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भारत के विमुद्रीकरण (नोटबंदी) का फैसला क्या कालाधन, कैशलेस अर्थव्यवस्था और नकली नोट को समाप्त करने का सबसे उचित मार्ग था- पड़ताल करती हमारी रिसर्च रिपोर्ट

  • Nov 19, 2016
विमुद्रीकरण के फैसले को लेकर देश में उबाल आया हुआ है. इसके पक्ष और विपक्ष में दोनों तरफ से लोग लामबंद हो रहे हैं. शब्द रुपी हथियार चलाये जा रहे हैं, इसका भरपूर राजनीतिक फायदा भी उठाया जा रहा है. इस फैसले का प्रभाव कैसा रहेगा इसके आकंलन के लिए समय देना जरुरी है. सैद्धांतिक तौर पर यह फैसला कितना वाजिब है इस पर भी सोचने की जरुरत है मगर व्यवहारिक तौर पर इस फैसले ने कई सवाल खड़े किये हैं. वर्ष 2014 में भी इसी तरफ से पैसे को बाजार से निकाला गया था पर लोगों को तकलीफ नहीं हुई थी. कालेधन, कैशलेस व्यवस्था और नकली नोट जैसे मुद्दे अहम है पर क्या इसके लिए यही मार्ग सबसे उचित था? आइये इस जवलंत मुद्दे को थोड़ा और करीब से समझने की कोशिश करते हैं. क्या वाकई विमुद्रीकरण के इस फैसले से कालेधन को रोक पाना संभव है? जानने की कोशिश करते हैं कि क्यों भारत जैसे राज्य में कैशलेस अर्थव्यवस्था अभी के स्वरुप में लागू नहीं किया जा सकता? नकली नोट क्या वाकई बहुत बड़ी चुनौती है? 

विमुद्रीकरण से बड़े मछलियों का कुछ नहीं बिगड़ेगा

कालेधन पर बात की जाए तो हमें यह समझना होगा कि जिनके पास कालाधन होता है वह बेहद रसूखदार और बेहद प्रभावी लोग होते हैं. इनका सीधा संपर्क तंत्र से जुड़े लोगों के साथ-साथ अफसरशाह से भी होता है. इनमें स्वयं अफसरशाहों और कई नेताओं का भी पैसा लगा होता है. और इनमें से कोई भी अपना पैसा छुपा कर नहीं बल्कि उसका इस्तेमाल सोना, रियल स्टेट में निवेश के रूप में परवर्तित कर के करता है. कोलकाता के भारतीय सांख्यिकी संस्थान के प्रोफेसर अभिरूप सरकार कहते हैं कालाधन रखने वाले अधिकांश लोग अपने पैसे विदेशी बैंकों में रखते हैं इसलिए देश में विमुद्रीकरण करने से बड़े मछलियों का ज्यादा कुछ नहीं बिगड़ेगा.

