फाल्गुन के बासंती रंगों से सजा
पर्व है होली, जिसकी गरिमा इसमें बरसते रंगों, खुशनुमा माहौल और परस्पर समरसता से
दृष्टिगोचर होती है. होली अपने आप में अनूठा त्यौहार है, जो विभिन्न संस्कृतियों
और परम्पराओं को एकसूत्र में पिरोकर चलता है. भारत में होली के अपने धार्मिक,
ऐतिहासिक और पौराणिक परिप्रेक्ष्य हैं, जहां यह रंगोत्सव सनातन धर्म के पन्नों में
राधा-कृष्ण के प्रेम के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, वहीं मुगलिया काल में
शाहजहां के समय “ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार)" के तौर पर भी होली का
नाम इतिहास में दर्ज है.
बदलते परिवेश के साथ हालांकि होली
का स्वरुप भी बहुत हद तक परिवर्तित हो चुका है, आज की महानगरीय संस्कृति की
आपाधापी और भागदौड़ में यह त्यौहार भी औपचारिकता और दिखावे की भेंट चढ़ता जा रहा है.
पवित्र-पावन पर्व रंगोत्सव में आई इन विकृतियों को दूर करने के लिए हमें मंथन करना
होगा और होली के वास्तविक अर्थ को आत्मसात करना होगा.
यह कहना गलत नहीं होगा कि होली
मात्र रंगों का त्यौहार नहीं है बल्कि बहुत से विविध और अनूठे रंगों का पारस्परिक
संगम भी है, तो आइये समझने का प्रयास करते हैं कि होली का वास्तविक महत्व क्या है
और किस प्रकार हम इस त्यौहार में छिपी सकारात्मकता का मनन कर इस पर्व को सार्थक
बनाने की पहल कर सकते हैं.
होली देती है आध्यात्मिक
पुनर्जागरण का संदेश
भारत में मनाए जाने वाला प्रत्येक
पर्व आध्यात्मिक अवलोकन का प्रतीक है, इन पर्वों के पीछे छिपी समस्त लोक-कथाएँ,
जिन्हें आज अंधविश्वास बताकर उनका खंडन कर दिया जाता है..वास्तव में मनुष्य को
आत्मबोध कराने के उद्देश्य से हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा कही जाती रही है.
देखा जाये तो होली के संदर्भ में
बृज की लोक-कथाओं का वर्णन सर्वाधिक आता है. “श्याम मौपे रंग डारो”, की सुरीली तान
से सजी होली ब्रजवासियों के लिए राधा-कृष्ण के अलौकिक प्रेम का सूचक है यानि
परमात्मा को आत्मा से एकीकार कर देने का प्रतीक. भगवान कृष्ण, जिन्हें परमानंद की
संज्ञा दी जाती है, अबीर-गुलाल के खुमार के साथ उस आनंद को आत्मसात कर देने का
पर्व होली है.
नाराद्पुरण के कथनानुसार हरि-भक्त
प्रहलाद को जब उसके असुर पिता हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका (जिसे वरदान प्राप्त था कि वह
अग्नि में नहीं जल सकती) की गोद में बैठाकर मार डालने का प्रयत्न किया, तो होलिका
जलकर भस्म हो गयी और भक्त प्रहलाद का बाल भी बांका नहीं हुआ. यानि असत्य पर सत्य
और बुराई पर अच्छाई की विजय हुई, आध्यात्मिक परिद्रश्य में देखे तो नकारात्मकता के
विनाश होने का पर्व होली है.
होली के प्रथम चरण होलिका दहन को
इसी कथा के साथ जोड़ा जाता है और सुखी लकड़ियों, उपलों एवं खरपतवार आदि के द्वारा
संध्या समय में अग्नि प्रद्वीप्त करके गंगा जल, गेहूं के बेल, अक्षत (चावल के
दाने), कच्चे सूत, गुड, नारियल, रोली, मौली इत्यादि से पूजन किया जाता है. यही
नहीं उत्तर भारत के बहुत से परिवारों में फाल्गुन पूर्णिमा को मनाए जाने वाले
होलिका दहन को माताएं अपने बच्चों के मंगल का प्रतीक मानते हुए फलों, मेवों आदि से
बनी मालाएं होलिका पूजन के उपरांत अपने बच्चों को प्रसाद रूप में पहना देती हैं.
