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नेताओं के भाषण और बयान आधारित राजनीति में विचार गायब

भारत के महंगे चुनाव प्रक्रिया में बदलाव की जरूरत, ‘जनमेला’ बनेगा विकल्प – एक प्रस्ताव निर्वाचन आयोग को

भारत के महंगे चुनाव प्रक्रिया में बदलाव की जरूरत, ‘जनमेला’ बनेगा विकल्प – एक प्रस्ताव निर्वाचन आयोग को चुनाव सुधार के लिए नेताओं की 'बोलबंदी' भी जरुरी

ByMohd. Irshad Saifi Mohd. Irshad Saifi   {{descmodel.currdesc.readstats }}

Originally Posted by {{descmodel.currdesc.parent.user.name || descmodel.currdesc.parent.user.first_name + ' ' + descmodel.currdesc.parent.user.last_name}} {{ descmodel.currdesc.parent.user.totalreps | number}}   {{ descmodel.currdesc.parent.last_modified|date:'dd/MM/yyyy h:mma' }}

आज के दौर में देखा जा रहा है कि भारतीय राजनीती बयानों आधारित पर होती जा रही है। हम और आप नेताओं का मआज के दौर में देखा जा रहा है कि भारतीय राजनीती बयानों आधारित पर होती जा रही है। हम और आप नेताओं का मूल्यांकन उनके विचार पर नही ड़ायलॉगबाजी पर ज्यादा कर रहे हैं। इसी पर हम लोग ताली बजाते हैं और यही हमारे समाचार पत्रों व टीवी की भाषा बन जाती है। इससे दर्शकों को बहुत नुकसान है। डायलॉगबाजी करने से मनोरंजन तो हो जाता है मगर राजनीति का स्तर गिर जाता है। ऐसी भाषा हमेशा छल करती है, जितना कहती नहीं है, उससे कहीं ज्यादा सवालों में टाल देती है।

हमारे नेता चुनावों के दौरान होने वाली रैलीयों में कैसे बात करते हैं। इससे एक-दूसरे का मुकाबला कर रहे हैं या भारत की राजनीति को समृद्ध कर रहे हैं। भारतीय राजनीति बयान आधारित है, हम और आप भी नेताओं का मूल्यांकन हम विचार कम डायलॉगबाजी से ज्यादा करते हैं। इसी पर ताली बजती है, यही हेडलाइन बनती है. टीवी की भाषा भी पत्रकारिता की कम, सीरीयल की ज्यादा हो गई है। इससे आप दर्शकों को बहुत नुकसान है। डायलॉग से मनोरंजन तो हो जाता है मगर राजनीति का स्तर गिर जाता है। ऐसी भाषा हमेशा छल करती है, जितना कहती नहीं है, उससे कहीं ज्यादा सवालों को टाल देती है.

राजनीति वन लाइनर होती जा रही है. बोलने में भी और विचार से भी. सारा ध्यान इसी पर रहता है कि ताली बजी कि नहीं बजी. लोग हंसे की नहीं हंसे. मजा चाहिए, विचार नहीं। 

राहुल गांधी ने कहा कि उनका जितना मजाक उड़ाना है उड़ाइए, मगर सवालों का जवाब दीजिए. राहुल की एक बात इस हद तक ठीक है कि भारत में एक प्रतिशत लोगों के पास देश की 50 फीसदी से अधिक संपत्ति है। लेकिन यह बात बिल्कुल ठीक नहीं है कि ऐसा सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में हुआ। ऐसा यूपीए और उससे पहले एनडीए और उससे पहले की सरकारों के कार्यकाल से होता आ रहा है। इस बढ़ती असमानता पर दुनिया भर के अर्थशास्त्री बात कर रहे हैं, सिर्फ वे अर्थशास्त्री नहीं बात कर रहे हैं जो किसी सरकार के सलाहकार बन जाते हैं या उसकी संस्थाओं के प्रमुख. भारत में भी और दुनिया भर में भी।

