शहर बनाम गाँव के संवाद में हमने ये तो समझा था कि जहाँ गाँव सीधे समृद्धि और
संस्कृति से जुड़े हैं,
वहीँ शहर हमारे वो किले हैं, जिनसे इस समृद्धि और संस्कृति की रक्षा की जा
सके.
राजा और उसकी सेना को रखने के लिए बने शहर कोई नया उपक्रम नहीं है, जहाँ गाँव
में किसानी, हवा पानी मुख्य है, शहर हमेशा रणनीति, अविष्कारों मुख्यतः युद्ध से जुड़े होने
के लिए जाने जाते हैं.
आज अगर गाड़ी ना बने तो टैंक कैसे बनेंगे, हवाई जहाज़ ना बनें तो मिग
और सुखोई कैसे बनेंगे.
इतिहास की ओर देखें तो पहले भी बड़े विशाल शहर हुए हैं, भारत के किले और दुर्ग
देखें या फिर रोमन आर्किटेक्चर, मिस्र के पिरामिड या चोल राजाओं
के बनाए मंदिर, आज के शहर इनके सामने कुछ नहीं हैं.
तो ऐसा क्या हुआ कि आज के शहर ख़ासकर भारतीय उप महाद्वीप में बुरी तरह से
स्ट्रेस में हैं, ज्यादातर लोगों का जीवन स्तर, हवा, पानी, खाना सब ख़राब नज़र आता
है. संघर्ष भी बढे हैं, वो चाहें शहर के अपने अंदरूनी हों या शहर और गाँव या दो
शहरों के बीच, दो राज्य के शहरों के बीच और दो राष्ट्रों के शहरों के बीच.
आज शहरों में हर बदलते मौसम के साथ आती नित नई बीमारियाँ, अथाह भीड़, प्रदूषण से निरंतर गिरता
जीवन स्तर और हर रोज़ की आपा धापी झेलते भारत के शहरीकरण में
क्या कमियां हैं और क्या संभावनाएं..इस अहम विषय पर चर्चा करने के लिए
बैलटबॉक्सइंडिया के अंतर्गत विशेषज्ञों की टीम द्वारा मंत्रणा की गयी. जिसमें श्री
राकेश प्रसाद (संस्थापक एवं सीनियर रिसर्चर, बैलटबॉक्सइंडिया), प्रो. राणा प्रताप
सिंह (बीबीएयू), श्री आनंद प्रकाश (अर्बन प्लानिंग विशेषज्ञ) सम्मिलित हुए और इस
विषय पर गहन चर्चा की, जिसका वर्णन अग्रलिखित प्रकार से है.
भाग 1 : भारतीय शहरीकरण में व्याप्त समस्याएं –
शहरों में आज अंधाधुंध विकास की होड़ में अव्यवस्थित नियोजन
की समस्या देखने में आ रही है. अव्यवस्थित जनसंख्या वृद्धि के चलते रोजगारपरक
दृष्टि से शहर पीछे जा रहे हैं और नए रोजगार उत्पन्न नहीं हो पाना अपने आप में एक
बड़ी समस्या है. गुडगाँव का उदाहरण लें या अन्य एनसीआर के अन्य क्षेत्रों का, सभी
में हालात समान हैं. वृहद् स्तर पर विकास के चलते जमीनें अधिग्रहण की गयी, खेती की
जमीनें नष्ट कर दी गयी और भूजल स्तर लगातार गिरता चला गया. आज राजनीतिक तौर पर
अर्थव्यवस्था में जीडीपी वृद्धि के चलते अन्य जरूरतों को बैकफुट पर रखा जा रहा है,
जो आने वाले समय की बड़ी चुनौतियों में से एक होगी. शहरीकरण से जुड़ी इन समस्याओं पर
हमारी विशेषज्ञ टीम द्वारा किया गया मंथन इस प्रकार है.
इस विषय पर सर्वप्रथम प्रो. राणा प्रताप सिंह जी ने अपने
विचार प्रस्तुत करते हुए कहा –
शहरों में निर्माण नये दौर में हुआ है. पुराने दौर में
शहरों में सेना,
शासन या बाज़ार के
लिए ही कार्य होता था. पहले शहरों में बहुत अधिक आबादी नहीं थी, परन्तु धीरे धीरे
लोगों की जरूरतें और जीवन दर्शन बदलने लगा. इससे अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ
परन्तु इस स्थिति में बोझ संसाधनों और पर्यावरण पर पड़ता है.
अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए आवश्यकता से अधिक विस्तार
किया और शहरों को एक बाज़ार रूपी ढांचा मान लिया. इससे जमीन मंहगी हो गई और इससे
छोटे-छोटे इलाके ही विकसित हो पाए. शहरों में प्रदूषण के निस्तारण की उचित
व्यवस्था नहीं रखी गयी तथा प्राकृतिक वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं किया
गया.
भारत में टाउन प्लानर्स के द्वारा बनायी गयी योजनाओं में
पर्यावरण को अधिक वरीयता नहीं दी गयी, यानि जल, थल, वायु, ध्वनि जैसे
प्रदूषण, बिजली खपत, पानी के उपयोग, संसाधनों के
प्रयोग आदि पर ध्यान ही नहीं दिया गया और वर्तमान में इसके लिए उम्मीद भी नहीं बची
है. शहरों में जहां ग्रीन पोकेट्स होने चाहिए थे और बायोलॉजिकल साइकिल चलनी चाहिए
थी, वह कार्य सुचारू
रूप से नहीं हो पाया.
शहरीकरण का जो रिंगरोड का विस्तार हो रहा है, वह बहुत खतरनाक
है. विदेशों में सेटेलाइट टाउन की अवधारणा पर शहर निर्मित हुए हैं, जिनमें पौधों, खेतों, बागों और वनों को
ध्यान में रखते हुए शहरीकरण का कार्य किया गया है.
दूसरा विदेशों में आज नैनोटेक्नोलॉजी को ध्यान में रखकर कार्य चल रहा है, उदाहरण के लिए
चीन में एक बड़ा एयर प्यूरिफायर लगाया गया है, जो बड़े स्तर पर
शहरों के प्रदूषण को सोखने का कार्य करता है.
इस प्रकार जैविक और तकनीकी तरीके हमारे देश में उतनी
गंभीरता से नहीं लिए जा रहे है, जो काफी खतरनाक हो सकता है. नतीजतन मौसम में बदलाव के कारण
खतरनाक बीमारियां, जिनमें जल जनित बीमारियां प्रमुख हैं, बढती जा रही
है.
शहरों में सुविधाएं और तकनीकी आदि की सुविधा बढ़ी है, लेकिन इससे
परेशानियां भी बढ़ी है, जिनका सही निस्तारण नहीं हो पा रहा है. निरंतर बीमारियां
बढ़ी है, जिनका स्थायी
उपचार भी पता नहीं चल पता है. इसके अतिरिक्त प्रदूषित वायु और पानी से भी
बीमारियां बढ़ी हैं.
शहरों का निर्माण विकास से अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के
लिए किया गया था. पिछले बने शहरों में अब कोई प्रगति से जुड़ा कोई विस्तार नहीं हो
पा रहा है और नए बन रहे शहरों में भी विस्तार से जुड़ी समस्याओं को सुलझाने के लिए
कोई विशेष प्रयास सरकार द्वारा नहीं किये जा रहे हैं.
