बाल संस्कार हमारे समाज की
दिशा और दशा का निर्धारण करते हैं. बच्चा अपने शैशव काल में जो कुछ और जिस प्रकार सीखेगा,
बडा होकर वह अपने व्यवहार में उस शिक्षा को उसी प्रकार प्रदर्शित करेगा. वही हमारे
समाज की छवि होगी. उपदेशों और प्रवचनों के सुनने से या सत्संग में सहभागी बनने मात्र
से आप यकायक समाज को बदल नहीं सकते, क्योंकि समाज का अच्छा या बुरा हो जाना एक सतत
प्रक्रिया है, जो नई पीढ़ी के क्रमशः प्रविष्ट होते रहने पर निर्भर है. उपदेशो व्
प्रवचनों से केवल आप को अपनी कमजोरियों और त्रुटियों का ज्ञान अवश्य हो सकता है,
वह भी तब जब आप निस्पृह भाव से आत्मविश्लेषण करने की क्षमता रखते हों. अतः यदि
समाज में परिवर्तन लाना है तो बच्चों में वांछित संस्कार विकसित करने के अतिरिक्त
अन्य कोई सरल मार्ग उपलब्ध नहीं है.
संस्कार शब्द को आम व्यवहार
में हम तीन रूपों में उपयोग करते हैं. एक तो हिन्दू धर्म ग्रंथों में साक्रमेंट
अर्थात मानव की जन्म से मृत्यु तक की जीवन यात्रा के विभिन्न महत्व के अवसरों पर किये
जाने वाले कर्मकांड, जिसमे गर्भाधान से अंत्येष्टी संस्कार तक तीन प्रमुख समूहों
में विभाजित ये सोलह संस्कार सम्मिलित है. हिन्दुओ के लिए इन संस्कारों की धार्मिक व आध्यात्मिक महत्त्व के साथ साथ समाज
की दिशा निर्धारण में भी भूमिका हो सकती है, परन्तु अभी यह हमारे समक्ष विचारार्थ
विषय वस्तु नहीं है.
दूसरे अर्थ का सन्दर्भ संस्कार
शब्द की उत्पत्ति से है. संस्कार का जन्म क्योंकि संस्कृति से माना गया है इसलिए
इस शब्द को सांस्कृतिक सन्दर्भों में भी उपयोग किया जाता है. लेकिन समाज को बदलने
के लिए जिस व्यवहारिक सद्गुणों के पैकेज की आवश्यकता है उन संस्कारों को हम नैतिक
व्यवहार, नैतिक लोकाचार, चारित्रिक बल, सदाचरण, नैतिक मूल्य आदि के नाम से जानते
है. समाज को इच्छित दिशा में बदलने के लिए यही संस्कार आने वाली पीढ़ी के माध्यम से
विकसित किये जाते हैं. यह तीसरा और इस आल्रेख की विषय वस्तु से सम्बंधित अर्थ है.
नैतिक मुल्याधारित संस्कार
से ही व्यक्ति के सामान्य व्यवहार का विकास होता है और सामान्य व्यवहार के पुनः तीन
मुख्य स्रोत हैं. एक, समाज स्वयं और उस देश काल का कानून, दूसरा धर्म और तीसरा
व्यक्ति स्वयं. समाज या कानून से उद्भूत सामान्य व्यवहार सामाजिक परिवर्तन या
कानूनों में संशोधन के साथ बदलते रहते हैं. सती प्रथा से लेकर घूँघट हटाये
कार्यालयों में जाने तक की महिलाओं की सामाजिक संस्कार यात्रा इसका उदाहरण हैं. धर्म और उपासना के तरीकों की संस्कार को
प्रभावित करने में एक जैसी भूमिका नहीं रहती क्योंकि विभिन्न धर्मों में संस्कार
संहिता को भिन्न भिन्न रूपों में वर्णित किया गया है. जो कृत्य किसी एक धर्म में
घोर आपत्तिजनक घटना है, वही अन्य धर्म में स्वागतेय हो सकती है.
जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता
जाता है, आयु के साथ साथ उसकी इस यात्रा में अनेक ऐसे व्यवहार जो अभी तक उसके लिए निषिद्ध माने जा
रहे थे, अब ये व्यवहार अपेक्षित या स्वीकार्य होते जाते है, युवावस्था तक
अच्छे-बुरे, दया-निर्दयता, परमार्थ-स्वार्थ और सत्य- असत्य को अलग-अलग करने की समझ
विकसित होती जाती है और यही ज्ञान व्यक्ति को नैतिक–अनैतिक का विश्लेषण करने को
प्रेरित करता है. विश्लेषण से प्राप्त परिणाम में यदि स्वयं का व्यवहार अनैतिक
पाया जाता है तो ग्लानि होती है. यही ग्लानि व्यक्ति को गलत दिशा में जाने से
रोकती है.
व्यवहारिक मूल्यों में जीवन
शैली को बदल देने की क्षमता होती है. माता-पिता और शिक्षक आदि जो भी कोई बच्चे को
प्रेरित का सकता हो, उसे यह नहीं मान लेना चाहिए कि बच्चे को अच्छे स्कूल में
प्रवेश दिला देना पर्याप्त है. यह भी पर्याप्त नहीं है, कि बच्चा उच्च ग्रेड में
अच्छे नंबरों से पास हो रहा है. परन्तु यह आवश्यक है कि बच्चे में सद्गुण और उच्च
नैतिक मूल्यों का तेजी से विकास हुआ है या नहीं. एक श्रेष्ठ वैज्ञानिक, कुशल
इंजिनियर, प्रतिभाशाली डाक्टर अथवा अखिल भारतीय सेवाओं में चयन की योग्यता वाला
विद्यार्थी होना बहुत अच्छी बात है लेकिन उस से भी अच्छी बात एक सद्गुण युक्त
संस्कारी नागरिक होना है.
प्रत्येक माता-पिता को अपनी
संतान को और शिक्षक को अपने शिष्य को श्रेष्ठ नैतिक मूल्यों की सीख देनी चाहिए यदि
वे उनमे सफल सुखी और संतुष्ट व्यक्ति देखना चाहते हैं. नीचे कुछ ऐसे अच्छे
संस्कारों का उल्लेख किया गया है, जिनके रहते हुए व्यक्ति अच्छे और बुरे के बीच की
दीवार को लांघने की त्रुटि नहीं कर सकता, वह सड़क पर लाल और हरे सिग्नल की भी
अवहेलना नहीं कर सकता. ऐसे लोग सर्वत्र सराहे जाते हैं. अपने बच्चों पर नाज़ करने
की इच्छा हो और समाज को अनुकूल परिस्थितियों के लिए तैयार करना हो तो अपने बच्चों
को निम्नांकित संस्कारों से सुसज्जित करें. निश्चित समझिये आपके बच्चे ही नहीं
पूरा समाज बदलेगा और पूरा देश बदलेगा. आज जिन बातों को देखकर या सुनकर आप असहज हो
जाते हैं, कभी कभी बहुत खीझ और दुःख का अनुभव भी करते हैं. ये सभी समस्याएं दूर
होगी, आप सुख और शांति का अनुभव करेंगे.
1. विनम्रता एवं कृतज्ञता की अभिव्यक्ति:-
विनम्रता कमजोरी
नहीं होती. विनम्र बने, सबका प्यार
मिलेगा, सबसे सराहना मिलेगी. आपके आसपास के लोग आपकी बात मानेंगे. दूसरों का सहयोग
करें, उनका सहयोग स्वीकार भी करें प्रत्येक व्यक्ति के योगदान का संज्ञान लें,
धन्यवाद दें, प्रशंसा भी करें. अपना स्वयं का सम्मान करे दूसरों का भी सम्मान
करें.
