(युवकों के लिए विशेष)
(समस्त जिला पंचायत सदस्यों तथा ग्राम
स्तरीय पंचायत के सदस्यों को विकास कार्यो की प्राथमिकतायें निश्चित करने में
सहायक जानकारी.)
(धर्मवीर कपिल IFS Rtd, महासचिव स्लम फा.
ट्रस्ट)
1. पर्यावरण (Environment)
इस शब्द को आजकल आप अक्सर सुनते रहते होंगे. कुछ दशक पहले तक यह किसी पाठ्यक्रम का हिस्सा भी नहीं था. आम जनता के बीच चर्चा का विषय तो हो ही नहीं सकता था. इस शब्द का अर्थ अभी भी कुछ अलग अलग सन्दर्भों में उपयोग हो रहा है.
जीवों के स्वास्थ्य पर बहुत सी बातों का प्रभाव
पड़ता है. स्वास्थ्य से सम्बद्ध ये करक व्यक्ति
के शारीर के अन्दर भी होते हैं और शारीर के बाहर आस–पास के वातावरण में भी.
“किसी
जीव के रहने के स्थान और उस स्थान पर पाए जानेवाले ऐसे अन्य्र जीवित और निर्जीव
पदार्थों को मिलाकर बने कारक को, जिनके साथ यह जीव पारस्परिक रूप से
प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष क्रियाओं से
सम्बद्ध रहता है, उस जीव का पर्यावरण कहते हैं.”
इससे स्पष्ट है कि पर्यावरण का इसमें रहने
वालों के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक संतुष्टि या कल्याण
पर सीधा प्रभाव पड़ता है.
2. पारिस्थितिकी (ECOLOGY)
पारिस्थितिकी यानि इकॉलोजी (ECOLOGY) का शाब्दिक अर्थ है “ऐसा विज्ञान जिसमे “पृथ्वी की गृहस्थी” अर्थात पृथ्वी पर रहने वाले समस्त जीव निर्जीव पदार्थों के
अन्तर्सम्बन्धों और अंतर्क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है.”
यह प्रकृति की संरचना और क्रिया कलापों का
विज्ञान है, जिसमे जीव और उसके पर्यावरण के संबंधों
का विभिन्न प्रतिरूपों में अध्ययन सम्मिलित है. जीव और पर्यावरण के बीच गतिशील स्वस्थ संतुलन की स्थिति को हम
स्वास्थ्य कह सकते हैं.
अभी तक उपलब्ध जानकारी के अनुसार सौर मंडल के
सभी ग्रहों में पृथ्वी ही केवल एक ऐसा ग्रह है जिसमे जीवन को सँभालने और बनाए रखने
की क्षमता है. जीवन तंत्र की ईष्टतम- प्रतिपालित–उत्पादकता (optimum sustainable productivity) को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए हमें
पृथ्वी के पर्यावरण के रूप में जल, वायु, भूमि, सूर्य का प्रकाश और जीवाश्म जैसे
संसाधन प्राप्त हैं. परन्तु पृथ्वी के इन संसाधनों का उपभोग
और अपव्यय इतना बढ़ गया है कि निकट भविष्य में ही मनुष्य जाति के समक्ष दूषित
वातावरण और डावाडोल पारिस्थितिकी के कारण स्वास्थ्य सम्बन्धी जानलेवा समस्याएं
उत्पन्न होने की पूरी पूरी आशंकायें मौजूद हैं.
बीमारियों के तीन प्रमुख कारक होते हैं..
- ·
रोग कारक यानी कर्मक
- ·
रोगी स्वयं
- ·
और प्रदूषित पर्यावरण
पहले दो कारको की पहचान प्रयोगशाला में अथवा
परिक्षण के दौरान हो सकती है, लेकिन रोगों की कुंजी जिस प्रदूषित
पर्यावरण में छुपी है उसी पर रोग की प्रकृति, अस्तित्व और इससे बचाव व रोकथाम के उपाय निर्भर हैं.
