भारतीय संस्कृति की साक्षी गंगा अपने मूल्यवान पारिस्थितिक और आर्थिक महत्व के साथ भारत की सबसे पवित्र नदियों में से एक है. 2,525 किलोमीटर लम्बी यह नदी उत्तराखंड में पश्चिमी हिमालय से बहती है और उत्तर भारत के गंगा के मैदान से दक्षिण और पूर्व में प्रवाहित होती है. वर्तमान में प्राकृतिक संसाधनों के प्रति बढ़ती शोषण की प्रवृति, बढ़ती जनसंख्या के दबाव और जलवायु परिवर्तन के कारण गंगा धीरे धीरे अपनी प्राचीनता खो रही है.
भारत में अधिकांश आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है और उनकी आजीविका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नदी जल संसाधन पर निर्भर करती है. गंगा अपने मैदानी इलाकों में प्रमुखत: शहर कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, कोलकाता आदि शहरों में प्इरवाहित होती है. इन शहरों के नगरपालिका का सीवेज, जिनमें कैमिकलयुक्त पानी और माइक्रोबियल संदूषण या तो सीधे गंगा में जाता है अथवा यमुना, गोमती, घाघरा, रामगंगा, सरयू आदि सहायक नदियों के माध्यम से गंगा में जाता है और इसके चलते व्यापक स्तर पर मानवीय जीवन के साथ साथ जल जीवन भी संकट में है.
आज यदि गंगा प्रदूषण को दूर करना है, तो तकनीकी तौर पर हमें गंगा से जुडी समस्याओं को समझना होगा. अध्ययन करते हुए हमें जानना होगा कि गंगा किस प्रकार प्रदूषित हो रही है. गंगा से जुडी ऐसी ही कुछ समस्याओं की चर्चा यहां की गयी है, जिन्हें समझकर ही हम गंगा को प्रदूषण मुक्त कर सकते हैं.
1. तीन-ढाल के सिद्धान्त को नहीं समझना
सभ्यता और सांस्कृतिक जागृतियाँ बड़ी नदी के वर्ष-भर के जल की सान्निद्ध और उपजाऊ भूमि में, उच्चस्तरीय नदोत्तर किनारे के स्थान से आरंभ होती है. यह निचले स्तर पर अवस्थित और घिसते रहने वाली नदी के उन्नादोत्तर बालू-क्षेत्र के जल-स्तर की बाढ़़-समस्या और अनुपजाऊ भूमि के कारण नहीं हुई होगी. अत: नदी का नदोत्तर किनारा ही सभ्यता की उत्पत्ति का मूल्यवान स्थान है. यही है..
(1) नदी के नदोत्तर और उन्र्दोत्तर किनारे के स्तर का अन्तर; [the difference in level , the hydraulic gradient (mm)]
(2) मिट्टी और बालू में अन्तर; [difference in co-efficient of permeability (mm/sec), the velocity]
(3) दोनों किनारों के जल की गहराई का अन्तर; नदोत्तर के किनारे, शहर के तरफ नदी की गहराई ज्यादा, वेग न्यून होता है. उस पार, उन्नदोत्तर किनारे पर, गहराई कम और वेग ज्यादा को परिभाषित करता है.
यही है, “तीन-ढ़ाल”, “तीन-प्राकृतिक शक्तियाँ”, “प्रदूषण-नियंत्रण-व्यवस्था के तीन-सिद्धान्त”. यही है, हाइड्रौलिक ग्रेडियेन्ट द्वारा बिना बाहरी शक्ति का, प्रदूषक को बालू-क्षेत्र में ले जाया जाना और बालू की अवशोषण शक्ति से उसे शुद्ध करना. उसके उपरान्त उसे, एकान्त-स्थान के उच्च वेग में विसर्जित कर देना, नदीके जल-सामर्थ्य को बढ़ा देना. यही है गंगा-प्रदूषण व्यवस्था के तीन-सिद्धान्त, जिसके सहारे न्यूनतम् खर्च से स्थायी रूप से सदा रहने वाली प्रदूषण-नियंत्रण व्यवस्था की जा सकती है.
2. STP का बालूक्षेत्र में नहीं होना
STP का बालू-क्षेत्र में नहीं होना गंगा नदी की प्रमुख समस्याओं में से एक है..
(1) संसार में सभ्यता-संस्कृति की उत्पत्ति का कारण, बड़ी-नदी किनारे के समस्त पुराने बड़े शहरों का नदी के नदोत्तर किनारे पर जल के नजदीक उपजाऊ मिट्टी पर अवस्थित होना ही हैं.
(2).(i) नदी का ऊँचा नदोत्तर किनारा (ii) उपजाऊ-उपयोगी मिट्टी, जल-अवशोशन की शक्ति (cm/sec) (iii) नजदीक में जल, गहराई में वेग (cm/sec) न्यून : इन्हीं तीन शक्तियों पर प्रतिष्ठित सभ्यता और संस्कृति को नहीं समझना ही विभिन्न प्रकार के प्रदूषण का कारण है.
(3) बड़े नदी के नदोत्तर किनारे पर अवस्थित शहर, यथा वाराणसी के ऊपर, नीचे और सामने के उन्नदोत्तर किनारे का बालूक्षेत्र 8-12 मी. के अन्तर पर तीनों हैं. इनके उपयोग से अवजल को, जल-ढ़ाल, हाइड्रौलिक-ग्रेडियेन्ट के तहत शहर से बालू-क्षेत्र में ग्रेविटी-फोर्स से निस्तारित किया जा सकता है.
(4) बालू-क्षेत्र के समुचित, संतुलित स्थान पर, उसके ढ़ाल ओर ग्रेड-साइज-डिस्ट्रीब्यूशन के आधार पर STP के स्थान का चयन करने की आवश्यकता होगी.