2. ईमानदारी:-
ईमानदारी ही व्यक्ति
को विश्वसनीय बनाती है. ईमानदार व्यक्ति ही साहसी भी होते हैं, क्योंकि इस संस्कार
की रक्षा साहस के बिना नहीं हो सकती. सच्चाई और साहस इस संस्कार के साथ होते हैं.
3. साहस:-
जैसा ऊपर बताया
गया है, साहस ईमानदारी व सच्चाई के लिए तो जरुरी है ही, बिना साहस के ज्ञान की गति
भी मंद पड़ती जाती है. साहसी व्यक्ति संभावनाओं और ज्ञान के सभी मार्गों और ठौर को
खोज सकता है.
4. करुणा:-
सामान्यावस्था
में यह संस्कार व्यक्तित्व के विकास के साथ ही विकसित होता है. व्यक्ति के दिल में
मनुष्य और अन्य जीवों के प्रति करुणा भाव नहीं होना एक दुर्गुण है.
5. अनुकूलनीयता:-
प्रतिकूल
परिस्थितियों को भांप कर अपने किसी पूर्व नियोजित कार्यवाही से पीछे हट जाने में
भलाई हो तो यह संस्कार सभी के लिए लाभदायक होता है अन्यथा कभी कभी ऐसी ही मामूली
बात पर जीवन भर पछताना पड जाता है.
6. संतोष:-
महत्वाकांक्षा के
न होने या कम होने की स्थिति और संतोष की अवस्था में एक बहुत महीन सी पर्दा है.
संतोष का यह कदापि अर्थ नहीं है कि आप महत्वाकांक्षा न रखें लेकिन महत्वाकांक्षा
पूर्ण न होने पर टूट न जावें, बल्कि संतोष धारण करे. जो है, जो मिला, जो अर्जित कर
सके, उस पर संतुष्ट रहें.
7. दृढ-क्षमता:-
क्षमता के
साथ द्रढ़ता का गुण व्यक्ति को अजेय और पराक्रमी बना सकता है. ऐसे लोग विषम परिस्थितियों
में भी दबाव मुक्त बने रहकर अपनी राह पर आगे बढ़ते रहते हैं.
8. आत्म –अनुशासन:-
अच्छे
श्रोता बनें. स्वीकार्य को आत्मसात करे, सोचे-समझें और फिर कार्यवाही करें. अपने
अन्य संस्कारों की रक्षा करते समय भी आत्म अनुशासन बनाये रखें.
9. विश्वसनीयता:-
आप एक
भरोसेमंद व्यक्ति साबित हों. आपके आस पास के व्यक्ति आप से बलिदान की सीमा तक मदद
प्राप्त होने का भरोसा कर सकते हों.
10. जिज्ञासा युक्त स्वतः
स्फूर्त क्रियाशीलता:-
इस संस्कारवाला व्यक्ति स्वयं पहल करके जिज्ञासा के साथ
प्रत्येक मामले को जान लेने और सज्ञान लेने का कार्य करता है. विषय-वस्तु को इस प्रकार
जिज्ञासा और पहल से करने वाले व्यक्ति कभी असफल नहीं होते.
11. आशावादी और सकारात्मक:-
गुफा के दूसरे सिरे पर दिखने वाले प्रकाश को देखो और मानो कि प्रकाश है. गुफा के
अँधेरे से मत घबराओ क्योंकि जैसे जैसे गुफा को पार करते जाओगे अँधेरा छंटता जावेगा.
आशावादी होना और जीवन के प्रति सकारात्मक सोच के स्वामी होने मात्र से आप आधा
संघर्ष तो शुरु होने से पहले ही जीत चुके होते हैं. ऐसे लोग हमेशा प्रसन्नचित्त
रहते हैं, अतः समाज भी सुखी रहता है.
