टेक्नोलॉजी से हमें ऐसे समाधान मिल रहे हैं जिनके बारे में आज से कुछ साल पहले कल्पना भी नहीं कर सकते थे. आज “इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स” का युग है. (पीएम नरेन्द्र मोदी)
भारतीय पीएम ने डिजिटल इंडिया का दम भरते हुए तकनीकी क्षेत्र में भारत को अपना वर्चस्व बढ़ाने की एक ख़ास मुहिम जुलाई, 2015 से शुरू की थी. देश के जन जन को इंटरनेट सेवाओं से जोड़ कर एक ई-भारत की संकल्पना को यथार्थवादी बनाना इस परियोजना के मूल में छिपा बीजमंत्र है. परन्तु जिस प्रकार क्षेत्रीय, राष्ट्रीय या सांप्रदायिक मुद्दों के देश के किसी भी भू-भाग में भड़क जाने पर सरकार द्वारा तुरंत इंटरनेट सेवाओं पर रोक लगा दी जाती है, वह कहीं न कहीं डिजिटल भारत की मुहिम पर ग्रहण के समान प्रतीत होता है. इसे प्रशासन की बौखलाहट कहें, सरकारी लापरवाहियों के जनता के सामने वायरल हो जाने का अनदेखा खौंफ कहें या फिर हिंसा, उपद्रवों, दंगों आदि की परिस्थिति में भारतीय शासन तंत्र की नियंत्रण नीति की विफलता कहें कि विगत वर्ष मई 2017 से लेकर इस वर्ष अप्रैल 2018 तक सरकार द्वारा देश के अलग अलग प्रान्तों में 82 बार इंटरनेट सेवाओं को स्थगित किया जा चुका है. गौरतलब तथ्य यह है कि यह आंकड़ा इससे अधिक भी हो सकता है. इसी वर्ष कठुआ विद्रोह, भारत बंद, आरक्षण मांग, जिन्ना विवाद, जल विवाद आदि जैसे मुद्दों को लेकर कश्मीर घाटी, बिहार, राजस्थान, पंजाब, अलीगढ, महाराष्ट्र आदि के कुछ हिस्सों में इंटरनेट सेवाएं बाधित रहीं. यूनेस्को की एक रिपोर्ट की माने तो भारत में इंटरनेट पर रोक वर्ष 2017-18 के मध्य सर्वाधिक रही.

भारत में इंटरनेट का सतत बढ़ता महत्त्व :
15 अगस्त 1995 को विदेश संचार निगम की टेलीफोन लाइन सूचनाओं के द्वारा देश में इंटरनेट सेवाओं का श्री गणेश हुआ था. वर्ष 1998 सोशल मीडिया क्रांति की दृष्टि से एक विकसित क्रम साबित हुआ, जब सरकार द्वारा निजी कंपनियों को भी इंटरनेट सेवा क्षेत्र में कार्य करने की अनुमति प्रदान की गई. केवल 22 वर्षों के समय अंतराल में भारत लगभग 481 मिलियन इंटरनेट यूजर्स के साथ सोशल मीडिया के क्षेत्र में लगातार वर्चस्व बढाता दिख रहा है, 2016 से 2017 के बीच यूजर्स की संख्या में 11.34% की वृद्धि दर दर्ज की गयी है. वर्तमान में इंटरनेट के अधिकतर उपागमों से भारतीय जनता जुडी हुई है और वर्ष दर वर्ष इस संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि भी हो रही है. आज समय भी लाइन में खड़े रहने का नहीं बल्कि ऑनलाइन रहने का है, ऐसे में इंटरनेट किसी भी व्यक्ति के लिए हवा-पानी की तरह जरुरी हो गया है.

