रामचरितमानस के एक प्रसंग में मंथरा ने रानी केकयी से कहा था, "कोउ नृप होय हमें का हानि। चेरी छांड़ि ना होउ रानी।. तब मंथरा भूल गई कि नहीं ऐसा नहीं है. कौन राजा होगा, इससे फर्क पड़ता है, किसी को लाभ और किसी को हानि अवश्य होती है और यदि राजा को दासी का रंग रूप भा गया तो उसे रानी बनने से कोई नहीं रोक सकता.
हिटलर की तानाशाही हो या तानाशाही का प्रतीक हिटलर, माओत्सेतुंग, लेनिन, या स्टॅलिन का साम्यवाद हो या साम्यवाद के ये ध्वजवाहक व्यक्ति हो, प्रजातंत्र में मोदी हों या मोदी का ये प्रजातंत्र हो, सभी राजनैतिक व्यवस्थायें शनै-शनै दूषित होती जाती है और जब ये सर्वाधिकारवाद की सीमा में प्रविष्ट हो जाती हैं तब इनमे शासन अपनी सीमा नहीं मानता. जीवन के सभी पहलुओं को किसी एक व्यक्ति , किसी एक समूह या किसी एक वर्ग विशेष के शासन द्वारा नियंत्रित किए जाने की व्यवस्था की संकल्पना को ही सर्वाधिकारवाद की व्यवस्था कहा गया है. स्पष्ट है कि इस व्यवस्था में राजनैतिक शक्ति का केन्द्रीकरण किसी एक व्यक्ति या व्यक्ति-विशेष के समूह में निहित है. इस स्थिति में द्रष्टि कोणों की भिन्नता के लिए स्थान नहीं है, किसी के व्यक्तिगत साहस अथवा क्रियाशीलता के लिए भी कोई स्थान नहीं है. अधिनायकवाद और साम्यवाद एक दुसरे के विपरीत सोच को प्रतिपादित भले ही करते हों लेकिन दोनों ही की परिणति सर्वाधिकारवाद हैं. स्टॅलिन और हिटलर एक सामान हैं. मोदी जी अभी इससे बस थोड़ी सी दूर हैं.
भगवा आंधी के दौर में श्री अरविन्द कुमार शर्मा आई ए एस (1988) (गुजरात केडर) ने गत दिवस स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले कर भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली. अगले ही दिन उनको पार्टी का एमएलसी प्रत्याशी भी घोषित कर दिया गया. मोदी के भरोसेमंद इस अफसर को प्रदेश अध्यक्ष ने एक सादे कार्यक्रम में सदस्यता दिलाई. किसी के प्रवेश पर ढोल तमाशे फिर असहनीय शांति हो जाती है, लेकिन किसी किसी का प्रवेश तो चुप चाप लेकिन बाद में बल्लेबाजी धुंआधार होती है. श्री शर्मा का प्रवेश तो शांतिपूर्ण है लेकिन उतना ही सनसनीखेज़ भी है. अनुमान है कि उनके लिए बड़ी कुर्सी की खोज हो रही है. वे हमारे देश के प्रधान मंत्री जी के विश्वसनीय अधिकारी रहे हैं. गुजरात में अपने सेवा काल में मोदी जी उनके कार्य से बड़े प्रसन्न रहे.
श्री अरविन्द शर्मा के अचानक सत्ता-प्रवेश और राजतिलक ने न जाने कितने ऐसे नेताओं के माथे से आशा का टीका एक झटके में पोंछ दिया, जिन्होंने सारा जीवन इस दल की सेवा में झोक दिया. पार्टी नेतृत्व जाति-आधारित राजनीति को प्रत्यक्ष रूप से तो अस्वीकार करता है लेकिन कहाँ कितनी सीट किस जाति को देना है यह सब जातियों को देखकर तय होता है. अब अरविन्द शर्मा जी को लाया गया तो किसी ब्राह्मण का ही संहार करना निश्चित है. केवल मेरठ की ही बात करें तो प. लक्ष्मीकांत वाजपेयी, जो प्रदेश अध्यक्ष जैसे पद पर रहे जीवन भर संघर्ष किये अभी भी पूरी ताकत से लगे हैं, वे स्वयं भी आशान्वित रहे होंगे. लेकिन एक-एक करके कई अवसर उनके सामने से बिना रुके निकल गए.