बैंकों के आगे खड़ी लाइनों में लोग कहते पाए गए कि अमीर तो दिख नहीं रहा है। जब गरीब या निम्न आय वाले ही ज्यादा हैं तो वही दिखेगें। देश की आधी से अधिक संपत्ति के मालिक एक प्रतिशत अमीर लाइनों में लगे भी होंगे तो वे संख्या में इतने कम होंगे कि किसी को पता भी न चला होगा। अमरीका के हावर्ड और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्रियों ने एक अध्ययन में पाया है कि राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल के दौरान जितनी भी नौकरियां पैदा हुईं, उनमें से 94 फीसदी नौकरियां अस्थायी थीं। पार्ट टाइम वाला कम कमाता है और कम समय के लिए कमाता है। अगर राहुल गांधी का मकसद इस असमानता को उभारना है तो शुक्रिया। लेकिन लगता नहीं कि वे इसके सहारे प्रधानमंत्री को निशाना बनाने से ज्यादा कुछ करना चाहते हैं। हकीकत यह है कि मोदी हों या मनमोहन, मोटे तौर पर दोनों एक ही तरह की आर्थिक नीतियों पर चलते हैं जिससे आगे जाकर असमानता ही बढ़ेगी यानी अमीर ही सिर्फ अमीर होता है। कम से कम प्रधानमंत्री और राहुल दोनों ही बताएं कि एक प्रतिशत के पास आधी से अधिक संपत्ति उनकी मेहनत से जमा हुई या गरीबों के नाम पर चुनाव जीतने वाले नेताओं की मेहरबान नीतियों के कारण हुआ।

आज राजनीति वन लाइनर होती नजर आ रही है, बोलना ज्यादा और विचार कम कर रहे हैं। सभी नेताओं का सारा ध्यान इसी पर रहता है कि ताली बजी कि नहीं बजी, लोग हंसे की नहीं हंसे, इन्ही सब बातों से मजा चाहिए, विचार नहीं। इस वक्त बहुत जरूरी है कि राजनीति में गिरते संवाद को देखते हुये हमे और आप को विचार करने की जरुरत है।  

आज के दौर में देखा जा रहा है कि भारतीय राजनीती बयानों आधारित पर होती जा रही है। हम और आप नेताओं का म

राहुल गांधी ने कहा था कि उनका जितना मजाक उड़ाना है उड़ाइए, मगर सवालों का जवाब दीजिए. राहुल की एक बात इस हद तक तो ठीक है कि भारत में एक प्रतिशत लोगों के पास देश की 50 फीसदी से अधिक संपत्ति है. लेकिन यह बात बिल्कुल ठीक नहीं है कि ऐसा सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में हुआ. ये सब यूपीए और उससे पहले एनडीए और उससे पहले जो भी सरकारों के कार्यकाल में होता आ रहा है. इस बढ़ती असमानता पर दुनिया भर के अर्थशास्त्री बात कर रहे हैं, सिर्फ वे अर्थशास्त्री नहीं बात कर रहे हैं जो किसी सरकार के सलाहकार बन जाते हैं। 

नोटबंदी के दौरान बैंकों के आगे खड़ी लाइनों में लोग कहते पाए गए कि अमीर तो दिख नहीं रहा है। जब गरीब या निम्न आय वाले ही ज्यादा लोग ही नजर आ रहे हैं। देश की आधी से अधिक संपत्ति के मालिक एक प्रतिशत अमीर लाइनों में लगे भी होंगे तो वे संख्या में इतने कम होंगे कि किसी को पता भी न चला होगा। अमरीका के हावर्ड और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्रियों ने एक अध्ययन में पाया है कि राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल के दौरान जितनी भी नौकरियां पैदा हुईं, उनमें से 94 फीसदी नौकरियां अस्थायी थीं। पार्ट टाइम वाला कम कमाता है और कम समय के लिए कमाता है। अगर राहुल गांधी का मकसद इस असमानता को उभारना है तो शुक्रिया। लेकिन लगता नहीं कि वे इसके सहारे प्रधानमंत्री को निशाना बनाने से ज्यादा कुछ करना चाहते हैं। हकीकत यह है कि मोदी हों या मनमोहन, मोटे तौर पर दोनों एक ही तरह की आर्थिक नीतियों पर चलते हैं जिससे आगे जाकर असमानता ही बढ़ेगी यानी अमीर ही सिर्फ अमीर होता है। कम से कम प्रधानमंत्री और राहुल दोनों ही बताएं कि एक प्रतिशत के पास आधी से अधिक संपत्ति उनकी मेहनत से जमा हुई या गरीबों के नाम पर चुनाव जीतने वाले नेताओं की मेहरबान नीतियों के कारण हुआ।