इंटरनेट शटडाउन : जनता के मौलिक अधिकारों व अर्थव्यवस्था विकास का हनन
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेच ने इंटरनेट सुविधाओं को अभिव्यक्ति की आज़ादी के तौर पर मान्यता प्रदान की है, साथ ही केरल वह पहला राज्य है जहां इंटरनेट को नागरिकों का मौलिक अधिकार माना गया है. भारत दुनिया का विशालतम लोकतंत्र माना जाता है, ऐसे में यह प्रश्नचिंह खड़ा होना लजिमी है कि प्रजा के माध्यम से चलने वाले तंत्र में आप प्रजा के मौलिक अधिकारों का हनन किस प्रकार कर सकते हैं? इंटरनेट बंद कर देने से केवल अभिव्यक्ति की आज़ादी पर ही नहीं, बल्कि सरकारी और गैर-सरकारी व्यवसाय भी अतिशय प्रभावित होता है. 2017, गुजरात के पटेल आन्दोलन के दौरान नेट सेवा पर रोक से तकरीबन 7000 करोड़ का नुकसान देश को उठाना पड़ा. एक आंकलन के अनुसार 2012-17 तक हुए इंटरनेट शटडाउन का खामियाजा भारतीय अर्थव्यवस्था ने 3 बिलियन डॉलर का नुकसान झेल कर उठाया है. राजनीतिक संघर्ष के चलते पश्चिम बंगाल में 45 दिन तक इंटरनेट बंद होना, सांप्रदायिक तनाव की जद में 40 दिन बिहार के नवादा में नेट पर लगी रोक तथा सैन्य कारणों से जम्मू -कश्मीर में 31 दिन तक इंटरनेट पर पाबंदी दर्शाती है कि भारत में सरकार आर्थिक नुकसान से अधिक ध्यान अपनी छवि को सुधारने में लगा देती है, जिसका खामियाजा प्रत्येक व्यक्ति को भुगतना पड़ता है. तात्पर्य आईने के माफिक साफ़ है कि इंटरनेट को ब्लॉक करना वर्तमान में सूचना-संचार के अभाव में व्यक्ति को गूंगा,बहरा बना देने जैसा है, जो किसी क्रूरता से कम नहीं है.

क्या इंटरनेट स्थगित करना ही वास्तव में एकमात्र विकल्प है?
अप्रैल में दलित आन्दोलन के चलते पंजाब, हरियाणा, जयपुर,बिहार, शामली, हापुड़, मुरैना इत्यादि में नेट सेवाओं को बंद रखा गया. मई में जिन्ना फोटो प्रकरण मामले में अलीगढ में लगभग दो दिन तक और महाराष्ट्र के औरंगाबाद में पानी को लेकर हुए हिंसक उपद्रवों के चलते इंटरनेट सर्विस ब्लॉक रखी गयी. इसके अतिरिक्त कश्मीर घाटी और पूर्वोत्तर राज्यों मसलन; मणिपुर, इम्फाल आदि में तो सरकार के लिए नेटबंदी मामूली सी बात है. देश का दक्षिणी हिस्सा भी इस स्थिति से अछुता नहीं है, हाल ही में तूतीकोरन में स्ट्रलाइट कॉपर संयंत्र के खिलाफ हुए दंगों के चलते चेन्नई सरकार द्वारा तिरुनेलवेली और कन्याकुमारी में 5 दिन के लिए इंटरनेट सेवाओं पर रोक लगा दी गयी है. इन सभी परिस्थितियों पर विचार करें तो मन में कुछ सवाल अवश्य उठेंगे जैसे:-
1. क्या इंटरनेट सुविधाओ से पहले इस प्रकार के हिंसक उपद्रव नहीं फैला करते थे? इतिहास गवाह है कि देश में वर्ष 1986 तक भी हिन्दू- मुस्लिम दंगे फैलते रहे है, उस समय देश में इंटरनेट करनी भी नहीं थी, फिर भी उन धार्मिक दंगो से फैली हिंसा की गूंज दूर तक सुनाई पडती थी. 1857 की क्रांति के समय तो इंटरनेट का नामोनिशान तक नहीं था, फिर भी भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी क्रांति के रूप में इसे ख्याति प्राप्त है.
2. इंटरनेट पर रोक के बावजूद भी सरकार अफवाहों का खंडन कर पाने में असमर्थ क्यों है? उदहारण के लिए हाल ही में श्रीनगर में अफवाह फैली कि सुरक्षा बलों के हाथों घायल लड़की मर चुकी है, जबकि उक्त समय इंटरनेट सेवाएं बर्खास्त थी, इसके पश्चात सुरक्षा बल पर पथराव की कईं वारदातें सामने आई.
3. सरकार कोई पैरेलल विश्वसनीय सूचना सुविधा क्यों मुहैया नहीं करा पाती? चलिए मान लेते हैं कि हिंसक वारदातें इंटरनेट के उपयोग से बढती हैं, अफवाहें सोशल साइट्स के जरिये अधिकता से फैलती हैं. पिछले 8-10 सालों से इस प्रकार के हालातों के मद्देनजर सरकार को एक विश्वसनीय सरकारी सूचना व्यवस्था अबतक बना लेनी चाहिए थी, जो अफवाहों का खंडन उचित तरीके से करे.