(5) STP से बालूक्षेत्र में चैनल और आउटफॉल-साइट आदि के डिजाइन की आवश्यकता होगी. इसकी उपलब्धियां, शहर की विभिन्न समस्याओं का निदान, इसमें खर्च की न्यूनता, कार्य करने की सरलता, इसका स्थायित्व आदि के विषय में आगें जानिये.
3. नदी की गूढ़ रिसर्च उपलब्धियों को तिरस्कृत करना
हिमालय के लगभग एक ही क्षेत्र से 60-85 कि. मी. के अन्तराल से प्रस्फुटित होने वाली गंगा-यमुना-सोन आदि नदियाँ, उद्गम के समय विभिन्न ऊँचाइयों से, जल के रंग से, नदी की बरक़रार मोरफोलॉजी से, बालू-मृदा आदि के विभिन्न चारित्रिक गुणों से, हाईड्रोलिक-ग्रेडिएंट से, फ्लड-प्लेन और बेसिन के चारित्रिक गुणों से अलग-अलग रहते हुए निर्धारित जगहों पर, शक्ति संतुलन के सिद्धांत के तहत ही संगम करते हैं. नदी के समस्त कार्य समस्या और इसके समाधान “न्यूनतम कार्य सिद्धांत” के तहत ही सम्पादित होते हैं. अतः नदी विज्ञान गूढ़ रिसर्च का विषय है. इस रिसर्च-उपलब्धि पर ध्यान नहीं देना, इसे तिरस्कृत करना गंगा की बहुत बड़ी समस्या है.
“द रिवर सेंड-बेड एण्ड फ्लो एनर्जी फॉर द वेस्ट वाटर-मैनेजमेंट”, वर्ष 2012 का आई.आई.टी. बी.एच.यू का पी.एच.डी थेसीस है. 4 वर्ष से ज्यादा समय का यह कार्य होने से पहले लगभग 35 एम. टेक के छात्र और अन्य दो पी.एच.डी. के छात्र एक ही गाइड, प्रो. यू. के. चौधरी के मार्गदर्शन में रिसर्च कर चुके हैं. सैकड़ों आर्टिकल्स, रिपोर्ट,पेपर्स प्रकाशित हो चुके हैं. 35 वर्षों से भी ज्यादा जिन्हें रिवर इन्जीनियरिंग पढाने का अनुभव है और जो 1974-75 में आई.आई.टी. बम्बई से रिवर ई. विषय में पी.एच.डी की है, वह गंगा व्यवस्था पर विभिन्न सुझाव दे रहे हैं, जिन पर सरकार विचार करना, मंथन करवाना आवश्यक नहीं समझती है. यह देश, गंगा एवम् अन्य नदी-सिस्टम के लिये भयावह समस्या है.
4. गंगा से संबंधित मौलिक आंकड़ों का उपलब्ध नहीं होना
गंगा की एलुवियल मिट्टी के नदोत्तर किनारों पर अवस्थित, वाराणसी के नए और पुराने STP, यहाँ के प्रदूषण की गंभीर समस्या का निदान तभी कर सकते है, यदि इन्हें विभिन्न बालू क्षेत्रों से जोड़ दिया जाये. STP के इम्पैक्ट-एसेस्मेंट को नहीं जानने के कारण गोइठहाँ और रमणा में STP बना है, किन्तु इनमें आउटफॉल साइट की समस्या है. भगवानपुर STP की आउटफॉल साइट, अस्सी घाट की प्रमुख समस्या है. अतः केवल STP ही प्रदूषण-निवारक या प्रदूषण कारक को परिभाषित नहीं करता है. गंगा बोलती है कि "मेरी समस्यायों का निदान कैसे?" यही है गंगा का आँकड़ा, यह मॉडल जैसा ही कार्य करता. यही है "गंगा के पैथोलोजिकल आंकड़ों" का नहीं होना.
गंगा नदी कुछ ना बोलते हुए भी समस्त वेदनाओं को अपने विभिन्न क्रियाकलापों से प्रकट करती रहती हैं. इनका आकलन नहीं कर पाना, नदी की भाषा को नहीं समझना, हमारी अनभिज्ञता है. उदाहरण के लिये, बाढ़ का आना, बाढ-क्षेत्र का विस्तार और फ्लड-प्लेन के दबाब, प्रेशर-ग्रेडिएंट का एकाएक बढ़ना है. गांव के गांव कटने का, मियैन्ड्रींग का कारण अधिकतम गहराई को नदोत्तर किनारे के पास आना और इस किनारे के ढ़ाल का अधिकतम होना है. इसी तरह प्रदूषण का कारण एकाएक आवेग का ह्रास होना, सेपरेशन-जोन का फार्मेशन होना तथा जल के घनत्व का बढ़ना है. इन मौलिक आँकड़ों को निर्धारित विभागों द्वारा उपलब्ध नहीं किया जाना, गंगा की गम्भीर समस्या की ओर इशारा करता है.