कितना कुछ मंगलकारक जुड़ा है इस त्यौहार
में, परन्तु आज बहुत से स्थानों पर मात्र दिखावे के लिए वृक्षों को काटकर होलिका
दहन में उपयोग किया जाता है और महानगरीय संस्कृति के अनुसार फलों-मेवों के स्थान
पर चोकलेट, बिस्कुट, कैंडीज आदि से बनी मालाएं ही पूजन में उपयोग की जाती हैं.
यानि वातावरण को तो हम नुकसान पहुंचाते ही हैं, साथ ही भावी पीढ़ी को स्वास्थ्य के
मार्ग से भी पीछे हटा देते हैं.
हमें समझना होगा कि...
1. होलिका दहन सामुदायिक रूप से
करें, होली से दो माह पूर्व ही सुखी टहनियां सामुदायिक तौर पर एकत्रित करना
प्रारंभ कर दे. अपने बच्चों को भी उस युगों प्राचीन यज्ञ संस्कृति का हिस्सा बनाए,
जिसमें लोक-कल्याण के लिए ऋषि संविधाओं के माध्यम से यज्ञ किया करते थे.
2. पाश्चात्य संस्कृति के द्योतक
खाद्य पदार्थों के स्थान पर मौसमी फलों (संतरा, अंगूर, केला, बेर आदि) और मेवों का
उपयोग कर बच्चों को उनकी महत्ता बताएं. याद रखे, शुद्ध अन्न से ही विचार भी शुद्ध
होते हैं.
3. होलिका दहन के अवसर पर भक्त
प्रहलाद और राधा-कृष्ण से जुड़ी पौराणिक कथाएँ सामुदायिक रूप में कोई बुजुर्ग सभी
को अवश्य सुनाएं, ताकि हम स्वयं तो मानसिक शांति का अनुभव करे ही, बल्कि छोटे
बच्चे भी अपनी संस्कृति को समझे.
4. पूजन के लिए किसी वृक्ष की बलि
कभी न दें, यह त्यौहार हमें वृक्षों, अनाज और उपलों के रूप में प्रकृतिदत्त उपहारों
का सम्मान करना सिखाता है न कि विध्वंश.
समझें होली के सांस्कृतिक महत्व को
हमारे देश को “अनेकता में एकता” के
लिए जाना जाता है, यहां विविध संस्कृतियां निष्पक्ष रूप से ससम्मान निवास करती
हैं. हमारे त्यौहार भी हमें यही सीख देते हैं कि मिल जुल कर रहो, आपसी प्रेम,
सद्भावना और सौहार्द कायम रहे. बात यदि होली की हो तो सदियों से सभी संस्कृतियां
एकजुटता से इस पर्व को मना रही हैं.
कहा जाता है कि होली किसी एक धर्म
को ही इंगित नहीं करता है, मुग़ल काल के दौरान भी यह त्यौहार मनाया जाता था.
राजस्थान के अलवर संग्रहालय में एक पुरातन चित्र के अंतर्गत जहांगीर को होली खेलते
दिखाया गया है, यहां तक कि मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी के साहित्य में भी रंगोत्सव
होली का ज़िक्र आता है. हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक इस त्यौहार के मायने बेहद
अहम हैं, परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात से जिस प्रकार आपसी बैर बढ़ा, उसने इन पर्वों
के अर्थ को भी अनर्थ में बदल दिया.
“आज बृज में होली है रसिया” की
पवित्रता से लबरेज पर्व होली कब “बलम पिचकारी....” जैसी फूहड़ता में ढल गया, समझ ही
नहीं आया. आज होली के अवसर पर विभिन्न पक्षों में मनमुटाव, अश्लीलता से उत्पन्न
झगड़े तो सामान्य सी बात हो गयी है, जो तथ्य स्वयं हमें समझने चाहिए, उनके लिए
सरकारी बाशिंदें शांति की अपील करते नजर आते हैं.
हमें समझना होगा कि...