4. चुनावों के दौरान विचार परिवर्तन के ऑनलाइन खतरे के चलते नेट बंदी क्यों नहीं की जाती? 2016 के अमेरिकी चुनावों में फेसबुक की भूमिका का सच किसी से छुपा नहीं है, किसी भी देश की लोकतांत्रिकता पर सबसे बड़ा खतरा आज सोशल मीडिया की चुनावी दखलंदाजी से मत परिवर्तन का ही है.
5. विदेशों से उदाहरण लेने में पीछे क्यों हटती है भारत सरकार? वर्ष 2016 में फ्रांस में आतंकी हमलों के दौरान फ्रेंच सरकार ने इंटरनेट सेवा बंद करने के स्थान पर एक अलर्ट एप्लीकेशन विकसित की, जो पुलिस को खतरनाक इलाकों की जानकारी दे सके. परन्तु भारतीय सरकार अफवाहों के मध्य राजनैतिक मुद्दों को ही हवा देती रहती है.
इस प्रकार के सवालों से देश का हर एक वह नागरिक आज जूझ रहा है, जो इंटरनेट सेवा बंद हो जाने से हॉस्पिटल बिल का इन्तजाम नहीं करा पाता, जिसका भविष्य समय पर दाखिला ना लेने से अधर में लटक जाता है, जो ऑनलाइन टिकेट बुक नहीं होने से अपने घर वापस नहीं लौट पाता. इस पर भी दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सरकार के पास इन अतार्किक और असंवैधानिक निर्णयों का कोई प्रत्यक्ष उत्तर नहीं है. संचार रूपी पर कुतर देना शायद सरकार के लिए बेहद आसान और सस्ता विकल्प बनकर रह गया है अपनी असफल नीतियों को छिपाने का. इससे देश की डिजिटल इंडिया वाली छवि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किस प्रकार चमकेगी, यह केवल नागरिकों के लिए ही नहीं बल्कि हुक्मरानों के लिए भी मनन योग्य विषय है.
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Deepika Chaudhary Contributors
Tanu chaturvedi
Deepika Chaudhary 123
भारतीय पीएम ने डिजिटल इंडिया का दम भरते हुए तकनीकी क्षेत्र में भारत को अपना वर्चस्व बढ़ाने की एक ख़ास मुहिम जुलाई, 2015 से शुरू की थी. देश के जन जन को इंटरनेट सेवाओं से जोड़ कर एक ई-भारत की संकल्पना को यथार्थवादी बनाना इस परियोजना के मूल में छिपा बीजमंत्र है. परन्तु जिस प्रकार क्षेत्रीय, राष्ट्रीय या सांप्रदायिक मुद्दों के देश के किसी भी भू-भाग में भड़क जाने पर सरकार द्वारा तुरंत इंटरनेट सेवाओं पर रोक लगा दी जाती है, वह कहीं न कहीं डिजिटल भारत की मुहिम पर ग्रहण के समान प्रतीत होता है. इसे प्रशासन की बौखलाहट कहें, सरकारी लापरवाहियों के जनता के सामने वायरल हो जाने का अनदेखा खौंफ कहें या फिर हिंसा, उपद्रवों, दंगों आदि की परिस्थिति में भारतीय शासन तंत्र की नियंत्रण नीति की विफलता कहें कि विगत वर्ष मई 2017 से लेकर इस वर्ष अप्रैल 2018 तक सरकार द्वारा देश के अलग अलग प्रान्तों में 82 बार इंटरनेट सेवाओं को स्थगित किया जा चुका है. गौरतलब तथ्य यह है कि यह आंकड़ा इससे अधिक भी हो सकता है. इसी वर्ष कठुआ विद्रोह, भारत बंद, आरक्षण मांग, जिन्ना विवाद, जल विवाद आदि जैसे मुद्दों को लेकर कश्मीर घाटी, बिहार, राजस्थान, पंजाब, अलीगढ, महाराष्ट्र आदि के कुछ हिस्सों में इंटरनेट सेवाएं बाधित रहीं. यूनेस्को की एक रिपोर्ट की माने तो भारत में इंटरनेट पर रोक वर्ष 2017-18 के मध्य सर्वाधिक रही.
