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वर्तमान में बदलते समाजिक मूल्य

Dr. Dharmendra Singh Katiyar

Dr. Dharmendra Singh Katiyar Opinions & Updates

ByDr. Dharmendra Singh Katiyar Dr. Dharmendra Singh Katiyar   892

आज किसी युवा से पूछा जाये कि आपका लक्ष्य क्या
है तो वह यही जबाब देता है कि खूब सारा पैसा कमाना। पैसा

आज किसी युवा से पूछा जाये कि आपका लक्ष्य क्या है तो वह यही जबाब देता है कि खूब सारा पैसा कमाना। पैसा पाने के लिए वह कुछ भी कर सकता है। समाज में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिल जायेंगे जो यह दर्शाते है कि युवा वर्ग नैतिक व सामाजिक मूल्यों को कितना गिरा चुके हैं। उन्हें शिष्टाचार, संस्कार व नैतिकता की पहचान ही नहीं है। यह वही धरा है, जिस पर मर्यादा पुरूषोत्तम राम और स्वामी विवेकानन्द जैसी महान विभूतियों का जन्म हुआ, जो समाज और देश को ऊचाइयों पर ले गये है।

संरचनात्मक परिवर्तनों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन सामाजिक मूल्यों में होने वाला परिवर्तन है। सामाजिक मूल्य व्यक्ति के सामाजिक कार्यों को प्रभावित करते हैं। सामाजिक मूल्यों में होने वाला परिवर्तन सामाजिक संरचना तथा सामाजिक व्यवस्था को प्रभावित करता है। ये परिवर्तन धीमी गति से होते हैं तथा बहुत अधिक समय बाद होते हैं। हमारे देश में सामाजिक मूल्य जाति के आधार पर व्यक्ति की प्रतिष्ठा से सम्बन्धित थे। ब्राहमण को अनेक ऐसे अधिकार प्राप्त थे, जो अन्य जाति के व्यक्ति को नहीं प्राप्त थे। सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन होने के कारण धन, शिक्षा तथा सरकारी पदों का महत्व अधिक बढ़ गया। इस प्रकार के परिवर्तन प्रत्येक समाज में अत्यन्त धीमी गति से होते है।

वर्तमान युग समस्याओं का युग है। सम्पूर्ण विश्व आजकल कई प्रकार की सामाजिक समस्याओं से जूझ रहा है। हमारा देश भी इससे अछूता नहीं है। हमारे देश में इन दिनों कई ज्वलंत समस्याओं से त्रस्त है। इनमें आतंकवाद, उग्रवाद, निर्धनता, बरोजगारी, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार एवं बाल अपराध जैसी मुख्य समस्याएँ हैं, इन समस्याओं के मकड़जाल में समाज एवं देश को निकालने के लिए इनका निदान ढूढ़ना अतिआवश्यक है।

सामाजिक प्रकिया अनवरत चलने वाली जटिल सामाजिक प्रकिया है। सामाजिक विघटन परिवर्तन की ही देन है। इसकी अवधारणा को विभिन्न समाजशास्त्रियों ने स्पष्ट करने का प्रयास किया है। इन सभी के विचारों पर यदि ध्यान दिया जाये तो दो प्रकार के मत स्पष्ट होते हैं।

एक ओर तो मैकाइबर और पेज, किंग्सले डेविस एवं उनके अनेकों समर्थकों का मत है कि सामाजि परिवर्तन एवं साँस्कृति परिवर्तन दो अलग-अलग अवधारणायें हैं तथा इन्हें समझने के लिए इन दोनों ही पकियाओं को अलग-अलग समझना आवश्यक है। दूसरी ओर गिलि एवं गिलिन एवं उनके समर्थकों का मत है कि सामाजिक परिवर्तन और संस्कृतिक परिवर्तन दोनों ही एक दूसरे में इतना घुले मिले हैं कि इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। सामाजिक जीव होने के नाते हमारा प्रत्यक्ष सम्बन्ध सामाजिक मूल्यों से है।

