जहाँ अमेरिका और यूरोप के
लोग टेक्नोलॉजी से जुड़े कुछ बड़े ही बेसिक सवाल पूछ रहे हैं, हमारे यहाँ एक उथली
डिबेट चल रही है, चुनाव आने वाले हैं तो इस लिए कुछ और पहलुओं पर बातचीत शुरू करना
ज़रूरी लगता है.
फेक न्यूज़ और फ़ेक न्यूज़ के
शोर के बीच कल एक शेर सामने आया.
“तोहमतें जाएंगी नादिर शाह
के साथ, लूटो ए दिल्ली लूटने वालों.”
फेक न्यूज़ की इस डिबेट में
घिरे तीन मेगा योद्धा गूगल, फेसबुक और ट्विटर पर बातचीत शुरू करते हैं कुछ बेसिक सवालों के साथ.
पहला - ये
तीन कंपनियां किन मूल समस्याओं का समाधान करती हैं?
कुछ ऐतिहासिक फैक्ट्स और आज के सवाल-
- जब जीसस क्राइस्ट को क्रॉस
पर चढ़ाया गया था तो उनके कुल 12 फोलोवर्स थे.
- अगर कृष्ण अपने परम
ब्राह्मण स्वरुप की सेल्फी खींच खींच कर दिन भर शेयर कर रहे होते तो क्या अर्जुन
गीता को उसी भाव से सुनता?
- गाँधी जी अगर एडवर्ड, एस ई
ओ, पोस्ट बूस्ट और फॉलो अनफॉलो, लाइक री-ट्वीट का खेल कर रहे होते तो क्या कनॉट प्लेस पर तिरंगा लगा होता?
- प्रेमचंद, परसाई, टैगोर अगर
जनता की पसंद के हिसाब से ट्रेंडिंग हैशटैग पर किताब लिख रहे होते तो कौन सी
कहानियां लिखते?
- आज जब हम 2018 के आखिर में बैठे हैं और अपने आस पास देखते हैं तो किस तरह के लोगों को
शक्तिशाली और सत्ता पाते हुए देख रहे हैं?
- आज दुनिया की 81% वेल्थ या
समृद्धि दुनिया के सिर्फ 1 प्रतिशत लोगों के पास हैं. जहाँ गूगल के सी ई. ओ. सुंदर
पिच्चई साल का 700 करोड़ कमा कर आम आदमी कहलाते हैं, फेसबुक के मालिक जब पंद्रह
हज़ार करोड़ का नुक्सान खाते हैं तो सिर्फ दुनिया के छटवें अमीर के पायदान पर ही आते
हैं.
- एक तरफ़ ग्लोबल वार्मिंग है
तो दूसरी तरफ़ बिग बिलियन डॉलर सेल लग रही है और दोनों तरफ़ अमिताभ बच्चन जी ही
मार्केटिंग कर रहे हैं.
- फोटो खीचने के चक्कर में कई
सौ लोगों पर ट्रेन चढ़ जाती है और नया पुल बना नहीं कि तार पर लोग बंदरों की तरह
लटक लटक कर सेल्फी लेने लगते हैं.
आज के अजब गजब समाज की
लिस्ट बड़ी लम्बी है, मगर हम यहाँ कैसे पहुंचे इसकी चर्चा बड़ी ज़रूरी है.
इस सदी में डिजिटल
टेक्नोलॉजी उसी तरह है, जैसे पिछली सदी में इंडस्ट्रियल रेवोलुशन और परमाणु तकनीक.
भारत के इंजिनियर भले ही दुनिया भर में पिछले तीन दशकों से गूगल, माइक्रोसॉफ्ट बना
रहे हैं, भारत के लिए इसकी समझ काफी नयी है और आजकल होड़ लगी है इस चमकीली चीज़ को
लपक लेने की.
ये तीनों किसी भी मूल
समस्या को हल नहीं करती, मगर बस दिन में जो समस्या ये पैदा करती है, रात में उसी
को हल करती नज़र आती हैं और इसी काम में बहुत पैसा भी कमाती हैं.
डाटा एक्स्प्लोजन, फेक
न्यूज़, ट्रोल गिरी, मोनोपॉली पहले ये बनाती हैं फिर उसके लिए आर्टिफीशियल
इंटेलिजेंस, ब्लॉक चैन, फैक्ट चेक आदि का धंधा शुरू करती हैं.
इनका एक ही मूल मंत्र है –
इसे अमिताभ बच्चन इस्तेमाल करते हैं और ये मुफ्त है, यहाँ आप भी अमिताभ बच्चन बन
सकते हैं.
गूगल से पहले येल्लो पेज
बड़े आराम से बिज़नस को आपस में जोड़ते थे, बिना गूगल मैप के पहले भी लोग इधर से उधर
जाते ही थे, मैप वाली कई कंपनियां भी थी, लोग बिना रेटिंग देखे, पहचान वालों से
पूछ कर या फिर खुद ही एक्स्प्लोर कर के रेस्टोरेंट जाते ही थे. फेसबुक से पहले लोग
क्या दोस्तों और रिश्तेदारों से कटे हुए थे? आप क्या 2 रूपए दे कर अख़बार नहीं पढ़ते
थे क्या? आज आपका लोकल पत्रकार कहाँ है? लोकल बयूरो कहाँ है?
आप खुद ही सोचिये –
- गूगल के
ज़माने में क्या सिर्फ बड़े बड़े बिसनेस ही सफल नहीं हो रहे और छोटे बिज़नस बंद.
- आजीविका के साधन कम हो रहे हैं या बढ़ रहे हैं?
- क्या फेसबुक के बाद आपके रिश्ते
परिवार और दोस्तों से सुधरें हैं?
- जेपी, अम्बेडकर, पटेल, शास्त्री, नेहरु, अटल, इंदिरा, नरसिम्हा राव कोई
भी ले लें, आज के नेता उस समय के नेताओं से कितने प्रतिशत बढ़िया हैं?
- आज सारा माल अमेज़न बेचता है
और पार्टी की राजनीति में कैडर खत्म हो रहा है.
गूगल जिस तरह से सर्च
करवाता है, वो काफी विकारों से भरा हुआ है और ये कुछ बड़े पैसे वालों और तकनीकी रूप
से सक्षम लोगों को ही मदद करता है.
प्रजातंत्र को मज़बूत बनाने
में टेक्नोलॉजी ख़ासकर डिजिटल एक बड़ा योगदान दे सकती है, मगर इसका क्या स्वरुप
रहेगा ख़ासकर भारत के लिए ये एक बड़ी डिबेट है.
इससे पहले की हम टेक्नोलॉजी
पर पूरा दोष डाल दें, टेक्नोलॉजी और इसके अर्थशास्त्र को थोडा समझ लेते हैं.
दूसरा सवाल – गूगल फेसबुक, ट्विटर का अर्थशास्त्र
टेक्नोलॉजी क्या है और इसके
अलग अलग प्रकार क्या हैं, क्या ये पूरी तरह ख़राब है या कुछ ठीक भी है.
किस तरह की टेक्नोलॉजी
इ-पार्टिसिपेशन के लिए उपयुक्त हैं.
गाँधी जी ने बड़ी कमाल की
बात कही थी – अगर आप एक मशीन बनाते हैं, जो खेत जोतते समय एक इंसान का कुछ समय
बचाती है वो तो सही है, मगर यदि कोई एक ऐसी मशीन बनाता है, जिससे एक ही आदमी
दुनिया भर के खेत जोत सकता है वो गलत है और उसका विरोध होना चाहिए.