भारत में इंटरनेट का सतत बढ़ता महत्त्व :
15 अगस्त 1995 को विदेश संचार निगम की टेलीफोन लाइन सूचनाओं के द्वारा देश में इंटरनेट सेवाओं का श्री गणेश हुआ था. वर्ष 1998 सोशल मीडिया क्रांति की दृष्टि से एक विकसित क्रम साबित हुआ, जब सरकार द्वारा निजी कंपनियों को भी इंटरनेट सेवा क्षेत्र में कार्य करने की अनुमति प्रदान की गई. केवल 22 वर्षों के समय अंतराल में भारत लगभग 481 मिलियन इंटरनेट यूजर्स के साथ सोशल मीडिया के क्षेत्र में लगातार वर्चस्व बढाता दिख रहा है, 2016 से 2017 के बीच यूजर्स की संख्या में 11.34% की वृद्धि दर दर्ज की गयी है. वर्तमान में इंटरनेट के अधिकतर उपागमों से भारतीय जनता जुडी हुई है और वर्ष दर वर्ष इस संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि भी हो रही है. आज समय भी लाइन में खड़े रहने का नहीं बल्कि ऑनलाइन रहने का है, ऐसे में इंटरनेट किसी भी व्यक्ति के लिए हवा-पानी की तरह जरुरी हो गया है.
इंटरनेट शटडाउन : जनता के मौलिक अधिकारों व अर्थव्यवस्था विकास का हनन
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेच ने इंटरनेट सुविधाओं को अभिव्यक्ति की आज़ादी के तौर पर मान्यता प्रदान की है, साथ ही केरल वह पहला राज्य है जहां इंटरनेट को नागरिकों का मौलिक अधिकार माना गया है. भारत दुनिया का विशालतम लोकतंत्र माना जाता है, ऐसे में यह प्रश्नचिंह खड़ा होना लजिमी है कि प्रजा के माध्यम से चलने वाले तंत्र में आप प्रजा के मौलिक अधिकारों का हनन किस प्रकार कर सकते हैं? इंटरनेट बंद कर देने से केवल अभिव्यक्ति की आज़ादी पर ही नहीं, बल्कि सरकारी और गैर-सरकारी व्यवसाय भी अतिशय प्रभावित होता है. 2017, गुजरात के पटेल आन्दोलन के दौरान नेट सेवा पर रोक से तकरीबन 7000 करोड़ का नुकसान देश को उठाना पड़ा. एक आंकलन के अनुसार 2012-17 तक हुए इंटरनेट शटडाउन का खामियाजा भारतीय अर्थव्यवस्था ने 3 बिलियन डॉलर का नुकसान झेल कर उठाया है. राजनीतिक संघर्ष के चलते पश्चिम बंगाल में 45 दिन तक इंटरनेट बंद होना, सांप्रदायिक तनाव की जद में 40 दिन बिहार के नवादा में नेट पर लगी रोक तथा सैन्य कारणों से जम्मू -कश्मीर में 31 दिन तक इंटरनेट पर पाबंदी दर्शाती है कि भारत में सरकार आर्थिक नुकसान से अधिक ध्यान अपनी छवि को सुधारने में लगा देती है, जिसका खामियाजा प्रत्येक व्यक्ति को भुगतना पड़ता है. तात्पर्य आईने के माफिक साफ़ है कि इंटरनेट को ब्लॉक करना वर्तमान में सूचना-संचार के अभाव में व्यक्ति को गूंगा,बहरा बना देने जैसा है, जो किसी क्रूरता से कम नहीं है.
क्या इंटरनेट स्थगित करना ही वास्तव में एकमात्र विकल्प है?