5. बिना मॉडल-अध्ययन के बड़े प्रोजेक्ट बनाना
TGP, "दी थ्री गौर्ज प्रोजेक्ट डैम" चीन का, 175 मी. ऊँचा, 18,000 मेगावाट हाइड्रोपावर क्षमता का, मॉडल अध्ययन समय 25 से 30 वर्ष के अध्ययन के बाद बना है. परन्तु हमारे गंगा भीलंगना-संगम पर बना टिहरी बाँध 260.5 मी. ऊँचा, डिज़ाइनड हाइड्रोपावर 1500 मेगावाट और वास्तविक 750 मेगावाट का ही क्यो? इसका कारण है कि यह डेम बिना सही मॉडल के बना है. टिहरी डेम कमेटी के सदस्य प्रो. यू. के. चौधरी ने बार-बार यह पश्न उठाया, परन्तु किसी ने भी कोई जबाब नहीं दिया. नोट ऑफ डिसेंट लिखा, 6 दिन की मीटिंग में 6 बार लेक्चर भी दिया. परन्तु समस्त डॉक्यूमेंटस को छिपा लिया गया और बिना मॉडलिंग अध्ययन के टिहरी डेम निर्मित हो गया. सम्पूर्ण देश और गंगा, जहां समस्याओं को झेल रही है और अभी के गंगा के समस्त कार्य, चाहे STP के इंस्टालेशन का हो, विभिन्न स्थानों पर डेम बनने का कार्य हो या माल वाहक जहाज के चलने का कार्य हो. बिना मॉडल-अध्ययन के किया जा रहा है. यह गंगा की बहुत बड़ी समस्या है.
गंगा के "सेंड बेड एण्ड फ्लो एनर्जी फॉर वेस्टवाटर मैनेजमेंट", पी.एच.डी. थीसिस में वर्षों का समय मॉडलिंग द्वारा अध्ययन करने में लगा है. अतः बिना मॉडलिंग का गंगा पर कोई कार्य नहीं हो सकता है, परन्तु सारे के सारे कार्य बिना मॉडल अध्ययन के किये जा रहे हैं और गंगा अन्वेषण केन्द्र, जो 1985-86 में BHU के 7 प्रोजेक्ट्स में से है, इसी कार्य के लिये बना था, उसमें 2011 से ताला लगा है. अतः गंगा के समस्त कार्यों के लिये मॉडल अध्ययन का होना आवश्यक है. यह नहीं हो रहा है, यही गंगा की जटिल समस्या है.
6. बड़े बाँधों की संख्या में निरंतर होती वृद्धि
नदी में जगह-जगह पर डैम और बैराज से जल-स्तर का ज्यादा अन्तर किया जाना होता है. यह मानव-शरीर में कलेजे के धड़कन को तेज करने जैसा होता है. यदि यह अन्तर डैम से डैम के बीच की दूरी, कम-कम दूरी पर हो तो यह नदी की धड़कन को बढ़ाना है. यही है, पहाड़ के टूटने-धसने की आवृति का तीव्र होना. यह नदी का हार्ट एटैक है, इससे मिट्टी धसती है, लैंड-स्लाइड्स ज्यादा होता है तथा नदी में मृदा-भार ज्यादा होते हैं. यही है बढ़ते बड़े बाँधों की संख्या से गंगा में समस्यायों का बढ़ना. अत: बदलाव के ढ़ाल की बढ़ती बारंबारता से उत्पन्न समस्याओं को निरंतरता से नजरअंदाज करना गंगा की भयावह समस्या है.
डैम बैराज से ऊपर, अप-स्ट्रीम में और इसके नीचे डाउन स्ट्रीम में जल स्तर का अन्तर बड़े डैम में सैकड़ों मी. का होता हैं. यह जमीन के भीतर जल सतह के ढ़ाल को तीव्र करता है. यदि चट्टान सेडीमेन्ट्री/ मेटामॉरफिक रॉक हो, जिसमें सीपेज-रेट, जल प्रवाह क्षमता तीव्र हो तो ये उँचे और उँचे-ढाल के हों तो धसन ज्यादा होती है. इस तरह यदि बड़े-बाँधों की श्रृंखला हो तो जमीन के भीतर लम्बाई की दिशा में जल सतह तरंग के रूप में चलेगी. यह नदी में मृदाभार बढ़ाता जायेगा, यही समस्या गंगा की है. यही कारण है कि विश्व में गंगा का मृदाभार लगभग सबसे ज्यादा है, जो गंगा के पेट का तीव्रता से बढ़ते जाने का कारण है और जगह-जगह पर बाढ़ का आना और कटाव, मियैन्ड्रींग के बढ़ते रहने की समस्या का कारण है. यही है बड़े बाँधों की संख्या में निरंतर होती वृद्धि से गंगा की समस्या का बढ़ते रहना.
7. नए एवं पुराने STP का आउटफॉल साइट डिज़ाइन सुनिश्चित कराने की आवश्यकता
काशी में गंगा घाट पर मनाये जाने वाली देव दीपावली लाखों लोगों की आत्मीय उमंग, श्रद्धा-प्रेम, ध्यान, स्नान इत्यादि से ओत-प्रोत तथा भारत के अद्भुत परम्परागत एवं नैसर्गिकता से परिपूर्ण आत्मशक्ति प्रदायक आनन्ददायक सामाजिक आचरण है. यह अखंड भारत की धार्मिक आधारशिला है. इसका संरक्षण अस्सी घाट पर भगवानपुर STP के बगल में भी नहीं हो पाना और काले, दुर्गंधयुक्त गंगा-जल में लोगों का स्नान करना गंगा की समस्या है.
काशी में गंगा घाट पर मनाये जाने वाली देव दीपावली लाखों लोगों की आत्मीय उमंग, श्रद्धा-प्रेम, ध्यान, स्नान इत्यादि से ओत-प्रोत तथा भारत के अद्भुत परम्परागत एवं नैसर्गिकता से परिपूर्ण आत्मशक्ति प्रदायक आनन्ददायक सामाजिक आचरण है. यह अखंड भारत की धार्मिक आधारशिला है. इसका संरक्षण अस्सी घाट पर भगवानपुर STP के बगल में भी नहीं हो पाना और काले, दुर्गंधयुक्त गंगा-जल में लोगों का स्नान करना गंगा की समस्या है.