अन्य देशों में इतनी जगह रखी गई है कि नयी योजनाओँ को भी
चलाया जा सके. अभी के शहरों में प्रगति का कोई बेहतर मार्ग नहीं रहा है. वृक्षों
का अंधाधुंध दोहन है, जो गर्मियों में हालात खराब कर देता है. शहरों के मध्य में
जो खाली स्थान हरियाली के लिए होना चाहिए था, जो शहरों के
फेफड़ों के तौर पर कार्य करे, वह आज दिखाई नहीं देता है. पेयजल, बिजली की समस्या
भी शहरों में बढ़ती जा रही है और इसका कोई निस्तारण नहीं हो रहा है, परन्तु शहरीकरण
वृहद् स्तर पर बढ़ता चला जा रहा है.
प्लान टाउन जो बनाए जा रहे हैं परन्तु उसे प्रैक्टिकल तौर
पर नहीं देखा जा रहा है. ग्रीन पॉकेट्स, वाटर रिसाइकिलिंग के तरीके नहीं देखे जा रहे
हैँ. जनसंख्या वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के लिए तकनीकी रूप से योजना बना कर कार्य
होना चाहिए. साथ ही संसाधनों को बढ़ाने की योजना होनी चाहिए. शहरों का जो विकास हो
रहा है, वह भविष्य को
ध्यान में रखकर निर्माण नहीं किया जा रहा है.
देखा जाये तो आज अव्यवस्थित इलाकों में जो जनसंख्या वृद्धि
निरंतर हो रही है, उसकी समस्या तो अत्याधिक है ही, साथ ही जो व्यवस्थित रूप से
टाउन प्लानिंग की जा रही है, उसमें भी भविष्य की चुनौतियों को ध्यान में रख कर
कार्य नहीं किया जा रहा है.
शहरी नियोजन विशेषज्ञ आनंद प्रकाश जी ने प्राकृतिक भूद्रश्य
और मानव निर्मित भूसंरचनाओं के मध्य पसरे संघर्षो पर प्रस्तुतिकरण देते हुए बताया
:
प्राकृतिक और कृत्रिम भूमि के बीच में जो संबध होना
चाहिए, उस संबध से हम काफी दूर हैं. सर्वप्रथम इन दोनों को एक- दूसरे का पूरक होना
आवश्यक है और इस पूरक संबध से तात्पर्य है कि मानवनिर्मित लैण्डस्केप के लिए जरूरी
संसाधन नेचुरल लैण्डस्केप से ही मिलते हैं. वहीं नेचुरल लैण्डस्केप को बचाने के
लिए कृत्रिम लैण्डस्केप का खास तरीके से विकास करना होगा, अगर आपने उसका विशेष
तरीके से निर्माण नहीं किया गया तो नेचुरल लैण्डस्केप का अस्तित्व खतरे में पड़
सकता है. इसी संबध के बीच में अरबन क्षेत्रों में हमारे शहर की गंदगी एक जगह पर
जाकर एकत्रित हो जाती है.
पिछले हजारों सालों में मानव निवास (ह्यूमन सेटलमेंट)
का जो तरीका था वो नदियों से शुरू हुआ था. हम नदियों के किनारे बसते थे, क्योंकि
नदियों के किनारे जीवनयापन के लिए सभी जरूरी संसाधन मौजूद रहते थे. इन सभी
संसाधनों (ह्यूमन स्केल) यानी जल, कृषि, यातायात आदि का यदि अध्ययन किया जाए तो वह
काफी मानव आधारित अर्थात लोगों की जरूरत पर आधारित थे. इसके बाद मानवीय स्वभाव के
कारण हमने ज़मीनों पर कब्जा करना शुरू किया, फिर धीरे- धीरे हम गैर- जनतांत्रिक
होते गए और अपने एकाधिकार को साबित करने के लिए शहर बसते गए.
इसके बाद औद्योगिक रूप से जो शहर विकसित हए, उनका
उद्देश्य था, कि कितने कम समय में ज्यादा से ज्यादा निवेश करके लोगों को वहां
बसाया जा सके, ताकि कम दूरी पर ही सस्ता लेवर व अन्य सुविधाएं उपलब्ध करायी जा
सकें. लेकिन कई औद्योगिक शहर भी असफल हुए हैं.
उसके बाद 1994 में पीटर कॉर्नेटली ने एक कानसेप्ट
दिया, जिसके अंतर्गत प्रत्येक शहर को एक अलग लैण्डस्केप के रूप में देखा जाना
चाहिए. यह प्रयोग 19वीं शताब्दी में काफी लोकप्रिय हुआ, जिसमें कि पहली बार यह
सामने आया कि लैण्डस्केप के जरिए भी हम दो जगहों के बीच में संवाद स्थापित कर सकते
हैं.
पीटर कोर्नेटली कानसेप्ट के पहले यह सोचा जाता था, कि
शहर बसाने के लिए बहुत सारी बिल्डिंग्स बनाना आवश्यक है, किन्तु यह अवधारणा आने के
बाद लोगों ने यह समझा कि लैण्डस्केप कम्युनिकेशन के माध्यम से भी यह किया जा सकता
है, हालांकि बाद में इसकी काफी आलोचना भी हुई.
शहरीकरण की दृष्टि से देखा जाये तो हर जगह की स्थिति
और चुनौतियां अलग- अलग होते हैं, इसलिए जगह के अनुसार अलग अर्बन प्लानिंग मॉड्लस
बनाए जाने चाहिए. वहीं अगर शहर बनाम गांव की बात करें तो हमारे शहर गांवों की
तुलना में ज्यादा संसाधनों पर निर्भर हैं, किन्तु हम शहरों को बसाना बंद नहीं कर सकते.
हमें यह सोचना होगा कि हम शहरों को क्षमतायुक्त और स्वावलम्बी कैसे बना सकते हैं
तथा गांवों पर शहरों की निर्भरता को कैसे समाप्त कर सकते हैं? इसके लिए शहरों में ही अपने जरूरत के सामानों का उत्पादन करने वाले मॉडल को
लागू किया जाना चाहिए.
शहरीकरण के अंतर्गत आने वाली समस्याओं पर प्रकाश
डालते हुए राकेश प्रसाद जी ने अपना मंतव्य रखते हुए स्पष्ट किया :
वर्तमान में जो शहरीकरण में सबसे बड़ा संघर्ष का विषय
निकल कर आता है, वह संस्कृति और तकनीक के बीच बढ़ता संघर्ष है. विकास के अंतर्गत
सडक निर्माण के समय वृक्षों को काट देना शहरी जनता के लिए आम है, परन्तु ग्रामीण,
विशेषकर हमारे ग्रामों के बुजुर्ग वृक्षों को सम्मान देते हुए उनके काट देने के
खिलाफ खड़े हो जाते हैं.
वैज्ञानिक रूप से भी देखें तो वृक्षों से 24 घंटे
ऑक्सीजन प्राप्त होती है और 100 वर्ष पुराने वृक्ष गुणवत्ता के स्तर पर अत्याधिक
महत्वपूर्ण है. हमारी संस्कृति और भारतीयता के मानकों को स्थापित कर, उनसे सीख
लेकर गांवों और शहरों को शायद बेहतर तरीके से समझा जा सकता है.