3. वायु
भौतिक, रासायनिक
और जैविक प्रक्रियाओं पर वायुमंडल का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है. जीवन दायिनी ऑक्सीजन और वायुमंडल में उपलब्ध अन्य घटकों के कारण ही
जीव का विकास संभव हुआ है. वायु सांस लेने के अलावा हमारे शरीर
को ठंडा रखती है, वायु तरंग द्वारा ही हम सुन पाते हैं
और सूंघ सकते हैं. रोगों के कारक भी वायु के माध्यम से
फैलते हैं. धूल, धूएँ, जहरीली गैसों और रासायनिक वाष्पों के
कारण हवा प्रदूषित हो जाती है और बीमारी अथवा मृत्यु का कारण बन जाती
है. वायु प्रदुषण एक प्रकार से बाहरी वातावरण में
हानिकारक द्रव्यों का भारी मात्रा में इकठ्ठा हो जाना है, जो स्वयं मनुष्य और उसके
पर्यावरण दोनों को नुकसान पहुंचाता है.
4. भूमि
भूमि पर्यावरण का एक अति आवश्यक अंग है. यह भोजन और पानी का महत्वपूर्ण स्रोत भी है. भूमि उपयोग के प्रभाव समग्र और संचयी रूप में परिलक्षित होते हैं, इसलिए भावी पीढ़ियों के हित में यह परमावश्यक है कि भूमि उपयोग के
हानिकारक प्रभावों को कम से कम करने का प्रयास करें. वनों की कटाई, बहुत ज्यादा सिंचाई, रासायनिक पदार्थों का भूमि में मिलाना और अव्यवस्थित नगरीकरण आदि
भूमि के गलत उपयोग में शामिल हैं. इनसे भू-क्षरण, मिटटी की गुणवत्ता, उर्वरता का ह्रास, मिटटी का खारा हो जाना, भू-जल स्रोतों में कमी आ जाना, फसल का घट जाना, निचले इलाको में जल भर जाना, आदि अनेक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं. हमारे देश में लगभग आधी भूमि घटिया दर्जे की हो चुकी है.
वानिकी और कृषि से सम्बंधित कुछ तरीकों को
अपनाकर, बंजर भूमि और ढलानों पर पेड़ लगाकर, भू-क्षरण को नियंत्रित करके तथा प्रमुख
रूप से जैविक खादों का उपयोग करके हम भूमि की उत्पादकता बढ़ा सकते है.
प्रत्येक गाँव पहाड़ियों, पर्वत श्रंखलाओं, ऊंची-नीची ढलानों, अथवा कृषि योग्य भूमि से घिरा होता है. इसके अलावा गाँव के अपने चारागाह और ताल-तलैया होने चाहियें. इन सबकी
भलिभांति देख भाल और रखरखाव होना चाहिए. सिंचाई
सुविधाओं को बढ़ाना चाहिए. सामाजिक वानिकी को अपनाये क्योंकि इसके
बहुत से लाभ हैं
5. जल
जल सम्पूर्ण जीव-जगत के लिए सबसे महत्वपूर्ण एवं उपयोगी घटक है. जल जीवन का आधार है. इस वर्ष सूखे की मार से जल की उपलब्धता
प्रभावित होने के कारण पूरे देश में चिंता की लहर व्याप्त है और सुखा प्रभावित क्षेत्र में हाहाकार मची हुई है. किसी वर्ष वर्षा कम या ज्यादा होना अनेक प्राकृतिक घटकों से संचालित
होता है. फिर भी कुछ मामलों में मनुष्य भी अपने
अवांछनीय कृत्यों से पारिस्थितिकीय समस्याओं को आमंत्रित करता है. यदि हम अपने जल संसाधनों का संरक्षण करते हुए सदुपयोग करें तो
प्राकृतिक आपदा के समय भी हमारे पास पर्याप्त जल जैसे संसाधन उपलब्ध रह सकते हैं. अन्यथा आने वाले समय में जल के उपयोग के अधिकार व उस पर आधिपत्य के
लिए बड़े युद्ध होना निश्चित है.
जल का उपयोग मुख्यतः
- ·
घरेलु
- ·
सार्वजनिक
- ·
औद्योगिक
- ·
और खेती के लिए होता है.
हमें उपरोक्त कार्यों हेतु जल की आवश्यकता होती
है. वर्षा सभी प्रकार के पानी का प्रमुख स्रोत है. जल की बर्बादी पर पूर्ण पाबंदी लगनी चाहिए. जल स्रोतों का संरक्षण करके उन्हें प्रदुषण से बचाना चाहिए. भूजल का समुचित और न्यायिक उपयोग सुनिश्चित करने की युक्ति पर विचार
काना आवश्यक हो गया है. समाज स्वयं यदि जागरूक हो जाय तब बाहरी
नियंत्रण की स्थिति से बचा जा सकता है. जल संसाधनों का विकास और उनकी निरंतरता
बनाये रखने के उपाय करने चाहिए.
