का राजनीतिकरण करते
हैं, तो उसका मकसद तो साफ है, लेकिन उस राजनीतिकरण को रोकने के लिए हमारे देश में
ज़मीनी रूप से कोई ठोस प्रयास नही हुए हैं.
किस्से-कहानियों में उलझे हैं हम -
आज भी हम अपनी भावी पीढ़ी को हमारे वास्तविक धर्म और
संस्कृति से साक्षात्कार करने का ठोस प्रयास किसी भी प्रकार से नहीं किया गया है.
आज भी हमने स्कूलों में अपने बच्चों को किस्से कहानियों में उलझा के रखा हुआ है.
हम शारीरिक तौर पर बड़े तो हो गए हैं,
लेकिन दिमाग से
अभी भी बच्चे हैं. बचपन से ही हमे किस्से-कहानियों का इतना शौक हो गया कि आज भी हम
उन्हीं किस्सों में, उन्हीं चरित्रों में उलझकर लड़ाईयां लड़ रहे हैं.
सनातन धर्म बहुत ही परिपक्व दिमाग के लिए माना जाता है,
उसका कारण यह है
कि अगर आप नही समझेंगे कि आत्मा भी है, परमात्मा भी है और आत्मा को परमात्मा से मिलकर मोक्ष
प्राप्त करना है. तब तक आप इस संसार के सच से वंछित रहेंगे और अगर आप इस लीला को
अच्छे को समझ लेंगे तो आप इसके निकट नही जाएंगे.
संहार, श्रृंगार और
संचार की प्रक्रिया का वास्तविक स्वरुप आज तक भी समझा नहीं गया है. इन सबके पीछे
एक ऊर्जा छिपी है, जो इसे चला रही है, हम उसे कोई भी
नाम दे सकते हैं.
मूलरूप से हमको जो परिपक्वता चाहिए वो हमने अपनी पीढ़ी को
उनके स्कूली पाठ्यक्रम की सहायता से ठीक से नही समझा सके हैं. आज भी हम बच्चों को
केवल किस्से-कहानियां ही सुना रहे हैं, तो भ्रांतियां
आनी तो तय हैं.
समझना होगा सनातन धर्म का वास्तविक अर्थ -
उदाहरण के लिए हम मंदिर में रखी प्रतिमा को सोने का मुकुट
और रेशमी वस्त्र पहना कर, साज-श्रृंगार कर
महिमा मंडित कर दिया और कोई गरीब व्यक्ति उसी साजो-समान का कोई अंश चुरा कर भाग
जाये तो हमारी धार्मिक फ़ौज उसके खिलाफ खड़ी हो जाएगी और उस व्यक्ति को मार डालेगी.
इसी प्रकार से भ्रांतियां प्रारंभ होती है. वास्तव में
हमारा सनातन धर्म तो एक आंतरिक यात्रा है, आप एक समय के बाद
अपने अन्दर की यात्रा करना शुरू करदे, परन्तु यह यात्रा
आज प्रारंभ ही नहीं हो रही है, न व्यक्तिगत,
न सामुदायिक स्तर
पर और न ही संस्थागत स्तर पर और इसी कारण आध्यात्मिकता का सही स्वरुप प्रभावित हो
रहा है.
जिस दिन हम सही मायने में समझ जाएंगे बाहर जो भी है वो
सिर्फ राजनीति है और अंदर जो है वो अध्यात्म है, तभी से एक नया
बदलाव हमें देखने को मिलेगा.
समाज में संस्कृति, धर्म से जुड़ी विकृतियों के ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य को दृष्टिगोचर करते हुए राकेश जी ने अपने प्रस्तुतीकरण में कहा :
परमेश्वर की परिभाषा में सिन्धु पूर्व और पश्चिम एक ही हैं – एक, निर्गुण, निराकार. यूरोप में गॉड,
अरबी में अल्लाह या संस्कृत में परम-ईश्वर. ये बात, कि सबमे वही स्पिरिट है यानि
ईश्वर का भाग, ये भी एक ही जैसा है.
मुद्दा इंसान और परमेश्वर के बीच जुड़ाव के तरीके का है.
अपने सही रूप में - हिंदुस्तान में अध्यात्म और संस्कृति जुड़े हुए हैं और धर्म
उसी जुड़ाव के हिसाब से बना हुआ है.
संस्कृति जो कि सीधे प्रकृति और पंच तत्वों से निकलती है, को वेदों ने और राम,
कृष्ण जैसे बड़े व्यक्तित्वों ने सीधे अध्यात्म से जोड़ा है. भारत में कृष्ण को गैया
के साथ, तो कभी नदी के किनारे बांसुरी बजाते, राम को हनुमान के साथ, गरुण के साथ, तो
वैदिक तरीकों में भी यज्ञ, दही, शहद, आम का पेड़, बरगद का पत्ता, अनाज़, पांच
तरीके के फल, ये सब उपयोग में लाना एक तरह से प्रकृति के संरक्षण को बढ़ावा और
प्रकृति के रास्ते ही परमेश्वर तक जाने के रास्ते बताते हैं.
गंगा के पानी में कभी नहाने से चरम रोग, कोलेरा दूर होता था, इसीलिए इसको इतना
ऊंचा स्थान दिया गया है. पीपल का पेड़ चौबीस घंटे ऑक्सीजन देता है और धर्म के
मुताबिक भी हमें इसकी रक्षा करनी चाहिए. सात्विक आहार और आयुर्वेद के तरीके एक
धर्म का रूप लेते हैं, मगर ये पूरी तरह संस्कृति और प्रकृति को एक बड़े ही
बैज्ञानिक तरीके से आध्यात्मिकता से जोड़ते हैं.
वहीँ पश्चिम में धर्म और अध्यात्म युद्ध के समय की देन है. दो बड़े सिद्धांत जो
इसको संस्कृति से काटते हैं और सीधे प्रकृति से युद्ध में लाते हैं.
1. आप अपने तरीके से पूजा नहीं कर सकते, यानि घर
में मंदिर में पूजा, यज्ञ, या व्रत इत्यादि कर लिया, आपके लिए कोई वृक्ष
ज़रूरी है, उसको धर्म का नाम ले कर बचा लिया इत्यादि. आप हमेशा ये धर्म जहाँ से
निकले हैं, वहां पर स्थापित धर्म के चिन्हों, जैसे रोम या अरब की तरफ़ संस्कृति के
लिए ताकते रहते हैं. यानि इन्होंने राजा और धर्म के अधिकारियों का प्रभाव आम जनता
पर बढाया है. आप सन्डे को ही चर्च जाएँगे या धर्म स्थल नियत समय पर सब एक साथ
जाएँगे, जिससे राजा को सेना बनाने में आसानी हो.
यह पश्चिम या रेगिस्तानी इलाकों में जहाँ प्रकृति विषम है और जीवन कठिन है
उसके हिसाब से एक जीवन प्रणाली विकसित की गयी थी.
2. इसी कड़ी में दूसरा बड़ा विषय था, यूरोपियन
रेनैसेंस. जिसने पहली बार नव्य प्लेटोवाद (neo-Platonism), मानवतावाद (humanism), और व्यक्तिगत (Individualism) के सिद्धांत दिए.
- मानवतावाद : इंसान भगवान की परछाईं है
और बाकी सभी जीवों से अलग और ऊंचा है, और बाकी सब जीव, धरती उसके उपभोग के लिए
हैं क्योंकि एक वही है जिसके पास चेतना है इश्वर की रचना को समझने की.
- नव्य प्लेटोवाद : यह सिद्धांत कहता है की इंसान
को एस्थेटिक्स यानि सुन्दरता पर खासा ध्यान देना चाहिए – इसी क्रम में अगर आप 1500
के आस पास देखेंगे तो यूरोप के कलाकारों ने प्रकृति के चित्र बनाना छोड़ कर इंसान
की मूर्तियाँ बनाना शुरू किया. प्रकृति का पूरी तरह दोहन जाना, सुन्दरता के लिए ये
एक आम बात दिखी. जैसे टॉयलेट सुन्दर हो मगर सीवर नदी में जाए.
- व्यक्तिगत : यानि इंसान की अपनी संप्रभुता
समाज की संप्रभुता से ऊपर है और उसकी संतुष्टि की खोज ही उसका लक्ष्य है.
यूरोप के सारे युद्ध इसी सोच की दे रहे हैं, इंसान की ज़रुरत कभी पूरी नहीं होती.
हिटलर को भी जर्मन लोगों के लिए ज़मीन कम लग रही थी, तो इसी सिद्धांत को ले कर पूरा
यूरोप लड़ा. अंग्रेजी, स्पेनिश, फ्रेंच कॉलोनी भी इसी सोच पर आधारित रही हैं.
इंसान की सुप्रीमेसी ने इंसान के ऊपर दूसरे इंसान की सुप्रीमेसी ने ले लिया.
- आज जब आप यूरोप में ग्लोबल वार्मिंग के विरोध में बात सुनते हैं, यही यूरोपियन
रेनासेन्स युग की सोच पर आधारित है.
- आज जब आप भारत की प्लानिंग में कटते हुए पीपल के पेड़ देखते हैं, रिवर फ्रंट
देखते हैं, ये सब इसी यूरोपियन सोच का प्रभाव है.
- आज जब हमारी शिक्षा व्यवस्था देखते हैं, जिसमें एक जैसी रटंत हैं, स्थानीय
संस्कृति से उसको लेना देना नहीं है, ये भी वही एक सेना से लोगों को जोड़ने का
कार्यक्रम है.
भारत में आज बड़ा कन्फ्यूज्ड सा माहौल है, संस्कृति बस एक सेल्फी बन गयी है. अध्यात्म
रहा नहीं और धर्म के नाम पर लोग सिर्फ कर्म-काण्ड कर रहे हैं, बिना किसी सोच के.
और इन सभी में सबसे बड़ी हानि हुई है प्रकृति की, गंगत्व की और हिंदुस्तान
के भविष्य की, जो आज बड़े संकट में दिख रहा है.
भाग 3 – धर्म, संस्कृति आदि से जुड़ी भ्रांतियों को दूर करने हेतु व्यवस्था एवं
सामाजिक परिवर्तन :
समाज में अध्यात्म को लेकर फैली रुढ़िवादिता और अव्यवस्था को आज दूर करने की
आवश्यकता है. किसी भी समाज को सही विकास के लिए प्रत्येक परिप्रेक्ष्य को ध्यान
में रखते हुए अपनी संस्कृति के सही स्वरुप का चिंतन करते हुए आगे बढ़ना होता है.
भ्रांतियों को दरकिनार कर निरंतर प्रगतिशील पथ पर बने रहना ही वास्तविक सामाजिक
उत्थान है, इसी कड़ी में हमारे नवप्रवर्तकों ने भी अपनी विचारधारा रखी, जो
अग्रलिखित प्रकार से है.
समाज में परिवर्तन लाने के संबंध में स्वचरित्र की श्रेष्ठता का अवलोकन करते
हुए विवेक जी ने अपने विचार सम्मुख रखे –
श्री कृष्ण (एक सिद्धांत के रूप में) ने बताया कि अगर हम श्रेष्ठता के साथ
आचरण करेंगे तो उसका प्रमाण बनेगा और लोग उसका अनुसरण करते हैं. मानव इतिहास के अनुसार
व्यकित ने उसका अनुसरण किया है. अनुसरण के साथ कोई शाश्वत नहीं बनता, इसमें फिर से विकृतियां
आएंगी और ये क्रम चलता रहेगा. हर बार हमें विकास की ओर चलना है.
श्री कृष्ण के अनुसार-
यद् यद् आचरति श्रेष्ठस्तस्तदेवेतरो जन:स यत्प्रमाणं करुते लोकस्तदनुवर्तते
यानि जैसा अच्छे लोग आचरण करेंगे, लोग उनका वैसे ही अनुसरण
करेंगे.