डिजिटल टेक्नोलॉजी का एक
प्रकार है, जो आप ज़रुरत के मुताबिक मूल्य दे कर लेते हैं, सीधा साधा व्यापार जैसे
बैंकिंग, मेडिकल, ज़मीन रजिस्ट्रेशन, स्टंप पेपर इत्यादि, आपको ज़रुरत है आप
इसका थोडा मूल्य चुकाइए और अपना काम आसान करिए कोई एजेंडा नहीं. ये वैसे ही है
जैसे आप चावल खरीदने जाते हैं डिमांड सप्लाई के हिसाब से 100 रूपए का मूल्य है,
अपने लिया इस्तेमाल किया.
सिलिकॉन वैली से निकली
तकनीक जो कि आजकल की गूगल, फेसबुक और ट्विटर इत्यादि हैं, ये इसकी उलट हैं. इनका मॉडल
ट्रैप और जूस है, ये ऐसा लगता है जैसे कुछ लोग पूरी दुनिया एक ही जगह से बैठ कर
चलाना चाहते हैं और सब कुछ इसी के आस पास बनता है.
किसी भी उत्पाद का मूल्य
डिमांड सप्लाई पर आधारित है.
इसमें एक और सिद्धांत होता
है, सब्सिडी का जिससे मूल्य कृत्रिम रूप से घटा कर डिमांड बढ़ा सकते हैं.
आपको भी अगर कल 100 रूपए की
कीमत वाला चावल मुफ्त में ही मिलने लगे तो आप अति उपभोग और उसकी बेकद्री करेंगे,
बर्बाद करेंगे, वैल्यू नहीं करेंगे, उठा कर भर लेंगे, सड़ने देंगे इत्यादि.
सब्सिडी अर्थशास्त्र में
बुरा मानते हैं क्योंकि ये सिस्टम में इन-एफिशिएंसी यानि अक्षमता लाता है.
गूगल, फेसबुक, ट्विटर इत्यादि इसी
इकोनॉमिक्स की अक्षमता पर आधारित हैं.
ये मार्केटिंग कंपनियां हैं,
जिनकी मूल बनावट ही है उन्माद पैदा कर के कुछ बेचना. कमज़ोर भावनाओं पर टारगेट कर
के क्लिक तो सेल ऑप्टिमाइज़ करो ये इन पर मार्केटिंग का मूल मंत्र है.
मुद्दा ये है कि आज गूगल,
फेसबुक और कुछ हद तक ट्विटर हर बिज़नस और उसके ग्राहक और हर नेता और उसके श्रोता के
बीच में आ गया है और एक ऐसा माहौल बना बना रहा है कि इसको चढ़ावा दिए बिना आगे जाना
मुश्किल लगता है.
गूगल, फेसबुक और ट्विटर का
अति उन्माद और अति उपभोग आधारित ग्लोबल वार्मिंग में कितना हाथ है, इस पर एक
इंडिपेंडेंट रिसर्च की जा सकती है.
इन तीन विदेशी इम्प्लान्ट्स के ख़तरे और इनकी
शुरुआत.
गूगल की शुरुआत भी सी.आई.ए
द्वारा फण्ड किये गए एक सर्विलांस प्रोज़ेक्ट की तरह स्टेनफोर्ड में हुई थी. गूगल
पर समय समय पर अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों के साथ काम करने काइन के मिलिट्री ख़ासकर
ड्रोन टेक्नोलॉजी पर काम करने की खबरें आती रहती हैं, अगर फेसियल रिकग्निशन और
मिलिट्री ड्रोन को मिला कर देखें तो एक बड़ी खतरनाक स्थिति सामने आती है.
तकनीकी रूप से देखे और
इन्टरनेट का जो अध्यात्म है, ये लोग उसके उलट काम करते हैं, जैसे..
क्लोज गार्डन कांसेप्ट – माने एक गार्डन है, जहाँ हर आदमी खड़ा है और ओपन में
चिल्ला रहा है मगर इस गार्डन के अन्दर की आवाज़ बाहर नहीं आ सकती, यानि बाकि
इन्टरनेट से कटा हुआ, अन्दर सबको बोलने की आज़ादी दे दी गयी है, अपनी भावनाए व्यक्त
करो, तो सब चिल्ला रहे है, अपना सबसे सुन्दर रूप सेल्फी दिखाने की कोशिश कर रहे
हैं, इसी बीच ये लोग कुछ लोगों को मेगाफोन बेचने लगते हैं, अब हर आदमी मेगाफोन
खरीदने लगता है, जितना पैसा दोगे उतना ही बड़ा मेगाफोन. इसी बीच ये लोग कुछ अपने
लोगों को सही तकनीक, मेगाफोन से कैसे टारगेट किया जाए वो सिखाने लगते हैं और
इसका भी पैसा लेते है.
आप फेसबुक का एक पेज
आर्काइवल के लिए सेव करने की कोशिश करें नहीं हो पाएगा, ट्विटर का भी यही हाल है
और कोरा का भी. ये लोग अपने में ही एक इन्टरनेट बना रहे हैं, जिसको किसी भी तरह से
नियंत्रित करना या कोई भी इंडिपेंडेंट कोशिश नामुमकिन है.
ट्रम्प, ओबामा, हिलेरी के
बिलियन डॉलर वाले इलेक्शन देखें तो फेसबुक, ट्विटर, गूगल बड़े पैसे वाले नेताओं के
साथ चुनाव में मिल कर काम करते हैं, अगर आपका बजट बिलियन डॉलर का है तो इनके लोग
दोनों के ऑफिस में बैठ कर कंसल्टेंसी देते हैं.
ये सिस्टम्स प्रजातान्त्रिक
तरीकों के लिए बने ही नहीं हैं, इनमें काफी लूप होल हैं और इनका इस्तेमाल कुछ हंसी
मज़ाक तक ही सीमित रहे तो बढ़िया है.
ये विदेशी सिस्टम भारत की सिक्योरिटी
के लिए भी ख़तरनाक हैं. आज देश के हर छोटे बड़े नेता, अभिनेता सैनिक कहाँ जाता
है? क्या खाता है? किससे मिलता है? यह सब इन सिस्टम्स को पता है, लगातार इनके डाटा
ब्रीच, लीक की खबरें आती हैं. आप खुद सोचें सेना की मूवमेंट,
जमावड़ा, व्यापारियों की मूवमेंट और उनको क्या चीज़ें उनकी सोच को हिला सकती हैं, ये
सब विदेशी एजेंसियों के पास है, तो क्या ये नेशनल सिक्योरिटी के लिए बड़ा खतरा नहीं
हैं.
इन कंपनियो के मुफ्त एप
इस्तेमाल कर के क्या हम अपना भी वही हाल तो नहीं कर रहे जो अंग्रेजों ने प्रिंसली
एस्टेट के राजाओं का किया था, आज़ादी के समय इनसे जुड़े कई टन कागजात सामने आये थे,
जिनमें इनके सीक्रेट पर्सनल राज़, इनके विदेशों में की गयी पार्टियाँ, इनके महलों में
जासूस नौकरों से मिली पर्सनल ख़बरें रिकार्डेड थे, जिनके बल पर अंग्रेज इनको अपने
इशारों पर नचाते थे.
अगर इ-पार्टिसिपेशन के लिए
इन या इस तरह के या इन सिद्धांतों पर चलने वाले तकनीकी उपक्रमों की बात की जाती है
तो ये काफी गलत और ख़तरनाक होगा.