आज के दौर में देखा जा रहा है कि भारतीय राजनीती बयानों आधारित पर होती जा रही है। हम और आप नेताओं का म

बीएचयू में जब प्रधानमंत्री के भाषण पर लोग खूब हंसे। उन्होंने कहा कि मनमोहन सिंह ने कहा कि 50 फीसदी लोग गरीब हैं वहां हम टेक्नालॉजी की बात कैसे कर सकते हैं। अब यह बताइए अपना रिपोर्ट कार्ड दे रहे हैं या मेरा दे रहे हैं। मनमोहन सिंह ने नोटबंदी की आलोचना की है, न कि आनलाइन बैंकिंग की। राज्यसभा में दिए अपने भाषण में उन्होंने कैशलेस लेन देन की कोई आलोचना नहीं की है। टेक्नालॉजी का विरोध नहीं किया है। हिन्दू अखबार में छपे अपने लेख में पूर्व प्रधानमंत्री ने यह जरूर कहा है कि आधी आबादी यानी साठ करोड़ भारतीय ऐसे गांव कस्बों में रहती हैं, जहां एक भी बैंक नहीं है। जबकि 2001 से अब तक गांवों में बैंक शाखाओं की संख्या दोगुनी हो गई है. आदर्श स्थिति तो यह होती कि जब पूर्व प्रधानमंत्री की आलोचना का जवाब प्रधानमंत्री दे रहे हों तो कम से कम एक दूसरे की बात को सही से कोट करें।

कभी विरोधियों को पाकिस्तान भेजने या पाकिस्तानी से तुलना गिरिराज सिंह जैसे मंत्री करते थे। अमित शाह पाकिस्तान भेज देने की बात करते थे, तब भी प्रधानमंत्री इस बात से बचते थे। लेकिन अब वे भी नोटबंदी का विरोध करने वालों की तुलना आतंकवादियों की मदद करने वाली पाकिस्तानी सेना से करने लगे हैं। जेबकतरा और उसके दोस्त के किस्से के सहारे विरोधियों को जवाब तो दे दिया लेकिन क्या प्रधानमंत्री के लिए यह उचित था। वैसे उन पर भी हमले कम नहीं होते, उन हमलों में भी गरिमा नहीं होती है। यही नहीं प्रधानमंत्री ने नोटबंदी का विरोध करने वाले दलों के नेताओं के लिए मेले में आए जेब कतरे और उसके साथी का किस्सा सुनाया, कहा कि जब जेबकतरा जेब काटेगा तो उसका साथी दूर खड़ा रहता है. काम खत्म होने पर उधर की तरफ दौड़ता है कि चोर भाग गया, चोर भाग गया। पुलिस उधर भागेगी और जेब कतरा निकल जाएगा. बेईमानों को बचाने के लिए न जाने कितनी तरकीबें अपनाई जा रही हैं।