यू.एस. के अंतर्गत देखें तो यहाँ अधिकतर शहर जैसे
न्यूयॉर्क, फ्लोरिडा, बोस्टन इत्यादि किनारों पर बसे हुए शहर हैं. इन सभी शहरों को
जरूरतों के आधार पर विकसित किया गया था और तकनीकी रूप से इन्हें निर्मित किया गया
था. यदि सेटेलाइट कांसेप्ट की बात करें, तो वह यू.एस. के अंतर्गत भी असफल रहा है.
मात्र औद्योगिकीकरण की जरूरतों के लिहाज से बने शहर
जैसे डेटरोइट आज बर्बाद हो रहा है, क्योंकि ये क्षणिक जरूरत और लाभ के दृष्टिकोण
से बने हुए थे. इन शहरों ने अपना परम्परागत प्ल्म्स अथवा स्ट्रॉबेरी का व्यवसाय
छोड़कर बड़ी-बड़ी फैक्ट्रीज खड़ी कर ली. इसके बाद चीन जैसे देशों ने इस औद्योगिकीकरण
को ध्वस्त किया और प्रदूषण भी अत्याधिक हो गया, नतीजतन
इन फैक्ट्रीज को हटाना पड़ा और डेटरोइट की पूरी अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गयी.
A vacant and blighted home on Detroit’s east side.Photograph: Reuters
यदि चाइना
की वाल्ड सिटी का उदाहरण लें, तो पाएंगे कि इसका
इस्तेमाल आरम्भ में सेना की विशिष्ट आवश्यकताओं के लिए किया जाता था, तो वहां जीवन
स्तर बेहतर था. फिर अंग्रेजों के आने के पश्चात इसकी यह आवश्यकता समाप्त हो गयी और
जापान द्वारा जब एयरपोर्ट बनाने शुरू कर दिए गए तो यह शहर अपनी धुरी से बिल्कुल हट
गया और वहां का जीवन स्तर लगातार गिरता चला गया. आज यदि वाल्ड सिटी के बारे में
पढेंगे तो पाएंगे कि इसका बेहद बुरा हाल है.
इन सबसे स्पष्ट है कि यदि कोई भी शहर अपनी कोर से,
अपनी स्थानीय आवश्यकताओं से, अपने प्राकृतिक रहवास से हटने का प्रयास करता है तो
वह दुर्दशा को प्राप्त करता है.
दूसरी समस्या जो आज देखने को मिल रही है, वह यह है कि
आज गांवों और शहरों के बीच बड़ा संघर्ष है.
जब सिंधु घाटी सभ्यता थी, तो सिंधु नदी के किनारे
विशेष संरचना के साथ निर्मित किया गया था, जिसमें शहर काफी ऊँचाई पर स्थापित किये
जाते थे ताकि बाहरी आक्रमणों से शहरों की सुरक्षा की जाये. बाढ़ और सूखे के समय
गांव के लोग फसलों को लेकर शहरों में आ जाया करते थे और बाढ़ जाने पर बाहर जाकर
खेती करना आरम्भ कर देते थे. पहले शहरों और ग्रामों के मध्य एक बेहतर समन्वय था.
किन्तु आज यदि देखा जाये तो गांवों और शहरों के मध्य
सामंजस्य कही पीछे रह गया है. आज औद्योगिकीकरण इतना बढ़ चुका है कि गांवों को शहरों
द्वारा नियंत्रित करने का प्रयास जारी है. परन्तु इससे किसी का भी लाभ नहीं हो रहा
है, न जीवन स्तर सुधर रहा है और न ही बढती बीमारियों (कैंसर, अस्थमा, एलर्जी आदि)
पर अंकुश लग पा रहा है. यह सब होने का कारण है कि हम अपनी सभ्यताएं, संस्कृति
भूलकर आगे बढ़ने की गलती कर रहे हैं.
लखनऊ की पुरानी इमारतों के नक्शों और कुँओं व
बावडियों की ओर देखें तो पता चलता है कि सब कुछ दीर्घकालीन सोच के आधार पर बनाया
गया था. यह सभी ऐतिहासिक इमारतें सुरक्षा और जनता की सुविधा के आधार पर बनाई जाती
थी, जल संरक्षण के नियमों को देखते हुए कुँओं और बावडियों का निर्माण किया जाता था
और गोमती का जल इनमें वर्ष भर के लिए संचित हो जाया करता था. इन सभी को वैज्ञानिक
आधार पर बनाया जाता था, परन्तु आज यह सब नहीं सोचा जा रहा है. इमारतें, जल निकासी,
वर्षा जल संरक्षण, वायु स्वच्छता आदि सभी के मानकों को ताक पर रखा जा रहा है.
वर्तमान में केवल जीडीपी ग्रोथ को देखा जा रहा है,
रोजगार से जुड़े हुए मानकों को भी ध्यान में नहीं रखा जा रहा. रोजगार की दौड़ में
पर्यावरण की जरूरतों को भी नजरअंदाज किया जा रहा है. आज यदि कोई भी देश भारत में
बड़ी कंपनी स्थापित करता है तो उसके आस पास ही टाउन योजना शुरू हो जाती है, जिसका
अस्तित्व कुछ समय बाद दिखता ही नहीं है.
वर्तमान में इकोसिस्टम के साथ सामंजस्य को ध्यान में
रखकर अपने प्राकृतिक रहवास, वायु, जल, भोजन आदि की स्वच्छता और आवश्यकता को ध्यान
में रखकर विभिन्न देशों के मॉडल को समझते हुए, उदाहरण लेते हुए मैकेनिकली तथ्यों
को देखना होगा.
भाग 2 : भारतीय शहरीकरण में सामंजस्य स्थापित करने के
कुछ सभावित उपागम –
भारत में प्राकृतिक और मानव निर्मित परिद्रश्य के
मध्य संतुलन बैठाने के प्रयास में हमारी विशेषज्ञ टीम द्वारा सुझाये कुछ शोध
आधारित उपाय इस भाग में दिए गए हैं.
सर्वप्रथम प्रो. आर.पी. सिंह जी ने इस दिशा में अपनी
रिसर्च के अनुसार समाधान सुझाते हुए बताया :
वर्तमान समय में बुनियादी समझ को बदलने की आवश्यकता है. शहर गांव के बीच एक और
भाग है जो है कस्बे, तो अगर उसके विकास के लिए सोचा जाए तो उसे नयी योजनाओं और
भविष्य की समस्याओं को ध्यान में रखकर किया जा सकता था..तो संसाधन उचित रूप से बंट
सकते हैं. जनसंख्या बढ़ी है, तो इसे भी ध्यान रखने की जरूरत है. एक ऐसा ढ़ाचा
तैयार किया जा सकता है, जिससे गांव की आपूर्ति गांव से, शहर की आपूर्ति शहर से और
कस्बे की आपूर्ति कस्बे से हो और इन तीनों में बेहतर सामंजस्य भी बना रहे. पुराने
समय के आर्किटेक्ट आज की तुलना में भविष्य का बहुत ध्यान रखते थे, आज के
आर्किटेक्ट को उनसे यह सीखने की आवश्यकता है.
