(ट्रिस्टन हेरिस , भूतपूर्व गूगल कार्यकर्त्ता )
तकनीकों का अविष्कार स्वतंत्र मनुष्य के नवपरिवर्तनशील दिमाग की उपज है. आधुनिक प्रगति के दौर में अपनी जीवनशैली को सहज और सुगम बनाने के उद्देश्य से ही व्यक्ति ने नई तकनीकों को इजाद किया, परन्तु धीरे धीरे इन्हीं तकनीकों की गिरफ्त में व्यक्ति कैद हो कर रह गया. सिलिकॉन वैली की विशालतम कंपनियां, फेसबुक, गूगल, ट्विटर आदि, जिनका प्रारम्भिक उद्देश्य अपनी अत्याधुनिक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और तकनीकी सर्वे के माध्यम से उनसे जुड़े लोगों के जीवन को नित नए अनुभवों से अवगत कराना, उनके जीवन को विभिन्न उपागमों से आसान बनाना तथा समस्त विश्व को बेहतर संचार का एक अंतर्राष्ट्रीय मंच प्रदान कराना था. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो इन कंपनियों ने सूचना की स्वतंत्रता के नाम पर व्यक्ति की निजता की स्वतंत्रता को उघाड़ कर रख दिया है.
प्रिंसटन वेब ट्रांसपेरेंसी एवं अकाउंटेबिलिटी प्रोजेक्ट के एक सर्वे के अनुसार आज 76 प्रतिशत वेबसाइट्स गूगल ट्रैकर का उपयोग बिना यूजर्स की जानकारी के कर रही हैं. आज इन कंपनियों से जुड़े लोग ही इनसे पृथक होकर इनकी उन नीतियों की आलोचना कर रहे हैं, जिनके माध्यम से ये अपने अरबों यूजर्स को फ्री सर्विस के नाम पर प्रोडक्ट बना कर अतिशय लाभ के लिए विज्ञापनदाताओं को बेच रही हैं. केवल यही नहीं पिछले कुछ समय से अमेरिकी सैन्य कार्यक्रमों में गूगल ने अपनी सेवाएं देकर यह भी साबित किया है कि आने वाले समय में गूगल जैसी सर्विस इस्तेमाल करने वाला कोई भी व्यक्ति, चाहे वह संसार के किसी भी कोने में क्यों ना हो, बेहद सरलता से किसी भी तकनीकी ख़ुफ़िया तंत्र की जद में आ सकता है. अपने प्रख्यात "प्रोजेक्ट मेवेन" की सहायता से अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ़ डिफेन्स के सैन्य अभियानों को हाई डेफिनिशन प्रौद्योगिकी से रूबरू कराकर विश्व के अन्य देशों के लिए गूगल ने साम्राज्यवाद का खतरा पैदा कर दिया है, साथ ही यह प्रोजेक्ट गूगल के ही कर्मियों द्वारा लगातार निंदित हो रहा है. बहुत से डिजिटल धुरंधरों और विद्वान् वर्ग ने गूगल की इस योजना को सिरे से खंडित करना भी आरंभ कर दिया है.
आइए एक नजर डालते है, प्रोजेक्ट मेवेन, गूगल कर्मचारियों के विरोध तथा भारत पर इसके भावी प्रभावों के विश्लेष्ण पर.
क्या है प्रोजेक्ट मेवेन ?
विश्व भर में तकरीबन 1 से 1.5 बिलियन एक्टिव यूजर्स के अंतरंग जीवन पर बारीकी से प्रति क्षण निगरानी रखने वाला सिलिकॉन वैली का ख्यातिप्राप्त सर्च इंजन गूगल वर्ष 2017 से अपने बहूचर्चित अभियान "प्रोजेक्ट मेवेन" को लेकर निरंतर सुर्ख़ियों में बना हुआ है. युएसए के रक्षा मंत्रालय से जुड़ कर तकनीकी विकास द्वारा सैन्य अभियानों को समर्थन देकर गूगल वाद-विवाद के घेरे में आ गया है. 762 बिलियन यूएस डॉलर की कंपनी गूगल के तत्वाधान में लांच यह प्रोजेक्ट "एल्गोरिदमिक वॉरफेयर क्रॉस- फंक्शन टीम" के रूप में भी जाना जाता है. यह गूगल की क्लाउड यूनिट द्वारा निर्धारित मॉडल है, जो गूगल तथा उसकी मूल कंपनी अल्फाबेट को खरबों डॉलर्स का रेवेन्यु उपलब्ध करने की क्षमता रखता है. इसका प्रमुख उद्देश्य कंप्यूटरीकृत एल्गोरिदम विकसित और एकीकृत करना है, जो अमेरिका के सैन्य विश्लेष्णकर्ताओं को पूर्ण गतियमान वीडियोज डेटा की विशुद्ध मात्रा उपलब्ध कराने में सहायक सिद्ध होगा.