6. वनस्पति
जीवन पोषण तंत्र में सूर्य से प्राप्त ऊर्जा के
प्रवाह के लिए पेड़ पोधे ही प्राथमिक उत्पादक की भूमिका निर्वाह करते हैं. पेड़–पोधे न हों तो समस्त जीव-जंतु, मनुष्य भी, समाप्त हो जावेंगे. अतः हमें फलदार वुक्षों के साथ साथ फूल से लेकर ईंधन, चारा, इमारती
और औषधीय पेड़ पोधों को संरक्षण देने और उगाने की सुद्रढ़ व्यवस्था करनी चाहिए. बेहतर स्वास्थ्य के लिए “हरित-पर्यावरण” बहुत आवश्यक है. अतः सबको इस शपथ को अंगीकार करना चाहिए कि ;
“हे
धरती माँ जो कुछ मैं तुझसे लूँगा वह उतना ही होगा जिसे तू पुनः पैदा कर सके. तेरे मर्म स्थल पर कभी आघात नहीं करूँगा.” (अथर्व वेद से)
7. जीव-जंतु
परस्पर निर्भरता प्रकृति का नियम है. जीव जंतु न केवल खेती के लिए आवश्यक हैं बल्कि पर्यावरण में अन्य
पदार्थों के साथ सम्बद्ध होने के कारण जीव तंत्रों का निर्माण करते हैं. अतः हमें
सभी प्रकार के जीव जंतुओं की रक्षा करने के प्रभावी कार्यक्रम संचालित करने चाहिए.
प्रत्येक जीव पोषण तंत्र में भोजन-श्रंखला की कड़ी के रूप में स्थित है. एक कड़ी
टूटती है तो सांकल टूट जाती है. भोजन का प्रवाह बंद हो जाता है. और भोजन की इस
प्राकृतिक व्यवस्था में द्वितीय और तृतीय आदि की अवास्थाओं पर विराजमान प्राणी
जिसमे मनुष्य शामिल है समाप्त हो जायेगा. भोजन के इस पिरामिड को ठीक से समझ कर
बुद्धिमानी से सब जीवो को संरक्षण देना चाहिये .
ईशावाश्यम इदं सर्वं, यत्किंच जगत्यां जगत.
तेन त्यक्तेन भुंजीथा, मा गृध कस्यचित धनं. (ईशोपनिषद)
अर्थात, “यह विश्व परम शक्तिमान ईश्वर के
द्वारा निर्मित समस्त जीवों के उपयोग एवं लाभ के निमित्त बनाया गया है. अतः सभी
जीव प्रजातियों को परमेश्वर द्वारा निर्मित इस विश्व के लाभों का उपयोग एक तंत्र
की इकाई के रूप में बने रहकर करते रहना सीखना चाहिए. किसी एक जीव प्रजाति को अन्य
प्रजाति के अधिकारों का हनन और अतिक्रमण नहीं करना चाहिए”
और यह भी कि, पशुनाम सर्वभूतानाम शान्तिर्भवतु
नित्यशः
8. ऊर्जा
सूर्य से प्राप्त ऊर्जा वनस्पति द्वारा
प्रत्यक्ष रूप से ग्रहण की जाकर विभिन्न स्वरूपों में संग्रहित हो जाती है, जो
कालांतर में लकड़ी, जैव गेस, ईंधन, और बिजली के रूप में उपयोग की जाती है. इसलिए
पूरी कोशिश होनी चाहिए कि ऊर्जा के हमारे ये परिवर्धित स्रोत सुरक्षित और संरक्षित
रहें तथा इनसे प्राप्त ऊर्जा की हम यथा संभव बचत करते हुए उपयोग करें.
जीवन की इस रहस्यमयी व्यवस्था को हमने बहत देर
से समझा है लेकिन हमारे विद्वान ऋषि –महर्षि इस तथ्य को हजारों सदियों पहले से जानते
थे और इनके महत्व को ईश्वर व देवी देवताओं के समकक्ष मान का इनकी पूजा भी करते थे.
ॐ द्योह शान्तिरन्तरिक्षॐ शांतिः पृथिवी
शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शांतिः. वनस्पतयः शंतिर्विश्वेदेवः शान्तिर्ब्रह्म शांतिः
सर्वॐ शांतिः शान्तिरेव शांतिः सा मा शान्तिरेधि .