समस्त STP गंगा के नदोत्तर किनारे में अवस्थित हैं, जो अवजल का निस्तारण न्यून जल वेग के क्षेत्र में करते हुए जल-वेग को घटाते हुए और विलगाव क्षेत्र का निर्माण करते हुए अवजल के ठोस पदार्थ को जंक्शन पर जमा करते हुए न्यून-वेग से स्नान क्षेत्र में किनारे-किनारे फैलाते हैं. अस्सी घाट से आगे प्रदूषित भू-जल का रिसाव और छोटे-छोटे सतही स्त्रोतों का रिसाव निरंतर होता रहता है. इस समस्या का आधारभूत कारण सीवर-सिस्टम का गलत ढ़ाल का होना है. इसका समाधान आधारभूत होने के कारण होना असम्भव है. अतः नये और पुराने STP का आउटफॉल-साइट का डिजाइन सुनिश्चित करने की तत्काल आवश्यकता है.
8. नदी की आधारभूत व्यवस्था के लिये जियोमोर्फोलोजी का ज्ञान नहीं होना
नदी की वक्रारिता, नदी का साँप जैसे टेढ़ा-मेढ़ा होकर चलना है, जैसे दो मानव के स्वरूप, चाल-चलन, रक्त-गुण आदि एक जैसे नहीं होते, उसी तरह समस्त नदियां एक-दूसरे से अलग-अलग होती हैं और यह जगह और समय से भी बदलता चलता है. अत: नदी मानव शरीर जैसे ही विभिन्न अंगों और उनके विभिन्न जोड़ों से बनी हैं. नदी के इन चारित्रिक मोड़ों को और इनके जोड़ों को समझना ही नदी-शरीर के ज्ञान का होना है. इसी ज्ञान के लिये मेडिकल इंस्टिट्यूट के साथ साथ हॉस्पिटल होता है. नदी के लिये न तो नदी का इंस्टिट्यूट है और न ही इसका निर्धारित मैनेजमेंट ट्रेनिंग सेंटर. अतः नदी की आधारभूत व्यवस्था के लिये जियोमोर्फोलोजी के ज्ञान का नहीं होना, नदी के मात्र चेहरे को नहीं देखना और काम कर देना, डैम बैरेज-इन्फ्रास्ट्रक्चर, पूल, STP, माल-वाहक का पोर्ट बनवा देना गंगा की समस्या है.
किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को उसके मुख से निकला हुआ एक वाक्य परिभाषित करता है. उस वाक्य को बोलते समय उसके चेहरे का भाव, उसके भीतर की भावना को परिलक्षित करता है, यही है रिवर की जियोमोर्फोलोजी यानि नदी के भीतरी और बाहरी चरित्र-गुण का परिचायक. मानव जब बोलता है तब वह अपने भीतर की शक्ति को निकालता है. इससे उसके शरीर की कोशिकाओं का स्वरूप बदलता है, जो उसके चेहरे को बदल डालता है. यही होता है नदियों में, भू-जल और सतही जल के प्रवाह-गुण से, खास कर प्रवाह के सेकेंडरी-सर्कुलेशन से, नदी-क्रॉस सेक्शन बदलते हैं, ढ़ाल-बदलता है, मिट्टी के चरित्र बदलते हैं. यही है, उदाहरण के लिये, गंगा-यमुना की जियोमोर्फोलोजी. अतः कम से कम “गंगा जियोमोर्फोलोजी स्टडी सेन्टर” का होना अत्यावश्यक है.
9. गंगा में अवजल निस्तारण से पूर्व मॉडलिंग न करना
STP से गंगा में निस्तारित अवजल के स्थान से आउटफॉल साइट के प्रदूषण के फैलाव को डायल्यूशन, डिफ्यूजन और डिसपर्सन की मॉडलिंग कर उसे नहीं समझना तथा गंगा जल को काला और दुर्गंधयुक्त होते रहना ही गंगा की समस्या है.
वाराणसी का क्षेत्र गंगा के नदोत्तर किनारे के आरंभ से शुरू होता है. गंगा मोड़ का इस बाहरी किनारे की तरफ गंगा जल की धारा, जल-वेग केंद्र प्रसारी बल के कारण न्यून होने लगता है. यह स्ट्रीमलाइन डायवर्सन जोन होता है और गंगा की अधिकतम गहराई मध्य से नदोत्तर किनारे की दिशा में खिसकने लगती है. इस घटते वेग को शहर से आने वाले नाले STP से निस्तारित किया गया अवजल का आवेग और अधिक न्यून करता है, इस कारण प्रदूषण किनारे-किनारे रेंग कर आगे बढ़ता हैं. यही है, भगवानपुर STP तथा इसके ऊपर के नाले तथा रमणा STP से होने वाले अवजल को गंगा में निस्तारित होने का प्रभाव. ये सारे STP और नाले का अवजल वाराणसी में गंगा के विभिन्न घाटों के बी.ओ.डी भारों को दिसम्बर से जून तक बढ़ाते हैं और डी.ओ को घटाते है. यह गंगा जल को काला तथा दुर्गंधयुक्त करता रहता है.
यही है, अस्सीघाट पर भगवानपुर STP के विशेष कारण से भयावह प्रदूषण का कारण और इसका दशाश्वमेध घाट की ओर फैलते जाना. इन परिस्थितियों का आंकलन डायल्यूशन डिफ्यूजन डिसपर्सन मॉडल से लेबोरेटरी में आसानी से देखा जा सकता है. अत: गंगा में किसी स्त्रोत से अवजल निस्तारण से पहले मॉडलिंग करने की आवश्यकता है, इसका नहीं किया जाना और अपनी इच्छा से अवजल का निस्तारण कर देना गंगा की भयावह समस्या है.