गांधी जी बहुत अच्छे वक्ता नहीं थे। कम बोलते थे और धीरे-धीरे बोलते थे, हुंकार नहीं भरते थे और फुफकार नहीं मारते थे। अपनी आत्मकथा सत्य के साथ प्रयोग में उन्होंने बोलने पर कुछ कहा है कि उसका जिक्र करना चाहूंगा। लिखते हैं कि, एक बार मैं वेंटनर गया था, जहां मजमुदार भी थे। वहां के एक अन्नाहार घर में हम दोनों रहते थे। वहां अन्नाहार को प्रोत्साहन देने के लिए एक सभा की गई उसमें हम दोनों को बोलने का निमंत्रण मिला। दोनों ने उसे स्वीकार किया, मैंने जान लिया था कि लिखा हुआ भाषण पढ़ने में कोई दोष नहीं माना जाता। मैं देखता था कि अपने विचारों को संक्षेप में प्रकट करने के लिए बहुत से लोग लिखा हुआ पढ़ते थे। मैंने अपना भाषण लिख लिया पर बोलने की हिम्मत नहीं थी। जब मैं पढ़ने के लिए खड़ा हुआ तो पढ़ न सका, आंखों के सामने अंधेरा छा गया और मेरे हाथ-पैर कांपने लगे। मजमुदार का भाषण तो अच्छा हुआ. श्रोतागण उनकी बातों का स्वागत तालियों की गड़गड़ाहट से करते थे। मैं शर्माया और बोलने की अपनी असमर्थता के लिए दुखी हुआ। अपने इस शर्मीले स्वभाव के कारण मेरी फजीहत तो हुई पर मेरा कोई नुकसान नहीं हुआ बल्कि अब तो मैं देख सकता हूं कि मुझे फायदा हुआ है।

उन्हीं के शब्द हैं कि कम बोलने वाला बिना विचारे नहीं बोलेगा। वह अपने प्रत्येक शब्द तौलकर बोलेगा। सत्य के साथ प्रयोग में लिखते हैं कि अक्सर मनुष्य बोलने के लिए अधीर हो जाता है। मैं भी बोलना चाहता हूं, इस आशय की चिट्ठी किस सभापति को नहीं मिलती होगी। फिर उसे जो समय दिया जाता है, वह उसके लिए पर्याप्त नहीं होता है। वह अधिक बोलने देने की मांग करता है और अंत में बिना अनुमति के ही बोलता रहता है। इन सब लोगों के बोलने से दुनिया को लाभ होता है, ऐसा शायद ही हुआ है पर उतने समय की बर्बादी तो स्पष्ट देखी जा सकती है। 

आज के दौर में देखा जा रहा है कि भारतीय राजनीती बयानों आधारित पर होती जा रही है। हम और आप नेताओं का म

हम जिस दौर में रह रहे हैं, उसमें यही मॉडल चल पड़ा है। सोशल मीडिया पर जहां लोग लिखकर बोलते हैं, वहां बोलना बदल गया है। गालियां लिखकर दी जा रही हैं और भाषा हिंसा से भरी हुई है। ऐसे भारतीय  राजनीति में गिरते संवाद को देखते हुए सभी नेता विकास की बात न करते हुये एक दूसरे पर आरोप, प्रत्याआरोप लगाते नजर आते है। ऐसे राजनीतिक दौर में विकास की ड़ोर कही नजर नही आ रही है।  

राजनीति में नैतिकता को तौलने वाला कोई तराजू नहीं

भारत की राजनीति में सब कुछ है बस एक तराजू नहीं है, जिस पर आप नैतिकता तौल सकें। चुनाव बाद किसी भी नेता की जनता की प्रति कोई नैतिकता नहीं होती है। राज्यपाल के बारे में संविधान की जितनी धाराएं और उनकी व्याख्याऐं रटा दी जाये लेकिन, व्यवहार में राज्यपाल सबसे पहले अपनी पार्टी के हित की रक्षा करते हैं। यही हम कई सालों से देख रहे हैं और यही हम लोग सालों तक देखेंगें। उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले को जब चुनौती दी गई तब उत्तराखंड हाईकोर्ट ने कहा था लोग गलत फैसले ले सकते हैं चाहे वे राष्ट्रपति हों या जज ये कोई राजा का फैसला नहीं है। 

टीवी की भाषा पर भी आपका ध्यान जाना चाहिए. आप कुछ सुर्खिया देख सकते हैं जो इस प्रकार है...