1. जबरन किसी पर रंग न डाले और
किसी अन्य को भी ऐसा करने से रोकें. होली आपसी सौहार्द की शिक्षा देता है, इसलिए
स्वयं आगे बढ़कर संज्ञान लेते हुए धार्मिक सद्भावना बनाए.
2. मादक पदार्थों के अतिशय सेवन से
बचे, जिससे आपका मानसिक संतुलन न बिगड़े. होली पर होने वाले आधे से अधिक फसादों में
नशीले पदार्थों की भूमिका अधिक होती है.
3. अपनी सामाजिक मर्यादा को बनाए
रखे, हालांकि होली अल्हड़ता और बेबाकी दर्शाने वाला त्यौहार माना जाता है, परन्तु
ऐसा कुछ भी करने से बचे, जिससे आपकी सभ्य नागरिक की छवि आहत हो.
4. छोटे बच्चों से भी कहें, कि आते
जाते अनजान लोगों पर रंग या गुब्बारें न फेंके. साथ ही उन्हें आपस में मिलजुल कर
शांति से होली खेलना सिखाए, याद रखे आपके आज के संस्कार ही बच्चों में भविष्य के
विचार बनकर पोषित होंगे.
5. होली का मूलभूत उद्देश्य अपने
मन, व्यवहार एवं विचारों में निहित दानवी प्रवृतियों का दमन करना है, इसलिए अपने भीतर
की बुराइयों को समाप्त करे और सात्विकता को जगाएं.
रंगों की संस्कृति के सार को
पहचानें
होली दिव्य, अलौकिक और आत्मजागृति
का पर्व माना जाता है, जिसमें विविधता भरे रंग इसे बेहद खास बनाते हैं. होली के
विविध रंगों का सार यही है कि सभी पुराने गिले शिकवे भुलाकर मित्रता की स्थापना हो
और सभी एक दूसरे के रंग में रंग जाये. राग, रंग, मिठास और उल्लास के इस पर्व में
रंगों का महत्व बहुत अधिक है, वैज्ञानिक तथ्य भी है कि रंग हमारे जीवन पर
प्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं.
विगत कुछ वर्षों से रंगों की पवित्रता
को भी हानिकारक केमिकल और शीशा जैसे रसायनों का ग्रहण लग चुका है, कृत्रिम रंगों
में मिलने वाले लेड, क्रोमियम, सिलिका आदि की मिलावट के चलते घातक स्वास्थ्य
परिणाम देखने में आ रहे हैं. आज होली के दौरान आँखों में इन्फेक्शन, विभिन्न त्वचा
रोग, अस्थमा और एलर्जी जैसे रोगों की अधिकता सर्वाधिक देखने में आती है.
तो क्या करें...
1. होली पर प्राकृतिक रंगों को ही
तवज्जों दें, सस्ते के चक्कर में खतरनाक रंगों को न खरीदे.
2. प्रयास करें कि घर में ही रंग
बनाये, फूलों की पत्तियों, चावल के आटे, बेसन, हल्दी, चंदन आदि के उपयोग से गुलाल
बनाए. ये त्वचा के लिए भी उपयोगी होते है और इको-फ्रेंडली भी. अग्रलिखित तरीकों से
आप घर में भी रंग सरलता से बना सकते हैं..
- सूखे हरे रंग के लिए मेहंदी पाउडर,
नीम पाउडर को चावल के आटे में मिलाये, गीले रंग के लिए पालक या धनिया पत्ती को
पानी में मिलाये.
- सूखे लाल रंग के लिए लाल चंदन
एवं गीले रंग के लिए अनार के छिलकों को पानी में उबालकर रंग तैयार करें.
- पीले सूखे रंग के लिए हल्दी
पाउडर का प्रयोग बेसन में मिलकर करें तथा गेंदे के फूलों को पानी में उबालकर रात
भर के लिए छोड़ दें तो पीला रंग बन जाएगा.
- गुलाबी रंग बनाने के लिए चुकंदर
को पानी में उबाले.
- नीले रंग के लिए जामुन के रस का
प्रयोग किया जा सकता है.