वर्तमान समाज का रिश्ता एक विशेष प्रकार के अनुभव, एक विशेष प्रकार की संस्कृति से है। इसमें आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक गठबन्धन होता है जो एक पृथक पहचान देता है। वर्तमान समाज में साँस्कृतिक एकाधिकता है। अनेक भाषाएँ, संस्कृतियाँ एवं जातियाँ हैं। वर्तमान समाज का सौदर्य बोध परिष्कृत है, नित नये आविष्कार हो रहे हैं, इस वर्तमान समाज में पाप कल्चर जादुई है, इसे रहन–सहन, खान-पान आदि सभी में देखा जा सकता है। वर्तमान समाज औद्योगिक अर्थव्यवस्था का आइना है। इसमें कम्प्यूटर, इण्टरनेट, केडिट कार्ड, फास्ट फूड, मोबाइल फोन, रेस्टोरेन्ट, आदि दिखाई दे रहा है। हम दिशा विहीन हो चुके हैं फिर भी बेलगाम घोड़े की भॉति सरपट दौडते जा रहे है। तकनीकी और आर्थिक विकास किसी समाज में आधुनिकीकरण के स्तर को मापने का एक सामान्य मापदण्ड नहीं है। वैज्ञानिक विश्वदृष्टि और मानवतावादी विचार के प्रति प्रतिबद्धता भी उतनी ही जरूरी है।

भारतीय ग्रामीण समुदायों में सामाजिक मूल्यों की प्रक्रिया भी कियाशील है। गांव का किसान अब आधुनिक ढंग से खेती करना सीख रहा है और इस काम में ट्रैक्टर व अन्य मशीनों का प्रयोग हो रहा है। सिंचाई के नये साधनों का उपयोग किया जाने लगा है, अच्छे बीजों की किस्मों को वैज्ञानिक तरीके से, वैज्ञानिक खाद आदि का उपयोग करके उत्पादन किया जा रहा है व किसानों को वर्ष में कई बार फसल उत्पन्न करने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है। गांवों में सामाजिक गतिशीलता की गति भी अब पहले से बढ़ गयी है। उसके रहन-सहन का स्तर पहले से ऊँचा उठा है और वे जाति व्यवस्था व धर्म सम्बन्धी अनेक अन्धविश्वासों के प्रति सचेत होते जा रहे हैं। वर्तमान में केवल आधुनिक विचारों को ही नहीं बल्कि आधुनिक व्यवहार प्रतिमानों, फैशन, खाने-पीने के तरीके आदि का भी विस्तार ग्रामीण समुदायों में हो रहा है।

विवाह और सम्पत्ति के हस्तान्तरण के मामलों में न्यायिक सुधार से परिवार का पारम्परिक ढाचें का आधार प्रभावित हुआ है। उसने परिवार में समानता के सिद्धान्त को जारी किया है जिससे स्त्रियों की स्थिति में सुधार हुआ है, इसी तरह जातियों की भी परम्परात्मक भूमिका में काफी बदलाव आया है। राजनीति में जातियों की बढ़ती भागीदारी वर्तमान के सामाजिक मूल्यों का ही परिणाम है। वर्तमान समाज में सभी को समानता का अधिकार प्राप्त है।

एक ओर जहाँ देश में कई पारम्परिक संस्थाएँ और गतिविधियाँ फिर से शुरू हो गयीं है। जैसे-वर्तमान में टीवी चैनलों में आस्था, साधना, संस्कार आदि पूरी तरह धार्मिक विचार के लिए समर्पित हैं। जातिगत संगठन अपनी स्थिति को सुदृण करने हेतु संचार के नये साधनों का प्रयोग कर रहे है। दूसरी ओर वर्तमान में ही विसंगतियाँ भी दृष्टिगत हो रहीं हैं, जैसे- वृद्धों के प्रति अनादर की भावना का बढ़ना व संयुक्त परिवारों का टूटना, नैतिकता का पतन ज्यादातर देखने में आ रहा है। समाज में भौतिकवाद तथा विलासिता बढ़ रही है। व्यक्तिवाद पनप रहा है, रेस्टोरेन्ट, फास्टफूड, इन्टरनेट चैटिंग, मोबाइल फोन, केडिट कार्ड, टीवी चैनलों पर अश्लीलता परोसने जैसी नवीन संस्कृति विकासित हो रही है जो हमारी विश्वप्रसिद्ध पुरानी तथा अध्यात्मिक संस्कृति को प्रभावित कर रही है।

प्रसिद्ध समाजशास्त्री फेरिस ने सामाजिक मूल्यों के विघटन के बारे में कहा है कि –

"सामाजिक विघटन का अर्थ है समूह के सदस्यों के व्यवहार पर वर्तमान सामाजिक नियमों के प्रभाव का कम होना। एक समाज उस समय विघटन महसूस करता है जब उसके विभिन्न भाग अपनी पूर्णता खो देते हैं और निर्धारित उद्देश्यों के अनुसार कार्य नहीं कर पाते हैं।