अंग्रेज अपनी जलवायु, ऊर्जा को ध्यान में रखकर इमारतों का और शहर का निर्माण
करते थे, जिसे हमनें गलत तरीके से अपनाया. जबकि हमें अपने देश की संरचना को ध्यान
में रखकर कार्य करने की आवश्यकता है. स्वयं हम ऊर्जा, संसाधन के बचाव पर ज़मीनी
स्तर पर कितना कार्य कर पा रहे हैं, इसे समझना थोड़ा मुश्किल हो रहा है. शहरों को
विस्तारित करने के लिए नये सिरे से सोचना चाहिए. सेटेलाइट सिटी भी योजनागत तरीके
से कार्य नहीं हो पा रहे हैं.
नेचुरल लैण्डस्कैप को ध्यान में रखकर कार्य करना
चाहिए, साथ ही इस बात को भी तवज्जो देने की आवश्यकता है कि गांधी जी ने शहरी विकास
और उसके लिए उचित योजनाओं पर विशेष ध्यान देने की बात कही. इन सभी का आपस में कोई
का कोई संबंध बना रहना आवश्यक है. हेल्दी फूड सिक्योरिटी की जो समस्या आने वाली
हैं, उस पर ध्यान देना आवश्यकता रहा है.
जनसंख्या, जलनिकासी, जलवायु पर अधिक सोचने
की आवश्यकता है न कि केवल अर्थव्यवस्था पर अधिक ध्यान देने की. जनसंख्या वृद्धि और
गांव से शहर की ओर हो रहे पलायन को भी ध्यान रखने की आवश्यकता है. इस पलायन करती
जनसंख्या के सही नियोजन पर ध्यान देने की आज वास्तव में शहरी नियोजन में लाने की
आवश्यकता है. प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, भूकंप इत्यादि को ध्यान में रखकर टाउन
प्लानिंग की जानी जरूरी है.
आनंद प्रकाश जी ने स्थानीय शहरी नियोजन से जुड़ी संभावनाओं पर अपनी विचारधारा
प्रकट करते हुए कुछ सम्भावनाओं की व्याख्या की :
टाउन प्लानर यदि लोकल का ही कोई व्यक्ति हो, तो इसकी
संभावनाएं अनंत हैं, लेकिन इसके अलावा हमें एक चीज़ समझने की जरूरत है कि हर शहर
या हर ह्यूमन सेटलमेंट को अपने आप में एक विशेष ऑर्गेनिज़म की तरह देखा जाना
चाहिए. हमारे प्राचीन वास्तुशास्त्र व यजुर्वेद में वास्तुपुरूषमंडल की एक अवधारणा
दी गई है, जिसके अंतर्गत ह्यूमन सेटलमेंट को मानवीय क्रियाओं के आधार पर दिखाया
गया है कि कौन सी एक्टिविटी कहां व किस पर निर्भर होती है.
इससे यह समझा जा सकता है कि हर शहर एक शरीर है, जिसका
प्रत्येक अंग एक- दूसरे से जुड़ा हुआ है व उस पर निर्भर है. जिस प्रकार हर इंसान
में समान अंग होते हैं, किन्तु उनकी बनावट, क्षमताओं में थोड़ा- थोड़ा अंतर होता
है, इसी प्रकार हर शहर दूसरे शहर से अलग होता है. इस लिए टॉप्स डाउन अर्पोच से
शहरों के मॉडल को नहीं बनाना चाहिए.
हालांकि पहले की स्थितियां व जरूरतें अलग थीं, इस लिए
हमें आज की स्थितियों व आवश्यकताओं के अनुसार शहरों को बसाना चाहिए. अगर आपको अपने
गांव बचाने हैं तो शहरों का घनत्व ज्यादा होना चाहिए, क्योंकि लीड फ्राम डेवलपमेंट
मॉडल के आधार पर जिस प्रकार शहरों की सीमाएं बढ़ायी गईं हैं, उससे काफी नुकसान हुआ
है.
यदि हम एक स्वार्थी डेवलपर नहीं होते तो हमारे शहर
ज्यादा सुन्दर और घनत्व वाले होते. अगर आप अपने शहरीकरण को सीमित नहीं करेंगे तो
हम जहां हैं वहां से पिछड़ जायेंगे, क्योंकि ऐसा करने से अपराध, विकास से संबधित
समस्याओं उत्पन्न होने लगेंगी.
आज एक तरफ सरकार इतनी तेजी से सड़क बना रही है, वहीं
दूसरी तरफ ग्रीन एनर्जी को प्रमोट करने की बात करते हैं. इस विरोधाभास के चलते ग्रीन
एनर्जी की तुलना में सड़कों तथा हाईवेज़ को ज्यादा तवज्जों मिलती है. इस लिए हमें
अपने शहरों की सीमाओं को छोटा करके उनके घनत्व को बढ़ाने की जरूरत है.
शहर वास्तव में इम्पलॉयमेंट मैग्नेट हैं, अगर हम अपने
शहरों में उनकी क्षमता के अनुसार आर्थिक और सामाजिक अवसरों को प्रेरित नहीं
करेंगे, तो वह कभी वहां निहित संभावनाओं व क्षमताओं का अहसास नहीं कर पायेंगे.
अंततः राकेश प्रसाद जी ने व्यवस्थित शहरी नियोजन को
लेकर कुछ संभावित उपाय प्रस्तुत करते हुए सुझाया :
वर्तमान समय में सरकार द्वारा एयरपोर्ट जैसी सुविधाएं
शहरों के बसने से पहले ही स्थापित कर ली जाती हैं, जबकि शहरीकरण का आधार बुनियादी
आवश्यकताएं होनी चाहिए. इन सबसे समाज में एक बड़ा नकारात्मक परिवर्तन आता है, जैसे
कृषि की भूमि अधिग्रहण करली जाती है और किसानों व ग्रामों पर इससे विपरीत प्रभाव
पड़ता है.
यूरोप और अमेरिका जैसे बेहद शहरीकृत राष्ट्रों की बात
यदि आज के संदर्भ में की जाए तो शहरीकरण के सेटेलाइट तौर पर इन देशों ने भी असफलता
देखी है. आज वे भी पुराने एबम परंपरागत तरीकों की ओर वापस जाकर अर्बनाइजेशन कर रहे
हैं और इस प्रक्रिया में संघर्षरत हैं. यहां भारत को भी देखना होगा और सीख लेनी
होगी कि,
“जब इतने विकसित और समृद्ध अर्थव्यवस्था वाले देश
अर्बनाइजेशन को लेकर जद्दोजहद कर रहे हैं, तो भविष्य में हमे किस प्रकार के
दुष्परिणाम झेलने पड़ सकते हैं?”
आज भारत को किसी भी शहर के डिज़ाइन से पहले तीन कोर
मुद्दों अथवा मानकों को देखकर चलना होगा..
1. पर्यावरणीय मानकों के आधार पर –
इसके अंतर्गत हमें शहरी नियोजन का तीन प्रमुख कारकों
भोजन, पानी और वायु के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करना होगा. साथ ही आस पास
के इलाकों में इससे होने वाले परिणामों का भी स्पष्ट अवलोकन करना होगा.
