“पूर्व दिशा से मेघ उठे हैं, पुरवैया चल पड़ी
है.
पानी के आसार को देखकर,
गोरैया पंख फुलाकर,
सोंधी गंधवाली धूल में लोटने लगी है.”
- शिव बहादुर सिंह
भदौरिया (नवगीत, “पानी के आसार)
भारत के कवियों ने जिस तरह वर्षा की व्याख्या की है, उससे
एक बात तो साफ़ है कि बारिश प्रकृति की सबसे अनूठी नियामतों में से एक है, जिसकी
प्रतीक्षा केवल मनुष्य को ही नहीं बल्कि जीव-जंतुओं, नदियों, पर्वतों, जंगलों
इत्यादि सभी को रहती है. जिस जल के बिना जीवन नहीं, उसी जल की जननी है वर्षा.
वैसे तो मानसूनी जलवायु वाले हमारे देश में वर्षा ऋतु का
प्रारंभ मध्य जून से ही दक्षिण भारत में हो जाता है, किन्तु जुलाई के माह को वर्षा
ऋतु का आरंभिक माह माना जाता है..क्योंकि इस समय तक मानसूनी मेघ देश के कोने कोने
तक पहुंच चुके होते हैं.
यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो जाने माने रोमन राजनीतिज्ञ “जूलियस सीजर” के नाम
पर जुलाई माह को नाम मिला और साथ ही जुलाई माह को यूएसए, अर्जेंटीना, वेनेजुएला,
मालद्वीप, द बहामास आदि देशों के स्वतंत्रता मंथ के तौर पर भी जाना जाता है. साथ
ही उत्तरी गोलार्द्ध के अधिकतर देशों में यह महीना प्रखर गर्मी के दूसरे माह के
रूप में देखा जाता है, तो वहीँ भारत, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान
जैसे देशों में इस अवधि के दौरान मानसूनी वर्षा होती है. यानि जुलाई को ऋतू
परिवर्तन के सूचक और मानसून के आगमन का सन्देश लिए एक ऐसा महीना कह सकते हैं,
जिसमें ग्रीष्म ऋतू की भयंकर गर्मी से त्रस्त धरा शीतल वर्षा जल की फुहार पाकर चहक
उठती है.
प्रखर सूर्य किरणों का ताप झेलकर रुक्ष्ण हुई धरती को जुलाई माह में मानो
नवजीवन मिल जाता है, किन्तु जुलाई में आने वाले मौसमी परिवर्तन से हमारा शरीर भी अनभिज्ञ
नहीं रह पाता और हम अक्सर मौसमी रोगों के शिकार हो जाते हैं. यदि इस मौसमी बदलाव के साथ साथ हम अपनी दिनचर्या, ऋतुचर्या और आहार-विहार शैली
में परिवर्तन नहीं लाते तो इसका परिणाम हमारे स्वास्थ्य को भी भुगतना पड़ता है. तो
आइये बैलटबॉक्सइंडिया के जुलाई माह विशेषांक के अंतर्गत जाने कैसे जुलाई माह में
अपने आहार-विहार, दैनिकचर्या आदि में थोडा सा परिवर्तन लाते हुए हम स्वस्थ बने रह
सकते हैं और वर्षा का आनंद खुलकर ले सकते हैं.
1. जुलाई माह में भारतीय जलवायु संरचना एवं शारीरिक परिवर्तन
जुलाई यानि हिंदी कैलेंडर के आषाढ़ माह के अंतर्गत दक्षिण में केरला से लेकर
उत्तर में हिमालय तक; पश्चिम में राजस्थान के मरुस्थल से लेकर पूर्व में सिक्किम
तक मानसूनी मेघ सक्रियता के साथ वर्षा लाते हैं. उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों जैसे दिल्ली, हरियाणा, पंजाब आदि भी इस वर्षा से
अछूते नहीं रहते. इसी कारण जुलाई को कृषि के लिए सर्वोत्तम माह माना जाता है, भारत
में अधिकतम कृषि व्यवस्था का दारोमदार इन मेघों पर ही तो टिका है.
वर्षा के होने से गर्मी में कमी आती है और पारा 5-10 डिग्री सेल्सियस तक लुढ़क
जाता है. परन्तु इस मौसम में अक्सर आद्रता यानि ह्यूमिडिटी बढ़ जाती है, जिसका
प्रभाव शरीर की प्राकृतिक शीतलन क्षमता पर पड़ता है. नतीजतन पसीने का वाष्पीकरण सही
से नहीं हो पाने के कारण हमे गर्मियों की अपेक्षा इस मौसम में एकाएक बेहद तेज
गर्मी का एहसास होता है. साथ ही विभिन्न संक्रामक रोगों की अधिकता वर्षा ऋतु में
देखने को मिलती है, क्योंकि शरीर की प्रतिरोधन क्षमता ऋतुपरिवर्तन के समय
स्वाभाविक रूप से कमजोर रहती है.
जलवायु में हुए व्यापक परिवर्तन के कारण हमारे शरीर में भी
इस माह में बहुत से परिवर्तन होते हैं, जैसे..
1. धीमी पाचन गति
2. शारीरिक उर्जा में ह्रास
3. शरीर में इलेक्ट्रोलाइट असंतुलन
4. अधिक थकान एवं कमजोरी महसूस करना
5. कमजोर इम्यून सिस्टम
6. संक्रामक रोगों का अधिक खतरा
2. जुलाई माह में आहारचर्या –
जलवायु में परिवर्तन आने से हमारे शारीरिक क्रिया-कलाप, खान-पान के
तरीकों आदि पर भी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है. हमारी परंपरागत आयुर्वेदिक नियमावली
के अनुसार वर्षा का समय ऋतु परिवर्तन का द्योतक होता है, ऐसे में हमारी पाचन अग्नि
धीमी गति से कार्य करती है और शरीर को सभी रस उचित प्रकार से नहीं मिल पाने के
कारण हमारी रोगों से लड़ने की क्षमता भी इस अवधी में धीमी हो जाती है. ऐसे में
आवश्यक है कि हमारा आहार मौसमी, ताजा, सुपाच्य और नियमित हो.
वर्षाकाल में भोजन का सबसे बड़ा नियम तो यही है कि बासी, दूषित और अधिक ठंडे
खाद्य पदार्थों के सेवन से बचा जाये. चूंकि बारिश के साथ ही कीटों की संख्या बेहद
बढ़ जाती है, इसलिए हरी पत्तेदार सब्जियों जैसे पालक, बथुआ, पत्तागोभी आदि के सेवन
में विशेष सावधानी बरततें हुए इनका सेवन ताजे रूप में और नमक युक्त गर्म पानी से धोकर
ही करना चाहिए, जिससे ये कीटमुक्त रहें.
