स्वच्छ वायु में श्वास लेना सभी का अधिकार है, लेकिन वायु प्रदूषण की रोकथाम
के लिए सकारात्मक उपाय करना भी सभी के लिए उतना ही जरूरी और प्राथमिक जिम्मेदारी
है. आज देश को प्रदूषण रहित बनाने में किसान, पर्यावरणविद, नदी-संरक्षक, समाज सेवक
आदि आगे बढ़कर पहल कर रहे हैं और प्रदूषण के मानकों पर केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण
बोर्ड की पैनी नजर भी रहती है.
वायु की गुणवत्ता की रिपोर्ट केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने हाल ही में
जारी की, जिसके मुताबिक देश के 12 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से 10 शहर उत्तर
प्रदेश राज्य के हैं और उनमें भी ज्यादातर मेरठ के आस-पास के इलाकों में आते हैं.
पराली जलाने से बहुत सी हानिकारक गैसें निकलती हैं, जो वातावरण में फैल कर वायुप्रदूषण
का बड़ा कारण बनती है.
साथ ही यह खेतों की मिट्टी को भी खराब करती है. निरंतर पराली जलाने से मिट्टी की भौतिक, रासायनिक और
जैविक संरचना में परिवर्तन आने लगता है और मृदा से कार्बनिक पदार्थों की मात्रा कम
होकर उसके पोषक तत्वों का विनाश होता है. पराली या पुआल जलाने से कई बार खेतों से सटे
जंगल में लगी आग की खबरें भी चिन्ता का विषय बनती हैं.
विशेषज्ञों के अनुसार धान के पुआल और ठूंठ ज्यादातर हरियाणा, पंजाब एवं
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जलाए जाते हैं, जिसके कारण वायु प्रदूषण की मात्रा में
बढ़ोत्तरी होती है. धान के पुआल और ठूंठ के निस्तारण का कोई और मार्ग नहीं होने के
कारण किसानों इसे नहीं जलाने से मना कर दिया. इसके जलने से आसमान में धुएं की मोटी
परत जम जाती है, जो मानव स्वास्थ के लिए हानिकारक होती है. जिससे निजात पाने के
लिए किसानों ने पर्यावरणविदों से बात कर उनकी सलाह मांगी, जिसके फलस्वरूप लगभग 50
गांवों के 250 किसानों ने मेरठ में फसल को बाद बचे अवशेषों को जलाना बंद कर दिया.
पराली के निस्तारण के लिए उन्होंने प्राकृतिक तरीका अपनाया, जिससे अंतर्गत गन्ने
के पत्ते और पुआल से जैविक खाद बनाना शुरु किया. इस सराहनीय कार्य से किसानों ने
वायुमंडल में कार्बन की मात्रा को कम करने का एक प्रशंसनीय कदम आगे बढ़ाया.
नीर फाउंडेशन के निदेशक एवं पर्यावरणविद रमन त्यागी एवं ललित कुमार की सहायता
से किसानों में जागरूकता अभियान संभव हो पाया है. उन्होंने फसल के अतिरिक्त बचे
अवशिष्ट के निस्तारण हेतु खाद बनाए जाने के प्राकृतिक तरीके के बारे में किसानों
को अवगत कराया. इस विधि को उन्होंने “आरएल” (रमन जी एवं ललित जी के
नामों का प्रथम अक्षरों पर) नाम दिया. उनके बताए तरीके से पराली की जैविक खाद को
तरल और ठोस दोनों प्रकार से प्राप्त कर बेहतर फसल के लिए प्रयोग किया जा रहा है.
नीर फाउंडेशन के प्रमुख रमन त्यागी के अनुसार,
“यह तरीका वायुमंडल को हानि पहुंचाने वाली कार्बन डाईआक्साइड गैस से पर्यावरण को मुक्त करने का बेहतर उपाय
है. इस प्रोजेक्ट का मुख्य उद्देश्य फसलों से बचे अवशिष्ट का प्रयोग खेती के लिहाज
से बेहतर खाद बनाने के लिए करना है. वर्तमान में मेरठ के आस पास के 50 गांव के लगभग
250 किसान इस तकनीक के जरिए न केवल बेहतर प्राकृतिक खाद बना रहे हैं, बल्कि
प्रकृति के रखरखाव की दिशा में भी अपना दायित्त्व निभा रहे हैं.”