12. नेतृत्व:-
बॉस होना और
नेता होना एक जैसी बात नहीं है. बॉस जैसा व्यवहार अच्छा नहीं होता. व्यक्ति को
अपनी कमजोरी और क्षमता का आकलन करना चाहिए. अच्छे अनुयायी बनें, क्योंकि परिस्थितियां
ही यह निश्चित करती हैं कि कब कौन अनुयायी नेतृत्व करेगा और कब तक अनुयायी बने
रहना है.
संस्कारों की यह एक
सम्पूर्ण सूची नहीं हो सकती. बच्चों को उनके परिवार की पृष्ठभूमि, पारिवारिक
संस्कार, परम्पराएँ, रीति–रिवाज़, पर्व एवं उत्सव और धार्मिक मूल्यों को कथा-कथन एवं
दैनिक चर्चा की विषय वस्तु में पिरोकर बातों बातों में सिखाना चाहिए. एक अति
महत्वपूर्ण बात यह भी है कि आप जो कुछ बच्चे को सिखाना चाहते हैं वैसा ही आपका
स्वयं का भी व्यवहार होना चाहिए. बच्चा वही जल्दी सीखता है जैसा वह अपने परिवेश
में और माँ–बाप को करते हुए देखता है.
आप उसे यह भी शिक्षा दें कि जल्दी सोना और
प्रातः जल्दी उठाना चाहिए, प्रातः जल्दी उठकर माता-पिता और सभी बड़ों के चरण-स्पर्श
करे, अन्य सभी को यथायोग्य अभिवादन करे, प्रातः के समस्त कार्यों से निवृत होकर
स्नान करके ईश्वर को भी प्रणाम करते हुए बुराई से बचने और सभी अच्छे संस्कारों से
सज्जित करने का निवेदन करे. माता जी जो कुछ भोजन तैयार करे उसको ख़ुशी ख़ुशी कृतज्ञता
के भाव से खाए, गंदे बच्चों की संगत से बचे, नियमित रूप से स्कूल जाए, अपना होम
वर्क समय पर पूरा करे.
ऊपर इस आलेख में वर्णित संस्कारों से सुसज्जित हमारी आनेवाली पीढ़ी निश्चित रूप से हमारी सोसाइटी को भी बदल देगी, जिसमे सभी का जीवन आरामदेह, समन्वित, सम्मानजनक और निश्चिंतता भरा होगा औरअंततः एक महान देश के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करेगा.
By Dharm Veer Kapil {{descmodel.currdesc.readstats }}
बाल संस्कार हमारे समाज की दिशा और दशा का निर्धारण करते हैं. बच्चा अपने शैशव काल में जो कुछ और जिस प्रकार सीखेगा, बडा होकर वह अपने व्यवहार में उस शिक्षा को उसी प्रकार प्रदर्शित करेगा. वही हमारे समाज की छवि होगी. उपदेशों और प्रवचनों के सुनने से या सत्संग में सहभागी बनने मात्र से आप यकायक समाज को बदल नहीं सकते, क्योंकि समाज का अच्छा या बुरा हो जाना एक सतत प्रक्रिया है, जो नई पीढ़ी के क्रमशः प्रविष्ट होते रहने पर निर्भर है. उपदेशो व् प्रवचनों से केवल आप को अपनी कमजोरियों और त्रुटियों का ज्ञान अवश्य हो सकता है, वह भी तब जब आप निस्पृह भाव से आत्मविश्लेषण करने की क्षमता रखते हों. अतः यदि समाज में परिवर्तन लाना है तो बच्चों में वांछित संस्कार विकसित करने के अतिरिक्त अन्य कोई सरल मार्ग उपलब्ध नहीं है.
संस्कार शब्द को आम व्यवहार में हम तीन रूपों में उपयोग करते हैं. एक तो हिन्दू धर्म ग्रंथों में साक्रमेंट अर्थात मानव की जन्म से मृत्यु तक की जीवन यात्रा के विभिन्न महत्व के अवसरों पर किये जाने वाले कर्मकांड, जिसमे गर्भाधान से अंत्येष्टी संस्कार तक तीन प्रमुख समूहों में विभाजित ये सोलह संस्कार सम्मिलित है. हिन्दुओ के लिए इन संस्कारों की धार्मिक व आध्यात्मिक महत्त्व के साथ साथ समाज की दिशा निर्धारण में भी भूमिका हो सकती है, परन्तु अभी यह हमारे समक्ष विचारार्थ विषय वस्तु नहीं है.