शरीर को ताजगी प्रदान करती मौसमी सब्जियां –
लौकी/घीया – भरपूर मात्रा में जलतत्त्व से परिपूर्ण लौकी अधिकतर भारत
में भाजी, रायता, सांभर, खीर, पुलाव इत्यादि
के रूप में खाई जाती है. मधुमेह के रोगियों के लिए वरदान लौकी के सेवन से
कोलेस्ट्रोल नहीं बढ़ता और पाचन क्षमता अच्छी रहती है.
तोरई – तोरई जिसे ‘तुरई’ व ‘तुरूई’ के नाम से भी
जाना जाता है. यह सर्वत्र भारतवर्ष में सब्जी के रूप में प्रयोग की जाती है.
आयुर्वेद के अनुसार यह पित्त व कफ़ दोष को समाप्त करती है. एंटी-वायरल एवं एंटी फंगल
गुणों से युक्त तोरई शरीर को डिहाइड्रेट नहीं होने देते और लीवर एवं पेट के रोगों
में बेहद लाभप्रद है.
परवल - डाइट्री फाइबर्स से भरपूर परवल पाचन क्षमता के लिए
उपयोगी के लिए तो उपयोगी है ही, साथ ही यह इम्यून सिस्टम को बूस्ट करने में भी
सहायक है.
करौंदा – उत्तर और उत्तर पश्चिमी भारत में विशेष रूप से
अचार, चटनी, भाजी इत्यादि के तौर पर सेवन किये जाने वाला करौंदा विभिन्न संक्रामक
रोगों से लड़ने की ताकत शरीर को प्रदान करता है.
सहजन - औषधीय गुणों से भरपूर सहजन कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, कैल्शियम, पोटेशियम, आयरन, मैग्नीशियम और
विभिन्न ग्रुप्स की विटामिन्स से युक्त होता है, जिससे श्वसन रोगों, संक्रामक एवं
नेत्र रोगों में बेहद लाभ मिलता है.
मौसमी फलों से पाएं शारीरिक स्फूर्ति :
वर्षा के मौसम में पसीना बेहद धीमी गति से वाष्पित होता है,
जिसके चलते शरीर अधिक थका हुआ और ऊर्जाविहीन महसूस करता है. ऐसे में पोषक तत्वों
से युक्त फल जैसे केला, लीची, आलूबुखारा, आडू, नाशपाती आदि भारतीय बाजारों में दिखने आरम्भ हो जाते हैं.
इनके नियमित सेवन से हम अंदरूनी तौर पर मजबूत बने रह सकते हैं और मौसमी रोगों को
कुदरती तौर पर दूर सकते हैं.
1. आडू – खट्टा-मीठा आडू
यानि पीच विभिन्न पोषक तत्वों और एंटी ऑक्सीडेंटस का खजाना है. यह रक्त-परिसंचरण
को गति देकर आँखों की रोशनी बढ़ाता है, गुर्दे, पेट एवं लीवर से विषाक्त तत्वों को बाहर कर
पाचन प्रक्रिया को दुरुस्त रखता है और उच्च फाइबर के चलते कब्ज में भी राहत प्रदान
करता है.
2. लीची - लगभग 90 प्रतिशत पानी की मात्रा से
युक्त लीची में विटामिन ए-बी काम्प्लेक्स-सी, कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम, मैग्नीशियम, फॉसफोरस के चलते
पेट के हानिकारक टोक्सिंस को दूर करती है और मौसमी फ्लू से लड़ने के लिए हमारी
प्रतिरक्षा प्रणाली को भी मजबूत करती है.
3. आलूबुखारा – आलूबुखारा, जिसे प्लम के नाम से भी जाना जाता है, बहुत से पोषक तत्वों से भरपूर है. आलूबुखारा में मौजूद पोटैशियम, डाइटरी फाइबर, एंथोसाईनिन जैसे तत्त्व तो पाए जाते ही हैं, साथ ही आलूबुखारा में कार्बोहाइड्रेट की अधिक
तथा कैलोरी और फैट की मात्रा बहुत कम होती है. फ्लोरिडा एवं
ओक्लाहोमा यूनिवर्सिटी में हुई रिसर्च के अनुसार इसमें
मौजूद कैल्शियम इसे हड्डियों के स्वास्थ्य के लिए खास बनाता है.
4. केला - केला शरीर को तुरंत एनर्जी देने में लाभप्रद एवं
मष्तिष्क को रिलैक्स महसूस कराता है. विशेषकर थोड़ी भी थकान महसूस करने पर केला
खाने से हम प्राकृतिक रूप से तरोताजा महसूस करते हैं.
5. नाशपाती - नाशपाती हमारी वाइट ब्लड सेल्स के उत्पादन को
उत्तेजित कर उनकी गतिविधियों को बढाता है, जिससे शरीर में नया खून बनता है और
प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत होकर मौसमी बीमारियों से बचाव होने में प्राकृतिक रूप से
मदद मिलती है.
3. प्राकृतिक ऋतुचर्या से संवारे सेहत -
उत्तम स्वास्थ्य, उत्तम दिनचर्या का दर्पण होता है, इसलिए आवश्यक है कि हम
ऋतुनुसार अपनी रोजमर्रा की जीवनशैली में थोडा बदलाव लायें, समय पर सोने और
प्रात:काल जल्दी उठने का प्रयास करें. दिन में सोने से बचें.
आयुर्वेदिक नियमावली के अनुसार वर्षा ऋतु के समय वात दोष अत्याधिक रहता है और
जठराग्नि मंद रहती है, इसलिए नियमित दिनचर्या का पालन अत्याधिक आवश्यक हो जाता है.
इस ऋतु में आरम्भ से ही कुछ विशेष सावधानियां बरतनी चाहिए, जिससे हमारा
शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य उत्तम रहे, मसलन;
1. दूषित भोजन और जल के सेवन से बचें. केवल उबला हुआ या फिल्टर्ड पानी पियें
और सड़क किनारे बिक रहे कटे फलों या आहार का सेवन कदापि न करें.
2. वर्षा का समय कीटों के प्रजनन की अवधि मानी जाती है, इसलिए इस समय मक्खी,
मच्छर, जहरीले कीटों की अधिकता रहती है. ऐसे में आस-पास पानी का ठहराव न होने दें.
3. कीटों को दूर रखने के लिए प्राकृतिक कीटनाशकों का छिडकाव किया जा सकता है, जिनमें
नीम का तेल, नीलगिरी का तेल, नमक का स्प्रे इत्यादि शामिल है. आप सूखी नीम की
पत्तियों और गुग्गल आदि को मिलाकर धूपन कर सकते हैं, इससे मच्छरों से बचाव होता
है.