यदि हम बदलाव चाहते हैं तो उसके लिए कार्य करें, तो उसमें लोग जुड़ते
जाएंगे. निंदकों की चिंता न करें. जितने भी कदम उठाएंगे, उसके साथ लोग जुड़ते
जाएँगे. आप एक साथ किसी को बदल नहीं सकते. अगर हमें कुछ करना है तो
उसे श्रेष्ठता से करें. नदी प्रवाह का प्रतीक है, इसमें यदि परिवर्तन होता
रहेगा. हमें लगातार कार्य करना है. नदियों के लिए हो या पर्यावरण के लिए लोग उसमें
सहयोग देते जाएंगे.
आवश्यकता बदलती है तो उसी अनुरूप मार्ग भी बनते जाते हैं. धर्म धारण होगा, उसमें विकृति भी होगी और
समाज चलता जाएगा. हमें सच्चे उद्देश्य के साथ श्रेष्ठता का उदाहरण स्थापित
करना है, जिससे लोग उसका अनुसरण करें. धर्म प्रचार से नहीं बढ़ता अपितु अभिव्यक्ति से
बढ़ता है.
नदी प्रवाह का प्रतीक है, वह प्रवाह के समुद्र में ले जाती है, हर प्रवाह
उद्देश्य की ओर जा रहा है, जिसका एक उद्देश्य है. इसी प्रकार हर कार्य का उद्देश्य
है, जिसे पूरी निष्ठा से हमें पूरा करना है.
हमारी संस्कृति में धर्म का उद्देश्य है, जब उद्देश्य एक होगा तो प्रवाह भी
बढ़ेगा. भ्रांतियों से डरना नहीं है. जब बत्तख संशय में आती है कि उसे जल में
ज्यादा भोजन मिलता है या थल में उसनें चेष्ठा की और धीरे-धीरे उसके जालनुमा हाथ
बनने लगे.
धर्म धारण होगा, उसका विकास होगा और मानव आगे बढ़ेगा. हमारी राजनीति का
उद्देश्य ही राजनीति है, जो धर्म है और धर्म को आगे बढ़ाने के लिए उद्देश्य को आगे
बढ़ाना होगा. उद्देश्य आगे बढ़ेगा तो सब प्रगति करेंगे. धर्म अलग है, मगर उद्देश्य
एक होना चाहिए. सब अपनी अपनी तरह से प्रगति करेंगे. योद्धा, डॉक्टर, पर्यावरण
संरक्षक सब अपनी अपनी तरह से प्रगति करेंगे और सब मूल परिभाषाओं को समझेंगे.
वृक्ष शब्द में वृ का अर्थ है वृद्धि करने वाला और रक्ष
का अर्थ है बड़े की तरह रक्षा करने वाला. बड़े-बुजुर्गों की तरह रक्षा करने
वाला है, तो वो वृक्ष कहलाता है, मात्र पेड़ नहीं है, इसलिए उसके नीचे बैठ कर
तपस्या करने का चलन आ गया है. इसी प्रकार परम्परा धर्म नहीं है, धर्म मूल विचार को
धारण कर उसकी अभिव्यक्ति करना है, तभी इन भ्रांतियों से निकला जा सकता है.
आचार्य चंद्रभूषण जी ने अपनी हरि-हरा कथा का सही मंतव्य समझाते हुए उसके आधार
पर अध्यात्म में पसरे मिथकों को दूर करने की बात कही –
धरती पर कोई भूखा सोना नही चाहता और न कोई अज्ञानी रहना
चाहता है. यानि हम धरती को फलदार वृक्षों से सजा के सबकी भूख मिटा सकते हैं और
वास्तव में धरती को पढ़े-लिखे लोगों की जरूरत नहीं है बल्कि समझदार लोगों की
आवश्यकता है.
धरती पर मनुष्यों के लिए तीन ही क्रम हैं समझना, जीना और कैसे
जिया, उसको व्यक्त
करना. इसी क्रम को बखूबी समझते हुए आचार्य जी ने 11 लाख पेड़ लगाने का संकल्प लिया
और अब तक 3 लाख से अधिक पेड़ लगा चुके हैं और पेड़ो को बेटी के रूप में लोगों को
देते हैं. जिसको देते हैं उसको रिश्तेदार बना लेते हैं, जिससे लोग
भावात्मक और साधनात्मक रूप से जुड़ते हैं.
साधन और भाव, यदि दोनों मिल के प्रकृति का पोषण संरक्षण करते हैं, तो स्थिति सुखद
हो जाती है. भारत में वृत कथा का काफी महत्व रहा है, इसलिए हरि हरा की
वृत कथा उनके द्वारा लिखी गयी.
जिसके अनुसार भगवान यही कहते हैं कि मैं किसी को दुख नही
देता हुं और मैनें जल, जंगल, जमीन, जानवर सभी को बहुत शुभ भाव से प्रस्तुत किया है. सब अपने
निश्चित आचरण पर हैं, किन्तु मानव के अनिश्चित आचरण होने की वजह से पर्यावरण
असंतुलित हुआ है. मनुष्य जब दूसरे मनुष्य के साथ अपने संबध समझेगा तब वो निश्चित
हो जाएगा.
आध्यात्मिक विचारधारा में परिवर्तन लाने के लिए डॉ. अमित
पाठक ने उदाहरणस्वरुप अपनी बात रखते हुए समझाया -
विचारधारा में परिवर्तन लाने के लिए हम उदाहरण लेंगे
क्रांतिग्राम गांव का, जहां लोगों ने अंग्रेजों का विरोध किया तो वहां
सजा के रूप में अंग्रेजों ने जमीन जब्त कर उन लोगों को दे दीं, जिन्होंने
अंग्रेजों का साथ दिया.
उस गांव में जब हम पहुंचे तो अधिकतम जनसंख्या गरीबी रेखा के
नीचे हैं. उसके लिए हम कुछ बड़ा तो नहीं कर सकते थे. परन्तु वर्ष 2007 के आस-पास
वहां हमने कार्य किया, अभियान चलाए, जिसके फलस्वरुप
वह एक क्रांतिस्थल बन गया.
वहां कुछ भी होता तो पार्षद वहां जाने लगे और उस गांव का
मान-सम्मान बढ़ता गया. हर परिवार की पूछ भी बढ़ गयी. उसका अच्छा असर वर्ष 2012 के
बाद बच्चों पर दिखा. वहां एक प्राथमिक विद्यालय खुल गया. बच्चों ने साइंस में 87
प्रतिशत नंबर प्राप्त किये और वहां से 3 एमबीए बच्चे निकले हैं.
आज एक होड़ बच्चों में दिखी कि हमें आगे रहना है. एक
अध्यापक का फोन आया कि वहां गलत होने वाले कार्यों के खिलाफ अध्यापक,
पढ़े लिखे लोग और
स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारजन जाकर विरोध करते हैं.
एक पहल, एक शहादत की बात,
एक समय में कई
तरीकों से फायदा देती है. हमें घरों से निकल कर कार्य करने पड़ेंगे. जो उस
परिस्थिति को समझते हैं और आर्थिक रूप से सक्षम हैं, उन्हें सरल तरीके
से लोगों को समझाना होगा, तभी कुछ
सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिलेंगे. इस अलख को जगाना होगा,
जब शुरुआत होगी
तो विकास भी होने लगेगा. प्रत्येक व्यक्ति परिवर्तन चाहता है,
इसके लिए आगे आकर
कार्य करने की आवश्यकता है.
इसके लिए उदाहरण है कि हमारी यूनिट का बड़ा स्कूल है,
जहां हमने अपने
सेशन से बच्चों से पूछा कि, “मेरठ डिस्ट्रीक्ट के चारों ओर के जिलों के बारे में
बताओ? यूनाइटेड स्टेट या यूरोप के बारे में तो आप बता
देगें, मुझे मेरठ के जिले के नाम बताइए.” इसके लिए 1 बच्चे
का हाथ उठा, परन्तु उसमें भी उसने एक गलत बताया. तो इस
प्रकार की हमारी शिक्षा पद्धति है, जिसमें भ्रान्ति
भरी हुई है. प्रारंभिक शिक्षा के अंतर्गत सभी मूलभूत तथ्यों को भी लेकर चलना होगा,
तभी नव भारत का
निर्माण संभव है.
आनंद जी ने देश की आध्यात्मिक व्यवस्था में व्याप्त
रुढ़िवादिता को दूर करने के लिए अपने निम्नांकित विचार प्रस्तुत किये -
सर्वप्रथम तो वृक्षारोपण का जो भी संकल्प करते हैं, वह इस
तथ्य पर भी ध्यान दें कि इन सभी वृक्षों का संरक्षण भी उचित रूप से किया जा सके.
राजधर्म धर्म से पृथक नहीं है, परन्तु राजधर्म और अध्यात्म में एक प्रकार का
विरोधाभास स्थापित है.
इन भ्रांतियों को समाप्त करने की बात हो तो, सबसे पहले बात
की जानी चाहिए हमारी भावी पीढ़ी की, आज के जो बच्चे हैं, बहुत से एनजीओ उनके लिए
सरकार से सेक्स एजुकेशन को अनिवार्य करने की बात तो रखते हैं, परन्तु कभी भी यह
बात नही उठाई जाती कि इन बच्चों को आध्यात्मिक शिक्षा देना कितना आवश्यक है?
आध्यात्मिक शिक्षा से हमारा तात्पर्य स्थानीय शिक्षा, स्थानीय ज्ञान एवं पर्यावरण
से सम्बन्धित ज्ञान को बच्चों में अंतर्निहित करने से है, तभी भविष्य में यह बच्चे
तत्काल ग्रहण करें और परिवर्तन ला सके.
परिवर्तन कभी किसी एक के लाने से नहीं आता, बल्कि इसके पीछे
प्रयासों की एक सम्पूर्ण श्रृंखला होती है, जिसके जरिये धीरे धीरे बदलाव आता है.
नवभारत के निर्माण में धर्म, संस्कृति और अध्यात्म के सही
अर्थों को जानने की पहल के बारे में मंत्रणा करते हुए राकेश जी ने कहा -
- शिक्षा व्यवस्था
में भारत की संस्कृति, अध्यात्म और धर्म
के समावेश को एक क्रिटिकल तरीके से देखा जाए. गुरुकुल व्यवस्था पर भी एक सही
पालिसी की ज़रुरत है, जो आज की वैश्विक
ज़रूरतों के हिसाब से हो.
- मंदिर सिर्फ
कर्म काण्ड के ही स्थान ना बने, संस्कृति के
स्थान बनें और शिक्षा, स्वास्थ्य का
केंद्र भी बनें.
- आज की शिक्षा के
साथ लोग अपना इतिहास जानें, कृष्ण के साथ
गांधी और कलाम को भी पढ़ें, बच्चों को पढाएं.
कृषि, प्रकृति आधारित
हमारी जीवन शैली को समझे. कर्म कांड नहीं कर्म पर ध्यान दें.
By Rakesh Prasad Contributors Chandra Bhushan Tiwari Amit Pathak Deepika Chaudhary Anand Prakash Tanu chaturvedi Deeksha Sharma Vivek Sharma {{descmodel.currdesc.readstats }}
परमेश्वर और इंसान के संबंध को दर्शाती, इन चार सदियों से युद्धरत विचारों के नजरिये से देखें, तो बात में काफी वज़न है.