तकनीक किस तरह से
इ-पार्टिसिपेशन में मद्द दे सकती है, इसको हम अपने पॉलिसी प्रपोजल सेक्शन में डिस्कस
करेंगे.
Fake News Debate – New vs the
Old Media and the idea of Facts vs the Truth.
फैक्ट क्या है?
एक उदाहरण देखें - नौकरी
नहीं मिल रही या सरकारी नौकरी में किसी मुद्दे को ले कर युवाओं का एक बड़ा समूह
महीनों से विरोध प्रदर्शन कर रहा है.
इसको अगर एक सरकार से नाराज़
पत्रकार देखेगा तो बोलेगा – सरकार निकम्मी है.
अगर कोई मेह्साने का
ग्रामीण देखेगा तो बोलेगा – इतने लोगों में तो सहकारी शुरू हो जाएगा.
ये दो लोगों का ट्रुथ है जो
एक ही फैक्ट देख कर सामने आता है.
आज इन प्लेटफॉर्म्स पर काफी
सुपरफिशियल कलेक्शन ऑफ़ फैक्ट्स पर बड़ी बहस होती है. कई बार जिन फैक्ट्स का सच से
लेना देना नहीं होता है.
ये एंगल होते हैं जो दोनों
तरफ़ के लोग ले कर एक दूसरे को नीचा दिखाते हैं और राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश करते
हैं.
जैसे अगर कुछ नंबर्स देखें
तो हमने एक टेस्ट कैंपेन चलायी थी लाख से ऊपर लोग इंगेज हुए बड़े लाइक और शेयर भी
हुए, मगर ध्यान से देखें तो बहुत ही कम लोगों ने रिपोर्ट को खोल कर देखा, बस फोटो
देख कर लाइक किया और आगे निकल गए.
ट्विटर का भी यही हाल है.
यानि काफी सतही तौर पर लोग
जुड़ते हैं और ये नंबर्स कहीं से भी एक ज़िम्मेदार संवाद को नहीं दर्शाते.
हैशटैग हो या वायरल वीडियो
या कोई वायरल पोस्ट एक योजनाबद्ध तरीके से किये जाते हैं और इनके पीछे एक डिजाईन होता है, जो काफी महंगा होता है.
और जब दो पक्ष और इनकी
एजेंसियां इस तरह की इन्वेस्टमेंट कर देते हैं और बात नंबर बनाने की होती है तो ये
प्लेटफार्म बड़ा पैसा कमाते हैं. इसकी पूरी कहानी में विक्टिम रियल रिसर्च होती है
जो इन एक्सट्रीम व्यूज के बीच में होती है.
यहाँ गूगल फेसबुक, ट्विटर का एक बड़ा
कनफ्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट आ जाता है.
अभी हाल फिलहाल ही फेसबुक
पर एडवरटाइजर के एक समूह ने अपने वीडियो एड के नंबर 150% से 900% तक बढ़ा कर बताने
की बात की है.
तो जब आप कई सौ करोड़ के
सोशल मीडिया के बजट की बात सुनते होंगे तो अब समझे ये पैसा कहाँ जाता है.
इन प्लेटफॉर्म्स ने लोगों
का ध्यान बहुत बुरी तरह से भटकाया है. ऐसे नंबर आप पैसा खर्च कर और महंगी एजेंसीज
को हायर कर के बना सकते हैं, लोग खुद लाइक होने के लिए
सीरियल लाइक करते हैं, ट्विटर पर फॉलो, अन-फॉलो करते रहते हैं, बोट का इस्तेमाल करते हैं और इन्हीं नंबरों पर
इनका पूरा खेल टिका हुआ है और इन नंबरों को देख कर अगर आप कोई भी ई-पार्टिसिपेशन
होती है तो भाई गांधी तो नहीं आएँगे, ट्रम्प ही आएँगे.
ये नंबर्स पूरी तरह बनाये
हुए होते हैं, इनमे जो फैक्ट्स होते हैं,
वो पूर्ण सच से कई बार दूर होते हैं.
फैक्ट्स बनाम सच और फैक्ट चेकर्स.
आज फैक्ट चेकर्स की बात हो
रही है और अपने अपने सिस्टम से जुड़े फैक्ट चेकर्स को बढ़ा चढ़ा कर मार्किट किया जा
रहा है. टेक्निकल तौर पर कुछ एक केस पकड़े जा सकते हैं, जैसे कहीं का चित्र कहीं
लगा दिया, किसी और का वीडियो कहीं और लगा दिया, जो काम लो बजट में कोई एजेंसी बल्क में कर रही
हो, ये काम भी अब डीप फेक जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल से मुश्किल
होता जा रहा है और ये चेक भी फेसबुक, गूगल या ट्विटर ही कर सकते हैं, क्योंकि किसी भी तरह का टेक्निकल चेक करने के
लिए आपको जिस तरह का ऑटोमेशन चाहिए होगा वो बाहर से सही तरीके से हो नहीं सकता और
आजकल लोग चित्र रिप्रजेंटेशन के लिए भी इस्तेमाल करते हैं और विडियो भी ऑफिशियल
हों मगर लो क्वालिटी जिसमें टेक्निकल चेक एक्यूरेट नहीं रह जाते हैं.
हाँ इसका इस्तेमाल विरोधी
पक्ष द्वारा दूसरे को ट्रैक कर के उसकी एक गलती को बड़ा बना कर अपनी कैंपेन चलाने
में ज़रूर हो सकता है और इससे इन फैक्ट चेकर्स की विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाती है.
इसको भी कठिन करने के लिए
एक उदाहरण. जिम एकोस्टा और डोनाल्ड ट्रम्प जी का केस ले लें – एक ही घटना को दो अलग-अलग कैमरा से देखने पर मुद्दा अलग दिख रहा था. कस्पान की
जिस फुटेज को ले कर एक पत्रकार ने रिपोर्ट बनायीं उस विडियो में ट्विटर ने खुद कुछ
फ्रेम अपने प्रोसेसिंग में कम कर दिए थे, तो मुद्दा वही था मगर नजरिया अलग-अलग, इसमें क्या फेक और क्या ट्रूथ ये आपके अपने ट्रूथ पर निर्भर रहता है.
फेसबुक, गूगल इत्यादि के
फैक्ट चेकर्स पर लिबरल लेफ्टिस्ट होने की बात की जाती है और काफी कंज़र्वेटिव या परंपरागत लोग पक्षपात
का आरोप भी लगाते हैं.
मुद्दा ये है कि फैक्ट
चेकर्स के फैक्ट को या बायस को कौन चेक करे?
दूसरी बात की ट्रूथ और
फैक्ट में भी फर्क होता है.
न्यूयॉर्क टाइम्स ने अभी
हाल फिलहाल ही एक रिपोर्ट निकाली, जिसमे एक वाइट सुपरमेसिस्ट का बयान छपा था, जिसमें था कि गोरे
लोगों ने भारत में सड़के बनायीं, इंफ़्रा बनाया और देखो कैसे ये लोग इनको टॉयलेट
की तरह इस्तेमाल करते हैं और इनको अपने गुलामी के दिनों के बारे में ज्यादा शिकायत
नहीं करनी चाहिए बल्कि धन्यवाद देना चाहिए. इस लेख में इन साहब की बातें बिना किसी
बदलाव के छाप दी गयी थी. ओपन एंडेड ये बयान फैक्ट्स ज़रूर बता रहा था, मगर यहाँ सिर्फ एक फैक्ट और लिख देता की सत्रहवी
शताब्दी में अंग्रेजों के आने से पहले भारत दुनिया के कुछ सबसे सुखी देशों में से
था, तो इस लेख का ट्रुथ किसी अनभिज्ञ इंसान के लिए बदल जाता.