4. शरीरिक स्वच्छता पर विशेष ध्यान दें, गोयाकि बारिश में चर्म रोगों की
अधिकता देखी गयी है, इससे बचाव के लिए स्नान जल में नींबू का रस, नीम के तेल की
कुछ बूंदों का प्रयोग करें.
5. हल्के सूती वस्त्र पहने और अधिक देर के लिए भीगे न रहें.
4. जुलाई माह में योगा एवं प्राणायाम –
जुलाई माह में उमस काफी अधिक होती है, जिसके कारण कठिन श्रम करने के लिए मना
किया जाता है. अत्याधिक आद्रता के चलते तापमान कम होने पर भी पसीना नहीं सूखता,
यानि ज्यादा परिश्रम वाले व्यायाम करने से शरीर को अपना तापमान स्थिर करने में
काफी समय लग सकता है, जो सेहत के लिहाज से सही नहीं है.
परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि आप सक्रिय रहना त्याग दें, आप हल्के
व्यायामों जैसे साइकिलिंग, टहलना आदि के द्वारा खुद को दुरुस्त बनाये रख सकते हैं.
साथ ही नाडी शोधक प्राणायाम, कपालभांति, भ्रामरी, उद्धव गीत आदि के अभ्यास से शरीर
में रक्त परिसंचरण को बेहतर बनाने के साथ साथ मस्तिष्क को तरोताजा भी रख सकते हैं.
आगे ऐसे ही कुछ व्यायाम, प्राणायाम आदि की चर्चा की गयी है, जिनके द्वारा आप
सेहतमंद बने रह सकते हैं;
1. साइकिलिंग –
साइकिलिंग करना एक बेहद मनोरंजक और सरल व्यायाम है, जिसके मात्र 15 मिनट
रोजाना अभ्यास से आप न केवल तंदरुस्त शरीर बल्कि मजबूत मानसिक क्षमता भी पा सकते
हैं. अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुई रिसर्च के अनुसार नियमित रूप से
साइकिल चलाने से हमारी बॉडी और ब्लड सेल्स में ऑक्सीजन की भरपूर आपूर्ति होती है,
जिससे हम कईं बीमारियों से दूर रहते हैं.
2. सुबह-शाम टहलना –
शरीर को फिट एंड फाइन बनाए रखने के लिए सुबह शाम टहलने को सबसे अच्छा विकल्प
माना जाता है. अक्सर आलस के कारण हम टहलना जरूरी नहीं समझते, किन्तु रोजाना मात्र
आधा घंटा खुली हवा में टहलने से आप मधुमेह, थाइरोइड, असामान्य रक्तचाप जैसे रोगों
से खुद को दूर रख सकते हैं.
3. नाडी शोधक प्राणायाम –
अनुलोम विलोम यानि नाडी शोधक प्राणायाम हमारे श्वसन तंत्र
को सुचारू करता है और इसे एक लय में लेकर आता है जिससे शरीर स्वस्थ होता है.
4. कपालभांति प्राणायाम –
इस प्राणायाम में साँस को नासिका द्वारा जोर से छोड़ा जाता
है. इसके अभ्यास से हमारी श्वसन नलिका में उपस्थित अवरोध खुल जाते है, जिससे साँसों
का आवागमन आसान हो जाता है.
5. भ्रामरी प्राणायाम –
इसमें दोनों हाथों से हल्के से आंखें और कान बंद करके श्वास
भरते हुए मधुमक्खी के समान आवाज की जाती है. इस क्रिया का 5-8 बार अभ्यास किया
जाना चाहिए.
6. उद्धव गीत –
ध्यान मुद्रा में बैठकर ओम शब्द के गहन उच्चारण के द्वारा
मस्तिष्क को एकाग्र करने का प्रयास करना उद्धव गीत प्राणायाम है. भ्रामरी के बाद
इसका अभ्यास करना इसे सेहत के लिए अधिक लाभदायक बना देता है.
इन सभी के अतिरिक्त कुछ यौगिक मुद्राओं का अभ्यास भी सेहत
के लिए जरुरी है. जिन्हें रोजाना कुछ समय करने से शारीरिक और मानसिक सेहत दुरुस्त
होती है.
5. जुलाई माह में होने वाले रोग और उनके आयुर्वेदिक निदान –
बारिश का मौसम एक और जहां अपने साथ हर्षोल्लास लेकर आता है,
वहीं जरा सी असावधानी से यह हमारे लिए गंभीर रोगों का प्रवेश द्वार भी बन सकता है.
जैसे बारिश के मौसम में
तापमान कम-ज्यादा लगा ही रहता है और नमी अत्याधिक बढ़ जाती है.
इसके साथ ही बढ़ जाते हैं बारिश से जुड़े रोग भी, मसलन हैजा, टाइफाइड,
इन्फ्लुएंजा, हेपेटाइटिस-ए, चर्म रोग, मौसमी बुखार इत्यादि. जिन्हें होने से रोकना
सबसे पहला उपाय होना चाहिए, किन्तु फिर भी यदि किसी रोग के शिकार हो जायें तो
चिकित्सकीय परामर्श के साथ साथ निम्नांकित आयुर्वेदिक उपायों का प्रयोग किया जा
सकता है.
1. हैजा –
विब्रियो कोलेर नामक एक जीवाणु से दूषित भोजन या पीने के
पानी के कारण हुआ कोलेरा या हैजा एक गंभीर संक्रामक रोग है, जिसमें वोमिटिंग, लूज
मोशन, तीव्र हृदय गति, मासपेशियों में ऐंठन इत्यादि लक्षण होते है और शरीर में
पानी की कमी से रोगी की मृत्यु तक हो सकती है. हालांकि डॉक्टरी परामर्श इस रोग का
सर्वप्रथम निदान है, तथापि इसके साथ ही कुछ साधारण उपाय भी अमल में लाये जा सकते
हैं.
2. इन्फ्लुएंजा –
आरएनए वायरस के कारण हुई इस बीमारी को मौसमी फ्लू भी कहा जाता है, यह अक्सर
ऋतु परिवर्तन के दौरान कमजोर प्रतिरोधक क्षमता वाले लोगों को अपनी चपेट में लेती है
और संक्रामक होने के चलते फैलती है. इससे ग्रसित रोगियों में बुखार, खांसी, जी
मिचलाना, असामान्य रक्तचाप, कमजोरी मुख्य लक्षण हैं. इससे बचाव के लिए कुछ प्राकृतिक उपायों का प्रयोग किया जा सकता है.