तो क्या जब पंद्रहवी शताब्दी में इंग्लैंड की महारानी मैरी, जिन्हें ब्लडी मैरी भी कहा जाता है, ने इंग्लैंड में कैथोलिक धर्म के प्रसार में हज़ारों “हेरेटिक्स” यानि विधर्मियों को जिंदा जलाया था या जब 700वीं शताब्दी में जर्मन राजा चर्लेस्मागने (Charles Magne) ने एक मिडिल ईस्टर्न यहूदी के रूप में जन्में ईश्वर पुत्र जीसस क्राइस्ट के विचारों को यूरोप का मुख्य धर्म, राज शक्ति के बल पर बनवाया. उसका असर गांधी जी की रणनीति पर पड़ा.
श्रोत - विकिपीडिया - मैरी टोडर (ब्लडी मैरी)
अगर अल अन्दुलस यानि स्पेन के रास्ते यूरोपियन जिहाद पर निकले तारीक और मूसा, दमस्कस के खलीफ़ा के दिए सीधे आदेशों की अनसुनी कर के स्पेन में समय नहीं बर्बाद करते और सीधे इस्ताम्बुल जो कि क्रिस्चियन गढ़ था, पर हमला करते, तो आज यूरोप का धर्म इस्लाम होता. तो क्या गाँधी की रणनीति दो अरबजनरलों की 700वी सदी में की गयी अनुशासन हीनता से पूरी तरह बदल गयी.
और साथ ही दुनिया की आज की तस्वीर भी.
क्या द्वितीय विश्व युद्ध नहीं होता? अगर जर्मन लोगों ने मिडिल ईस्ट से उपजे धर्म सिद्धांत से थोडा आगे बढ़ कर कृष्ण की गीता उठा ली होती और आर्य अनार्य की परिभाषा जो कृष्ण ने पहले दो पन्नों में ही कर्म आधारित कर दी है उसे अपनाया होता. हिटलर जिसने, आर्य सभ्यता और स्वस्तिका को जर्मन लोगों के ऊंचे कुल की परिभाषा बताया और चढ़ आया, इससे दुनिया बच सकती थी.
आज दुनिया में जो हो रहा है वो पहले भी हो चुका है और इसके बीज इतिहास में हैं. कई छोटी बढ़ी घटनाएँ, युद्ध, नीतियां, फैसले इतिहास की दिशा बदल देते हैं और इन समीकरणों के बीच हैं, दुनिया की और उस समय एवं स्थान की संस्कृति, अध्यात्म और धर्म.
रोम ले लें या मिस्र (Egypt) या यहूदि, जब भी किसी समाज के लोग इन तीन मापदंडों से उलट काम करते हैं, सभ्यताएँ समाप्त हो जाती हैं या लम्बी गुलामी को प्राप्त होती हैं.
भारत के सन्दर्भ में इनको समझने के लिए यह समझ लें कि यूरोप और अमेरिका के अगर कोई नेता, अभिनेता खड़ा होता है तो लोग पूछते हैं कि इनका चर्च कौन सा है? सेनेट और कांग्रेस के बड़े नेता, ओबामा हों या मीच मेकाउनेल, सन्डे सर्विस के दौरान चर्च में बच्चों और बड़ों को अध्यात्म सिखाते हैं, अमेरिका प्रोटेस्टेंट सोच जनित अध्यात्म और उससे उपजे धर्म पर आधारित है और इनकी संस्कृति यूरोपियन है.
वहीँ यूरोप - यूरोपियन संस्कृति, क्राइस्ट के कैथोलिक सिद्धांतो पर आधारित अध्यात्म और उससे उपजे धर्म पर आधारित है. यहाँ भी जनता, नेता, अभिनेता इन्हीं मानदंडों को आधार कर कर्म करते हैं.
चीन को देखें तो वहां के लोग कनफ़्युसियस के सिद्धांतो पर चलते हैं और नेता बाकायदा इनकी ट्रेनिंग पाते हैं, उसके बिना कोई चारा नहीं है.
अगर संस्कृति, अध्यात्म और धर्म एक राष्ट्र की दिशा देते हैं और अगर इन तीनों की दिशा सही हो तो नेतृत्व में बदलाव जितना भी आये, देश व समाज सुरक्षित रहता है.
हमारे पिछले कार्यक्रमों को देखें तो -
आज हमारे नेता, अभिनेता सेल्फी टॉप करने के लिए कतार लगा कर खड़े हैं. अमिताभ बच्चन एक तरफ़ बिग बिलियन में अति उन्माद और उपभोक्तावाद बेचते हैं, वही दूसरी तरफ़ अगर बुलाओ तो सफ़ेद कुरता पहन कर नदी बचाओ पर भाषण भी दे आते हैं.
किसान खेती छोड़ कर उबर में गाडी चलाये तो विकास हुआ माना जाता है.
हिंदुस्तान अपनी संस्कृति, अध्यात्म और धर्म से परे कभी चीन बनना चाहता है तो कभी अमेरिका.
हमारी अर्थव्यस्था इधर उधर की कॉपी है, हमारा समाज आज जिससे भी पूछो बोलता है, बस टिप्पिंग पॉइंट है और पॉलिटिक्स कंफ्यूज, बस आपसी विवाद में उलझी है.
हमारी आज की चर्चा में हमारे साथ जुडें हैं कृषा. कॉम के एडिटर-इन-चीफ श्री विवेक शर्मा, रेडियोलाजिस्ट डॉ. अमित पाठक, समग्र शहरी डिजाइन विशेषज्ञ श्री आनंद प्रकाश, सामाजिक वैज्ञानिक आचार्य चंद्रभूषण तिवारी तथा सामाजिक नवप्रवर्तक एवं बैलेटबॉक्स इंडिया के संस्थापक श्री राकेश प्रसाद. जिनसे हम भारतीय धर्म, अध्यात्म एवं संस्कृति से जुड़े विभिन्न पहलुओं के बारे में जानने का प्रयास करेंगे.
भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिक विचारधारा को सिद्धांत रूप में आगे बढ़ाने का कार्य कर रहे श्री विवेक शर्मा जी ने संस्कृति, धर्म और अध्यात्म को परिभाषित करते हुए बताया –
धर्म के अंतर्गत विकृति आवश्यक है -
धर्म के आक्रामक रूप को विकृति माना गया है, परन्तु यह विकृति भी आवश्यक है, संस्कृति लाने में. बिना नकारत्मकता के सकारात्मक नहीं हो सकते जैसे समुद्र में तरंग उठती है अक्रामक रूप में मगर फिर शांत हो जाती है. तो इन दोनों को ही स्वीकृत करना होगा तथा पहले जानना होगा कि धर्म क्या है? वैज्ञानिक तौर पर हमारे ऋषियों ने धर्म के बारे में क्या कहा है?
एक सुप्रसिद्ध ऋषि वचन है.. धारयति इति धर्मा, यानि जिसे धारण किया जाता है, उसे धर्म कहते हैं. लेकिन धारण तो हम वस्त्र भी करते हैं, विचार को भी हम धारण करते हैं और जो भी हम धारण करते हैं, उसे उतारा भी जा सकता है.
जिस विचार को हम धारण करते हैं, उसे अभिव्यक्त करें पूर्ण रूप से..तो वह धर्म है और इस अभिव्यक्तिकरण के पूरा होने को हम संस्कृति कहते हैं. यह एक मूलभूत प्रक्रिया है, जिसे आप इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म और यहां तक के हमारे ऋषि धर्म में भी यही है.
सकारात्मक विचारों को धारण कर अभिव्यक्त करना धर्म है -
धर्म को अक्सर लोग किसी संप्रदाय की संस्कृति से मानकर चलते हैं और इस प्रकार हम गलती कर बैठते हैं. मूल रूप से धर्म किसी भी सकारात्मक एवं विकासोन्मुख विचार को धारण करके उसको अभिव्यक्त करना.
धर्म की पूरी परिभाषा भगवान कृष्ण ने गीता में कही है. गीता के अध्याय तीन में अंतिम श्लोक में यह बात कही गयी है कि हमारे शरीर का एक विशेष अनुक्रम है, जिसमें बुद्धि सबसे ऊपर, फिर मन, फिर इन्द्रियां एवं फिर शरीर होता है.
धर्म को उन्होंने स्वधर्म की परिभाषा से बताया है, हर व्यक्ति की विचार धारण करने की एवं अभिव्यक्त करने की एक क्षमता होती है. संस्कृति जब होती है, जब हम बुद्धि, मन, इन्द्रियों और शरीर से अपने विचारों को अभिव्यक्ति देते हैं, तब संस्कृति होती है और सभी धर्मों में यह समान है और इसमें विकृति तब आती है, जब हम इसे एक रूप में व्यक्त करते हैं तो धर्म में विकृति आ जाती है, जैसे दैहिक रूप से या मानसिक रूप से कर दें तो विकृति आ जाती है.
आत्म-अनुशासन से दूर की जा सकती है विकृति -
संतुलन का खो जाना विकृति है. आक्रामक धर्म और राजनीति विकृति है और यह विकृति सिर्फ भगवान कृष्ण के बताए अनुशासन से, जो अपने आप में वैज्ञानिक है, उससे दूर की जा सकती है. केवल विवाद करने से ही फायदा नहीं होगा.
समाधान का अर्थ मात्र हल करना नहीं होता है, अपितु विरोध में जो नकारात्मक कदम उठा है, उसके समान कदम रखकर सही बात को पुरजोर ताकत से उसको अभिव्यक्त करे, तो वह समाधान कहलाता है.
हिन्दू धर्म “धर्म” नहीं अपितु “संस्कृति” है -
हिन्दू संस्कृति को हिन्दू धर्म न कहकर संस्कृति कहा जाये, अपितु सभी धर्मों को संस्कृति कहा जाना चाहिए. यदि वह अनुशासन में हो रही है तो संस्कृति है और यदि उसमें विकृति है, तो वह धर्म नहीं है, हमें उसका समाना करना है. विकृति से हमे भागना नहीं है, जैसा कि श्री कृष्ण ने गीता में उपदेश दिया है कि,
युद्धस्य विगतज्वरह् अथार्त श्री कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि तुम्हें युद्ध करना है, उससे भागना नहीं है. क्योंकि विकृति दुर्योधन के रूप में अर्जुन के सामने आई थी, जिससे वह भाग रहा था, परन्तु उपदेश के उपरांत उसने इनका सामना किया. इसी तरह हमारे युवाओं के सामने भी बड़ी आवश्यकता है कि जो भी चुनौती आई है, उसका समाधान करें, उससे भागे नहीं.
हिन्दू धर्म कोई धर्म नहीं है, यह सब संस्कृति की अभिव्यक्तियां है, सभी विचारधारा से उत्पन्न हुई हैं. यह सब स्मृति में आने के कारण अपनाई गयी संस्कृतियां हैं.
उदाहरण के रूप में हम देखते हैं कि साधु, जो गांजा आदि नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं, क्या यह धर्म है? यह धर्म नहीं बल्कि विकृति है, जो भले ही शिव ने कभी की हो, (वह उनका अनुशासन था ) परन्तु अब जो हो रहा है वह विकृति है. इस तरह विभिन्न विभिन्न स्थानों पर जो नकारात्मक हो रहा है, वह विकृति है. आक्रामक होना एवं साहसी होने में बहुत अंतर है, साहसी सत्याग्रह से होता है.
समाधान साहस के साथ करना होगा -
गांधी जी के बात करें, तो वह अहिंसा पर क्यों आए? तो वह भी एक प्रकार का चरम था. यानि एक प्रकार की विकृति वहां भी आई थी. अहिंसा का एक नियम है कि “अहिंसा परम धर्म है” कि हमे अहिंसा का पालन करना है, हमे उसको विचार, विनिमय और संप्रेषण से किसी भी विवाद को सुलझाना है.
परन्तु यदि कोई पाशविक प्रवृति लेकर आए, तो हमें क्या करना है.? तो हमें समाधान साहस के साथ करना होगा और तब उसके लिए युद्ध भी करना होगा. इसी लिए श्री कृष्ण ने कहा है कि साहस के साथ समाधान करो.
