आईये जाने भारत की नदी संस्कृति - वेबिनर का भाव नीचे शब्दों में.
राकेश प्रसाद
मैं दो मुख्य समस्याएं देखता हूँ,
- एक नेचुरल रिसोर्सेज जैसे पानी की उपलब्धता,
- दूसरा उपयोगिता यानि प्रदूषण
पहले प्रदूषण पर आते हैं.
1965 में अमेरिकी शहरों का हाल बयां करते टॉम लहरेर के गाये गए
एक गीत से शुरुआत करते हैं.
If you visit American city,
You will find it very pretty.
Just two things of which you must beware:
Don't drink the water and don't breathe the air.
Pollution, pollution,
They got smog and sewage and mud.
Turn on your tap and get hot and cold running crud.
हिंदी भावार्थ :
यदि आप अमेरिकी शहर जाते हैं,
आपको यह बहुत सुंदर लगेगा.
केवल दो चीजें जिनसे आपको सावधान रहना चाहिए :
पानी ना पियें और हवा में साँस ना लें.
प्रदूषण, प्रदूषण!
उन्हें धुआं, सीवेज और मिट्टी मिली.
अपना नल चालू करें
और गर्म या ठंडी बहती हुई गंदगी प्राप्त करें.
लन्दन में भी 1952 में भयंकर प्रदूषण और स्मोग की स्थिति आई थी, जिसमें करीब 4000 लोग मारे गए थे और
लाखों बीमार हुए थे.
1947 से 1977तक हडसन नदी का पानी इतना गन्दा था कि आज की
हिंडन भी बोले कि मैं तो साफ़ ही हूँ.
1848 में द ग्रेट स्टिंक के दौर में थेम्स के बारे में एक गीत
लिखा गया था.
Dirty Father Thames (1848)
Filthy river, filthy river,
Foul from London to the Nore,
What art thou but one vast gutter,
One tremendous common shore?
Monster Soup commonly called Thames Water" (1828), by the artist William Heath
यह गीत बताता था कि थेम्स एक बड़े से गटर के सामान है और एक महा गन्दी नदी है. प्रदूषण की शिकार थेम्स नदी वर्ष
1858 में इतनी बुरी हालत में थी कि इसकी बदबू के कारण संसदीय कार्यवाही भी रोकनी
पड़ी थी. इसे पूरी तरह से मृत नदी घोषित किया जा चुका था. दशकों तक थेम्स नदी इंग्लैंड की बढती जनसंख्या एवं औद्योगीकरण का दंश झेलते हुए मानवीय मल, मृत पशुओं तथा कारखानों के अपशिष्ट का डंपिंग ग्राउंड बन चुकी थी.
हालात इतने बदतर थे कि 1900 के दशक तक थेम्स विश्व की सबसे प्रदूषित नदी बन चुकी थी और लोग नदी तट के पास से पलायन करना प्रारंभ कर चुके थे. इतिहास में "द ग्रेट स्टिंक" नामक यह दौर वास्तव में भयावय था, वर्ष 1858 की झुलसा देने वाली गर्मी में दशकों से नदी में तैरता अपशिष्ट सड़ने लगा था और इसने पास से गुजर रहे प्रत्येक नागरिक को रुमाल से नाक-मुंह ढक कर जाने के लिए विवश कर दिया था, जिसके बाद सरकार ने सीवेज ढांचें में सुधार के लिए भारी निवेश किया और प्रदूषण से मुक्ति के लिए बेहद कड़े कदम उठाए गये.
इतिहास की ये कुछ सच्चाईयां
आज के भारत की सच्चाई हैं.
ये दौर था मेक इन लन्दन या
मेक इन अमेरिका का, जिसने कॉलोनी देशों की अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने के लिए और
हाथ या छोटी मशीनों को खत्म कर बड़ी मशीनें और फैक्ट्रीज, कोयले से चलने वाले बिजली
के महाकाय प्लांट इत्यादि का प्रचलन शुरू किया था, औद्योगिक क्रांति का युग.
समृद्धि का युग और युद्ध का युग और उसके लिए एनर्जी की बढती मांग. महा उन्माद और महा
उपभोग.
भारत जब कहता है कि कॉलोनी
के युग में हमारे 43 ट्रिलियन डॉलर अंग्रेज लूट कर ले गए थे तो ये सब इन्ही मशीनों, युद्ध, उपभोग और उसके
प्रदूषण को बनाने और उसको फिर हटाने में लगाये गए.
बहरहाल, आज भारत भी इसी
उन्माद के युग में है. आज हवा, पानी काफी ख़राब है, मगर ऐसा पहले भी हो चुका है और
उससे निपटा जा चुका है.
सवाल यह है कि क्या भारत
इनसे निपट पाएगा, या हम एक भयंकर त्रासदी की और बढ़ रहे हैं.
अब नेचुरल रिसोर्सेज यानि उपलब्धता के आंकडे देखते
हैं.
एक उदाहरण - जहाँ अमेरिका
के पास दुनिया का 18 प्रतिशत साफ़ पानी है और 4.27% जनसंख्या, भारत के
पास इसका उलट 4% पानी और 18% जनसंख्या.
कुछ आज के भारत की स्थिति
एवं यूरोप और अमेरिका, जिसने ये समस्या देखी है और आज वहां की जल आत्मनिर्भरता, उपयोगिता और उपलब्धता के मामले में वे हमसे काफी आगे है, के बीच में अंतर क्या हैं, इस पर बात करना
ज़रूरी है, स्थिति को समझने के लिए.
अमेरिका और लन्दन इस समस्या
से कैसे निपटा, और हम क्यों नहीं निपट सकते हैं?
लंदन और अमेरिका ने इस समस्या से निपटने के लिए
आसान से दो उपाय किये गए :
- लन्दन और अमेरिका में कड़े
क़ानून बने और साफ़ पानी एवं हवा को नागरिकों के मौलिक अधिकार की श्रेणी में लाया
गया.
- प्रदूषण करने वाली और पुराने तरीके की मशीने
सीधे पूर्व के देशो में भेज दी गयी. चीन, भारत इत्यादि जैसे देश अब इनके इंजन बन
गए, तेल साफ़ करना, स्टील मैन्युफैक्चरिंग, कपडा, चमड़ा, डाई, आप नाम लें, जिनसे भी
धुआं निकलता है, पानी गन्दा होता है. सारी मैन्युफैक्चरिंग सीधे पूर्व भेज दी गयी.
सिर्फ डिजाईन और इम्पोर्ट सही तरीके से हो, उसके लिए आर्मी, नेवी, इंश्योरेंस
कंपनी सभी को लगा दिया गया.
अपना कचरा भी या तो
अपने ही देश में कुछ पिछड़े राज्यों या फिर इन्हीं देशो जैसे भारत, अफ्रीका, बंगलादेश, चीन
इत्यादि में रिसायकल के लिए भेज दिया.
उदाहरण के लिए देखें
तो..न्यूयॉर्क शहर जिसकी जनसंख्या का घनत्व भारत के जैसे ही है, अपना कचरा अलबामा
भेजता है और फिर वहां से दुनिया के बाकी देशों में. बहुत बार यह अपना लाखों टन
सीवरेज भी सीधे समुद्र में डालते हुए पाया जाता है.
यानि अपनी समस्या को
किसी और के माथे मढ़ कर ये लोग मुक्त हो गये.
आप भारत का सबसे बड़ा
इम्पोर्ट देखेंगे, तो वह है तेल और एक्सपोर्ट देखेंगे तो वो भी तेल है, हम क्रूड आयल
लेते हैं और साफ़ कर के दुनिया को देते हैं, चीन इस खेल में हमसे काफी आगे है.
इन सबका हमारी नदियों पर
सीधा असर पड़ता है. दूसरा आप पंजाब का उदाहरण ले या फिर हमारी एक्सपोर्ट आधारित नीतियां लें तो गन्ना और चावल जैसी
फसलें परोक्ष रूप से पानी का एक्सपोर्ट ही है.
अगर आप सोचते हैं, डोनाल्ड
ट्रम्प नासमझ है और बेकार की बात करता है कि ग्लोबल वार्मिंग कुछ नहीं है और कोई
समस्या नहीं है, तो ऐसा नहीं है, अमेरिका और यूरोप के लिए ग्लोबल वार्मिंग सही में
उतना भयावह नहीं है, जितना हमारे लिए है. क्योंकि सारी दुनिया का बोझ हम उठाते
हैं.
अब कल के लन्दन और अमेरिका
में और आज के भारत में कुछ अंतर भी देख लेते हैं.
- तापमान 2 डिग्री
से भी ज्यादा बढ़ चुका है.
- भारत की इकॉनमी
इनके सामने काफी छोटी है और अभी भी उपनिवेशवाद के युग से उभरी नहीं है.
