बापू ने कहा था..
“आज की लगभग समूची राजनीतिक पद्धतियों का - फिर वो पूंजीवादी हों, समाजवादी
हों अथवा साम्यवादी हों – प्रधान लक्षण सत्ता का केन्द्रीकरण है.”
इन पद्धतियों के मताहत चलने वाले राज्यतंत्र ऐसे विशाल बन जाते हैं, कि उनकी
व्यवस्था कठिन हो जाती है और ऊपर से वे भारी भरकम बन जाते हैं. व्यक्तियों का उसमे
कोई महत्त्व नहीं होता, यद्यपि मतदाताओं के नाते उन्हें स्वामी कहा जाता है, समय
समय पर जो चुनाव होते हैं, उनमें अपना मत देने के लिए व्यक्ति उपस्थित होते हैं और
फिर अगले चुनाव तक के लिए लम्बी तानकर सो जाते हैं.
एकमात्र यही ऐसा राजनितिक कार्य है, जो आधुनिक लोकतंत्र के अमुक निर्धारित समय
में व्यक्ति एक बार करता है. यह कार्य व्यक्ति एक केन्द्रित पार्टी पद्धति के
आदेशों तथा समाचार पत्रों के मार्गदर्शन के अनुसार मजबूर हो कर करता है और ये
समाचार पत्र मुख्यत: केन्द्रित आर्थिक सत्ताधारियों के हाथ के खिलौने होते हैं.
व्यक्ति का सरकार की नीतियों के निर्माण में बहुत थोडा या बिलकुल हाथ नहीं होता.
किसी कल्याणकारी राज्य या सर्व सत्ताधारी राज्य में व्यक्ति मानव का रूप रखते हुए
भी एक सुपोषित, मूक तथा राज्य संचालित पशु बन जाता है.
आज जब हम महात्मा गांधी को सिर्फ दोनों गालों पर थप्पड़ खा कर चुप रहने की सीख
देने वाला मान कर मज़ाक बना दिया करते हैं,
उनके व्यक्तव्य कि सब अपने अपने भंगी बनें, कोई किसी का भंगी नहीं - को भुला
बड़े बड़े संगठनों के महास्वछता और सेल्फी अभियानों और उसके पीछे बिग बिलियन के
नारों से घिर चुके हैं.
यह व्यक्तव्य अंग्रेजी सत्ता के समय दिया गया, वह सटीक बयान था जो आज के दौर
के - गूगल, फेसबुक, ट्विटर, चौबीस घंटे न्यूज़ चैनल, फिल्मों और विज्ञापनों के शोर द्वारा
मतदाताओं को कैसे एक मूक पशु बना हर पांच साल में उसका उपभोग किया जाए और उनसे
जुड़े खरबों डॉलर के मार्केटिंग उपक्रमों के उपयोग पर एकदम सटीक उतरता है.
मगर जैसे कृष्ण को बस माखन चोर बोल बोल कर हंसी खेल बना दिया गया, वैसे ही
गाँधी का सच आज कहीं नहीं है, बस है तो सिर्फ कुछ उथली बातें और डिजिटल पेमेंट के
बाद तो वो नोट पर भी नहीं दिखेंगे.
इससे पहले की गांधी इतिहास में कहीं खो जाएँ और उनका स्थान गूगल ले ले और
जिसकी जितनी महँगी लाठी उसकी बात, आपकी पसंद मुताबिक गूगल आपके कान में फुसफुसाए.
आपकी सेल्फी से आपका चेहरा पहचान किलर ड्रोन आपके सर पर मंडराएं और आपकी नस्लें
फिर नील और कपास के खेतों में जोत दी जाएँ.
आईये अपने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को जानने का प्रयास करते हैं. उनके
अर्थशास्त्र, रणनीतिज्ञ एवं राजनीतिज्ञ स्वरुप पर प्रकाश डालते हुए उनके उन सभी
सिद्धांतो की व्यवहारिकता को समझने का प्रयास करते हैं, जो आज मात्र कथनियों तक सिमट
कर रह गयी हैं. आज की “बापू विशेष” परिचर्चा में हमारे साथ जुडें हैं, श्री राकेश
प्रसाद (सीनियर रिसर्चर , बैलेटबॉक्सइंडिया), प्रो. मनोज कुमार (गाँधीवादी विचारक, डीन, स्कूल ऑफ लॉ), श्री सुरेन्द्र कुमार (सचिव, एवार्ड, एनजीओ), डॉ. टी. करुणाकरण (गाँधीवादी चिंतक एवं रूरल डेवलपमेंट विशेषज्ञ) एवं श्री
मिथिलेश कुमार (गाँधीवादी विचारक एवं सहायक प्रोफेसर,महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा). जिनकी मंत्रणा पर मनन कर हम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आदर्शों
को एक बार फिर आत्मसात करने का प्रयास करेंगे.
सेक्शन 1 – गांधीवाद को लेकर समकालीन सोच एवं समझ
मोहनदास करमचंद गांधी आज केवल एक नाम नहीं है, बल्कि भारतीयता का एक
समग्र दृष्टिकोण है, जिसके गूढ़ अर्थ को यदि सारगर्भित कर लिया जाये तो व्यक्तिगत, सामुदायिक अथवा
देशीय स्तर पर विकास के नए समीकरण प्राप्त किये जा सकते हैं. गांधीवाद सिद्धांत के
अनुसार भारत एक ऐसा देश है, जिसे कर्मभूमि मानकर व्यक्ति चंहुमुखी उन्नति कर सकता है,
इसी विषय पर चर्चा हमारे पैनल के विशेषज्ञों द्वारा की गयी.
सर्वप्रथम श्री मिथिलेश कुमार ने गांधी जी के मूल स्वरुप एवं
भारत में उनके आदर्शों की महत्ता को लेकर अपने 18 वर्ष के अध्ययन के आधार पर विचार
प्रस्तुत करते हुए कहा..
गांधी जी एक राजनेता के रूप में माने गए हैं. गांधी का एक
कौशल था, जब भारत आज़ाद नहीं हुआ था,
तब उन्होंने हर
परिस्थिति का सामना डट कर किया. यदि हिंद स्वराज के संदर्भ से देखा जाये तो हम सब
बचपन से हिंद स्वराज के बारे में पढ़ते आए हैं और हिंद स्वराज में गांधी की छवि
दिखती हैं. आज की तारीख में जब कोई राजनीति दल चुनाव में आता है,
तब वह एक घोषणा
पत्र जारी करता है कि कैसे वह सत्ता में आने के बाद देश को किस दिशा में ले जाएगा
और गांधी जी हिंद स्वराज द्वारा पूर्ण रूप से वही कर रहे थे.
1905 में बंगाल का विभाजन हुआ, राष्ट्रीय
कांग्रेस दो भागों में बटा था.. नरम दल और गरम दल फिर ऐसे में भारतीय राजनीति में
बंटवारा दिख रहा है. जब हम भारतीय राजनीति में प्रवेश कर रहे हैं,
जो हमारा अभी तक
का व्यवस्थित आधार है उससे अलग होना चाहिए. गाधी जी ने दो बातें हमें बताई..
एक सत्य की बात और दूसरी अहिंसा की बात.
देखा जाये तो ये बातें बहुत से धर्मों मे दिखती हैं;
जैन धर्म,
बौद्ध धर्म,
सनातन धर्म आदि
सभी में इन मान्यताओं को देखा जा सकता हैं, लेकिन गांधी जी
इस मामले में थोड़े अलग हैं, उन्होंने पहली
बार सत्य और अहिंसा को व्यक्तिगत जीवन से आगे लाकर सार्वजनिक जीवन का एक
पर्यायवाची शब्द बनाया. सार्वजनिक जीवन में हम कैसे सत्य और अहिंसा के माध्यम से
अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं, इसका मूल आधार
गांधी जी ने बताया था. कई विशेषज्ञ भी हैं, जिन्होंने गांधी
के सिद्धांतों को समझने का प्रयास किया है.
मनोज कुमार जी ने गांधी जी की विचारधारा को आज के संदर्भ
में रखकर समझाते हुए कहा..
गांधी जी के जीवन को सही मायनों में समझने की जरूरत आज है,
उन्हें कर्मों से समझा जा सकता है, लेकिन विचारों में उस वृति को लाना नाकाम रहा
है. परिस्थितियां बदलती रहती हैं और बदली परिस्थिति को प्रायोगिक बनाने के लिए
बदलाव आता है. कभी भी किसी ने रूढ़ीवादिता से हट कर गांधी को समझने का प्रयास नहीं
किया.
गांधी सही मायनों में अर्थशास्त्री, दार्शनिक, राजनीतिक
हैं. गांधी का उद्देश्य देश हित निहितार्थ, अंग्रेजी सभ्यता को बाहर करने का था,
जो अपने आप में एक आक्रामक सभ्यता है. इसे हटाने की बात उन्होंने रखी क्योंकि यह
पूंजीवादी सभ्यता को शरण देती है.
जब हिन्द स्वराज के प्रति भारत के राजनीतिज्ञों की समझ नहीं
बनी तो आज़ादी के बाद देश को संगठित करने के लिए, उसे एक स्वरुप देने के लिए
एकजुटता नहीं दिखी, उस समय गांधी जी ने एक राजनैतिक संस्था के रूप जो आज़ादी
प्राप्त की थी, उसे विघटित करने की बात रखी. बहुत ही दबाव गांधी जी पर था, जब
उन्होंने हिन्द स्वराज पर अपने विचार रखे, जिसमें प्रश्न भी उन्होंने पूछा और
उत्तर भी उन्होंने ही दिए.
इसी आलोक में 29-30 जनवरी को जो गांधी जी की अंतिम वसीयत
आती है, जिसमें गांधी जी कांग्रेस को विघटित करने और गांव में राज सत्ता को बिखेर
देने की बात करते हैं.
1947 में जो राजनीतिक आजादी मिली, वह मात्र राजनीतिक आज़ादी
की पक्षधर नहीं थी. शारीरिक युद्ध के आधार पर राजनीतिक सत्ता स्थापित की जा सकती
है, परन्तु वैचारिक सत्ता नहीं. भारत में उस समय गांव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति
करने में पूर्णत: सक्षम था.
गांधी ने बताया कि क्यों रेल की संरचना बनाने में और
पटरियां बिछाने में अंग्रेजों स्वार्थ निहित था? केवल भारत से रॉ मटेरियल ले जाने
के उद्देश्य से नहीं बल्कि वहां के लोहे को भारत में लाया जा सके, इस योजनानुरूप
यह कार्य किया गया. 200 वर्षों तक भारत गुलाम रहा और आज भी गुलाम ही है.
गुलामी तब शुरू होती है, जब आर्थिक संसाधनों का दोहन
प्रारंभ होता है. गांधी जी के अनुसार स्वतंत्रता के अंतर्गत स्वस्थ लोकतंत्र की
बात की जाती है, जिसमें देशवासी प्रगति की बात कर सकें और इस धारणा को उन्होंने
ग्राम-स्वराज से जोड़ कर देखा.
असहमति का दायरा छोटा होता चला गया. शस्त्रीकरण का दौर है
और एक ओर भुखमरी की दौड़ चल रही है. अंतर्राष्ट्रीय राष्ट्रता पड़ोसी सभ्यता को भी
बताता है. अंग्रेजी सभ्यता के तो आज भी हम गुलाम हैं, यह स्पष्ट है कि हमारी बराबर
हिस्सेदारी है. सामूहिक जिम्मेदारी आज समाप्त ही हो गयी है. स्वतंत्र भारत में “मैं
का हम में परिवर्तन” ही गांधी का सपना है.
शक्तिशाली देश होने से उनका मतलब है कि हम न खुद का शोषण
होने देंगे और न दूसरों का शोषण होने देगें. गांधी कहते हैं कि हम देश की जनता को
साथ खड़ा कर देंगे और वह असहयोग के साथ स्वराज का सपना पूरा करें. शासन तो मनुष्य
के चित्त पर निर्भर करता है, अगर लोग इसे ग्रहण नहीं करेंगे तो आज जो आर्थिक
परिवेश में भूमंडलीकरण का दौर चल रहा है, उसमें आर्थिक सत्ता राजनीतिक सत्ता के
लिए खुद ही उपस्थित हो जाएगी.
आज स्वतंत्र भारत में गांधी के सपनों के स्वराज की बात की जाये
या गावंवासियों के सपनों के स्वराज की या फिर स्वयं अपने स्वराज की बात ही कर ली
जाए तो समाज में अहिंसा खुद ही आ जायेगी.
जहां आज किसान आत्महत्या करते हैं, वहीं बेरोजगारी अत्याधिक
बढ़ी है, यानि चारों ओर समस्याएं हैं. आधुनिक सभ्यता से मिली तकनीकों ने हमें बुद्धि
भ्रमित कर दिया है और इस स्थिति में बदलाव लाने के लिए गांधी जी के स्वराज के सही
मायनों को समझना होगा.
गांधीवाद के सही स्वरुप एवं अर्थ पर प्रकाश डालते हुए डॉ.
टी. करुणाकरण ने स्पष्ट किया..
गांधी जी द्वारा किया गया आर्थिक दर्शन और रणनीति सभी जगह क्रांतिकारक है.
गांधीवादी दर्शन शोषण की दृष्टि से नहीं बल्कि पोषण को दृष्टि से मांग के स्थान पर
दूसरे को पुष्ट करने का दर्शन है.
गांधी के सिदंधान्तों में विभिन्न आर्थिक परिद्रश्य जैसे हिंसा आधारित टाइगर
इकोनॉमी, चोरी पर आधारित मंकी इकोनॉमी, सहयोग पर आधारित मधुमक्खी इकोनॉमी के बारे
में बताने के बाद मातृ कौशल्य पर आधारित मदर इकोनॉमी को ही सर्वोच्च बतलाया.
इस प्रकार की आर्थिक दृष्टि द्वारा ही गांधी जी एक नई सभ्यता को सन् 1908 में
हिंद स्वराज द्वारा देखने लगे, जिसमें अर्थव्यवस्था उपभोक्ता के लिए नहीं बल्कि
उपयोगिता पर आधारित पर हो.
अपने ही जीवन से उदाहरण देते हुए गांधी जी ने किस तरह जनता को जागरूक करने का
प्रयास किया, इसकी व्याख्या करते हुए सुरेन्द्र जी ने कहा..
गांधी जी ने स्वयं के सादा जीवन से आम जन में जागरण का सन्देश संप्रेषित किया.
आज के समाज में देंखे तो गांधी जी को महज महान बनाने या देवता बनाने का प्रयास
किया जा रहा है, लेकिन गांधी जी ने कभी इस बात को पसंद नहीं किया. वे न केवल एक
समान्य व्यक्ति की तरह अपना जीवन जीते थे बल्कि अपनी गलतियों से सीख लेकर आगे बढ़ने
का प्रयास भी किया करते थे.