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 22 जिलों में ज्यादातर खेती गन्ने एवं धान की होती
है. जिसके कारण खेत में फसल के अतिरिक्त बेकार चीज बचती है, जिसके लिए जलाने के
अलावा और कोई तरीका नहीं बचता, क्योंकि जलाने के बाद ही वे दुबारा फसल बुवाई का
कार्य कर सकते हैं. अवशिष्ट को जलाने से ग्रीन हाउस गैसें उत्पन्न होती हैं, जो
वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण बनती है और वायुमंडल में कार्बन डाईआक्साइड का प्रवाह
करती है.
रमन जी के अनुसार,
“इस जैविक खाद बनाने वाली विधि से पर्यावरण में कोई भी ग्रीन हाउस गैस का
प्रवाह नहीं होता साथ ही जमीन की उर्वरा शक्ति भी कम नहीं होती. इस विधि की सहायता
से किसी भी प्रकार की कैमिकल युक्त खाद का प्रयोग नहीं करना पड़ता. पैसा बचाने के
अतिरिक्त यह विधि जमीन की उर्वरा-शक्ति को बढ़ाने के साथ ही बेहतर फसल के लिए
लाभप्रद होती है.”
मेरठ के किसानों के अनुसार प्राकृतिक रूप से पराली से बनाई गयी खाद के लिए
गड्ढे, किसानों को खेती में लाभ पहुंचा रहे हैं. इससे खेती की जमीन को भी बेहतर
गुणवत्ता प्राप्त हो रही है. प्राकृतिक रूप से बायोमॉस से खाद बनायी जाती है.
साथ ही किसानों ने यह भी स्पष्ट किया कि हालांकि प्राकृतिक रूप से बनाई गयी यह
खाद जमीन की गुणवत्ता और कृषि के लिए बेहद लाभप्रद है, किन्तु एक या दो गड्ढों से व्यापक
स्तर पर खेती किया जाना पूरी तरह संभव नहीं है. यदि सरकार कुछ मदद करे तो इसके और
बेहतर प्रयास हो सकते हैं.
परोक्ष रूप से यह विधि प्रकृतिक संसाधन एवं प्रकृति को लाभ पहुंचाने का कार्य करती
है. इस विधि से भूमिगत जल का भी दोहन खेती के लिहाज से कम होता है साथ ही भूमिगत
जल भी कैमिकल से मुक्त रहता है. पराली न जलाने से पर्यावरण को बेहतरी की ओर अग्रसर
किया जा सकता है. आज पर्यावरणविदों द्वारा निरंतर वातावरण को संरक्षित करने एवं
किसानों के लाभ की नीतियों पर कार्य किया जा रहा है, परन्तु इन योजनाओं के लिए
प्रशासन को भी सहायता करनी होगी, जिससे कृषि के अंतर्गत पराली जलाने जैसी बड़ी
समस्या का निराकरण उचित प्रकार से हो सके.
By
Raman Kant Contributors
Tanu chaturvedi
Deepika Chaudhary 47
स्वच्छ वायु में श्वास लेना सभी का अधिकार है, लेकिन वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए सकारात्मक उपाय करना भी सभी के लिए उतना ही जरूरी और प्राथमिक जिम्मेदारी है. आज देश को प्रदूषण रहित बनाने में किसान, पर्यावरणविद, नदी-संरक्षक, समाज सेवक आदि आगे बढ़कर पहल कर रहे हैं और प्रदूषण के मानकों पर केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की पैनी नजर भी रहती है.
वायु की गुणवत्ता की रिपोर्ट केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने हाल ही में जारी की, जिसके मुताबिक देश के 12 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से 10 शहर उत्तर प्रदेश राज्य के हैं और उनमें भी ज्यादातर मेरठ के आस-पास के इलाकों में आते हैं. पराली जलाने से बहुत सी हानिकारक गैसें निकलती हैं, जो वातावरण में फैल कर वायुप्रदूषण का बड़ा कारण बनती है.
साथ ही यह खेतों की मिट्टी को भी खराब करती है. निरंतर पराली जलाने से मिट्टी की भौतिक, रासायनिक और जैविक संरचना में परिवर्तन आने लगता है और मृदा से कार्बनिक पदार्थों की मात्रा कम होकर उसके पोषक तत्वों का विनाश होता है. पराली या पुआल जलाने से कई बार खेतों से सटे जंगल में लगी आग की खबरें भी चिन्ता का विषय बनती हैं.