By U.K. Choudhary {{descmodel.currdesc.readstats }}
भारतीय संस्कृति की साक्षी गंगा अपने मूल्यवान पारिस्थितिक और आर्थिक महत्व के साथ भारत की सबसे पवित्र नदियों में से एक है. 2,525 किलोमीटर लम्बी यह नदी उत्तराखंड में पश्चिमी हिमालय से बहती है और उत्तर भारत के गंगा के मैदान से दक्षिण और पूर्व में प्रवाहित होती है. वर्तमान में प्राकृतिक संसाधनों के प्रति बढ़ती शोषण की प्रवृति, बढ़ती जनसंख्या के दबाव और जलवायु परिवर्तन के कारण गंगा धीरे धीरे अपनी प्राचीनता खो रही है.
भारत में अधिकांश आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है और उनकी आजीविका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नदी जल संसाधन पर निर्भर करती है. गंगा अपने मैदानी इलाकों में प्रमुखत: शहर कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, कोलकाता आदि शहरों में प्इरवाहित होती है. इन शहरों के नगरपालिका का सीवेज, जिनमें कैमिकलयुक्त पानी और माइक्रोबियल संदूषण या तो सीधे गंगा में जाता है अथवा यमुना, गोमती, घाघरा, रामगंगा, सरयू आदि सहायक नदियों के माध्यम से गंगा में जाता है और इसके चलते व्यापक स्तर पर मानवीय जीवन के साथ साथ जल जीवन भी संकट में है.
आज यदि गंगा प्रदूषण को दूर करना है, तो तकनीकी तौर पर हमें गंगा से जुडी समस्याओं को समझना होगा. अध्ययन करते हुए हमें जानना होगा कि गंगा किस प्रकार प्रदूषित हो रही है. गंगा से जुडी ऐसी ही कुछ समस्याओं की चर्चा यहां की गयी है, जिन्हें समझकर ही हम गंगा को प्रदूषण मुक्त कर सकते हैं.
1. तीन-ढाल के सिद्धान्त को नहीं समझना
सभ्यता और सांस्कृतिक जागृतियाँ बड़ी नदी के वर्ष-भर के जल की सान्निद्ध और उपजाऊ भूमि में, उच्चस्तरीय नदोत्तर किनारे के स्थान से आरंभ होती है. यह निचले स्तर पर अवस्थित और घिसते रहने वाली नदी के उन्नादोत्तर बालू-क्षेत्र के जल-स्तर की बाढ़़-समस्या और अनुपजाऊ भूमि के कारण नहीं हुई होगी. अत: नदी का नदोत्तर किनारा ही सभ्यता की उत्पत्ति का मूल्यवान स्थान है. यही है..
(1) नदी के नदोत्तर और उन्र्दोत्तर किनारे के स्तर का अन्तर; [the difference in level , the hydraulic gradient (mm)]
(2) मिट्टी और बालू में अन्तर; [difference in co-efficient of permeability (mm/sec), the velocity]
(3) दोनों किनारों के जल की गहराई का अन्तर; नदोत्तर के किनारे, शहर के तरफ नदी की गहराई ज्यादा, वेग न्यून होता है. उस पार, उन्नदोत्तर किनारे पर, गहराई कम और वेग ज्यादा को परिभाषित करता है.
यही है, “तीन-ढ़ाल”, “तीन-प्राकृतिक शक्तियाँ”, “प्रदूषण-नियंत्रण-व्यवस्था के तीन-सिद्धान्त”. यही है, हाइड्रौलिक ग्रेडियेन्ट द्वारा बिना बाहरी शक्ति का, प्रदूषक को बालू-क्षेत्र में ले जाया जाना और बालू की अवशोषण शक्ति से उसे शुद्ध करना. उसके उपरान्त उसे, एकान्त-स्थान के उच्च वेग में विसर्जित कर देना, नदीके जल-सामर्थ्य को बढ़ा देना. यही है गंगा-प्रदूषण व्यवस्था के तीन-सिद्धान्त, जिसके सहारे न्यूनतम् खर्च से स्थायी रूप से सदा रहने वाली प्रदूषण-नियंत्रण व्यवस्था की जा सकती है.
2. STP का बालूक्षेत्र में नहीं होना
STP का बालू-क्षेत्र में नहीं होना गंगा नदी की प्रमुख समस्याओं में से एक है..
(1) संसार में सभ्यता-संस्कृति की उत्पत्ति का कारण, बड़ी-नदी किनारे के समस्त पुराने बड़े शहरों का नदी के नदोत्तर किनारे पर जल के नजदीक उपजाऊ मिट्टी पर अवस्थित होना ही हैं.
(2).(i) नदी का ऊँचा नदोत्तर किनारा (ii) उपजाऊ-उपयोगी मिट्टी, जल-अवशोशन की शक्ति (cm/sec) (iii) नजदीक में जल, गहराई में वेग (cm/sec) न्यून : इन्हीं तीन शक्तियों पर प्रतिष्ठित सभ्यता और संस्कृति को नहीं समझना ही विभिन्न प्रकार के प्रदूषण का कारण है.
(3) बड़े नदी के नदोत्तर किनारे पर अवस्थित शहर, यथा वाराणसी के ऊपर, नीचे और सामने के उन्नदोत्तर किनारे का बालूक्षेत्र 8-12 मी. के अन्तर पर तीनों हैं. इनके उपयोग से अवजल को, जल-ढ़ाल, हाइड्रौलिक-ग्रेडियेन्ट के तहत शहर से बालू-क्षेत्र में ग्रेविटी-फोर्स से निस्तारित किया जा सकता है.
(4) बालू-क्षेत्र के समुचित, संतुलित स्थान पर, उसके ढ़ाल ओर ग्रेड-साइज-डिस्ट्रीब्यूशन के आधार पर STP के स्थान का चयन करने की आवश्यकता होगी.