3. हेपेटाइटिस –ए –
हेपेटाइटिस–ए बैक्टीरियाजनित रोगों में से एक है, जो हमारे लीवर पर आघात करता
है. इसके प्रमुख लक्षणों में भूख न लगना, जी मिचलाना, अपच, पीलिया, बुखार इत्यादि
हैं. इसका सर्वोत्तम निदान चिकित्सकीय सलाह से हेपेटाइटिस ए
टीका लेना है, जो किसी भी आयु वर्ग के लोग ले सकते हैं. साथ ही आरंभिक लक्षण दिखते
ही इसका इलाज कराना बेहद आवश्यक है, अन्यथा यह जानलेवा हो सकता है. इसके बचाव के
लिए सावधानियां बरतनी चाहिए.
4. टाइफाइड –
टाइफाइड एक ऐसी बीमारी है, जो साल्मोनेला टाइफीमुरियम बैक्टीरिया के कारण
होती है, यह जीवाणु
मनुष्यों के रक्त प्रवाह और आंत में रहता है. दूषित भोजन और पानी के स्रोत
बैक्टीरिया के प्रजनन स्थल बन जाते हैं, इसी कारण गर्मियों में यह रोग अधिकतर फैलता है. टाइफाइड के
प्रमुख लक्षणों में कमजोरी,
भूख कम लगना, थकान, पेट में दर्द, तेज बुखार आदि
हैं.
5. चर्म रोग –
वर्षा के दिनों में ज्यादा देर तक गीले कपड़ों या नमीयुक्त वातावरण में रहने से
दाद और खुजली जैसे स्किन रोगों की आशंका बढ़ जाती है. साथ ही गन्दा पानी भी स्किन
रेशेज का कारण बनता है. जिससे त्वचा में खुजली, दाने इत्यादि हो जाते हैं और समय
पर उपचार नहीं करने से ये दाने बैक्टीरिया ग्रस्त होकर गंभीर रोग में तब्दील हो
जाते हैं.
6. जल का संचयन और संवर्धन कर दें वर्षा को सम्मान
वर्षा उस अतिथि की भांति है, जो जल रूपी उपहार लाकर आपके
तन-मन को प्रफुल्लित कर देती है. वो मानसूनी मेघ जो निश्छल रूप से आपसे मिलने आते
हैं. क्या आपने कभी सोचा कि बदले में इन्हें क्या दिया जाये? आपका जवाब होगा..शायद
कभी नहीं. बारिश प्राकृतिक उर्वरता का केंद्रीय बिंदु है, तो सोचिये इसका सुनियोजन
होना कितना आवश्यक है. वर्षा जल को सुनियोजित करना ही इसके प्रति सम्मान और आत्मिक
भाव दर्शाना है. आज भारत में पूरे वर्ष होने वाली वर्षा का मात्र 8 फीसदी हिस्सा
ही संरक्षित हो पाता है और वह भी उस समय जब बुंदेलखंड, राजस्थान, गुजरात, उत्तर
प्रदेश, आंध्र प्रदेश इत्यादि समेत अन्य क्षेत्र भी भयंकर सूखे की मार झेल रहे
हैं.
तो अधिक देरी किये बिना क्यों न इस अतिथि को सम्मान दिया
जाये, क्यों न वर्षा के जल का बेहतर संचयन किया जाये. केवल सरकार पर निर्भर रहने
के कुछ छोटे-छोटे प्रयास अपने स्तर पर भी हमें प्रारंभ करने होंगे.
यदि ग्रामवासी हैं, तो आप क्या करें?
1. वर्षा जल के पुनर्भरण एवं संचयन के लिए सामुदायिक
प्रयासों से पहल करें.
2. गांवों में उपस्थित कुंओं के गहरीकरण की व्यवस्था
संयुक्त रूप से की जा सकती है.
3. गांव में खाली पड़े स्थान को चिन्हित करें और उसे
सामुदायिक तालाब के रूप में इस्तेमाल योग्य बनाये. इससे भूजल भी रिचार्ज होगा.
4. अपने घरों की छतों पर जमा बारिश के पानी को पुन: उपयोग
के लिए एकत्रित करने के उद्देश्य से टैंक आदि की व्यवस्था करें.
5. सामुदायिक श्रमदान के माध्यम से ट्रेंच (छोटी छोटी
नालियां) बनाकर भी वर्षा जल को संचित कर भूजल रिचार्ज किया जा सकता है.
6. कूड़े का ढेर बन चुके जोहड़ या ताल को नया स्वरुप देने की
कोशिश करें, अन्यथा इनके संरक्षण के लिए सरकार से अपील करें.
7. ग्राम पंचायत के सदस्य मिलकर जल संग्रहण तकनीकों की
जानकारी सरकारी सहायता से लें सकते है, साथ ही आर्थिक अनुदान की अपील भी कर सकते
हैं.
यदि आपको लग रहा है, कि यह सब मुमकिन नहीं तो आप गलत हैं,
क्योंकि बुंदेलखंड जैसे सूखे ग्रसित इलाके में दतिया प्रखंड के हमीरपुर गांव में
आम जन के इन्हीं सब प्रयासों से न केवल जलसंकट की विभीषिका कम हुई है, बल्कि भूजल
स्तर भी बढ़ा है.
यदि शहरी हैं, तो कैसे करें जल संरक्षण?
1. वर्षा जल संचयन के लिए ढांचे बनाए जाये, जिनके जरिये
वर्षा जल छतों से एक नाली के माध्यम से जमा हो सके और भूजल में वृद्धि हो सकें.
2. निजी स्तर पर उपयोग के लिए ढलान तकनीक से पानी को किसी
टैंक में जमा किया जा सकता है, बड़े अपार्टमेंट्स में यह तकनीक लाभदायक सिद्ध हो
सकती है.
3. विद्यालयों, कार्यालयों अथवा सामुदायिक भवनों की छतों पर
संयुक्त रूप से टैंक की व्यवस्था की जा सकती है, जिसमें बड़े स्तर पर पानी जमा किया
जा सके.
4. अपने स्थानीय पार्षद एवं विधायक से अनुग्रह करें कि वें
सडक निर्माण के समय कुछ स्थान वर्षा जल पुनर्भरण के लिए अवश्य ही रखें, जिससे
भूमिगत जल का स्तर बना रह सके.
5. किसी भी जन जागरूकता अभियान का हिस्सा बनें, जिसमें
नदियों के आस पास के क्षेत्र को अतिक्रमण से मुक्त करा उसे वर्षा जल संचयन के लिए
विकसित किया जा सके.
6. अपने आस पास हो रहे नव निर्माणों के अंतर्गत लोगों को
वाटर हार्वेस्टिंग तकनीक का प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित करें, उन्हें उदाहरण
देकर इसका महत्व समझाएं.