देर से समझ आये तो भी कोई बात नहीं, जो खो गया
उसके लिए विलाप नहीं करते हुए भविष्य को सुधार लिया जाये. इसी में भलाई है.
(लेखक, धर्मवीर कपिल IFS Rtd, (MP Cadre), सेवा निवृत वर्ष 2006. सिंसियर, सोसईटी फॉर इंटीग्रेटेड केयर आफ
एनवायरनमेंट एंड रूरल इकोनोमी और स्लम फ़ौंडेशन ट्रस्ट के संस्थापक महासचिव द्वारा कुल
चार पुस्तकों की रचना की गई है. जिनमें से दो पुस्तकें भारत सरकार से पुरुस्कृत
हैं, वर्तमान
में टी -122 फेज़ 2 पल्लवपुरम, मेरठ में निवास करते हैं.)
By Dharm Veer Kapil {{descmodel.currdesc.readstats }}
(युवकों के लिए विशेष)
(समस्त जिला पंचायत सदस्यों तथा ग्राम स्तरीय पंचायत के सदस्यों को विकास कार्यो की प्राथमिकतायें निश्चित करने में सहायक जानकारी.)
(धर्मवीर कपिल IFS Rtd, महासचिव स्लम फा. ट्रस्ट)
1. पर्यावरण (Environment)
इस शब्द को आजकल आप अक्सर सुनते रहते होंगे. कुछ दशक पहले तक यह किसी पाठ्यक्रम का हिस्सा भी नहीं था. आम जनता के बीच चर्चा का विषय तो हो ही नहीं सकता था. इस शब्द का अर्थ अभी भी कुछ अलग अलग सन्दर्भों में उपयोग हो रहा है.
जीवों के स्वास्थ्य पर बहुत सी बातों का प्रभाव पड़ता है. स्वास्थ्य से सम्बद्ध ये करक व्यक्ति के शारीर के अन्दर भी होते हैं और शारीर के बाहर आस–पास के वातावरण में भी.
इससे स्पष्ट है कि पर्यावरण का इसमें रहने वालों के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक संतुष्टि या कल्याण पर सीधा प्रभाव पड़ता है.
2. पारिस्थितिकी (ECOLOGY)
पारिस्थितिकी यानि इकॉलोजी (ECOLOGY) का शाब्दिक अर्थ है “ऐसा विज्ञान जिसमे “पृथ्वी की गृहस्थी” अर्थात पृथ्वी पर रहने वाले समस्त जीव निर्जीव पदार्थों के अन्तर्सम्बन्धों और अंतर्क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है.”
यह प्रकृति की संरचना और क्रिया कलापों का विज्ञान है, जिसमे जीव और उसके पर्यावरण के संबंधों का विभिन्न प्रतिरूपों में अध्ययन सम्मिलित है. जीव और पर्यावरण के बीच गतिशील स्वस्थ संतुलन की स्थिति को हम स्वास्थ्य कह सकते हैं.
अभी तक उपलब्ध जानकारी के अनुसार सौर मंडल के सभी ग्रहों में पृथ्वी ही केवल एक ऐसा ग्रह है जिसमे जीवन को सँभालने और बनाए रखने की क्षमता है. जीवन तंत्र की ईष्टतम- प्रतिपालित–उत्पादकता (optimum sustainable productivity) को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए हमें पृथ्वी के पर्यावरण के रूप में जल, वायु, भूमि, सूर्य का प्रकाश और जीवाश्म जैसे संसाधन प्राप्त हैं. परन्तु पृथ्वी के इन संसाधनों का उपभोग और अपव्यय इतना बढ़ गया है कि निकट भविष्य में ही मनुष्य जाति के समक्ष दूषित वातावरण और डावाडोल पारिस्थितिकी के कारण स्वास्थ्य सम्बन्धी जानलेवा समस्याएं उत्पन्न होने की पूरी पूरी आशंकायें मौजूद हैं.
बीमारियों के तीन प्रमुख कारक होते हैं..
पहले दो कारको की पहचान प्रयोगशाला में अथवा परिक्षण के दौरान हो सकती है, लेकिन रोगों की कुंजी जिस प्रदूषित पर्यावरण में छुपी है उसी पर रोग की प्रकृति, अस्तित्व और इससे बचाव व रोकथाम के उपाय निर्भर हैं.