दूसरे अर्थ का सन्दर्भ संस्कार शब्द की उत्पत्ति से है. संस्कार का जन्म क्योंकि संस्कृति से माना गया है इसलिए इस शब्द को सांस्कृतिक सन्दर्भों में भी उपयोग किया जाता है. लेकिन समाज को बदलने के लिए जिस व्यवहारिक सद्गुणों के पैकेज की आवश्यकता है उन संस्कारों को हम नैतिक व्यवहार, नैतिक लोकाचार, चारित्रिक बल, सदाचरण, नैतिक मूल्य आदि के नाम से जानते है. समाज को इच्छित दिशा में बदलने के लिए यही संस्कार आने वाली पीढ़ी के माध्यम से विकसित किये जाते हैं. यह तीसरा और इस आल्रेख की विषय वस्तु से सम्बंधित अर्थ है.
नैतिक मुल्याधारित संस्कार से ही व्यक्ति के सामान्य व्यवहार का विकास होता है और सामान्य व्यवहार के पुनः तीन मुख्य स्रोत हैं. एक, समाज स्वयं और उस देश काल का कानून, दूसरा धर्म और तीसरा व्यक्ति स्वयं. समाज या कानून से उद्भूत सामान्य व्यवहार सामाजिक परिवर्तन या कानूनों में संशोधन के साथ बदलते रहते हैं. सती प्रथा से लेकर घूँघट हटाये कार्यालयों में जाने तक की महिलाओं की सामाजिक संस्कार यात्रा इसका उदाहरण हैं. धर्म और उपासना के तरीकों की संस्कार को प्रभावित करने में एक जैसी भूमिका नहीं रहती क्योंकि विभिन्न धर्मों में संस्कार संहिता को भिन्न भिन्न रूपों में वर्णित किया गया है. जो कृत्य किसी एक धर्म में घोर आपत्तिजनक घटना है, वही अन्य धर्म में स्वागतेय हो सकती है.
जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है, आयु के साथ साथ उसकी इस यात्रा में अनेक ऐसे व्यवहार जो अभी तक उसके लिए निषिद्ध माने जा रहे थे, अब ये व्यवहार अपेक्षित या स्वीकार्य होते जाते है, युवावस्था तक अच्छे-बुरे, दया-निर्दयता, परमार्थ-स्वार्थ और सत्य- असत्य को अलग-अलग करने की समझ विकसित होती जाती है और यही ज्ञान व्यक्ति को नैतिक–अनैतिक का विश्लेषण करने को प्रेरित करता है. विश्लेषण से प्राप्त परिणाम में यदि स्वयं का व्यवहार अनैतिक पाया जाता है तो ग्लानि होती है. यही ग्लानि व्यक्ति को गलत दिशा में जाने से रोकती है.
व्यवहारिक मूल्यों में जीवन शैली को बदल देने की क्षमता होती है. माता-पिता और शिक्षक आदि जो भी कोई बच्चे को प्रेरित का सकता हो, उसे यह नहीं मान लेना चाहिए कि बच्चे को अच्छे स्कूल में प्रवेश दिला देना पर्याप्त है. यह भी पर्याप्त नहीं है, कि बच्चा उच्च ग्रेड में अच्छे नंबरों से पास हो रहा है. परन्तु यह आवश्यक है कि बच्चे में सद्गुण और उच्च नैतिक मूल्यों का तेजी से विकास हुआ है या नहीं. एक श्रेष्ठ वैज्ञानिक, कुशल इंजिनियर, प्रतिभाशाली डाक्टर अथवा अखिल भारतीय सेवाओं में चयन की योग्यता वाला विद्यार्थी होना बहुत अच्छी बात है लेकिन उस से भी अच्छी बात एक सद्गुण युक्त संस्कारी नागरिक होना है.