दूसरी चीज आप देखेंगे कि धर्म इतने ज्यादा क्यों हैं? श्रीमद भागवत गीता, जो कि किसी धर्म विशेष का पालन नहीं करके सभी सम्प्रदायों को साथ लेकर चलती है, उसमें श्री कृष्ण ने कहा है कि “जो भी आप विचारधारा धारण करते हैं, उसको इस नियम, बुद्धि, इन्द्रियों, मन एवं शरीर के अनुपात में पालन करे तो वह संस्कृति होगी, जो कि सर्व कल्याणकारी होगा.
परन्तु यदि ऐसा नहीं करेंगे तो विकृति उत्पन्न होगी और विकृति को दूर करने का समाधान संस्कृति को उजागर करना है. विकृति से लड़ना नहीं है. दूसरा तथ्य जो उन्होंने बताया वह यह कि धर्म कोई एक ही नहीं होता है.
प्रज्ञा के आधार पर ज्ञान प्राप्त करना ही धर्म है -
“श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्”, जिसका अर्थ है कि स्वधर्म ही धर्म है, आपका प्राकृतिक धर्म ही श्रेष्ठकर है. अपनी विचारधारा को अभिव्यक्त करने का जो क्रम है, वही धर्म का वास्तविक स्वरुप है. श्री कृष्ण ने बताया है कि आपको प्रज्ञा के आधार पर लगातार ज्ञान प्राप्त करना है और उसे विकासोन्मुख प्रकार से अभिव्यक्त करते रहना है.
पर्यवरण संतुलन की दिशा में निरंतर कार्य कर रहे सामाजिक नवप्रवर्तक आचार्य चंद्रभूषण तिवारी जी ने भारतीय धर्म, संस्कृति एवं अध्यात्म पर अपने परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करते हुए कहा –
धर्म अबाध है -
धर्म किसी सीमा में बंधा हुआ नहीं है, यानि जिसको अलग न किया जा सके सही मायने में वहीं धर्म होता है. प्रकृति में देंखे तो सभी का अपना धर्म है. पदार्थ का धर्म है बने रहना, पेड़-पौधों का धर्म है बढ़ना, पशु-पक्षियों का धर्म है जीना और मानव का धर्म है सुखपूर्वक जीना.
आज जो हमने हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई धर्म माने हुए हैं, उसी के कारण धर्म के नाम पर भेद हो रहे हैं. धर्म की वास्तविक परिभाषा यही है कि यदि धर्म को समझ लिया जाये तो हम समझदारी के आधार पर जी सकते हैं, जिसका मतलब है कि जिस तरह पदार्थ अपने धर्म पर कायम है, पशु-पक्षी अपने धर्म का पालन करते हैं लेकिन मनुष्यों का कोई धर्म नही दिखता.
धर्महीनता के कारण होती समस्याएं -
मनुष्यों की अधर्मता की वजह से प्रकृति में ग्लोबल वार्मिंग और परिवारों में फैमिली वार्मिंग होती है. वर्तमान में कहने के लिए हमने “वसुधैव कुटुम्कब या सर्वे भवन्तु सुखिन” की बात तो की है, परन्तु वास्तव में हम चौखट से बाहर नहीं निकल पाए हैं.
इसीलिए पहले समझना है, समझ के जीना है और जी करके उसको कैसे जिया? यह अगली पीढ़ी को समझाना है. मानव की श्रेष्ठता यही है कि पहले वो समझे, फिर खुद जिये और उसके बाद दूसरों को व्यक्त करे.
उदाहरण के तौर पर जैसे हम वैल्डिंग करना या कृषि करना सिखाते हैं, उसमें से जो कृषि करना सिखा रहे हैं, वे नौकरी करते हैं और उसी से अपना जीवन-यापन करते हैं. वास्तव में वह कृषि करते कभी दिखते नहीं, बस पढाते हैं.
सार भी यही है, जो हमको काम करना सिखाता है, वास्तविकता में वह उसको जीता नही है. वास्तव में सही को समझना है, उसे जीना है तथा कैसे जिया वह अगली पीढ़ी को कह देना है.
मानवीय संस्कृति के सही आयाम को समझना -
यही मानव का धर्म है और यह किसी भौगौलिक घेरे में नहीं है, बल्कि सर्वकाल, सर्वदेश और सर्वस्थान उपलब्ध है और मानवीय संस्कृति की बात करें तो मानवीय संस्कृति के यही आयाम हैं कि समझना, जीना और कैसे जीए, वह कह देना.
शहरी नियोजन विशेषज्ञ आनंद प्रकाश जी ने धर्म, संस्कृति एवं अध्यात्म पर अपना मंतव्य रखते हुए कहा -
यदि ऐतिहासिक तौर पर देंखे, तो हम कहाँ से चलकर कहाँ पहुंच गए हैं, यह हम खुद भी नहीं समझ पाएंगे. भारत वर्ष का जो इतिहास इंडस एवं सरस्वती नदी के बेसिन से वेदों, उपनिषदों और वेदान्तों के रूप में आरम्भ हुआ था, वह पौराणिक कथाओं, किस्म किस्म की कहानियों से उन्मादी अवस्था तक पहुंच कर एकाएक समाप्त हो गया.
सनातनी एवं अन्य धर्मों के मध्य अंतर -
यदि एब्राह्मिक यानि सनातन धर्म एवं नॉन एब्राह्मिक के मध्य पसरे प्रमुख अंतर को देंखे तो पाएंगे कि सनातन या वैदिक संस्कृति के अंतर्गत व्यापक रूप से ब्रहमाण्ड के संबंधों, सत्य एवं आत्म-खोज की अवधारणा को स्पष्ट किया गया है, वह अन्य कहीं नहीं मिलता है.
दूसरी ओर नॉन एब्राह्मिक धर्म की ओर देखें, चाहे वह ईसाई धर्म हो या इस्लाम धर्म तो यहाँ एक परमात्मा, एक पुस्तक, एक सिद्धांत को माना गया है, जिसका सभी के द्वारा पालन किया जाता है.
वेदान्तों में ब्रह्म शब्द की सार्थकता -
विश्वास और धर्म की व्याख्या उनके लिए बेहद एकांगी या एकआयामी है परन्तु क्या दुनिया इतनी एकआयामी हो सकती है? क्या यह ब्रह्माण इतना एकांगी हो सकता है? इसकी एक बेहद सटीक व्याख्या हमारे वेदान्तों में मिलता है.
वेदों में कहा गया है कि “अहं ब्रह्मास्मि” यानि “मैं ही ब्रह्म हुं”, तो स्वयं को जो खोजने की प्रकिया है, वो भी वेंदों में स्थित है. साथ ही स्वयं और ब्रह्म दोनों अलग-अलग बाते भी दी गयी हैं.
दरअसल वेदों और वेदांतों की बात करे तो भगवान शब्द का कहीं प्रयोग ही नही है और भगवान की कल्पना कोई नही कर सकता.
ईश्वर को प्रकृति का स्वरुप देना -
प्राकृतिक स्वरुप में हमने हमारे पूर्वजों के आधार पर ईश्वर को मानवीय रूप देना आरम्भ कर दिया. जो हमारे पूर्वज थे उनके पास प्राकृतिक शक्तियां थी, जिनकी तरफ वो देखते थे और जिनसे उनका जीवन प्रभावित होता था, चाहे वो अग्नि हो, वायु हो, नदियां हो, उनको लगता था कि इन सभी चीजों से वो शक्ति प्राप्त कर सकते हैं.
इसी कारण अग्नि को अग्नि देव बना लिया, नदियों को अपनी मां बना लिया और अपनी शक्तियों को व्यक्त कर दिया. इसका लाभ यह हुआ कि इंसान इन शक्तियों को स्थापित करने में सफल रहा और उसकी सत्य की खोज पूरी हुई.
सम्पूर्ण वेदों के अंतर्गत सत्य की खोज से लेकर जीवन के विभिन्न आयामों (राजनीतिक, आर्थिक, प्रशासनिक आदि) के साथ एक बेहतर संबंध स्थापित करना सिखाता है.
विकृतियों को समाप्त करने के लिए ईश्वरीय चरित्रों का पुन्रअध्ययन करना होगा -
इस प्रकार हम यहां से चले और फिर बहुत से चरित्र जैसे श्री राम, श्री कृष्ण आदि आए और आज के समय में हम जिन भी विकृतियों का सामना कर रहे हैं, वह उन्हीं चरित्रों के साथ हमारी नासमझी और उनके लिए जुनून का नतीजा है.
इन विकृतियों को दूर करने के लिए हमे देखना होगा कि जिस धर्म को हम धारण करना चाह रहे हैं, उसको धारण करने के स्थान पर उस धर्म के रूपकों को हमने धारण कर लिया है और वह भी उन्माद की हद तक, इसलिए पहले हमें इस उन्माद से दूर होना होगा.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश क्षेत्र में ग्रामों की बेहतरी के लिए कार्यरत रेडियोलाजिस्ट डॉ. अमित पाठक जी ने भारत की धर्म, संस्कृति एवं अध्यात्म की व्यापक व्याख्या करते हुए कहा –
धर्म एवं संस्कृति का हो पुनरावलोकन -
भारतीय धर्म एवं संस्कृति को लेकर गंभीर मनन की आवश्यकता है, यह सोचने की जरूरत है कि आज़ादी के समय या आज़ादी के बाद से लेकर अभी तक हम गांधीवाद पर चल रहे हैं, आज़ादी के समय गांधी जी के विचारों को लेकर ही नए भारत के निर्माण की नींव रखी गयी थी और निश्चय किया गया था कि हम उसी आधार पर चलेंगे.
इस प्रकार प्रशन उठता है कि क्या आज़ादी के 70 साल बाद भी आज वही भारत हमारे सामने है?
भारतीय संस्कृति संस्कारों वाली संस्कृति है, इसके अनुसार हर इंसान अपने संस्कारों के साथ जन्म लेता है. ये संस्कार व्यक्ति के पूर्वजन्म से जुड़े होते हैं तथा इस जन्म में भी परिवार, परिवेश, स्थिति एवं समाज आदि के आधार पर व्यक्ति के संस्कार निर्मित होते हैं.
इस प्रकार प्रत्येक इंसान अपने संस्कारों से बना हुआ एक अलग इंसान है. इसी प्रकार धर्म का चुनाव भी इंसान अपनी विचारधारा और संस्कारों के अनुसार चुनाव करता है.
इसी तरह भारतीय संस्कृति एवं सभ्यताओं में भी केवल तीन या चार विकल्प नहीं रखते हुए सभी का ध्यान रखा गया. आस्तिक, नास्तिक सभी को वरीयता समान रूप से भारत में दी गयी और किसी को भी बांधा नहीं गया.
भारतीय स्पेक्ट्रम के अंतर्गत पहाड़ों में रहकर कंदमूल खाने वालों को भी रखा गया और वहीं अघोरियों पर भी ध्यान दिया, जो शमशान घाट में रहकर कुछ भी खा लेता है, वह भी जिसे आम व्यक्ति खाने की सोच भी नहीं सकता.
व्यापकता है भारतीय संस्कृति का आधार -
इस प्रकार भारतीय संस्कृति की व्यापकता काफी अधिक है, जितनी इंसान की सोच हो सकती है उसे अपने अंदर संजोया और हर विचारधारा को सही माना, यानि परमपद को प्राप्त करने का अपना पृथक मार्ग चुनने का विकल्प हमारी सभ्यता में मिला.
दूसरी ओर यदि एब्राह्मिक विचारधारा की बात करें, तो दुनिया बायोपोलेरिटी पर चलती है, जिसमें पॉजिटिव और नेगेटिव दोनों धाराएं होती है, तभी विद्युत प्रवाह होता है.