दूसरी ख़बर इंडियन एक्सप्रेस
की – ये चित्र फेक नहीं है (छोटा सा फाइल लिखा है), ना ही ये खबर फेक है, मगर जो नेरेशन यहाँ जा रहा है सच्चाई यह नहीं है.
काला बन्दर का पूरा खेल एक
चौबीस घंटे के न्यूज़ चैनल ने काफी लम्बे समय तक चलाया, बिना किसी सोशल मीडिया के वियतनाम युद्ध में भी न्यूज़ और हॉलीवुड वालों ने मिल
कर लम्बे समय तक युद्ध की त्रासदी को दबाये रखा.
मुद्दा ये है कि अपने-अपने
सत्य के अनुसार फैक्ट परोस कर राजनीति हमेशा से की जाती रही है, सोशल मीडिया ने बस एक आम आदमी को अपने सत्य में
उसके फैक्ट और झूठ के साथ इतना जकड़ दिया है कि कट्टर होता जा रहा है.
गूगल हो या ट्विटर या
फेसबुक सबका एक ही सिद्धांत है आपको जो पसंद है वही दिखेंगे, तो ये धीरे-धीरे पोस्ट बाय पोस्ट, वीडियो बाय विडियो
आदमी को सेंटर लेफ्ट या सेंटर राईट से फॉर लेफ्ट और फॉर राईट ले जा रहा है और ये
काम बड़ा धीरे-धीरे कट बी कट होता है और ये तरीका, ये नंबर एक बड़े नेता को एक
तानाशाह की जगह दिला सकता है और एक बड़ी कंपनी को बहुत बड़ी कंपनी. सत्ता कुछ लोगों
के हाथ जो कि ये नंबर बना बना कर बाकी सबको गुलाम बना लें.
सोशल मीडिया हो या मीडिया
दोनों में आज स्टार एंकर और बड़े फोलोवर वाले एक्टर आ गए हैं. न्यूज़ रूम में फैक्ट
चेकर की ज़रुरत इसीलिए पड़ती है क्योंकि ट्विटर से खबर उठाते हो. सबसे पहले ब्रेक
नहीं होगी तो जैसे आसमान फट पड़ेगा. दस मिनट लगा के ब्यूरो से खबर लो.
इन पर चेक इसीलिए नहीं रह
पा रहा है क्योंकि ये लोग एक्सेसिबल नहीं होते हैं, लोकल ब्यूरो, लोकल पत्रकार आज खत्म हैं. सब सोशल मीडिया से ही
ट्रेंड पिक कर रहे हैं.
पॉलिसी प्रपोजल और आम जनता के लिए सुझाव
गूगल फेसबुक, ट्विटर का भारतीय
डाटा किसके कंट्रोल में है, ये सवाल हमने संबंधित मिनिस्ट्री से पूछा था, जवाब आया कि आप इन्हीं कंपनियों से पूछ लें. हमारे पास तो इनकी कोई जानकारी नहीं है.
यानि हमारी मशीनरी काफी पीछे
है.
हमारे कुछ सुझाव रहेंगे – सरकार के लिए.
1. यूरोपियन लोगों की तरह फेसबुक, गूगल, ट्विटर का जो भी भारत से जुड़ा काम है उसको एक
इंडिपेंडेंट रेगुलेटर के अन्दर ले कर आयें.
2. सबको अभिव्यक्ति की स्वंत्रता मिले ये बहुत ज़रूरी है मगर रेगुलेटर ये
सुनिश्चित करें कि भारत में सिर्फ भारत के अन्दर के ही पब्लिशर कुछ पब्लिश कर
पायें.
3. पब्लिशर को भी कंट्रोल करना ज़रूरी है और फेसबुक, गूगल, ट्विटर को लोगों के आधार कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस देना कोई
एक महान मूर्खता होगी. सरकार को ई-सर्टिफिकेट बनाना चाहिए, जो कोई भी भारत में
रजिस्टर्ड कंपनी या व्यक्ति, इस्तेमाल कर के अपने आप को
ऑथेंटिक पब्लिशर घोषित कर पाए. जिससे इसकी प्राइवेसी सुरक्षित रहे.
1. पब्लिशर के टूल्स और आम
श्रोता के टूल्स अलग अलग हों, ऑथेंटिक पब्लिशर ही कंटेंट पब्लिश करें, और लाइव स्ट्रीमिंगऔर एडवांस सुविधाओं का इस्तेमाल कर पाए.
2. कोई भी विदेशी पब्लिशर पर
विदेशी जर्नलिस्ट या मीडिया के क़ानून लागू किये जाएँ.
3. ये रेगुलेटर पूरी तरह
सुनिश्चित करें कि भारत से संबंधित कोई भी डाटा अलग साइजों में रखा जाए और इसका
एक्सेस बाहर की एजेंसियो को ना हो. “ये लोग हैक हो गया” आदि की कहानी सुनाते रहते
हैं, ये सब बंद हो.
4. कोई भी पोस्ट जो 100 लोगों
से ऊपर की पहुँच बनाये उसको डिलीट नहीं करा जा सके और ये पब्लिक आर्काइवल में सबके
रिव्यु के लिए उपलब्ध कराया जा सके. जिस किसी पब्लिशर ने किया? कितना खर्चा हुआ? किस तरह के लोगों ने
रियेक्ट किया?
5. सबसे ज़रूरी है इन सर्विसेज
को एक सही मूल्य पर दिया जाए, जिससे भारतीय टेक्नोलॉजी उद्योग भी खड़े हो सकें
और स्पर्धा कर सकें. जिससे मोनोपॉली की जो स्थिति बनी है, वो टूटे और स्वदेशी
तकनीक मज़बूत हो. भारत का कम्पटीशन कमीशन इस पर काम करे. दिल्ली, बैंगलोर भारत में
हैं और हम जैसे बिज़नेस ही भारत के लिए खड़े होंगे सिलीकॉन वैली नहीं खड़ी होगी.
6. अगर सही मूल्य लगेगा तो
पर्सनल डाटा लेने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी, इसको मजबूती से लागू किया जाए.
7. 24 घंटे न्यूज़ चैनल की कोई
ज़रुरत नहीं है, एक ही खबर को लूप में
मनोरंजक बना कर दिखाते हैं. हर चैनल में दिन में चाहे चार बार बिना किसी एड के
न्यूज़ जस का तस दिखाने का प्रावधान रखा जाए. न्यूज़ में मनोरजन और ड्रामे का
कारोबार बंद होना चाहिए.
8. ई-पार्टिसिपेशन के लिए राईट
टू इनफार्मेशन को ऑटोमेट किया जाये और जीएसटी की तरह स्टेट और सेंटर को इनफार्मेशन
प्रो-एक्टिव डिस्क्लोजर के अंतर्गत लाया जाए, जिससे एक पूरी तस्वीर दिख पाए.
9. ई - पार्टिसिपेशन के लिए
राईट टू सर्विस का एक स्टैण्डर्ड सिस्टम पूरे राष्ट्र में लागू किया जाए, जैसे पुलिस गाड़ी में कैमरा, सरकारी ऑफिस, टिकटिंग
सिस्टम से जुड़े इत्यादि. इसमें प्राइवेसी का पूरा ख्याल रखा जाए.