देखा जाये तो गांधी जी ने एक आदर्श जीवन शैली देने का प्रयत्न किया, उन्होंने
समाज को बताया कि हमारी कथनी और करनी में समरूपता होनी चाहिए. आज इसके विपरीत
लोगों की कथनी और करनी के बीच की खाई दिन-प्रतिदिन बढती जा रही है और समाज पर
अविश्वास रूपी संकट मंडरा रहा है, जो जीवन के हर क्षेत्र में है.
महात्मा गांधी से जुड़े गहन अध्ययन के माध्यम से राकेश जी ने अपने वक्तव्य रखते
हुए गांधीवाद की वर्तमान प्रासंगिकता को दृष्टिगोचर करते हुए कहा..
जानें कितने झूले थे फांसी पर और कितनो ने गोली खायी थी, क्यों झूठ बोलते हो
साहब कि चरखे से आज़ादी आयी थी.
ये शेर फेसबुक, व्हाट्सएप पर काफी फेमस हुआ है.
बात राजनितिक है और बनाने वाला अगर गाँधी को थोडा पढ़ पाता तो शायद रूसी ट्रोल
की तरह फेक न्यूज़ नहीं फैलाता या हो सकता है, इसके पीछे विदेशी संस्थाएं ही हों.
मगर इसका असर होता है, ख़ासकर जब गाँधी के बारे में जानकारी पूरी तरह से कुछ गिनी
चुनी किताबों में दबी हुई है और आज के सेल्फी के युग में कोई पढ़ना चाहता ही नहीं.
गाँधी ने जब सत्य और अहिंसा की बात की थी तो उसके पीछे उन्होंने कई बड़े बड़े
लेख खण्डों में एक ऐसे समाज की रूपरेखा भी दी थी, जिससे समाज इतने मज़बूत और
स्वावलंबी हो जाएँ, जिससे प्रत्यक्ष हिंसा की आवश्यकता ही ना हो. अहिंसा परिणाम
था, जो भारत समाज एक बड़े राष्ट्र निर्माण के अभियान के बाद अपना पाया.
महात्मा गाँधी के तरीकों में जो हिंसा थी, वो तो अंग्रेजों से पूछो. जब
इंग्लैंड के इतिहासकार गांधी को एक कुटिल रणनीतिज्ञ की तरह देखते थे. गाँधी के
डंडे के इस तरफ़ हम खड़े हो कर आज चरखे पर सवाल उठा सकते हैं, मगर डंडे के उस तरफ़ जो
था, उसने जो झेला अंग्रेजी इतिहास पढ़ने पर टुकड़ों में सामने आता है.
भारत के शहीदों ने जो किया वो कोई भी योद्धा, जिसकी धरती पर आक्रमण हुआ हो वो
करेगा. मगर गाँधी ने बस उस जगह उस हथियार से वार किया, जिससे चोट बिलकुल सटीक जगह
लगे. आज नव-उपनिवेशवाद जो हमारे देश को खोखला कर रहा है, गंगा में सीवर और बाँध,
स्मॉग, कमज़ोर और बीमार आम जन, सबमें एक गुस्सा और हिंसा, एक तरफ़ सात सौ करोड़ की शादी
और दूसरी तरफ़ उसी शादी को कवर करने आया सड़क के दूसरी तरफ़ खड़ा, “बस एक फोटो सर”
चिल्लाता स्ट्रिंगर, गाँधी के इन्हीं हथियारों को भुलाने का नतीज़ा है.
अंग्रेजी कॉलोनी के बारे में अगर आप समझें तो.
भारत इतिहास में पहली बार एक ऐसी सेना के सामने खड़ा था, जो स्टॉक मार्किट से
फंडेड थी. बंगाल और चेन्नई की कीमत इंग्लैंड के मार्किट में लग चुकी थी और लन्दन
की जनता इन पिछड़े हुए शूद्रों को अपने अध्यात्म और अर्थशास्त्र से नहला देना चाहती
थी.
यूरोपियन रेनासेन्स का दौर था और मानवतावादी (humanism) एवं neo-platonism की समझ से ओत प्रोत
यूरोपियन सेनाएं इंसानी नस्ल की प्रभुता और इस सोच से बनी गोरी नस्ल की प्रभुता को
दुनिया में फ़ैलाने निकली थी.
भारत में अंग्रेज जनता द्वारा वित्त पोषित सेना का शासन था, सिविलियन एलीट
अंग्रेजों का नहीं. सेना पनडुब्बी के कप्तानो, जेल में बन्द् चोरों, निचले स्टार के बाबुओं से
भरी हुई थी, जिनको ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा तनख्वाह और लूट में हिस्से का लालच दे
कर लाया जाता था.
इस सेना के पीछे ब्रिटिश सेना थी, वह सेना जो की द्वितीय विश्व युद्ध में
हिटलर की सेना से भीड़ गई थी.
वह हिटलर की सेना जिसमे एक करोड़ तीस लाख सैनिक, हज़ारों पैन्ज़ेर टैंक और हजारों
बॉम्बर हवाई जहाज़, जिन्हें लुफ्त्वाल्फ़ कहा जाता था से सुसज्जित थे.
आप जानते हैं ये सेना यहाँ क्यों थी. ऍफ़. डी.आई. इंग्लैंड की जनता का
इनवेस्टेड पैसा, जिसका मुनाफा एक अर्थशास्त्री के मुताबिक 43 ट्रिलियन डॉलर हुआ
था. आज भारत का सालाना उत्पाद ही बस ढाई ट्रिलियन के आस पास है.
उस समय के गांधी के बारे में सोचें तो क्या देखा होगा, इसके बारे में भी
सोचिये.
डॉग्स एंड इंडियन्स आर नोट एलाउड, यानि कुत्ते और हिन्दुस्तानी घुस नहीं सकते –
ऐसे बोर्ड दो सौ साल से लगे थे, सिर्फ गांधी को ही क्यों परेशानी हुई?
1857 की क्रांति में बंगाल नेटिव इन्फेंट्री को दबाने के लिए
भारत की ही दो फ्रंटियर रेजिमेंट को ऊंची कीमत दे कर लगाया गया था और एक ने साथ
नहीं दिया था? गाँधी ने ये देखा था.
फेसबुक, ट्विटर और गूगल के सिस्टम को राष्ट्र की संप्रभुता और समृद्धि कुछ सेल्फी और
लाइक्स के लिए दे देने वाले नेता जो आज दिखते हैं, उस समय भी थे. जिन्हें अंग्रेज
लन्दन बुला, इनकी रंगरेलिया रिकॉर्ड कर फिर अपनी उँगलियों पर नचाते थे.
जलियांवाला बाग़ में जनरल डायर के नाम के पीछे वो नाम छुप गए, जिन्होंने असल
में गोलियां चलायी थी.
ये वही नाम थे, जिन्होंने सुभाष की सेना को भी सीमा पर ही रोक दिया था.
एक अंग्रेज इतिहासकार ने लिखा है..
इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था, जब तीस करोड़ लोग सिर्फ कुछ ही दिनों में कुल
पंद्रह हज़ार लोगों की विदेशी सेना के अधीन हो गए और इनका साथ दिया कुछ एक लाख़
स्थानीय लोगों ने सिर्फ एक बंधी पेंशन के लिए? इस देश में राष्ट्र से जुड़ाव नाम की
कोई चीज़ नहीं है.
इसी इतिहासकार ने आगे लिखा है कि यहाँ के राजा बिना वजह लड़ना, अकाल के समय भी
पीड़ित जनता की सहायता नहीं कर उधार ले कर बड़े बड़े झूमर महल के लिए खरीदना पसंद
करते हैं.
स्थिति आज भी वही है.
गांधी के पास अपना अध्यात्म, संस्कृति और धर्म खो चुकी जनता थी, जिनके लिए
वह दुनिया की सबसे मज़बूत सैन्य शक्ति के सामने खड़े थे. जो अपनी अर्थव्यवस्था, संस्कृति और राजनीति भारत
पर लाद चुकी थी.
गांधी और उस समय के सेनानियों के कामों के बारे में अध्ययन करें तो आपको इनके
व्यवहारिक तरीकों का पता चलेगा.
गाँधी के चरखे ने अंग्रेजों के मुनाफ़े पर आघात किया, लोगों में अध्यात्म और
आत्मविश्वास का प्रसार किया, विदेशी निर्भरता समाप्त की और जब कैथोलिक इन्वेस्टर
का ध्यान इस तरफ़ आया तो हिंदुस्तान के गीता के अध्यात्म को सामने कर दिया.
जिससे यूरोपियन नस्ल के मास्टर नस्ल होने का घमंड टूटने का ख़तरा पैदा हो गया.
ये वही सोच थी, जिसका इस्तेमाल कर कर के यूरोपियन सत्ताधारी अपने लोगों का
समर्थन पाते थे और इन्वेस्टमेंट लाते थे.
आज की अगर यूरोपियन फार राईट की बातें सुनें तो गांधी की तकनीकों से सीख ले
कर, उसकी काट कैसे करें? इसी पर वें केन्द्रित है और वो काफी सफ़ल भी हो रहे हैं.
कैथोलिक कर्म आधारित से प्रोटोस्टेंट भक्ति आधारित सोच के बीच की जो डिबेट है,
वो पूरी बापू जैसों के तरीक़ों को कैसे काटा जाए, इसी पर आधारित है.
भगत सिंह ने भी यही कोशिश की थी, मगर फरक ये था कि गांधी ने ये समझा के वो लोग
बहरे नहीं थे बहरे होने का ढोंग था.
महात्मा गाँधी को सिर्फ एक संत या समाज सुधारक की तरह नहीं देखा जा सकता है,
वो एक चाणक्य की तरह युद्ध आधारित समाज के कूटनीतिज्ञ भी थे.
सेक्शन 2 – महात्मा गांधी : एक अर्थशास्त्री के रूप में
एक बेहतरीन अर्थशास्त्री के तौर पर बापू ने दूरदर्शिता से भारत के विषय में
सोचा था. उनका ग्राम स्वराज का सिद्धांत भी शायद उसी प्रगतिशील अर्थशास्त्र का अंग
था, जिसके मूल में कहीं यह तथ्य छिपा था कि “भारत ग्रामों का देश है और कोई भी देश
अपना प्राकृतिक स्वाभाव त्याग कर तरक्की नहीं कर सकता है.” एक अर्थशास्त्री के रूप
में बापू की विचारधारा का अध्ययन हमारे विशेषज्ञों द्वारा किया गया.
सर्वप्रथम मिथलेश जी ने गांधी जी के आर्थिक सिद्धांतों से जुड़े विभिन्न
उपागमों को समझाते हुए बताया कि..
यदि गांधी जी के आर्थिक सिद्धांतों की बात की जाये तो उनके आर्थिक सिद्धांतों
को कई भागों में विभक्त किया जा सकता है, जिनमें से एक है ट्रस्टीशिप. ट्रस्टीशिप
मूलतः अहिंसा का सिद्धांत है. गांधी जी ने प्रौद्योगिकी की बात की थी और इस पर
ज्यादा जोर देते हुए कहा था कि जो उत्पादन है, वो अहिंसक हो और उत्पादन अहिंसक तभी
हो सकता है, जब वह स्वदेशी पर आधारित हो.
स्वदेशी के लिए तीन शब्द महत्वपूर्ण हैं, स्थानीय संसाधन, स्थानीय जरूरत और
स्थानीय बाज़ार. आज हम लोग स्वदेशी के नाम पर मेड इन इंडिया की बात करते हैं कि
मेड इन इंडिया स्वदेशी है. जबकि गांधी ने अपने औद्योगिकी और उत्पादन के अहिंसक
क्रम को समझाने के लिए स्पष्ट कहा था कि स्वदेशी का मतलब है स्थानीय संसाधनों
द्वारा, स्थानीय जरूरत के अनुसार, स्थानीय मांग को पूरा करने के लिए किया गया
उत्पादन.
तीसरा शब्द जो गांधी के सिद्धांत को समझाता है, वो है अपरिग्रह, जो उपभोग करने
की अहिंसक प्रवृति को बताता है क्योंकि जब हम उपभोग करते हैं तो उपभोग करते हुए
हमारा दायरा कितना बढ़ना चाहिए और ये अगर हिंसक होगा तो हम किसी के पेट को भी नहीं
भर सकते.
प्रकृति के पास इतना है कि वह सबका पेट तो भर सकती है लेकिन किसी का लोभ नहीं
भर सकती है. इस कथन को हम अहिंसक और अपरिग्रह सिद्धांत से समझ सकते हैं.
गांधी का सबसे महत्वपूर्ण शरीर श्रम का सिद्धांत है. जब गांधी ने रस्किन की
“वन टू द लास्ट” किताब पढ़ी और उसके बाद गांधी ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा
कि जो मनुष्य का जीवन है, जब तक वो श्रम आधारित नही होगा तब तक मनुष्य के जीवन का
वजूद नहीं है.
जब वह अर्थशास्त्र की बात करते हैं, तब वह एक तरह से शारीरिक श्रम की बात करते
हैं. गांधी को समझने में अहिंसक शरीर श्रम का जो पूरा सिद्धांत है, उसको समझना
होगा. उन्होंने एक और महत्वपूर्ण बात की थी कि हम कैसे पूरी आर्थिक व्यवस्था को
समझ सकते हैं.
जब हम गांधी को समझे तो तीन संदर्भ में समझे..
1. पहला गांधी अपने समय में कितने प्रासंगिक थे?
2. दूसरा गांधी आज के समय में कितने प्रासंगिक हैं?
3. तीसरा गांधी को क्यों पढ़ा जाए?
एक बड़ा वर्ग है जो गांधी के अस्तित्व को ही नकारता है, उस वर्ग का मानना है
कि गांधी को पढ़ने की जरूरत नही है वो तो जीवन जीने की कला है, निश्चित रूप से
गांधी जीवन जीने की कला हैं. गांधी अपने समय में इतने महत्वपूर्ण इसलिए थे,
क्योंकि उन्होंने पहली बार अहिंसा और सत्य को सार्वजनिक जीवन का अंग बनाया है,
उसके ज़रिये ही पूरे स्वतंत्रा संग्रांम को लीड किया.
आज के समय में गांधी इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उन्होंने हमें बताया कि हम
किस तरह के माहौल में रह हैं, एक तरफ वैश्वीकरण है तो दूसरी तरफ वातावरण में बदलाव
का दौर है. जब तक हम ट्रस्टीशिप की धारणा पर नही जाएंगे तब तक हम इस संसार को नही
बचा पाएंगे.