इससे अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ़ डिफेन्स (डीओडी) को प्रतिद्वंदिता एवं आतंकवाद विरोधी संचालन के समर्थन में उपयुक्त डेटा प्राप्त करने में आसानी होगी. गूगल की कृत्रिम इंटेलिजेंस की सहायता से ड्रोन तकनीक को इस प्रकार विकसित किया गया है कि यह व्यक्ति और वस्तु में सटीक अंतर कर पाने, परिष्कृत एवं उच्च तकनीकी कैमरों की सहायता से निरीक्षण कर पाने में पूर्णत सक्षम है. इस प्रोजेक्ट के बाद से ही बहुत से डिजिटल प्रौद्योगिकों की नजर इसके संभावित नकारात्मक परिणामों पर बनी हुई है. विश्व भर में सैन्य अभियानों में गूगल की सेवाओं को लेकर विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है. तकनीकी विशेषज्ञ पीटर असारो, जो प्रोजेक्ट मेवेन के खिलाफ खड़े हुए हैं, उन्होंने आर्टिफिशियल तकनीकों का युद्ध आदि में उपयोग होने के विध्वंसक परिणाम अपनी एक वीडियो "अनफ़िल्टर्ड - टाइम इस रनिंग आउट" के माध्यम से लोगों को दिखाने के लिए एक बेहतर प्रयत्न किया है.
चूँकि गूगल किसी एक व्यक्ति या देश से नहीं जुड़ा है, तो इस प्रकार के निर्णय से, जिसमें तकनीकी विकास द्वारा शक्ति का एकीकरण होना तय है, गूगल की भूमिका पर प्रश्नचिंह उठने निश्चित हैं. अमेरिका पहले से ही दुनिया भर में अपनी ड्रोन तकनीको के माध्यम से लक्षित हत्याओं को लेकर काफी बदनाम रहा है, बिना किसी स्वचालित लक्ष्यीकरण के अभाव में भी अमेरिका द्वारा मध्य पूर्व के देशों में आतंक के नाम पर बहुत से बेगुनाह नागरिकों को मारने पर अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और नियमों का उल्लंघन बार बार किया जाता रहा है. वर्ष 2017 की द न्यू यॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट इस तथ्य की पुष्टि करती है कि किस प्रकार अमेरिका की ड्रोन तकनीकों से सामान्य नागरिकों को जान माल का नुकसान उठाना पड़ा है. वस्तुतः इन लक्षित हत्याओं की जद में वें लोग शामिल किये जाते हैं, जो ड्रोन की निरीक्षण प्रणाली के अंतर्गत किसी बड़े समूह में नजर आते हैं. उन लोगों के व्यवहार एवं व्यक्तिगत उपस्तिथि के आधार पर उपरी तौर पर ही यह तय कर लिया जाता है कि निश्चय ही यह आतंकवादी समूह से जुड़े लोग हैं. इन निर्णयों के कारण सामाजिक सभाओं में शामिल आम नागरिक भी लक्षित हत्या का शिकार बन जाते हैं.
गूगल कर्मचारी क्यों हैं प्रोजेक्ट मेवेन के विरोध में ?
गिज़मोदो की रिपोर्ट के अनुसार गूगल के बहुत से कर्मचारी इस प्रोजेक्ट को मानवता के खिलाफ एक हथियार मानते हैं और वें इसमें अपनी सहभागिता नहीं दर्ज कराना चाहते. मशीन को अत्याधिक शक्ति दिए जाने के अतार्किक निर्णयों के खिलाफ दर्जनों गूगल कार्यकर्त्ता इस्तीफा दे चुके हैं. उनका मानना है कि सैन्य कार्य प्रणाली में गूगल की भागीदारी पूरी तरह से अनुचित है और भविष्य में यह यूजर्स के भरोसे को आघात पहुँचाने का कार्य करेगी.
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से जुड़े गूगल के निर्णयों में पारदर्शिता की कमी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, जिस कारण गूगल के तकरीबन 4000 कर्मचारियों ने इंटरनल याचिका के माध्यम से प्रोजेक्ट मेवेन के खिलाफ एक स्वर में अपना विरोध दर्ज कराने के उद्देश्य से गूगल सीइओ सुन्दर पिच्चई को सम्बोधित किया है. पत्र के अंतर्गत कहा गया कि इस परियोजना में कंपनी की भागीदारी गूगल ब्रांड और प्रतिभा के लिए प्रतिस्पर्धा की क्षमता को अपरिवर्तनीय रूप से क्षति पहुंचाएगी. उन्होंने प्रोजेक्ट मेवेन को पक्षपाती और स्वायत्त हथियारों की तकनीकी क्षमता से युक्त बताते हुए कंपनी के लोगो "डोंट बी इविल" का उल्लेख किया. साथ ही कहा कि यह कंपनी की मौलिक जिम्मेदारी है कि वह अपनी तकनीकों को किसी थर्ड पार्टी के साथ आउटसोर्स नहीं कर सकती. उन्होंने उच्च अधिकारियों से आग्रह भी किया कि इस प्रकार के प्रोजेक्ट को जल्द से जल्द रद्द कर देना चाहिए और साथ ही ऐसी स्पष्ट व पारदर्शी नीतियों का निर्माण किया जाना चाहिए, जिनके अंतर्गत कंपनी भविष्य में भी सेना के साथ कोई गठबंधन नहीं रखे.