एक तरफ ईस्टर्न एशिया में तावेज्म, कंफेशस आदि सभ्यताएं निकली. वहीं अगर वेस्ट एशिया में जाएं तो इसका ठीक विपरीत मिलता है. वहां एक ही बात, एक ही आधार माना गया है और यदि व्यक्ति इनके विपरीत जाता है, तो उसे नर्क का भागी कहा जाता है.
जैसे तालिबानी मानसिकता में अगर उसके विभिन्न गये तो व्यक्ति को मार देना चाहिए. वेस्टर्न विचारधारा के अंतर्गत काफी अच्छे दार्शनिक निकले, जिन्होंने मानसिक संरचनाओं के ऊपर अपने विचार रखे.
उन्होंने भारतीय मूल को आधार माना और अपनी परिभाषाएं देनी शुरू की. किन्तु ये विचार यूनिवर्सिटी तक, सेमिनार हॉल तक या किताबों तक सिमट कर रह गये.
ये तर्क-वितर्क चौपालों पर या आम लोगों के बीच नहीं हुई अपितु सेमिनार में सम्पन्न होती है. यह सिद्धांत चंद किताबों में भी लिखें हैं, परन्तु इनका स्वरुप इतना जटिल है कि आम लोग इसे समझ ही नहीं पाते हैं.
इस प्रकार एक ओर हमने सभ्यता व संस्कृति के आधार दर्शनशास्त्र एवं विचारों को सीमित कर दिया.
त्वरित विकास गति से रुका मानसिक विकास -
दूसरी तरफ एक दूसरा क्रम शुरू हुआ, मानवीय विकास के ऐतिहासिक स्वरुप को देखें तो यह क्रम काफी धीमा था. आज से 80 हजार वर्ष या 50 हजार वर्ष पूर्व जायें तो देखेंगे कि दस हजार वर्ष या फिर बीस हजार वर्ष में एक बदलाव आता था.
अंतिम आइस ऐज युग के बाद से नव-पाषाण काल आया, जिसके बाद से काफी परिवर्तन हुए. कृषि सम्बन्धी विकास, सोसाइटी स्तर पर विकास हए, जिन्हें सिंधु घाटी सभ्यता का नाम दिया गया.
यह सिंधु घाटी सभ्यता की गति अभी 200 वर्ष पूर्व तक चली आ रही थी. इसमें परिवर्तन तो आता था, परन्तु वह इतना धीमा था कि 4-5 पीढ़ियों के बाद आता था और जो भी तकनीक आती थी, उसकी विकास दर बेहद धीमी हुआ करती थी.
वर्तमान पीढ़ी में जो विकास हुआ, वो रेडियो, टेलीविजन से होते हुए इंटरनेट तक पहुंच चुका है, तो हमारा दिमाग तो उस क्रमिक विकास की अवस्था के तौर पर निर्मित हो रखा है..परन्तु उसको यदि त्वरित विकास के लिए कहा जाये, तो यह संभव नहीं हो पायेगा.
हमारी पीढ़ी को आज जबरन जैसे पाषाण काल से लाकर इलेक्ट्रानिक ऐज में डाल दिया गया है, जबकि हम मानसिक रूप से इसके लिए तैयार ही नहीं थे.
भारत में यह समस्या सर्वाधिक है, क्योंकि 1947 में भारत में वह होना चाहिए था, जो 1922 में टर्की में हुआ. जहां कहा गया कि हर बच्चा जो जन्म लेगा वह स्कूल जाएगा.
सभी संस्कृतियों और सभ्यताओं के अच्छे विचारों को करना होगा ग्रहण -
वेस्टर्न सिविलाइजेशन को लेकर मानसिकता बनी है कि हम अच्छे हैं वो बुरे हैं. इससे हमें उबरना पड़ेगा. हर सभ्यता ने मानस विकास में योगदान दिया है, हमें जरूरत है कि अच्छे बुरे को छोड़ें और हर सभ्यता से अच्छे विचारों को लेकर आगे बढ़ें.
1947 से एजुकेशन सब तक नहीं पहुंचाई और औपनिवेशक युग को ही आगे बढ़ावा दिया.ये आम हो गया है कि हम जो हिन्दी बोलते हैं, यदि उसे कोई और बोले तो हम मानते हैं कि सही है परन्तु भारत का ही कोई ग्रामीण बोले तो हम उसे नकार देते हैं.
इस मानसिकता को हमको ठीक करना था, परन्तु वो ऐसे ही चल रहा है. जिन्हें हम पिछड़ा मानते हैं, वह भी अपना हक मांगने आ जाते हैं. इसे एक दिशा देना आवश्यक है. जो संघर्ष हमारे क्रांतिकारियों,स्वतंत्रता सेनानियों ने किया,उस पर कार्य करना होगा.
भगत सिंह को तवज्जो मिलती है, क्योंकि वह आक्रामक थे, उनसे युवाओं में जोश भरता है. स्वतंत्रता सेनानियों ने जो क्रांति के लिए काम किया, वो सामाजिक नवप्रवर्तक के कार्य थे और वे रुढ़िवादी के विरोध में कार्य करते थे.
गांधी के साथ सुभाष चंद्र बॉस को भी रखना चाहिए. गांधी और सुभाष जैसे सेनानियों के बारे में बनी बुकलेट को बच्चों तक पहुंचाना चाहिए ताकि सभी पीढ़ियों तक वह सब बातें पहुंचे. इससे धीरे धीरे वक्त के साथ भावी पीढ़ी संस्कृति ढूंढ ही लेगी.
धर्म और संस्कृति की व्यापकता एवं इसकी भारतीय प्रासंगिकता पर अपना पक्ष रखते हुए राकेश जी ने अपने विचार प्रस्तुत किये :
संस्कृति, अध्यात्म और धर्म को समझने के लिए हमें इतिहास को दो भागों में बाँटना होगा.
करंट एज, यानि पिछले 2 हज़ार साल और उससे पहले का युग यानि करंट एज से पहले का समय- तकरीबन दो से सात हज़ार साल पहले का समय.
विश्व के इतिहास को दो पेरेलल या समान्तर धाराओ में बाँटना ठीक होगा. सिन्धु पूर्व और पश्चिम.
इसके कारण है.
संस्कृति किसी भी देश, समाज का सबसे मज़बूत बंधन है. संस्कृति बनती है ज्योग्राफिकल यानि भौगोलिक सीमाओं से, जैसे समुन्द्र, पर्वत, नदियाँ जो एक मानव समूह को एक जगह पर बांधते हैं. जब मानव धरती, पानी और पंच तत्वों से जुड़ कर काम करता है तो संस्कृति का निर्माण करता है, यानि रहने का तरीका, खाना पीना, घर बनाना, भाषा, गीत इत्यादि.
अगर हिंदुस्तान का इतिहास देखें तो सिन्धु और हिन्दुकुश की पहाडियों तक आ कर रुक जाता है और पश्चिम का इतिहास देखें तो वहां सिन्धु पूर्व की बातें मुश्किल ही मिलती हैं. सिकंदर भी सिन्धु नदी तक ही सीमा बना पाया था.
इंडिया या हिंदुस्तान रोम के ईस्ट ऑफ़ इंडस या पर्शिया के हप्ता हिन्दू शब्दों से आया हुआ लगता है.
यह महाद्वीप उतर में हिमालय, दक्षिण में समुद्र, पश्चिम में सिन्धु और पूर्व में दुर्गम पहाड़ और जंगलों से बनता है और इसकी संस्कृति इन्हीं प्राकृतिक बाधाओं के कारण कुछ अलग है.
वैसा ही अफ्रीका, यूरोप जैसे द्वीपों और इनके सबद्वीपों के लिए कहा जा सकता है.
इसी संस्कृति से उपजता है, अध्यात्म यानि मानव और परमेश्वर का संबंध. सगुण और निर्गुण स्वरुप उनकी व्याख्या, जुड़ाव और समझ.
अब इसी आध्यात्म के हिसाब से हमारा हमारी संस्कृति के साथ क्या व्यवहार हो, और कैसे इस व्यवहार को आम जन द्वारा आसानी से निभाया जाए यह होता है धर्म.
पूर्व और पश्चिम के इतिहास को एक साथ मिला कर पढ़ें, तो एक बड़ी दिलचस्प तस्वीर निकल कर आती है.
दोनों तरफ़ ही, इस युग की शुरुआत एक बड़ी बाढ़ से बताई गयी है, जहाँ भारत में मनु को प्रथम मानव बताया गया है, वहीँ पश्चिम में नूह को.
दोनों को ईश्वर ने आकर आगाह किया था, दोनों ने ही एक बड़ी नाव बना कर जीव, जंतुओं की रक्षा की और मानवता की शुरुआत की.
जहाँ बाइबिल बाढ़ का समय आज से तकरीबन 5 हज़ार साल पहले बताती है, पूर्व का इतिहास पांच हज़ार साल पहले कृष्ण और महाभारत का समय बताता है. यानि दोनों की बाढ़ के समय में बड़ा अंतर है, मनु की बाढ़ 7500 साल पहले जब श्री राम का युग था, उससे भी पहले की बात है.
अगर संस्कृति, अध्यात्म और धर्म के इतिहास को 5 हज़ार साल पहले की बाढ़ से शुरू करें, तो भारत ने शुरुवात की श्री राम और कृष्ण के अध्यात्म के साथ, वेदों के साथ, वहीँ पश्चिम ने शून्य से.
2500 बीसी से ले कर अगर 700 वीं सदी तक जाएँ, यानि तीन हज़ार साल का पश्चिमी इतिहास, संगठित धर्म यानि यहूदी, इसाई और इस्लाम के आने से पहले. तो दुनिया की संस्कृति, आध्यात्म और धर्म काफी एक जैसी थी.
यानि सब अपनी अपनी ज़मीन की प्रकृति की पूजा करते थे, जैसे नदियाँ, सूर्य, अग्नि, इत्यादि. अध्यात्म भी इन्हीं से आता था, हर शहर, गाँव के अपने देवता, यानि निर्गुण परमेश्वर का एक सगुण स्वरूप. जैसा आज भी भारत में, चीन में या पूर्व में देखा जाता है.
मिस्र के पिरामिड देखें या आजकल मनाये जा रहे त्यौहार, सब उनके अपने देव, देवियों की बात करते हैं, जैसे अस्सिरियन मृत राजा एक बड़े गरुण जैसे पंछी पर बैठ कर स्वर्ग जाते थे.
इतिहासकर क्रिसमस यानि 25 दिसम्बर को यूरोप के पुराने सूर्य से जुड़े त्यौहार से जोड़ते हैं. मंडे, ट्यूसडे, इत्यादि देवी, देवता, ग्रहों के ऊपर थे, जैसे मंडे यानि मून का डे, ट्यूसडे यानि तिउ यानि मंगल गृह का दिन इत्यादि.
नील नदी पर भी बाढ़ का मौसम घोषित करने के लिए पंछियों का प्रयोग और त्यौहार उल्लेखित हैं. कुछ भ्रांतियां भी हैं, जैसे पर्शिया में ज़ोरास्थ्रियन धर्म और उसमे इंद्र का वर्णन एक राक्षस की तरह. ऐसा लगता है की हमेशा से कुछ लोग प्रकृति को पूजते थे और कुछ उससे लड़ते थे.
जैसे कृषि आधारित संस्कृति में पूजना ठीक लगता है, मगर नोमेडिक संस्कृति जैसे रेगिस्तान, पहाड़ी इत्यादि विषम क्षेत्रो में इंसान को प्रकृति से लड़ते हुए और उस पर काबू करने की कोशिश करते हुआ दिखाया गया है. अहुरा मज़्दा या वेदों में भी इस संकेत रूप में देव और असुर संघर्ष में दिखाया गया है. आपकी ज़मीन पर प्रकृति कितनी मेहरबान है, उस पर आप देव रहेंगे या असुर निर्भर है ऐसा लगता है.