6 प्रतिशत पैसा ही रहता है कैश में

अर्थतंत्र की पेचीदगी से बच कर अगर सीधे और सरल भाषा में कहें तो विमुद्रीकरण के इस फैसले से होने वाली तकलीफ आम लोगों को ही हो रही है. वैसे भी दो अलग-अलग रिपोर्ट के मुताबिक कालाधन रखने वाले लोग मुश्किल से 6 प्रतिशत तो एक दूसरी रिपोर्ट के अनुसार 15 प्रतिशत ही पैसा कैश के तौर पर रखते हैं. भारत में अधिकांश घर की अपनी एक कहानी होती है. एक-एक पाई जोड़ने और बचाने का हिसाब होता है. पत्नियां चोरी-छिपे किसी मुश्किल समय के लिए बड़ी मुश्किल से सालों से पैसा बचाती हैं आज उस आम घर तक भी इस विमुद्रीकरण की आंच आ गई है. यही नहीं सबसे बड़ी तकलीफ शादी वाले घरों में हो रही है नकदी के आभाव में काम रुक से गए हैं. साथ ही देश की यह कटु सच्चाई है कि लड़की की शादी के लिए घर वालों को कई लाख खर्च करने पड़ते हैं और जिनका काम दो नंबर का नहीं होता वह वर्षों से अपनी बेटी की शादी के लिए पैसा इकठ्ठा करते हैं. नाम ना बताने की शर्त पर नोएडा के कई लोग इस बात को स्वीकार करते हुए अपनी नियति पर रोते रहें. विमुद्रीकरण के इस फैसले की गाज उनपर सीधे तौर पर गिरी है. उन्होंने बताया कि किस तरह वर्षों से अपनी बेटी की शादी के लिए उन्होंने पैसे इकट्ठे किये थे जिनका अब कोई मूल्य नहीं. बैंक जाने पर वह इतने रुपयों का कैसे हिसाब देंगे. विमुद्रीकरण ने उनकी कमर तोड़ दी है मेहनत का पैसा तो गया ही साथ ही अब बेटी की शादी कैसे हो पायेगी इसकी भी चिंता है.

विमुद्रीकरण की मार  दुकानदारों पर गिरी गाज

दुकानदारों का भी बुरा हाल है. अक्सर दुकानदार त्योहारों के समय पहले से ही अपने दुकान का स्टॉक भर लेते हैं साथ ही पूरा गोदाम भी सामानों से भरा होता है. नवरात्रों से लेकर दिवाली और जिन इलाकों में छठ पर्व मनाया जाता है इस लम्बी अवधि तक का सामान एक साथ इनके यहाँ होता है और त्योहारों के समय इनके पास समय का बेहद आभाव होता है. विमुद्रीकरण का यह फैसला त्यौहार समाप्त होते ही लिया गया जिससे दुकानदारों को अपने इकट्ठे पैसे जमा कराने तक का वक्त नहीं मिल सका और साथ ही खत्म हुए सामान की खरीदारी भी ना हो सकी. ऐसे ही कई उदहारण और है जहां विमुद्रीकरण की मार पड़ी.

फैसले ने कालाधन और भ्रष्टाचार को दिया बढ़ावा 

जैसा की हमने पहले बताया की आमतौर पर कोई कालेधन को यूँ ही पैसों के रुप में नहीं रखता और विमुद्रीकरण का यह फैसला कालेधन वालों की कमर तोड़ने में कितना सहायक होगा इसपर संशय ही है. इससे भ्रष्टाचार कितना रुकेगा इस पर भी एक प्रश्नचिन्ह है. एक स्तर पर इस फैसले ने कालाधन और भ्रष्टाचार को बढ़ावा ही दिया है. हमारे रिसर्च के दौरान यह बात सामने आई कि कई बैंकों के बैंक मैनेजर खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में डेढ़ लाख के बदले पचास हजार लेकर कालेधन को सफेद करने का खेल रच रहे हैं. बहुत जगह यह हिसाब 60-40 तो कई जगह 50-50 प्रतिशत के शेयर पर है. यहीं नहीं इस गोरख धंधे में गरीब लोगों के भी सहयोग लिया जा रहा है उन्हें 500-500 रुपय देकर उनके आधार कार्ड का इस्तेमाल बैंक से पैसे लेन-देन के लिए किया जा रहा है.