2. आर्थिक मानकों के आधार पर –
अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों का भी एक उचित
आकलन हमें करना होगा. इसके
अंतर्गत ऊर्जा मांग में वृद्धि का ध्ययान और उससे कितना आर्थिक प्रभाव निर्मित
किया जा रहा है, इसे दृष्टिगोचर किया जाना आवश्यक है. साथ ही पुराने और परंपरागत
मानकों के समानांतर रख कर आधुनिक शहरी नियोजन को देखना होगा और तुलनात्मक अध्ययन
के आधार पर पड़ने वाले प्रभावों का आंकलन करना होगा.
3. सामाजिक मानकों के आधार पर –
यदि किसी भी शहर की योजना बनाई जा रही है, तो वहां के
आस पास की जनसंख्या पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन भी करना होगा. यदि शहरी नियोजन
के चलते लोगों को किसानी से हटाया जा रहा है तो उनके जीवन और जीविकापार्जन पर इससे
क्या प्रभाव होगा? साथ ही उनकी जीविका के लिए किस प्रकार की सुविधा की जाएगी और उस
रोजगार का स्थायित्व कितना अधिक होगा, इस दिशा की और भी सोचने के आवश्यकता है. यदि
फैक्ट्रीज स्थापित की जा रही हैं? तो उनके दीर्घकालीन प्रभाव कितने होंगे और आने
वाले समय में उनसे किस प्रकार के जोखिम हो सकते हैं? पुराने आर्किटेक्ट के तौर
तरीकों का भी मनोविश्लेषण किया जाना आवश्यक है.
उपर्युक्त मुद्दों के अतिरिक्त कुछ अन्य संभावित
समाधानों की दिशा में भी देखा जा सकता है..
1. केंद्रीय शहरी नियोजक और स्थानीय नियोजकों के मध्य
बेहतर सामंजस्य स्थापित होना चाहिए. जो भी दिशा-निर्देश निर्धारित किये जाये, उनका
क्रियान्वन स्थानीय जनता की जरूरतों के हिसाब से ही किया जाना चाहिए.
2. शहरी नियोजनों से पड़ने वाले हर पराक्र के प्रभावों
पर निरंतर विशेषज्ञों द्वारा ग्रामों और शहरों में चर्चा की जानी चाहिए.
3. स्थानीय मानकों को ध्यान में रखकर योजनाओं को मूर्त
रूप दिया जाना चाहिए और सभी जिम्मेदार एजेंसियों पर इसकी जवाबदेही सुनिश्चित होनी
चाहिए.
4. स्थानीय संस्कृति, इतिहास और पर्यावरण की बेहतर
समझ के साथ सही सामंजस्य बनाकर समाज पर उसके प्रभावों का स्थानीय मानकों के आधार
पर निर्धारण कर इनका अनुकरण करना होगा.
By Rakesh Prasad Contributors Mrinalini Sharma Kavita Chaudhary Anand Prakash Tanu chaturvedi Rana Pratap Singh Deepika Chaudhary {{descmodel.currdesc.readstats }}
शहर बनाम गाँव के संवाद में हमने ये तो समझा था कि जहाँ गाँव सीधे समृद्धि और संस्कृति से जुड़े हैं,
वहीँ शहर हमारे वो किले हैं, जिनसे इस समृद्धि और संस्कृति की रक्षा की जा सके.
राजा और उसकी सेना को रखने के लिए बने शहर कोई नया उपक्रम नहीं है, जहाँ गाँव में किसानी, हवा पानी मुख्य है, शहर हमेशा रणनीति, अविष्कारों मुख्यतः युद्ध से जुड़े होने के लिए जाने जाते हैं.
आज अगर गाड़ी ना बने तो टैंक कैसे बनेंगे, हवाई जहाज़ ना बनें तो मिग और सुखोई कैसे बनेंगे.
इतिहास की ओर देखें तो पहले भी बड़े विशाल शहर हुए हैं, भारत के किले और दुर्ग देखें या फिर रोमन आर्किटेक्चर, मिस्र के पिरामिड या चोल राजाओं के बनाए मंदिर, आज के शहर इनके सामने कुछ नहीं हैं.
आज शहरों में हर बदलते मौसम के साथ आती नित नई बीमारियाँ, अथाह भीड़, प्रदूषण से निरंतर गिरता जीवन स्तर और हर रोज़ की आपा धापी झेलते भारत के शहरीकरण में क्या कमियां हैं और क्या संभावनाएं..इस अहम विषय पर चर्चा करने के लिए बैलटबॉक्सइंडिया के अंतर्गत विशेषज्ञों की टीम द्वारा मंत्रणा की गयी. जिसमें श्री राकेश प्रसाद (संस्थापक एवं सीनियर रिसर्चर, बैलटबॉक्सइंडिया), प्रो. राणा प्रताप सिंह (बीबीएयू), श्री आनंद प्रकाश (अर्बन प्लानिंग विशेषज्ञ) सम्मिलित हुए और इस विषय पर गहन चर्चा की, जिसका वर्णन अग्रलिखित प्रकार से है.
शहरों में आज अंधाधुंध विकास की होड़ में अव्यवस्थित नियोजन की समस्या देखने में आ रही है. अव्यवस्थित जनसंख्या वृद्धि के चलते रोजगारपरक दृष्टि से शहर पीछे जा रहे हैं और नए रोजगार उत्पन्न नहीं हो पाना अपने आप में एक बड़ी समस्या है. गुडगाँव का उदाहरण लें या अन्य एनसीआर के अन्य क्षेत्रों का, सभी में हालात समान हैं. वृहद् स्तर पर विकास के चलते जमीनें अधिग्रहण की गयी, खेती की जमीनें नष्ट कर दी गयी और भूजल स्तर लगातार गिरता चला गया. आज राजनीतिक तौर पर अर्थव्यवस्था में जीडीपी वृद्धि के चलते अन्य जरूरतों को बैकफुट पर रखा जा रहा है, जो आने वाले समय की बड़ी चुनौतियों में से एक होगी. शहरीकरण से जुड़ी इन समस्याओं पर हमारी विशेषज्ञ टीम द्वारा किया गया मंथन इस प्रकार है.
इस विषय पर सर्वप्रथम प्रो. राणा प्रताप सिंह जी ने अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहा –
शहरों में निर्माण नये दौर में हुआ है. पुराने दौर में शहरों में सेना, शासन या बाज़ार के लिए ही कार्य होता था. पहले शहरों में बहुत अधिक आबादी नहीं थी, परन्तु धीरे धीरे लोगों की जरूरतें और जीवन दर्शन बदलने लगा. इससे अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ परन्तु इस स्थिति में बोझ संसाधनों और पर्यावरण पर पड़ता है.
अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए आवश्यकता से अधिक विस्तार किया और शहरों को एक बाज़ार रूपी ढांचा मान लिया. इससे जमीन मंहगी हो गई और इससे छोटे-छोटे इलाके ही विकसित हो पाए. शहरों में प्रदूषण के निस्तारण की उचित व्यवस्था नहीं रखी गयी तथा प्राकृतिक वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं किया गया.