गूगल के एआई चीफ जेफ्फ डीन ने कहा कि, वह गूगल के स्वायत्त हथियारों के निर्माण वाली कृत्रिम इंटेलिजेंस का विरोध करते हैं तथा चाहते हैं कि गूगल यूनाइटेड नेशन के उन प्रयासों में सहायता करे, जिसमें वें स्वायत्त हथियारों के विकास व उपयोग पर रोक लगाना चाहते हैं.
न केवल कंपनी के भीतर विद्रोही स्थिति बनी हुयी है, अपितु कंपनी के बाहर भी प्रोजेक्ट मेवेन को लेकर विरोध किया जाना जारी है. पिछले वर्ष जुलाई से ही गूगल के एआई सिस्टम के माध्यम से अमेरिकी ड्रोन द्वारा फुटेज शॉट्स की बड़ी मात्रा का विश्लेष्ण करने के लिए मशीन लर्निंग प्रणाली और कृत्रिम इंटेलिजेंस का उपयोग किया जा रहा है. डिजिटल राइट्स की डायरेक्टर निगहत दाद ने अलजजीरा के दो रिपोर्ट्स के अमेरिका की सर्विलांस तकनीक द्वारा ड्रोन की "किल लिस्ट" में आने वाले मुद्दे पर प्रकाश डाला, और यह भी बताया कि वें गूगल के सीइओ सुन्दर पिच्चई को पत्र लिख कर प्रोजेक्ट मेवेन पर रोक लगाने का अनुरोध कर चुकी हैं. साइबर वॉर पर आधारित विख्यात पुस्तक "सर्विलांस वैली" के लेखक याशा लेविने ने हाल ही में अपनी एक वार्ता को ट्वीट के माध्यम से अंकित करते हुए अमेरिकन तकनीकी विकास के सामाजिक दुष्प्रभावों की चर्चा करते हुए कहा कि, "हमारी स्मरण क्षमता शक्ति से जुड़ी है, हम वही चीजें याद रखते हैं, जो सत्ता हमें याद रखने देना चाहती है और इसके विपरीत हम उन तथ्यों को भूल जाते हैं, जो सत्ता के खिलाफ हों."
प्रोजेक्ट मेवेन के खिलाफ लोगों के आवाज़ बुलंद करने के पीछे वजह भी तार्किक है, यदि आप अरबों यूजर्स की निजी जानकारियों को रात दिन खंगालते हैं, तो निश्चय ही आपको उनके प्रति जवाबदेह भी होना होगा. वर्तमान दौर में जब लोग सर्च के स्थान पर गूगल करते हैं तो क्या गूगल अपनी कृत्रिम इंटेलीजेंस तकनीकों, अपनी सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरिंग टीम, अपनी क्लाउड कंप्यूटिंग स्किल्स और अरबों यूजर्स से जुड़े डेटा के विशाल संग्रहण को उन अभियानों के विकास के सुपुर्द कर देगा, जो हथियारों और मार-काट की स्वायत्ता से जुड़े हों. अपने हजारों कर्मचारियों के नैतिक विरोध एवं विश्व भर में पक्षपाती नीतियों से आलोचना के बाद भी गूगल न केवल प्रोजेक्ट मेवेन को आगे बढ़ा रहा है, अपितु पेंटागन के एक और प्रोजेक्ट के लिए भी कंपनी तैयारी कर रही है. गूगल क्लाउड कंप्यूटिंग के लिए जॉइंट एंटरप्राइज डिफेन्स इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए भी आगे बढ़ने की कोशिशों में लगा है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि फिलहाल कंपनी रेवेन्यु लाभ के लिए दूरगामी परिणामों को देखना ही नहीं चाहती है. गूगल के इस अभियान के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. यूरोपियन डिजिटल समाजवादी एंटोनियो कैसिली, असिस्टेंट प्रो. लिल्ली ईरानी, लेरी पेज के भूतपूर्व एडवाइजर टेरी विनोग्रेड जैसे बड़े नाम भी प्रोजेक्ट मेवेन की खिलाफत में शामिल हो गये हैं.