एक मिनट में करोड़ों रूपए काले से हो रहा सफेद 

जरा इस बात पर भी गौर किये जाने की जरुरत है कि पेट्रोल पम्पों में भी अब तक 500 और 1000 के नोटों का प्रयोग बंद नहीं किया गया था. आपको यह ज्ञात हो की भारत दुनिया का सबसे बड़ा कच्चे तेल का आयातक देश है. वहीं दूसरी ओर भारत कच्चे तेल को साफ़ कर उपयोग में लाने लायक बना कर निर्यात करने में भी दुनिया में अपना स्थान अव्वल रखता है. जहां एक मिनट में बड़े आसानी से करोड़ों रूपए काले से सफेद किया जा सकता है. लोगों ने बड़ी आसानी से यहाँ यह काम किया है. एक और ऐसा खेल जहां आसानी से काले पैसे को सफ़ेद करने का खेल खेला गया. कई फूड कोर्ट या अन्य जगहों पे खाने-पीने का सामान या अन्य वस्तु की खरीद पर बिल में ही गोरखधंधे के का खेल चल रहा है. मान लीजिए आपने 60 रूपए का कोई सामान खरीदा और आपने दुकानदार को 100 रूपए दिए तो वह आपको आपका बकाया 40 रूपए लौटा तो रहा है मगर इलेक्ट्रानिक बिल में जिसपर आप ध्यान नहीं देते या देते भी हैं तो कुल रूपए पर उसमें वह प्राप्त रूपए में 500 दिखा कर लौटाने वाली रकम 440 दिखता है जबकि आपने उसे 100 रूपए ही दिए होते हैं.

पूर्वोत्तर के राज्य बने कालेधन वालों के लिए स्वर्ग 

काले को सफ़ेद करने का यही काम कई जगह हुआ है कुछ टूर एंड ट्रेवल्स वालों के द्वारा , रेलवे में अपनी टिकट बुकिंग करवा और उसे कैंसिल करवा के, गरीबों के जनधन खातों का इस्तेमाल कर के उसमें पैसे डाल कर. ऐसे ही कई और सारे हथकंडों से कई लोगों ने अपने कालेधन को सफेद किया है. कालेधन को सफेद करने का केंद्र अभी पूर्वोत्तर के राज्य बने हुए हैं. अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, मणिपुर, मिजोरम और सिक्किम के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर के लद्दाख में कुछ विशेष वर्गों में डायरेक्ट टैक्स एक्ट के सेक्शन 10(26) में तो कहीं-कहीं इनकम टैक्स और खेती से होने वाली आय में छूट मिली हुई है. और इसी का फायदा उठाते हुए कालेधन वाले यहाँ आकर अपने काले पैसे को सफेद बना रहे हैं. हमारा मानना है कि देश हित में कालेधन पर रोक अवश्य लगनी चाहिए मगर नोटबंदी के इस मार्ग से हम कुछ विशेष हासिल नहीं कर पा रहे हैं. रसूखदार कालेधन वाले अपने काले पैसों को सफेद करने के लिए नोट घर में नहीं रखते बल्कि उसका इस्तेमाल दूसरे रूपों में करते हैं. अलबत्ता जो भी बचे-खुचे लोग हैं वह कई माध्यमों से अपने पैसों को सफेद कर पा रहे हैं या कर चुके हैं. नोटबंदी की मार इन कालेधन वालों पर नहीं अपितु आम लोगों पर पड़ी है. आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन भी विमुद्रीकरण पर सोचते हैं कि यह कालाधन बाहर लाने के लिए ज्यादा कारगर नहीं होगा. अन्य कई विशेषज्ञों ने भी इस कदम को लेकर सवाल उठाए हैं.

भारतीय स्वरुप में कैशलेस अर्थव्यवस्था संभव नहीं 

विमुद्रीकरण के फैसले के बाद से ही भारतीय समाज को कैशलेस अर्थव्यवस्था बनाने की बात होने लगी है. केंद्र सरकार भी इसे लेकर गंभीर नज़र आ रही है. मगर क्या यह इतना आसान है? भारतीय स्वरुप को देखते हुए अभी के हालात में कैशलेस अर्थव्यवस्था भारत में संभव नहीं लगता. भारत की लगभग एक तिहाई आबादी गांवों में रहती है. जहां अभी भी कई जगह ना तो इंटरनेट जा पाया है और कई जगह तो अभी भी बिजली तक मौजूद नहीं. आपके सामने यही चुनौती भर नहीं सबसे बड़ी चुनौती लोगों के मानसिकता को बदल पाने की होगी. हमारे सामने कैशलेस अर्थव्यवस्था का एक उदाहारण स्वीडन है जो वर्षों पहले इस राह में आगे बढ़ चला था मगर अब भी वह पूर्णतः कैशलेस नहीं हो पाया है बल्कि उसके करीब है. मगर हमारे सामने स्वीडन एक उदाहरण है तो उसके लिए हमें भारत और स्वीडन के बीच के अंतर को भी समझना आवश्यक हो जाता है.