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- मोदी मोदी मोदी

- मोदी मैजिक चल गया

- यूपी को बदलाव पसंद है

- लहराया केसरिया, छा गया भगवा

- यूपी यूपी फूल खिला है

- बनवास से लौटी बीजेपी

- मोदी लहर पर अखिलेश का टूटा कहर

अखिलेश हारे तो ये हेडलाइन 

- काम नहीं बोल सका है

- हाथ ने पंचर कर दी साइकिल

- यूपी को ये साथ पसंद नहीं है

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कई बार शब्द घिस गए से लगते हैं। वही विशेषण हैं जो हर बार इस्तेमाल में लाए जाते हैं। किसी भी मौसम में चुनाव हो, मगर चुनावी गर्मी जरूर बोलेंगे। सियासत हमेशा गरमा जाती है. इन्हें हम कैच लाइन, टैग लाइन और हेडलाइन कहते हैं. हिन्दी में सुर्खियां कहते हैं. काले बादल छंटने वाले हैं, चल गई झाड़ू, किसकी मनेगी होली, यूपी में मनेगी केसरिया होली. लोकतंत्र में अभी तक हम राजसिंहासन और राजतिलक, ताजपोशी, का इस्तेमाल करते हैं। हम आपको बता दें कि अगले बीस साल तक ऐसे ही करते रहेंगे। पत्ता साफ और सूपड़ा साफ के बिना तो कोई चुनाव पूरा नहीं होता है। 

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के महत्वपूर्ण चरण के पांचवें चरण के लिए अभियान के दौरान जिसने गधा, कसाब और जैसे घृणित शब्दों के नि शुल्क प्रवाह से एक नए निम्न को छुआ। 

पूर्व उत्तर प्रदेश के 11 जिलों में फैले कुल 51 निर्वाचन क्षेत्रों में, इस चरण के तहत 27 फरवरी को चुनाव हुए। राज्य के चुनावों के पांचवें चरण में राजनीतिक प्रचार के प्रतिद्वंद्वी पार्टियों के बीच युद्ध जुमलो से हुआ। 

बहराइच में अपनी रैली में, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर अपने गधा टिप्पणी के लिए झटका लगाकर पूछा कि क्या वह गुजरात के चारों तरफ जीवों से डरते हैं। उन्होंने कहा, मैं गधा से प्रेरणा लेता हूं क्योंकि मैं लोगों के लिए दिन-रात काम करता हूं ... गधा अपने मालिक के प्रति वफादार होता है। उन्होंने रायबरेली में एक चुनाव बैठक में गुजरात के गधे के बारे में सपा प्रमुख के संदर्भ का मुकाबला करने के लिए कहा था। यह काम करता है भले ही यह बीमार, भूख या थक गया हो और काम पूरा कर लेता है ... अखिलेश जी, ये 125 करोड़ देशवासी मेरे स्वामी हैं ... मैं उन सभी के लिए काम करता हूं। क्योंकि मैं गधे से प्रेरणा लेता हूं यह बात उन्होने पूर्ण अभिमान के साथ कहा, प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया तब सामने आयी जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने बॉलीवुड स्टार अमिताभ बच्चन को गुजरात के गधे के लिए विज्ञापन न करने की सलाह दी। 

भाजपा अध्यक्ष पर अपने कासाब कहने वाले जुमले पर कहा था, उत्तर प्रदेश को के-ए-एस-ए-बी से छुटकारा पाने तक, राज्य में कोई विकास नहीं होगा। का (कांग्रेस में) कांग्रेस के लिए है, समाजवादी पार्टी के लिए एसए और बसपा के लिए बा कहा। 