(5) STP से बालूक्षेत्र में चैनल और आउटफॉल-साइट आदि के डिजाइन की आवश्यकता होगी. इसकी उपलब्धियां, शहर की विभिन्न समस्याओं का निदान, इसमें खर्च की न्यूनता, कार्य करने की सरलता, इसका स्थायित्व आदि के विषय में आगें जानिये.
3. नदी की गूढ़ रिसर्च उपलब्धियों को तिरस्कृत करना
हिमालय के लगभग एक ही क्षेत्र से 60-85 कि. मी. के अन्तराल से प्रस्फुटित होने वाली गंगा-यमुना-सोन आदि नदियाँ, उद्गम के समय विभिन्न ऊँचाइयों से, जल के रंग से, नदी की बरक़रार मोरफोलॉजी से, बालू-मृदा आदि के विभिन्न चारित्रिक गुणों से, हाईड्रोलिक-ग्रेडिएंट से, फ्लड-प्लेन और बेसिन के चारित्रिक गुणों से अलग-अलग रहते हुए निर्धारित जगहों पर, शक्ति संतुलन के सिद्धांत के तहत ही संगम करते हैं. नदी के समस्त कार्य समस्या और इसके समाधान “न्यूनतम कार्य सिद्धांत” के तहत ही सम्पादित होते हैं. अतः नदी विज्ञान गूढ़ रिसर्च का विषय है. इस रिसर्च-उपलब्धि पर ध्यान नहीं देना, इसे तिरस्कृत करना गंगा की बहुत बड़ी समस्या है.
“द रिवर सेंड-बेड एण्ड फ्लो एनर्जी फॉर द वेस्ट वाटर-मैनेजमेंट”, वर्ष 2012 का आई.आई.टी. बी.एच.यू का पी.एच.डी थेसीस है. 4 वर्ष से ज्यादा समय का यह कार्य होने से पहले लगभग 35 एम. टेक के छात्र और अन्य दो पी.एच.डी. के छात्र एक ही गाइड, प्रो. यू. के. चौधरी के मार्गदर्शन में रिसर्च कर चुके हैं. सैकड़ों आर्टिकल्स, रिपोर्ट,पेपर्स प्रकाशित हो चुके हैं. 35 वर्षों से भी ज्यादा जिन्हें रिवर इन्जीनियरिंग पढाने का अनुभव है और जो 1974-75 में आई.आई.टी. बम्बई से रिवर ई. विषय में पी.एच.डी की है, वह गंगा व्यवस्था पर विभिन्न सुझाव दे रहे हैं, जिन पर सरकार विचार करना, मंथन करवाना आवश्यक नहीं समझती है. यह देश, गंगा एवम् अन्य नदी-सिस्टम के लिये भयावह समस्या है.
4. गंगा से संबंधित मौलिक आंकड़ों का उपलब्ध नहीं होना
गंगा की एलुवियल मिट्टी के नदोत्तर किनारों पर अवस्थित, वाराणसी के नए और पुराने STP, यहाँ के प्रदूषण की गंभीर समस्या का निदान तभी कर सकते है, यदि इन्हें विभिन्न बालू क्षेत्रों से जोड़ दिया जाये. STP के इम्पैक्ट-एसेस्मेंट को नहीं जानने के कारण गोइठहाँ और रमणा में STP बना है, किन्तु इनमें आउटफॉल साइट की समस्या है. भगवानपुर STP की आउटफॉल साइट, अस्सी घाट की प्रमुख समस्या है. अतः केवल STP ही प्रदूषण-निवारक या प्रदूषण कारक को परिभाषित नहीं करता है. गंगा बोलती है कि "मेरी समस्यायों का निदान कैसे?" यही है गंगा का आँकड़ा, यह मॉडल जैसा ही कार्य करता. यही है "गंगा के पैथोलोजिकल आंकड़ों" का नहीं होना.
गंगा नदी कुछ ना बोलते हुए भी समस्त वेदनाओं को अपने विभिन्न क्रियाकलापों से प्रकट करती रहती हैं. इनका आकलन नहीं कर पाना, नदी की भाषा को नहीं समझना, हमारी अनभिज्ञता है. उदाहरण के लिये, बाढ़ का आना, बाढ-क्षेत्र का विस्तार और फ्लड-प्लेन के दबाब, प्रेशर-ग्रेडिएंट का एकाएक बढ़ना है. गांव के गांव कटने का, मियैन्ड्रींग का कारण अधिकतम गहराई को नदोत्तर किनारे के पास आना और इस किनारे के ढ़ाल का अधिकतम होना है. इसी तरह प्रदूषण का कारण एकाएक आवेग का ह्रास होना, सेपरेशन-जोन का फार्मेशन होना तथा जल के घनत्व का बढ़ना है. इन मौलिक आँकड़ों को निर्धारित विभागों द्वारा उपलब्ध नहीं किया जाना, गंगा की गम्भीर समस्या की ओर इशारा करता है.