असंभव कुछ भी नहीं, आवश्यकता है तो बस एक पहल करने की और
यकीन मानिये आप कर सकते हैं. सोचिये जब न्यूज़ीलैंड जैसा देश मात्र वर्षा जल संचयन
से अपने नागरिकों की जलापूर्ति कर सकता है, तो भारत क्यों नहीं.
अत: स्वयं को और वर्षा जल को सुनियोजित करें, व्यवस्थित
करें. प्रकृति के अनुरूप ढलने का प्रयत्न करें और आप पाएंगे उत्तम स्वास्थ्य,
विकसित परिवेश, लोकमंगल से पूरित विचारधारा और संयमित जीवनशैली. तो इस मानसून
स्वयं को अनुपम स्वास्थ्य की बौछारों में भीगने दें और प्रकृति को सम्मान देने के
क्रम में अपना छोटा सा योगदान अवश्य दें.
By Deepika Chaudhary Contributors Kavita Chaudhary {{descmodel.currdesc.readstats }}
- शिव बहादुर सिंह भदौरिया (नवगीत, “पानी के आसार)
भारत के कवियों ने जिस तरह वर्षा की व्याख्या की है, उससे एक बात तो साफ़ है कि बारिश प्रकृति की सबसे अनूठी नियामतों में से एक है, जिसकी प्रतीक्षा केवल मनुष्य को ही नहीं बल्कि जीव-जंतुओं, नदियों, पर्वतों, जंगलों इत्यादि सभी को रहती है. जिस जल के बिना जीवन नहीं, उसी जल की जननी है वर्षा.
वैसे तो मानसूनी जलवायु वाले हमारे देश में वर्षा ऋतु का प्रारंभ मध्य जून से ही दक्षिण भारत में हो जाता है, किन्तु जुलाई के माह को वर्षा ऋतु का आरंभिक माह माना जाता है..क्योंकि इस समय तक मानसूनी मेघ देश के कोने कोने तक पहुंच चुके होते हैं.
यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो जाने माने रोमन राजनीतिज्ञ “जूलियस सीजर” के नाम पर जुलाई माह को नाम मिला और साथ ही जुलाई माह को यूएसए, अर्जेंटीना, वेनेजुएला, मालद्वीप, द बहामास आदि देशों के स्वतंत्रता मंथ के तौर पर भी जाना जाता है. साथ ही उत्तरी गोलार्द्ध के अधिकतर देशों में यह महीना प्रखर गर्मी के दूसरे माह के रूप में देखा जाता है, तो वहीँ भारत, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान जैसे देशों में इस अवधि के दौरान मानसूनी वर्षा होती है. यानि जुलाई को ऋतू परिवर्तन के सूचक और मानसून के आगमन का सन्देश लिए एक ऐसा महीना कह सकते हैं, जिसमें ग्रीष्म ऋतू की भयंकर गर्मी से त्रस्त धरा शीतल वर्षा जल की फुहार पाकर चहक उठती है.
प्रखर सूर्य किरणों का ताप झेलकर रुक्ष्ण हुई धरती को जुलाई माह में मानो नवजीवन मिल जाता है, किन्तु जुलाई में आने वाले मौसमी परिवर्तन से हमारा शरीर भी अनभिज्ञ नहीं रह पाता और हम अक्सर मौसमी रोगों के शिकार हो जाते हैं. यदि इस मौसमी बदलाव के साथ साथ हम अपनी दिनचर्या, ऋतुचर्या और आहार-विहार शैली में परिवर्तन नहीं लाते तो इसका परिणाम हमारे स्वास्थ्य को भी भुगतना पड़ता है. तो आइये बैलटबॉक्सइंडिया के जुलाई माह विशेषांक के अंतर्गत जाने कैसे जुलाई माह में अपने आहार-विहार, दैनिकचर्या आदि में थोडा सा परिवर्तन लाते हुए हम स्वस्थ बने रह सकते हैं और वर्षा का आनंद खुलकर ले सकते हैं.
जुलाई यानि हिंदी कैलेंडर के आषाढ़ माह के अंतर्गत दक्षिण में केरला से लेकर उत्तर में हिमालय तक; पश्चिम में राजस्थान के मरुस्थल से लेकर पूर्व में सिक्किम तक मानसूनी मेघ सक्रियता के साथ वर्षा लाते हैं. उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों जैसे दिल्ली, हरियाणा, पंजाब आदि भी इस वर्षा से अछूते नहीं रहते. इसी कारण जुलाई को कृषि के लिए सर्वोत्तम माह माना जाता है, भारत में अधिकतम कृषि व्यवस्था का दारोमदार इन मेघों पर ही तो टिका है.
वर्षा के होने से गर्मी में कमी आती है और पारा 5-10 डिग्री सेल्सियस तक लुढ़क जाता है. परन्तु इस मौसम में अक्सर आद्रता यानि ह्यूमिडिटी बढ़ जाती है, जिसका प्रभाव शरीर की प्राकृतिक शीतलन क्षमता पर पड़ता है. नतीजतन पसीने का वाष्पीकरण सही से नहीं हो पाने के कारण हमे गर्मियों की अपेक्षा इस मौसम में एकाएक बेहद तेज गर्मी का एहसास होता है. साथ ही विभिन्न संक्रामक रोगों की अधिकता वर्षा ऋतु में देखने को मिलती है, क्योंकि शरीर की प्रतिरोधन क्षमता ऋतुपरिवर्तन के समय स्वाभाविक रूप से कमजोर रहती है.
जलवायु में हुए व्यापक परिवर्तन के कारण हमारे शरीर में भी इस माह में बहुत से परिवर्तन होते हैं, जैसे..
1. धीमी पाचन गति
2. शारीरिक उर्जा में ह्रास
3. शरीर में इलेक्ट्रोलाइट असंतुलन
4. अधिक थकान एवं कमजोरी महसूस करना
5. कमजोर इम्यून सिस्टम
6. संक्रामक रोगों का अधिक खतरा
जलवायु में परिवर्तन आने से हमारे शारीरिक क्रिया-कलाप, खान-पान के तरीकों आदि पर भी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है. हमारी परंपरागत आयुर्वेदिक नियमावली के अनुसार वर्षा का समय ऋतु परिवर्तन का द्योतक होता है, ऐसे में हमारी पाचन अग्नि धीमी गति से कार्य करती है और शरीर को सभी रस उचित प्रकार से नहीं मिल पाने के कारण हमारी रोगों से लड़ने की क्षमता भी इस अवधी में धीमी हो जाती है. ऐसे में आवश्यक है कि हमारा आहार मौसमी, ताजा, सुपाच्य और नियमित हो.