3. याद रखे, प्रकृति ने हमें एक
मां के समान सब कुछ दिया है. त्यौहार एक माध्यम हैं, जिनके द्वारा हम प्रकृति का धन्यवाद
करते हैं. जल, वातावरण, जीव जंतु सभी को संरक्षित करने के भाव से होली खेलें, तो
आप भी इस त्यौहार को सार्थक बनाने में योगदान दे सकते हैं.
ताकि बनी रहे होली की मिठास
भारतीय संस्कृति में त्योहारों का
वास्तविक उद्देश्य ही खुशियां बांचना होता है. प्रसन्नता को स्वयं में समाहित कर
समाज में प्रसारित करना ही पर्वों का एकमात्र ध्येय रहा है. शायद इसलिए हमारी
संस्कृति में पारिवारिकजनों एवं मित्रों का मुंह मीठा कर त्यौहार मनाने की परम्परा
रही है. होली के पारंपरिक व्यंजनों में गुंजिया, करंजी, पूरनपोली, दही-भल्ले, मठरी,
कचरी, पापड़, कांजी-वडा, ठंडाई इत्यादि व्यंजनों को प्रमुखता दी जाती है.
पहले त्योहारों के आगमन से पूर्व
ही घरों में पकवान बनाने की तैयारियां आरम्भ हो जाती थी, हालांकि यह परंपरा आज भी
बहुत से घरों में बदस्तूर जारी है. किन्तु बड़े शहरों में समय की कमी या विलासिता
के चलते लोग बाहर से बनी मिठाइयां या मावा का सेवन करते हैं, जो आज होली के रंग
में भंग डालने का कार्य करता है. इसके अतिरिक्त अत्याधिक भांग एवं मादक पदार्थों
के सेवन से त्यौहार का पवित्र स्वरुप भी विकृत होता है.
तो क्या करें –
1. यदि समय की कमी के चलते आप
स्वयं पकवान बनाने में असमर्थ हैं, तो प्रयास करे कि किसी विश्वसनीय स्थान से ही
मिठाइयां खरीदें.
2. आपके आस पास यदि आर्थिक रूप से
कमजोर महिलाएं या परिवार हैं, जिनसे आप परिचित हैं, तो आप उनसे भी आर्थिक सहायता
देकर मिठाइयां या पकवान बनवा सकते हैं. इससे आपको मनपसंद खाद्य पदार्थ तो मिलेंगे
ही, साथ ही एक निर्धन परिवार भी होली अच्छे से मना सकेगा.
3. यदि आप पाक कला में अधिक निपुण
नहीं है, तो आज अखबारों, पत्रों-पत्रिकाओं के लेख या ऑनलाइन फ़ूड वेबसाइट अथवा ब्लॉगस
पर तमाम वीडियोज की भरमार है, जिनसे आप सहायता ले सकते हैं.
4. अपने हाथों से पकवान बनाने से पारिवारिक
सौहार्द तो बनता ही है, साथ ही भावी पीढ़ी के लिए एक परम्परा भी विकसित होगी, जिसे
वो स्मरण रखते हुए आगे बढ़ाने का अवश्य करेंगे.
5. ठंडाई (भांगयुक्त) का सेवन करना
गलत नहीं है, परन्तु अल्प मात्रा में. हमारी संस्कृति में कोई भी परंपरा व्यर्थ
नहीं रखी गयी, आयुर्वेद के अनुसार थोड़ी मात्रा में भांग का सेवन करने से अपच,
अनिद्रा, मौसमी बुखार, मानसिक रोगों में लाभ मिलता है, भांग कफनाशक होने के कारण
होली के सर्द-गर्म मौसम में शरीर के लिए लाभप्रद है.
होली : एक वैचारिक पक्ष
होली को अंग्रेजी अर्थानुसार “पवित्रता”
यानि “HOLY” के संदर्भ में भी देखा जा सकता है. आप स्वयं ही सोचें...जिस
त्यौहार का अर्थ ही पवित्रता से हो, उसमें सामाजिक बुराइयों, अश्लीलता, अनैतिकता
और फूहड़ता जैसे शब्दों का क्या स्थान. त्यौहार, मनुष्य के कल्याण के लिए बने हैं
और उनमें अंतर्निहित संदेश को हमें आत्मसात करना ही होगा, तभी हमारी संस्कृतियां
संरक्षित रह पाएंगी और हमारी प्राचीन परम्पराएं (जिनका दम अंधविश्वास बताकर घोट
दिया गया है) स्वच्छन्द तौर पर सांस ले पाएंगी.