वर्षों की मेहनत के बाद स्वीडन आज कैशलेस अर्थव्यवस्था के करीब 

स्वीडन एक छोटा सा और समृद्ध देश है जिसकी जनसंख्या करीब 91 लाख है जो कि भारत की राजधानी दिल्ली की आधी है. स्वीडन की लगभग 85 प्रतिशत आबादी शहरों में रहती है जबकि हमारे यहां एक तिहाई आबादी गांवों में. वहां लगभग सभी तक इंटरनेट की सुविधा मुहैया कराई जा चुकी है जबकि हम इससे मीलों दूर हैं. जहां इंटरनेट की स्पीड हमसे कई गुणा ज्यादा है. यही नहीं दुनिया का सबसे पहला डेटा संरक्षण कानून स्वीडन में बना था जबकि भारत में इस तरह का कोई प्रावधान नहीं है. साथ ही स्वीडन में पूरा शिक्षा तंत्र सरकार के हाथ में है और एक अच्छी-खासी आबादी सुशिक्षित है जबकि भारत में अधिक संख्या में लोग शिक्षा से वंचित है. मतलब साफ़ है की वर्षों की मेहनत के बाद स्वीडन आज कैशलेस अर्थव्यवस्था के करीब पंहुचा है जबकि भारत अभी इससे कोसों दूर है.

आधी आबादी के पास बैंक खाता तक नहीं 

भारत की जनसंख्या करीब 1 अरब 33 करोड़ है. रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के 2015 की प्रेस रिलीज के मुताबिक 2014 में करीब 97 करोड़ 8 लाख सेविंग्स बैंक अकाउंट थे. अगर जनधन योजना के तहत खोले गए अकाउंट मिला भी दिए जा तो इसकी संख्या एक अरब होती है. आइये अब एक और आकड़ें पर नजर डालते हैं जहां वर्ल्ड बैंक बताता है कि भारत में 43 प्रतिशत बैंक अकाउंट डोरमेंट हैं. अकाउंट खोलने के बाद या पिछले एक साल में जिस अकाउंट का इस्तेमाल नहीं किया गया हो उसे डोरमेंट अकाउंट कहा जाता है. इनमें से 23.27 प्रतिशत खातों में जीरो बैलेंस है. यहीं नहीं वर्ल्ड बैंक ने अपने एक स्टेटमेंट में जनधन योजना के तहत खोले गए अकाउंट में से अधिक अकाउंट के डोरमेंट अकाउंट्स होने को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की थी.मतलब भारत की लगभग आधी आबादी के पास या तो बैंक खाता नहीं है या खाता डोरमेंट पड़ा हुआ है. यहीं नहीं इनमें से भी कई व्यक्ति ऐसे होंगे जिनके पास एक साथ कई बैंकों के खाते होंगे. तो कई के पास बैंक अकाउंट का मतलब सिर्फ पेंशन या सैलरी आने के लिए होगा. ऐसे में जहां आधी आबादी जिसके पास बैंक अकाउंट तक नहीं वहां हम कैशलेस अर्थव्यवस्था कैसे दे पाएंगे.