10. चुनाव पूर्णतया ऑफलाइन और व्याप्त
या पेपर बैलेट से ही कराए जाएँ.
हमारे कुछ सुझाव रहेंगे
मीडिया के लिए-
_ख़बरें अगर ट्विटर से नहीं
लेंगे तो फैक्ट चेक की ज़रुरत नहीं होगी, सीधे ब्यूरो से लें और लोकल ब्यूरो को सपोर्ट
करें और स्थापित करें. ये सरकारी पॉलिसी और गूगल ट्विटर फेसबुक को कंट्रोल में लाने से संभव हो
पाएगा. इससे काफी नौकरियां भी बनेंगी.
_ख़बरें प्रेषित करके इन ब्यूरो
को राईट टू इनफार्मेशन के अन्दर लाया जाए और लोकपाल बनाए जाएँ. इनका फॉर्मेट एक सा
किया जाए, जिससे कोई भी इनकी सुविधा आसानी से ले पाए.
_ब्यूरो आम आदमी के लिए सुलभ
हों, ग्रिएवांस रेड्रेस्सल
ऑटोमेट किया जाए और पब्लिक डोमेन में रखा जाए.
आम जनता के लिए -
_प्रेमचंद की एक स्वराज के
समय की एक कहानी है – “सुहाग की साड़ी” ज़रूर पढ़े.
_जब तक स्थिति नहीं सुधरती
फेसबुक, ट्विटर, गूगल का इस्तेमाल कम से कम करें.
_चुनाव में इन सोशल मीडिया, वायरल, लाखों लाइक इत्यादि नम्बरों इत्यादि पर ध्यान ना दें.
ऑफलाइन मोड में अपने क्षेत्र के हर प्रत्याशी की लिस्ट निकलवा लें और घर परिवार के
साथ बैठ कर कम से कम एक दिन विचार करने में ज़रूर लगाएं.
_प्रत्याशी के कार्य के
अनुभव को देखें, कई बार दसवीं पास सरपंच जो तालाब का अगौर बनवाता है, किसी
भी नए आईआईटी आईआईएम से ऊपर हो सकता है. सामाजिक अनुभव, स्वाभाव और कितना उससे
मिलना सुलभ है, इस पर ध्यान दें.
By Rakesh Prasad {{descmodel.currdesc.readstats }}
जहाँ अमेरिका और यूरोप के लोग टेक्नोलॉजी से जुड़े कुछ बड़े ही बेसिक सवाल पूछ रहे हैं, हमारे यहाँ एक उथली डिबेट चल रही है, चुनाव आने वाले हैं तो इस लिए कुछ और पहलुओं पर बातचीत शुरू करना ज़रूरी लगता है.
फेक न्यूज़ और फ़ेक न्यूज़ के शोर के बीच कल एक शेर सामने आया.
फेक न्यूज़ की इस डिबेट में घिरे तीन मेगा योद्धा गूगल, फेसबुक और ट्विटर पर बातचीत शुरू करते हैं कुछ बेसिक सवालों के साथ.
पहला - ये तीन कंपनियां किन मूल समस्याओं का समाधान करती हैं?
कुछ ऐतिहासिक फैक्ट्स और आज के सवाल-
आज के अजब गजब समाज की लिस्ट बड़ी लम्बी है, मगर हम यहाँ कैसे पहुंचे इसकी चर्चा बड़ी ज़रूरी है.
ये तीनों किसी भी मूल समस्या को हल नहीं करती, मगर बस दिन में जो समस्या ये पैदा करती है, रात में उसी को हल करती नज़र आती हैं और इसी काम में बहुत पैसा भी कमाती हैं.
डाटा एक्स्प्लोजन, फेक न्यूज़, ट्रोल गिरी, मोनोपॉली पहले ये बनाती हैं फिर उसके लिए आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस, ब्लॉक चैन, फैक्ट चेक आदि का धंधा शुरू करती हैं.
इनका एक ही मूल मंत्र है – इसे अमिताभ बच्चन इस्तेमाल करते हैं और ये मुफ्त है, यहाँ आप भी अमिताभ बच्चन बन सकते हैं.
गूगल से पहले येल्लो पेज बड़े आराम से बिज़नस को आपस में जोड़ते थे, बिना गूगल मैप के पहले भी लोग इधर से उधर जाते ही थे, मैप वाली कई कंपनियां भी थी, लोग बिना रेटिंग देखे, पहचान वालों से पूछ कर या फिर खुद ही एक्स्प्लोर कर के रेस्टोरेंट जाते ही थे. फेसबुक से पहले लोग क्या दोस्तों और रिश्तेदारों से कटे हुए थे? आप क्या 2 रूपए दे कर अख़बार नहीं पढ़ते थे क्या? आज आपका लोकल पत्रकार कहाँ है? लोकल बयूरो कहाँ है?
आप खुद ही सोचिये –
गूगल जिस तरह से सर्च करवाता है, वो काफी विकारों से भरा हुआ है और ये कुछ बड़े पैसे वालों और तकनीकी रूप से सक्षम लोगों को ही मदद करता है.
प्रजातंत्र को मज़बूत बनाने में टेक्नोलॉजी ख़ासकर डिजिटल एक बड़ा योगदान दे सकती है, मगर इसका क्या स्वरुप रहेगा ख़ासकर भारत के लिए ये एक बड़ी डिबेट है.
इससे पहले की हम टेक्नोलॉजी पर पूरा दोष डाल दें, टेक्नोलॉजी और इसके अर्थशास्त्र को थोडा समझ लेते हैं.
दूसरा सवाल – गूगल फेसबुक, ट्विटर का अर्थशास्त्र
टेक्नोलॉजी क्या है और इसके अलग अलग प्रकार क्या हैं, क्या ये पूरी तरह ख़राब है या कुछ ठीक भी है.
किस तरह की टेक्नोलॉजी इ-पार्टिसिपेशन के लिए उपयुक्त हैं.
डिजिटल टेक्नोलॉजी का एक प्रकार है, जो आप ज़रुरत के मुताबिक मूल्य दे कर लेते हैं, सीधा साधा व्यापार जैसे बैंकिंग, मेडिकल, ज़मीन रजिस्ट्रेशन, स्टंप पेपर इत्यादि, आपको ज़रुरत है आप इसका थोडा मूल्य चुकाइए और अपना काम आसान करिए कोई एजेंडा नहीं. ये वैसे ही है जैसे आप चावल खरीदने जाते हैं डिमांड सप्लाई के हिसाब से 100 रूपए का मूल्य है, अपने लिया इस्तेमाल किया.
सिलिकॉन वैली से निकली तकनीक जो कि आजकल की गूगल, फेसबुक और ट्विटर इत्यादि हैं, ये इसकी उलट हैं. इनका मॉडल ट्रैप और जूस है, ये ऐसा लगता है जैसे कुछ लोग पूरी दुनिया एक ही जगह से बैठ कर चलाना चाहते हैं और सब कुछ इसी के आस पास बनता है.
किसी भी उत्पाद का मूल्य डिमांड सप्लाई पर आधारित है.
इसमें एक और सिद्धांत होता है, सब्सिडी का जिससे मूल्य कृत्रिम रूप से घटा कर डिमांड बढ़ा सकते हैं.
आपको भी अगर कल 100 रूपए की कीमत वाला चावल मुफ्त में ही मिलने लगे तो आप अति उपभोग और उसकी बेकद्री करेंगे, बर्बाद करेंगे, वैल्यू नहीं करेंगे, उठा कर भर लेंगे, सड़ने देंगे इत्यादि.