बुरा न मानो होली है, कहकर सामाजिक
मर्यादा का उल्लंघन करने के स्थान पर होली के अति पावन पर्व पर संकल्पित मन से यह
निश्चय करें कि होलिका दहन में अपनी समस्त बुराइयों का दहन करेंगे और पवित्र
विचारों के साथ होली के रंगों से अपना जीवन मंगलमय बनायेंगे. यदि आप लोकहित को अपनी
समग्रता में सारगर्भित कर सकेंगे, तभी आप वास्तव में कहने योग्य होंगे कि “बुरा न
मानो होली है.”
By Deepika Chaudhary {{descmodel.currdesc.readstats }}
फाल्गुन के बासंती रंगों से सजा पर्व है होली, जिसकी गरिमा इसमें बरसते रंगों, खुशनुमा माहौल और परस्पर समरसता से दृष्टिगोचर होती है. होली अपने आप में अनूठा त्यौहार है, जो विभिन्न संस्कृतियों और परम्पराओं को एकसूत्र में पिरोकर चलता है. भारत में होली के अपने धार्मिक, ऐतिहासिक और पौराणिक परिप्रेक्ष्य हैं, जहां यह रंगोत्सव सनातन धर्म के पन्नों में राधा-कृष्ण के प्रेम के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, वहीं मुगलिया काल में शाहजहां के समय “ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार)" के तौर पर भी होली का नाम इतिहास में दर्ज है.
यह कहना गलत नहीं होगा कि होली मात्र रंगों का त्यौहार नहीं है बल्कि बहुत से विविध और अनूठे रंगों का पारस्परिक संगम भी है, तो आइये समझने का प्रयास करते हैं कि होली का वास्तविक महत्व क्या है और किस प्रकार हम इस त्यौहार में छिपी सकारात्मकता का मनन कर इस पर्व को सार्थक बनाने की पहल कर सकते हैं.
भारत में मनाए जाने वाला प्रत्येक पर्व आध्यात्मिक अवलोकन का प्रतीक है, इन पर्वों के पीछे छिपी समस्त लोक-कथाएँ, जिन्हें आज अंधविश्वास बताकर उनका खंडन कर दिया जाता है..वास्तव में मनुष्य को आत्मबोध कराने के उद्देश्य से हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा कही जाती रही है.
देखा जाये तो होली के संदर्भ में बृज की लोक-कथाओं का वर्णन सर्वाधिक आता है. “श्याम मौपे रंग डारो”, की सुरीली तान से सजी होली ब्रजवासियों के लिए राधा-कृष्ण के अलौकिक प्रेम का सूचक है यानि परमात्मा को आत्मा से एकीकार कर देने का प्रतीक. भगवान कृष्ण, जिन्हें परमानंद की संज्ञा दी जाती है, अबीर-गुलाल के खुमार के साथ उस आनंद को आत्मसात कर देने का पर्व होली है.
नाराद्पुरण के कथनानुसार हरि-भक्त प्रहलाद को जब उसके असुर पिता हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका (जिसे वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में नहीं जल सकती) की गोद में बैठाकर मार डालने का प्रयत्न किया, तो होलिका जलकर भस्म हो गयी और भक्त प्रहलाद का बाल भी बांका नहीं हुआ. यानि असत्य पर सत्य और बुराई पर अच्छाई की विजय हुई, आध्यात्मिक परिद्रश्य में देखे तो नकारात्मकता के विनाश होने का पर्व होली है.
होली के प्रथम चरण होलिका दहन को इसी कथा के साथ जोड़ा जाता है और सुखी लकड़ियों, उपलों एवं खरपतवार आदि के द्वारा संध्या समय में अग्नि प्रद्वीप्त करके गंगा जल, गेहूं के बेल, अक्षत (चावल के दाने), कच्चे सूत, गुड, नारियल, रोली, मौली इत्यादि से पूजन किया जाता है. यही नहीं उत्तर भारत के बहुत से परिवारों में फाल्गुन पूर्णिमा को मनाए जाने वाले होलिका दहन को माताएं अपने बच्चों के मंगल का प्रतीक मानते हुए फलों, मेवों आदि से बनी मालाएं होलिका पूजन के उपरांत अपने बच्चों को प्रसाद रूप में पहना देती हैं.