1960 के दशक में राम मनोहर लोइया जी ने कहा था कि आज हमारे पास दो विकल्प हैं
एक है गांधी और दूसरा है अनुभव. इस तरह या तो हम अपने आपको खत्म करले या तो गांधी
के शरण में जाएं, तीसरा कोई रास्ता बचा नही है.
अर्थशास्त्री के रूप में गांधी जी के विचारों को समझकर उनका क्रियान्वन करने
संबंधित विचारों को साझा करते हुए मनोज जी ने अपनी बात रखते हुए समझाया..
अर्थशास्त्री के
रूप में गांधी जी को समझने के लिए हमे सोचना होगा कि गांधी विचार बनता कैसे है? 19
वर्ष की अवस्था में गांधी विदेश जाते हैं और वहां शाकाहारी खान-पान या त्योहारों
को लेकर जो विचार बनते हैं, तो ऐसा लगता है कि भारतीयों के प्रति एक विचार बना है
और उसी को लेकर पश्चिमी संस्कृति और सभ्यता को लेकर एक आग्रह बन रहा है.
गांधी जी जब
भारत लौटते हैं, तब स्वराज के बारे में लिखते हैं और उस समय हमारे जैसा आदमी
सोचेगा कि कहां से गांधी ने यह समझ बनाई कि आज गांधी सामाजिक-आर्थिक समाधान को
लेकर बहस बीएचयू में हुई, कि पहला भाषण अपनी भाषा, दूसरा सवाल राजा महाराजा के
आभूषण एवं जनता की गाढ़ी कमाई का है तथा तीसरा प्रश्न मंदिरों को साफ रखने का है.
यदि आप मंदिर भी साफ नहीं रखते तो आपको स्वराज पाने का कोई अधिकार नहीं है. चौथा
सवाल अपनी जनता की सुरक्षा को लेकर बात करना है.
इसके अलावा तिलक
मैदान में कहते हैं कि यदि देश का एक भी व्यक्ति भूखा है तो आजादी बेकार है. इसके
बाद वे चर्चिल को पत्र लिखते हैं और कहते हैं कि आप 5 हजार देशवासियों की कमाई खा
जाते हैं. चंपारण आने तक कांग्रेस का कोई संगठन नहीं होता है, उस समय राजेन्द्र
प्रसाद जी के पास आकर एक किसान कहता है कि हमने इन्हे पैसा दिया है. गांधी गांव को
ध्यान देते हैं तो एक बात समझ आती है कि अंबेडकर और गांधी। अंग्रेजों के आने के
बाद उनके साथ जो व्यवहार होता था उसमें कमी आई। हम गांधी को बचाना नहीं चाहते,
लेकिन उन्हें स्थापित करना चाहते थे क्योंकि उन्होंने हिन्दुत्व का कभी विरोध नहीं
किया.
गांधी
परिवर्तनवादी हैं, नैतिक हैं. 1885, 1917, 1925 की कांग्रेस में जो असहयोग हुआ,
1938 में चोरा-चोरी की घटना के बाद सविनय अवज्ञा आन्दोलन का बढ़ता कानून चलाया.
सुभाष का जीतना और इसके बाद सीता रमैया का हार जाना एवं 1942 में करो या मरो तक
जाना.
राजनीतिक
स्वतंत्रता के साथ आर्थिक स्वतंत्रता की बात करते हैं और आर्थिक स्वतंत्रता वास्तव
में मानसिक स्वतंत्रता पर निर्भर करती है. समाचार पत्रों को उन्होंने माध्यम बनाया
एवं इस छोटे माध्यम से गांधी ने काफी कार्य किया. दक्षिण अफ्रीका पेंपलेट आने से
भी लोगों को फायदा हुआ. सामाचार पत्रों से गांधी ने लोगों की भावनाओं को जानना,
जनता के हित और देश हित की भावना को जागृत करना आरम्भ किया.
1941 में
रचनात्मक कार्यक्रम के अंतर्गत लोगों को आत्मनिर्भर करने का काम किया. बिना
सत्याग्रह ये संभव नहीं था. आजादी के बाद हमने समझा कि अब सारा काम सरकार करेगी.
लोक कल्याण के नाम पर सत्ता मजबूत होती गयी. 1974 पर आन्दोलन भी तभी से शुरू हुआ,
जिसके 4 कारण थे मंहगाई, बेरोजगारी, कुशिक्षा और भ्रष्टाचार, जो आज भी सुधार की
स्थिति में नहीं हैं.
गांधी से पूछा
गया कि आपने ऐसा कहा तो उन्होंने कहा मैं आज जो कह रहा हूं वह सत्य है. समाज को
सोचने की जरूरत है तभी लोगों को समझाया जा सकता है. हमें अपने आप को समझाकर चलना
होगा. भारत का विभाजन क्यों हुआ, गांधी को किसने मारा, इसके पीछे की राजनीति क्या
थी? आज हम अस्मिता में विभाजित हो चुके हैं. इससे अलग कोई अर्थनीति व समाजनीति
नहीं हो सकती है. राजनीति और समाज वैश्विक राजनीति में बदल गए हैं.
हमें समझना होगा
कि जो व्यवहारिक नहीं है, वह सही नहीं है. इससे सतर्क रहने की जरूरत है. अलग होने
की बात से आरक्षण से दलितों पर गांधी के विचार को समझने की जरूरत है. सभी में
समानता होनी चाहिए, इससे निष्ठा बनेगी और उपेक्षा नहीं होगी. आज मूल्य कम ज्यादा
करने का समय आ गया है. हम किस प्रकार बड़े और छोटे उद्योगों को चला सकते हैं? इसके
लिए कार्य करना बेहतर होगा. जो पड़ोसी देश भारत के दुश्मन हैं, उनके बीच जब तक
सहयोग निर्धारित नहीं होगा तब तक बेहतरी का कार्य नहीं हो पाएगा.
“खादी” और “चरखे” के आधार पर गांधी जी की आर्थिक आज़ादी की मुहिम की व्याख्या
करते हुए डॉ. टी. करुणाकरण जी ने कहा..
अर्थशास्त्र के अंतर्गत ग्राम विकास को गांधी जी ने प्रमुखता दी. गांवो के
विकास के संदर्भ में गांधी जी ने बताया कि 5 मील रेडियस के अंदर गांवों को स्वाबलम्बी
व स्वयंपूर्ण कैसे बनाया जाए.
इस दिशा में आजकल क्लस्टर के नाम पर कई सिदधान्त आये हैं, करीब- करीब सरकार की
योजनाओं में भी ऐसे सिद्धान्त आ ही रहे हैं. किन्तु इसको भौगोलिक सिद्धान्त के रूप
में देखने की दृष्टि आने में काफी में देरी हो रही है.
हाल ही में हमारे नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट, हैदराबाद द्वारा जीपीडीपी
(ग्राम पंचायत डेवलपमेंट प्रोग्राम) के अंतर्गत क्लस्टर आधारित सिद्धान्तों को
लाकर इसे गांधी जी के सिद्धान्तों से जोड़ने की कोशिश की गई है.
क्लस्टर से हम गांवों को संपन्न कर सकते हैं. इसके लिए कृषि और कृषि आधारित
उद्योग दोनों की ग्रामीण स्तर पर कल्पना करने के लिए एग्रीकल्चर व इंडस्ट्री
सिद्धान्त को अपनाना अत्यंत आवश्यक होगा और यहां से शुरू होगा रूरल इकोनॉमिक जोन.
शहर की भूमि का प्रयोग कारखानों से ज्यादा सूक्षम् उद्योगों के लिए होना
चाहिए. यह काफी नया सिद्धान्त है, सूक्ष्म उद्योगों को प्राथमिकता देने से प्रदूषण
रहित औद्योगिकीकरण गांव में ही किया जा सकता है और इससे गांव आर्थिक व रोजगार की
दृष्टि से संपन्न हो सकते हैं.
इसके लिए गांधी जी ने वर्धा में ऑल इंडिया विलेज इंडस्ट्रीज एसोशिएशन (एआईवीएए) शुरू किया, जिसमें हमारा भी योगदान
है. इसके अलावा मोटे उद्योगों को संभालने के लिए गांधी जी पब्लिक सेक्टर को उचित
मानते थे. इसको संभालने के लिए प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति कौन करेगा. इसके
लिए व्यावहारिक दृष्टि भी उनके पास थी.
उद्योग एक कला है, इसमें कुशल नेतृत्व भी देश के लिए जरूरी है, गांधी जी का एक
दृष्टिकोंण अहमदाबाद हड़ताल के समय बाहर निकला. साथ ही गांधी जी पूर्ण रूप से टेक्नोलॉजी
के पक्ष में थे, पर वो नीड आधारित टेक्नोलॉजी में विश्वास रखते थे न कि ग्रीड
आधारित.
गांधी जी शारीरिक श्रम को भी बेहद जरूरी मानते थे साथ ही उनका मानना था कि
आर्थिक और शैक्षणिक विकास, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
गांधी जी इन सब चीजों को मन में रखते हुए कूटनीति के तौर पर भी सक्रिय थे. जिस
टेक्सटाइल टेक्नोलॉजी में भारत पूरी दुनिया में बहुत आगे था, पर अंग्रेजों के
हस्तक्षेप के चलते पिछड़ गया था, उसी टेक्सटाइल टेक्नोलॉजी को एक सिद्धान्त के रूप
में लेकर खादी को बढ़ावा देते हुए चरखे को लेकर वह जी लड़ने लगे और ये उनका एक
शस्त्र बना.
आज के परिदृश्य में गांधी जी को एक ग्लोबल स्वदेशी के रूप में हम समझेंगे तो
डब्ल्यूटीओ के कारण जो भी भूमंडलीय समस्याएं उत्पन्न हुई हैं, उन सभी समस्याओं का
समाधान गांधी जी के सिद्धान्तों द्वारा संभव है.
गांधी जी को किस संदर्भ में लेना है, इस पर कहा जा सकता हैं कि कपास और चरखा
को लेकर कुछ लोग समझते हैं कि गांधी जी की पिछड़ी सोच आज के समय में नहीं चलेगी.
चरखा हमारे देश के लिए एक आर्थिक प्रतीक था, जिसको उन्होंने एक शस्त्र के रूप
में प्रयोग किया. आज के संदर्भ में शायद खादी के लिए दूसरा महत्व है, इसको हमें
समझना पड़ेगा.
जैसे कि गांधी जी कहते थे, इसका महत्व तभी पूर्ण होगा जब खादी, वस्त्र बुनने
वालों के लिए भी इसे पहनना संभव होगा. यह एक काफी महत्वपूर्ण बिन्दु है.
दूसरा इसी संदर्भ में चरखा भी औद्योगिकीकरण का एक माध्यम है. इसके लिए
केन्द्रीय और विकेन्द्रीयकृत औद्योगिकीकरण का समन्वय होना चाहिए. मान लीजिए हर घर
में हम उद्योग चलाते हैं और इसके सामान्य लाभ सभी को मिलते हैं. चरखे से हमें इस
प्रकार के मॉडल को बनाना सीखना होगा.
गांधी जी के अर्थशास्त्र को आम जनजीवन की झांकी बताते हुए
सुरेन्द्र जी ने अपने विचार साझा करते हुए कहा कि..
“अंतिम व्यक्ति तक विकास पहुंचे”, इस अवधारणा के साथ गांधी
जी कार्यरत रहते थे. वह हर आर्थिक एवं राजनीतिक नीति, जिसके अंतर्गत अंतिम व्यक्ति
तक लाभ न पहुंचता हो, उसे गांधी जी ने अप्रासंगिक माना था. राजनीति के अंतर्गत
सत्याग्रह हो या कोई भी रचनात्मक कार्य, सभी को उन्होंने अंतिम व्यक्ति तक पहुँचाने
का प्रयत्न किया.
चरखे और खादी के प्रचार-प्रसार के अंतर्गत गांधी जी की यही
भावना थी, कि अंतिम व्यक्ति तक कैसे आर्थिक लाभ पहुंचाया जा सकता है. उनका मानना
था की प्रत्येक व्यक्ति की मजबूती से ही समाज और राष्ट्र समृद्धशाली बन सकता है.
उन्होंने राजनीति को प्रभावित करने के लिए लोक-शक्ति को उभारने की बात की, परन्तु दुर्भाग्य
से आज के समय में इन सब बातों को नहीं समझा जाता है.
गांधी जी की लोक-शक्ति आज के परिवेश में संगठित नहीं हो
पाती है. आज देश विखंडित होकर तरह तरह की भ्रांतियों, धर्म, जातियों एवं
संप्रदायों में बंट कर रह गया है, जिसमें शक्ति का केन्द्रीकरण हो रहा है. गांधी
जी ने जब कुटीर उद्योगों, कृषि व्यवस्था, लघु उद्योगों की बात की तो व्यापक रूप से
की, आज की भांति उन्हें दरकिनार नहीं किया. उन्होंने इन सब पर बल देते हुए माना कि
इनसे आर्थिक नीति को प्रमुखता मिलेगी और देश विकास करेगा.
आज के समय में देंखे तो आवश्यकता और लालच के बीच की रेखा
मिटती हुई दिखाई देती है और वर्तमान विकास नीतियों में लालच ही हमारी नीतियां बन
रही हैं, जिसके परिणामस्वरुप हर क्षेत्र में हमें संकटों का सामना करना पड़ रहा है,
चाहे वह आर्थिक क्षेत्र हो या पर्यावरण.
अर्थनीति को लोकहित के साथ जोड़ कर गांधी जी चलते थे, परन्तु
आज के समय में इन विचारों का अपेक्षाकृत अभाव है. आज जो भी गाँधीवादी व्यक्ति या
संस्थाएं हैं, उन सभी के साथ एक समस्या यह है कि वे सभी अपनी सुविधानुसार गांधीवाद
को लेकर चल रहे हैं. आज हम सभी को अपनी समझ में गांधी जी की अर्थनीतियों को अपनाने
की जरूरत है, तभी हम अपने समाज का सर्वांगीण विकास कर पाएंगे.
बापू के मानसिक और शारीरिक श्रम की समानता के सिद्धांत की
अवधारणा पर अपने विचार रखते हुए राकेश जी ने बताया..
आज दुनिया के सबसे बड़े संस्थानों से बड़े बड़े अर्थशास्त्री
संसार में आर्थिक असमानता कम करने के बड़े बड़े विस्तृत मॉडल बना रहे हैं, मगर गाँधी जी ने
तो ये समस्या एक पन्ने के लेख में ही हल कर दी थी.
मानसिक और शारीरिक श्रम की समानता का सिद्धांत दे कर.