3. वायु
भौतिक, रासायनिक और जैविक प्रक्रियाओं पर वायुमंडल का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है. जीवन दायिनी ऑक्सीजन और वायुमंडल में उपलब्ध अन्य घटकों के कारण ही जीव का विकास संभव हुआ है. वायु सांस लेने के अलावा हमारे शरीर को ठंडा रखती है, वायु तरंग द्वारा ही हम सुन पाते हैं और सूंघ सकते हैं. रोगों के कारक भी वायु के माध्यम से फैलते हैं. धूल, धूएँ, जहरीली गैसों और रासायनिक वाष्पों के कारण हवा प्रदूषित हो जाती है और बीमारी अथवा मृत्यु का कारण बन जाती है. वायु प्रदुषण एक प्रकार से बाहरी वातावरण में हानिकारक द्रव्यों का भारी मात्रा में इकठ्ठा हो जाना है, जो स्वयं मनुष्य और उसके पर्यावरण दोनों को नुकसान पहुंचाता है.
4. भूमि
भूमि पर्यावरण का एक अति आवश्यक अंग है. यह भोजन और पानी का महत्वपूर्ण स्रोत भी है. भूमि उपयोग के प्रभाव समग्र और संचयी रूप में परिलक्षित होते हैं, इसलिए भावी पीढ़ियों के हित में यह परमावश्यक है कि भूमि उपयोग के हानिकारक प्रभावों को कम से कम करने का प्रयास करें. वनों की कटाई, बहुत ज्यादा सिंचाई, रासायनिक पदार्थों का भूमि में मिलाना और अव्यवस्थित नगरीकरण आदि भूमि के गलत उपयोग में शामिल हैं. इनसे भू-क्षरण, मिटटी की गुणवत्ता, उर्वरता का ह्रास, मिटटी का खारा हो जाना, भू-जल स्रोतों में कमी आ जाना, फसल का घट जाना, निचले इलाको में जल भर जाना, आदि अनेक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं. हमारे देश में लगभग आधी भूमि घटिया दर्जे की हो चुकी है.
वानिकी और कृषि से सम्बंधित कुछ तरीकों को अपनाकर, बंजर भूमि और ढलानों पर पेड़ लगाकर, भू-क्षरण को नियंत्रित करके तथा प्रमुख रूप से जैविक खादों का उपयोग करके हम भूमि की उत्पादकता बढ़ा सकते है.
प्रत्येक गाँव पहाड़ियों, पर्वत श्रंखलाओं, ऊंची-नीची ढलानों, अथवा कृषि योग्य भूमि से घिरा होता है. इसके अलावा गाँव के अपने चारागाह और ताल-तलैया होने चाहियें. इन सबकी भलिभांति देख भाल और रखरखाव होना चाहिए. सिंचाई सुविधाओं को बढ़ाना चाहिए. सामाजिक वानिकी को अपनाये क्योंकि इसके बहुत से लाभ हैं
5. जल
जल सम्पूर्ण जीव-जगत के लिए सबसे महत्वपूर्ण एवं उपयोगी घटक है. जल जीवन का आधार है. इस वर्ष सूखे की मार से जल की उपलब्धता प्रभावित होने के कारण पूरे देश में चिंता की लहर व्याप्त है और सुखा प्रभावित क्षेत्र में हाहाकार मची हुई है. किसी वर्ष वर्षा कम या ज्यादा होना अनेक प्राकृतिक घटकों से संचालित होता है. फिर भी कुछ मामलों में मनुष्य भी अपने अवांछनीय कृत्यों से पारिस्थितिकीय समस्याओं को आमंत्रित करता है. यदि हम अपने जल संसाधनों का संरक्षण करते हुए सदुपयोग करें तो प्राकृतिक आपदा के समय भी हमारे पास पर्याप्त जल जैसे संसाधन उपलब्ध रह सकते हैं. अन्यथा आने वाले समय में जल के उपयोग के अधिकार व उस पर आधिपत्य के लिए बड़े युद्ध होना निश्चित है.
जल का उपयोग मुख्यतः
हमें उपरोक्त कार्यों हेतु जल की आवश्यकता होती है. वर्षा सभी प्रकार के पानी का प्रमुख स्रोत है. जल की बर्बादी पर पूर्ण पाबंदी लगनी चाहिए. जल स्रोतों का संरक्षण करके उन्हें प्रदुषण से बचाना चाहिए. भूजल का समुचित और न्यायिक उपयोग सुनिश्चित करने की युक्ति पर विचार काना आवश्यक हो गया है. समाज स्वयं यदि जागरूक हो जाय तब बाहरी नियंत्रण की स्थिति से बचा जा सकता है. जल संसाधनों का विकास और उनकी निरंतरता बनाये रखने के उपाय करने चाहिए.