कितना कुछ मंगलकारक जुड़ा है इस त्यौहार में, परन्तु आज बहुत से स्थानों पर मात्र दिखावे के लिए वृक्षों को काटकर होलिका दहन में उपयोग किया जाता है और महानगरीय संस्कृति के अनुसार फलों-मेवों के स्थान पर चोकलेट, बिस्कुट, कैंडीज आदि से बनी मालाएं ही पूजन में उपयोग की जाती हैं. यानि वातावरण को तो हम नुकसान पहुंचाते ही हैं, साथ ही भावी पीढ़ी को स्वास्थ्य के मार्ग से भी पीछे हटा देते हैं.
हमें समझना होगा कि...
1. होलिका दहन सामुदायिक रूप से करें, होली से दो माह पूर्व ही सुखी टहनियां सामुदायिक तौर पर एकत्रित करना प्रारंभ कर दे. अपने बच्चों को भी उस युगों प्राचीन यज्ञ संस्कृति का हिस्सा बनाए, जिसमें लोक-कल्याण के लिए ऋषि संविधाओं के माध्यम से यज्ञ किया करते थे.
2. पाश्चात्य संस्कृति के द्योतक खाद्य पदार्थों के स्थान पर मौसमी फलों (संतरा, अंगूर, केला, बेर आदि) और मेवों का उपयोग कर बच्चों को उनकी महत्ता बताएं. याद रखे, शुद्ध अन्न से ही विचार भी शुद्ध होते हैं.
3. होलिका दहन के अवसर पर भक्त प्रहलाद और राधा-कृष्ण से जुड़ी पौराणिक कथाएँ सामुदायिक रूप में कोई बुजुर्ग सभी को अवश्य सुनाएं, ताकि हम स्वयं तो मानसिक शांति का अनुभव करे ही, बल्कि छोटे बच्चे भी अपनी संस्कृति को समझे.
4. पूजन के लिए किसी वृक्ष की बलि कभी न दें, यह त्यौहार हमें वृक्षों, अनाज और उपलों के रूप में प्रकृतिदत्त उपहारों का सम्मान करना सिखाता है न कि विध्वंश.
हमारे देश को “अनेकता में एकता” के लिए जाना जाता है, यहां विविध संस्कृतियां निष्पक्ष रूप से ससम्मान निवास करती हैं. हमारे त्यौहार भी हमें यही सीख देते हैं कि मिल जुल कर रहो, आपसी प्रेम, सद्भावना और सौहार्द कायम रहे. बात यदि होली की हो तो सदियों से सभी संस्कृतियां एकजुटता से इस पर्व को मना रही हैं.
कहा जाता है कि होली किसी एक धर्म को ही इंगित नहीं करता है, मुग़ल काल के दौरान भी यह त्यौहार मनाया जाता था. राजस्थान के अलवर संग्रहालय में एक पुरातन चित्र के अंतर्गत जहांगीर को होली खेलते दिखाया गया है, यहां तक कि मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी के साहित्य में भी रंगोत्सव होली का ज़िक्र आता है. हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक इस त्यौहार के मायने बेहद अहम हैं, परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात से जिस प्रकार आपसी बैर बढ़ा, उसने इन पर्वों के अर्थ को भी अनर्थ में बदल दिया.
“आज बृज में होली है रसिया” की पवित्रता से लबरेज पर्व होली कब “बलम पिचकारी....” जैसी फूहड़ता में ढल गया, समझ ही नहीं आया. आज होली के अवसर पर विभिन्न पक्षों में मनमुटाव, अश्लीलता से उत्पन्न झगड़े तो सामान्य सी बात हो गयी है, जो तथ्य स्वयं हमें समझने चाहिए, उनके लिए सरकारी बाशिंदें शांति की अपील करते नजर आते हैं.
हमें समझना होगा कि...