भारत पर इससे पड़ने वाले सम्भावी खतरों की गणना
वर्तमान में भारत पहले से ही पड़ोसी देशों चीन, पाकिस्तान आदि के साथ खराब सम्बंधों को लेकर चर्चा में है. चीन द्वारा आये दिन भारतीय सीमा पर घुसपैंठ की खबरें सुनने में आती रहती हैं. कभी डोकलाम विवाद, तो कभी ब्रहमपुत्र विवाद, कोई न कोई मसला सर उठाए ही रहता है. हाल ही में आईएएफ द्वारा कहा गया था कि चीन स्मार्ट फोन के एप्स के माध्यम से भारत में जासूसी कर रहा है. गौरतलब है कि आज भारत के कोने कोने में स्मार्ट फ़ोनों का इस्तेमाल किया जाना आम बात है. सेना सम्बंधी मामलों में यदि इस प्रकार की चूक होती है, या भारतीय सेना से जुड़े तथ्य यदि विदेशी ताकतों के हाथ लगते हैं, तो यह देश के लिए कितना बड़ा आघात होगा, इसकी कल्पना मात्र से भी दिल सिहर उठता है. गूगल भी विभिन्न एप्स:
गूगल एसिस्टेंट, मेल, क्रोम, कैलेंडर, लोकेशन, ड्राइव, मैप्स, प्ले स्टोर आदि के माध्यम से आज भारत के 80 प्रतिशत यूजर्स के लिए पसंदीदा विकल्प है, ऐसे में सवाल उठता है कि क्या गूगल द्वारा अमेरिका जैसे विकसित देश को उसके सैन्य प्रभुत्व को बढ़ाने के लिए अपनी सेवाएं देना क्या इन 80 फीसदी यूजर्स के निजी डेटा की निजता के साथ खिलवाड़ नहीं है. क्या इस बात की गारंटी है कि भविष्य में गूगल की इस तकनीक का उपयोग अमेरिका भारत के सन्दर्भ में नहीं करेगा ?
भारत में लगभग 481 मिलियन लोग आज इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं, विचारणीय यह है कि इतनी बड़ी संख्या में यूजर्स भारत के नेता, अभिनेता, उच्च पदों पर आसीन प्रशासनिक अधिकारी और अन्य महत्त्वपूर्ण व्यक्ति भी होते हैं. ऐसे में यदि गूगल द्वारा निजी डेटा का एकीकरण किसी विदेशी शक्ति के लिए किया गया, तो ऐसी अवस्था को भारत किस प्रकार संभाल पायेगा ? एनालिटिका डेटा प्रकरण पर देश की डेटा सुरक्षा से जुड़ी ज़मीनी हकीकत किसी से छुपी नहीं है. काबिल-ए-गौर यह भी है कि यूएसए तथा यूके अपने अपने तरीके से डेटा चोरी के मुद्दे पर सिलिकॉन वैली की सोशल मीडिया की महाकाय कंपनी फेसबुक के कान ऐंठ चुकी है, परन्तु भारत इस मुद्दे को लेकर अभी तक गंभीर नहीं दिख रहा है.
यूरोपियन यूनियन द्वारा तो इन कंपनियों की तानाशाही रोकने के लिए हाल ही में जीडीपीआर बिल भी पास किया गया है. सोचिए यदि एक विश्वव्यापी कृत्रिम इंटेलिजेंस कंपनी अपनी प्रौद्योगिक सेवाओं के जरिये किसी एक देश की सैन्य क्षमताओं को विश्व के अन्य देशों के मुकाबले विकसित व मजबूत बना देगी, तो क्या यह अन्य विकासशील तथा अल्पविकसित देशों के लिए आगामी अनचाहे खतरे का बिगुल नहीं होगा. शक्ति का केन्द्रीकरण भले ही किसी भी स्वरुप में क्यों ना हो, आज तक कभी सकारात्मक परिणाम नहीं ला पाया है, वैश्विक पटल पर केवल इसके विस्फोटक परिणाम ही दृष्टिगोचर हुए हैं.
वर्ष 2014 में हुई पिऊ रिसर्च सेंटर द्वारा अमेरिका की सर्विलांस तकनीकों को लेकर विश्व के 44 देशों के मध्य सर्वे किया गया था, जिसमें प्रश्न रखा गया था कि क्या अमेरिका की आर्टिफिशियल निरीक्षण तकनीक से आपको फर्क पड़ता है ? इस रिसर्च से चौंकाने वाले तथ्य सामने आए. केवल 33 फीसदी भारतीयों ने कहा कि यह स्वीकार्य नहीं है, अपितु 35 प्रतिशत भारतीयों ने स्वीकारा कि उन्हें इस तकनीक से कोई भी समस्या नहीं है. क्या इन सबसे यह नतीजा नहीं निकलता कि देशवासियों के लिए डेटा सम्बंधी निजता उतनी अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है, हो सकता है भविष्य में भारत इस दिशा में कुछ सकारात्मक और कड़े कदम उठाए. परन्तु कहीं तब तक बहुत देर ना हो चुकी हो. क्योंकि जिस प्रकार विदेशी इंटरनेट साइट्स अपनी तकनीकों का दायरा आज विस्तृत कर रहीं हैं और अमेरिका की सैन्य शक्ति के साथ योगदान कर रही हैं, यह संभवतः एक ऐसे युग की ओर इशारा है, जहां ई-वॉर के नए खतरे विश्व को अपनी चपेट में लेने के लिए अग्रसर होंगे. इससे निपटने के लिए भारत को भी अपने स्तर पर प्रयासों की पहल अवश्य करनी चाहिए.