वर्षाकाल में भोजन का सबसे बड़ा नियम तो यही है कि बासी, दूषित और अधिक ठंडे खाद्य पदार्थों के सेवन से बचा जाये. चूंकि बारिश के साथ ही कीटों की संख्या बेहद बढ़ जाती है, इसलिए हरी पत्तेदार सब्जियों जैसे पालक, बथुआ, पत्तागोभी आदि के सेवन में विशेष सावधानी बरततें हुए इनका सेवन ताजे रूप में और नमक युक्त गर्म पानी से धोकर ही करना चाहिए, जिससे ये कीटमुक्त रहें.
शरीर को ताजगी प्रदान करती मौसमी सब्जियां –
लौकी/घीया – भरपूर मात्रा में जलतत्त्व से परिपूर्ण लौकी अधिकतर भारत में भाजी, रायता, सांभर, खीर, पुलाव इत्यादि के रूप में खाई जाती है. मधुमेह के रोगियों के लिए वरदान लौकी के सेवन से कोलेस्ट्रोल नहीं बढ़ता और पाचन क्षमता अच्छी रहती है.
तोरई – तोरई जिसे ‘तुरई’ व ‘तुरूई’ के नाम से भी जाना जाता है. यह सर्वत्र भारतवर्ष में सब्जी के रूप में प्रयोग की जाती है. आयुर्वेद के अनुसार यह पित्त व कफ़ दोष को समाप्त करती है. एंटी-वायरल एवं एंटी फंगल गुणों से युक्त तोरई शरीर को डिहाइड्रेट नहीं होने देते और लीवर एवं पेट के रोगों में बेहद लाभप्रद है.
परवल - डाइट्री फाइबर्स से भरपूर परवल पाचन क्षमता के लिए उपयोगी के लिए तो उपयोगी है ही, साथ ही यह इम्यून सिस्टम को बूस्ट करने में भी सहायक है.
करौंदा – उत्तर और उत्तर पश्चिमी भारत में विशेष रूप से अचार, चटनी, भाजी इत्यादि के तौर पर सेवन किये जाने वाला करौंदा विभिन्न संक्रामक रोगों से लड़ने की ताकत शरीर को प्रदान करता है.
सहजन - औषधीय गुणों से भरपूर सहजन कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, कैल्शियम, पोटेशियम, आयरन, मैग्नीशियम और विभिन्न ग्रुप्स की विटामिन्स से युक्त होता है, जिससे श्वसन रोगों, संक्रामक एवं नेत्र रोगों में बेहद लाभ मिलता है.
मौसमी फलों से पाएं शारीरिक स्फूर्ति :
वर्षा के मौसम में पसीना बेहद धीमी गति से वाष्पित होता है, जिसके चलते शरीर अधिक थका हुआ और ऊर्जाविहीन महसूस करता है. ऐसे में पोषक तत्वों से युक्त फल जैसे केला, लीची, आलूबुखारा, आडू, नाशपाती आदि भारतीय बाजारों में दिखने आरम्भ हो जाते हैं. इनके नियमित सेवन से हम अंदरूनी तौर पर मजबूत बने रह सकते हैं और मौसमी रोगों को कुदरती तौर पर दूर सकते हैं.
1. आडू – खट्टा-मीठा आडू यानि पीच विभिन्न पोषक तत्वों और एंटी ऑक्सीडेंटस का खजाना है. यह रक्त-परिसंचरण को गति देकर आँखों की रोशनी बढ़ाता है, गुर्दे, पेट एवं लीवर से विषाक्त तत्वों को बाहर कर पाचन प्रक्रिया को दुरुस्त रखता है और उच्च फाइबर के चलते कब्ज में भी राहत प्रदान करता है.
2. लीची - लगभग 90 प्रतिशत पानी की मात्रा से युक्त लीची में विटामिन ए-बी काम्प्लेक्स-सी, कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम, मैग्नीशियम, फॉसफोरस के चलते पेट के हानिकारक टोक्सिंस को दूर करती है और मौसमी फ्लू से लड़ने के लिए हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को भी मजबूत करती है.
3. आलूबुखारा – आलूबुखारा, जिसे प्लम के नाम से भी जाना जाता है, बहुत से पोषक तत्वों से भरपूर है. आलूबुखारा में मौजूद पोटैशियम, डाइटरी फाइबर, एंथोसाईनिन जैसे तत्त्व तो पाए जाते ही हैं, साथ ही आलूबुखारा में कार्बोहाइड्रेट की अधिक तथा कैलोरी और फैट की मात्रा बहुत कम होती है. फ्लोरिडा एवं ओक्लाहोमा यूनिवर्सिटी में हुई रिसर्च के अनुसार इसमें मौजूद कैल्शियम इसे हड्डियों के स्वास्थ्य के लिए खास बनाता है.
4. केला - केला शरीर को तुरंत एनर्जी देने में लाभप्रद एवं मष्तिष्क को रिलैक्स महसूस कराता है. विशेषकर थोड़ी भी थकान महसूस करने पर केला खाने से हम प्राकृतिक रूप से तरोताजा महसूस करते हैं.
5. नाशपाती - नाशपाती हमारी वाइट ब्लड सेल्स के उत्पादन को उत्तेजित कर उनकी गतिविधियों को बढाता है, जिससे शरीर में नया खून बनता है और प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत होकर मौसमी बीमारियों से बचाव होने में प्राकृतिक रूप से मदद मिलती है.
उत्तम स्वास्थ्य, उत्तम दिनचर्या का दर्पण होता है, इसलिए आवश्यक है कि हम ऋतुनुसार अपनी रोजमर्रा की जीवनशैली में थोडा बदलाव लायें, समय पर सोने और प्रात:काल जल्दी उठने का प्रयास करें. दिन में सोने से बचें.
आयुर्वेदिक नियमावली के अनुसार वर्षा ऋतु के समय वात दोष अत्याधिक रहता है और जठराग्नि मंद रहती है, इसलिए नियमित दिनचर्या का पालन अत्याधिक आवश्यक हो जाता है. इस ऋतु में आरम्भ से ही कुछ विशेष सावधानियां बरतनी चाहिए, जिससे हमारा शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य उत्तम रहे, मसलन;
1. दूषित भोजन और जल के सेवन से बचें. केवल उबला हुआ या फिल्टर्ड पानी पियें और सड़क किनारे बिक रहे कटे फलों या आहार का सेवन कदापि न करें.
2. वर्षा का समय कीटों के प्रजनन की अवधि मानी जाती है, इसलिए इस समय मक्खी, मच्छर, जहरीले कीटों की अधिकता रहती है. ऐसे में आस-पास पानी का ठहराव न होने दें.