विशेषज्ञों के अनुसार धान के पुआल और ठूंठ ज्यादातर हरियाणा, पंजाब एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जलाए जाते हैं, जिसके कारण वायु प्रदूषण की मात्रा में बढ़ोत्तरी होती है. धान के पुआल और ठूंठ के निस्तारण का कोई और मार्ग नहीं होने के कारण किसानों इसे नहीं जलाने से मना कर दिया. इसके जलने से आसमान में धुएं की मोटी परत जम जाती है, जो मानव स्वास्थ के लिए हानिकारक होती है. जिससे निजात पाने के लिए किसानों ने पर्यावरणविदों से बात कर उनकी सलाह मांगी, जिसके फलस्वरूप लगभग 50 गांवों के 250 किसानों ने मेरठ में फसल को बाद बचे अवशेषों को जलाना बंद कर दिया. पराली के निस्तारण के लिए उन्होंने प्राकृतिक तरीका अपनाया, जिससे अंतर्गत गन्ने के पत्ते और पुआल से जैविक खाद बनाना शुरु किया. इस सराहनीय कार्य से किसानों ने वायुमंडल में कार्बन की मात्रा को कम करने का एक प्रशंसनीय कदम आगे बढ़ाया.
नीर फाउंडेशन के निदेशक एवं पर्यावरणविद रमन त्यागी एवं ललित कुमार की सहायता से किसानों में जागरूकता अभियान संभव हो पाया है. उन्होंने फसल के अतिरिक्त बचे अवशिष्ट के निस्तारण हेतु खाद बनाए जाने के प्राकृतिक तरीके के बारे में किसानों को अवगत कराया. इस विधि को उन्होंने “आरएल” (रमन जी एवं ललित जी के नामों का प्रथम अक्षरों पर) नाम दिया. उनके बताए तरीके से पराली की जैविक खाद को तरल और ठोस दोनों प्रकार से प्राप्त कर बेहतर फसल के लिए प्रयोग किया जा रहा है.
नीर फाउंडेशन के प्रमुख रमन त्यागी के अनुसार,
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 22 जिलों में ज्यादातर खेती गन्ने एवं धान की होती है. जिसके कारण खेत में फसल के अतिरिक्त बेकार चीज बचती है, जिसके लिए जलाने के अलावा और कोई तरीका नहीं बचता, क्योंकि जलाने के बाद ही वे दुबारा फसल बुवाई का कार्य कर सकते हैं. अवशिष्ट को जलाने से ग्रीन हाउस गैसें उत्पन्न होती हैं, जो वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण बनती है और वायुमंडल में कार्बन डाईआक्साइड का प्रवाह करती है.
रमन जी के अनुसार,
मेरठ के किसानों के अनुसार प्राकृतिक रूप से पराली से बनाई गयी खाद के लिए गड्ढे, किसानों को खेती में लाभ पहुंचा रहे हैं. इससे खेती की जमीन को भी बेहतर गुणवत्ता प्राप्त हो रही है. प्राकृतिक रूप से बायोमॉस से खाद बनायी जाती है.
साथ ही किसानों ने यह भी स्पष्ट किया कि हालांकि प्राकृतिक रूप से बनाई गयी यह खाद जमीन की गुणवत्ता और कृषि के लिए बेहद लाभप्रद है, किन्तु एक या दो गड्ढों से व्यापक स्तर पर खेती किया जाना पूरी तरह संभव नहीं है. यदि सरकार कुछ मदद करे तो इसके और बेहतर प्रयास हो सकते हैं.
परोक्ष रूप से यह विधि प्रकृतिक संसाधन एवं प्रकृति को लाभ पहुंचाने का कार्य करती है. इस विधि से भूमिगत जल का भी दोहन खेती के लिहाज से कम होता है साथ ही भूमिगत जल भी कैमिकल से मुक्त रहता है. पराली न जलाने से पर्यावरण को बेहतरी की ओर अग्रसर किया जा सकता है. आज पर्यावरणविदों द्वारा निरंतर वातावरण को संरक्षित करने एवं किसानों के लाभ की नीतियों पर कार्य किया जा रहा है, परन्तु इन योजनाओं के लिए प्रशासन को भी सहायता करनी होगी, जिससे कृषि के अंतर्गत पराली जलाने जैसी बड़ी समस्या का निराकरण उचित प्रकार से हो सके.