राष्ट्रवाद के नाम पर नियंत्रण का खेल

दुनिया भर में सरकारों के कामकाज का तरीका बदल रहा है. सरकारें बदल रही हैं. धारणा यानी छवि ही नई जमीन है। उसी का विस्तार ही नया राष्ट्रवाद है। मीडिया अब सरकारों का नया मोर्चा है। दुनिया भर की सरकारें मीडिया को जीतने का प्रयास कर रही हैं। हर जगह मीडिया वैसा नहीं रहा जैसा होने की उम्मीद की जाती है। अमेरिका के चुनाव में डोनल्ड ट्रंप की जीत के बाद वहां लोग जागे तो जीते हुए को हराने की मांग करने लगे हैं। ट्रंप के खिलाफ रैलियां होने लगी कि आप हमारे राष्ट्रपति नहीं हैं। ट्रंप के बहाने फिर से उन्हीं सवालों पर बहस होने लगी है कि समय के बदलाव को पकड़ने में मीडिया और चिंतनशील लोग क्यों चूक जा रहे हैं. 19 नवंबर 2016 के इकोनोमिस्ट में एक लेख छपा है।

शीर्षक है लीग ऑफ नेशनलिस्ट. यह लेख इस सवाल की पड़ताल करता है कि पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद का उभार क्यों हो रहा है। क्यों इस उभार को बड़े महानगरों में जमे बुद्धिजीवि नहीं समझ पा रहे हैं कि राष्ट्रवाद आज की राजनीति का अभिन्न अंग हो गया है। ट्रंप ने अपने भाषणों में अमेरिका के गौरव और सीमा रेखाओं पर दीवारें खड़ी करने का नारा दिया है। दुनिया के कई मुल्कों में इस तरह की बोली बोलने वालों के पीछे भीड़ आ रही है, यह गुस्सा है तो किसके खिलाफ गुस्सा है। किसकी नाकामी के खिलाफ गुस्सा है. ट्रंप ने खुलेआम कहा कि बाहर के मुल्कों से काम करने आए लोगों को अमेरिका से निकालेंगे। 

फ्रांस लंदन, पोलैंड, रूस, अमेरिका, ऑस्ट्रिया के नेता इन्हीं मुद्दों पर लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं। इन्हीं मुद्दों पर सत्ता में अपनी पकड़ बनाए हुए हैं। ग्लोबल दौर में सब यही समझ रहे थे कि अब सब ग्लोबल नागरिक बन चुके हैं। ये तमाम नेता अतीत के गौरव की बात करते हैं, फिर से अमेरिका को महान बनाना है। भारत को सोने की चिड़िया का देश बनाना है। फ्रांस को महान बनाना है, फ्रांस से लेकर अमेरिका के नेता अपने मुल्कों का नाम पूरी दुनिया में फिर से रौशन करने की इस तरह से बातें कर रहे हैं जैसे क्लास रूम से ग्लोब खो गया है। लोग मुल्कों के नाम भूल गए हों और कोई कोलंबस या वास्कोडिगामा फिर से दुनिया को खोजने निकला हो।

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पिछले साल न्यूयॉर्क टाइम्स में एक लेख छपा था. इकनोमिक्स की प्रोफेसर सर्जेई गुरीव और राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर डेनियल त्रेसमन का यह लेख कहता है कि आजकल नए प्रकार के अथारीटेरियन सरकारों का उदय हो चुका है। ये सरकारें विपक्ष को खत्म कर देती हैं, थोड़ा बचा कर रखती हैं। ताकि लोकतंत्र का भ्रम बना रहे। इन सरकारों ने ग्लोबल मीडिया और आईटी युग के इस्तेमाल से विपक्ष का गला घोंट दिया है, अति प्रचार, दुष्प्रचार यानी प्रोपेगैंडा का खूब सहारा लिया जाता है। सेंशरशिप के नए नए तरीके आ गए हैं। सूचना संबंधी तरकीबों का इस्तमाल होता है ताकि रेटिंग बढ़ सके. नागरिकों को अहसास दिलाया जाता रहता है, आपके पास दूसरा विकल्प नहीं है. हमीं श्रेष्ठ विकल्प हैं। इस लेख में इन शासकों को नया ऑटोक्रेट कहा गया है जो मीडिया को विज्ञापन की रिश्वत देते हैं। मीडिया पर केस करने की धमकी देते हैं, नए नए निवेशकों को उकसाते हैं कि सरकार की आलोचना करने वाले मीडिया संस्थान को ही खरीद लें। मीडिया पर नियंत्रण इसलिए जरूरी है कि अब सब कुछ धारणा है, आपको लगना चाहिए कि हां ये हो रहा है. लगातार विज्ञापन और भाषण यकीन दिलाते हैं कि हो रहा है। लेकिन जमीन पर भले न हो रहा हो।