मगर इन तीन हज़ार सालों में यानि 700 ईसवीं से पहले के समय में कुछ घटनाएं हुई, जिन्होंने पूर्व और पश्चिम को परिभाषित किया :
1. अब्राहम का विद्रोह – यहूदी, इस्लाम और इसाई धर्म के पिता अब्राहम एक मूर्तिकार के पुत्र थे, जो देवी देवताओं की मूर्तियाँ बनाते थे. उन्होंने कहा कि मूर्ति पूजा गलत है और इससे कोई भी राजा अपने आप को भगवान बताता है. उन्होंने बताया कि सिर्फ निर्गुण स्वरुप की पूजा होनी चाहिए.
2. बुद्ध का धर्म – जन्म आधारित जाति प्रथा और दास प्रथा के खिलाफ़ इन्होने आवाज़ उठाई और एक निर्गुण-अध्यात्म आधारित धर्म का गठन किया.
आज इन दोनों को समाज सुधार के प्रयासों को पूर्व और पश्चिम के मूल अंतर की तरह देखा जा सकता है.
जहाँ अब्राहम ने अपनी संतानों के लिए जो कि परमेश्वर द्वारा चुनी गयी हैं और आकाशवाणी के अनुसार तारों के सामान असंख्य होंगी. उनके संरक्षण में पूरी दुनिया का अध्यात्म और धर्म, मानव कल्याण के लिए उचित जाना और अपनी मुहीम राजनीतिक तरीके से शुरू की.
बुद्ध ने विरक्ति का भाव चुना और समाज सुधार का कार्य शुरू किया, धर्म, संस्कृति और अध्यात्म धरती से जुड़े रहे. उन्होंने कोई युद्ध या तख्ता पलट की बात नहीं की.
ये शायद श्री राम और कृष्ण के अध्यात्म से शुरू होने का नतीज़ा ही था या समाज में एक बड़ा स्थान वेदों, रामायण, महाभारत के सगुण और निर्गुण के अध्यात्म ने ले लिया था, जिनसे संघर्ष की जगह नहीं बची थी.
अब्राहम के बाद पश्चिम में अध्यात्म और धर्म संस्कृति से अलग होने लगे, पश्चिम का पूरा इतिहास इसी तरह के धर्म युद्धों से भरा हुआ है.
अब्राहम के पुत्रों की इराक से शुरू हो कर इजराइल तक की यात्रा कई सौ साल के युद्ध भरे इतिहास में दी गयी है.
दो और मुख्य घटनाएं हुई, जीसस क्राइस्ट का पहली सदी में यहूदी समाज में जन्म, समाज सुधार की कोशिश और यहूदी राजा द्वारा रोम सम्राट के इशारों पर इनको लाखों अन्य धर्म विरोधियों के साथ क्रूस पर चढ़ाया जाना.
राज शक्ति द्वारा धर्म और अध्यात्म को जनता पर क्रूरता के साथ स्थापित करने का ये पहला नमूना दिखा पहली सदी में, जब रोम ने दुनिया के पहले संगठित धर्म यानि यहूदी को कुचलने के लिए लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा.
जीसस क्राइस्ट के बाद उनके बारह संतों को भी ढूंढ ढूंढ कर मारा गया, सिर्फ पीटर एक जीवित रह गए थे, जिनकी बातें संतों के द्वारा मुह ज़बानी लोगों तक पहुंची और अगले पांच सौ सालों में बाइबिल में लिखी गयी.
बारहवीं सदी तक भारत में बड़े बड़े साम्राज्य हुए, भारत में राजा ज़मीन के लिए लड़ते थे या आक्रमणों का सामना करते थे या प्रजा के विद्रोह और राजशाही बदली जाती थी.
कभी नन्द, कभी चोल, कभी अशोका, चन्द्रगुप्त, चन्द्रगुप्त मौर्या इत्यादि.. मगर महाद्वीप की संस्कृति, अध्यात्म, और धर्म एक ही रहे. यानि प्रकृति से जुड़े हुए, वेद, कृष्ण, राम, गीता, नदियाँ, मौसम, फसलें, कृषि इसके मूल में रही.
वहीँ पश्चिम में बड़े बड़े राज अभियानों के तहत और बड़ी तेज़ी से अध्यात्म और धर्म में बदलाव हुए और संस्कृति के साथ इनको मिलाया गया.
क्रिसमस का उदाहरण दिया ही गया है, हेलोवीन, ईस्टर, वैलेंटाइन डे इत्यादि पुराने पगान त्यौहार थे, जो आम जनता को नए धर्म और अध्यात्म से जोड़ने के लिए क्रिस्चियन संतों से जोड़ दिए गए.
यूरोप में मिडिल ईस्ट से उठे ईसा पुत्र के अध्यात्म को युद्ध जीतने के लिए, राजाओं ने चर्च के साथ मिल कर धर्म युद्ध का नाम दिया. क्राइस्ट-दम और कॉनक्वेस्ट द्वारा जर्मन कबीलों को एकजुट किया गया और पर्शिया यानि ईरान से युद्ध जीता गया.
सूर्य वंश और अग्नि वंश की लड़ाई में फैसला करने का नायब तरीका चार्लेस्मागने ने निकाला. कैथोलिक धर्म को राज धर्म घोषित कर बड़ी तेज़ी से यूरोप में बल पूर्वक लोगों को एक ही धर्म, एक ही अध्यात्म के अंतर्गत लाया गया. मंदिर, मूर्तियाँ, त्यौहार सब या तो गैर कानूनी कर दिए गए या कैथोलिक धर्म में ही मिला लिए गए.
वहीँ अब्राहम के पहले पुत्र इस्माइल अब अरब संस्कृति के पिता थे. अरब संस्कृति जो कि अभी भी पुराने अध्यात्म जैसे सूर्य, ब्रहस्पति इत्यादि की पूजा करती थी काफी पीछे छूट रही थी.
700 वीं सदी में यहाँ से जन्म हुआ इस्लाम का, जिसने इतनी सदियों से, पुराने प्रकृति, संस्कृति आधारित अध्यात्म और धर्म को पीछे छोड़ एक विस्फ़ोट की तरह अरब से निकल कर पश्चिम और पूर्व का रुख लिया, जिहाद के रूप में.
एक समय लगभग पूरा यूरोप इस्लाम और अरब लड़ाकों के नियंत्रण में था, जिसने बाकि यूरोप को बड़ी तेज़ी से क्राइस्ट और चर्च के अंतर्गत लाने के लिए विवश किया. बड़े पैमाने पर पुराने यूरोप के तौर तरीक़ों को हटा कर एक फेथ यानि क्राइस्ट के अंतर्गत लाया गया, बड़ी बड़ी सेना, बड़े बड़े युद्ध, एक तरफ़ जिहाद और एक तरफ़ कॉनक्वेस्ट लड़ें गए.
शिया केलिफेट ने ईरान कब्जाया, बाकि कैलिफेट भी काफी तेज़ी से फैले और पूर्व में काफी अन्दर तक चले गए, जिन्होंने इन देशों में भी अरब संस्कृति आधारित अध्यात्म और धर्म को स्थानीय संस्कृति में मिला कर राज किया.
आज अगर संस्कृति, अध्यात्म और धर्म को इस रोशनी में देखें तो पाएँगे – पश्चिम में धर्म और अध्यात्म ऊपर से राजा द्वारा राजनीति और सत्ता समीकरणों के प्रभाव में संस्कृति के साथ बल और धर्म की बड़ी गद्दियों के साथ मिल कर विभिन्न प्रचारों द्वारा मिलाये गए.
वहीँ पूर्व में संस्कृति, अध्यात्म और धर्म हज़ारों सालों के ज़मीनी रिफार्म और सुधार अभियानों का फल रहे हैं.
आज हमारा समाज धार्मिक रूप से बहुत सी भ्रांतियों में विभक्त हो चुका है, जिनको समझ कर सही मंथन कर विचारधाराओं का आकलन करना अति आवश्यक है. इसी विषय पर हमारे एक्सपर्ट पैनल के मध्य चर्चा हुई.
सर्वप्रथम विवेक जी ने इन भ्रांतियों पर अपना मंतव्य रखा, उन्होंने कहा :
जहां तक सगुण और निर्गुण का सवाल है, ये सापेक्ष का प्रश्न है. अभिव्यक्ति गुणात्मक है, जो परम सत्य होगा, वो ऐसे ही अभिव्यक्त होता है. सगुण और निर्गुण में कोई अंतर नहीं है.
दूसरी बात जो भी विरोध और प्रगति की निशानियाँ होती है, जिन भी संस्कृतियों का विरोध हुआ, तो विरोध संस्कृतियों का नहीं हुआ, बल्कि विकृतियों का हुआ. विकृति का विरोध चाहे दैहिक, विचारात्मक कैसे भी हुआ हो वह होता रहेगा और निरंतर इसी क्रम में हम आगे बढ़ते जाएंगे.
कितनी सभ्यताएँ हम जी चुके हैं, कितनी जीते जाएंगे, ये निरंतर चलने वाली प्रकिया है. जीवन अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है, जिसमें क्रमिक विकास होता रहता है.
क्रमिक-उन्नति में केवल एक ही पक्ष की महत्ता हो, यह नहीं होता है, अपितु दूसरे पक्ष की भी महत्ता है. यानि अर्जुन नहीं होगा, दुर्योधन नहीं होगा तो विजय कैसे प्राप्त की जाएगी. भीष्म जैसे ज्ञानी भी गलत के साथ होंगे.
यदि अर्जुन और पांच पांडव द्रौपदी चीर हरण के समय अपने धर्म को मानते और उसी समय उसे प्रतिकार और प्रतिबोध के रूप में समाप्त कर देते तो महाभारत नहीं होता.
हमारा उद्देश्य जब एक होगा तो विकास का प्रवाह भी उसी दिशा में होगा. बिना उद्देश्य के ऊर्जा का प्रवाह भी असंभव है. हमारे उद्देश्य जब तक पृथक रहेंगे, तो गतियाँ भी पृथक रहेंगी.
इसी कारण भगवान की अवधारणा आई, कि उसको प्राप्त करने का उद्देश्य अगर सभी का एक होगा, तो सब एकजुट हो जायेंगे. परन्तु उसमें भी सबके उद्देश्य अलग अलग हो गये.
इन प्रकार इन भ्रांतियों और भेदों को मानकर व ध्यान में रखकर आगे बढ़ना ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए. इसके बाद अपने अंदर अनुशासन लाना है. जब तक हमारे स्वयं के भीतर अनुशासन नहीं आएगा, तब तक हम दूसरों को नहीं समझा पाएंगे.
यहां अनुशासन से तात्पर्य किसी व्यक्ति विशेष से नहीं होकर बुद्धि से है. इसी अनुशासन के चलते जीसस, राम और कृष्ण, जो स्वयं में एक सिद्धांत को व्यक्त करते हैं, किसी व्यक्ति विशेष को नहीं. हम भारतीय संस्कृति के अंतर्गत भारत को “भा” यानि “आभा” और “रति” यानि “प्रकाश” की ओर देखते हैं.
सदियों से स्थापित धर्म, संस्कृति एवं अध्यात्म से जुड़े भारतीय सिद्धांतों के वास्तविक रूप पर प्रकाश डालते हुए डॉ. अमित पाठक ने बताया :
आज के परिवेश में देखें तो भारत में लोगों को यह ज्ञान ही नहीं है कि धर्म वास्तव में है क्या? इसको लेकर काफी वाद-विवाद हुआ है, जिसके चलते लोगों ने विकृतियों को धर्म की परिभाषा देना प्रारंभ कर दिया. उसके मूल स्वरुप से हट कर केवल सतही भाग देखते हैं. इसका फायदा राजनीति के अंतर्गत शातिर लोग अपने स्वार्थ के लिए लेना प्रारंभ कर देते हैं और यह स्थिति विश्व के लगभग हर देश में है.