इनकी विलक्षण अर्थ नीति का पता इसी बात से पता चलता है और
हम कभी भी सामान अवसर देने वाली दुनिया नहीं बना पाएँगे, जब तक एक सामान
मौके सबको नहीं मिलेंगे और एक सामान मौके देने का सबसे नायब तरीका है, सब अपनी मौलिक
ज़रूरतों के लिए यथोचित एक सामान शारीरिक श्रम करें. और उसके जो समय बचे उससे समाज
की समस्याएँ बुद्धिमानी से साथ दें.
उनके औद्योगिकीकरण के बारे में जो विचार थे, वो आज भारत ही
नहीं यूरोप, अमेरिका में भी
बेकारी और गिरती आध्यात्मिकता का कारण बन रहे हैं.
आज दुनिया की 81% वेल्थ यानि समृद्धि दुनिया के सिर्फ 1%
लोगों के पास है, अमेज़न जो की हर छोटे दुकानदार का धंधा बंद करवा रहा है, आज टेक्सास की
आधी ज़मीन का मालिक है और वालमार्ट के मालिक अमेरिका की तकरीबन आधी दौलत अपने
बैंकों में रखते हैं.
गूगल किसी भी मौलिक समस्या का समाधान किये बिना, सिर्फ इंसानी
कमजोरी और आलस्य जनित मूढ़ता को बेच, दुनिया की सबसे बड़ी प्रभावशाली कंपनी है. फेसबुक, ट्विटर इत्यादि
दुनिया भर की प्राइवेसी बेच बेच कर इतने अमीर हैं कि सेनेट में भी नेता अदब से बात
करते हैं और देश दुनिया के प्रधानमंत्री घुटने टेकते हैं.
गाँधी की सोच इन सबसे बिलकुल उलट थी. उन्होंने हमेशा ऐसे
उपक्रमों का विरोध किया, जो शक्ति का केन्द्रीकरण करते थे. आज शक्ति रोमन साम्राज्य की
तरह केन्द्रित है.
आज हाथ का कोई भी काम, छोटा व्यापार सफ़ल
हो ही नहीं सकते हैं, समाज का आर्थिक ढांचा ही कुछ ऐसा हो गया है.
गूगल और अमेज़न आपको अपने पडोसी से व्यापार करने ही नहीं
देता, सीधे चीन से
सस्ता माल डिलीवर करवाता है.
तो लगता है हमने सिर्फ गांधी का इस्तेमाल नव-साम्राज्यवाद
को लाने के लिए ही किया और फिर उन्हें सिर्फ एक दीनता की मूर्ति के नीचे दबा दिया.
कोई किसी का सेवक ना हो, ग्राम स्वराज्य
और बेवजह शहरीकरण का इतना पुरज़ोर विरोध करने के बाद भी आज बाद भी आज हमारी नीतियां
किसानों को सर्विसेज की ओर धकेल रही हैं, ये सिर्फ नक़ल की अर्थनीति है, जो खेती किसानी
नहीं, बल्कि युद्ध
आधारित अर्थशास्त्र और देशों के रिएक्शन में भारत में इम्प्लांट की जा रही हैं.
इंग्लैंड और यूरोप क्यों हिंसा के अर्थशास्त्र का प्रयोग
करते हैं? क्योंकि वहां की
परिस्थिति में जीवन कठिन है, आंतरिक कमजोरी है, खेती किसानी लायक ना तो ज़मीन है, ना ही मौसम. पशु, मीट और प्रोसेस्ड
फ़ूड आधारित अर्थव्यवस्था मज़बूरी है. बड़ी मशीनों से काम ना किया जाए, तो जीवन संभव
नहीं.
हमारे यहाँ ऐसा नहीं है, फिर भी हम नक़ल
करते हैं और दुर्गति को प्राप्त हो रहे हैं.
बापू और शास्त्री के जय जवान, जय किसान के नारे
पर हमारी अर्थव्यवस्था की बुनियाद होनी चाहिए. सर्विसेज और कॉल सेंटर हमें पराधीन
ही बनाएगा.
सेक्शन 3 – एक राजनीतिज्ञ के रूप में महात्मा गांधी एवं समकालीन परिवेश में
उनके सिद्धांतों का क्रियान्वन
वर्तमान परिवेश में गांधी जी के राजनीतिक विचारों की भूमिका को किस प्रकार
रेखांकित किया जा सकता है और यदि आज के हर क्षण बदलते परिवेश में हम गाँधीवादी
आदर्शों का प्रतिस्थापन करें तो कौन सी समस्याएं हमारे सम्मुख आयेंगी? इन सभी पर
की गयी चर्चा अग्रलिखित रूप से दी गयी है.
गांधी जी के
राजनीतिक विचारों का आज के समय में अवलोकन करते हुए लोकतंत्र की सही व्याख्या करने
के संबंध में सर्वप्रथम मनोज जी ने अपने विचार रखते हुए समझाया..
आज आदर्श
व्यवहार बनता है और सिद्धांत निर्धारित हो जाता है. लोकतंत्र सर्वोत्तीर्ण
व्यवस्था के रूप में स्थापित है. किन्तु राजनीति को पारदर्शी होना चाहिए, जो नहीं
हो सका है. गांधी जी की आलोचना का क्या अर्थ रहा? यह समझना अतिआवश्यक है. लोकतंत्र
का विस्तार होना आवश्यक है.
आज जानना होगा
कि क्या कारण है कि हम भारत माता की जयकार करते हैं? क्या कारण है कि जनता में
असंतोष की भावना आ गयी है? 1947 में आजादी के बाद लोकतंत्र को संभाल कर नहीं रख
सके तो अब इसे संभालने की जरूरत है क्योंकि यह संकट का आरंभ है.
बेरोजगारी,
भ्रष्टाचार देश में निरंतर फैलता जा रहा है. इसी कड़ी में देश की, गांव की, घर की,
व्यक्ति की समस्या के बीच अंतर विरोध क्यों है? इस विषय में जानना होगा, तभी देश विकसित हो सकता है.
गांधी जी के राजनीतिज्ञ संदर्भ में विचार करते
हुए मिथलेश जी ने कहा..
अगर हम राजनीतिज्ञ शब्द का प्रयोग करे तो उसके
दो अर्थ हैं, पहला राजनीति विज्ञान की पुस्तकों से रूढ़ अर्थ लिया जाता है, जिसमें राजनीति राज करने की कला के रूप में है.
एक किताब के अनुसार, जिसमें लिखा है..राजा किस तरह राज करेगा? इसका एक संदर्भ राजनीति के रूप में है. गांधी के
लिए राजनीति थोड़ी अलग संदर्भ में है, गांधी राजनीति को विश्व के नैतिक, व्यवस्थित शासन के रूप में देखना चाहते थे.
मनुष्य किस रूप में शासन कर सकता है? और उसके लिए कौन सी
प्रेरणा जागती थी, उसी को राजनीति कहते थे. जब गांधी ने राजनीतिज्ञ के तौर पर बात की थी, तो उसके तीन संदर्भ दिए
थे.
1.धर्म के साथ आपका एकाकार
2. स्वराज की प्राप्ति
3. लोकतंत्र के साथ आपका संबध.
गांधी के लिए धर्म का मतलब है, जो सभी लोगों को आपस में
जोड़ कर रख सके, उस धूरी का नाम धर्म है. धर्म गांधी के लिए एक धूरी है, जिसके इर्द-गिर्द वो समूची
आर्थिक, राजनीतिक एंव सामाजिक सत्ता को बांध के रखा जा सके.
जब हम गांधी के स्वराज की बात करते हैं तो उनके
लिए स्वराज का मतलब है, अपने आपको जान लेना और अपने अंदर छिपी नैतिकता को पहचान कर
उसके साथ प्रत्येक व्यक्ति के महत्व को जानना तथा उसके अधिकारों और कर्तव्यों की
इज्जत करना.
गांधी जी का मानना था कि सम्पूर्ण संसदीय व्यवथा
केवल सत्ता के पीछे चलता है और यह व्यवस्था केन्द्रीकरण को बढ़ावा देती है. परन्तु
इसमें यदि स्वराज की भावना जागृत करदी जाये तो यह विकेंद्रीकरण को बल देगी और समाज
कल्याण को प्रगति मिलेगी. सत्ता की निरंकुशता को समाप्त करने के लिए स्वराज को
अपनाना आवश्यक है.
महात्मा गांधी के जीवन दर्शन को समझकर राजनीति के अंतर्गत उनकी मान्यताओं की
स्थापना के विषय में चर्चा करते हुए डॉ. टी. करुणाकरण ने बताया..
गांधी जी के दर्शन को एक शब्द से समझा जा सकता है, ‘रामराज्य’ . रामराज्य का मतलब
है, स्वशासन अर्थात् एक ऐसा शासन जहां जनता अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए
स्वयं सक्षम होगी. उसके ऊपर सत्ता का अधिकार नहीं होगा.
गांधी जी रूलरशिप की जगह लीडरशिप में विश्वास रखते थे. इसको ज़मीन पर लाने के
लिए उन्होंने ग्राम स्वराज की कल्पना की. इसके लिए उन्होंने अपनी अंतिम वसीयत में
35 लाख युवकों का हम कैसे नेतृत्व करें व उन्हें पांच दिशा के हुनर देकर तैयार
करें, इसका पूरा ब्लू प्रिंट दिया है. इस प्रकार के युवकों को तैयार करना आज भी
संभव है. मध्य-प्रदेश में इस पर आधारित योजना “कम्युनिटी लीडरशिप डेवलपमेंट” के
नाम से चल रही है. इन सभी से गांधी जी की सद्भावना और समता की भावना को बल मिलेगा
और राजनीति में नव-परिवर्तन आएगा.
गांधी जी की राजनीतिक विचारधारा से संबंधित विचारधारा की व्याख्या करते हुए
सुरेन्द्र जी ने बताया..
गांधी जी ने अपने आंदोलनों एवं कार्यक्रमों के माध्यम से जनजीवन की समस्याओं
का समाधान करने का प्रयास किया. उन्होंने आम लोगों को अपने साथ जोड़ा तथा देश हित
की अलख जगाई. चम्पारण सत्याग्रह, बारदौली सत्याग्रह एवं नमक सत्याग्रह के जरिये
बहुत से लोग गांधी जी से जुड़े.
केवल आंदोलन ही नहीं, बल्कि रचनात्मक कार्यों से भी उन्होंने आम लोगों को जोड़े
रखा, क्योंकि गांधी जी जानते थे कि शांति के दौर में रचनात्मकता के मायने काफी
अधिक हैं. गांधी जी ने अपनी पुस्तक “मेरे सपनों का भारत” में गांधी जी ने
स्वतंत्रता के पश्चात नव-भारत के निर्माण के विषय में लिखा. यह बात दीगर है कि आज
हम उनकी बनाई व्यवस्था से दूर हो चुके हैं, इसी कारण हमारे समाज में विभिन्नता,
विखंडता आई, हमारे पर्यावरण, लघु-कुटीर उद्योगों का भी विनाश हुआ.
उच्च शिक्षा व्यवस्था का जो सिस्टम अंग्रेजी शासन काल में चला, उसी की धुरी पर
हम आज घूम रहे हैं, जिस कारण बेरोजगारी आज आम है. गांधी जी की स्वस्थ समाज संरचना
के आयामों से आज हमारे नीति-निर्णायकों ने हमे भटका दिया है.
गांधी जी की सत्य और अहिंसा की नीति, जो स्वस्थ राजनीति का केंद्र हुआ करती
थी, उसका स्थान आज सामाजिक हिंसा, औपनिवेशिक हिंसा आदि ने ले लिया है. पूरे देश
में हिंसक वातावरण का दौर है.
राजनीतिक रूप से हमारे लोकतंत्र के अंतर्गत प्राप्त अधिकारों का दिन-रत हनन
किया जा रहा है. सत्ता पर काबिज लोग अपनी जगह बनाए रखने के लिए लोगों के अधिकारों
को न्यूनतम कर रहे हैं. न्यायपालिका व्यवस्था इतनी खर्चीली है कि, गांधी जी की
ग्राम पंचायत, न्याय व्यवस्था की अवधारणा कहीं लुप्त सी हो गयी है.
आज़ादी के बाद के भारत निर्माण में हम गांधी
जी के मार्ग से कही भटक गए हैं. आज आवश्यकता है कि गांधी विचारों के
विशेषज्ञ एवं भारत के नेत्री निर्माता एक साथ बैठ कर इस व्यवस्था पर पुन: अवलोकन
करें और गांधी जी का मार्ग आज कितना प्रासंगिक है और इसको किस प्रकार क्रियान्वित
किया जा सकता है, उस दिशा में हमें आगे बढ़ने की आवश्यकता है.
गांधी जी के व्यक्तित्व निर्माण पर बहुत ज्यादा बल देकर उनके विचारों को गहनता
से स्थापित करने की आवश्यकता है. गांधी दर्शन को समग्रता से समझ कर ही हम नए समाज
का निर्माण कर सकते हैं और एक सुखी, समृद्ध, शांतिपूर्ण और अहिंसक समाज की स्थापना
हो सकती है.
राजनीति के अंतर्गत गाँधीवादी जीवनदर्शन के तथ्यों को उजागर करते हुए राकेश जी
ने कहा..
राजनीति के बारे में अगर हम गांधी जी के जीवन दर्शन को देंखे तो उन्होंने थियोलोजी
के क्षेत्र में भी काफी कार्य किया. उन्होंने धर्म के अंतर्गत संकुचित दृष्टिकोण
को बढ़ावा नहीं देते हुए कुरान, बाइबिल, यहूदी धर्म आदि को भी अपने सिद्धांतों में
सम्मिलित किया.
राजनीति के अंतर्गत उन्होंने बताया कि हमारी वैश्विक समझ मजबूत होनी चाहिए.
गांधी जी ने व्यापक रूप से समझाया कि वैश्विक रूप से सुदृढ़ होने के लिए किस प्रकार
की विचारधारा होनी चाहिए. साथ ही गांधी जी ने युवाओं में कौशल क्षमता बढ़ाने की बात
भी रखी. गांधी जी के आदर्शों को स्थापित करने के लिए कुछ बिन्दुओं पर सोचना होगा..
1. राजनीति के अंतर्गत प्रमुख रूप से विवादास्पद सिद्धांतों या विचारों को व्यवस्थित
करके राष्ट्रहित के दिशा में मोड़ना होता है. राजनीति के अंतर्गत यदि गांधी जी के
विचारों से सीख ली जाये तो इस दिशा में एक उन्नत शोध होना चाहिए. गांधी जी और कलाम
जी के सिद्धांतों को सही मायनों में विवेचना करनी होगी और राजनीति के लिए कुछ
बेहतर नीतियां बनानी होंगी.
2. इन नीतियों का व्यवहारिक क्रियान्वन हो, इस प्रकार
की व्यवस्था की जानी चाहिए कि सात लाख गांवों में तकरीबन पांच कौशलसम्पन्न लोग हों
और अनवरत कौशल विकास होता रहे.