सब्सिडी अर्थशास्त्र में बुरा मानते हैं क्योंकि ये सिस्टम में इन-एफिशिएंसी यानि अक्षमता लाता है.
गूगल, फेसबुक, ट्विटर इत्यादि इसी इकोनॉमिक्स की अक्षमता पर आधारित हैं.
ये मार्केटिंग कंपनियां हैं, जिनकी मूल बनावट ही है उन्माद पैदा कर के कुछ बेचना. कमज़ोर भावनाओं पर टारगेट कर के क्लिक तो सेल ऑप्टिमाइज़ करो ये इन पर मार्केटिंग का मूल मंत्र है.
मुद्दा ये है कि आज गूगल, फेसबुक और कुछ हद तक ट्विटर हर बिज़नस और उसके ग्राहक और हर नेता और उसके श्रोता के बीच में आ गया है और एक ऐसा माहौल बना बना रहा है कि इसको चढ़ावा दिए बिना आगे जाना मुश्किल लगता है.
गूगल, फेसबुक और ट्विटर का अति उन्माद और अति उपभोग आधारित ग्लोबल वार्मिंग में कितना हाथ है, इस पर एक इंडिपेंडेंट रिसर्च की जा सकती है.
इन तीन विदेशी इम्प्लान्ट्स के ख़तरे और इनकी शुरुआत.
गूगल की शुरुआत भी सी.आई.ए द्वारा फण्ड किये गए एक सर्विलांस प्रोज़ेक्ट की तरह स्टेनफोर्ड में हुई थी. गूगल पर समय समय पर अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों के साथ काम करने काइन के मिलिट्री ख़ासकर ड्रोन टेक्नोलॉजी पर काम करने की खबरें आती रहती हैं, अगर फेसियल रिकग्निशन और मिलिट्री ड्रोन को मिला कर देखें तो एक बड़ी खतरनाक स्थिति सामने आती है.
तकनीकी रूप से देखे और इन्टरनेट का जो अध्यात्म है, ये लोग उसके उलट काम करते हैं, जैसे..
क्लोज गार्डन कांसेप्ट – माने एक गार्डन है, जहाँ हर आदमी खड़ा है और ओपन में चिल्ला रहा है मगर इस गार्डन के अन्दर की आवाज़ बाहर नहीं आ सकती, यानि बाकि इन्टरनेट से कटा हुआ, अन्दर सबको बोलने की आज़ादी दे दी गयी है, अपनी भावनाए व्यक्त करो, तो सब चिल्ला रहे है, अपना सबसे सुन्दर रूप सेल्फी दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, इसी बीच ये लोग कुछ लोगों को मेगाफोन बेचने लगते हैं, अब हर आदमी मेगाफोन खरीदने लगता है, जितना पैसा दोगे उतना ही बड़ा मेगाफोन. इसी बीच ये लोग कुछ अपने लोगों को सही तकनीक, मेगाफोन से कैसे टारगेट किया जाए वो सिखाने लगते हैं और इसका भी पैसा लेते है.
आप फेसबुक का एक पेज आर्काइवल के लिए सेव करने की कोशिश करें नहीं हो पाएगा, ट्विटर का भी यही हाल है और कोरा का भी. ये लोग अपने में ही एक इन्टरनेट बना रहे हैं, जिसको किसी भी तरह से नियंत्रित करना या कोई भी इंडिपेंडेंट कोशिश नामुमकिन है.
ट्रम्प, ओबामा, हिलेरी के बिलियन डॉलर वाले इलेक्शन देखें तो फेसबुक, ट्विटर, गूगल बड़े पैसे वाले नेताओं के साथ चुनाव में मिल कर काम करते हैं, अगर आपका बजट बिलियन डॉलर का है तो इनके लोग दोनों के ऑफिस में बैठ कर कंसल्टेंसी देते हैं.
ये सिस्टम्स प्रजातान्त्रिक तरीकों के लिए बने ही नहीं हैं, इनमें काफी लूप होल हैं और इनका इस्तेमाल कुछ हंसी मज़ाक तक ही सीमित रहे तो बढ़िया है.
ये विदेशी सिस्टम भारत की सिक्योरिटी के लिए भी ख़तरनाक हैं. आज देश के हर छोटे बड़े नेता, अभिनेता सैनिक कहाँ जाता है? क्या खाता है? किससे मिलता है? यह सब इन सिस्टम्स को पता है, लगातार इनके डाटा ब्रीच, लीक की खबरें आती हैं. आप खुद सोचें सेना की मूवमेंट, जमावड़ा, व्यापारियों की मूवमेंट और उनको क्या चीज़ें उनकी सोच को हिला सकती हैं, ये सब विदेशी एजेंसियों के पास है, तो क्या ये नेशनल सिक्योरिटी के लिए बड़ा खतरा नहीं हैं.
इन कंपनियो के मुफ्त एप इस्तेमाल कर के क्या हम अपना भी वही हाल तो नहीं कर रहे जो अंग्रेजों ने प्रिंसली एस्टेट के राजाओं का किया था, आज़ादी के समय इनसे जुड़े कई टन कागजात सामने आये थे, जिनमें इनके सीक्रेट पर्सनल राज़, इनके विदेशों में की गयी पार्टियाँ, इनके महलों में जासूस नौकरों से मिली पर्सनल ख़बरें रिकार्डेड थे, जिनके बल पर अंग्रेज इनको अपने इशारों पर नचाते थे.
अगर इ-पार्टिसिपेशन के लिए इन या इस तरह के या इन सिद्धांतों पर चलने वाले तकनीकी उपक्रमों की बात की जाती है तो ये काफी गलत और ख़तरनाक होगा.
तकनीक किस तरह से इ-पार्टिसिपेशन में मद्द दे सकती है, इसको हम अपने पॉलिसी प्रपोजल सेक्शन में डिस्कस करेंगे.
Fake News Debate – New vs the Old Media and the idea of Facts vs the Truth.
फैक्ट क्या है?
एक उदाहरण देखें - नौकरी नहीं मिल रही या सरकारी नौकरी में किसी मुद्दे को ले कर युवाओं का एक बड़ा समूह महीनों से विरोध प्रदर्शन कर रहा है.
इसको अगर एक सरकार से नाराज़ पत्रकार देखेगा तो बोलेगा – सरकार निकम्मी है.
अगर कोई मेह्साने का ग्रामीण देखेगा तो बोलेगा – इतने लोगों में तो सहकारी शुरू हो जाएगा.
ये दो लोगों का ट्रुथ है जो एक ही फैक्ट देख कर सामने आता है.
आज इन प्लेटफॉर्म्स पर काफी सुपरफिशियल कलेक्शन ऑफ़ फैक्ट्स पर बड़ी बहस होती है. कई बार जिन फैक्ट्स का सच से लेना देना नहीं होता है.
ये एंगल होते हैं जो दोनों तरफ़ के लोग ले कर एक दूसरे को नीचा दिखाते हैं और राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश करते हैं.
जैसे अगर कुछ नंबर्स देखें तो हमने एक टेस्ट कैंपेन चलायी थी लाख से ऊपर लोग इंगेज हुए बड़े लाइक और शेयर भी हुए, मगर ध्यान से देखें तो बहुत ही कम लोगों ने रिपोर्ट को खोल कर देखा, बस फोटो देख कर लाइक किया और आगे निकल गए.
ट्विटर का भी यही हाल है.
यानि काफी सतही तौर पर लोग जुड़ते हैं और ये नंबर्स कहीं से भी एक ज़िम्मेदार संवाद को नहीं दर्शाते.