80 फीसद से ज्यादा लोगों की निर्भरता कैश इकोनॉमी पर 

कैशलेस अर्थव्यवस्था के लिए सबसे पहले मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराना जरुरी है जो अभी के हालात में बेहद मुश्किल नज़र आता है. मगर उससे भी चुनौतीपूर्ण कार्य है गांव के लोगों की मानसिकता बदलना. नकद लेन-देन ग्रामीण भारत की हमेशा से जीवन रेखा रखी है इसलिए इसे  समझाना बड़ी समस्या होगी. कई गांवों में तो अभी तक बैंक पहुंचे तक नहीं हैं. देश के 80 फीसद से ज्यादा लोगों की निर्भरता कैश इकोनॉमी पर हैं. भारत में अभी भी लोगों को क्रेडिट और डेबिट कार्ड के इस्तेमाल की आदत नहीं हो पाई है. एक रिपोर्ट के मुताबिक जून 2016 तक  भारत में 66 करोड़ 18 लाख लोगों तक ही डेबिट कार्ड थे. जबकि क्रेडिट कार्ड पर यह आंकड़ा  सिमट कर 2.6 करोड़ तक रह जाता है. रिटेल शॉप और आउटलेट्स की बात करें तो सिर्फ़ 14 लाख ही कार्ड रीडर हैं. पेमेंट काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन नवीन सूर्या का कहना है कि भारत में अब भी 90 प्रतिशत लोग कैश का इस्तेमाल करते हैं जबकि महज़ 10 प्रतिशत लोग ही डिजिटल अर्थव्यवस्था में अपना सहयोग दे पा रहे हैं. हमारे देश की आधी से ज्यादा आबादी के पास डेबिट कार्ड तक नहीं उसमें से भी रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया की मार्च में आई रिपोर्ट के अनुसार 88 प्रतिशत लोग डेबिट कार्ड का इस्तेमाल एटीएम से पैसे निकालने भर के लिए ही करते हैं. मतलब डेबिट कार्ड भी कैश निकालने में काम आ रहा है न कि कैशलेस प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के काम. ऐसे में अगर हम इन आंकड़ों को देखें तो कैशलेस अर्थव्यवस्था भारत के लिए अभी बेहद दूर नज़र आता है.

कैशलेस अर्थव्यवस्था यहां बहुत बड़ी चुनौती 

नोटबंदी के फैसले के बाद भारत सरकार देश में पूरी तरह से कैशलेस अर्थव्यवस्था लागू तो करना चाहती है. मगर ये अब के भारत के स्वरुप को देखते हुए बहुत बड़ी चुनौती है. देश के प्रत्येक लोगों को एकदम से इंटरनेट बैंकिग पर लाना कतई संभव नहीं जिनके अबतक बैंक खाते तक नहीं है. छोटे से छोटे दुकानदारों और व्यापारियों तक डेबिट और क्रेडिट कार्ड के इस्तेमाल के लिए पीओएस मशीन (प्वाइंट ऑफ सेल्स मशीन) मुहैया करवाना जरुरी है. इसके लिए जरुरी है कि ज्यादा से ज्यादा चालू खाते खोले जायें हो. हमारे यहाँ अधिकांश छोटे दुकानदार और व्यापारी हमेशा से पैसों के लेन-देन पर ही निर्भर रहे हैं, इन्हें एकाएक इलेक्ट्रॉनिक लेन-देन पर लाना और सिखाना मुश्किल है. 8 नवंबर के फैसले के बाद पूरे देश में डेबिट और क्रेडिट कार्ड से पीओएस मशीन का इस्तेमाल तीन गुणा तक बढ़ गया है. विमुद्रीकरण के इस फैसले के बाद से देश में इलेक्ट्रिानिक ट्रांजेक्शन, मोबाइल इंटरनेट और मोबाइल बैंकिंग एप्लीकेशन का इस्तेमाल भी कई गुणा तक बढ़ गया है. विशेषज्ञों का मानना है कि विमुद्रीकरण का यह फैसला भारत को कैशलेस अर्थव्यवस्था की ओर ले जाने के लिए है. पिछले दो सालों का रिकॉर्ड देखें तो इलेक्ट्रिॉनिक ट्रांजेक्शन अचानक से बढ़ा है. 188 मिलियन से ज्यादा इलेक्ट्रॉनिक फंड ट्रांसफर जनवरी, 2016 में हुए थे जिसमें 7,086 बिलियन रुपए का लेन-देन हुआ था. मगर हमें यह ज्ञात होना चाहिए की हमारी अधिकांश आबादी का इससे कभी पाला भी नहीं पड़ा है.