विश्व के अधिकाँश समाजशास्त्रियों का मत है कि सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन एक जटिल प्रकिया है। जनसंख्यात्मक कारकों, प्राकृतिक कारकों, मनोवैज्ञानिक कारकों, प्राणिशास्त्रीय कारकों, प्रौद्योगिकी कारकों, साँस्कृतिक कारकों आदि का परिणाम है कि वर्तमान में सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन हो रहे हैं।

डा. राधाकमल मुखर्जी का मत है कि –

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भारतवर्ष में सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं में मूल्यों और मनोवृत्तियों का संघर्ष देखने को मिलता है, जिसके कारण व्यक्तिगत और संस्थागत दोनों ही प्रकार का समायोजन कर पाना मुश्किल हो गया है। जीवन निर्वाह के क्षेत्र में औद्योगिकवाद जो सम्बन्धों के सम्पूर्ण प्रतिमान को बदल रहा है। किन्तु जाति और संयुक्त परिवारों के सम्बन्ध औद्योगिक जीवन के अनुकूल नहीं हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि हम असमायोजन और सम्पीड़ित समाज विरोधी मनोवृत्तियों और व्यवहारों का वाहक बन रहे हैं।

प्राचीन काल में परिवार एक पूर्ण संस्था थी उसके सभी सदस्य एक सूत्र में बँधे हुए रहते थे, लेकिन वर्तमान में परिवार परिवर्तनशील है। वर्तमान में संयुक्त परिवारों का शीघ्रता से विनाश होता जा रहा है। तलाक और नये कानूनों की वजह से परिवार अस्थिर हो गये हैं। परिवार के पवित्र आधार खत्म हो गये हैं।

पारिवारिक नैतिकता में भी आज भीषण बदलाव दिखाई दे रहा है। प्राचीन समय में विवाह को धार्मिक कार्य समझा जाता था लेकिन आज वह मात्र दो लोगों के बीच एक समझौता बनकर रह गया है। विवाह का उद्देश्य धर्म पहले था, प्रजापुत्र और रति इसके बाद। आज विवाह का प्रमुख उद्देश्य रति मात्र रह गया है। प्रेम विवाह ने धर्म को खत्म कर दिया और परिवार नियोजन की विधियों ने प्रजापुत्र को निरर्थक साबित कर दिया है। पतिव्रता और पत्नीव्रत के आदर्श आज केवल मजाक बन कर रह गये हैं। तलाक जो स्त्री के लिए कलंक था, कानूनी मान्यता प्राप्त कर चुका है। आज बलात्कार केवल सामाजिक गलती मात्र बनकर रह गया है।

किसी लेखक ने सच ही कहा है कि –

आज के परिवार में प्रजातन्त्र हो गया है, जिसमें हर सदस्य का अपना मत होता है, लेकिन वहाँ कभी कोई बहुमत नहीं होता। प्राचीन समय में परिवार में मुखिया घर का वरिष्ठ पुरूष होता था जो अपने परिवार पर पूर्ण अधिकार रखता था, लेकिन वर्तमान युग में महिलाएँ भी पुरूषों के बराबर पद पर पहुंच गई हैं। हर क्षेत्र में परिवर्तन ने वर्तमान के सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन की लहर दौडायी है।

वर्तमान में परिवार में ऐसी कोई सत्ता नजर नहीं आती। इसका मूल कारण परिवार में आर्थिक व्यवस्था का होना। यानि जो व्यक्ति धन कमाकर परिवार में देता है परिवार के समस्त सदस्य उस व्यक्ति के ही अधीन हो जाते है, फिर वह चाहे परिवार का सबसे छोटा सदस्य ही क्यों न हो।

अब परिवार एक संगठित इकाई नहीं रह गई हैं। परिवार अपने एक कुनबे के रूप में पूर्ण समूह के रूप में होते थे, इसके बाद संयुक्त परिवार का रूप आया। वर्तमान में इस रूप में भी शीघ्रता से परिवर्तन हो रहा है। आर्थिक अस्थिरता, व्यक्तिवादी विचारधारा, जनसंख्या में वृद्धि, औद्योगिक विकास, नये कानून व अधिनियम का उद्भव, पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के फलस्वरूप व्यक्तिगत व एकल परिवारों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। इस समय परिवार का आकार दिन-प्रतिदिन छोटा होता जा रहा है।