3. कीटों को दूर रखने के लिए प्राकृतिक कीटनाशकों का छिडकाव किया जा सकता है, जिनमें नीम का तेल, नीलगिरी का तेल, नमक का स्प्रे इत्यादि शामिल है. आप सूखी नीम की पत्तियों और गुग्गल आदि को मिलाकर धूपन कर सकते हैं, इससे मच्छरों से बचाव होता है.
4. शरीरिक स्वच्छता पर विशेष ध्यान दें, गोयाकि बारिश में चर्म रोगों की अधिकता देखी गयी है, इससे बचाव के लिए स्नान जल में नींबू का रस, नीम के तेल की कुछ बूंदों का प्रयोग करें.
5. हल्के सूती वस्त्र पहने और अधिक देर के लिए भीगे न रहें.
जुलाई माह में उमस काफी अधिक होती है, जिसके कारण कठिन श्रम करने के लिए मना किया जाता है. अत्याधिक आद्रता के चलते तापमान कम होने पर भी पसीना नहीं सूखता, यानि ज्यादा परिश्रम वाले व्यायाम करने से शरीर को अपना तापमान स्थिर करने में काफी समय लग सकता है, जो सेहत के लिहाज से सही नहीं है.
परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि आप सक्रिय रहना त्याग दें, आप हल्के व्यायामों जैसे साइकिलिंग, टहलना आदि के द्वारा खुद को दुरुस्त बनाये रख सकते हैं. साथ ही नाडी शोधक प्राणायाम, कपालभांति, भ्रामरी, उद्धव गीत आदि के अभ्यास से शरीर में रक्त परिसंचरण को बेहतर बनाने के साथ साथ मस्तिष्क को तरोताजा भी रख सकते हैं. आगे ऐसे ही कुछ व्यायाम, प्राणायाम आदि की चर्चा की गयी है, जिनके द्वारा आप सेहतमंद बने रह सकते हैं;
1. साइकिलिंग –
साइकिलिंग करना एक बेहद मनोरंजक और सरल व्यायाम है, जिसके मात्र 15 मिनट रोजाना अभ्यास से आप न केवल तंदरुस्त शरीर बल्कि मजबूत मानसिक क्षमता भी पा सकते हैं. अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुई रिसर्च के अनुसार नियमित रूप से साइकिल चलाने से हमारी बॉडी और ब्लड सेल्स में ऑक्सीजन की भरपूर आपूर्ति होती है, जिससे हम कईं बीमारियों से दूर रहते हैं.
2. सुबह-शाम टहलना –
शरीर को फिट एंड फाइन बनाए रखने के लिए सुबह शाम टहलने को सबसे अच्छा विकल्प माना जाता है. अक्सर आलस के कारण हम टहलना जरूरी नहीं समझते, किन्तु रोजाना मात्र आधा घंटा खुली हवा में टहलने से आप मधुमेह, थाइरोइड, असामान्य रक्तचाप जैसे रोगों से खुद को दूर रख सकते हैं.
3. नाडी शोधक प्राणायाम –
अनुलोम विलोम यानि नाडी शोधक प्राणायाम हमारे श्वसन तंत्र को सुचारू करता है और इसे एक लय में लेकर आता है जिससे शरीर स्वस्थ होता है.
4. कपालभांति प्राणायाम –
इस प्राणायाम में साँस को नासिका द्वारा जोर से छोड़ा जाता है. इसके अभ्यास से हमारी श्वसन नलिका में उपस्थित अवरोध खुल जाते है, जिससे साँसों का आवागमन आसान हो जाता है.
5. भ्रामरी प्राणायाम –
इसमें दोनों हाथों से हल्के से आंखें और कान बंद करके श्वास भरते हुए मधुमक्खी के समान आवाज की जाती है. इस क्रिया का 5-8 बार अभ्यास किया जाना चाहिए.
6. उद्धव गीत –
ध्यान मुद्रा में बैठकर ओम शब्द के गहन उच्चारण के द्वारा मस्तिष्क को एकाग्र करने का प्रयास करना उद्धव गीत प्राणायाम है. भ्रामरी के बाद इसका अभ्यास करना इसे सेहत के लिए अधिक लाभदायक बना देता है.
इन सभी के अतिरिक्त कुछ यौगिक मुद्राओं का अभ्यास भी सेहत के लिए जरुरी है. जिन्हें रोजाना कुछ समय करने से शारीरिक और मानसिक सेहत दुरुस्त होती है.
बारिश का मौसम एक और जहां अपने साथ हर्षोल्लास लेकर आता है, वहीं जरा सी असावधानी से यह हमारे लिए गंभीर रोगों का प्रवेश द्वार भी बन सकता है. जैसे बारिश के मौसम में तापमान कम-ज्यादा लगा ही रहता है और नमी अत्याधिक बढ़ जाती है.
इसके साथ ही बढ़ जाते हैं बारिश से जुड़े रोग भी, मसलन हैजा, टाइफाइड, इन्फ्लुएंजा, हेपेटाइटिस-ए, चर्म रोग, मौसमी बुखार इत्यादि. जिन्हें होने से रोकना सबसे पहला उपाय होना चाहिए, किन्तु फिर भी यदि किसी रोग के शिकार हो जायें तो चिकित्सकीय परामर्श के साथ साथ निम्नांकित आयुर्वेदिक उपायों का प्रयोग किया जा सकता है.
1. हैजा –
विब्रियो कोलेर नामक एक जीवाणु से दूषित भोजन या पीने के पानी के कारण हुआ कोलेरा या हैजा एक गंभीर संक्रामक रोग है, जिसमें वोमिटिंग, लूज मोशन, तीव्र हृदय गति, मासपेशियों में ऐंठन इत्यादि लक्षण होते है और शरीर में पानी की कमी से रोगी की मृत्यु तक हो सकती है. हालांकि डॉक्टरी परामर्श इस रोग का सर्वप्रथम निदान है, तथापि इसके साथ ही कुछ साधारण उपाय भी अमल में लाये जा सकते हैं.
2. इन्फ्लुएंजा –
आरएनए वायरस के कारण हुई इस बीमारी को मौसमी फ्लू भी कहा जाता है, यह अक्सर ऋतु परिवर्तन के दौरान कमजोर प्रतिरोधक क्षमता वाले लोगों को अपनी चपेट में लेती है और संक्रामक होने के चलते फैलती है. इससे ग्रसित रोगियों में बुखार, खांसी, जी मिचलाना, असामान्य रक्तचाप, कमजोरी मुख्य लक्षण हैं. इससे बचाव के लिए कुछ प्राकृतिक उपायों का प्रयोग किया जा सकता है.