रूस के राष्ट्रपति पुतीन ने पश्चिम की एक बड़ी पीआर कंपनीयों को हायर किया ताकि वो क्रेमलिन के पक्ष में पश्चिम के देशों में लॉबी कर सकते। कुछ लोग पश्चिम के नेताओं को नियुक्त कर लेते हैं। जैसे नुरसुलतान ने टोनी ब्लेयर को किया या उनके किसी फाउंडेशन में चंदा दे देते हैं। इंटरनेट पर युद्ध सा चल रहा है, वहां लगातार जमीन कब्जे जैसा अभियान चल रहा है। गाली देने वाले और धमकाने वाले ट्रोल्स को पैसे देकर रखा जाता है. इनका काम होता है व्हाट्सऐप और ट्वीटर पर दिन रात विरोधी के खिलाफ अफवाहों का बाजार बनाए रखना। ये ट्रोल्स आपके कमेंट बाक्स को सत्ता पक्ष की बातों से भर देते हैं। आपकी आलोचना को गाली गाली दे देकर अहसास करा देते हैं कि पूरी दुनिया आपके खिलाफ है। विपक्ष की मीडिया साइट को खत्म करना भी इनकी रणनीति का हिस्सा होता है। पर पूरी तरह से विपक्ष को समाप्त नहीं किया जाता है, थोड़ा सा बचा कर रखा जाता है ताकि लोकतंत्र का भ्रम बना रहे। दुनिया भर में सरकारों के कामकाज का तरीका बदल रहा है। सरकारें बदल रही हैं. धारणा यानी छवि ही नई जमीन है. उसी का विस्तार ही नया राष्ट्रवाद है। 

क्या चुनावी चंदे में बचेगी पारदर्शिता?

दिसंबर 2013 में लोकपाल कानून बन गया लेकिन 2017 आ गया, लोकपाल कौन है, इसका जिक्र न बैंकिंग सर्विस क्रोनिकल में मिलेगा न ही प्रतियोगिता दर्पण में क्योंकि लोकपाल बना ही नहीं है। आखिर जिस कानून को बनाने के लिए इतना घनघोर आंदोलन चला। उस कानून के बन जाने के बाद लोकपाल क्यों नहीं बना, लोकपाल का ढांचा क्यों नहीं बना. इस सवाल पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पूरी हुई है, फैसला सुरक्षित है. लोकसभा में विपक्ष का नेता नहीं है और लोकपाल कानून के हिसाब से बगैर विपक्ष के नेता के लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो सकती है. तो जाहिर है इसे लेकर कानून में संशोधन करना होगा. बाकी तमाम कानूनों के संशोधन झटके में पास हो जाते हैं। लोकपाल कानून के 20 संशोधनों में ऐसी क्या मुश्किल आ रही है तो इतना लंबा वक्त लग रहा है. सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने कहा है कि लोकपाल की नियुक्ति वर्तमान हालात में संभव नहीं है। कई सारे संशोधन हैं जो संसद में लंबित हैं। मानसून सत्र में इन संशोधनों के पास होने की उम्मीद है।