एक अन्य बड़े सशक्त उम्मीदवार, प. सुनील भराला की उम्मीदों पर पानी फिर गया. श्री सुनील भराला उत्तर प्रदेश श्रम कल्याण परिषद् के अध्यक्ष हैं और पदेन राज्य मंत्री भी हैं. रात दिन एक करके लगातार दौड़ते हुए जन सेवा करने का श्रेय शून्य हो गया. पिछले 28 वर्ष में अनगिनत आन्दोलनों में लाठी डंडे खाकर जनता की आवाज़ को बुलंद करना व्यर्थ ही रहा. श्री विमल शर्मा की लम्बी पारी की राजनीति, साफ़ स्वच्छ छवि, निर्विवाद व्यतित्व और जमीन से जुडा समर्पित नेता, किस से क्या कहे अपनी व्यथा. प्रतीक्षारत नेता और भी बहुत हैं जो अलग अलग पायदान पर खड़े निहार रहे हैं. अरुण वशिष्ठ, अमित अग्रवाल, कमल दत्त शर्मा, जीतेन्द्र वर्मा, दीपक शर्मा, अजय भराला भारद्वाज, देवेंदर चौधरी और पीयूष शास्त्री आदि की लाइन लम्बी है. राजनैतिक हितों की हानि इनकी भी होती है, जो अभी मंझले या निचले पायदान पर हैं. बस सबसे सरल मार्ग है, किसी एक बड़े नेता को गॉड-फादर बनालो, परिक्रमा करो चापलूसी करो, जरुरत पड़े तो वहां धन –राशि भी भेंट करो और पदार्जित करो. चारों ओर यही माहौल है.
आज़ाद भारत की राजनीति में ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं, जिनमे नेताओं ने अपनी अपनी पसंद के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को राजनीतिक परिदृश्य पर लाकर सीधे उच्च पदों पर आसीन कर दिया. कुछ नाम उदाहरणार्थ देखें. सर्व श्री अजित जोगी, शेखर दत्त, यशवंत सिन्हा, हरदीप पूरी, राजकुमार सिंह, अपराजिता सारंगी, ओ पी सैनी, एम एस गिल, पवन वर्मा, पी एल पूनिया, वी एस चंद्रलेखा और अरविन्द शर्मा. इनके अतिरिक्त विदेश सेवा के और पुलिस सेवा के भी कुछ नाम हैं जैसे सत्यपाल सिंह, जय शंकर, किरण बेदी आदि.
शासकीय सेवाओं में अखिल भारतीय सेवा वर्ग में तीन सेवाए आती हैं, आई ए एस, आई पी एस और आई एफ एस (भारतीय प्रशासनिक, भा.पुलिस और भा. वन सेवा), अन्य सेवाओं में भा. विदेश सेवा व सेन्ट्रल सर्विस ग्रुप ए, बी और सी आदि आती हैं. लेकिन अधिकांशतः केवल आई ए एस को ही शासन में, राजनैतिक नियुक्तियों मे बोर्डों, कमिशनों, कार्पोरेशनों, आयोगों, कुलपति अथवा राज्यपाल जैसे पदों और शासन के अन्य महत्वपूर्ण उपक्रमों के शिखर पदों पर पदस्थ किया जाता है. पुलिस सेवा और विदेश सेवा के भी कतिपय उन अधिकारियों को यह बख्शीश मिल जाती है, जिन्होंने किसी नेता जी के प्रारम्भिक दौर में कुछ उल्लेखनीय सहायता की हो. लेकिन तीसरी अखिल भारतीय सेवा (भा.वन सेवा ) के अधिकारियों को इस योग्य नहीं समझा जाता क्योंकि वे नेताओं के निर्माण काल में या उनके राज काज के समय के किसी घोटाले में मददगार होने के अवसर से वंचित रहता है.
क्या यह पक्षपात सेवाओं में भेद भाव को जन्म नहीं देता और क्या यह राजनीति की शुचिता और आई ए एस वर्ग की सेवाओं में खोट साबित नहीं करता, क्या इस सेवा की सन्निष्ठा पर बड़ा प्रश्न चिन्ह नहीं है और क्या हमारे राजनेता स्वयं एक ऐसी परम्परा को नहीं सींच रहे हैं जिसमें स्पष्ट रूप से संकेत है कि इधर दो और उधर पाओ. क्या इसी कारण हमारा प्रशासनिक तंत्र भ्रष्टाचार की दल-दल से निकलने की कोशिश भी नहीं कर रहा है. जब भ्रष्टाचार नाम और इनाम, दोनों की, गारंटी देता हो तो ऐसे लाभप्रद मार्ग को कोई क्यों छोड़ने पर विचार करेगा. अकेले मोदी जी नहीं लगभग सभी राजनेता अपने निजी सचिवों और विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी का चुनाव अपने उन पुराने मित्र अधिकारियों में से ही लेते हैं, जिन्होंने उनका बुरे समय में और आवश्यकता के अनुरूप सहयोग किया था. विधायी सेवा के अधिकारी और ब्यूरोक्रेट्स को किसी भी संवैधानिक पद या अन्य लाभ के पद पर नियुक्त न किये जाने बाबत एक क़ानून बनाना चाहिए.
