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केवल बाढ़ नियंत्रण पर काम करना नहीं है पर्याप्त, देश को है जल-निकासी आयोग के गठन की आवश्यकता

Dr Dinesh kumar Mishra

Dr Dinesh kumar Mishra Opinions & Updates

ByDr Dinesh kumar Mishra Dr Dinesh kumar Mishra   0

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केवल बाढ़ नियंत्रण पर काम करना नहीं है पर्याप्त, देश को है जल-निकासी आयोग के गठन की आवश्यकता-

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गुजराती में एक कहावत है, "छतरी पलटी गयी, कागड़ी थई गई"। जिसका अर्थ होता है कि बरसात में आंधी-पानी से अगर छतरी उलट जाये तो उसमें और कौवे में कोई अन्तर नहीं रह जाता।
  
आजकल कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तराखण्ड, बिहार आदि प्रान्तों से बाढ़ और वहां के शहरों से गाड़ियों, ट्रकों के बह जाने, लोगों की बिजली के खम्भों को पकड़ कर जीने की कोशिशों की फोटो, गिरते हुए घरों आदि के भयानक दृष्य टी.वी. पर देखने को मिल रहे हैं। कुछ दिन पहले यही विवरण अन्य असम्भव स्थानों से भी देखने में आ रही थीं। अत्यधिक वर्षा का होना इसका एक कारण था।
  
इसके साथ पानी की निकासी न हो पाना बाढ़ को मारक और लम्बे समय की त्रासदी में बदलता है। हमारे बाढ़ नियंत्रण के कार्यक्रमों का फल यही हुआ है कि योजनाकाल के प्रारम्भ में जो देश का बाढ़ प्रवण क्षेत्र 2.5 करोड़ हेक्टेयर था, वह अब बढ़ कर 5 करोड़ हेक्टेयर यानी दोगुना हो गया है। बिहार जैसे राज्य में यह वृद्धि 25 लाख हेक्टेयर से बढ़ कर कुसहा त्रासदी के बाद लगभग 73 लाख हेक्टेयर यानी तीन गुनी हो गयी है। राज्यों का बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम अगर बरसात में निष्फल हो जाये तो उसकी स्थिति उसी कौवे जैसी हो जाती है जिसकी तुलना गुजराती मुहावरे में उल्टी छतरी से की जाती है।
  
आज से लगभग सात साल पहले दिसंबर, 2015 में मैंने केन्द्रीय कृषि मंत्रालय को देश में एक नया राष्ट्रीय बाढ़/जल निकासी आयोग गठित करने के लिए लिखा था। क्योंकि पिछला राष्ट्रीय बाढ़ आयोग 1976 में गठित हुआ था, जिसकी रिपोर्ट 1980 में आयी थी। इस बीच बाढ़ के स्वरुप और उसके स्थायित्व में बहुत परिवर्तन आया है। शहरी बाढ़ों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है और इनकी वज़ह से नुक्सान भी बहुत हुआ है, जिसे रोकने की कोई तैयारी नहीं थी। बाढ़ अब पश्चिम और दक्षिण भारत का रुख कर रही है और उत्तर के गंगा-यमुना वाले क्षेत्र में सूखा कहीं ज्यादा मुखर हो रहा है। अगर यह जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहा है तो यह बात अब स्पष्ट रूप से कही जानी चाहिए।
  
यह स्थिति चिंताजनक है, पर इसके निदान की कोई सुन-गुन नहीं मिलती है और न ही 1980 के बाद इसके मूल्यांकन की ही कोई खबर मिलती है। मेरे उस पत्र का उत्तर 21 जून, 2016 को केन्द्रीय जल संसाधन विभाग से आया, जिसमें यह स्वीकार किया गया है कि 1980 में देश में बाढ़ प्रवण क्षेत्र 4 करोड़ हेक्टेयर था, जो अब बढ़ कर 4.982 करोड़ हेक्टेयर हो गया है। यह बात तो हम सभी अब जानते ही हैं।
  
मंत्रालय के पत्र में कहा गया है कि जल संसाधन मंत्रालय द्वारा बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम के लिए एक विशेष रूप पर 8,000 करोड़ रुपयों की एक अतिरिक्त राशि प्रदान की गयी है तथा बारहवीं पंच वर्षीय योजना में 10,000 करोड़ रुपयों की दूसरी योजना, जिसमें नदी प्रबंधन, कटाव निरोधक कार्य, जल निकासी, फ्लड प्रूफिंग, समुद्र द्वारा कटान आदि के लिए आवंटित किये गए हैं। इसके अलावा भी 3,566 करोड़ रुपये राज्य सरकारों को अपनी 420 योजनाओं के लिए निर्गत किये गये हैं और 868.01 करोड़ रुपये ब्रह्मपुत्र और उसके सहायक धाराओं पर काम के लिए निर्धारित किये गए हैं।
  
पत्र आगे लिखता है कि “इसके अलावा बाढ़ प्रवण क्षेत्रों के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए एक विशेषज्ञ समिति का भी गठन किया गया है, जिसकी तीसरी मीटिंग 25 सितम्बर 2015 को दिल्ली में हुई थी। आप के राष्ट्रीय स्तर पर एक नए बाढ़/जल निकासी आयोग का गठन का सुझाव ताकि बाढ़ और जल निकासी की समस्या में सुधार लाया जा सके विचारणीय और करने लायक है।”

इसके बाद क्या हुआ इसकी कोई खबर मुझे नहीं दी गयी। हम सभी सरकार पर यह दबाव बना सकते हैं कि वह बाढ़ की समस्या का बदले हुए परिप्रेक्ष्य में एक बार फिर अध्ययन करे और हर साल होने वाली क्षति को कम करने की दिशा में प्रयास करे और नयी सिफारशों के आधार पर आगे की योजना बनाये।
  
मेरा मानना है कि केवल बाढ़ नियंत्रण पर ही काम करना पर्याप्त नहीं है। इससे पानी की निकासी में बाधा पड़ती है। इस बाधा को दूर करने के लिए जल-निकासी का काम साथ- साथ लेने की आवश्यकता है, पर यह पूरा मसला बयानबाजी से आगे नहीं बढ़ता है।
  

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