1. जबरन किसी पर रंग न डाले और किसी अन्य को भी ऐसा करने से रोकें. होली आपसी सौहार्द की शिक्षा देता है, इसलिए स्वयं आगे बढ़कर संज्ञान लेते हुए धार्मिक सद्भावना बनाए.
2. मादक पदार्थों के अतिशय सेवन से बचे, जिससे आपका मानसिक संतुलन न बिगड़े. होली पर होने वाले आधे से अधिक फसादों में नशीले पदार्थों की भूमिका अधिक होती है.
3. अपनी सामाजिक मर्यादा को बनाए रखे, हालांकि होली अल्हड़ता और बेबाकी दर्शाने वाला त्यौहार माना जाता है, परन्तु ऐसा कुछ भी करने से बचे, जिससे आपकी सभ्य नागरिक की छवि आहत हो.
4. छोटे बच्चों से भी कहें, कि आते जाते अनजान लोगों पर रंग या गुब्बारें न फेंके. साथ ही उन्हें आपस में मिलजुल कर शांति से होली खेलना सिखाए, याद रखे आपके आज के संस्कार ही बच्चों में भविष्य के विचार बनकर पोषित होंगे.
5. होली का मूलभूत उद्देश्य अपने मन, व्यवहार एवं विचारों में निहित दानवी प्रवृतियों का दमन करना है, इसलिए अपने भीतर की बुराइयों को समाप्त करे और सात्विकता को जगाएं.
होली दिव्य, अलौकिक और आत्मजागृति का पर्व माना जाता है, जिसमें विविधता भरे रंग इसे बेहद खास बनाते हैं. होली के विविध रंगों का सार यही है कि सभी पुराने गिले शिकवे भुलाकर मित्रता की स्थापना हो और सभी एक दूसरे के रंग में रंग जाये. राग, रंग, मिठास और उल्लास के इस पर्व में रंगों का महत्व बहुत अधिक है, वैज्ञानिक तथ्य भी है कि रंग हमारे जीवन पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं.
विगत कुछ वर्षों से रंगों की पवित्रता को भी हानिकारक केमिकल और शीशा जैसे रसायनों का ग्रहण लग चुका है, कृत्रिम रंगों में मिलने वाले लेड, क्रोमियम, सिलिका आदि की मिलावट के चलते घातक स्वास्थ्य परिणाम देखने में आ रहे हैं. आज होली के दौरान आँखों में इन्फेक्शन, विभिन्न त्वचा रोग, अस्थमा और एलर्जी जैसे रोगों की अधिकता सर्वाधिक देखने में आती है.
तो क्या करें...
1. होली पर प्राकृतिक रंगों को ही तवज्जों दें, सस्ते के चक्कर में खतरनाक रंगों को न खरीदे.
2. प्रयास करें कि घर में ही रंग बनाये, फूलों की पत्तियों, चावल के आटे, बेसन, हल्दी, चंदन आदि के उपयोग से गुलाल बनाए. ये त्वचा के लिए भी उपयोगी होते है और इको-फ्रेंडली भी. अग्रलिखित तरीकों से आप घर में भी रंग सरलता से बना सकते हैं..
- सूखे हरे रंग के लिए मेहंदी पाउडर, नीम पाउडर को चावल के आटे में मिलाये, गीले रंग के लिए पालक या धनिया पत्ती को पानी में मिलाये.
- सूखे लाल रंग के लिए लाल चंदन एवं गीले रंग के लिए अनार के छिलकों को पानी में उबालकर रंग तैयार करें.
- पीले सूखे रंग के लिए हल्दी पाउडर का प्रयोग बेसन में मिलकर करें तथा गेंदे के फूलों को पानी में उबालकर रात भर के लिए छोड़ दें तो पीला रंग बन जाएगा.
- गुलाबी रंग बनाने के लिए चुकंदर को पानी में उबाले.
- नीले रंग के लिए जामुन के रस का प्रयोग किया जा सकता है.
3. याद रखे, प्रकृति ने हमें एक मां के समान सब कुछ दिया है. त्यौहार एक माध्यम हैं, जिनके द्वारा हम प्रकृति का धन्यवाद करते हैं. जल, वातावरण, जीव जंतु सभी को संरक्षित करने के भाव से होली खेलें, तो आप भी इस त्यौहार को सार्थक बनाने में योगदान दे सकते हैं.