शहरीकरण का जो रिंगरोड का विस्तार हो रहा है, वह बहुत खतरनाक है. विदेशों में सेटेलाइट टाउन की अवधारणा पर शहर निर्मित हुए हैं, जिनमें पौधों, खेतों, बागों और वनों को ध्यान में रखते हुए शहरीकरण का कार्य किया गया है.
दूसरा विदेशों में आज नैनोटेक्नोलॉजी को ध्यान में रखकर कार्य चल रहा है, उदाहरण के लिए चीन में एक बड़ा एयर प्यूरिफायर लगाया गया है, जो बड़े स्तर पर शहरों के प्रदूषण को सोखने का कार्य करता है.
इस प्रकार जैविक और तकनीकी तरीके हमारे देश में उतनी गंभीरता से नहीं लिए जा रहे है, जो काफी खतरनाक हो सकता है. नतीजतन मौसम में बदलाव के कारण खतरनाक बीमारियां, जिनमें जल जनित बीमारियां प्रमुख हैं, बढती जा रही है.
शहरों में सुविधाएं और तकनीकी आदि की सुविधा बढ़ी है, लेकिन इससे परेशानियां भी बढ़ी है, जिनका सही निस्तारण नहीं हो पा रहा है. निरंतर बीमारियां बढ़ी है, जिनका स्थायी उपचार भी पता नहीं चल पता है. इसके अतिरिक्त प्रदूषित वायु और पानी से भी बीमारियां बढ़ी हैं.
शहरों का निर्माण विकास से अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए किया गया था. पिछले बने शहरों में अब कोई प्रगति से जुड़ा कोई विस्तार नहीं हो पा रहा है और नए बन रहे शहरों में भी विस्तार से जुड़ी समस्याओं को सुलझाने के लिए कोई विशेष प्रयास सरकार द्वारा नहीं किये जा रहे हैं.
अन्य देशों में इतनी जगह रखी गई है कि नयी योजनाओँ को भी चलाया जा सके. अभी के शहरों में प्रगति का कोई बेहतर मार्ग नहीं रहा है. वृक्षों का अंधाधुंध दोहन है, जो गर्मियों में हालात खराब कर देता है. शहरों के मध्य में जो खाली स्थान हरियाली के लिए होना चाहिए था, जो शहरों के फेफड़ों के तौर पर कार्य करे, वह आज दिखाई नहीं देता है. पेयजल, बिजली की समस्या भी शहरों में बढ़ती जा रही है और इसका कोई निस्तारण नहीं हो रहा है, परन्तु शहरीकरण वृहद् स्तर पर बढ़ता चला जा रहा है.
देखा जाये तो आज अव्यवस्थित इलाकों में जो जनसंख्या वृद्धि निरंतर हो रही है, उसकी समस्या तो अत्याधिक है ही, साथ ही जो व्यवस्थित रूप से टाउन प्लानिंग की जा रही है, उसमें भी भविष्य की चुनौतियों को ध्यान में रख कर कार्य नहीं किया जा रहा है.
शहरी नियोजन विशेषज्ञ आनंद प्रकाश जी ने प्राकृतिक भूद्रश्य और मानव निर्मित भूसंरचनाओं के मध्य पसरे संघर्षो पर प्रस्तुतिकरण देते हुए बताया :
प्राकृतिक और कृत्रिम भूमि के बीच में जो संबध होना चाहिए, उस संबध से हम काफी दूर हैं. सर्वप्रथम इन दोनों को एक- दूसरे का पूरक होना आवश्यक है और इस पूरक संबध से तात्पर्य है कि मानवनिर्मित लैण्डस्केप के लिए जरूरी संसाधन नेचुरल लैण्डस्केप से ही मिलते हैं. वहीं नेचुरल लैण्डस्केप को बचाने के लिए कृत्रिम लैण्डस्केप का खास तरीके से विकास करना होगा, अगर आपने उसका विशेष तरीके से निर्माण नहीं किया गया तो नेचुरल लैण्डस्केप का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है. इसी संबध के बीच में अरबन क्षेत्रों में हमारे शहर की गंदगी एक जगह पर जाकर एकत्रित हो जाती है.
इसके बाद औद्योगिक रूप से जो शहर विकसित हए, उनका उद्देश्य था, कि कितने कम समय में ज्यादा से ज्यादा निवेश करके लोगों को वहां बसाया जा सके, ताकि कम दूरी पर ही सस्ता लेवर व अन्य सुविधाएं उपलब्ध करायी जा सकें. लेकिन कई औद्योगिक शहर भी असफल हुए हैं.
उसके बाद 1994 में पीटर कॉर्नेटली ने एक कानसेप्ट दिया, जिसके अंतर्गत प्रत्येक शहर को एक अलग लैण्डस्केप के रूप में देखा जाना चाहिए. यह प्रयोग 19वीं शताब्दी में काफी लोकप्रिय हुआ, जिसमें कि पहली बार यह सामने आया कि लैण्डस्केप के जरिए भी हम दो जगहों के बीच में संवाद स्थापित कर सकते हैं.
पीटर कोर्नेटली कानसेप्ट के पहले यह सोचा जाता था, कि शहर बसाने के लिए बहुत सारी बिल्डिंग्स बनाना आवश्यक है, किन्तु यह अवधारणा आने के बाद लोगों ने यह समझा कि लैण्डस्केप कम्युनिकेशन के माध्यम से भी यह किया जा सकता है, हालांकि बाद में इसकी काफी आलोचना भी हुई.
शहरीकरण की दृष्टि से देखा जाये तो हर जगह की स्थिति और चुनौतियां अलग- अलग होते हैं, इसलिए जगह के अनुसार अलग अर्बन प्लानिंग मॉड्लस बनाए जाने चाहिए. वहीं अगर शहर बनाम गांव की बात करें तो हमारे शहर गांवों की तुलना में ज्यादा संसाधनों पर निर्भर हैं, किन्तु हम शहरों को बसाना बंद नहीं कर सकते. हमें यह सोचना होगा कि हम शहरों को क्षमतायुक्त और स्वावलम्बी कैसे बना सकते हैं तथा गांवों पर शहरों की निर्भरता को कैसे समाप्त कर सकते हैं? इसके लिए शहरों में ही अपने जरूरत के सामानों का उत्पादन करने वाले मॉडल को लागू किया जाना चाहिए.
शहरीकरण के अंतर्गत आने वाली समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए राकेश प्रसाद जी ने अपना मंतव्य रखते हुए स्पष्ट किया :
वर्तमान में जो शहरीकरण में सबसे बड़ा संघर्ष का विषय निकल कर आता है, वह संस्कृति और तकनीक के बीच बढ़ता संघर्ष है. विकास के अंतर्गत सडक निर्माण के समय वृक्षों को काट देना शहरी जनता के लिए आम है, परन्तु ग्रामीण, विशेषकर हमारे ग्रामों के बुजुर्ग वृक्षों को सम्मान देते हुए उनके काट देने के खिलाफ खड़े हो जाते हैं.