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"वर्तमान में गूगल, फेसबुक आदि से जुड़ी टेक्नोलॉजी अपने विशिष्ट डिज़ाइन के माध्यम से मनुष्य के दिमाग को हाईजैक कर रही है."
(ट्रिस्टन हेरिस , भूतपूर्व गूगल कार्यकर्त्ता )
तकनीकों का अविष्कार स्वतंत्र मनुष्य के नवपरिवर्तनशील दिमाग की उपज है. आधुनिक प्रगति के दौर में अपनी जीवनशैली को सहज और सुगम बनाने के उद्देश्य से ही व्यक्ति ने नई तकनीकों को इजाद किया, परन्तु धीरे धीरे इन्हीं तकनीकों की गिरफ्त में व्यक्ति कैद हो कर रह गया. सिलिकॉन वैली की विशालतम कंपनियां, फेसबुक, गूगल, ट्विटर आदि, जिनका प्रारम्भिक उद्देश्य अपनी अत्याधुनिक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और तकनीकी सर्वे के माध्यम से उनसे जुड़े लोगों के जीवन को नित नए अनुभवों से अवगत कराना, उनके जीवन को विभिन्न उपागमों से आसान बनाना तथा समस्त विश्व को बेहतर संचार का एक अंतर्राष्ट्रीय मंच प्रदान कराना था. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो इन कंपनियों ने सूचना की स्वतंत्रता के नाम पर व्यक्ति की निजता की स्वतंत्रता को उघाड़ कर रख दिया है.
प्रिंसटन वेब ट्रांसपेरेंसी एवं अकाउंटेबिलिटी प्रोजेक्ट के एक सर्वे के अनुसार आज 76 प्रतिशत वेबसाइट्स गूगल ट्रैकर का उपयोग बिना यूजर्स की जानकारी के कर रही हैं. आज इन कंपनियों से जुड़े लोग ही इनसे पृथक होकर इनकी उन नीतियों की आलोचना कर रहे हैं, जिनके माध्यम से ये अपने अरबों यूजर्स को फ्री सर्विस के नाम पर प्रोडक्ट बना कर अतिशय लाभ के लिए विज्ञापनदाताओं को बेच रही हैं. केवल यही नहीं पिछले कुछ समय से अमेरिकी सैन्य कार्यक्रमों में गूगल ने अपनी सेवाएं देकर यह भी साबित किया है कि आने वाले समय में गूगल जैसी सर्विस इस्तेमाल करने वाला कोई भी व्यक्ति, चाहे वह संसार के किसी भी कोने में क्यों ना हो, बेहद सरलता से किसी भी तकनीकी ख़ुफ़िया तंत्र की जद में आ सकता है. अपने प्रख्यात "प्रोजेक्ट मेवेन" की सहायता से अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ़ डिफेन्स के सैन्य अभियानों को हाई डेफिनिशन प्रौद्योगिकी से रूबरू कराकर विश्व के अन्य देशों के लिए गूगल ने साम्राज्यवाद का खतरा पैदा कर दिया है, साथ ही यह प्रोजेक्ट गूगल के ही कर्मियों द्वारा लगातार निंदित हो रहा है. बहुत से डिजिटल धुरंधरों और विद्वान् वर्ग ने गूगल की इस योजना को सिरे से खंडित करना भी आरंभ कर दिया है.
आइए एक नजर डालते है, प्रोजेक्ट मेवेन, गूगल कर्मचारियों के विरोध तथा भारत पर इसके भावी प्रभावों के विश्लेष्ण पर.
क्या है प्रोजेक्ट मेवेन ?
विश्व भर में तकरीबन 1 से 1.5 बिलियन एक्टिव यूजर्स के अंतरंग जीवन पर बारीकी से प्रति क्षण निगरानी रखने वाला सिलिकॉन वैली का ख्यातिप्राप्त सर्च इंजन गूगल वर्ष 2017 से अपने बहूचर्चित अभियान "प्रोजेक्ट मेवेन" को लेकर निरंतर सुर्ख़ियों में बना हुआ है. युएसए के रक्षा मंत्रालय से जुड़ कर तकनीकी विकास द्वारा सैन्य अभियानों को समर्थन देकर गूगल वाद-विवाद के घेरे में आ गया है. 762 बिलियन यूएस डॉलर की कंपनी गूगल के तत्वाधान में लांच यह प्रोजेक्ट "एल्गोरिदमिक वॉरफेयर क्रॉस- फंक्शन टीम" के रूप में भी जाना जाता है. यह गूगल की क्लाउड यूनिट द्वारा निर्धारित मॉडल है, जो गूगल तथा उसकी मूल कंपनी अल्फाबेट को खरबों डॉलर्स का रेवेन्यु उपलब्ध करने की क्षमता रखता है. इसका प्रमुख उद्देश्य कंप्यूटरीकृत एल्गोरिदम विकसित और एकीकृत करना है, जो अमेरिका के सैन्य विश्लेष्णकर्ताओं को पूर्ण गतियमान वीडियोज डेटा की विशुद्ध मात्रा उपलब्ध कराने में सहायक सिद्ध होगा.