भारत के संदर्भ में देखें तो यहां एक ऐसा समाज है, जिसे शिक्षा से पुश्तों से दूर रखा गया और अपने लाभ के लिए आधी-अधूरी शिक्षा दी गई. कहा जा सकता है कि भारतीय समाज को औपनिवेशिक युग तक ही सीमित रखा और इसी कारण व्यक्ति अपना आधार खोजने के क्रम में अधर्म की ओर चला गया. उसका मानसिक विकास नहीं होने दिया गया.
धर्म के इस नवीनीकरण के अंतर्गत भगवान को, क्रांतिकारियों को जातियों के आधार पर बांट दिया गया है. विकृति वाले लोग समाज को अपनी ओर ले जाएंगें और विध्वंश होगा, इसीलिए बेहतर यही है कि हम चीरहरण से पहले ही बुराइयों को रोक दें. ये पहल आज नहीं हुई तो विकृति वाले लोग समाज को अपनी ही दिशा में ले जायेंगे.
अध्यात्म के साथ यदि संस्कृति को जोड़ा जायें. तो उसमें आ रही भ्रांतियों के संबंध में आचार्य चंद्रभूषण जी ने अपना वक्तव्य रखते हुए कहा :
मानव स्वयं का अध्ययन नहीं कर पाता है, जब वह स्वयं को समझेगा तभी वह दूसरों को भी समझ पायेगा. भय और लालच के आधार पर हम निर्मित हुए हैं, न कोई भयभीत रहना चाहता है और न ही पूर्ण रूप से लालच के साथ जीना चाहता है, क्योंकि लोगों को स्वर्ग का लालच है और नर्क का भय है. इसके आधार पर मनुष्य कहीं पहुंच नही पाया है.
मानव को सबंध पहचानना आना चाहिए. जब मनुष्य पदार्थ, पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों, भूमि, वनों और जानवरों आदि से अपने सबंध पहचानता है, तभी वह अपने स्वधर्म को समझ पाता है, साथ ही जब वह सबंध पहचानता है, तब अपने भय से मुक्त रहता है और नियंत्रित हो जाता है.
सबके मंगल कल्याण में ही अपने मंगल कल्याण को सुनिश्चित करता है. इसके उपरांत उसे जीना आ जाता है और वह दूसरों को भी यह शिक्षा देना आरम्भ कर देता है.
वास्तव में धरती पर कोई अज्ञानी और मूर्ख रहना नही चाहता और यही मानव की खूबसूरती है, इसीलिए हर मनुष्य जिम्मेदार और समझदार होना चाहता है. एक बार यदि मानव सही को समझ जाएगा, तो उसको वह व्यक्त करने लगेगा और शिक्षण में भी यह व्यवहार आ जाएगा.
हमको अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए, क्योंकि उन लोगों ने हमें इतनी अच्छी धरती, भाषा और भाव से सजाया है, ताकि हम सब मिल कर रहे और धरती को स्वर्ग बना सके.
अध्यात्म में हो रहे राजनीतिकरण को समाज में फैली भ्रांतियों का प्रमुख कारण मानते हुए आनंद जी ने इस विषय को समझाते हुए स्पष्ट किया :
धर्म का राजनीतिकरण -
आज के परिदृश्य में देखें तो, हमारे यहां मंदिरों का बेजा पॉलिटिकल इस्तेमाल बहुत सालों से हो रहा है. कभी वो चीज दिखती नही है और कभी अचानक से नजर आने लगती है. हम अपने मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थलों का राजनीतिकरण करते हैं, तो उसका मकसद तो साफ है, लेकिन उस राजनीतिकरण को रोकने के लिए हमारे देश में ज़मीनी रूप से कोई ठोस प्रयास नही हुए हैं.
किस्से-कहानियों में उलझे हैं हम -
आज भी हम अपनी भावी पीढ़ी को हमारे वास्तविक धर्म और संस्कृति से साक्षात्कार करने का ठोस प्रयास किसी भी प्रकार से नहीं किया गया है. आज भी हमने स्कूलों में अपने बच्चों को किस्से कहानियों में उलझा के रखा हुआ है.
हम शारीरिक तौर पर बड़े तो हो गए हैं, लेकिन दिमाग से अभी भी बच्चे हैं. बचपन से ही हमे किस्से-कहानियों का इतना शौक हो गया कि आज भी हम उन्हीं किस्सों में, उन्हीं चरित्रों में उलझकर लड़ाईयां लड़ रहे हैं.
सनातन धर्म बहुत ही परिपक्व दिमाग के लिए माना जाता है, उसका कारण यह है कि अगर आप नही समझेंगे कि आत्मा भी है, परमात्मा भी है और आत्मा को परमात्मा से मिलकर मोक्ष प्राप्त करना है. तब तक आप इस संसार के सच से वंछित रहेंगे और अगर आप इस लीला को अच्छे को समझ लेंगे तो आप इसके निकट नही जाएंगे.
संहार, श्रृंगार और संचार की प्रक्रिया का वास्तविक स्वरुप आज तक भी समझा नहीं गया है. इन सबके पीछे एक ऊर्जा छिपी है, जो इसे चला रही है, हम उसे कोई भी नाम दे सकते हैं.
मूलरूप से हमको जो परिपक्वता चाहिए वो हमने अपनी पीढ़ी को उनके स्कूली पाठ्यक्रम की सहायता से ठीक से नही समझा सके हैं. आज भी हम बच्चों को केवल किस्से-कहानियां ही सुना रहे हैं, तो भ्रांतियां आनी तो तय हैं.
समझना होगा सनातन धर्म का वास्तविक अर्थ -
इसी प्रकार से भ्रांतियां प्रारंभ होती है. वास्तव में हमारा सनातन धर्म तो एक आंतरिक यात्रा है, आप एक समय के बाद अपने अन्दर की यात्रा करना शुरू करदे, परन्तु यह यात्रा आज प्रारंभ ही नहीं हो रही है, न व्यक्तिगत, न सामुदायिक स्तर पर और न ही संस्थागत स्तर पर और इसी कारण आध्यात्मिकता का सही स्वरुप प्रभावित हो रहा है.
जिस दिन हम सही मायने में समझ जाएंगे बाहर जो भी है वो सिर्फ राजनीति है और अंदर जो है वो अध्यात्म है, तभी से एक नया बदलाव हमें देखने को मिलेगा.
समाज में संस्कृति, धर्म से जुड़ी विकृतियों के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को दृष्टिगोचर करते हुए राकेश जी ने अपने प्रस्तुतीकरण में कहा :
परमेश्वर की परिभाषा में सिन्धु पूर्व और पश्चिम एक ही हैं – एक, निर्गुण, निराकार. यूरोप में गॉड, अरबी में अल्लाह या संस्कृत में परम-ईश्वर. ये बात, कि सबमे वही स्पिरिट है यानि ईश्वर का भाग, ये भी एक ही जैसा है.
मुद्दा इंसान और परमेश्वर के बीच जुड़ाव के तरीके का है.
अपने सही रूप में - हिंदुस्तान में अध्यात्म और संस्कृति जुड़े हुए हैं और धर्म उसी जुड़ाव के हिसाब से बना हुआ है.
संस्कृति जो कि सीधे प्रकृति और पंच तत्वों से निकलती है, को वेदों ने और राम, कृष्ण जैसे बड़े व्यक्तित्वों ने सीधे अध्यात्म से जोड़ा है. भारत में कृष्ण को गैया के साथ, तो कभी नदी के किनारे बांसुरी बजाते, राम को हनुमान के साथ, गरुण के साथ, तो वैदिक तरीकों में भी यज्ञ, दही, शहद, आम का पेड़, बरगद का पत्ता, अनाज़, पांच तरीके के फल, ये सब उपयोग में लाना एक तरह से प्रकृति के संरक्षण को बढ़ावा और प्रकृति के रास्ते ही परमेश्वर तक जाने के रास्ते बताते हैं.
गंगा के पानी में कभी नहाने से चरम रोग, कोलेरा दूर होता था, इसीलिए इसको इतना ऊंचा स्थान दिया गया है. पीपल का पेड़ चौबीस घंटे ऑक्सीजन देता है और धर्म के मुताबिक भी हमें इसकी रक्षा करनी चाहिए. सात्विक आहार और आयुर्वेद के तरीके एक धर्म का रूप लेते हैं, मगर ये पूरी तरह संस्कृति और प्रकृति को एक बड़े ही बैज्ञानिक तरीके से आध्यात्मिकता से जोड़ते हैं.
वहीँ पश्चिम में धर्म और अध्यात्म युद्ध के समय की देन है. दो बड़े सिद्धांत जो इसको संस्कृति से काटते हैं और सीधे प्रकृति से युद्ध में लाते हैं.
1. आप अपने तरीके से पूजा नहीं कर सकते, यानि घर में मंदिर में पूजा, यज्ञ, या व्रत इत्यादि कर लिया, आपके लिए कोई वृक्ष ज़रूरी है, उसको धर्म का नाम ले कर बचा लिया इत्यादि. आप हमेशा ये धर्म जहाँ से निकले हैं, वहां पर स्थापित धर्म के चिन्हों, जैसे रोम या अरब की तरफ़ संस्कृति के लिए ताकते रहते हैं. यानि इन्होंने राजा और धर्म के अधिकारियों का प्रभाव आम जनता पर बढाया है. आप सन्डे को ही चर्च जाएँगे या धर्म स्थल नियत समय पर सब एक साथ जाएँगे, जिससे राजा को सेना बनाने में आसानी हो.
यह पश्चिम या रेगिस्तानी इलाकों में जहाँ प्रकृति विषम है और जीवन कठिन है उसके हिसाब से एक जीवन प्रणाली विकसित की गयी थी.
2. इसी कड़ी में दूसरा बड़ा विषय था, यूरोपियन रेनैसेंस. जिसने पहली बार नव्य प्लेटोवाद (neo-Platonism), मानवतावाद (humanism), और व्यक्तिगत (Individualism) के सिद्धांत दिए.
- मानवतावाद : इंसान भगवान की परछाईं है और बाकी सभी जीवों से अलग और ऊंचा है, और बाकी सब जीव, धरती उसके उपभोग के लिए हैं क्योंकि एक वही है जिसके पास चेतना है इश्वर की रचना को समझने की.
- नव्य प्लेटोवाद : यह सिद्धांत कहता है की इंसान को एस्थेटिक्स यानि सुन्दरता पर खासा ध्यान देना चाहिए – इसी क्रम में अगर आप 1500 के आस पास देखेंगे तो यूरोप के कलाकारों ने प्रकृति के चित्र बनाना छोड़ कर इंसान की मूर्तियाँ बनाना शुरू किया. प्रकृति का पूरी तरह दोहन जाना, सुन्दरता के लिए ये एक आम बात दिखी. जैसे टॉयलेट सुन्दर हो मगर सीवर नदी में जाए.
- व्यक्तिगत : यानि इंसान की अपनी संप्रभुता समाज की संप्रभुता से ऊपर है और उसकी संतुष्टि की खोज ही उसका लक्ष्य है.
यूरोप के सारे युद्ध इसी सोच की दे रहे हैं, इंसान की ज़रुरत कभी पूरी नहीं होती. हिटलर को भी जर्मन लोगों के लिए ज़मीन कम लग रही थी, तो इसी सिद्धांत को ले कर पूरा यूरोप लड़ा. अंग्रेजी, स्पेनिश, फ्रेंच कॉलोनी भी इसी सोच पर आधारित रही हैं.