प्रत्येक माता-पिता को अपनी संतान को और शिक्षक को अपने शिष्य को श्रेष्ठ नैतिक मूल्यों की सीख देनी चाहिए यदि वे उनमे सफल सुखी और संतुष्ट व्यक्ति देखना चाहते हैं. नीचे कुछ ऐसे अच्छे संस्कारों का उल्लेख किया गया है, जिनके रहते हुए व्यक्ति अच्छे और बुरे के बीच की दीवार को लांघने की त्रुटि नहीं कर सकता, वह सड़क पर लाल और हरे सिग्नल की भी अवहेलना नहीं कर सकता. ऐसे लोग सर्वत्र सराहे जाते हैं. अपने बच्चों पर नाज़ करने की इच्छा हो और समाज को अनुकूल परिस्थितियों के लिए तैयार करना हो तो अपने बच्चों को निम्नांकित संस्कारों से सुसज्जित करें. निश्चित समझिये आपके बच्चे ही नहीं पूरा समाज बदलेगा और पूरा देश बदलेगा. आज जिन बातों को देखकर या सुनकर आप असहज हो जाते हैं, कभी कभी बहुत खीझ और दुःख का अनुभव भी करते हैं. ये सभी समस्याएं दूर होगी, आप सुख और शांति का अनुभव करेंगे.
1. विनम्रता एवं कृतज्ञता की अभिव्यक्ति:-
विनम्रता कमजोरी नहीं होती. विनम्र बने, सबका प्यार मिलेगा, सबसे सराहना मिलेगी. आपके आसपास के लोग आपकी बात मानेंगे. दूसरों का सहयोग करें, उनका सहयोग स्वीकार भी करें प्रत्येक व्यक्ति के योगदान का संज्ञान लें, धन्यवाद दें, प्रशंसा भी करें. अपना स्वयं का सम्मान करे दूसरों का भी सम्मान करें.
2. ईमानदारी:-
ईमानदारी ही व्यक्ति को विश्वसनीय बनाती है. ईमानदार व्यक्ति ही साहसी भी होते हैं, क्योंकि इस संस्कार की रक्षा साहस के बिना नहीं हो सकती. सच्चाई और साहस इस संस्कार के साथ होते हैं.
3. साहस:-
जैसा ऊपर बताया गया है, साहस ईमानदारी व सच्चाई के लिए तो जरुरी है ही, बिना साहस के ज्ञान की गति भी मंद पड़ती जाती है. साहसी व्यक्ति संभावनाओं और ज्ञान के सभी मार्गों और ठौर को खोज सकता है.
4. करुणा:-
सामान्यावस्था में यह संस्कार व्यक्तित्व के विकास के साथ ही विकसित होता है. व्यक्ति के दिल में मनुष्य और अन्य जीवों के प्रति करुणा भाव नहीं होना एक दुर्गुण है.
5. अनुकूलनीयता:-
प्रतिकूल परिस्थितियों को भांप कर अपने किसी पूर्व नियोजित कार्यवाही से पीछे हट जाने में भलाई हो तो यह संस्कार सभी के लिए लाभदायक होता है अन्यथा कभी कभी ऐसी ही मामूली बात पर जीवन भर पछताना पड जाता है.
6. संतोष:-
महत्वाकांक्षा के न होने या कम होने की स्थिति और संतोष की अवस्था में एक बहुत महीन सी पर्दा है. संतोष का यह कदापि अर्थ नहीं है कि आप महत्वाकांक्षा न रखें लेकिन महत्वाकांक्षा पूर्ण न होने पर टूट न जावें, बल्कि संतोष धारण करे. जो है, जो मिला, जो अर्जित कर सके, उस पर संतुष्ट रहें.