- पानी कम है,
गन्दा है और अब अप्रत्याशित भी है. बाढ़ और सूखा है तथा एक बहुत बड़ी जनसंख्या है.
- भारत अपने
पर्यावरण, संस्कृति की वजह से अनाज़ और खेती पर, शाक सब्जी पर निर्भर करता है, 65%
लोग खेती से जुड़े उद्योगों में लगे हैं, जबकि अमेरिका में सिर्फ 1.6% लोग खेती से
जुड़े हैं और वो भी औद्योगिक. पश्चिमी संस्कृति मुख्यतः मीट पर निर्भर करती है, जो कि
बारिश या खेती पर निर्भर नहीं है और वह भी काफी हद तक निर्यात की जाती है.
- अमेरिका और लन्दन
की अपनी नीतियां, अपने लोग, ज़मीन और इतिहास पर आधारित हैं. भारत बस कॉपी करता है.
जीडीपी के आंकड़े ले लें, ज़मीन से कुछ लेना देना नहीं है. जबकि हार्वर्ड और बाकि
दुनिया की नीतियां अपने देशो के हिसाब से बनती हैं.
- 1950 के बाद आज
दुनिया की जनसंख्या जहाँ तीन गुना बढ़ी है, उनका उपभोग 10 गुना बढ़ा है, पश्चिमी देशों
में ये और भी काफी ज्यादा है, लन्दन में 33 गुना ऐसे आंकड़े देखने को मिलते हैं.
- जहाँ लन्दन और
अमेरिका विश्व युद्ध के बाद और कॉलोनी के देशों से एक मोटी रकम ले कर उठे थे, भारत
के पास ऐसा कुछ नहीं है. समाज में कनफ्लिक्ट बहुत जयादा बढे हैं. गूगल, फेसबुक इत्यादि ने
इसको और भी बड़े स्तर पर ला दिया है.
- उस समय चर्चिल, गांधी इत्यादि जैसे
नेता थे, जो एक बड़े युद्ध से निकले थे और आज के ट्विटर, सेल्फी वाले नेताओं से अलग
थे.
- प्लानिंग का अभाव
आज से नहीं, अंग्रेजों ने 200 साल सिर्फ हज़ारों साल के सिस्टम को सिर्फ तोड़ा ही
है, गंगा को पवित्र वो भी मानते थे, गंगा का पानी भारत से लन्दन कनस्तर में भर के
जाता था, मगर इसी में सीवर डालना भी इन्हीं लोगों ने आरम्भ किया.
भारत आज एक भयंकर पानी की
समस्या के सामने खड़ा है, और हमारे पास इससे लड़ने के हथियार, जो लन्दन और अमेरिका
के पास थे, बिलकुल नहीं है.
प्रो. वेंकटेश दत्ता
गंगा के गंगत्व को समाप्त करने की ओर हैं हम... प्रो. वेंकटेश दत्ता
वर्तमान में नदी समस्याओं को लेकर हमारी समझ काफी अधूरी है, नदी केवल जल मात्र
नहीं है, बल्कि इसके साथ सम्पूर्ण पारिस्थितिकी. समस्त समाज जुड़कर चलता है. इसीलिए
नदी को मात्र एक चैनल मानना गलत होगा. हमारी व्यवस्था में नदी और नहरों के मध्य
अधिक अंतर नहीं मसझ पाते हैं और यही समस्या है. नदियों की स्वत: निहित साफ़ करने की
क्षमता के साथ मन-मुताबिक छेड़छाड़ की जाती रही है.
नदियों से नहर निकालने का आरम्भ -
इतिहास में जाकर देखें तो आज से 200 वर्ष पूर्व भारत की सभी नदियों का पानी
बिल्कुल स्वच्छ था. ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल के दौरान करीब 1837-38 के मध्यआगरा रीजन में एक भयंकर सूखा पड़ा था, पानी की बेहद कमी हो गयी थी और कृषि व्यवस्था
ठप्प पड़ गयी थी. इसमें करीब 8 से 10 लोग मारे गये थे और कंपनी को एक करोड़ रूपये
रहत कार्यों में लगाने पड़े थे.
इस स्थिति को देखते हुए समस्या को हल करने के लिए
नदियों से नहरें निकलने की बात रखी गयी, गंगा से कैनाल निकल कर सिंचाई व्यवस्था की
तकनीकों पर चर्चा आरम्भ की गयी. उक्त दौर में रुड़की के सिविल इंजिनियरिंग कॉलेज
(वर्तमान में आईआईटी रुड़की) में इस विषय पर शिक्षा शुरू हुई कि कैसे नदियों से
कैनाल निकालकर खेतों में सिंचाई सुविधा का विस्तार किया जा सके.
अपर गंगा कैनाल का निर्माण और नदी-इकोलॉजी की अनदेखी -
इसके बाद तकरीबन वर्ष 1854 में अपर गंगा कैनाल का निर्माण हरिद्वार के पास
किया गया. इसके साथ साथ ही शहरीकरण बढ़ता चला गया. महानगरों का निर्माण आरम्भ हो
गया और इस बढ़ते तकनीकीकरण के चलते हमारा वर्षों पुराना जो स्वत: स्वावलंबी मॉडल
था, वह अव्यवस्थित होकर रह गया. दीर्घकालीन स्थानीय संसाधनों के प्रति हमारी जो
जवाबदेही थी, वह धीरे धीरे समाप्त होती चली गयी. इस प्रकार नदी परम्परा के प्रति
हमारी अधूरी समझ के चलते समपूर्ण नदी तंत्र प्रभावित हुआ.
नदी के प्रवाह के साथ उसकी लंबाई, चौडाई और गहराई का अपना एक संयोजन होता है,
उसकी अविरलता भी इन्हीं सब आयामों से जुड़ी होती है और उसमें किसी प्रकार का
स्थायित्व नहीं होता है. यानि नदी का अपना एक सेल्फ क्लीन सिस्टम होता है, जिससे
नदी का कुदरती प्रवाह बना रहता है. ऐतिहासिक दस्तावेजों के हवाले से देखें तो 200
वर्ष पूर्व गंगा नदी में जहाज चला करते थे और नदी की गहराई काफी अधिक थी.
इन
जहाजों के जरिये हुगली, कोलकाता से होते हुए इलाहाबाद तक व्यापार होता था. आज भी गंगा नदी में जहाज चलाने की बात की जा रही है, परन्तु यह सोचना होगा कि क्या आज भी
गंगा के हालात पूर्व के जैसे हैं? आज बांधों के कारण नदियों में काफी सिल्ट जमा हो
गया है, जिससे नदी की गहराई निरंतर कम होती जा रही है और यदि आज हम नदियों में
जहाज चलाने की बात करते हैं, तो उसके लिए पहले यह गाद बाहर निकालना होगा.
चंद्रपाल घाट, कोलकाता (हुगली नदी) PICTURE CREDIT : IBTIMES
आर्थिक क्रांति से उपजा विकास या विनाश -
नदियों में आज बहुत सी जलीय प्रजातियां हैं, अकेले गंगा में ही मछलियों की
लगभग 150 प्रजातियाँ हैं और गंगा डॉलफिन आदि भी जलचर अलग से हैं. आज जो नवविकास
मॉडल हमारे पास आया है, उसमें हमें नदियों के बहाने कहीं न कहीं अपनी चिंता स्वयं
करनी होगी. वर्ष 1991 के बाद से जो आर्थिक नवीनीकरण और उदारीकरण आरम्भ हुआ है,
उसका क्या प्रभाव हुआ?
स्पष्ट शब्दों में कहें तो इसके अंतर्गत अमीर देशों द्वारा
गरीब देशों का भरपूर आर्थिक दोहन किया गया. जीडीपी की जो परिभाषा तय की गयी, वह
भ्रामक है, क्योंकि उसमें कहीं भी यह बात नहीं रखी गयी कि वास्तविक जीडीपी ग्रोथ
प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से हो रही है. तो यह जो विकास का मॉडल हमारे सामने आ
रहा है, उससे ये तो स्पष्ट है कि क्या हम विकास एवं विनाश के मध्य सामंजस्य बैठा
पाएंगे.