5. बिना मॉडल-अध्ययन के बड़े प्रोजेक्ट बनाना
TGP, "दी थ्री गौर्ज प्रोजेक्ट डैम" चीन का, 175 मी. ऊँचा, 18,000 मेगावाट हाइड्रोपावर क्षमता का, मॉडल अध्ययन समय 25 से 30 वर्ष के अध्ययन के बाद बना है. परन्तु हमारे गंगा भीलंगना-संगम पर बना टिहरी बाँध 260.5 मी. ऊँचा, डिज़ाइनड हाइड्रोपावर 1500 मेगावाट और वास्तविक 750 मेगावाट का ही क्यो? इसका कारण है कि यह डेम बिना सही मॉडल के बना है. टिहरी डेम कमेटी के सदस्य प्रो. यू. के. चौधरी ने बार-बार यह पश्न उठाया, परन्तु किसी ने भी कोई जबाब नहीं दिया. नोट ऑफ डिसेंट लिखा, 6 दिन की मीटिंग में 6 बार लेक्चर भी दिया. परन्तु समस्त डॉक्यूमेंटस को छिपा लिया गया और बिना मॉडलिंग अध्ययन के टिहरी डेम निर्मित हो गया. सम्पूर्ण देश और गंगा, जहां समस्याओं को झेल रही है और अभी के गंगा के समस्त कार्य, चाहे STP के इंस्टालेशन का हो, विभिन्न स्थानों पर डेम बनने का कार्य हो या माल वाहक जहाज के चलने का कार्य हो. बिना मॉडल-अध्ययन के किया जा रहा है. यह गंगा की बहुत बड़ी समस्या है.
गंगा के "सेंड बेड एण्ड फ्लो एनर्जी फॉर वेस्टवाटर मैनेजमेंट", पी.एच.डी. थीसिस में वर्षों का समय मॉडलिंग द्वारा अध्ययन करने में लगा है. अतः बिना मॉडलिंग का गंगा पर कोई कार्य नहीं हो सकता है, परन्तु सारे के सारे कार्य बिना मॉडल अध्ययन के किये जा रहे हैं और गंगा अन्वेषण केन्द्र, जो 1985-86 में BHU के 7 प्रोजेक्ट्स में से है, इसी कार्य के लिये बना था, उसमें 2011 से ताला लगा है. अतः गंगा के समस्त कार्यों के लिये मॉडल अध्ययन का होना आवश्यक है. यह नहीं हो रहा है, यही गंगा की जटिल समस्या है.
6. बड़े बाँधों की संख्या में निरंतर होती वृद्धि
नदी में जगह-जगह पर डैम और बैराज से जल-स्तर का ज्यादा अन्तर किया जाना होता है. यह मानव-शरीर में कलेजे के धड़कन को तेज करने जैसा होता है. यदि यह अन्तर डैम से डैम के बीच की दूरी, कम-कम दूरी पर हो तो यह नदी की धड़कन को बढ़ाना है. यही है, पहाड़ के टूटने-धसने की आवृति का तीव्र होना. यह नदी का हार्ट एटैक है, इससे मिट्टी धसती है, लैंड-स्लाइड्स ज्यादा होता है तथा नदी में मृदा-भार ज्यादा होते हैं. यही है बढ़ते बड़े बाँधों की संख्या से गंगा में समस्यायों का बढ़ना. अत: बदलाव के ढ़ाल की बढ़ती बारंबारता से उत्पन्न समस्याओं को निरंतरता से नजरअंदाज करना गंगा की भयावह समस्या है.
डैम बैराज से ऊपर, अप-स्ट्रीम में और इसके नीचे डाउन स्ट्रीम में जल स्तर का अन्तर बड़े डैम में सैकड़ों मी. का होता हैं. यह जमीन के भीतर जल सतह के ढ़ाल को तीव्र करता है. यदि चट्टान सेडीमेन्ट्री/ मेटामॉरफिक रॉक हो, जिसमें सीपेज-रेट, जल प्रवाह क्षमता तीव्र हो तो ये उँचे और उँचे-ढाल के हों तो धसन ज्यादा होती है. इस तरह यदि बड़े-बाँधों की श्रृंखला हो तो जमीन के भीतर लम्बाई की दिशा में जल सतह तरंग के रूप में चलेगी. यह नदी में मृदाभार बढ़ाता जायेगा, यही समस्या गंगा की है. यही कारण है कि विश्व में गंगा का मृदाभार लगभग सबसे ज्यादा है, जो गंगा के पेट का तीव्रता से बढ़ते जाने का कारण है और जगह-जगह पर बाढ़ का आना और कटाव, मियैन्ड्रींग के बढ़ते रहने की समस्या का कारण है. यही है बड़े बाँधों की संख्या में निरंतर होती वृद्धि से गंगा की समस्या का बढ़ते रहना.
7. नए एवं पुराने STP का आउटफॉल साइट डिज़ाइन सुनिश्चित कराने की आवश्यकता
काशी में गंगा घाट पर मनाये जाने वाली देव दीपावली लाखों लोगों की आत्मीय उमंग, श्रद्धा-प्रेम, ध्यान, स्नान इत्यादि से ओत-प्रोत तथा भारत के अद्भुत परम्परागत एवं नैसर्गिकता से परिपूर्ण आत्मशक्ति प्रदायक आनन्ददायक सामाजिक आचरण है. यह अखंड भारत की धार्मिक आधारशिला है. इसका संरक्षण अस्सी घाट पर भगवानपुर STP के बगल में भी नहीं हो पाना और काले, दुर्गंधयुक्त गंगा-जल में लोगों का स्नान करना गंगा की समस्या है.
काशी में गंगा घाट पर मनाये जाने वाली देव दीपावली लाखों लोगों की आत्मीय उमंग, श्रद्धा-प्रेम, ध्यान, स्नान इत्यादि से ओत-प्रोत तथा भारत के अद्भुत परम्परागत एवं नैसर्गिकता से परिपूर्ण आत्मशक्ति प्रदायक आनन्ददायक सामाजिक आचरण है. यह अखंड भारत की धार्मिक आधारशिला है. इसका संरक्षण अस्सी घाट पर भगवानपुर STP के बगल में भी नहीं हो पाना और काले, दुर्गंधयुक्त गंगा-जल में लोगों का स्नान करना गंगा की समस्या है.