7. दृढ-क्षमता:-
क्षमता के साथ द्रढ़ता का गुण व्यक्ति को अजेय और पराक्रमी बना सकता है. ऐसे लोग विषम परिस्थितियों में भी दबाव मुक्त बने रहकर अपनी राह पर आगे बढ़ते रहते हैं.
8. आत्म –अनुशासन:-
अच्छे श्रोता बनें. स्वीकार्य को आत्मसात करे, सोचे-समझें और फिर कार्यवाही करें. अपने अन्य संस्कारों की रक्षा करते समय भी आत्म अनुशासन बनाये रखें.
9. विश्वसनीयता:-
आप एक भरोसेमंद व्यक्ति साबित हों. आपके आस पास के व्यक्ति आप से बलिदान की सीमा तक मदद प्राप्त होने का भरोसा कर सकते हों.
10. जिज्ञासा युक्त स्वतः स्फूर्त क्रियाशीलता:-
इस संस्कारवाला व्यक्ति स्वयं पहल करके जिज्ञासा के साथ प्रत्येक मामले को जान लेने और सज्ञान लेने का कार्य करता है. विषय-वस्तु को इस प्रकार जिज्ञासा और पहल से करने वाले व्यक्ति कभी असफल नहीं होते.
11. आशावादी और सकारात्मक:-
गुफा के दूसरे सिरे पर दिखने वाले प्रकाश को देखो और मानो कि प्रकाश है. गुफा के अँधेरे से मत घबराओ क्योंकि जैसे जैसे गुफा को पार करते जाओगे अँधेरा छंटता जावेगा. आशावादी होना और जीवन के प्रति सकारात्मक सोच के स्वामी होने मात्र से आप आधा संघर्ष तो शुरु होने से पहले ही जीत चुके होते हैं. ऐसे लोग हमेशा प्रसन्नचित्त रहते हैं, अतः समाज भी सुखी रहता है.
12. नेतृत्व:-
बॉस होना और नेता होना एक जैसी बात नहीं है. बॉस जैसा व्यवहार अच्छा नहीं होता. व्यक्ति को अपनी कमजोरी और क्षमता का आकलन करना चाहिए. अच्छे अनुयायी बनें, क्योंकि परिस्थितियां ही यह निश्चित करती हैं कि कब कौन अनुयायी नेतृत्व करेगा और कब तक अनुयायी बने रहना है.
संस्कारों की यह एक सम्पूर्ण सूची नहीं हो सकती. बच्चों को उनके परिवार की पृष्ठभूमि, पारिवारिक संस्कार, परम्पराएँ, रीति–रिवाज़, पर्व एवं उत्सव और धार्मिक मूल्यों को कथा-कथन एवं दैनिक चर्चा की विषय वस्तु में पिरोकर बातों बातों में सिखाना चाहिए. एक अति महत्वपूर्ण बात यह भी है कि आप जो कुछ बच्चे को सिखाना चाहते हैं वैसा ही आपका स्वयं का भी व्यवहार होना चाहिए. बच्चा वही जल्दी सीखता है जैसा वह अपने परिवेश में और माँ–बाप को करते हुए देखता है.
आप उसे यह भी शिक्षा दें कि जल्दी सोना और प्रातः जल्दी उठाना चाहिए, प्रातः जल्दी उठकर माता-पिता और सभी बड़ों के चरण-स्पर्श करे, अन्य सभी को यथायोग्य अभिवादन करे, प्रातः के समस्त कार्यों से निवृत होकर स्नान करके ईश्वर को भी प्रणाम करते हुए बुराई से बचने और सभी अच्छे संस्कारों से सज्जित करने का निवेदन करे. माता जी जो कुछ भोजन तैयार करे उसको ख़ुशी ख़ुशी कृतज्ञता के भाव से खाए, गंदे बच्चों की संगत से बचे, नियमित रूप से स्कूल जाए, अपना होम वर्क समय पर पूरा करे.
Attached Images