गंगा की स्वत: शुद्धिकरण प्रक्रिया संकट में -
गंगा के हेड वाटर्स में अलकनंदा, धौलीगंगा, नंदाकिनी, मंदाकिनी, पिंडर एवं
भागीरथी नाम की छ: प्रमुख नदियां आती हैं. ये पाँचों नदियां पहले अलग अलग स्थानों
पर अलकनंदा से मिलती हैं और फिर अलकनंदा भागीरथी से मिलकर गंगा का निर्माण करती
है. 250 किमी आगे प्रवाहित होने पर यह हरिद्वार में मैदानी इलाकों में प्रवेश करती
है. विगत कुछ वर्षों से हमने गंगा के हेड वाटर्स में हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्लांट
लगाने शुरू किये, जो कि इकोलॉजिकल फ्रेगाइल जोन है, यह बेहद संवेदनशील अस्थायी
हिस्सा है और इसपर बड़े प्रोजेक्ट बनाने से वास्तव में गंगा का गंगत्व खतरे में है
क्योंकि गंगा में अपने खास किस्म के बैक्टीरियाफाज हैं, जो वहां के मिनरल्स,
सेडीमेंटस इत्यादि से निर्मित हुए हैं.
नीरी के वैज्ञानिकों द्वारा सीएसआईआर के सहयोजन में किये गये गंगा से जुड़े प्रोजेक्ट के अनुसार की जा रही रिसर्च में विषय रहा कि “गंगा जल
में ऐसा क्या है, जो यह कभी खराब नहीं होता”.. और इतने लोग गंगा में स्नान करते हैं तो कॉलरा जैसी संक्रामक बीमारियां क्यों नहीं
फैलती. बहुत से शोध भी यह प्रमाणित करते हैं कि गंगा जल लोग ले जाकर अपने घरों में रखते
हैं और यह वर्षों तक भी खराब नहीं होता है.
नीरी के वैज्ञानिकों ने अपने शोध में
पाया कि नर्मदा और यमुना के जल की तुलना में गंगा जल में बैक्टीरियाफाज की संख्या काफी अधिक है और गंगत्व भी कहीं न कहीं इसी से जुड़ा है. यदि आप नदी के
जलग्रहण क्षेत्र, परिद्रश्य आदि के साथ छेड़छाड़ कर नदी जल को स्थायी करने का प्रयास
करते हैं तो इसका प्रत्यक्ष प्रभाव नदी की स्वत: शुद्धिकरण क्षमता पर पड़ता है.
माइनिंग से गंगा जलचरों के अस्तित्व पर खतरा -
वर्तमान में देंखें तो विकास के नाम पर नदियों से सैंड,स्टोन आदि की माइनिंग अत्याधिक की जा रही है, जिसका प्रभाव नदी में रहने वाले
जलचरों के प्राकृतिक आवास पर पड़ रहा है. नियम कहते हैं कि आप नदी के चैनल से रेत
नहीं निकल सकते हैं, परन्तु वास्तविक्ता सब जानते हैं कि माइनिंग के समय यह नहीं
देखा जाता कि नदी और उसके जलचरों के स्थायी वास को कितना नुक्सान पहुंचाया जा रहा
है. मछलियां. कछुएं, घड़ियाल इत्यादि के कुदरती वास पर स्टोन या सैंड माइनिंग के
दुष्प्रभाव प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं, क्योंकि विकास और शहरीकरण के लिए ये दोनों
ही वस्तुएं भारी मात्रा में चाहिए होती हैं. यानि एक ओर हमारा विकास मॉडल है और
दूसरी तरफ नदी-पारिस्थितिकी.. इस प्रकार नदी के प्रवाह में कई प्रकार के अवरोध
हैं.
बड़े प्रोजेक्ट्स का निर्माण करने से पहले भविष्य के बारे
में विचारें -
नदियों की आयु कोई निश्चित नहीं कर सकता है, यदि गंगा की
उत्पत्ति का वैज्ञानिक आंकलन करे तो यह स्वयं 40-45 हजार वर्ष पूर्व से निरंतर
बहती आ रही है. परन्तु आज हम जो नदी के किनारों पर संरचनाएं, बड़े प्रोजेक्ट्स इत्यादि
बना रहे हैं, आज से 40-50 वर्ष बाद जब उन्हें हटायेंगे तो उससे नदी पर क्या प्रभाव
पड़ेगा? क्या इसका अनुमान किसी ने लगाने का प्रयास किया. गंगा, जो संस्कृत के “गंग”
शब्द से निर्मित है, जिससे तात्पर्य है “निरंतर प्रवाहमान”..परन्तु ये बड़े
प्रोजेक्ट्स नदी के प्रवाह को स्टॉक में बदल रहे हैं.
पूर्व में जो नदी का गतिशील
प्रवाह था, वह आज सांख्यिकीय स्टॉक्स में परिवर्तित होकर रह गया है, जिसको अपनी
इच्छा के अनुसार रोका या आगे प्रवाहित किया जा रहा है. पहले जो प्राकृतिक प्रवाह
की प्रक्रिया थी कि मानसूनी सीजन में उच्च प्रवाह और सूखे की स्थिति में अल्प
प्रवाह, जिसके मध्य हमारी सम्पूर्ण पारिस्थितिकी निर्भर करती थी, आज वह स्टॉक पर
केन्द्रित होकर रह गयी है. इस मॉडल को फिर से वापस ला पाना अपने आप में एक चुनौती
है.
PIC CREDIT : TL ON UNSPLASH
सहायक नदियों के
संरक्षण से ही संरक्षित होगी बड़ी नदियां – रमन कांत त्यागी
आज हिंडन,काली नदी पूर्वी, काली नदी पश्चिमी, कृष्णी आदि नदियां एवं इनकी सहायक पांवधोई, नागदेई, धमौला, शीला आदि के हालात पर गौर करें तो इनमें आज
पानी नहीं है. मूल रूप से ये सभी बरसाती नदियां है, पहाड़ से नीचे से ही बहते हुए वर्ष भर ग्राउंड वाटर से
रिचार्ज होती रहती हैं. उत्तराखंड और यूपी की सीमा पर जो पहाड़ हैं, बरसात के मौसम में वहां से तीन नदियों में पानी
जाता है. एक सहरसा, जो यमुना में आकर
मिलती है..एक कालूवाला खोल, जहां से हिंडन को
जल मिलता है और एक शीला ड्रेन, जो गंगा में
विलीन हो जाती है. इस प्रकार यह नदियां बरसाती जल से प्रवाहमान रहती हैं.
इसके बाद नीचे जो
नदियां हैं, उनमें काली नदी
पूर्वी, काली नदी पश्चिमी,
धमौला, पांवधोई आदि नदियां है, जो भूजल स्तर से
बहती है, साथ ही बरसात होने से
इनमें पानी स्वत: बढ़ जाता है. विगत कुछ समय से बारिश कम होने से भूजल स्तर में
काफी गिरावट आई है और पानी रिचार्ज नहीं होने से इन नदियों की दशा बेहद खराब है.
परंपरागत भूजल
स्त्रोतों पर अधिग्रहण -
नदी किनारे के
लोगों ने आस पास के तालाबों, जोहड़ों, झीलों इत्यादि परंपरागत भूजल स्त्रोतों को अधिग्रहण कर लगभग समाप्त कर दिया. यह एक प्रकार का मानसिक पतन रहा जिसने लोगों को
नदियां, तालाब आदि पर कब्जा करने
के लिए विवश कर दिया, यानि जिनसे हमारा
जीवन जुड़ा था, उनका जीवन ही
हमने छीन लिया. आप देंखें तो हमारे प्राचीन ग्रंथों, शास्त्रों, पुराणों आदि में
भी जल की महत्ता बताई गयी है, स्वयं मनु स्मृति
में वर्णन आता है कि यदि हम एक तालाब का निर्माण करेंगे तो हमें चार तीर्थों में
स्नान का पुण्य मिलेगा.इसके बावजूद भी हजारों-लाखों वर्षों से संचित भूजल को
निरंतर तेजी से निकाला जा रहा है.
हाल ही में हुए एक अध्ययन में हमने पाया कि मेरठ
में तकरीबन 663 ग्रामों में
रेवेन्यु रिकॉर्ड के अनुसार 3062 तालाबों का
रिकॉर्ड दर्ज है, परन्तु वहां जाकर
देखा गया तो 1944 तालाब शेष बचे
थे, जिनमें से भी 1530 पर लोगों का कब्जा था. इस प्रकार कुल मिलाकर 400 के करीब तालाब ही शेष बचे थे और उनकी दशा भी
कोई ज्यादा अच्छी नहीं हैं, सभी प्रदूषित जल
और कूड़े-कचरे से भरे हैं.