6. वनस्पति
जीवन पोषण तंत्र में सूर्य से प्राप्त ऊर्जा के प्रवाह के लिए पेड़ पोधे ही प्राथमिक उत्पादक की भूमिका निर्वाह करते हैं. पेड़–पोधे न हों तो समस्त जीव-जंतु, मनुष्य भी, समाप्त हो जावेंगे. अतः हमें फलदार वुक्षों के साथ साथ फूल से लेकर ईंधन, चारा, इमारती और औषधीय पेड़ पोधों को संरक्षण देने और उगाने की सुद्रढ़ व्यवस्था करनी चाहिए. बेहतर स्वास्थ्य के लिए “हरित-पर्यावरण” बहुत आवश्यक है. अतः सबको इस शपथ को अंगीकार करना चाहिए कि ;
7. जीव-जंतु
परस्पर निर्भरता प्रकृति का नियम है. जीव जंतु न केवल खेती के लिए आवश्यक हैं बल्कि पर्यावरण में अन्य पदार्थों के साथ सम्बद्ध होने के कारण जीव तंत्रों का निर्माण करते हैं. अतः हमें सभी प्रकार के जीव जंतुओं की रक्षा करने के प्रभावी कार्यक्रम संचालित करने चाहिए. प्रत्येक जीव पोषण तंत्र में भोजन-श्रंखला की कड़ी के रूप में स्थित है. एक कड़ी टूटती है तो सांकल टूट जाती है. भोजन का प्रवाह बंद हो जाता है. और भोजन की इस प्राकृतिक व्यवस्था में द्वितीय और तृतीय आदि की अवास्थाओं पर विराजमान प्राणी जिसमे मनुष्य शामिल है समाप्त हो जायेगा. भोजन के इस पिरामिड को ठीक से समझ कर बुद्धिमानी से सब जीवो को संरक्षण देना चाहिये .
अर्थात, “यह विश्व परम शक्तिमान ईश्वर के द्वारा निर्मित समस्त जीवों के उपयोग एवं लाभ के निमित्त बनाया गया है. अतः सभी जीव प्रजातियों को परमेश्वर द्वारा निर्मित इस विश्व के लाभों का उपयोग एक तंत्र की इकाई के रूप में बने रहकर करते रहना सीखना चाहिए. किसी एक जीव प्रजाति को अन्य प्रजाति के अधिकारों का हनन और अतिक्रमण नहीं करना चाहिए”
8. ऊर्जा
सूर्य से प्राप्त ऊर्जा वनस्पति द्वारा प्रत्यक्ष रूप से ग्रहण की जाकर विभिन्न स्वरूपों में संग्रहित हो जाती है, जो कालांतर में लकड़ी, जैव गेस, ईंधन, और बिजली के रूप में उपयोग की जाती है. इसलिए पूरी कोशिश होनी चाहिए कि ऊर्जा के हमारे ये परिवर्धित स्रोत सुरक्षित और संरक्षित रहें तथा इनसे प्राप्त ऊर्जा की हम यथा संभव बचत करते हुए उपयोग करें.
जीवन की इस रहस्यमयी व्यवस्था को हमने बहत देर से समझा है लेकिन हमारे विद्वान ऋषि –महर्षि इस तथ्य को हजारों सदियों पहले से जानते थे और इनके महत्व को ईश्वर व देवी देवताओं के समकक्ष मान का इनकी पूजा भी करते थे.
देर से समझ आये तो भी कोई बात नहीं, जो खो गया उसके लिए विलाप नहीं करते हुए भविष्य को सुधार लिया जाये. इसी में भलाई है.
(लेखक, धर्मवीर कपिल IFS Rtd, (MP Cadre), सेवा निवृत वर्ष 2006. सिंसियर, सोसईटी फॉर इंटीग्रेटेड केयर आफ एनवायरनमेंट एंड रूरल इकोनोमी और स्लम फ़ौंडेशन ट्रस्ट के संस्थापक महासचिव द्वारा कुल चार पुस्तकों की रचना की गई है. जिनमें से दो पुस्तकें भारत सरकार से पुरुस्कृत हैं, वर्तमान में टी -122 फेज़ 2 पल्लवपुरम, मेरठ में निवास करते हैं.)
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