उर्जित पटेल विमुद्रीकरण के समर्थन में 

सरकार इन आकड़ों से बेखबर होगी ऐसा कतई नहीं लगता. सरकार को भी देश की जमीनी हकीकत निश्चित तौर पाता रही होगी. मगर सरकार का यह फैसला समझना मुश्किल है. मगर उन्हें आरबीआई के मौजूदा गवर्नर उर्जित पटेल इस कदम के समर्थन में हैं. उर्जित पटेल ने प्रधानमंत्री के इस फैसले को बेहद साहसिक कदम बताया है. 

विमुद्रीकरण से पेटीएम वाली चाइनीज कंपनी को जबरदस्त लाभ

जो भी हो नोटबंदी के इस फैसले के बाद मोबाइल पेमेंट की प्रमुख कंपनी पेटीएम में बड़ी हिस्सेदारी वाली चाइनीज कंपनी अलीबाबा को भी जबरदस्त लाभ हुआ है. भारती बाजार में उसकी पकड़ मजबूत हुई है. इस फैसले के अगले दिन से ही रिक्शे वाले से लेकर साधारण सब्जी और चाय वाले तक ग्राहकों से पेटीएम के जरिये लेन-देन करने लगे. इस फैसले के बाद अचानक से पेटीएम पर 150 मिलियन वॉलेटों के ट्रैफिक से लेन-देन में 700 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी दर्ज की गई. पैसे के मामले में पेटीएम की ग्रोथ 1000 प्रतिशत हुई है. नोटबंदी की फैसले के एक सप्ताह में पेटीएम के जरिए 50 लाख लोगों ने ट्रांजेक्शन किया है. और यह आंकड़ा बढ़ा ही है. यूनिक आईडेंटिफिकेशन ऑथोरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष नंदन नीलकनी मानते हैं कि इस फैसले के बाद तेजी से बदलाव आएगा. लोग अपने बैंक खाते का इस्तेमाल करना शुरू करेंगे और उन्हें डिजिटल पेमेंट सीखने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. इस मामले में शहरी क्षेत्र में तेजी से बदलाव आएगा तो वहीं गांवों में इसे तुरंत लागू नहीं किया जा सकता और ना ही ऐसा संभव दीखता है. यानि कुल मिला कर बात की जाए तो भारत अभी कैशलेस अर्थव्यवस्था से काफी दूर है.

नए नोटों के भी नकली नोट बाजार में हो जायेंगे उपलब्ध

जहां तक नकली नोट का की बात की जाए तो नोटबंदी ही इसका सबसे जायज समाधान नहीं लगता. क्या इसकी कोई गारंटी दी जा सकती है कि आने वाले समय में दूसरे रुपयों के नकली नोट बाजार में नहीं आयेंगे? आज तक अमेरिका ने कभी नकली नोट के कारण अपनी करेंसी में कोई बदलाव नहीं किये बल्कि इसके समाधान के लिए वैसी व्यवस्था निर्मित की. आज अगर देश से 500 और 1000 के नोट हटाये गए हैं और उसके बदले नए बने नोटों का निर्माण कर बाजार में उतारा गया है तो कल शायद इसके भी नकली नोट बाजार उपलब्ध हो. तब फिर से हमें इसी प्रक्रिया को दोहरानी पड़ेगी. फिर से दूसरे नोटों को बंद करना होगा. आम जन मानस को फिर से उन्हीं तकलीफों का सामना करना पड़ेगा जिसका सामना आज वह बड़े धैर्य से कर रहे हैं मगर तब क्या वह वही धैर्य रख पाएंगे?