इससे अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ़ डिफेन्स (डीओडी) को प्रतिद्वंदिता एवं आतंकवाद विरोधी संचालन के समर्थन में उपयुक्त डेटा प्राप्त करने में आसानी होगी. गूगल की कृत्रिम इंटेलिजेंस की सहायता से ड्रोन तकनीक को इस प्रकार विकसित किया गया है कि यह व्यक्ति और वस्तु में सटीक अंतर कर पाने, परिष्कृत एवं उच्च तकनीकी कैमरों की सहायता से निरीक्षण कर पाने में पूर्णत सक्षम है. इस प्रोजेक्ट के बाद से ही बहुत से डिजिटल प्रौद्योगिकों की नजर इसके संभावित नकारात्मक परिणामों पर बनी हुई है. विश्व भर में सैन्य अभियानों में गूगल की सेवाओं को लेकर विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है. तकनीकी विशेषज्ञ पीटर असारो, जो प्रोजेक्ट मेवेन के खिलाफ खड़े हुए हैं, उन्होंने आर्टिफिशियल तकनीकों का युद्ध आदि में उपयोग होने के विध्वंसक परिणाम अपनी एक वीडियो "अनफ़िल्टर्ड - टाइम इस रनिंग आउट" के माध्यम से लोगों को दिखाने के लिए एक बेहतर प्रयत्न किया है.
चूँकि गूगल किसी एक व्यक्ति या देश से नहीं जुड़ा है, तो इस प्रकार के निर्णय से, जिसमें तकनीकी विकास द्वारा शक्ति का एकीकरण होना तय है, गूगल की भूमिका पर प्रश्नचिंह उठने निश्चित हैं. अमेरिका पहले से ही दुनिया भर में अपनी ड्रोन तकनीको के माध्यम से लक्षित हत्याओं को लेकर काफी बदनाम रहा है, बिना किसी स्वचालित लक्ष्यीकरण के अभाव में भी अमेरिका द्वारा मध्य पूर्व के देशों में आतंक के नाम पर बहुत से बेगुनाह नागरिकों को मारने पर अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और नियमों का उल्लंघन बार बार किया जाता रहा है. वर्ष 2017 की द न्यू यॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट इस तथ्य की पुष्टि करती है कि किस प्रकार अमेरिका की ड्रोन तकनीकों से सामान्य नागरिकों को जान माल का नुकसान उठाना पड़ा है. वस्तुतः इन लक्षित हत्याओं की जद में वें लोग शामिल किये जाते हैं, जो ड्रोन की निरीक्षण प्रणाली के अंतर्गत किसी बड़े समूह में नजर आते हैं. उन लोगों के व्यवहार एवं व्यक्तिगत उपस्तिथि के आधार पर उपरी तौर पर ही यह तय कर लिया जाता है कि निश्चय ही यह आतंकवादी समूह से जुड़े लोग हैं. इन निर्णयों के कारण सामाजिक सभाओं में शामिल आम नागरिक भी लक्षित हत्या का शिकार बन जाते हैं.
गूगल कर्मचारी क्यों हैं प्रोजेक्ट मेवेन के विरोध में ?
गिज़मोदो की रिपोर्ट के अनुसार गूगल के बहुत से कर्मचारी इस प्रोजेक्ट को मानवता के खिलाफ एक हथियार मानते हैं और वें इसमें अपनी सहभागिता नहीं दर्ज कराना चाहते. मशीन को अत्याधिक शक्ति दिए जाने के अतार्किक निर्णयों के खिलाफ दर्जनों गूगल कार्यकर्त्ता इस्तीफा दे चुके हैं. उनका मानना है कि सैन्य कार्य प्रणाली में गूगल की भागीदारी पूरी तरह से अनुचित है और भविष्य में यह यूजर्स के भरोसे को आघात पहुँचाने का कार्य करेगी.
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से जुड़े गूगल के निर्णयों में पारदर्शिता की कमी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, जिस कारण गूगल के तकरीबन 4000 कर्मचारियों ने इंटरनल याचिका के माध्यम से प्रोजेक्ट मेवेन के खिलाफ एक स्वर में अपना विरोध दर्ज कराने के उद्देश्य से गूगल सीइओ सुन्दर पिच्चई को सम्बोधित किया है. पत्र के अंतर्गत कहा गया कि इस परियोजना में कंपनी की भागीदारी गूगल ब्रांड और प्रतिभा के लिए प्रतिस्पर्धा की क्षमता को अपरिवर्तनीय रूप से क्षति पहुंचाएगी. उन्होंने प्रोजेक्ट मेवेन को पक्षपाती और स्वायत्त हथियारों की तकनीकी क्षमता से युक्त बताते हुए कंपनी के लोगो "डोंट बी इविल" का उल्लेख किया. साथ ही कहा कि यह कंपनी की मौलिक जिम्मेदारी है कि वह अपनी तकनीकों को किसी थर्ड पार्टी के साथ आउटसोर्स नहीं कर सकती. उन्होंने उच्च अधिकारियों से आग्रह भी किया कि इस प्रकार के प्रोजेक्ट को जल्द से जल्द रद्द कर देना चाहिए और साथ ही ऐसी स्पष्ट व पारदर्शी नीतियों का निर्माण किया जाना चाहिए, जिनके अंतर्गत कंपनी भविष्य में भी सेना के साथ कोई गठबंधन नहीं रखे.