समस्त STP गंगा के नदोत्तर किनारे में अवस्थित हैं, जो अवजल का निस्तारण न्यून जल वेग के क्षेत्र में करते हुए जल-वेग को घटाते हुए और विलगाव क्षेत्र का निर्माण करते हुए अवजल के ठोस पदार्थ को जंक्शन पर जमा करते हुए न्यून-वेग से स्नान क्षेत्र में किनारे-किनारे फैलाते हैं. अस्सी घाट से आगे प्रदूषित भू-जल का रिसाव और छोटे-छोटे सतही स्त्रोतों का रिसाव निरंतर होता रहता है. इस समस्या का आधारभूत कारण सीवर-सिस्टम का गलत ढ़ाल का होना है. इसका समाधान आधारभूत होने के कारण होना असम्भव है. अतः नये और पुराने STP का आउटफॉल-साइट का डिजाइन सुनिश्चित करने की तत्काल आवश्यकता है.
8. नदी की आधारभूत व्यवस्था के लिये जियोमोर्फोलोजी का ज्ञान नहीं होना
नदी की वक्रारिता, नदी का साँप जैसे टेढ़ा-मेढ़ा होकर चलना है, जैसे दो मानव के स्वरूप, चाल-चलन, रक्त-गुण आदि एक जैसे नहीं होते, उसी तरह समस्त नदियां एक-दूसरे से अलग-अलग होती हैं और यह जगह और समय से भी बदलता चलता है. अत: नदी मानव शरीर जैसे ही विभिन्न अंगों और उनके विभिन्न जोड़ों से बनी हैं. नदी के इन चारित्रिक मोड़ों को और इनके जोड़ों को समझना ही नदी-शरीर के ज्ञान का होना है. इसी ज्ञान के लिये मेडिकल इंस्टिट्यूट के साथ साथ हॉस्पिटल होता है. नदी के लिये न तो नदी का इंस्टिट्यूट है और न ही इसका निर्धारित मैनेजमेंट ट्रेनिंग सेंटर. अतः नदी की आधारभूत व्यवस्था के लिये जियोमोर्फोलोजी के ज्ञान का नहीं होना, नदी के मात्र चेहरे को नहीं देखना और काम कर देना, डैम बैरेज-इन्फ्रास्ट्रक्चर, पूल, STP, माल-वाहक का पोर्ट बनवा देना गंगा की समस्या है.
किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को उसके मुख से निकला हुआ एक वाक्य परिभाषित करता है. उस वाक्य को बोलते समय उसके चेहरे का भाव, उसके भीतर की भावना को परिलक्षित करता है, यही है रिवर की जियोमोर्फोलोजी यानि नदी के भीतरी और बाहरी चरित्र-गुण का परिचायक. मानव जब बोलता है तब वह अपने भीतर की शक्ति को निकालता है. इससे उसके शरीर की कोशिकाओं का स्वरूप बदलता है, जो उसके चेहरे को बदल डालता है. यही होता है नदियों में, भू-जल और सतही जल के प्रवाह-गुण से, खास कर प्रवाह के सेकेंडरी-सर्कुलेशन से, नदी-क्रॉस सेक्शन बदलते हैं, ढ़ाल-बदलता है, मिट्टी के चरित्र बदलते हैं. यही है, उदाहरण के लिये, गंगा-यमुना की जियोमोर्फोलोजी. अतः कम से कम “गंगा जियोमोर्फोलोजी स्टडी सेन्टर” का होना अत्यावश्यक है.
9. गंगा में अवजल निस्तारण से पूर्व मॉडलिंग न करना
STP से गंगा में निस्तारित अवजल के स्थान से आउटफॉल साइट के प्रदूषण के फैलाव को डायल्यूशन, डिफ्यूजन और डिसपर्सन की मॉडलिंग कर उसे नहीं समझना तथा गंगा जल को काला और दुर्गंधयुक्त होते रहना ही गंगा की समस्या है.
वाराणसी का क्षेत्र गंगा के नदोत्तर किनारे के आरंभ से शुरू होता है. गंगा मोड़ का इस बाहरी किनारे की तरफ गंगा जल की धारा, जल-वेग केंद्र प्रसारी बल के कारण न्यून होने लगता है. यह स्ट्रीमलाइन डायवर्सन जोन होता है और गंगा की अधिकतम गहराई मध्य से नदोत्तर किनारे की दिशा में खिसकने लगती है. इस घटते वेग को शहर से आने वाले नाले STP से निस्तारित किया गया अवजल का आवेग और अधिक न्यून करता है, इस कारण प्रदूषण किनारे-किनारे रेंग कर आगे बढ़ता हैं. यही है, भगवानपुर STP तथा इसके ऊपर के नाले तथा रमणा STP से होने वाले अवजल को गंगा में निस्तारित होने का प्रभाव. ये सारे STP और नाले का अवजल वाराणसी में गंगा के विभिन्न घाटों के बी.ओ.डी भारों को दिसम्बर से जून तक बढ़ाते हैं और डी.ओ को घटाते है. यह गंगा जल को काला तथा दुर्गंधयुक्त करता रहता है.
यही है, अस्सीघाट पर भगवानपुर STP के विशेष कारण से भयावह प्रदूषण का कारण और इसका दशाश्वमेध घाट की ओर फैलते जाना. इन परिस्थितियों का आंकलन डायल्यूशन डिफ्यूजन डिसपर्सन मॉडल से लेबोरेटरी में आसानी से देखा जा सकता है. अत: गंगा में किसी स्त्रोत से अवजल निस्तारण से पहले मॉडलिंग करने की आवश्यकता है, इसका नहीं किया जाना और अपनी इच्छा से अवजल का निस्तारण कर देना गंगा की भयावह समस्या है.
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