बाजार में नकली नोट चलाना आसान नहीं

नकली नोट की बड़ी संख्या को बाजार में चलाना बहुत आसान नहीं होता. एक सब्जी वाले से लेकर ऑटो वाले तक के हाथों में अगर 500 रूपए का नोट दिया जाए तो उसे वह बड़ी बारीक निगाहों से जांच कर ही लेता है. मेरे द्वारा कई लोगों से पूछे गए एक सवाल कि क्या आपको कभी नकली नोट मिला है सभी ने अपने जवाब में ना ही कहा. अब यह सोचने और विचारने वाली बात है कि अगर इतनी अधिक संख्या में नकली नोट चल रहे हैं तो यह आम लोगों को क्यूँ नहीं मिलता. अगर यह आतंकवादियों या नक्सलवादियों के पास भी होता तो उन्हें भी इसे चलाने के लिए बाजार का ही सहारा लेना पड़ता. नकली नोट को हटाने के लिए नोटबंदी का लिया गया फैसला उचित नहीं लगता.

नोटबंदी नकली नोट पकड़ने का उचित समाधान नहीं 

नकली नोट को पकड़ने के और भी बहुत से साधन हो सकते थे जैसे दूसरे देश अपनाते हैं. नकली नोट पकड़ने के लिए हमें व्यवस्था को दुरुस्त करने की जरुरत थी ना की नोटबंद करने की. हमें ऐसे मशीन लगाने की जरुरत थी जिससे नकली नोट को आसानी से पहचाना जा सके. दुकानदारों को बार-बार दिशा निर्देश दिए जाने की जरुरत थी. लोगो में इसके प्रति जागरूकता लाने की जरुरत थी, जिस तरह हमने देश से जागरूकता फैला कर पोलियो को हराया हमें कुछ ऐसा ही अभियान नकली नोट के प्रति चलाने की जरुरत थी. नए तकनीक विकसित किये जाते, इसके लिए श्रमशक्ति बढाई जाती. एक नकली नोट पकड़े जाने पर उसका ट्रेल किया जा सकता था. कहा जा रहा है नकली नोटों के कारण ही देश में नक्सलवाद फल-फूल रहा था और नोटबंदी से अब सब शांत हो गए हैं. अब यह सोचने वाली बात है कि नक्सलवाद अगर नकली नोटों के कारण जिन्दा था तो अब यह हालात और भी खतरनाक हो जाएंगे. जब किसी के पास खाने को रोटी ना हो तो वह कई प्रकार के गलत कार्य करता है, जब किसी को जान से मारा जा रहा हो तो वह अपनी पूरी कोशिश करता है कि वह बच जाए तो क्या इन हालातों में नक्सलवादी और भी ज्यादा आक्रामक नहीं होंगे. निश्चित तौर पर नकली नोट को पकड़ने के और भी बेहतर विकल्प हो सकते थे जिसे सरकार को अपनाना चाहिए था. 

देश में कालाधन समाप्त हो जाए. नकली नोट बंद हो जाए यह वाकई देश हित में हैं. वास्तव में अगर इन सब के एवज में लोगों को 50 दिन की तकलीफ सहनी पड़े तो भी इसे सहर्ष स्वीकार किया जाना चाहिए. मगर विमुद्रीकरण के इस फैसले से कालेधन को बढ़ावा ही मिला है. बहुत से लोगों को पैसा बनाने का मौका मिल गया है. नकली नोट हटाने के लिए नोटबंदी लागू कर दिया गया मगर कल फिर नकली नोट बना लिया गया तो इसका समाधान क्या फिर से एक और नोटबंदी से होगा. जरुरत है हमें, आपको और सरकार को इसपर और भी सोचने की क्यूंकि जनता हर बार धैर्य से कतार में नहीं खड़ी रहती है जनाब.


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