भारतीय संस्कृति में त्योहारों का वास्तविक उद्देश्य ही खुशियां बांचना होता है. प्रसन्नता को स्वयं में समाहित कर समाज में प्रसारित करना ही पर्वों का एकमात्र ध्येय रहा है. शायद इसलिए हमारी संस्कृति में पारिवारिकजनों एवं मित्रों का मुंह मीठा कर त्यौहार मनाने की परम्परा रही है. होली के पारंपरिक व्यंजनों में गुंजिया, करंजी, पूरनपोली, दही-भल्ले, मठरी, कचरी, पापड़, कांजी-वडा, ठंडाई इत्यादि व्यंजनों को प्रमुखता दी जाती है.
पहले त्योहारों के आगमन से पूर्व ही घरों में पकवान बनाने की तैयारियां आरम्भ हो जाती थी, हालांकि यह परंपरा आज भी बहुत से घरों में बदस्तूर जारी है. किन्तु बड़े शहरों में समय की कमी या विलासिता के चलते लोग बाहर से बनी मिठाइयां या मावा का सेवन करते हैं, जो आज होली के रंग में भंग डालने का कार्य करता है. इसके अतिरिक्त अत्याधिक भांग एवं मादक पदार्थों के सेवन से त्यौहार का पवित्र स्वरुप भी विकृत होता है.
तो क्या करें –
1. यदि समय की कमी के चलते आप स्वयं पकवान बनाने में असमर्थ हैं, तो प्रयास करे कि किसी विश्वसनीय स्थान से ही मिठाइयां खरीदें.
2. आपके आस पास यदि आर्थिक रूप से कमजोर महिलाएं या परिवार हैं, जिनसे आप परिचित हैं, तो आप उनसे भी आर्थिक सहायता देकर मिठाइयां या पकवान बनवा सकते हैं. इससे आपको मनपसंद खाद्य पदार्थ तो मिलेंगे ही, साथ ही एक निर्धन परिवार भी होली अच्छे से मना सकेगा.
3. यदि आप पाक कला में अधिक निपुण नहीं है, तो आज अखबारों, पत्रों-पत्रिकाओं के लेख या ऑनलाइन फ़ूड वेबसाइट अथवा ब्लॉगस पर तमाम वीडियोज की भरमार है, जिनसे आप सहायता ले सकते हैं.
4. अपने हाथों से पकवान बनाने से पारिवारिक सौहार्द तो बनता ही है, साथ ही भावी पीढ़ी के लिए एक परम्परा भी विकसित होगी, जिसे वो स्मरण रखते हुए आगे बढ़ाने का अवश्य करेंगे.
5. ठंडाई (भांगयुक्त) का सेवन करना गलत नहीं है, परन्तु अल्प मात्रा में. हमारी संस्कृति में कोई भी परंपरा व्यर्थ नहीं रखी गयी, आयुर्वेद के अनुसार थोड़ी मात्रा में भांग का सेवन करने से अपच, अनिद्रा, मौसमी बुखार, मानसिक रोगों में लाभ मिलता है, भांग कफनाशक होने के कारण होली के सर्द-गर्म मौसम में शरीर के लिए लाभप्रद है.
होली को अंग्रेजी अर्थानुसार “पवित्रता” यानि “HOLY” के संदर्भ में भी देखा जा सकता है. आप स्वयं ही सोचें...जिस त्यौहार का अर्थ ही पवित्रता से हो, उसमें सामाजिक बुराइयों, अश्लीलता, अनैतिकता और फूहड़ता जैसे शब्दों का क्या स्थान. त्यौहार, मनुष्य के कल्याण के लिए बने हैं और उनमें अंतर्निहित संदेश को हमें आत्मसात करना ही होगा, तभी हमारी संस्कृतियां संरक्षित रह पाएंगी और हमारी प्राचीन परम्पराएं (जिनका दम अंधविश्वास बताकर घोट दिया गया है) स्वच्छन्द तौर पर सांस ले पाएंगी.
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