भूजल दोहन के
कारण बढ़ता खतरा -
हरित क्रांति से
पहले के दौर में टयूबवेल का उपयोग अधिक नहीं था, तालाबों के माध्यम से सिंचाई की जाती थी या फिर सरकारी
टयूबवेल होती थी, जो बना कर रखते
थे. आज मेरठ में करीब 60,000 टयूबवेल और
बोरवेल हैं, जिनकी संख्या
हरित क्रांति से पहले मात्र 500-600 थी और लगभग सभी
राज्यों की यही स्थिति है. यानि कि इन 40-50 वर्षों में भूजल निस्तारण के तरीके हमने इतने बढ़ा दिए कि
भूजल रिचार्ज के तमाम उपाय उसके सामने कम पड़ गये. यह वास्तव में बहुत बड़ा अंतर है
और पश्चिमी यूपी में तो यह भी देखने में आ रहा है कि फसल प्रणाली (जिसमें गन्ना,
धान आदि प्रमुख फसलें हैं) दोषपूर्ण है,
जिसमें सिंचाई पर काफी जल अपव्यय किया जाता है,
जबकि गन्ने की फसल अधिक जल की मांग नहीं रखती
है.
बड़ी समस्या यह है
कि फसल-चक्र में 86% भूजल का प्रयोग
किया जा रहा है, जो चिंताजनक है
और इसका जो सबसे बड़ा दुष्प्रभाव पड़ा है, वह हमारी नदियों पर दिखता है. नदियों के आस पास जो प्राकृतिक भूजल स्त्रोत थे,
उनका भूमिगत जल स्त्रोत बिल्कुल गिर गया. साथ
ही औद्योगिकीकरण के चलते नदियों के किनारे स्थापित कल-कारखानों ने नालों के जरिये
नदियों में अपशिष्ट बहाने का माध्यम बना लिया. विचित्र तथ्य है कि यदि आज सीवरेज
और अपशिष्ट इन नदियों में बहना बंद हो जाये तो आज ये नदियां मात्र सूखी धरती भर है,
जिसमें खेती तक की जा सकती है. यानि इनमें
नाममात्र के लिए भी जल नहीं है और देश भर में यही हालात है.
एक नजर सरकारी
रवैये की ओर -
यदि नगर निगम,
नगर पंचायत, ग्राम पंचायत इत्यादि निश्चय कर लें तो सीवरेज स्त्रोत खोज
कर उनपर नियंत्रण लगाया जा सकता है. एक हालिया समाचार पर गौर किया जाये तो आगामी कुंभ मेले के चलते उत्तर प्रदेश सरकार ने सभी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को निर्देश
भेज दिए हैं कि जो भी नदियां गंगा में जाकर मिलती हैं, उनके किनारे पर स्थापित सभी कारखानों को नोटिस भेज कर एक
निश्चित समय के लिए बंद कर दिया जाये, जिससे गंगा नदी कुंभ के दौरान प्रदूषित ना दिखे.
यहां ध्यान देने योग्य बात यह
है कि सरकार भी जानती है कि ये सभी औद्योगिक इकाइयां गंगा नदी को प्रदूषित कर रही
हैं, फिर भी सरकार इन पर
स्थायी रूप से रोक लगाने में नाकाम रही है. केवल साधु-संतों को बहलाने या विदेशी
एम्बेसेडर्स को लुभाने के लिए एक निश्चित समय के लिए गंगा स्वच्छता के नाम पर
कारखानों पर रोक लगाना एक भ्रष्ट तंत्र को दर्शाता है. यदि सीवेज या इंडस्ट्रियल
अपशिष्ट पर रोक लगा दी जाये तो इन बरसाती नदियों का सुधार कार्य आरम्भ हो सकता है.
केवल जन-जागृति के लिए नदी स्वच्छता अभियान चलाना ही हमारे लिए काफी नहीं है.
प्रदूषण के दंश
से प्रभावित ग्रामीणों का जीवन चक्र -
हिंडन के किनारे
आप किसी भी गाँव में जाएंगे तो पाएंगे कि नदी के आस पास के गांवों को भी प्रदूषण ने अपनी चपेट में ले लिया है, यानि जो सभ्यता
नदी किनारे पोषित हुई थी, आज वही उजड़ने की
कगार पर है. इन गांवों में पेयजल तक उपलब्ध नहीं है. पानी में मरकरी, लेड, पेस्टीसाइडस, क्रोमियम,
आयरन की अधिकता आदि रसायनों की वृद्धि के कारण
घर घर में कैंसर, पेट की बीमारियां,
नर्वस ब्रेकडाउन, बांझपन आदि के मरीज मिल रहे हैं. यहां तक कि पशुओं में भी
बांझपन से जुड़ी बीमारियां देखी जा रही हैं.
इन गांवों से कोई भी वैवाहिक संबंध
जोड़ने को आसानी से तैयार नहीं होता, इस प्रकार केवल आर्थिक पक्ष ही नहीं अपितु सामाजिक पक्ष भी प्रभावित हो रहा
है. इन्हीं में से एक ग्राम है सरोरा, जहां नदी किनारे बसे लोग प्रदूषण के कारण नदी के पास से जंगल की ओर पलायन कर
रहे हैं. इन सभी परिस्थितियों से बचने के लिए सरकार को ज़मीनी स्तर पर कार्य करने
होंगे.
मेरे अनुभव पानी के क्षेत्र में
कार्य करते हुए इस प्रकार हैं :
1. लोग अभी तक स्थिति को समझे नहीं हैं, आर.ओ. लगा कर या बोरेवेल से पानी निकाल कर, आँखों पर एक पट्टी बाँध कर चल रहे हैं.
2. रिसर्च सिर्फ पानी, पर्यावरण तक ही सीमित है, मगर अर्थशास्त्र एवं राजनीति से नहीं जुडती और आज के समाज की व्यवहारिकता की और नहीं देखती. भारत स्पेसिफ़िक नहीं है और ख़ासकर स्थानीय स्तर पर नहीं है. समस्या बताती है और समाधान दंड और क़ानून पर छोड़ देती हैं. विज्ञान अध्यात्म से नहीं जुड़ता या बात नहीं करना चाहता.
3. एग्जीक्यूटिव बॉडी जैसे क़ानून और एडमिन से जुड़े लोग, बुरी तरह से देश के अध्यात्म से कट चुके हैं, नदी संस्कृति से कट चुके हैं. अभी तक पश्चिम के पैमानों पर चल रहे हैं, टैलेंट का भी अभाव दिखा और इच्छाशक्ति का भी.
4. फेसबुक और मीडिया ने बड़ा प्रभाव डाला है, सेल्फी से आगे कोई बढ़ता ही नहीं है.
5. पानी से जुड़े हुए कुछ थोड़े बहुत लोग हैं, उनमें आपसी भरोसे की काफी कमी है और आपस में भी काफी कनफ्लिक्ट रहते हैं और काफी कैंपेन मोड में काम होता है.
6. विदेशी पैसे पर काफी डिपेंडेंसी है.
7. पानी के काम में अभी तक कोई भी विस्तृत सेल्फ सस्टेनिंग मॉडल नहीं बन पाया है, जो लोगों को धरती के अध्यात्म से जोड़े और जीविका का भी मौका दे.
8. ज़मीन पर टैलेंट का बड़ा अभाव है.
9. डॉक्यूमेंटेशन भारत के दृष्टिकोण से नहीं हुई है, जैसे आजीविका का नुक्सान, कल्चर का नुक्सान पानी के आस पास का पुराना समाज जो अंग्रेजों के आने से पहले था और आज का समाज. क्या नदी सिर्फ़ सुन्दर होनी चाहिए, जैसे विदेशो का कांसेप्ट है या उसकी यूटिलिटी पर ज्यादा ध्यान होना चाहिए.
10. आम जन बुरी तरह से कटा हुआ है, हम खास जनों और पालिसी के क्लिष्ट मुद्दों को आम लोगों को दे रहे हैं और नतीजतन आम वर्ग कंफ्यूज हो रहा है.
मेरे कुछ सुझाव :
पालिसी के क्षेत्र में –
ये कुछ अलग नहीं है, जो आप लोग बोल रहे हैं, मगर इससे पहले कुछ ऐतिहासिक पॉइंट्स जोड़ना चाहूँगा.
हज़ारों सालों से दो सोच कनफ्लिक्ट में हैं,
एक किसानी सोच यानि प्रकृति के साथ मिल कर रहने की सोच, सह- अस्तित्व की सोच, जो पूर्व की सोच है. कारण यह है कि यहाँ प्रकृति ने साधन काफी ज्यादा दिए हैं, ज़मीन उपजाऊ, मानसून इत्यादि से एक अनुकूल माहौल बना है, जिसने इस सह अस्तित्व को बढ़ावा दिया है.
दूसरी तरफ है, पश्चिम जहाँ वातावरण कठिन रहा है और इंसान को प्रकृति को मोड़ना पड़ा है.
आज गंगा पर बाँध बना है, ये पहला काम नहीं हुआ है, इससे पहले नील नदी और उसके बाद सिन्धु नदी पर भी बाँध बना है और उन इलाकों की किसानी खत्म हुई है, नदियों को युद्ध के हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया है.