हैशटैग हो या वायरल वीडियो या कोई वायरल पोस्ट एक योजनाबद्ध तरीके से किये जाते हैं और इनके पीछे एक डिजाईन होता है, जो काफी महंगा होता है.
और जब दो पक्ष और इनकी एजेंसियां इस तरह की इन्वेस्टमेंट कर देते हैं और बात नंबर बनाने की होती है तो ये प्लेटफार्म बड़ा पैसा कमाते हैं. इसकी पूरी कहानी में विक्टिम रियल रिसर्च होती है जो इन एक्सट्रीम व्यूज के बीच में होती है.
यहाँ गूगल फेसबुक, ट्विटर का एक बड़ा कनफ्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट आ जाता है.
अभी हाल फिलहाल ही फेसबुक पर एडवरटाइजर के एक समूह ने अपने वीडियो एड के नंबर 150% से 900% तक बढ़ा कर बताने की बात की है.
तो जब आप कई सौ करोड़ के सोशल मीडिया के बजट की बात सुनते होंगे तो अब समझे ये पैसा कहाँ जाता है.
इन प्लेटफॉर्म्स ने लोगों का ध्यान बहुत बुरी तरह से भटकाया है. ऐसे नंबर आप पैसा खर्च कर और महंगी एजेंसीज को हायर कर के बना सकते हैं, लोग खुद लाइक होने के लिए सीरियल लाइक करते हैं, ट्विटर पर फॉलो, अन-फॉलो करते रहते हैं, बोट का इस्तेमाल करते हैं और इन्हीं नंबरों पर इनका पूरा खेल टिका हुआ है और इन नंबरों को देख कर अगर आप कोई भी ई-पार्टिसिपेशन होती है तो भाई गांधी तो नहीं आएँगे, ट्रम्प ही आएँगे.
ये नंबर्स पूरी तरह बनाये हुए होते हैं, इनमे जो फैक्ट्स होते हैं, वो पूर्ण सच से कई बार दूर होते हैं.
फैक्ट्स बनाम सच और फैक्ट चेकर्स.
आज फैक्ट चेकर्स की बात हो रही है और अपने अपने सिस्टम से जुड़े फैक्ट चेकर्स को बढ़ा चढ़ा कर मार्किट किया जा रहा है. टेक्निकल तौर पर कुछ एक केस पकड़े जा सकते हैं, जैसे कहीं का चित्र कहीं लगा दिया, किसी और का वीडियो कहीं और लगा दिया, जो काम लो बजट में कोई एजेंसी बल्क में कर रही हो, ये काम भी अब डीप फेक जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल से मुश्किल होता जा रहा है और ये चेक भी फेसबुक, गूगल या ट्विटर ही कर सकते हैं, क्योंकि किसी भी तरह का टेक्निकल चेक करने के लिए आपको जिस तरह का ऑटोमेशन चाहिए होगा वो बाहर से सही तरीके से हो नहीं सकता और आजकल लोग चित्र रिप्रजेंटेशन के लिए भी इस्तेमाल करते हैं और विडियो भी ऑफिशियल हों मगर लो क्वालिटी जिसमें टेक्निकल चेक एक्यूरेट नहीं रह जाते हैं.
हाँ इसका इस्तेमाल विरोधी पक्ष द्वारा दूसरे को ट्रैक कर के उसकी एक गलती को बड़ा बना कर अपनी कैंपेन चलाने में ज़रूर हो सकता है और इससे इन फैक्ट चेकर्स की विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाती है.
इसको भी कठिन करने के लिए एक उदाहरण. जिम एकोस्टा और डोनाल्ड ट्रम्प जी का केस ले लें – एक ही घटना को दो अलग-अलग कैमरा से देखने पर मुद्दा अलग दिख रहा था. कस्पान की जिस फुटेज को ले कर एक पत्रकार ने रिपोर्ट बनायीं उस विडियो में ट्विटर ने खुद कुछ फ्रेम अपने प्रोसेसिंग में कम कर दिए थे, तो मुद्दा वही था मगर नजरिया अलग-अलग, इसमें क्या फेक और क्या ट्रूथ ये आपके अपने ट्रूथ पर निर्भर रहता है.
फेसबुक, गूगल इत्यादि के फैक्ट चेकर्स पर लिबरल लेफ्टिस्ट होने की बात की जाती है और काफी कंज़र्वेटिव या परंपरागत लोग पक्षपात का आरोप भी लगाते हैं.
मुद्दा ये है कि फैक्ट चेकर्स के फैक्ट को या बायस को कौन चेक करे?
दूसरी बात की ट्रूथ और फैक्ट में भी फर्क होता है.
न्यूयॉर्क टाइम्स ने अभी हाल फिलहाल ही एक रिपोर्ट निकाली, जिसमे एक वाइट सुपरमेसिस्ट का बयान छपा था, जिसमें था कि गोरे लोगों ने भारत में सड़के बनायीं, इंफ़्रा बनाया और देखो कैसे ये लोग इनको टॉयलेट की तरह इस्तेमाल करते हैं और इनको अपने गुलामी के दिनों के बारे में ज्यादा शिकायत नहीं करनी चाहिए बल्कि धन्यवाद देना चाहिए. इस लेख में इन साहब की बातें बिना किसी बदलाव के छाप दी गयी थी. ओपन एंडेड ये बयान फैक्ट्स ज़रूर बता रहा था, मगर यहाँ सिर्फ एक फैक्ट और लिख देता की सत्रहवी शताब्दी में अंग्रेजों के आने से पहले भारत दुनिया के कुछ सबसे सुखी देशों में से था, तो इस लेख का ट्रुथ किसी अनभिज्ञ इंसान के लिए बदल जाता.
दूसरी ख़बर इंडियन एक्सप्रेस की – ये चित्र फेक नहीं है (छोटा सा फाइल लिखा है), ना ही ये खबर फेक है, मगर जो नेरेशन यहाँ जा रहा है सच्चाई यह नहीं है.
काला बन्दर का पूरा खेल एक चौबीस घंटे के न्यूज़ चैनल ने काफी लम्बे समय तक चलाया, बिना किसी सोशल मीडिया के वियतनाम युद्ध में भी न्यूज़ और हॉलीवुड वालों ने मिल कर लम्बे समय तक युद्ध की त्रासदी को दबाये रखा.
मुद्दा ये है कि अपने-अपने सत्य के अनुसार फैक्ट परोस कर राजनीति हमेशा से की जाती रही है, सोशल मीडिया ने बस एक आम आदमी को अपने सत्य में उसके फैक्ट और झूठ के साथ इतना जकड़ दिया है कि कट्टर होता जा रहा है.
गूगल हो या ट्विटर या फेसबुक सबका एक ही सिद्धांत है आपको जो पसंद है वही दिखेंगे, तो ये धीरे-धीरे पोस्ट बाय पोस्ट, वीडियो बाय विडियो आदमी को सेंटर लेफ्ट या सेंटर राईट से फॉर लेफ्ट और फॉर राईट ले जा रहा है और ये काम बड़ा धीरे-धीरे कट बी कट होता है और ये तरीका, ये नंबर एक बड़े नेता को एक तानाशाह की जगह दिला सकता है और एक बड़ी कंपनी को बहुत बड़ी कंपनी. सत्ता कुछ लोगों के हाथ जो कि ये नंबर बना बना कर बाकी सबको गुलाम बना लें.