वैज्ञानिक रूप से भी देखें तो वृक्षों से 24 घंटे ऑक्सीजन प्राप्त होती है और 100 वर्ष पुराने वृक्ष गुणवत्ता के स्तर पर अत्याधिक महत्वपूर्ण है. हमारी संस्कृति और भारतीयता के मानकों को स्थापित कर, उनसे सीख लेकर गांवों और शहरों को शायद बेहतर तरीके से समझा जा सकता है.
यू.एस. के अंतर्गत देखें तो यहाँ अधिकतर शहर जैसे न्यूयॉर्क, फ्लोरिडा, बोस्टन इत्यादि किनारों पर बसे हुए शहर हैं. इन सभी शहरों को जरूरतों के आधार पर विकसित किया गया था और तकनीकी रूप से इन्हें निर्मित किया गया था. यदि सेटेलाइट कांसेप्ट की बात करें, तो वह यू.एस. के अंतर्गत भी असफल रहा है.
मात्र औद्योगिकीकरण की जरूरतों के लिहाज से बने शहर जैसे डेटरोइट आज बर्बाद हो रहा है, क्योंकि ये क्षणिक जरूरत और लाभ के दृष्टिकोण से बने हुए थे. इन शहरों ने अपना परम्परागत प्ल्म्स अथवा स्ट्रॉबेरी का व्यवसाय छोड़कर बड़ी-बड़ी फैक्ट्रीज खड़ी कर ली. इसके बाद चीन जैसे देशों ने इस औद्योगिकीकरण को ध्वस्त किया और प्रदूषण भी अत्याधिक हो गया, नतीजतन इन फैक्ट्रीज को हटाना पड़ा और डेटरोइट की पूरी अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गयी.
A vacant and blighted home on Detroit’s east side.Photograph: Reuters
यदि चाइना की वाल्ड सिटी का उदाहरण लें, तो पाएंगे कि इसका इस्तेमाल आरम्भ में सेना की विशिष्ट आवश्यकताओं के लिए किया जाता था, तो वहां जीवन स्तर बेहतर था. फिर अंग्रेजों के आने के पश्चात इसकी यह आवश्यकता समाप्त हो गयी और जापान द्वारा जब एयरपोर्ट बनाने शुरू कर दिए गए तो यह शहर अपनी धुरी से बिल्कुल हट गया और वहां का जीवन स्तर लगातार गिरता चला गया. आज यदि वाल्ड सिटी के बारे में पढेंगे तो पाएंगे कि इसका बेहद बुरा हाल है.
इन सबसे स्पष्ट है कि यदि कोई भी शहर अपनी कोर से, अपनी स्थानीय आवश्यकताओं से, अपने प्राकृतिक रहवास से हटने का प्रयास करता है तो वह दुर्दशा को प्राप्त करता है.
दूसरी समस्या जो आज देखने को मिल रही है, वह यह है कि आज गांवों और शहरों के बीच बड़ा संघर्ष है.
जब सिंधु घाटी सभ्यता थी, तो सिंधु नदी के किनारे विशेष संरचना के साथ निर्मित किया गया था, जिसमें शहर काफी ऊँचाई पर स्थापित किये जाते थे ताकि बाहरी आक्रमणों से शहरों की सुरक्षा की जाये. बाढ़ और सूखे के समय गांव के लोग फसलों को लेकर शहरों में आ जाया करते थे और बाढ़ जाने पर बाहर जाकर खेती करना आरम्भ कर देते थे. पहले शहरों और ग्रामों के मध्य एक बेहतर समन्वय था.
लखनऊ की पुरानी इमारतों के नक्शों और कुँओं व बावडियों की ओर देखें तो पता चलता है कि सब कुछ दीर्घकालीन सोच के आधार पर बनाया गया था. यह सभी ऐतिहासिक इमारतें सुरक्षा और जनता की सुविधा के आधार पर बनाई जाती थी, जल संरक्षण के नियमों को देखते हुए कुँओं और बावडियों का निर्माण किया जाता था और गोमती का जल इनमें वर्ष भर के लिए संचित हो जाया करता था. इन सभी को वैज्ञानिक आधार पर बनाया जाता था, परन्तु आज यह सब नहीं सोचा जा रहा है. इमारतें, जल निकासी, वर्षा जल संरक्षण, वायु स्वच्छता आदि सभी के मानकों को ताक पर रखा जा रहा है.
वर्तमान में इकोसिस्टम के साथ सामंजस्य को ध्यान में रखकर अपने प्राकृतिक रहवास, वायु, जल, भोजन आदि की स्वच्छता और आवश्यकता को ध्यान में रखकर विभिन्न देशों के मॉडल को समझते हुए, उदाहरण लेते हुए मैकेनिकली तथ्यों को देखना होगा.
भारत में प्राकृतिक और मानव निर्मित परिद्रश्य के मध्य संतुलन बैठाने के प्रयास में हमारी विशेषज्ञ टीम द्वारा सुझाये कुछ शोध आधारित उपाय इस भाग में दिए गए हैं.
सर्वप्रथम प्रो. आर.पी. सिंह जी ने इस दिशा में अपनी रिसर्च के अनुसार समाधान सुझाते हुए बताया :
वर्तमान समय में बुनियादी समझ को बदलने की आवश्यकता है. शहर गांव के बीच एक और भाग है जो है कस्बे, तो अगर उसके विकास के लिए सोचा जाए तो उसे नयी योजनाओं और भविष्य की समस्याओं को ध्यान में रखकर किया जा सकता था..तो संसाधन उचित रूप से बंट सकते हैं. जनसंख्या बढ़ी है, तो इसे भी ध्यान रखने की जरूरत है. एक ऐसा ढ़ाचा तैयार किया जा सकता है, जिससे गांव की आपूर्ति गांव से, शहर की आपूर्ति शहर से और कस्बे की आपूर्ति कस्बे से हो और इन तीनों में बेहतर सामंजस्य भी बना रहे. पुराने समय के आर्किटेक्ट आज की तुलना में भविष्य का बहुत ध्यान रखते थे, आज के आर्किटेक्ट को उनसे यह सीखने की आवश्यकता है.
अंग्रेज अपनी जलवायु, ऊर्जा को ध्यान में रखकर इमारतों का और शहर का निर्माण करते थे, जिसे हमनें गलत तरीके से अपनाया. जबकि हमें अपने देश की संरचना को ध्यान में रखकर कार्य करने की आवश्यकता है. स्वयं हम ऊर्जा, संसाधन के बचाव पर ज़मीनी स्तर पर कितना कार्य कर पा रहे हैं, इसे समझना थोड़ा मुश्किल हो रहा है. शहरों को विस्तारित करने के लिए नये सिरे से सोचना चाहिए. सेटेलाइट सिटी भी योजनागत तरीके से कार्य नहीं हो पा रहे हैं.
नेचुरल लैण्डस्कैप को ध्यान में रखकर कार्य करना चाहिए, साथ ही इस बात को भी तवज्जो देने की आवश्यकता है कि गांधी जी ने शहरी विकास और उसके लिए उचित योजनाओं पर विशेष ध्यान देने की बात कही. इन सभी का आपस में कोई का कोई संबंध बना रहना आवश्यक है. हेल्दी फूड सिक्योरिटी की जो समस्या आने वाली हैं, उस पर ध्यान देना आवश्यकता रहा है.