आज भारत में गाँव और शहर एक बड़े कनफ्लिक्ट में हैं. शहर जहाँ सिर्फ सीमा की तरफ़ देख रहे है और गाँव को निचोड़ रहे हैं, वहीँ भारत के गाँव आज शहरों से कटते जा रहे हैं.
भारत की पालिसी में कुछ चीज़ें निश्चित रूप से आनी होंगी..
1. एक्सपोर्ट ओरिएंटेड नीति की जगह अंतर्मुखी नीति पर ध्यान देना, जैसा कि कलाम जी ने कहा था.
2. किसानी की ओर जोर देना और ज्यादा से ज्यादा लोगों को किसानी की ओर मोड़ना होगा, फार्म से सर्विस की नीति अमेरिका में भी बुरी तरह से फ़ैल हुई है. हमारे यहाँ किसानी, काश्तकारी से जुड़े काफी आजीविका के साधन हो सकते हैं. एम्प्लॉयमेंट की जगह आजीविका के बारे में बात की जाए.
3. स्कूली और कॉलेज स्तर पर भी अनिवार्य रूप से खेती और ज़मीन से जुड़े कोर्स कराए ही जाएँ, जो स्थानीय खेतों से संलग्न हों. पानी के सिस्टम से जुड़े हुए हों.
4. शास्त्री जी ने “जय जवान और जय किसान”, जो बोला था, नीतियां और संसाधनों का इस्तेमाल इन्ही को नज़र में रख कर किया जाए. नौकरियां या आजीविका इन्हीं के आस आस हों और कॉल सेंटर इत्यादि पर आधारित ना हों.
आमजन के लिए सुझाव -
आम लोगों को मैं इतना ही बोलना चाहूँगा..
- स्थिति बड़ी विकट है, आप अपना उपभोग कम करें.
- बड़ा ही सोच समझ कर टिकाऊ सामान अपने स्थानीय व्यापारी से ही खरीदें.
- अपने आस पास की उपभोग की चीज़ों के बारे में समझे और सोचें कि इनका प्रभाव मेरी नदियों पर और मेरे देश के अर्थशास्त्र पर कितना होगा? उदहारण, डिटर्जेंट का इस्तेमाल करें या फिर कोई और तरीका भी हो सकता है, पुराने लोग क्या करते थे?
- अध्यात्म का ध्यान रखें, दिखावे का नहीं – गणेश पूजा में अगर हम उनकी प्रज्ञा और चेतना लेंगे तो कभी भी प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्ति नहीं खरीदेंगे और उसे नदियों में नहीं डालेंगे.
- नज़र रखें और सवाल पूछें.
By Rakesh Prasad Contributors Deepika Chaudhary Raman Kant Venkatesh Dutta {{descmodel.currdesc.readstats }}
आईये जाने भारत की नदी संस्कृति - वेबिनर का भाव नीचे शब्दों में.
राकेश प्रसाद
मैं दो मुख्य समस्याएं देखता हूँ,
पहले प्रदूषण पर आते हैं.
1965 में अमेरिकी शहरों का हाल बयां करते टॉम लहरेर के गाये गए एक गीत से शुरुआत करते हैं.
लन्दन में भी 1952 में भयंकर प्रदूषण और स्मोग की स्थिति आई थी, जिसमें करीब 4000 लोग मारे गए थे और लाखों बीमार हुए थे.
1947 से 1977तक हडसन नदी का पानी इतना गन्दा था कि आज की हिंडन भी बोले कि मैं तो साफ़ ही हूँ.
1848 में द ग्रेट स्टिंक के दौर में थेम्स के बारे में एक गीत लिखा गया था.
Monster Soup commonly called Thames Water" (1828), by the artist William Heath
यह गीत बताता था कि थेम्स एक बड़े से गटर के सामान है और एक महा गन्दी नदी है. प्रदूषण की शिकार थेम्स नदी वर्ष
1858 में इतनी बुरी हालत में थी कि इसकी बदबू के कारण संसदीय कार्यवाही भी रोकनी
पड़ी थी. इसे पूरी तरह से मृत नदी घोषित किया जा चुका था. दशकों तक थेम्स नदी इंग्लैंड की बढती जनसंख्या एवं औद्योगीकरण का दंश झेलते हुए मानवीय मल, मृत पशुओं तथा कारखानों के अपशिष्ट का डंपिंग ग्राउंड बन चुकी थी.
हालात इतने बदतर थे कि 1900 के दशक तक थेम्स विश्व की सबसे प्रदूषित नदी बन चुकी थी और लोग नदी तट के पास से पलायन करना प्रारंभ कर चुके थे. इतिहास में "द ग्रेट स्टिंक" नामक यह दौर वास्तव में भयावय था, वर्ष 1858 की झुलसा देने वाली गर्मी में दशकों से नदी में तैरता अपशिष्ट सड़ने लगा था और इसने पास से गुजर रहे प्रत्येक नागरिक को रुमाल से नाक-मुंह ढक कर जाने के लिए विवश कर दिया था, जिसके बाद सरकार ने सीवेज ढांचें में सुधार के लिए भारी निवेश किया और प्रदूषण से मुक्ति के लिए बेहद कड़े कदम उठाए गये.
इतिहास की ये कुछ सच्चाईयां आज के भारत की सच्चाई हैं.
ये दौर था मेक इन लन्दन या मेक इन अमेरिका का, जिसने कॉलोनी देशों की अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने के लिए और हाथ या छोटी मशीनों को खत्म कर बड़ी मशीनें और फैक्ट्रीज, कोयले से चलने वाले बिजली के महाकाय प्लांट इत्यादि का प्रचलन शुरू किया था, औद्योगिक क्रांति का युग. समृद्धि का युग और युद्ध का युग और उसके लिए एनर्जी की बढती मांग. महा उन्माद और महा उपभोग.
भारत जब कहता है कि कॉलोनी के युग में हमारे 43 ट्रिलियन डॉलर अंग्रेज लूट कर ले गए थे तो ये सब इन्ही मशीनों, युद्ध, उपभोग और उसके प्रदूषण को बनाने और उसको फिर हटाने में लगाये गए.
बहरहाल, आज भारत भी इसी उन्माद के युग में है. आज हवा, पानी काफी ख़राब है, मगर ऐसा पहले भी हो चुका है और उससे निपटा जा चुका है.
सवाल यह है कि क्या भारत इनसे निपट पाएगा, या हम एक भयंकर त्रासदी की और बढ़ रहे हैं.
अब नेचुरल रिसोर्सेज यानि उपलब्धता के आंकडे देखते हैं.
एक उदाहरण - जहाँ अमेरिका के पास दुनिया का 18 प्रतिशत साफ़ पानी है और 4.27% जनसंख्या, भारत के पास इसका उलट 4% पानी और 18% जनसंख्या.
कुछ आज के भारत की स्थिति एवं यूरोप और अमेरिका, जिसने ये समस्या देखी है और आज वहां की जल आत्मनिर्भरता, उपयोगिता और उपलब्धता के मामले में वे हमसे काफी आगे है, के बीच में अंतर क्या हैं, इस पर बात करना ज़रूरी है, स्थिति को समझने के लिए.
अमेरिका और लन्दन इस समस्या से कैसे निपटा, और हम क्यों नहीं निपट सकते हैं?
लंदन और अमेरिका ने इस समस्या से निपटने के लिए आसान से दो उपाय किये गए :
अपना कचरा भी या तो अपने ही देश में कुछ पिछड़े राज्यों या फिर इन्हीं देशो जैसे भारत, अफ्रीका, बंगलादेश, चीन इत्यादि में रिसायकल के लिए भेज दिया.
उदाहरण के लिए देखें तो..न्यूयॉर्क शहर जिसकी जनसंख्या का घनत्व भारत के जैसे ही है, अपना कचरा अलबामा भेजता है और फिर वहां से दुनिया के बाकी देशों में. बहुत बार यह अपना लाखों टन सीवरेज भी सीधे समुद्र में डालते हुए पाया जाता है.
यानि अपनी समस्या को किसी और के माथे मढ़ कर ये लोग मुक्त हो गये.
आप भारत का सबसे बड़ा इम्पोर्ट देखेंगे, तो वह है तेल और एक्सपोर्ट देखेंगे तो वो भी तेल है, हम क्रूड आयल लेते हैं और साफ़ कर के दुनिया को देते हैं, चीन इस खेल में हमसे काफी आगे है.
इन सबका हमारी नदियों पर सीधा असर पड़ता है. दूसरा आप पंजाब का उदाहरण ले या फिर हमारी एक्सपोर्ट आधारित नीतियां लें तो गन्ना और चावल जैसी फसलें परोक्ष रूप से पानी का एक्सपोर्ट ही है.