3. साथ ही सोचना होगा कि ये कौशलसंपन्न लोग
स्थानीय स्तर के हों या किसी वर्ग विशेष में स्किल लोगों का समूह.
4. कोई भी योजनाएं जो बाहर से आती हैं, उनके
स्थानीय मानकों पर पड़ने वाले प्रभाव की भी विवेचना की जानी चाहिए और राजनीति का यह
कार्य है कि उचित रूप से इनका क्रियान्वन हो सके.
5. इसके अतिरिक्त गांधी जी के सिद्धांतों को
लेकर अल्प भागों में या छोटे लेखों के रूप में उन्हें दस्तावेजित किया जाना भी
आवश्यक है, जिससे यह सब लगातार चर्चा का विषय बना रहे.
By Rakesh Prasad Contributors Dr. T. Karunakaran Tanu chaturvedi Mithilesh Kumar Deepika Chaudhary Surendra Kumar Kavita Chaudhary Prof. Manoj Kumar Prof. Manoj Kumar Mrinalini Sharma {{descmodel.currdesc.readstats }}
बापू ने कहा था..
इन पद्धतियों के मताहत चलने वाले राज्यतंत्र ऐसे विशाल बन जाते हैं, कि उनकी व्यवस्था कठिन हो जाती है और ऊपर से वे भारी भरकम बन जाते हैं. व्यक्तियों का उसमे कोई महत्त्व नहीं होता, यद्यपि मतदाताओं के नाते उन्हें स्वामी कहा जाता है, समय समय पर जो चुनाव होते हैं, उनमें अपना मत देने के लिए व्यक्ति उपस्थित होते हैं और फिर अगले चुनाव तक के लिए लम्बी तानकर सो जाते हैं.
एकमात्र यही ऐसा राजनितिक कार्य है, जो आधुनिक लोकतंत्र के अमुक निर्धारित समय में व्यक्ति एक बार करता है. यह कार्य व्यक्ति एक केन्द्रित पार्टी पद्धति के आदेशों तथा समाचार पत्रों के मार्गदर्शन के अनुसार मजबूर हो कर करता है और ये समाचार पत्र मुख्यत: केन्द्रित आर्थिक सत्ताधारियों के हाथ के खिलौने होते हैं. व्यक्ति का सरकार की नीतियों के निर्माण में बहुत थोडा या बिलकुल हाथ नहीं होता. किसी कल्याणकारी राज्य या सर्व सत्ताधारी राज्य में व्यक्ति मानव का रूप रखते हुए भी एक सुपोषित, मूक तथा राज्य संचालित पशु बन जाता है.
आज जब हम महात्मा गांधी को सिर्फ दोनों गालों पर थप्पड़ खा कर चुप रहने की सीख देने वाला मान कर मज़ाक बना दिया करते हैं,
उनके व्यक्तव्य कि सब अपने अपने भंगी बनें, कोई किसी का भंगी नहीं - को भुला बड़े बड़े संगठनों के महास्वछता और सेल्फी अभियानों और उसके पीछे बिग बिलियन के नारों से घिर चुके हैं.
यह व्यक्तव्य अंग्रेजी सत्ता के समय दिया गया, वह सटीक बयान था जो आज के दौर के - गूगल, फेसबुक, ट्विटर, चौबीस घंटे न्यूज़ चैनल, फिल्मों और विज्ञापनों के शोर द्वारा मतदाताओं को कैसे एक मूक पशु बना हर पांच साल में उसका उपभोग किया जाए और उनसे जुड़े खरबों डॉलर के मार्केटिंग उपक्रमों के उपयोग पर एकदम सटीक उतरता है.
मगर जैसे कृष्ण को बस माखन चोर बोल बोल कर हंसी खेल बना दिया गया, वैसे ही गाँधी का सच आज कहीं नहीं है, बस है तो सिर्फ कुछ उथली बातें और डिजिटल पेमेंट के बाद तो वो नोट पर भी नहीं दिखेंगे.
इससे पहले की गांधी इतिहास में कहीं खो जाएँ और उनका स्थान गूगल ले ले और जिसकी जितनी महँगी लाठी उसकी बात, आपकी पसंद मुताबिक गूगल आपके कान में फुसफुसाए. आपकी सेल्फी से आपका चेहरा पहचान किलर ड्रोन आपके सर पर मंडराएं और आपकी नस्लें फिर नील और कपास के खेतों में जोत दी जाएँ.
आईये अपने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को जानने का प्रयास करते हैं. उनके अर्थशास्त्र, रणनीतिज्ञ एवं राजनीतिज्ञ स्वरुप पर प्रकाश डालते हुए उनके उन सभी सिद्धांतो की व्यवहारिकता को समझने का प्रयास करते हैं, जो आज मात्र कथनियों तक सिमट कर रह गयी हैं. आज की “बापू विशेष” परिचर्चा में हमारे साथ जुडें हैं, श्री राकेश प्रसाद (सीनियर रिसर्चर , बैलेटबॉक्सइंडिया), प्रो. मनोज कुमार (गाँधीवादी विचारक, डीन, स्कूल ऑफ लॉ), श्री सुरेन्द्र कुमार (सचिव, एवार्ड, एनजीओ), डॉ. टी. करुणाकरण (गाँधीवादी चिंतक एवं रूरल डेवलपमेंट विशेषज्ञ) एवं श्री मिथिलेश कुमार (गाँधीवादी विचारक एवं सहायक प्रोफेसर,महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा). जिनकी मंत्रणा पर मनन कर हम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आदर्शों को एक बार फिर आत्मसात करने का प्रयास करेंगे.
मोहनदास करमचंद गांधी आज केवल एक नाम नहीं है, बल्कि भारतीयता का एक समग्र दृष्टिकोण है, जिसके गूढ़ अर्थ को यदि सारगर्भित कर लिया जाये तो व्यक्तिगत, सामुदायिक अथवा देशीय स्तर पर विकास के नए समीकरण प्राप्त किये जा सकते हैं. गांधीवाद सिद्धांत के अनुसार भारत एक ऐसा देश है, जिसे कर्मभूमि मानकर व्यक्ति चंहुमुखी उन्नति कर सकता है, इसी विषय पर चर्चा हमारे पैनल के विशेषज्ञों द्वारा की गयी.
सर्वप्रथम श्री मिथिलेश कुमार ने गांधी जी के मूल स्वरुप एवं भारत में उनके आदर्शों की महत्ता को लेकर अपने 18 वर्ष के अध्ययन के आधार पर विचार प्रस्तुत करते हुए कहा..
गांधी जी एक राजनेता के रूप में माने गए हैं. गांधी का एक कौशल था, जब भारत आज़ाद नहीं हुआ था, तब उन्होंने हर परिस्थिति का सामना डट कर किया. यदि हिंद स्वराज के संदर्भ से देखा जाये तो हम सब बचपन से हिंद स्वराज के बारे में पढ़ते आए हैं और हिंद स्वराज में गांधी की छवि दिखती हैं. आज की तारीख में जब कोई राजनीति दल चुनाव में आता है, तब वह एक घोषणा पत्र जारी करता है कि कैसे वह सत्ता में आने के बाद देश को किस दिशा में ले जाएगा और गांधी जी हिंद स्वराज द्वारा पूर्ण रूप से वही कर रहे थे.
1905 में बंगाल का विभाजन हुआ, राष्ट्रीय कांग्रेस दो भागों में बटा था.. नरम दल और गरम दल फिर ऐसे में भारतीय राजनीति में बंटवारा दिख रहा है. जब हम भारतीय राजनीति में प्रवेश कर रहे हैं, जो हमारा अभी तक का व्यवस्थित आधार है उससे अलग होना चाहिए. गाधी जी ने दो बातें हमें बताई..
एक सत्य की बात और दूसरी अहिंसा की बात.
देखा जाये तो ये बातें बहुत से धर्मों मे दिखती हैं; जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सनातन धर्म आदि सभी में इन मान्यताओं को देखा जा सकता हैं, लेकिन गांधी जी इस मामले में थोड़े अलग हैं, उन्होंने पहली बार सत्य और अहिंसा को व्यक्तिगत जीवन से आगे लाकर सार्वजनिक जीवन का एक पर्यायवाची शब्द बनाया. सार्वजनिक जीवन में हम कैसे सत्य और अहिंसा के माध्यम से अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं, इसका मूल आधार गांधी जी ने बताया था. कई विशेषज्ञ भी हैं, जिन्होंने गांधी के सिद्धांतों को समझने का प्रयास किया है.
मनोज कुमार जी ने गांधी जी की विचारधारा को आज के संदर्भ में रखकर समझाते हुए कहा..
गांधी जी के जीवन को सही मायनों में समझने की जरूरत आज है, उन्हें कर्मों से समझा जा सकता है, लेकिन विचारों में उस वृति को लाना नाकाम रहा है. परिस्थितियां बदलती रहती हैं और बदली परिस्थिति को प्रायोगिक बनाने के लिए बदलाव आता है. कभी भी किसी ने रूढ़ीवादिता से हट कर गांधी को समझने का प्रयास नहीं किया.
गांधी सही मायनों में अर्थशास्त्री, दार्शनिक, राजनीतिक हैं. गांधी का उद्देश्य देश हित निहितार्थ, अंग्रेजी सभ्यता को बाहर करने का था, जो अपने आप में एक आक्रामक सभ्यता है. इसे हटाने की बात उन्होंने रखी क्योंकि यह पूंजीवादी सभ्यता को शरण देती है.
जब हिन्द स्वराज के प्रति भारत के राजनीतिज्ञों की समझ नहीं बनी तो आज़ादी के बाद देश को संगठित करने के लिए, उसे एक स्वरुप देने के लिए एकजुटता नहीं दिखी, उस समय गांधी जी ने एक राजनैतिक संस्था के रूप जो आज़ादी प्राप्त की थी, उसे विघटित करने की बात रखी. बहुत ही दबाव गांधी जी पर था, जब उन्होंने हिन्द स्वराज पर अपने विचार रखे, जिसमें प्रश्न भी उन्होंने पूछा और उत्तर भी उन्होंने ही दिए.
इसी आलोक में 29-30 जनवरी को जो गांधी जी की अंतिम वसीयत आती है, जिसमें गांधी जी कांग्रेस को विघटित करने और गांव में राज सत्ता को बिखेर देने की बात करते हैं.
1947 में जो राजनीतिक आजादी मिली, वह मात्र राजनीतिक आज़ादी की पक्षधर नहीं थी. शारीरिक युद्ध के आधार पर राजनीतिक सत्ता स्थापित की जा सकती है, परन्तु वैचारिक सत्ता नहीं. भारत में उस समय गांव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में पूर्णत: सक्षम था.
गांधी ने बताया कि क्यों रेल की संरचना बनाने में और पटरियां बिछाने में अंग्रेजों स्वार्थ निहित था? केवल भारत से रॉ मटेरियल ले जाने के उद्देश्य से नहीं बल्कि वहां के लोहे को भारत में लाया जा सके, इस योजनानुरूप यह कार्य किया गया. 200 वर्षों तक भारत गुलाम रहा और आज भी गुलाम ही है.
गुलामी तब शुरू होती है, जब आर्थिक संसाधनों का दोहन प्रारंभ होता है. गांधी जी के अनुसार स्वतंत्रता के अंतर्गत स्वस्थ लोकतंत्र की बात की जाती है, जिसमें देशवासी प्रगति की बात कर सकें और इस धारणा को उन्होंने ग्राम-स्वराज से जोड़ कर देखा.
असहमति का दायरा छोटा होता चला गया. शस्त्रीकरण का दौर है और एक ओर भुखमरी की दौड़ चल रही है. अंतर्राष्ट्रीय राष्ट्रता पड़ोसी सभ्यता को भी बताता है. अंग्रेजी सभ्यता के तो आज भी हम गुलाम हैं, यह स्पष्ट है कि हमारी बराबर हिस्सेदारी है. सामूहिक जिम्मेदारी आज समाप्त ही हो गयी है. स्वतंत्र भारत में “मैं का हम में परिवर्तन” ही गांधी का सपना है.
शक्तिशाली देश होने से उनका मतलब है कि हम न खुद का शोषण होने देंगे और न दूसरों का शोषण होने देगें. गांधी कहते हैं कि हम देश की जनता को साथ खड़ा कर देंगे और वह असहयोग के साथ स्वराज का सपना पूरा करें. शासन तो मनुष्य के चित्त पर निर्भर करता है, अगर लोग इसे ग्रहण नहीं करेंगे तो आज जो आर्थिक परिवेश में भूमंडलीकरण का दौर चल रहा है, उसमें आर्थिक सत्ता राजनीतिक सत्ता के लिए खुद ही उपस्थित हो जाएगी.
आज स्वतंत्र भारत में गांधी के सपनों के स्वराज की बात की जाये या गावंवासियों के सपनों के स्वराज की या फिर स्वयं अपने स्वराज की बात ही कर ली जाए तो समाज में अहिंसा खुद ही आ जायेगी.
जहां आज किसान आत्महत्या करते हैं, वहीं बेरोजगारी अत्याधिक बढ़ी है, यानि चारों ओर समस्याएं हैं. आधुनिक सभ्यता से मिली तकनीकों ने हमें बुद्धि भ्रमित कर दिया है और इस स्थिति में बदलाव लाने के लिए गांधी जी के स्वराज के सही मायनों को समझना होगा.
गांधीवाद के सही स्वरुप एवं अर्थ पर प्रकाश डालते हुए डॉ. टी. करुणाकरण ने स्पष्ट किया..
गांधी जी द्वारा किया गया आर्थिक दर्शन और रणनीति सभी जगह क्रांतिकारक है. गांधीवादी दर्शन शोषण की दृष्टि से नहीं बल्कि पोषण को दृष्टि से मांग के स्थान पर दूसरे को पुष्ट करने का दर्शन है.
गांधी के सिदंधान्तों में विभिन्न आर्थिक परिद्रश्य जैसे हिंसा आधारित टाइगर इकोनॉमी, चोरी पर आधारित मंकी इकोनॉमी, सहयोग पर आधारित मधुमक्खी इकोनॉमी के बारे में बताने के बाद मातृ कौशल्य पर आधारित मदर इकोनॉमी को ही सर्वोच्च बतलाया.
इस प्रकार की आर्थिक दृष्टि द्वारा ही गांधी जी एक नई सभ्यता को सन् 1908 में हिंद स्वराज द्वारा देखने लगे, जिसमें अर्थव्यवस्था उपभोक्ता के लिए नहीं बल्कि उपयोगिता पर आधारित पर हो.