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पूर्व में परिवार स्वतन्त्र इकाई के रूप में जाना जाता था, परन्तु वर्तमान में इस पर राज्य का अधिकार हो गया है। परिवार अपने मौलिक कार्यों के लिए स्वतन्त्र था, लेकिन राज्य द्वारा इस स्वतन्त्रता का अपहरण किया जा चुका है। तलाक, विवाह, सन्तानोत्पत्ति, शिक्षा-दीक्षा, बच्चों की देख-भाल आदि राज्य की आज्ञा के अनुसार होते हैं।

परिवार के मौलिक कार्यों का हस्तान्तरण भी हो रहा है। पहले के समाज में यौन सम्बन्धों, इच्छाओं की पूर्ति, बच्चों को पैदा करना, उनका पालन-पोषण और अर्थव्यवस्था आदि मौलिक कार्य रहे है। लेकिन वर्तमान में यह सभी कार्य अन्य संस्थाओं द्वारा किये जाते हैं। आधुनिक युग में बच्चों की उत्पत्ति का कार्य मातृत्व अस्पतालों और इनके पालन-पोषण का कार्य स्कूलों और नर्सरी, डे-केयर सेंटरों द्वारा किया जाता है। इन बदलावों के कारण परिवार के स्वरूपों और कार्यों में परिर्वतन हो गया है। आज सामाजिक मूल्य बदलने के और भी कारण है, जैसे विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में अशांन्ति की भावना, उचित रोजगारपरक पाठ्यक्रमों का आभाव व नैतिकता व संस्कृतिक शिक्षा का विलोपन होना एवं विज्ञान और प्रोद्योगिकी का ज्यादा प्रचार–प्रसार के साथ ही सबसे बड़ा कारण जो समाज के आदर्श के रूप में नेता होते है, उनके द्वारा राजनैतिक भ्रष्टाचार किया जाना।

व्यापारीकृत मनोरंजन भी वर्तमान में सामाजिक मूल्यों में बदलाव की भूमिका निभा रहा है, जिसमें क्षेत्रीय मनोरंजन के साधन जैसे नौटंकी, नाटक, लोकगीतों आदि का अभाव हो गया और सिनेमा पर आधारित मनोरंजन परोसा जा रहा है। प्राइवेट टीवी चैनलों पर अभद्र कार्यक्रमों को दिखाने के कारण देश व समाज में पश्चिमी संभ्यता की संस्कृति पैदा हो रही है।

आज कल के बच्चे व युवा स्मार्टफोन की तरह ही स्मार्ट है। अगर उनके स्मार्टफोन को नियंत्रण में रखना है तो आपको भी उनके जैसा ही स्मार्ट बनना होगा। स्मार्टमोबाइल फोन के कारण बच्चों व युवाओं में उनके शारीरिक विकास की गति पर असर पड़ रहा है। युवा खेल के मैदानों की ओर से मुंह मोड़ रहे है, दिन भर टीवी के सामने बैठ कर किकेट मैच देख सकते हैं परन्तु, स्वयं खेल नहीं सकते। बच्चे दिन भर मोबाइल व इण्टरनेट पर कुछ न कुछ करते रहते है, जब उनसे मोबाइल मांगने पर वे चिडचिडा जाते है।

वैसे तो फैशन समाज में निरन्तर बना ही रहता है, परन्तु इनको व्यवसाय के साथ जोड़ कर देखा जा रहा है। मनुष्य नवीनता व भिन्नता के लिए परिवर्तन चाहता है। इस लिए वह प्राचीन आदर्शों का न मानकर नवीनता व परिवर्तन का प्रेमी हो गया है। जब भी समाज में प्रथाओं का पतन होता है तब फैशन का प्रचलन बहुत जोरों से होता है। आज समाज में औद्योगिकीकरण की वृद्धि के कारण ही फैशन का प्रचलन भी बढ़ा है। फैशन के साथ चलने में आदमी अपने आपको जागरुक व आधुनिक महसूस करता है।

हम आज के समय को देखते हैं तो मालूम पड़ता है कि बाल्यकाल से ही नैतिक मूल्यों की गिरावट आ रही है। बच्चों व युवाओं में आदर व सम्मान का भाव कम होता जा रहा है। बच्चे स्वभाव से उदंड होते जा रहे है। उनमें नैतिक मूल्य व शिष्टाचार कहीं खोने लगे हैं। वे बड़ों की बात को नजरंदाज कर अपनी मनमर्जी करते हैं। सभ्य संस्कारों को बाल्यकाल में ही विकसित किया जा सकता है। बालक मन बड़ा ही कोमल व स्वच्छ होता है। इसी अवस्था में जीवन के मूल्यों को अपनाया व सिखाया जाता है। वही व्यक्तित्व के अंग बन जाते है। इस हेतु परिवार के बड़ों को व अध्यापकों को बच्चों व युवाओं का आदर्श बन कर भावी मानव समाज के निर्माण में संरचनात्मक योगदान देना होगा।