3. हेपेटाइटिस –ए –
हेपेटाइटिस–ए बैक्टीरियाजनित रोगों में से एक है, जो हमारे लीवर पर आघात करता है. इसके प्रमुख लक्षणों में भूख न लगना, जी मिचलाना, अपच, पीलिया, बुखार इत्यादि हैं. इसका सर्वोत्तम निदान चिकित्सकीय सलाह से हेपेटाइटिस ए टीका लेना है, जो किसी भी आयु वर्ग के लोग ले सकते हैं. साथ ही आरंभिक लक्षण दिखते ही इसका इलाज कराना बेहद आवश्यक है, अन्यथा यह जानलेवा हो सकता है. इसके बचाव के लिए सावधानियां बरतनी चाहिए.
4. टाइफाइड –
टाइफाइड एक ऐसी बीमारी है, जो साल्मोनेला टाइफीमुरियम बैक्टीरिया के कारण होती है, यह जीवाणु मनुष्यों के रक्त प्रवाह और आंत में रहता है. दूषित भोजन और पानी के स्रोत बैक्टीरिया के प्रजनन स्थल बन जाते हैं, इसी कारण गर्मियों में यह रोग अधिकतर फैलता है. टाइफाइड के प्रमुख लक्षणों में कमजोरी, भूख कम लगना, थकान, पेट में दर्द, तेज बुखार आदि हैं.
5. चर्म रोग –
वर्षा के दिनों में ज्यादा देर तक गीले कपड़ों या नमीयुक्त वातावरण में रहने से दाद और खुजली जैसे स्किन रोगों की आशंका बढ़ जाती है. साथ ही गन्दा पानी भी स्किन रेशेज का कारण बनता है. जिससे त्वचा में खुजली, दाने इत्यादि हो जाते हैं और समय पर उपचार नहीं करने से ये दाने बैक्टीरिया ग्रस्त होकर गंभीर रोग में तब्दील हो जाते हैं.
वर्षा उस अतिथि की भांति है, जो जल रूपी उपहार लाकर आपके तन-मन को प्रफुल्लित कर देती है. वो मानसूनी मेघ जो निश्छल रूप से आपसे मिलने आते हैं. क्या आपने कभी सोचा कि बदले में इन्हें क्या दिया जाये? आपका जवाब होगा..शायद कभी नहीं. बारिश प्राकृतिक उर्वरता का केंद्रीय बिंदु है, तो सोचिये इसका सुनियोजन होना कितना आवश्यक है. वर्षा जल को सुनियोजित करना ही इसके प्रति सम्मान और आत्मिक भाव दर्शाना है. आज भारत में पूरे वर्ष होने वाली वर्षा का मात्र 8 फीसदी हिस्सा ही संरक्षित हो पाता है और वह भी उस समय जब बुंदेलखंड, राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश इत्यादि समेत अन्य क्षेत्र भी भयंकर सूखे की मार झेल रहे हैं.
तो अधिक देरी किये बिना क्यों न इस अतिथि को सम्मान दिया जाये, क्यों न वर्षा के जल का बेहतर संचयन किया जाये. केवल सरकार पर निर्भर रहने के कुछ छोटे-छोटे प्रयास अपने स्तर पर भी हमें प्रारंभ करने होंगे.
यदि ग्रामवासी हैं, तो आप क्या करें?
1. वर्षा जल के पुनर्भरण एवं संचयन के लिए सामुदायिक प्रयासों से पहल करें.
2. गांवों में उपस्थित कुंओं के गहरीकरण की व्यवस्था संयुक्त रूप से की जा सकती है.
3. गांव में खाली पड़े स्थान को चिन्हित करें और उसे सामुदायिक तालाब के रूप में इस्तेमाल योग्य बनाये. इससे भूजल भी रिचार्ज होगा.
4. अपने घरों की छतों पर जमा बारिश के पानी को पुन: उपयोग के लिए एकत्रित करने के उद्देश्य से टैंक आदि की व्यवस्था करें.
5. सामुदायिक श्रमदान के माध्यम से ट्रेंच (छोटी छोटी नालियां) बनाकर भी वर्षा जल को संचित कर भूजल रिचार्ज किया जा सकता है.
6. कूड़े का ढेर बन चुके जोहड़ या ताल को नया स्वरुप देने की कोशिश करें, अन्यथा इनके संरक्षण के लिए सरकार से अपील करें.
7. ग्राम पंचायत के सदस्य मिलकर जल संग्रहण तकनीकों की जानकारी सरकारी सहायता से लें सकते है, साथ ही आर्थिक अनुदान की अपील भी कर सकते हैं.
यदि आपको लग रहा है, कि यह सब मुमकिन नहीं तो आप गलत हैं, क्योंकि बुंदेलखंड जैसे सूखे ग्रसित इलाके में दतिया प्रखंड के हमीरपुर गांव में आम जन के इन्हीं सब प्रयासों से न केवल जलसंकट की विभीषिका कम हुई है, बल्कि भूजल स्तर भी बढ़ा है.
यदि शहरी हैं, तो कैसे करें जल संरक्षण?
1. वर्षा जल संचयन के लिए ढांचे बनाए जाये, जिनके जरिये वर्षा जल छतों से एक नाली के माध्यम से जमा हो सके और भूजल में वृद्धि हो सकें.
2. निजी स्तर पर उपयोग के लिए ढलान तकनीक से पानी को किसी टैंक में जमा किया जा सकता है, बड़े अपार्टमेंट्स में यह तकनीक लाभदायक सिद्ध हो सकती है.
3. विद्यालयों, कार्यालयों अथवा सामुदायिक भवनों की छतों पर संयुक्त रूप से टैंक की व्यवस्था की जा सकती है, जिसमें बड़े स्तर पर पानी जमा किया जा सके.
4. अपने स्थानीय पार्षद एवं विधायक से अनुग्रह करें कि वें सडक निर्माण के समय कुछ स्थान वर्षा जल पुनर्भरण के लिए अवश्य ही रखें, जिससे भूमिगत जल का स्तर बना रह सके.
5. किसी भी जन जागरूकता अभियान का हिस्सा बनें, जिसमें नदियों के आस पास के क्षेत्र को अतिक्रमण से मुक्त करा उसे वर्षा जल संचयन के लिए विकसित किया जा सके.
6. अपने आस पास हो रहे नव निर्माणों के अंतर्गत लोगों को वाटर हार्वेस्टिंग तकनीक का प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित करें, उन्हें उदाहरण देकर इसका महत्व समझाएं.
असंभव कुछ भी नहीं, आवश्यकता है तो बस एक पहल करने की और यकीन मानिये आप कर सकते हैं. सोचिये जब न्यूज़ीलैंड जैसा देश मात्र वर्षा जल संचयन से अपने नागरिकों की जलापूर्ति कर सकता है, तो भारत क्यों नहीं.
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