अगर आप सोचते हैं, डोनाल्ड ट्रम्प नासमझ है और बेकार की बात करता है कि ग्लोबल वार्मिंग कुछ नहीं है और कोई समस्या नहीं है, तो ऐसा नहीं है, अमेरिका और यूरोप के लिए ग्लोबल वार्मिंग सही में उतना भयावह नहीं है, जितना हमारे लिए है. क्योंकि सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं.
अब कल के लन्दन और अमेरिका में और आज के भारत में कुछ अंतर भी देख लेते हैं.
भारत आज एक भयंकर पानी की समस्या के सामने खड़ा है, और हमारे पास इससे लड़ने के हथियार, जो लन्दन और अमेरिका के पास थे, बिलकुल नहीं है.
प्रो. वेंकटेश दत्ता
वर्तमान में नदी समस्याओं को लेकर हमारी समझ काफी अधूरी है, नदी केवल जल मात्र नहीं है, बल्कि इसके साथ सम्पूर्ण पारिस्थितिकी. समस्त समाज जुड़कर चलता है. इसीलिए नदी को मात्र एक चैनल मानना गलत होगा. हमारी व्यवस्था में नदी और नहरों के मध्य अधिक अंतर नहीं मसझ पाते हैं और यही समस्या है. नदियों की स्वत: निहित साफ़ करने की क्षमता के साथ मन-मुताबिक छेड़छाड़ की जाती रही है.
नदियों से नहर निकालने का आरम्भ -
इतिहास में जाकर देखें तो आज से 200 वर्ष पूर्व भारत की सभी नदियों का पानी बिल्कुल स्वच्छ था. ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल के दौरान करीब 1837-38 के मध्यआगरा रीजन में एक भयंकर सूखा पड़ा था, पानी की बेहद कमी हो गयी थी और कृषि व्यवस्था ठप्प पड़ गयी थी. इसमें करीब 8 से 10 लोग मारे गये थे और कंपनी को एक करोड़ रूपये रहत कार्यों में लगाने पड़े थे.
इस स्थिति को देखते हुए समस्या को हल करने के लिए नदियों से नहरें निकलने की बात रखी गयी, गंगा से कैनाल निकल कर सिंचाई व्यवस्था की तकनीकों पर चर्चा आरम्भ की गयी. उक्त दौर में रुड़की के सिविल इंजिनियरिंग कॉलेज (वर्तमान में आईआईटी रुड़की) में इस विषय पर शिक्षा शुरू हुई कि कैसे नदियों से कैनाल निकालकर खेतों में सिंचाई सुविधा का विस्तार किया जा सके.
अपर गंगा कैनाल का निर्माण और नदी-इकोलॉजी की अनदेखी -
इसके बाद तकरीबन वर्ष 1854 में अपर गंगा कैनाल का निर्माण हरिद्वार के पास किया गया. इसके साथ साथ ही शहरीकरण बढ़ता चला गया. महानगरों का निर्माण आरम्भ हो गया और इस बढ़ते तकनीकीकरण के चलते हमारा वर्षों पुराना जो स्वत: स्वावलंबी मॉडल था, वह अव्यवस्थित होकर रह गया. दीर्घकालीन स्थानीय संसाधनों के प्रति हमारी जो जवाबदेही थी, वह धीरे धीरे समाप्त होती चली गयी. इस प्रकार नदी परम्परा के प्रति हमारी अधूरी समझ के चलते समपूर्ण नदी तंत्र प्रभावित हुआ.
नदी के प्रवाह के साथ उसकी लंबाई, चौडाई और गहराई का अपना एक संयोजन होता है, उसकी अविरलता भी इन्हीं सब आयामों से जुड़ी होती है और उसमें किसी प्रकार का स्थायित्व नहीं होता है. यानि नदी का अपना एक सेल्फ क्लीन सिस्टम होता है, जिससे नदी का कुदरती प्रवाह बना रहता है. ऐतिहासिक दस्तावेजों के हवाले से देखें तो 200 वर्ष पूर्व गंगा नदी में जहाज चला करते थे और नदी की गहराई काफी अधिक थी.
इन जहाजों के जरिये हुगली, कोलकाता से होते हुए इलाहाबाद तक व्यापार होता था. आज भी गंगा नदी में जहाज चलाने की बात की जा रही है, परन्तु यह सोचना होगा कि क्या आज भी गंगा के हालात पूर्व के जैसे हैं? आज बांधों के कारण नदियों में काफी सिल्ट जमा हो गया है, जिससे नदी की गहराई निरंतर कम होती जा रही है और यदि आज हम नदियों में जहाज चलाने की बात करते हैं, तो उसके लिए पहले यह गाद बाहर निकालना होगा.
चंद्रपाल घाट, कोलकाता (हुगली नदी) PICTURE CREDIT : IBTIMES
आर्थिक क्रांति से उपजा विकास या विनाश -
नदियों में आज बहुत सी जलीय प्रजातियां हैं, अकेले गंगा में ही मछलियों की लगभग 150 प्रजातियाँ हैं और गंगा डॉलफिन आदि भी जलचर अलग से हैं. आज जो नवविकास मॉडल हमारे पास आया है, उसमें हमें नदियों के बहाने कहीं न कहीं अपनी चिंता स्वयं करनी होगी. वर्ष 1991 के बाद से जो आर्थिक नवीनीकरण और उदारीकरण आरम्भ हुआ है, उसका क्या प्रभाव हुआ?
स्पष्ट शब्दों में कहें तो इसके अंतर्गत अमीर देशों द्वारा गरीब देशों का भरपूर आर्थिक दोहन किया गया. जीडीपी की जो परिभाषा तय की गयी, वह भ्रामक है, क्योंकि उसमें कहीं भी यह बात नहीं रखी गयी कि वास्तविक जीडीपी ग्रोथ प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से हो रही है. तो यह जो विकास का मॉडल हमारे सामने आ रहा है, उससे ये तो स्पष्ट है कि क्या हम विकास एवं विनाश के मध्य सामंजस्य बैठा पाएंगे.
गंगा की स्वत: शुद्धिकरण प्रक्रिया संकट में -
गंगा के हेड वाटर्स में अलकनंदा, धौलीगंगा, नंदाकिनी, मंदाकिनी, पिंडर एवं भागीरथी नाम की छ: प्रमुख नदियां आती हैं. ये पाँचों नदियां पहले अलग अलग स्थानों पर अलकनंदा से मिलती हैं और फिर अलकनंदा भागीरथी से मिलकर गंगा का निर्माण करती है. 250 किमी आगे प्रवाहित होने पर यह हरिद्वार में मैदानी इलाकों में प्रवेश करती है. विगत कुछ वर्षों से हमने गंगा के हेड वाटर्स में हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्लांट लगाने शुरू किये, जो कि इकोलॉजिकल फ्रेगाइल जोन है, यह बेहद संवेदनशील अस्थायी हिस्सा है और इसपर बड़े प्रोजेक्ट बनाने से वास्तव में गंगा का गंगत्व खतरे में है क्योंकि गंगा में अपने खास किस्म के बैक्टीरियाफाज हैं, जो वहां के मिनरल्स, सेडीमेंटस इत्यादि से निर्मित हुए हैं.
नीरी के वैज्ञानिकों द्वारा सीएसआईआर के सहयोजन में किये गये गंगा से जुड़े प्रोजेक्ट के अनुसार की जा रही रिसर्च में विषय रहा कि “गंगा जल में ऐसा क्या है, जो यह कभी खराब नहीं होता”.. और इतने लोग गंगा में स्नान करते हैं तो कॉलरा जैसी संक्रामक बीमारियां क्यों नहीं फैलती. बहुत से शोध भी यह प्रमाणित करते हैं कि गंगा जल लोग ले जाकर अपने घरों में रखते हैं और यह वर्षों तक भी खराब नहीं होता है.
नीरी के वैज्ञानिकों ने अपने शोध में पाया कि नर्मदा और यमुना के जल की तुलना में गंगा जल में बैक्टीरियाफाज की संख्या काफी अधिक है और गंगत्व भी कहीं न कहीं इसी से जुड़ा है. यदि आप नदी के जलग्रहण क्षेत्र, परिद्रश्य आदि के साथ छेड़छाड़ कर नदी जल को स्थायी करने का प्रयास करते हैं तो इसका प्रत्यक्ष प्रभाव नदी की स्वत: शुद्धिकरण क्षमता पर पड़ता है.