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ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जी ने कहा है कि

नये इंसान की खेती करनी होगी। अंधापन, कट्टरता की जंजीर से लोगों के चिंतन, विचार को मुक्त कर विज्ञान के प्रकाश से उसे प्रकाशमान करो,...,सत्य की खोज मिल सकती है सिर्फ विज्ञान में, तर्क में। आधुनिक शिक्षा से ही नये इंसान की खेती करना अर्थात नया इंसान बनाना संभव है।

युवाओं में नैतिक मूल्य जगाने के लिए अविभावकों और शिक्षकों तथा नेताओं को उनका रोल मॉडल बनना होगा। अगर कोई स्वयं ईमानदार है तो वह बड़ों का सम्मान करता है और दूसरे को माफ करता है। बच्चे उसका अनुसरण जरुर करेगे। किसी ने कहा है कि –

बच्चे वह नहीं करते जो आप उन्हें करने को कहते हैं, बच्चे वह करते है जो आप स्वयं करते है।

आपको इसके लिए पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर कुछ मूल्य बनाने होंगे और आगे आकर अपने बच्चों को समाज और संगठनों के लिए आगे बढ़कर कुछ करने हेतु प्रेरित करें। बच्चों को लेकर सामाजिक मुद्दे उठायें, अन्य लोगों को भी ऐसे सामाजिक सरोकारों से जोडे। यदि आप बच्चों व युवाओं के लिए कुछ मूल्य निर्धारित कर रहे हैं, तो उन्हें भी इसमें शामिल करें। उनके व्यवहार की हर समय नहीं तो समय समय पर समीक्षा भी करते रहे। इस प्रकार की जागरुकता का असर आपके निजी जीवन पर तो पडेगा ही समाज व देश को भी इसका लाभ होगा।

यह सच है कि वर्तमान परिदृश्य में बदलते सामाजिक मूल्यों के आधार पर पारिवारिक कार्य संस्थाओं द्वारा ले लिए गए है, परन्तु परिवार का पूर्ण लोप होना असम्भव ही है। परिवार का स्नेह, सन्तानोत्पत्ति और देख-भाल का कार्य किसी अन्य संस्था द्वारा कराना संभव नहीं है। विभिन्न कालों में परिवारों का स्वरूप परिवर्तित जरूर होता रहा है, परन्तु खत्म कभी नहीं हुआ। उसमें सिर्फ बदलाव जरूर होते रहे हैं। जैसे - आखेट अवस्था में जो परिवार व समाज था, वह चरवाहा और कृषि अवस्था में नहीं रह गया हैं, इसी प्रकार कृषि अवस्था में जो परिवार था, वह वर्तमान में परिवर्तित मात्र हुआ है फिर भी आज भी परिवार अपनी जगह दृढ़ खड़ा हुआ है।

बर्जेस और लांक ने कहा है कि –

परिवर्तित होती दशाओं का अनुकूलन करने के इस लम्बे इतिहास और इसके स्नेह के कार्य को देखते हुए भविष्यवाणी करना सुनिश्चित है कि परिवार जीवित रहेगा - व्यक्तिगत सामाजिक मूल्य व्यक्ति को उसके सन्तोष और व्यक्तित्व के विकास में देता और लेता रहेगा।

हमारा विचार है कि यदि इसी तरह से समाज व परिवार तथा देश में सामाजिक मूल्यों का महत्व खत्म होता रहा तो हम अपनी प्राचीन सभ्यता को न केवल बदलते देखेंगे वरन् मिटा भी देगें। इसमें पुनः बदलाव की आवश्यकता है।

अमर शहीद भगत सिंह ने कहा है कि आमतौर पर लोग चीजों के आदी हो जाते है और बदलाव के विचार से ही कांपने लगते हैं। हमें इसी निष्क्रियता की भावना को क्रांतिकारी भावना से बदलने की जरूरत है।

अतः अभी से समय रहते हमें इस ओर चेतना चाहिए तभी पुनः हम अपनी प्राचीन सभ्यता व संस्कृति को जीवित रख पायेंगे।

जय हिन्द, जय भारत

डॉ धर्मेंद्र कटियार

प्रौढ़ सतत् शिक्षा एवं प्रसार विभाग,

छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर

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