अपने ही जीवन से उदाहरण देते हुए गांधी जी ने किस तरह जनता को जागरूक करने का प्रयास किया, इसकी व्याख्या करते हुए सुरेन्द्र जी ने कहा..
गांधी जी ने स्वयं के सादा जीवन से आम जन में जागरण का सन्देश संप्रेषित किया. आज के समाज में देंखे तो गांधी जी को महज महान बनाने या देवता बनाने का प्रयास किया जा रहा है, लेकिन गांधी जी ने कभी इस बात को पसंद नहीं किया. वे न केवल एक समान्य व्यक्ति की तरह अपना जीवन जीते थे बल्कि अपनी गलतियों से सीख लेकर आगे बढ़ने का प्रयास भी किया करते थे.
देखा जाये तो गांधी जी ने एक आदर्श जीवन शैली देने का प्रयत्न किया, उन्होंने समाज को बताया कि हमारी कथनी और करनी में समरूपता होनी चाहिए. आज इसके विपरीत लोगों की कथनी और करनी के बीच की खाई दिन-प्रतिदिन बढती जा रही है और समाज पर अविश्वास रूपी संकट मंडरा रहा है, जो जीवन के हर क्षेत्र में है.
महात्मा गांधी से जुड़े गहन अध्ययन के माध्यम से राकेश जी ने अपने वक्तव्य रखते हुए गांधीवाद की वर्तमान प्रासंगिकता को दृष्टिगोचर करते हुए कहा..
ये शेर फेसबुक, व्हाट्सएप पर काफी फेमस हुआ है.
बात राजनितिक है और बनाने वाला अगर गाँधी को थोडा पढ़ पाता तो शायद रूसी ट्रोल की तरह फेक न्यूज़ नहीं फैलाता या हो सकता है, इसके पीछे विदेशी संस्थाएं ही हों. मगर इसका असर होता है, ख़ासकर जब गाँधी के बारे में जानकारी पूरी तरह से कुछ गिनी चुनी किताबों में दबी हुई है और आज के सेल्फी के युग में कोई पढ़ना चाहता ही नहीं.
गाँधी ने जब सत्य और अहिंसा की बात की थी तो उसके पीछे उन्होंने कई बड़े बड़े लेख खण्डों में एक ऐसे समाज की रूपरेखा भी दी थी, जिससे समाज इतने मज़बूत और स्वावलंबी हो जाएँ, जिससे प्रत्यक्ष हिंसा की आवश्यकता ही ना हो. अहिंसा परिणाम था, जो भारत समाज एक बड़े राष्ट्र निर्माण के अभियान के बाद अपना पाया.
महात्मा गाँधी के तरीकों में जो हिंसा थी, वो तो अंग्रेजों से पूछो. जब इंग्लैंड के इतिहासकार गांधी को एक कुटिल रणनीतिज्ञ की तरह देखते थे. गाँधी के डंडे के इस तरफ़ हम खड़े हो कर आज चरखे पर सवाल उठा सकते हैं, मगर डंडे के उस तरफ़ जो था, उसने जो झेला अंग्रेजी इतिहास पढ़ने पर टुकड़ों में सामने आता है.
भारत के शहीदों ने जो किया वो कोई भी योद्धा, जिसकी धरती पर आक्रमण हुआ हो वो करेगा. मगर गाँधी ने बस उस जगह उस हथियार से वार किया, जिससे चोट बिलकुल सटीक जगह लगे. आज नव-उपनिवेशवाद जो हमारे देश को खोखला कर रहा है, गंगा में सीवर और बाँध, स्मॉग, कमज़ोर और बीमार आम जन, सबमें एक गुस्सा और हिंसा, एक तरफ़ सात सौ करोड़ की शादी और दूसरी तरफ़ उसी शादी को कवर करने आया सड़क के दूसरी तरफ़ खड़ा, “बस एक फोटो सर” चिल्लाता स्ट्रिंगर, गाँधी के इन्हीं हथियारों को भुलाने का नतीज़ा है.
अंग्रेजी कॉलोनी के बारे में अगर आप समझें तो.
भारत इतिहास में पहली बार एक ऐसी सेना के सामने खड़ा था, जो स्टॉक मार्किट से फंडेड थी. बंगाल और चेन्नई की कीमत इंग्लैंड के मार्किट में लग चुकी थी और लन्दन की जनता इन पिछड़े हुए शूद्रों को अपने अध्यात्म और अर्थशास्त्र से नहला देना चाहती थी.
यूरोपियन रेनासेन्स का दौर था और मानवतावादी (humanism) एवं neo-platonism की समझ से ओत प्रोत यूरोपियन सेनाएं इंसानी नस्ल की प्रभुता और इस सोच से बनी गोरी नस्ल की प्रभुता को दुनिया में फ़ैलाने निकली थी.
भारत में अंग्रेज जनता द्वारा वित्त पोषित सेना का शासन था, सिविलियन एलीट अंग्रेजों का नहीं. सेना पनडुब्बी के कप्तानो, जेल में बन्द् चोरों, निचले स्टार के बाबुओं से भरी हुई थी, जिनको ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा तनख्वाह और लूट में हिस्से का लालच दे कर लाया जाता था.
इस सेना के पीछे ब्रिटिश सेना थी, वह सेना जो की द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर की सेना से भीड़ गई थी.
वह हिटलर की सेना जिसमे एक करोड़ तीस लाख सैनिक, हज़ारों पैन्ज़ेर टैंक और हजारों बॉम्बर हवाई जहाज़, जिन्हें लुफ्त्वाल्फ़ कहा जाता था से सुसज्जित थे.
आप जानते हैं ये सेना यहाँ क्यों थी. ऍफ़. डी.आई. इंग्लैंड की जनता का इनवेस्टेड पैसा, जिसका मुनाफा एक अर्थशास्त्री के मुताबिक 43 ट्रिलियन डॉलर हुआ था. आज भारत का सालाना उत्पाद ही बस ढाई ट्रिलियन के आस पास है.
उस समय के गांधी के बारे में सोचें तो क्या देखा होगा, इसके बारे में भी सोचिये.
डॉग्स एंड इंडियन्स आर नोट एलाउड, यानि कुत्ते और हिन्दुस्तानी घुस नहीं सकते – ऐसे बोर्ड दो सौ साल से लगे थे, सिर्फ गांधी को ही क्यों परेशानी हुई?
1857 की क्रांति में बंगाल नेटिव इन्फेंट्री को दबाने के लिए भारत की ही दो फ्रंटियर रेजिमेंट को ऊंची कीमत दे कर लगाया गया था और एक ने साथ नहीं दिया था? गाँधी ने ये देखा था.
फेसबुक, ट्विटर और गूगल के सिस्टम को राष्ट्र की संप्रभुता और समृद्धि कुछ सेल्फी और लाइक्स के लिए दे देने वाले नेता जो आज दिखते हैं, उस समय भी थे. जिन्हें अंग्रेज लन्दन बुला, इनकी रंगरेलिया रिकॉर्ड कर फिर अपनी उँगलियों पर नचाते थे.
जलियांवाला बाग़ में जनरल डायर के नाम के पीछे वो नाम छुप गए, जिन्होंने असल में गोलियां चलायी थी.
ये वही नाम थे, जिन्होंने सुभाष की सेना को भी सीमा पर ही रोक दिया था.
एक अंग्रेज इतिहासकार ने लिखा है..
इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था, जब तीस करोड़ लोग सिर्फ कुछ ही दिनों में कुल पंद्रह हज़ार लोगों की विदेशी सेना के अधीन हो गए और इनका साथ दिया कुछ एक लाख़ स्थानीय लोगों ने सिर्फ एक बंधी पेंशन के लिए? इस देश में राष्ट्र से जुड़ाव नाम की कोई चीज़ नहीं है.
इसी इतिहासकार ने आगे लिखा है कि यहाँ के राजा बिना वजह लड़ना, अकाल के समय भी पीड़ित जनता की सहायता नहीं कर उधार ले कर बड़े बड़े झूमर महल के लिए खरीदना पसंद करते हैं.
स्थिति आज भी वही है.
गांधी के पास अपना अध्यात्म, संस्कृति और धर्म खो चुकी जनता थी, जिनके लिए वह दुनिया की सबसे मज़बूत सैन्य शक्ति के सामने खड़े थे. जो अपनी अर्थव्यवस्था, संस्कृति और राजनीति भारत पर लाद चुकी थी.
गांधी और उस समय के सेनानियों के कामों के बारे में अध्ययन करें तो आपको इनके व्यवहारिक तरीकों का पता चलेगा.
गाँधी के चरखे ने अंग्रेजों के मुनाफ़े पर आघात किया, लोगों में अध्यात्म और आत्मविश्वास का प्रसार किया, विदेशी निर्भरता समाप्त की और जब कैथोलिक इन्वेस्टर का ध्यान इस तरफ़ आया तो हिंदुस्तान के गीता के अध्यात्म को सामने कर दिया.
जिससे यूरोपियन नस्ल के मास्टर नस्ल होने का घमंड टूटने का ख़तरा पैदा हो गया.
ये वही सोच थी, जिसका इस्तेमाल कर कर के यूरोपियन सत्ताधारी अपने लोगों का समर्थन पाते थे और इन्वेस्टमेंट लाते थे.
आज की अगर यूरोपियन फार राईट की बातें सुनें तो गांधी की तकनीकों से सीख ले कर, उसकी काट कैसे करें? इसी पर वें केन्द्रित है और वो काफी सफ़ल भी हो रहे हैं.
कैथोलिक कर्म आधारित से प्रोटोस्टेंट भक्ति आधारित सोच के बीच की जो डिबेट है, वो पूरी बापू जैसों के तरीक़ों को कैसे काटा जाए, इसी पर आधारित है.
भगत सिंह ने भी यही कोशिश की थी, मगर फरक ये था कि गांधी ने ये समझा के वो लोग बहरे नहीं थे बहरे होने का ढोंग था.
महात्मा गाँधी को सिर्फ एक संत या समाज सुधारक की तरह नहीं देखा जा सकता है, वो एक चाणक्य की तरह युद्ध आधारित समाज के कूटनीतिज्ञ भी थे.
एक बेहतरीन अर्थशास्त्री के तौर पर बापू ने दूरदर्शिता से भारत के विषय में सोचा था. उनका ग्राम स्वराज का सिद्धांत भी शायद उसी प्रगतिशील अर्थशास्त्र का अंग था, जिसके मूल में कहीं यह तथ्य छिपा था कि “भारत ग्रामों का देश है और कोई भी देश अपना प्राकृतिक स्वाभाव त्याग कर तरक्की नहीं कर सकता है.” एक अर्थशास्त्री के रूप में बापू की विचारधारा का अध्ययन हमारे विशेषज्ञों द्वारा किया गया.
सर्वप्रथम मिथलेश जी ने गांधी जी के आर्थिक सिद्धांतों से जुड़े विभिन्न उपागमों को समझाते हुए बताया कि..
यदि गांधी जी के आर्थिक सिद्धांतों की बात की जाये तो उनके आर्थिक सिद्धांतों को कई भागों में विभक्त किया जा सकता है, जिनमें से एक है ट्रस्टीशिप. ट्रस्टीशिप मूलतः अहिंसा का सिद्धांत है. गांधी जी ने प्रौद्योगिकी की बात की थी और इस पर ज्यादा जोर देते हुए कहा था कि जो उत्पादन है, वो अहिंसक हो और उत्पादन अहिंसक तभी हो सकता है, जब वह स्वदेशी पर आधारित हो.
स्वदेशी के लिए तीन शब्द महत्वपूर्ण हैं, स्थानीय संसाधन, स्थानीय जरूरत और स्थानीय बाज़ार. आज हम लोग स्वदेशी के नाम पर मेड इन इंडिया की बात करते हैं कि मेड इन इंडिया स्वदेशी है. जबकि गांधी ने अपने औद्योगिकी और उत्पादन के अहिंसक क्रम को समझाने के लिए स्पष्ट कहा था कि स्वदेशी का मतलब है स्थानीय संसाधनों द्वारा, स्थानीय जरूरत के अनुसार, स्थानीय मांग को पूरा करने के लिए किया गया उत्पादन.
तीसरा शब्द जो गांधी के सिद्धांत को समझाता है, वो है अपरिग्रह, जो उपभोग करने की अहिंसक प्रवृति को बताता है क्योंकि जब हम उपभोग करते हैं तो उपभोग करते हुए हमारा दायरा कितना बढ़ना चाहिए और ये अगर हिंसक होगा तो हम किसी के पेट को भी नहीं भर सकते.
प्रकृति के पास इतना है कि वह सबका पेट तो भर सकती है लेकिन किसी का लोभ नहीं भर सकती है. इस कथन को हम अहिंसक और अपरिग्रह सिद्धांत से समझ सकते हैं.
गांधी का सबसे महत्वपूर्ण शरीर श्रम का सिद्धांत है. जब गांधी ने रस्किन की “वन टू द लास्ट” किताब पढ़ी और उसके बाद गांधी ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि जो मनुष्य का जीवन है, जब तक वो श्रम आधारित नही होगा तब तक मनुष्य के जीवन का वजूद नहीं है.
जब वह अर्थशास्त्र की बात करते हैं, तब वह एक तरह से शारीरिक श्रम की बात करते हैं. गांधी को समझने में अहिंसक शरीर श्रम का जो पूरा सिद्धांत है, उसको समझना होगा. उन्होंने एक और महत्वपूर्ण बात की थी कि हम कैसे पूरी आर्थिक व्यवस्था को समझ सकते हैं.
जब हम गांधी को समझे तो तीन संदर्भ में समझे..
1. पहला गांधी अपने समय में कितने प्रासंगिक थे?
2. दूसरा गांधी आज के समय में कितने प्रासंगिक हैं?
3. तीसरा गांधी को क्यों पढ़ा जाए?
एक बड़ा वर्ग है जो गांधी के अस्तित्व को ही नकारता है, उस वर्ग का मानना है कि गांधी को पढ़ने की जरूरत नही है वो तो जीवन जीने की कला है, निश्चित रूप से गांधी जीवन जीने की कला हैं. गांधी अपने समय में इतने महत्वपूर्ण इसलिए थे, क्योंकि उन्होंने पहली बार अहिंसा और सत्य को सार्वजनिक जीवन का अंग बनाया है, उसके ज़रिये ही पूरे स्वतंत्रा संग्रांम को लीड किया.
आज के समय में गांधी इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उन्होंने हमें बताया कि हम किस तरह के माहौल में रह हैं, एक तरफ वैश्वीकरण है तो दूसरी तरफ वातावरण में बदलाव का दौर है. जब तक हम ट्रस्टीशिप की धारणा पर नही जाएंगे तब तक हम इस संसार को नही बचा पाएंगे.