न केवल कंपनी के भीतर विद्रोही स्थिति बनी हुयी है, अपितु कंपनी के बाहर भी प्रोजेक्ट मेवेन को लेकर विरोध किया जाना जारी है. पिछले वर्ष जुलाई से ही गूगल के एआई सिस्टम के माध्यम से अमेरिकी ड्रोन द्वारा फुटेज शॉट्स की बड़ी मात्रा का विश्लेष्ण करने के लिए मशीन लर्निंग प्रणाली और कृत्रिम इंटेलिजेंस का उपयोग किया जा रहा है. डिजिटल राइट्स की डायरेक्टर निगहत दाद ने अलजजीरा के दो रिपोर्ट्स के अमेरिका की सर्विलांस तकनीक द्वारा ड्रोन की "किल लिस्ट" में आने वाले मुद्दे पर प्रकाश डाला, और यह भी बताया कि वें गूगल के सीइओ सुन्दर पिच्चई को पत्र लिख कर प्रोजेक्ट मेवेन पर रोक लगाने का अनुरोध कर चुकी हैं. साइबर वॉर पर आधारित विख्यात पुस्तक "सर्विलांस वैली" के लेखक याशा लेविने ने हाल ही में अपनी एक वार्ता को ट्वीट के माध्यम से अंकित करते हुए अमेरिकन तकनीकी विकास के सामाजिक दुष्प्रभावों की चर्चा करते हुए कहा कि, "हमारी स्मरण क्षमता शक्ति से जुड़ी है, हम वही चीजें याद रखते हैं, जो सत्ता हमें याद रखने देना चाहती है और इसके विपरीत हम उन तथ्यों को भूल जाते हैं, जो सत्ता के खिलाफ हों."
प्रोजेक्ट मेवेन के खिलाफ लोगों के आवाज़ बुलंद करने के पीछे वजह भी तार्किक है, यदि आप अरबों यूजर्स की निजी जानकारियों को रात दिन खंगालते हैं, तो निश्चय ही आपको उनके प्रति जवाबदेह भी होना होगा. वर्तमान दौर में जब लोग सर्च के स्थान पर गूगल करते हैं तो क्या गूगल अपनी कृत्रिम इंटेलीजेंस तकनीकों, अपनी सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरिंग टीम, अपनी क्लाउड कंप्यूटिंग स्किल्स और अरबों यूजर्स से जुड़े डेटा के विशाल संग्रहण को उन अभियानों के विकास के सुपुर्द कर देगा, जो हथियारों और मार-काट की स्वायत्ता से जुड़े हों. अपने हजारों कर्मचारियों के नैतिक विरोध एवं विश्व भर में पक्षपाती नीतियों से आलोचना के बाद भी गूगल न केवल प्रोजेक्ट मेवेन को आगे बढ़ा रहा है, अपितु पेंटागन के एक और प्रोजेक्ट के लिए भी कंपनी तैयारी कर रही है. गूगल क्लाउड कंप्यूटिंग के लिए जॉइंट एंटरप्राइज डिफेन्स इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए भी आगे बढ़ने की कोशिशों में लगा है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि फिलहाल कंपनी रेवेन्यु लाभ के लिए दूरगामी परिणामों को देखना ही नहीं चाहती है. गूगल के इस अभियान के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. यूरोपियन डिजिटल समाजवादी एंटोनियो कैसिली, असिस्टेंट प्रो. लिल्ली ईरानी, लेरी पेज के भूतपूर्व एडवाइजर टेरी विनोग्रेड जैसे बड़े नाम भी प्रोजेक्ट मेवेन की खिलाफत में शामिल हो गये हैं.