माइनिंग से गंगा जलचरों के अस्तित्व पर खतरा -
वर्तमान में देंखें तो विकास के नाम पर नदियों से सैंड,स्टोन आदि की माइनिंग अत्याधिक की जा रही है, जिसका प्रभाव नदी में रहने वाले जलचरों के प्राकृतिक आवास पर पड़ रहा है. नियम कहते हैं कि आप नदी के चैनल से रेत नहीं निकल सकते हैं, परन्तु वास्तविक्ता सब जानते हैं कि माइनिंग के समय यह नहीं देखा जाता कि नदी और उसके जलचरों के स्थायी वास को कितना नुक्सान पहुंचाया जा रहा है. मछलियां. कछुएं, घड़ियाल इत्यादि के कुदरती वास पर स्टोन या सैंड माइनिंग के दुष्प्रभाव प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं, क्योंकि विकास और शहरीकरण के लिए ये दोनों ही वस्तुएं भारी मात्रा में चाहिए होती हैं. यानि एक ओर हमारा विकास मॉडल है और दूसरी तरफ नदी-पारिस्थितिकी.. इस प्रकार नदी के प्रवाह में कई प्रकार के अवरोध हैं.
बड़े प्रोजेक्ट्स का निर्माण करने से पहले भविष्य के बारे में विचारें -
नदियों की आयु कोई निश्चित नहीं कर सकता है, यदि गंगा की उत्पत्ति का वैज्ञानिक आंकलन करे तो यह स्वयं 40-45 हजार वर्ष पूर्व से निरंतर बहती आ रही है. परन्तु आज हम जो नदी के किनारों पर संरचनाएं, बड़े प्रोजेक्ट्स इत्यादि बना रहे हैं, आज से 40-50 वर्ष बाद जब उन्हें हटायेंगे तो उससे नदी पर क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या इसका अनुमान किसी ने लगाने का प्रयास किया. गंगा, जो संस्कृत के “गंग” शब्द से निर्मित है, जिससे तात्पर्य है “निरंतर प्रवाहमान”..परन्तु ये बड़े प्रोजेक्ट्स नदी के प्रवाह को स्टॉक में बदल रहे हैं.
पूर्व में जो नदी का गतिशील प्रवाह था, वह आज सांख्यिकीय स्टॉक्स में परिवर्तित होकर रह गया है, जिसको अपनी इच्छा के अनुसार रोका या आगे प्रवाहित किया जा रहा है. पहले जो प्राकृतिक प्रवाह की प्रक्रिया थी कि मानसूनी सीजन में उच्च प्रवाह और सूखे की स्थिति में अल्प प्रवाह, जिसके मध्य हमारी सम्पूर्ण पारिस्थितिकी निर्भर करती थी, आज वह स्टॉक पर केन्द्रित होकर रह गयी है. इस मॉडल को फिर से वापस ला पाना अपने आप में एक चुनौती है.
PIC CREDIT : TL ON UNSPLASH
सहायक नदियों के संरक्षण से ही संरक्षित होगी बड़ी नदियां – रमन कांत त्यागी
आज हिंडन,काली नदी पूर्वी, काली नदी पश्चिमी, कृष्णी आदि नदियां एवं इनकी सहायक पांवधोई, नागदेई, धमौला, शीला आदि के हालात पर गौर करें तो इनमें आज पानी नहीं है. मूल रूप से ये सभी बरसाती नदियां है, पहाड़ से नीचे से ही बहते हुए वर्ष भर ग्राउंड वाटर से रिचार्ज होती रहती हैं. उत्तराखंड और यूपी की सीमा पर जो पहाड़ हैं, बरसात के मौसम में वहां से तीन नदियों में पानी जाता है. एक सहरसा, जो यमुना में आकर मिलती है..एक कालूवाला खोल, जहां से हिंडन को जल मिलता है और एक शीला ड्रेन, जो गंगा में विलीन हो जाती है. इस प्रकार यह नदियां बरसाती जल से प्रवाहमान रहती हैं.
इसके बाद नीचे जो नदियां हैं, उनमें काली नदी पूर्वी, काली नदी पश्चिमी, धमौला, पांवधोई आदि नदियां है, जो भूजल स्तर से बहती है, साथ ही बरसात होने से इनमें पानी स्वत: बढ़ जाता है. विगत कुछ समय से बारिश कम होने से भूजल स्तर में काफी गिरावट आई है और पानी रिचार्ज नहीं होने से इन नदियों की दशा बेहद खराब है.
परंपरागत भूजल स्त्रोतों पर अधिग्रहण -
नदी किनारे के लोगों ने आस पास के तालाबों, जोहड़ों, झीलों इत्यादि परंपरागत भूजल स्त्रोतों को अधिग्रहण कर लगभग समाप्त कर दिया. यह एक प्रकार का मानसिक पतन रहा जिसने लोगों को नदियां, तालाब आदि पर कब्जा करने के लिए विवश कर दिया, यानि जिनसे हमारा जीवन जुड़ा था, उनका जीवन ही हमने छीन लिया. आप देंखें तो हमारे प्राचीन ग्रंथों, शास्त्रों, पुराणों आदि में भी जल की महत्ता बताई गयी है, स्वयं मनु स्मृति में वर्णन आता है कि यदि हम एक तालाब का निर्माण करेंगे तो हमें चार तीर्थों में स्नान का पुण्य मिलेगा.इसके बावजूद भी हजारों-लाखों वर्षों से संचित भूजल को निरंतर तेजी से निकाला जा रहा है.
हाल ही में हुए एक अध्ययन में हमने पाया कि मेरठ में तकरीबन 663 ग्रामों में रेवेन्यु रिकॉर्ड के अनुसार 3062 तालाबों का रिकॉर्ड दर्ज है, परन्तु वहां जाकर देखा गया तो 1944 तालाब शेष बचे थे, जिनमें से भी 1530 पर लोगों का कब्जा था. इस प्रकार कुल मिलाकर 400 के करीब तालाब ही शेष बचे थे और उनकी दशा भी कोई ज्यादा अच्छी नहीं हैं, सभी प्रदूषित जल और कूड़े-कचरे से भरे हैं.
भूजल दोहन के कारण बढ़ता खतरा -
हरित क्रांति से पहले के दौर में टयूबवेल का उपयोग अधिक नहीं था, तालाबों के माध्यम से सिंचाई की जाती थी या फिर सरकारी टयूबवेल होती थी, जो बना कर रखते थे. आज मेरठ में करीब 60,000 टयूबवेल और बोरवेल हैं, जिनकी संख्या हरित क्रांति से पहले मात्र 500-600 थी और लगभग सभी राज्यों की यही स्थिति है. यानि कि इन 40-50 वर्षों में भूजल निस्तारण के तरीके हमने इतने बढ़ा दिए कि भूजल रिचार्ज के तमाम उपाय उसके सामने कम पड़ गये. यह वास्तव में बहुत बड़ा अंतर है और पश्चिमी यूपी में तो यह भी देखने में आ रहा है कि फसल प्रणाली (जिसमें गन्ना, धान आदि प्रमुख फसलें हैं) दोषपूर्ण है, जिसमें सिंचाई पर काफी जल अपव्यय किया जाता है, जबकि गन्ने की फसल अधिक जल की मांग नहीं रखती है.
बड़ी समस्या यह है कि फसल-चक्र में 86% भूजल का प्रयोग किया जा रहा है, जो चिंताजनक है और इसका जो सबसे बड़ा दुष्प्रभाव पड़ा है, वह हमारी नदियों पर दिखता है. नदियों के आस पास जो प्राकृतिक भूजल स्त्रोत थे, उनका भूमिगत जल स्त्रोत बिल्कुल गिर गया. साथ ही औद्योगिकीकरण के चलते नदियों के किनारे स्थापित कल-कारखानों ने नालों के जरिये नदियों में अपशिष्ट बहाने का माध्यम बना लिया. विचित्र तथ्य है कि यदि आज सीवरेज और अपशिष्ट इन नदियों में बहना बंद हो जाये तो आज ये नदियां मात्र सूखी धरती भर है, जिसमें खेती तक की जा सकती है. यानि इनमें नाममात्र के लिए भी जल नहीं है और देश भर में यही हालात है.
एक नजर सरकारी रवैये की ओर -
यदि नगर निगम, नगर पंचायत, ग्राम पंचायत इत्यादि निश्चय कर लें तो सीवरेज स्त्रोत खोज कर उनपर नियंत्रण लगाया जा सकता है. एक हालिया समाचार पर गौर किया जाये तो आगामी कुंभ मेले के चलते उत्तर प्रदेश सरकार ने सभी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को निर्देश भेज दिए हैं कि जो भी नदियां गंगा में जाकर मिलती हैं, उनके किनारे पर स्थापित सभी कारखानों को नोटिस भेज कर एक निश्चित समय के लिए बंद कर दिया जाये, जिससे गंगा नदी कुंभ के दौरान प्रदूषित ना दिखे.
यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि सरकार भी जानती है कि ये सभी औद्योगिक इकाइयां गंगा नदी को प्रदूषित कर रही हैं, फिर भी सरकार इन पर स्थायी रूप से रोक लगाने में नाकाम रही है. केवल साधु-संतों को बहलाने या विदेशी एम्बेसेडर्स को लुभाने के लिए एक निश्चित समय के लिए गंगा स्वच्छता के नाम पर कारखानों पर रोक लगाना एक भ्रष्ट तंत्र को दर्शाता है. यदि सीवेज या इंडस्ट्रियल अपशिष्ट पर रोक लगा दी जाये तो इन बरसाती नदियों का सुधार कार्य आरम्भ हो सकता है. केवल जन-जागृति के लिए नदी स्वच्छता अभियान चलाना ही हमारे लिए काफी नहीं है.
प्रदूषण के दंश से प्रभावित ग्रामीणों का जीवन चक्र -
हिंडन के किनारे आप किसी भी गाँव में जाएंगे तो पाएंगे कि नदी के आस पास के गांवों को भी प्रदूषण ने अपनी चपेट में ले लिया है, यानि जो सभ्यता नदी किनारे पोषित हुई थी, आज वही उजड़ने की कगार पर है. इन गांवों में पेयजल तक उपलब्ध नहीं है. पानी में मरकरी, लेड, पेस्टीसाइडस, क्रोमियम, आयरन की अधिकता आदि रसायनों की वृद्धि के कारण घर घर में कैंसर, पेट की बीमारियां, नर्वस ब्रेकडाउन, बांझपन आदि के मरीज मिल रहे हैं. यहां तक कि पशुओं में भी बांझपन से जुड़ी बीमारियां देखी जा रही हैं.
इन गांवों से कोई भी वैवाहिक संबंध जोड़ने को आसानी से तैयार नहीं होता, इस प्रकार केवल आर्थिक पक्ष ही नहीं अपितु सामाजिक पक्ष भी प्रभावित हो रहा है. इन्हीं में से एक ग्राम है सरोरा, जहां नदी किनारे बसे लोग प्रदूषण के कारण नदी के पास से जंगल की ओर पलायन कर रहे हैं. इन सभी परिस्थितियों से बचने के लिए सरकार को ज़मीनी स्तर पर कार्य करने होंगे.
मेरे अनुभव पानी के क्षेत्र में कार्य करते हुए इस प्रकार हैं :
1. लोग अभी तक स्थिति को समझे नहीं हैं, आर.ओ. लगा कर या बोरेवेल से पानी निकाल कर, आँखों पर एक पट्टी बाँध कर चल रहे हैं.
2. रिसर्च सिर्फ पानी, पर्यावरण तक ही सीमित है, मगर अर्थशास्त्र एवं राजनीति से नहीं जुडती और आज के समाज की व्यवहारिकता की और नहीं देखती. भारत स्पेसिफ़िक नहीं है और ख़ासकर स्थानीय स्तर पर नहीं है. समस्या बताती है और समाधान दंड और क़ानून पर छोड़ देती हैं. विज्ञान अध्यात्म से नहीं जुड़ता या बात नहीं करना चाहता.
3. एग्जीक्यूटिव बॉडी जैसे क़ानून और एडमिन से जुड़े लोग, बुरी तरह से देश के अध्यात्म से कट चुके हैं, नदी संस्कृति से कट चुके हैं. अभी तक पश्चिम के पैमानों पर चल रहे हैं, टैलेंट का भी अभाव दिखा और इच्छाशक्ति का भी.
4. फेसबुक और मीडिया ने बड़ा प्रभाव डाला है, सेल्फी से आगे कोई बढ़ता ही नहीं है.
5. पानी से जुड़े हुए कुछ थोड़े बहुत लोग हैं, उनमें आपसी भरोसे की काफी कमी है और आपस में भी काफी कनफ्लिक्ट रहते हैं और काफी कैंपेन मोड में काम होता है.
6. विदेशी पैसे पर काफी डिपेंडेंसी है.
7. पानी के काम में अभी तक कोई भी विस्तृत सेल्फ सस्टेनिंग मॉडल नहीं बन पाया है, जो लोगों को धरती के अध्यात्म से जोड़े और जीविका का भी मौका दे.
8. ज़मीन पर टैलेंट का बड़ा अभाव है.
9. डॉक्यूमेंटेशन भारत के दृष्टिकोण से नहीं हुई है, जैसे आजीविका का नुक्सान, कल्चर का नुक्सान पानी के आस पास का पुराना समाज जो अंग्रेजों के आने से पहले था और आज का समाज. क्या नदी सिर्फ़ सुन्दर होनी चाहिए, जैसे विदेशो का कांसेप्ट है या उसकी यूटिलिटी पर ज्यादा ध्यान होना चाहिए.
10. आम जन बुरी तरह से कटा हुआ है, हम खास जनों और पालिसी के क्लिष्ट मुद्दों को आम लोगों को दे रहे हैं और नतीजतन आम वर्ग कंफ्यूज हो रहा है.
मेरे कुछ सुझाव :
पालिसी के क्षेत्र में –
ये कुछ अलग नहीं है, जो आप लोग बोल रहे हैं, मगर इससे पहले कुछ ऐतिहासिक पॉइंट्स जोड़ना चाहूँगा.
हज़ारों सालों से दो सोच कनफ्लिक्ट में हैं,
एक किसानी सोच यानि प्रकृति के साथ मिल कर रहने की सोच, सह- अस्तित्व की सोच, जो पूर्व की सोच है. कारण यह है कि यहाँ प्रकृति ने साधन काफी ज्यादा दिए हैं, ज़मीन उपजाऊ, मानसून इत्यादि से एक अनुकूल माहौल बना है, जिसने इस सह अस्तित्व को बढ़ावा दिया है.
दूसरी तरफ है, पश्चिम जहाँ वातावरण कठिन रहा है और इंसान को प्रकृति को मोड़ना पड़ा है.
आज गंगा पर बाँध बना है, ये पहला काम नहीं हुआ है, इससे पहले नील नदी और उसके बाद सिन्धु नदी पर भी बाँध बना है और उन इलाकों की किसानी खत्म हुई है, नदियों को युद्ध के हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया है.
आज भारत में गाँव और शहर एक बड़े कनफ्लिक्ट में हैं. शहर जहाँ सिर्फ सीमा की तरफ़ देख रहे है और गाँव को निचोड़ रहे हैं, वहीँ भारत के गाँव आज शहरों से कटते जा रहे हैं.
भारत की पालिसी में कुछ चीज़ें निश्चित रूप से आनी होंगी..
1. एक्सपोर्ट ओरिएंटेड नीति की जगह अंतर्मुखी नीति पर ध्यान देना, जैसा कि कलाम जी ने कहा था.
2. किसानी की ओर जोर देना और ज्यादा से ज्यादा लोगों को किसानी की ओर मोड़ना होगा, फार्म से सर्विस की नीति अमेरिका में भी बुरी तरह से फ़ैल हुई है. हमारे यहाँ किसानी, काश्तकारी से जुड़े काफी आजीविका के साधन हो सकते हैं. एम्प्लॉयमेंट की जगह आजीविका के बारे में बात की जाए.
3. स्कूली और कॉलेज स्तर पर भी अनिवार्य रूप से खेती और ज़मीन से जुड़े कोर्स कराए ही जाएँ, जो स्थानीय खेतों से संलग्न हों. पानी के सिस्टम से जुड़े हुए हों.
4. शास्त्री जी ने “जय जवान और जय किसान”, जो बोला था, नीतियां और संसाधनों का इस्तेमाल इन्ही को नज़र में रख कर किया जाए. नौकरियां या आजीविका इन्हीं के आस आस हों और कॉल सेंटर इत्यादि पर आधारित ना हों.
आमजन के लिए सुझाव -
आम लोगों को मैं इतना ही बोलना चाहूँगा..
- स्थिति बड़ी विकट है, आप अपना उपभोग कम करें.
- बड़ा ही सोच समझ कर टिकाऊ सामान अपने स्थानीय व्यापारी से ही खरीदें.
- अपने आस पास की उपभोग की चीज़ों के बारे में समझे और सोचें कि इनका प्रभाव मेरी नदियों पर और मेरे देश के अर्थशास्त्र पर कितना होगा? उदहारण, डिटर्जेंट का इस्तेमाल करें या फिर कोई और तरीका भी हो सकता है, पुराने लोग क्या करते थे?
- अध्यात्म का ध्यान रखें, दिखावे का नहीं – गणेश पूजा में अगर हम उनकी प्रज्ञा और चेतना लेंगे तो कभी भी प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्ति नहीं खरीदेंगे और उसे नदियों में नहीं डालेंगे.
- नज़र रखें और सवाल पूछें.
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