1960 के दशक में राम मनोहर लोइया जी ने कहा था कि आज हमारे पास दो विकल्प हैं एक है गांधी और दूसरा है अनुभव. इस तरह या तो हम अपने आपको खत्म करले या तो गांधी के शरण में जाएं, तीसरा कोई रास्ता बचा नही है.
अर्थशास्त्री के रूप में गांधी जी के विचारों को समझकर उनका क्रियान्वन करने संबंधित विचारों को साझा करते हुए मनोज जी ने अपनी बात रखते हुए समझाया..
अर्थशास्त्री के रूप में गांधी जी को समझने के लिए हमे सोचना होगा कि गांधी विचार बनता कैसे है? 19 वर्ष की अवस्था में गांधी विदेश जाते हैं और वहां शाकाहारी खान-पान या त्योहारों को लेकर जो विचार बनते हैं, तो ऐसा लगता है कि भारतीयों के प्रति एक विचार बना है और उसी को लेकर पश्चिमी संस्कृति और सभ्यता को लेकर एक आग्रह बन रहा है.
गांधी जी जब भारत लौटते हैं, तब स्वराज के बारे में लिखते हैं और उस समय हमारे जैसा आदमी सोचेगा कि कहां से गांधी ने यह समझ बनाई कि आज गांधी सामाजिक-आर्थिक समाधान को लेकर बहस बीएचयू में हुई, कि पहला भाषण अपनी भाषा, दूसरा सवाल राजा महाराजा के आभूषण एवं जनता की गाढ़ी कमाई का है तथा तीसरा प्रश्न मंदिरों को साफ रखने का है. यदि आप मंदिर भी साफ नहीं रखते तो आपको स्वराज पाने का कोई अधिकार नहीं है. चौथा सवाल अपनी जनता की सुरक्षा को लेकर बात करना है.
इसके अलावा तिलक मैदान में कहते हैं कि यदि देश का एक भी व्यक्ति भूखा है तो आजादी बेकार है. इसके बाद वे चर्चिल को पत्र लिखते हैं और कहते हैं कि आप 5 हजार देशवासियों की कमाई खा जाते हैं. चंपारण आने तक कांग्रेस का कोई संगठन नहीं होता है, उस समय राजेन्द्र प्रसाद जी के पास आकर एक किसान कहता है कि हमने इन्हे पैसा दिया है. गांधी गांव को ध्यान देते हैं तो एक बात समझ आती है कि अंबेडकर और गांधी। अंग्रेजों के आने के बाद उनके साथ जो व्यवहार होता था उसमें कमी आई। हम गांधी को बचाना नहीं चाहते, लेकिन उन्हें स्थापित करना चाहते थे क्योंकि उन्होंने हिन्दुत्व का कभी विरोध नहीं किया.
गांधी परिवर्तनवादी हैं, नैतिक हैं. 1885, 1917, 1925 की कांग्रेस में जो असहयोग हुआ, 1938 में चोरा-चोरी की घटना के बाद सविनय अवज्ञा आन्दोलन का बढ़ता कानून चलाया. सुभाष का जीतना और इसके बाद सीता रमैया का हार जाना एवं 1942 में करो या मरो तक जाना.
राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ आर्थिक स्वतंत्रता की बात करते हैं और आर्थिक स्वतंत्रता वास्तव में मानसिक स्वतंत्रता पर निर्भर करती है. समाचार पत्रों को उन्होंने माध्यम बनाया एवं इस छोटे माध्यम से गांधी ने काफी कार्य किया. दक्षिण अफ्रीका पेंपलेट आने से भी लोगों को फायदा हुआ. सामाचार पत्रों से गांधी ने लोगों की भावनाओं को जानना, जनता के हित और देश हित की भावना को जागृत करना आरम्भ किया.
1941 में रचनात्मक कार्यक्रम के अंतर्गत लोगों को आत्मनिर्भर करने का काम किया. बिना सत्याग्रह ये संभव नहीं था. आजादी के बाद हमने समझा कि अब सारा काम सरकार करेगी. लोक कल्याण के नाम पर सत्ता मजबूत होती गयी. 1974 पर आन्दोलन भी तभी से शुरू हुआ, जिसके 4 कारण थे मंहगाई, बेरोजगारी, कुशिक्षा और भ्रष्टाचार, जो आज भी सुधार की स्थिति में नहीं हैं.
गांधी से पूछा गया कि आपने ऐसा कहा तो उन्होंने कहा मैं आज जो कह रहा हूं वह सत्य है. समाज को सोचने की जरूरत है तभी लोगों को समझाया जा सकता है. हमें अपने आप को समझाकर चलना होगा. भारत का विभाजन क्यों हुआ, गांधी को किसने मारा, इसके पीछे की राजनीति क्या थी? आज हम अस्मिता में विभाजित हो चुके हैं. इससे अलग कोई अर्थनीति व समाजनीति नहीं हो सकती है. राजनीति और समाज वैश्विक राजनीति में बदल गए हैं.
हमें समझना होगा कि जो व्यवहारिक नहीं है, वह सही नहीं है. इससे सतर्क रहने की जरूरत है. अलग होने की बात से आरक्षण से दलितों पर गांधी के विचार को समझने की जरूरत है. सभी में समानता होनी चाहिए, इससे निष्ठा बनेगी और उपेक्षा नहीं होगी. आज मूल्य कम ज्यादा करने का समय आ गया है. हम किस प्रकार बड़े और छोटे उद्योगों को चला सकते हैं? इसके लिए कार्य करना बेहतर होगा. जो पड़ोसी देश भारत के दुश्मन हैं, उनके बीच जब तक सहयोग निर्धारित नहीं होगा तब तक बेहतरी का कार्य नहीं हो पाएगा.
“खादी” और “चरखे” के आधार पर गांधी जी की आर्थिक आज़ादी की मुहिम की व्याख्या करते हुए डॉ. टी. करुणाकरण जी ने कहा..
अर्थशास्त्र के अंतर्गत ग्राम विकास को गांधी जी ने प्रमुखता दी. गांवो के विकास के संदर्भ में गांधी जी ने बताया कि 5 मील रेडियस के अंदर गांवों को स्वाबलम्बी व स्वयंपूर्ण कैसे बनाया जाए.
इस दिशा में आजकल क्लस्टर के नाम पर कई सिदधान्त आये हैं, करीब- करीब सरकार की योजनाओं में भी ऐसे सिद्धान्त आ ही रहे हैं. किन्तु इसको भौगोलिक सिद्धान्त के रूप में देखने की दृष्टि आने में काफी में देरी हो रही है.
हाल ही में हमारे नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट, हैदराबाद द्वारा जीपीडीपी (ग्राम पंचायत डेवलपमेंट प्रोग्राम) के अंतर्गत क्लस्टर आधारित सिद्धान्तों को लाकर इसे गांधी जी के सिद्धान्तों से जोड़ने की कोशिश की गई है.
क्लस्टर से हम गांवों को संपन्न कर सकते हैं. इसके लिए कृषि और कृषि आधारित उद्योग दोनों की ग्रामीण स्तर पर कल्पना करने के लिए एग्रीकल्चर व इंडस्ट्री सिद्धान्त को अपनाना अत्यंत आवश्यक होगा और यहां से शुरू होगा रूरल इकोनॉमिक जोन.
शहर की भूमि का प्रयोग कारखानों से ज्यादा सूक्षम् उद्योगों के लिए होना चाहिए. यह काफी नया सिद्धान्त है, सूक्ष्म उद्योगों को प्राथमिकता देने से प्रदूषण रहित औद्योगिकीकरण गांव में ही किया जा सकता है और इससे गांव आर्थिक व रोजगार की दृष्टि से संपन्न हो सकते हैं.
इसके लिए गांधी जी ने वर्धा में ऑल इंडिया विलेज इंडस्ट्रीज एसोशिएशन (एआईवीएए) शुरू किया, जिसमें हमारा भी योगदान है. इसके अलावा मोटे उद्योगों को संभालने के लिए गांधी जी पब्लिक सेक्टर को उचित मानते थे. इसको संभालने के लिए प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति कौन करेगा. इसके लिए व्यावहारिक दृष्टि भी उनके पास थी.
उद्योग एक कला है, इसमें कुशल नेतृत्व भी देश के लिए जरूरी है, गांधी जी का एक दृष्टिकोंण अहमदाबाद हड़ताल के समय बाहर निकला. साथ ही गांधी जी पूर्ण रूप से टेक्नोलॉजी के पक्ष में थे, पर वो नीड आधारित टेक्नोलॉजी में विश्वास रखते थे न कि ग्रीड आधारित.
गांधी जी शारीरिक श्रम को भी बेहद जरूरी मानते थे साथ ही उनका मानना था कि आर्थिक और शैक्षणिक विकास, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
गांधी जी इन सब चीजों को मन में रखते हुए कूटनीति के तौर पर भी सक्रिय थे. जिस टेक्सटाइल टेक्नोलॉजी में भारत पूरी दुनिया में बहुत आगे था, पर अंग्रेजों के हस्तक्षेप के चलते पिछड़ गया था, उसी टेक्सटाइल टेक्नोलॉजी को एक सिद्धान्त के रूप में लेकर खादी को बढ़ावा देते हुए चरखे को लेकर वह जी लड़ने लगे और ये उनका एक शस्त्र बना.
आज के परिदृश्य में गांधी जी को एक ग्लोबल स्वदेशी के रूप में हम समझेंगे तो डब्ल्यूटीओ के कारण जो भी भूमंडलीय समस्याएं उत्पन्न हुई हैं, उन सभी समस्याओं का समाधान गांधी जी के सिद्धान्तों द्वारा संभव है.
गांधी जी को किस संदर्भ में लेना है, इस पर कहा जा सकता हैं कि कपास और चरखा को लेकर कुछ लोग समझते हैं कि गांधी जी की पिछड़ी सोच आज के समय में नहीं चलेगी.
चरखा हमारे देश के लिए एक आर्थिक प्रतीक था, जिसको उन्होंने एक शस्त्र के रूप में प्रयोग किया. आज के संदर्भ में शायद खादी के लिए दूसरा महत्व है, इसको हमें समझना पड़ेगा.
जैसे कि गांधी जी कहते थे, इसका महत्व तभी पूर्ण होगा जब खादी, वस्त्र बुनने वालों के लिए भी इसे पहनना संभव होगा. यह एक काफी महत्वपूर्ण बिन्दु है.
दूसरा इसी संदर्भ में चरखा भी औद्योगिकीकरण का एक माध्यम है. इसके लिए केन्द्रीय और विकेन्द्रीयकृत औद्योगिकीकरण का समन्वय होना चाहिए. मान लीजिए हर घर में हम उद्योग चलाते हैं और इसके सामान्य लाभ सभी को मिलते हैं. चरखे से हमें इस प्रकार के मॉडल को बनाना सीखना होगा.
गांधी जी के अर्थशास्त्र को आम जनजीवन की झांकी बताते हुए सुरेन्द्र जी ने अपने विचार साझा करते हुए कहा कि..
“अंतिम व्यक्ति तक विकास पहुंचे”, इस अवधारणा के साथ गांधी जी कार्यरत रहते थे. वह हर आर्थिक एवं राजनीतिक नीति, जिसके अंतर्गत अंतिम व्यक्ति तक लाभ न पहुंचता हो, उसे गांधी जी ने अप्रासंगिक माना था. राजनीति के अंतर्गत सत्याग्रह हो या कोई भी रचनात्मक कार्य, सभी को उन्होंने अंतिम व्यक्ति तक पहुँचाने का प्रयत्न किया.
चरखे और खादी के प्रचार-प्रसार के अंतर्गत गांधी जी की यही भावना थी, कि अंतिम व्यक्ति तक कैसे आर्थिक लाभ पहुंचाया जा सकता है. उनका मानना था की प्रत्येक व्यक्ति की मजबूती से ही समाज और राष्ट्र समृद्धशाली बन सकता है. उन्होंने राजनीति को प्रभावित करने के लिए लोक-शक्ति को उभारने की बात की, परन्तु दुर्भाग्य से आज के समय में इन सब बातों को नहीं समझा जाता है.
गांधी जी की लोक-शक्ति आज के परिवेश में संगठित नहीं हो पाती है. आज देश विखंडित होकर तरह तरह की भ्रांतियों, धर्म, जातियों एवं संप्रदायों में बंट कर रह गया है, जिसमें शक्ति का केन्द्रीकरण हो रहा है. गांधी जी ने जब कुटीर उद्योगों, कृषि व्यवस्था, लघु उद्योगों की बात की तो व्यापक रूप से की, आज की भांति उन्हें दरकिनार नहीं किया. उन्होंने इन सब पर बल देते हुए माना कि इनसे आर्थिक नीति को प्रमुखता मिलेगी और देश विकास करेगा.
आज के समय में देंखे तो आवश्यकता और लालच के बीच की रेखा मिटती हुई दिखाई देती है और वर्तमान विकास नीतियों में लालच ही हमारी नीतियां बन रही हैं, जिसके परिणामस्वरुप हर क्षेत्र में हमें संकटों का सामना करना पड़ रहा है, चाहे वह आर्थिक क्षेत्र हो या पर्यावरण.
अर्थनीति को लोकहित के साथ जोड़ कर गांधी जी चलते थे, परन्तु आज के समय में इन विचारों का अपेक्षाकृत अभाव है. आज जो भी गाँधीवादी व्यक्ति या संस्थाएं हैं, उन सभी के साथ एक समस्या यह है कि वे सभी अपनी सुविधानुसार गांधीवाद को लेकर चल रहे हैं. आज हम सभी को अपनी समझ में गांधी जी की अर्थनीतियों को अपनाने की जरूरत है, तभी हम अपने समाज का सर्वांगीण विकास कर पाएंगे.
बापू के मानसिक और शारीरिक श्रम की समानता के सिद्धांत की अवधारणा पर अपने विचार रखते हुए राकेश जी ने बताया..
आज दुनिया के सबसे बड़े संस्थानों से बड़े बड़े अर्थशास्त्री संसार में आर्थिक असमानता कम करने के बड़े बड़े विस्तृत मॉडल बना रहे हैं, मगर गाँधी जी ने तो ये समस्या एक पन्ने के लेख में ही हल कर दी थी.
मानसिक और शारीरिक श्रम की समानता का सिद्धांत दे कर.
इनकी विलक्षण अर्थ नीति का पता इसी बात से पता चलता है और हम कभी भी सामान अवसर देने वाली दुनिया नहीं बना पाएँगे, जब तक एक सामान मौके सबको नहीं मिलेंगे और एक सामान मौके देने का सबसे नायब तरीका है, सब अपनी मौलिक ज़रूरतों के लिए यथोचित एक सामान शारीरिक श्रम करें. और उसके जो समय बचे उससे समाज की समस्याएँ बुद्धिमानी से साथ दें.