कुल मिलाकर बगैर लोकपाल के ही भ्रष्टाचार की मुक्ति का सर्टिफिकेट बंट रहा है। चार साल से इसकी कोई सुध ही नहीं ले रहा है। इससे कहीं तेजी से लोकसभा में वित्त विधेयक पास हो गया और विपक्ष देखता रह गया। इस संशोधन में राजनीतिक दलों ने अपने लिए कारपोरेट चंदे का बढ़िया इंतजाम कर लिया है। आप यह मत समझिये कि सरकार ने राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए आधार नंबर अनिवार्य कर दिया है, वहां तो चंदा देने वालों की पहचान गुप्त रखने का इतना अच्छा प्रयास किया गया है कि पूछिये मत। लोकसभा में संशोधन पास होने से पहले कोई भी कंपनी अपने कुल मुनाफे का साढ़े सात फीसदी हिस्सा राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में दे सकती है। कंपनी को अपने बहिखाते में बताना होता था कि कितना पैसा राजनीतिक दल को दिया। किस राजनीतिक दल को दिया गया है, यह भी बताना पड़ता था।

शायद आप इसी को पारदर्शिता कहेंगे कि लेन-देन किस किस के बीच हो रहा है। यह पता चले, मगर अब पारदर्शिता का नया मतलब लांच हुआ है। नए संशोधन के अनुसार अब कंपनियों को नहीं बताना पड़ेगा कि किस राजनीतिक दल को चंदा दिया है। अब आप ही हिन्दी की क्लास में मास्टर साहब से पूछ लें कि पारदर्शिता क्या हुई, बताना पारदर्शिता है या छिपाना पारदर्शिता है। यही नहीं, आप बैंकों से इलेक्टोरल बांड खरीदेंगे। वो बांड किसी दल को चला जाएगा. यह साफ नहीं कि बांड खरीदने वालों का नाम गुप्त रहेगा या सार्वजनिक किया जा सकेगा। नए संशोधन के अनुसार कारपोरेट अब कुल मुनाफे का साढ़े सात फीसदी से भी अधिक चंदा दे सकते हैं। यानी साढ़े सात फीसदी तक ही चंदा देने की सीमा समाप्त कर दी गई है. पहले बताना पड़ता था कि किसे चंदा दिया, अब नहीं बताना पड़ता। 

चेक या इलेक्ट्रॉनिक तरीके से जब चंदा देना ही होगा तब किसे दिया जा रहा है इसे छिपाने का क्या मतलब है। खासकर तब जब हर किस्म की लेन देन का पता लगाने के लिए सरकार आधार नंबर को अनिवार्य या जरूरी करती चली जा रही है। अब एक सवाल आपसे है, राजनीतिक दल चंदा देने वालों को क्यों यह सुविधा देना चाहते हैं कि आप किसे चंदा रहे हैं यह पता नहीं चलेगा. पहले 20,000 से कम की राशि देने वालों का नाम पता बताने की जरूरत नहीं थी। अब इसे घटाकर 2000 कर दिया गया है. सवाल तब भी उठे लेकिन लोगों को लगा कि कुछ हो रहा है तो आगे अच्छी उम्मीद की जानी चाहिए। लेकिन नया संशोधन क्या राजनीतिक दलों के चंदे को पारदर्शी बनाता है यहां पर पैन नंबर, आधार नंबर क्यों नहीं अनिवार्य है? क्यों राजनीतिक दल चंदा देने वालों के पैन नंबर तक नहीं देते हैं और उनका कुछ नहीं होता है। क्या आपने सोचा है कि अगर कोई कंपनी अपने मुनाफे का कुछ भी हिस्सा चंदे के रूप में एक राजनीतिक दल को देने लगे तो उसके क्या खतरे होंगे? क्या आप बिल्कुल ही नहीं जानना चाहेंगे कि किस कंपनी ने चंदा दिया हैं।

धन्यवाद 

मौ. इरशाद सैफी 

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