सोशल मीडिया हो या मीडिया दोनों में आज स्टार एंकर और बड़े फोलोवर वाले एक्टर आ गए हैं. न्यूज़ रूम में फैक्ट चेकर की ज़रुरत इसीलिए पड़ती है क्योंकि ट्विटर से खबर उठाते हो. सबसे पहले ब्रेक नहीं होगी तो जैसे आसमान फट पड़ेगा. दस मिनट लगा के ब्यूरो से खबर लो.
इन पर चेक इसीलिए नहीं रह पा रहा है क्योंकि ये लोग एक्सेसिबल नहीं होते हैं, लोकल ब्यूरो, लोकल पत्रकार आज खत्म हैं. सब सोशल मीडिया से ही ट्रेंड पिक कर रहे हैं.
पॉलिसी प्रपोजल और आम जनता के लिए सुझाव
गूगल फेसबुक, ट्विटर का भारतीय डाटा किसके कंट्रोल में है, ये सवाल हमने संबंधित मिनिस्ट्री से पूछा था, जवाब आया कि आप इन्हीं कंपनियों से पूछ लें. हमारे पास तो इनकी कोई जानकारी नहीं है.
यानि हमारी मशीनरी काफी पीछे है.
हमारे कुछ सुझाव रहेंगे – सरकार के लिए.
1. यूरोपियन लोगों की तरह फेसबुक, गूगल, ट्विटर का जो भी भारत से जुड़ा काम है उसको एक इंडिपेंडेंट रेगुलेटर के अन्दर ले कर आयें.
2. सबको अभिव्यक्ति की स्वंत्रता मिले ये बहुत ज़रूरी है मगर रेगुलेटर ये सुनिश्चित करें कि भारत में सिर्फ भारत के अन्दर के ही पब्लिशर कुछ पब्लिश कर पायें.
3. पब्लिशर को भी कंट्रोल करना ज़रूरी है और फेसबुक, गूगल, ट्विटर को लोगों के आधार कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस देना कोई एक महान मूर्खता होगी. सरकार को ई-सर्टिफिकेट बनाना चाहिए, जो कोई भी भारत में रजिस्टर्ड कंपनी या व्यक्ति, इस्तेमाल कर के अपने आप को ऑथेंटिक पब्लिशर घोषित कर पाए. जिससे इसकी प्राइवेसी सुरक्षित रहे.
1. पब्लिशर के टूल्स और आम श्रोता के टूल्स अलग अलग हों, ऑथेंटिक पब्लिशर ही कंटेंट पब्लिश करें, और लाइव स्ट्रीमिंगऔर एडवांस सुविधाओं का इस्तेमाल कर पाए.
2. कोई भी विदेशी पब्लिशर पर विदेशी जर्नलिस्ट या मीडिया के क़ानून लागू किये जाएँ.
3. ये रेगुलेटर पूरी तरह सुनिश्चित करें कि भारत से संबंधित कोई भी डाटा अलग साइजों में रखा जाए और इसका एक्सेस बाहर की एजेंसियो को ना हो. “ये लोग हैक हो गया” आदि की कहानी सुनाते रहते हैं, ये सब बंद हो.
4. कोई भी पोस्ट जो 100 लोगों से ऊपर की पहुँच बनाये उसको डिलीट नहीं करा जा सके और ये पब्लिक आर्काइवल में सबके रिव्यु के लिए उपलब्ध कराया जा सके. जिस किसी पब्लिशर ने किया? कितना खर्चा हुआ? किस तरह के लोगों ने रियेक्ट किया?
5. सबसे ज़रूरी है इन सर्विसेज को एक सही मूल्य पर दिया जाए, जिससे भारतीय टेक्नोलॉजी उद्योग भी खड़े हो सकें और स्पर्धा कर सकें. जिससे मोनोपॉली की जो स्थिति बनी है, वो टूटे और स्वदेशी तकनीक मज़बूत हो. भारत का कम्पटीशन कमीशन इस पर काम करे. दिल्ली, बैंगलोर भारत में हैं और हम जैसे बिज़नेस ही भारत के लिए खड़े होंगे सिलीकॉन वैली नहीं खड़ी होगी.
6. अगर सही मूल्य लगेगा तो पर्सनल डाटा लेने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी, इसको मजबूती से लागू किया जाए.
7. 24 घंटे न्यूज़ चैनल की कोई ज़रुरत नहीं है, एक ही खबर को लूप में मनोरंजक बना कर दिखाते हैं. हर चैनल में दिन में चाहे चार बार बिना किसी एड के न्यूज़ जस का तस दिखाने का प्रावधान रखा जाए. न्यूज़ में मनोरजन और ड्रामे का कारोबार बंद होना चाहिए.
8. ई-पार्टिसिपेशन के लिए राईट टू इनफार्मेशन को ऑटोमेट किया जाये और जीएसटी की तरह स्टेट और सेंटर को इनफार्मेशन प्रो-एक्टिव डिस्क्लोजर के अंतर्गत लाया जाए, जिससे एक पूरी तस्वीर दिख पाए.
9. ई - पार्टिसिपेशन के लिए राईट टू सर्विस का एक स्टैण्डर्ड सिस्टम पूरे राष्ट्र में लागू किया जाए, जैसे पुलिस गाड़ी में कैमरा, सरकारी ऑफिस, टिकटिंग सिस्टम से जुड़े इत्यादि. इसमें प्राइवेसी का पूरा ख्याल रखा जाए.
10. चुनाव पूर्णतया ऑफलाइन और व्याप्त या पेपर बैलेट से ही कराए जाएँ.
हमारे कुछ सुझाव रहेंगे मीडिया के लिए-
_ख़बरें अगर ट्विटर से नहीं लेंगे तो फैक्ट चेक की ज़रुरत नहीं होगी, सीधे ब्यूरो से लें और लोकल ब्यूरो को सपोर्ट करें और स्थापित करें. ये सरकारी पॉलिसी और गूगल ट्विटर फेसबुक को कंट्रोल में लाने से संभव हो पाएगा. इससे काफी नौकरियां भी बनेंगी.
_ख़बरें प्रेषित करके इन ब्यूरो को राईट टू इनफार्मेशन के अन्दर लाया जाए और लोकपाल बनाए जाएँ. इनका फॉर्मेट एक सा किया जाए, जिससे कोई भी इनकी सुविधा आसानी से ले पाए.
_ब्यूरो आम आदमी के लिए सुलभ हों, ग्रिएवांस रेड्रेस्सल ऑटोमेट किया जाए और पब्लिक डोमेन में रखा जाए.
आम जनता के लिए -
_प्रेमचंद की एक स्वराज के समय की एक कहानी है – “सुहाग की साड़ी” ज़रूर पढ़े.
_जब तक स्थिति नहीं सुधरती फेसबुक, ट्विटर, गूगल का इस्तेमाल कम से कम करें.
_चुनाव में इन सोशल मीडिया, वायरल, लाखों लाइक इत्यादि नम्बरों इत्यादि पर ध्यान ना दें. ऑफलाइन मोड में अपने क्षेत्र के हर प्रत्याशी की लिस्ट निकलवा लें और घर परिवार के साथ बैठ कर कम से कम एक दिन विचार करने में ज़रूर लगाएं.
_प्रत्याशी के कार्य के अनुभव को देखें, कई बार दसवीं पास सरपंच जो तालाब का अगौर बनवाता है, किसी भी नए आईआईटी आईआईएम से ऊपर हो सकता है. सामाजिक अनुभव, स्वाभाव और कितना उससे मिलना सुलभ है, इस पर ध्यान दें.
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