इंसान की सुप्रीमेसी ने इंसान के ऊपर दूसरे इंसान की सुप्रीमेसी ने ले लिया.
भारत में आज बड़ा कन्फ्यूज्ड सा माहौल है, संस्कृति बस एक सेल्फी बन गयी है. अध्यात्म रहा नहीं और धर्म के नाम पर लोग सिर्फ कर्म-काण्ड कर रहे हैं, बिना किसी सोच के.
और इन सभी में सबसे बड़ी हानि हुई है प्रकृति की, गंगत्व की और हिंदुस्तान के भविष्य की, जो आज बड़े संकट में दिख रहा है.
समाज में अध्यात्म को लेकर फैली रुढ़िवादिता और अव्यवस्था को आज दूर करने की आवश्यकता है. किसी भी समाज को सही विकास के लिए प्रत्येक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए अपनी संस्कृति के सही स्वरुप का चिंतन करते हुए आगे बढ़ना होता है. भ्रांतियों को दरकिनार कर निरंतर प्रगतिशील पथ पर बने रहना ही वास्तविक सामाजिक उत्थान है, इसी कड़ी में हमारे नवप्रवर्तकों ने भी अपनी विचारधारा रखी, जो अग्रलिखित प्रकार से है.
समाज में परिवर्तन लाने के संबंध में स्वचरित्र की श्रेष्ठता का अवलोकन करते हुए विवेक जी ने अपने विचार सम्मुख रखे –
श्री कृष्ण (एक सिद्धांत के रूप में) ने बताया कि अगर हम श्रेष्ठता के साथ आचरण करेंगे तो उसका प्रमाण बनेगा और लोग उसका अनुसरण करते हैं. मानव इतिहास के अनुसार व्यकित ने उसका अनुसरण किया है. अनुसरण के साथ कोई शाश्वत नहीं बनता, इसमें फिर से विकृतियां आएंगी और ये क्रम चलता रहेगा. हर बार हमें विकास की ओर चलना है.
श्री कृष्ण के अनुसार-
यानि जैसा अच्छे लोग आचरण करेंगे, लोग उनका वैसे ही अनुसरण करेंगे.
यदि हम बदलाव चाहते हैं तो उसके लिए कार्य करें, तो उसमें लोग जुड़ते जाएंगे. निंदकों की चिंता न करें. जितने भी कदम उठाएंगे, उसके साथ लोग जुड़ते जाएँगे. आप एक साथ किसी को बदल नहीं सकते. अगर हमें कुछ करना है तो उसे श्रेष्ठता से करें. नदी प्रवाह का प्रतीक है, इसमें यदि परिवर्तन होता रहेगा. हमें लगातार कार्य करना है. नदियों के लिए हो या पर्यावरण के लिए लोग उसमें सहयोग देते जाएंगे.
आवश्यकता बदलती है तो उसी अनुरूप मार्ग भी बनते जाते हैं. धर्म धारण होगा, उसमें विकृति भी होगी और समाज चलता जाएगा. हमें सच्चे उद्देश्य के साथ श्रेष्ठता का उदाहरण स्थापित करना है, जिससे लोग उसका अनुसरण करें. धर्म प्रचार से नहीं बढ़ता अपितु अभिव्यक्ति से बढ़ता है.
नदी प्रवाह का प्रतीक है, वह प्रवाह के समुद्र में ले जाती है, हर प्रवाह उद्देश्य की ओर जा रहा है, जिसका एक उद्देश्य है. इसी प्रकार हर कार्य का उद्देश्य है, जिसे पूरी निष्ठा से हमें पूरा करना है.
हमारी संस्कृति में धर्म का उद्देश्य है, जब उद्देश्य एक होगा तो प्रवाह भी बढ़ेगा. भ्रांतियों से डरना नहीं है. जब बत्तख संशय में आती है कि उसे जल में ज्यादा भोजन मिलता है या थल में उसनें चेष्ठा की और धीरे-धीरे उसके जालनुमा हाथ बनने लगे.
धर्म धारण होगा, उसका विकास होगा और मानव आगे बढ़ेगा. हमारी राजनीति का उद्देश्य ही राजनीति है, जो धर्म है और धर्म को आगे बढ़ाने के लिए उद्देश्य को आगे बढ़ाना होगा. उद्देश्य आगे बढ़ेगा तो सब प्रगति करेंगे. धर्म अलग है, मगर उद्देश्य एक होना चाहिए. सब अपनी अपनी तरह से प्रगति करेंगे. योद्धा, डॉक्टर, पर्यावरण संरक्षक सब अपनी अपनी तरह से प्रगति करेंगे और सब मूल परिभाषाओं को समझेंगे.
वृक्ष शब्द में वृ का अर्थ है वृद्धि करने वाला और रक्ष का अर्थ है बड़े की तरह रक्षा करने वाला. बड़े-बुजुर्गों की तरह रक्षा करने वाला है, तो वो वृक्ष कहलाता है, मात्र पेड़ नहीं है, इसलिए उसके नीचे बैठ कर तपस्या करने का चलन आ गया है. इसी प्रकार परम्परा धर्म नहीं है, धर्म मूल विचार को धारण कर उसकी अभिव्यक्ति करना है, तभी इन भ्रांतियों से निकला जा सकता है.
आचार्य चंद्रभूषण जी ने अपनी हरि-हरा कथा का सही मंतव्य समझाते हुए उसके आधार पर अध्यात्म में पसरे मिथकों को दूर करने की बात कही –
धरती पर कोई भूखा सोना नही चाहता और न कोई अज्ञानी रहना चाहता है. यानि हम धरती को फलदार वृक्षों से सजा के सबकी भूख मिटा सकते हैं और वास्तव में धरती को पढ़े-लिखे लोगों की जरूरत नहीं है बल्कि समझदार लोगों की आवश्यकता है.
धरती पर मनुष्यों के लिए तीन ही क्रम हैं समझना, जीना और कैसे जिया, उसको व्यक्त करना. इसी क्रम को बखूबी समझते हुए आचार्य जी ने 11 लाख पेड़ लगाने का संकल्प लिया और अब तक 3 लाख से अधिक पेड़ लगा चुके हैं और पेड़ो को बेटी के रूप में लोगों को देते हैं. जिसको देते हैं उसको रिश्तेदार बना लेते हैं, जिससे लोग भावात्मक और साधनात्मक रूप से जुड़ते हैं.
साधन और भाव, यदि दोनों मिल के प्रकृति का पोषण संरक्षण करते हैं, तो स्थिति सुखद हो जाती है. भारत में वृत कथा का काफी महत्व रहा है, इसलिए हरि हरा की वृत कथा उनके द्वारा लिखी गयी.
जिसके अनुसार भगवान यही कहते हैं कि मैं किसी को दुख नही देता हुं और मैनें जल, जंगल, जमीन, जानवर सभी को बहुत शुभ भाव से प्रस्तुत किया है. सब अपने निश्चित आचरण पर हैं, किन्तु मानव के अनिश्चित आचरण होने की वजह से पर्यावरण असंतुलित हुआ है. मनुष्य जब दूसरे मनुष्य के साथ अपने संबध समझेगा तब वो निश्चित हो जाएगा.
आध्यात्मिक विचारधारा में परिवर्तन लाने के लिए डॉ. अमित पाठक ने उदाहरणस्वरुप अपनी बात रखते हुए समझाया -
उस गांव में जब हम पहुंचे तो अधिकतम जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे हैं. उसके लिए हम कुछ बड़ा तो नहीं कर सकते थे. परन्तु वर्ष 2007 के आस-पास वहां हमने कार्य किया, अभियान चलाए, जिसके फलस्वरुप वह एक क्रांतिस्थल बन गया.
वहां कुछ भी होता तो पार्षद वहां जाने लगे और उस गांव का मान-सम्मान बढ़ता गया. हर परिवार की पूछ भी बढ़ गयी. उसका अच्छा असर वर्ष 2012 के बाद बच्चों पर दिखा. वहां एक प्राथमिक विद्यालय खुल गया. बच्चों ने साइंस में 87 प्रतिशत नंबर प्राप्त किये और वहां से 3 एमबीए बच्चे निकले हैं.
आज एक होड़ बच्चों में दिखी कि हमें आगे रहना है. एक अध्यापक का फोन आया कि वहां गलत होने वाले कार्यों के खिलाफ अध्यापक, पढ़े लिखे लोग और स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारजन जाकर विरोध करते हैं.
एक पहल, एक शहादत की बात, एक समय में कई तरीकों से फायदा देती है. हमें घरों से निकल कर कार्य करने पड़ेंगे. जो उस परिस्थिति को समझते हैं और आर्थिक रूप से सक्षम हैं, उन्हें सरल तरीके से लोगों को समझाना होगा, तभी कुछ सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिलेंगे. इस अलख को जगाना होगा, जब शुरुआत होगी तो विकास भी होने लगेगा. प्रत्येक व्यक्ति परिवर्तन चाहता है, इसके लिए आगे आकर कार्य करने की आवश्यकता है.
आनंद जी ने देश की आध्यात्मिक व्यवस्था में व्याप्त रुढ़िवादिता को दूर करने के लिए अपने निम्नांकित विचार प्रस्तुत किये -
सर्वप्रथम तो वृक्षारोपण का जो भी संकल्प करते हैं, वह इस तथ्य पर भी ध्यान दें कि इन सभी वृक्षों का संरक्षण भी उचित रूप से किया जा सके. राजधर्म धर्म से पृथक नहीं है, परन्तु राजधर्म और अध्यात्म में एक प्रकार का विरोधाभास स्थापित है.
इन भ्रांतियों को समाप्त करने की बात हो तो, सबसे पहले बात की जानी चाहिए हमारी भावी पीढ़ी की, आज के जो बच्चे हैं, बहुत से एनजीओ उनके लिए सरकार से सेक्स एजुकेशन को अनिवार्य करने की बात तो रखते हैं, परन्तु कभी भी यह बात नही उठाई जाती कि इन बच्चों को आध्यात्मिक शिक्षा देना कितना आवश्यक है? आध्यात्मिक शिक्षा से हमारा तात्पर्य स्थानीय शिक्षा, स्थानीय ज्ञान एवं पर्यावरण से सम्बन्धित ज्ञान को बच्चों में अंतर्निहित करने से है, तभी भविष्य में यह बच्चे तत्काल ग्रहण करें और परिवर्तन ला सके.
परिवर्तन कभी किसी एक के लाने से नहीं आता, बल्कि इसके पीछे प्रयासों की एक सम्पूर्ण श्रृंखला होती है, जिसके जरिये धीरे धीरे बदलाव आता है.
नवभारत के निर्माण में धर्म, संस्कृति और अध्यात्म के सही अर्थों को जानने की पहल के बारे में मंत्रणा करते हुए राकेश जी ने कहा -
- शिक्षा व्यवस्था में भारत की संस्कृति, अध्यात्म और धर्म के समावेश को एक क्रिटिकल तरीके से देखा जाए. गुरुकुल व्यवस्था पर भी एक सही पालिसी की ज़रुरत है, जो आज की वैश्विक ज़रूरतों के हिसाब से हो.
- मंदिर सिर्फ कर्म काण्ड के ही स्थान ना बने, संस्कृति के स्थान बनें और शिक्षा, स्वास्थ्य का केंद्र भी बनें.
- आज की शिक्षा के साथ लोग अपना इतिहास जानें, कृष्ण के साथ गांधी और कलाम को भी पढ़ें, बच्चों को पढाएं. कृषि, प्रकृति आधारित हमारी जीवन शैली को समझे. कर्म कांड नहीं कर्म पर ध्यान दें.
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