जनसंख्या, जलनिकासी, जलवायु पर अधिक सोचने की आवश्यकता है न कि केवल अर्थव्यवस्था पर अधिक ध्यान देने की. जनसंख्या वृद्धि और गांव से शहर की ओर हो रहे पलायन को भी ध्यान रखने की आवश्यकता है. इस पलायन करती जनसंख्या के सही नियोजन पर ध्यान देने की आज वास्तव में शहरी नियोजन में लाने की आवश्यकता है. प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, भूकंप इत्यादि को ध्यान में रखकर टाउन प्लानिंग की जानी जरूरी है.
आनंद प्रकाश जी ने स्थानीय शहरी नियोजन से जुड़ी संभावनाओं पर अपनी विचारधारा प्रकट करते हुए कुछ सम्भावनाओं की व्याख्या की :
टाउन प्लानर यदि लोकल का ही कोई व्यक्ति हो, तो इसकी संभावनाएं अनंत हैं, लेकिन इसके अलावा हमें एक चीज़ समझने की जरूरत है कि हर शहर या हर ह्यूमन सेटलमेंट को अपने आप में एक विशेष ऑर्गेनिज़म की तरह देखा जाना चाहिए. हमारे प्राचीन वास्तुशास्त्र व यजुर्वेद में वास्तुपुरूषमंडल की एक अवधारणा दी गई है, जिसके अंतर्गत ह्यूमन सेटलमेंट को मानवीय क्रियाओं के आधार पर दिखाया गया है कि कौन सी एक्टिविटी कहां व किस पर निर्भर होती है.
हालांकि पहले की स्थितियां व जरूरतें अलग थीं, इस लिए हमें आज की स्थितियों व आवश्यकताओं के अनुसार शहरों को बसाना चाहिए. अगर आपको अपने गांव बचाने हैं तो शहरों का घनत्व ज्यादा होना चाहिए, क्योंकि लीड फ्राम डेवलपमेंट मॉडल के आधार पर जिस प्रकार शहरों की सीमाएं बढ़ायी गईं हैं, उससे काफी नुकसान हुआ है.
यदि हम एक स्वार्थी डेवलपर नहीं होते तो हमारे शहर ज्यादा सुन्दर और घनत्व वाले होते. अगर आप अपने शहरीकरण को सीमित नहीं करेंगे तो हम जहां हैं वहां से पिछड़ जायेंगे, क्योंकि ऐसा करने से अपराध, विकास से संबधित समस्याओं उत्पन्न होने लगेंगी.
शहर वास्तव में इम्पलॉयमेंट मैग्नेट हैं, अगर हम अपने शहरों में उनकी क्षमता के अनुसार आर्थिक और सामाजिक अवसरों को प्रेरित नहीं करेंगे, तो वह कभी वहां निहित संभावनाओं व क्षमताओं का अहसास नहीं कर पायेंगे.
अंततः राकेश प्रसाद जी ने व्यवस्थित शहरी नियोजन को लेकर कुछ संभावित उपाय प्रस्तुत करते हुए सुझाया :
वर्तमान समय में सरकार द्वारा एयरपोर्ट जैसी सुविधाएं शहरों के बसने से पहले ही स्थापित कर ली जाती हैं, जबकि शहरीकरण का आधार बुनियादी आवश्यकताएं होनी चाहिए. इन सबसे समाज में एक बड़ा नकारात्मक परिवर्तन आता है, जैसे कृषि की भूमि अधिग्रहण करली जाती है और किसानों व ग्रामों पर इससे विपरीत प्रभाव पड़ता है.
यूरोप और अमेरिका जैसे बेहद शहरीकृत राष्ट्रों की बात यदि आज के संदर्भ में की जाए तो शहरीकरण के सेटेलाइट तौर पर इन देशों ने भी असफलता देखी है. आज वे भी पुराने एबम परंपरागत तरीकों की ओर वापस जाकर अर्बनाइजेशन कर रहे हैं और इस प्रक्रिया में संघर्षरत हैं. यहां भारत को भी देखना होगा और सीख लेनी होगी कि,
आज भारत को किसी भी शहर के डिज़ाइन से पहले तीन कोर मुद्दों अथवा मानकों को देखकर चलना होगा..
1. पर्यावरणीय मानकों के आधार पर –
इसके अंतर्गत हमें शहरी नियोजन का तीन प्रमुख कारकों भोजन, पानी और वायु के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करना होगा. साथ ही आस पास के इलाकों में इससे होने वाले परिणामों का भी स्पष्ट अवलोकन करना होगा.
2. आर्थिक मानकों के आधार पर –
अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों का भी एक उचित आकलन हमें करना होगा. इसके अंतर्गत ऊर्जा मांग में वृद्धि का ध्ययान और उससे कितना आर्थिक प्रभाव निर्मित किया जा रहा है, इसे दृष्टिगोचर किया जाना आवश्यक है. साथ ही पुराने और परंपरागत मानकों के समानांतर रख कर आधुनिक शहरी नियोजन को देखना होगा और तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर पड़ने वाले प्रभावों का आंकलन करना होगा.
3. सामाजिक मानकों के आधार पर –
यदि किसी भी शहर की योजना बनाई जा रही है, तो वहां के आस पास की जनसंख्या पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन भी करना होगा. यदि शहरी नियोजन के चलते लोगों को किसानी से हटाया जा रहा है तो उनके जीवन और जीविकापार्जन पर इससे क्या प्रभाव होगा? साथ ही उनकी जीविका के लिए किस प्रकार की सुविधा की जाएगी और उस रोजगार का स्थायित्व कितना अधिक होगा, इस दिशा की और भी सोचने के आवश्यकता है. यदि फैक्ट्रीज स्थापित की जा रही हैं? तो उनके दीर्घकालीन प्रभाव कितने होंगे और आने वाले समय में उनसे किस प्रकार के जोखिम हो सकते हैं? पुराने आर्किटेक्ट के तौर तरीकों का भी मनोविश्लेषण किया जाना आवश्यक है.
उपर्युक्त मुद्दों के अतिरिक्त कुछ अन्य संभावित समाधानों की दिशा में भी देखा जा सकता है..
1. केंद्रीय शहरी नियोजक और स्थानीय नियोजकों के मध्य बेहतर सामंजस्य स्थापित होना चाहिए. जो भी दिशा-निर्देश निर्धारित किये जाये, उनका क्रियान्वन स्थानीय जनता की जरूरतों के हिसाब से ही किया जाना चाहिए.
2. शहरी नियोजनों से पड़ने वाले हर पराक्र के प्रभावों पर निरंतर विशेषज्ञों द्वारा ग्रामों और शहरों में चर्चा की जानी चाहिए.
3. स्थानीय मानकों को ध्यान में रखकर योजनाओं को मूर्त रूप दिया जाना चाहिए और सभी जिम्मेदार एजेंसियों पर इसकी जवाबदेही सुनिश्चित होनी चाहिए.
4. स्थानीय संस्कृति, इतिहास और पर्यावरण की बेहतर समझ के साथ सही सामंजस्य बनाकर समाज पर उसके प्रभावों का स्थानीय मानकों के आधार पर निर्धारण कर इनका अनुकरण करना होगा.
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