उनके औद्योगिकीकरण के बारे में जो विचार थे, वो आज भारत ही नहीं यूरोप, अमेरिका में भी बेकारी और गिरती आध्यात्मिकता का कारण बन रहे हैं.
आज दुनिया की 81% वेल्थ यानि समृद्धि दुनिया के सिर्फ 1% लोगों के पास है, अमेज़न जो की हर छोटे दुकानदार का धंधा बंद करवा रहा है, आज टेक्सास की आधी ज़मीन का मालिक है और वालमार्ट के मालिक अमेरिका की तकरीबन आधी दौलत अपने बैंकों में रखते हैं.
गूगल किसी भी मौलिक समस्या का समाधान किये बिना, सिर्फ इंसानी कमजोरी और आलस्य जनित मूढ़ता को बेच, दुनिया की सबसे बड़ी प्रभावशाली कंपनी है. फेसबुक, ट्विटर इत्यादि दुनिया भर की प्राइवेसी बेच बेच कर इतने अमीर हैं कि सेनेट में भी नेता अदब से बात करते हैं और देश दुनिया के प्रधानमंत्री घुटने टेकते हैं.
गाँधी की सोच इन सबसे बिलकुल उलट थी. उन्होंने हमेशा ऐसे उपक्रमों का विरोध किया, जो शक्ति का केन्द्रीकरण करते थे. आज शक्ति रोमन साम्राज्य की तरह केन्द्रित है.
आज हाथ का कोई भी काम, छोटा व्यापार सफ़ल हो ही नहीं सकते हैं, समाज का आर्थिक ढांचा ही कुछ ऐसा हो गया है.
गूगल और अमेज़न आपको अपने पडोसी से व्यापार करने ही नहीं देता, सीधे चीन से सस्ता माल डिलीवर करवाता है.
तो लगता है हमने सिर्फ गांधी का इस्तेमाल नव-साम्राज्यवाद को लाने के लिए ही किया और फिर उन्हें सिर्फ एक दीनता की मूर्ति के नीचे दबा दिया.
कोई किसी का सेवक ना हो, ग्राम स्वराज्य और बेवजह शहरीकरण का इतना पुरज़ोर विरोध करने के बाद भी आज बाद भी आज हमारी नीतियां किसानों को सर्विसेज की ओर धकेल रही हैं, ये सिर्फ नक़ल की अर्थनीति है, जो खेती किसानी नहीं, बल्कि युद्ध आधारित अर्थशास्त्र और देशों के रिएक्शन में भारत में इम्प्लांट की जा रही हैं.
इंग्लैंड और यूरोप क्यों हिंसा के अर्थशास्त्र का प्रयोग करते हैं? क्योंकि वहां की परिस्थिति में जीवन कठिन है, आंतरिक कमजोरी है, खेती किसानी लायक ना तो ज़मीन है, ना ही मौसम. पशु, मीट और प्रोसेस्ड फ़ूड आधारित अर्थव्यवस्था मज़बूरी है. बड़ी मशीनों से काम ना किया जाए, तो जीवन संभव नहीं.
हमारे यहाँ ऐसा नहीं है, फिर भी हम नक़ल करते हैं और दुर्गति को प्राप्त हो रहे हैं.
बापू और शास्त्री के जय जवान, जय किसान के नारे पर हमारी अर्थव्यवस्था की बुनियाद होनी चाहिए. सर्विसेज और कॉल सेंटर हमें पराधीन ही बनाएगा.
वर्तमान परिवेश में गांधी जी के राजनीतिक विचारों की भूमिका को किस प्रकार रेखांकित किया जा सकता है और यदि आज के हर क्षण बदलते परिवेश में हम गाँधीवादी आदर्शों का प्रतिस्थापन करें तो कौन सी समस्याएं हमारे सम्मुख आयेंगी? इन सभी पर की गयी चर्चा अग्रलिखित रूप से दी गयी है.
गांधी जी के राजनीतिक विचारों का आज के समय में अवलोकन करते हुए लोकतंत्र की सही व्याख्या करने के संबंध में सर्वप्रथम मनोज जी ने अपने विचार रखते हुए समझाया..
आज आदर्श व्यवहार बनता है और सिद्धांत निर्धारित हो जाता है. लोकतंत्र सर्वोत्तीर्ण व्यवस्था के रूप में स्थापित है. किन्तु राजनीति को पारदर्शी होना चाहिए, जो नहीं हो सका है. गांधी जी की आलोचना का क्या अर्थ रहा? यह समझना अतिआवश्यक है. लोकतंत्र का विस्तार होना आवश्यक है.
आज जानना होगा कि क्या कारण है कि हम भारत माता की जयकार करते हैं? क्या कारण है कि जनता में असंतोष की भावना आ गयी है? 1947 में आजादी के बाद लोकतंत्र को संभाल कर नहीं रख सके तो अब इसे संभालने की जरूरत है क्योंकि यह संकट का आरंभ है.
बेरोजगारी, भ्रष्टाचार देश में निरंतर फैलता जा रहा है. इसी कड़ी में देश की, गांव की, घर की, व्यक्ति की समस्या के बीच अंतर विरोध क्यों है? इस विषय में जानना होगा, तभी देश विकसित हो सकता है.
गांधी जी के राजनीतिज्ञ संदर्भ में विचार करते हुए मिथलेश जी ने कहा..
अगर हम राजनीतिज्ञ शब्द का प्रयोग करे तो उसके दो अर्थ हैं, पहला राजनीति विज्ञान की पुस्तकों से रूढ़ अर्थ लिया जाता है, जिसमें राजनीति राज करने की कला के रूप में है. एक किताब के अनुसार, जिसमें लिखा है..राजा किस तरह राज करेगा? इसका एक संदर्भ राजनीति के रूप में है. गांधी के लिए राजनीति थोड़ी अलग संदर्भ में है, गांधी राजनीति को विश्व के नैतिक, व्यवस्थित शासन के रूप में देखना चाहते थे.
मनुष्य किस रूप में शासन कर सकता है? और उसके लिए कौन सी प्रेरणा जागती थी, उसी को राजनीति कहते थे. जब गांधी ने राजनीतिज्ञ के तौर पर बात की थी, तो उसके तीन संदर्भ दिए थे.
1.धर्म के साथ आपका एकाकार
2. स्वराज की प्राप्ति
3. लोकतंत्र के साथ आपका संबध.
गांधी के लिए धर्म का मतलब है, जो सभी लोगों को आपस में जोड़ कर रख सके, उस धूरी का नाम धर्म है. धर्म गांधी के लिए एक धूरी है, जिसके इर्द-गिर्द वो समूची आर्थिक, राजनीतिक एंव सामाजिक सत्ता को बांध के रखा जा सके.
जब हम गांधी के स्वराज की बात करते हैं तो उनके लिए स्वराज का मतलब है, अपने आपको जान लेना और अपने अंदर छिपी नैतिकता को पहचान कर उसके साथ प्रत्येक व्यक्ति के महत्व को जानना तथा उसके अधिकारों और कर्तव्यों की इज्जत करना.
गांधी जी का मानना था कि सम्पूर्ण संसदीय व्यवथा केवल सत्ता के पीछे चलता है और यह व्यवस्था केन्द्रीकरण को बढ़ावा देती है. परन्तु इसमें यदि स्वराज की भावना जागृत करदी जाये तो यह विकेंद्रीकरण को बल देगी और समाज कल्याण को प्रगति मिलेगी. सत्ता की निरंकुशता को समाप्त करने के लिए स्वराज को अपनाना आवश्यक है.
महात्मा गांधी के जीवन दर्शन को समझकर राजनीति के अंतर्गत उनकी मान्यताओं की स्थापना के विषय में चर्चा करते हुए डॉ. टी. करुणाकरण ने बताया..
गांधी जी के दर्शन को एक शब्द से समझा जा सकता है, ‘रामराज्य’ . रामराज्य का मतलब है, स्वशासन अर्थात् एक ऐसा शासन जहां जनता अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वयं सक्षम होगी. उसके ऊपर सत्ता का अधिकार नहीं होगा.
गांधी जी रूलरशिप की जगह लीडरशिप में विश्वास रखते थे. इसको ज़मीन पर लाने के लिए उन्होंने ग्राम स्वराज की कल्पना की. इसके लिए उन्होंने अपनी अंतिम वसीयत में 35 लाख युवकों का हम कैसे नेतृत्व करें व उन्हें पांच दिशा के हुनर देकर तैयार करें, इसका पूरा ब्लू प्रिंट दिया है. इस प्रकार के युवकों को तैयार करना आज भी संभव है. मध्य-प्रदेश में इस पर आधारित योजना “कम्युनिटी लीडरशिप डेवलपमेंट” के नाम से चल रही है. इन सभी से गांधी जी की सद्भावना और समता की भावना को बल मिलेगा और राजनीति में नव-परिवर्तन आएगा.
गांधी जी की राजनीतिक विचारधारा से संबंधित विचारधारा की व्याख्या करते हुए सुरेन्द्र जी ने बताया..
गांधी जी ने अपने आंदोलनों एवं कार्यक्रमों के माध्यम से जनजीवन की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया. उन्होंने आम लोगों को अपने साथ जोड़ा तथा देश हित की अलख जगाई. चम्पारण सत्याग्रह, बारदौली सत्याग्रह एवं नमक सत्याग्रह के जरिये बहुत से लोग गांधी जी से जुड़े.
केवल आंदोलन ही नहीं, बल्कि रचनात्मक कार्यों से भी उन्होंने आम लोगों को जोड़े रखा, क्योंकि गांधी जी जानते थे कि शांति के दौर में रचनात्मकता के मायने काफी अधिक हैं. गांधी जी ने अपनी पुस्तक “मेरे सपनों का भारत” में गांधी जी ने स्वतंत्रता के पश्चात नव-भारत के निर्माण के विषय में लिखा. यह बात दीगर है कि आज हम उनकी बनाई व्यवस्था से दूर हो चुके हैं, इसी कारण हमारे समाज में विभिन्नता, विखंडता आई, हमारे पर्यावरण, लघु-कुटीर उद्योगों का भी विनाश हुआ.
उच्च शिक्षा व्यवस्था का जो सिस्टम अंग्रेजी शासन काल में चला, उसी की धुरी पर हम आज घूम रहे हैं, जिस कारण बेरोजगारी आज आम है. गांधी जी की स्वस्थ समाज संरचना के आयामों से आज हमारे नीति-निर्णायकों ने हमे भटका दिया है.
गांधी जी की सत्य और अहिंसा की नीति, जो स्वस्थ राजनीति का केंद्र हुआ करती थी, उसका स्थान आज सामाजिक हिंसा, औपनिवेशिक हिंसा आदि ने ले लिया है. पूरे देश में हिंसक वातावरण का दौर है.
राजनीतिक रूप से हमारे लोकतंत्र के अंतर्गत प्राप्त अधिकारों का दिन-रत हनन किया जा रहा है. सत्ता पर काबिज लोग अपनी जगह बनाए रखने के लिए लोगों के अधिकारों को न्यूनतम कर रहे हैं. न्यायपालिका व्यवस्था इतनी खर्चीली है कि, गांधी जी की ग्राम पंचायत, न्याय व्यवस्था की अवधारणा कहीं लुप्त सी हो गयी है.
आज़ादी के बाद के भारत निर्माण में हम गांधी जी के मार्ग से कही भटक गए हैं. आज आवश्यकता है कि गांधी विचारों के विशेषज्ञ एवं भारत के नेत्री निर्माता एक साथ बैठ कर इस व्यवस्था पर पुन: अवलोकन करें और गांधी जी का मार्ग आज कितना प्रासंगिक है और इसको किस प्रकार क्रियान्वित किया जा सकता है, उस दिशा में हमें आगे बढ़ने की आवश्यकता है.
गांधी जी के व्यक्तित्व निर्माण पर बहुत ज्यादा बल देकर उनके विचारों को गहनता से स्थापित करने की आवश्यकता है. गांधी दर्शन को समग्रता से समझ कर ही हम नए समाज का निर्माण कर सकते हैं और एक सुखी, समृद्ध, शांतिपूर्ण और अहिंसक समाज की स्थापना हो सकती है.
राजनीति के अंतर्गत गाँधीवादी जीवनदर्शन के तथ्यों को उजागर करते हुए राकेश जी ने कहा..
राजनीति के बारे में अगर हम गांधी जी के जीवन दर्शन को देंखे तो उन्होंने थियोलोजी के क्षेत्र में भी काफी कार्य किया. उन्होंने धर्म के अंतर्गत संकुचित दृष्टिकोण को बढ़ावा नहीं देते हुए कुरान, बाइबिल, यहूदी धर्म आदि को भी अपने सिद्धांतों में सम्मिलित किया.
राजनीति के अंतर्गत उन्होंने बताया कि हमारी वैश्विक समझ मजबूत होनी चाहिए. गांधी जी ने व्यापक रूप से समझाया कि वैश्विक रूप से सुदृढ़ होने के लिए किस प्रकार की विचारधारा होनी चाहिए. साथ ही गांधी जी ने युवाओं में कौशल क्षमता बढ़ाने की बात भी रखी. गांधी जी के आदर्शों को स्थापित करने के लिए कुछ बिन्दुओं पर सोचना होगा..
1. राजनीति के अंतर्गत प्रमुख रूप से विवादास्पद सिद्धांतों या विचारों को व्यवस्थित करके राष्ट्रहित के दिशा में मोड़ना होता है. राजनीति के अंतर्गत यदि गांधी जी के विचारों से सीख ली जाये तो इस दिशा में एक उन्नत शोध होना चाहिए. गांधी जी और कलाम जी के सिद्धांतों को सही मायनों में विवेचना करनी होगी और राजनीति के लिए कुछ बेहतर नीतियां बनानी होंगी.
2. इन नीतियों का व्यवहारिक क्रियान्वन हो, इस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिए कि सात लाख गांवों में तकरीबन पांच कौशलसम्पन्न लोग हों और अनवरत कौशल विकास होता रहे.
3. साथ ही सोचना होगा कि ये कौशलसंपन्न लोग स्थानीय स्तर के हों या किसी वर्ग विशेष में स्किल लोगों का समूह.
4. कोई भी योजनाएं जो बाहर से आती हैं, उनके स्थानीय मानकों पर पड़ने वाले प्रभाव की भी विवेचना की जानी चाहिए और राजनीति का यह कार्य है कि उचित रूप से इनका क्रियान्वन हो सके.
5. इसके अतिरिक्त गांधी जी के सिद्धांतों को लेकर अल्प भागों में या छोटे लेखों के रूप में उन्हें दस्तावेजित किया जाना भी आवश्यक है, जिससे यह सब लगातार चर्चा का विषय बना रहे.
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