अप्रैल में दलित आन्दोलन के चलते पंजाब, हरियाणा, जयपुर,बिहार, शामली, हापुड़, मुरैना इत्यादि में नेट सेवाओं को बंद रखा गया. मई में जिन्ना फोटो प्रकरण मामले में अलीगढ में लगभग दो दिन तक और महाराष्ट्र के औरंगाबाद में पानी को लेकर हुए हिंसक उपद्रवों के चलते इंटरनेट सर्विस ब्लॉक रखी गयी. इसके अतिरिक्त कश्मीर घाटी और पूर्वोत्तर राज्यों मसलन; मणिपुर, इम्फाल आदि में तो सरकार के लिए नेटबंदी मामूली सी बात है. देश का दक्षिणी हिस्सा भी इस स्थिति से अछुता नहीं है, हाल ही में तूतीकोरन में स्ट्रलाइट कॉपर संयंत्र के खिलाफ हुए दंगों के चलते चेन्नई सरकार द्वारा तिरुनेलवेली और कन्याकुमारी में 5 दिन के लिए इंटरनेट सेवाओं पर रोक लगा दी गयी है. इन सभी परिस्थितियों पर विचार करें तो मन में कुछ सवाल अवश्य उठेंगे जैसे:-
1. क्या इंटरनेट सुविधाओ से पहले इस प्रकार के हिंसक उपद्रव नहीं फैला करते थे? इतिहास गवाह है कि देश में वर्ष 1986 तक भी हिन्दू- मुस्लिम दंगे फैलते रहे है, उस समय देश में इंटरनेट करनी भी नहीं थी, फिर भी उन धार्मिक दंगो से फैली हिंसा की गूंज दूर तक सुनाई पडती थी. 1857 की क्रांति के समय तो इंटरनेट का नामोनिशान तक नहीं था, फिर भी भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी क्रांति के रूप में इसे ख्याति प्राप्त है.
2. इंटरनेट पर रोक के बावजूद भी सरकार अफवाहों का खंडन कर पाने में असमर्थ क्यों है? उदहारण के लिए हाल ही में श्रीनगर में अफवाह फैली कि सुरक्षा बलों के हाथों घायल लड़की मर चुकी है, जबकि उक्त समय इंटरनेट सेवाएं बर्खास्त थी, इसके पश्चात सुरक्षा बल पर पथराव की कईं वारदातें सामने आई.
3. सरकार कोई पैरेलल विश्वसनीय सूचना सुविधा क्यों मुहैया नहीं करा पाती? चलिए मान लेते हैं कि हिंसक वारदातें इंटरनेट के उपयोग से बढती हैं, अफवाहें सोशल साइट्स के जरिये अधिकता से फैलती हैं. पिछले 8-10 सालों से इस प्रकार के हालातों के मद्देनजर सरकार को एक विश्वसनीय सरकारी सूचना व्यवस्था अबतक बना लेनी चाहिए थी, जो अफवाहों का खंडन उचित तरीके से करे.
4. चुनावों के दौरान विचार परिवर्तन के ऑनलाइन खतरे के चलते नेट बंदी क्यों नहीं की जाती? 2016 के अमेरिकी चुनावों में फेसबुक की भूमिका का सच किसी से छुपा नहीं है, किसी भी देश की लोकतांत्रिकता पर सबसे बड़ा खतरा आज सोशल मीडिया की चुनावी दखलंदाजी से मत परिवर्तन का ही है.
5. विदेशों से उदाहरण लेने में पीछे क्यों हटती है भारत सरकार? वर्ष 2016 में फ्रांस में आतंकी हमलों के दौरान फ्रेंच सरकार ने इंटरनेट सेवा बंद करने के स्थान पर एक अलर्ट एप्लीकेशन विकसित की, जो पुलिस को खतरनाक इलाकों की जानकारी दे सके. परन्तु भारतीय सरकार अफवाहों के मध्य राजनैतिक मुद्दों को ही हवा देती रहती है.
इस प्रकार के सवालों से देश का हर एक वह नागरिक आज जूझ रहा है, जो इंटरनेट सेवा बंद हो जाने से हॉस्पिटल बिल का इन्तजाम नहीं करा पाता, जिसका भविष्य समय पर दाखिला ना लेने से अधर में लटक जाता है, जो ऑनलाइन टिकेट बुक नहीं होने से अपने घर वापस नहीं लौट पाता. इस पर भी दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सरकार के पास इन अतार्किक और असंवैधानिक निर्णयों का कोई प्रत्यक्ष उत्तर नहीं है. संचार रूपी पर कुतर देना शायद सरकार के लिए बेहद आसान और सस्ता विकल्प बनकर रह गया है अपनी असफल नीतियों को छिपाने का. इससे देश की डिजिटल इंडिया वाली छवि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किस प्रकार चमकेगी, यह केवल नागरिकों के लिए ही नहीं बल्कि हुक्मरानों के लिए भी मनन योग्य विषय है.