भारत पर इससे पड़ने वाले सम्भावी खतरों की गणना
वर्तमान में भारत पहले से ही पड़ोसी देशों चीन, पाकिस्तान आदि के साथ खराब सम्बंधों को लेकर चर्चा में है. चीन द्वारा आये दिन भारतीय सीमा पर घुसपैंठ की खबरें सुनने में आती रहती हैं. कभी डोकलाम विवाद, तो कभी ब्रहमपुत्र विवाद, कोई न कोई मसला सर उठाए ही रहता है. हाल ही में आईएएफ द्वारा कहा गया था कि चीन स्मार्ट फोन के एप्स के माध्यम से भारत में जासूसी कर रहा है. गौरतलब है कि आज भारत के कोने कोने में स्मार्ट फ़ोनों का इस्तेमाल किया जाना आम बात है. सेना सम्बंधी मामलों में यदि इस प्रकार की चूक होती है, या भारतीय सेना से जुड़े तथ्य यदि विदेशी ताकतों के हाथ लगते हैं, तो यह देश के लिए कितना बड़ा आघात होगा, इसकी कल्पना मात्र से भी दिल सिहर उठता है. गूगल भी विभिन्न एप्स:
गूगल एसिस्टेंट, मेल, क्रोम, कैलेंडर, लोकेशन, ड्राइव, मैप्स, प्ले स्टोर आदि के माध्यम से आज भारत के 80 प्रतिशत यूजर्स के लिए पसंदीदा विकल्प है, ऐसे में सवाल उठता है कि क्या गूगल द्वारा अमेरिका जैसे विकसित देश को उसके सैन्य प्रभुत्व को बढ़ाने के लिए अपनी सेवाएं देना क्या इन 80 फीसदी यूजर्स के निजी डेटा की निजता के साथ खिलवाड़ नहीं है. क्या इस बात की गारंटी है कि भविष्य में गूगल की इस तकनीक का उपयोग अमेरिका भारत के सन्दर्भ में नहीं करेगा ?
भारत में लगभग 481 मिलियन लोग आज इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं, विचारणीय यह है कि इतनी बड़ी संख्या में यूजर्स भारत के नेता, अभिनेता, उच्च पदों पर आसीन प्रशासनिक अधिकारी और अन्य महत्त्वपूर्ण व्यक्ति भी होते हैं. ऐसे में यदि गूगल द्वारा निजी डेटा का एकीकरण किसी विदेशी शक्ति के लिए किया गया, तो ऐसी अवस्था को भारत किस प्रकार संभाल पायेगा ? एनालिटिका डेटा प्रकरण पर देश की डेटा सुरक्षा से जुड़ी ज़मीनी हकीकत किसी से छुपी नहीं है. काबिल-ए-गौर यह भी है कि यूएसए तथा यूके अपने अपने तरीके से डेटा चोरी के मुद्दे पर सिलिकॉन वैली की सोशल मीडिया की महाकाय कंपनी फेसबुक के कान ऐंठ चुकी है, परन्तु भारत इस मुद्दे को लेकर अभी तक गंभीर नहीं दिख रहा है.
यूरोपियन यूनियन द्वारा तो इन कंपनियों की तानाशाही रोकने के लिए हाल ही में जीडीपीआर बिल भी पास किया गया है. सोचिए यदि एक विश्वव्यापी कृत्रिम इंटेलिजेंस कंपनी अपनी प्रौद्योगिक सेवाओं के जरिये किसी एक देश की सैन्य क्षमताओं को विश्व के अन्य देशों के मुकाबले विकसित व मजबूत बना देगी, तो क्या यह अन्य विकासशील तथा अल्पविकसित देशों के लिए आगामी अनचाहे खतरे का बिगुल नहीं होगा. शक्ति का केन्द्रीकरण भले ही किसी भी स्वरुप में क्यों ना हो, आज तक कभी सकारात्मक परिणाम नहीं ला पाया है, वैश्विक पटल पर केवल इसके विस्फोटक परिणाम ही दृष्टिगोचर हुए हैं.
वर्ष 2014 में हुई पिऊ रिसर्च सेंटर द्वारा अमेरिका की सर्विलांस तकनीकों को लेकर विश्व के 44 देशों के मध्य सर्वे किया गया था, जिसमें प्रश्न रखा गया था कि क्या अमेरिका की आर्टिफिशियल निरीक्षण तकनीक से आपको फर्क पड़ता है ? इस रिसर्च से चौंकाने वाले तथ्य सामने आए. केवल 33 फीसदी भारतीयों ने कहा कि यह स्वीकार्य नहीं है, अपितु 35 प्रतिशत भारतीयों ने स्वीकारा कि उन्हें इस तकनीक से कोई भी समस्या नहीं है. क्या इन सबसे यह नतीजा नहीं निकलता कि देशवासियों के लिए डेटा सम्बंधी निजता उतनी अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है, हो सकता है भविष्य में भारत इस दिशा में कुछ सकारात्मक और कड़े कदम उठाए. परन्तु कहीं तब तक बहुत देर ना हो चुकी हो. क्योंकि जिस प्रकार विदेशी इंटरनेट साइट्स अपनी तकनीकों का दायरा आज विस्तृत कर रहीं हैं और अमेरिका की सैन्य शक्ति के साथ योगदान कर रही हैं, यह संभवतः एक ऐसे युग की ओर इशारा है, जहां ई-वॉर के नए खतरे विश्व को अपनी चपेट में लेने के लिए अग्रसर होंगे. इससे निपटने के लिए भारत को भी अपने स्तर पर प्रयासों की पहल अवश्य करनी चाहिए.
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