मूल्यों की राजनीति करने का दम भरने वाली पार्टी में भी वही चारित्रिक दोष हर अवसर पर प्रदर्शित हुआ है जो अन्य दलों में पाया जाता है. होगा भी क्यों नहीं जब इसके सदस्य भी उसी समाज से आते हैं जिस से अन्य दलों में जाते हैं, नेता की निजी पसंद और नापसंद सभी दलों की कमजोरी रही है, उस व्यक्ति के लिए जो प्रतीक्षा में है, क्यू में खड़ा है, बरसों से दरी बिछाता कुर्सी पोंछता दरबार सजाता रहा है. उसके लिए इस बात में अंतर नहीं है कि उसका हक भाई-भतीजावाद की भेंट चढ़ गया या किसी अधिकारी की झोली में गया. किसी को अपना बेटा पसंद आये या पत्नी, भाई – भतीजे पसंद आये या कोई अन्य मित्र. उसको तो फर्क इस परिणाम से पड़ता है कि कुर्सी पाने का यह अवसर भी कोई अन्य ले गया. भाजपा स्वयं को पार्टी विथ डिफरेंस कहती है एक डिफरेंस तो अवश्य है कि इस के शीर्ष नेतृत्व सहित यह पूरी पार्टी कार्यकर्ताओं के प्रति भी असहिष्णु है. तात्कालिक लाभ के लिए किसी को भी अडवानी बना देने में इनको कोई हिचक नहीं होती. पर्याप्त सतर्कता के अभाव में देश की जनता शीघ्र ही केवल सांसदों –विधायकों और अन्य सदनों को चुनने की मशीन मात्र रह जायेगी.
सतयुग के राम राज से लेकर त्रेता और द्वापर से गुज़रते हुए जब हम कलियुग में प्रवेश करते हैं और प्रत्येक युग की किसी प्रतिनिधि घटना पर विचार करते हैं और समीक्षा करते हैं, तो पता चलता है कि राजनीति साफ़ सुथरी और शुचितायुक्त तो कभी भी नहीं रही. राज्य प्राप्त करने के लिए या एक दूसरे पर आधिपत्य ज़माने के लिए अथवा निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए छल-कपट होता रहा है. परन्तु ऐसा कहकर हम इस अवांछित व दोषपूर्ण स्थिति का औचित्य स्वीकार नहीं कर रहे हैं. भाई-भतीजावाद राजनीति का अभिन्न अंग बन कर रह गया है. अतः आदर्श आचरण वाले नेता की कल्पना व्यर्थ है. गंगा को यदि मैला कर लिया है तो मैले जल से ही आचमन करिए. अर्थात जैसा हमने समाज बनाया है उसी में से जो थोडा बेहतर हो उसे नेता स्वीकार करना होगा. लेकिन यह भी तभी संभव है जब नेतागण राज-काज में शुचिता, समर्पण, निष्काम भाव की स्थापना के प्रयास करें.
राजनीति में राजकाज का अधिकार प्राप्त करने, शासक की स्थिति तक पहुँचने फिर वहां बने रहने के लिए अनेक प्रकार की स्वीकार्य और अस्वीकार्य युक्तियों का सहारा लिया जाता रहा है. लेकिन शासकीय सेवकों में इस प्रकार की भेद-नीति को प्रोत्साहित करना अच्छी परंपरा नहीं हो सकती.
(धर्म वीर कपिल, IFS Rtd)
T-122 फेज़ 2, पल्लवपुरम, मेरठ
7351472728
By Dharm Veer Kapil 42
रामचरितमानस के एक प्रसंग में मंथरा ने रानी केकयी से कहा था, "कोउ नृप होय हमें का हानि। चेरी छांड़ि ना होउ रानी।. तब मंथरा भूल गई कि नहीं ऐसा नहीं है. कौन राजा होगा, इससे फर्क पड़ता है, किसी को लाभ और किसी को हानि अवश्य होती है और यदि राजा को दासी का रंग रूप भा गया तो उसे रानी बनने से कोई नहीं रोक सकता.
हिटलर की तानाशाही हो या तानाशाही का प्रतीक हिटलर, माओत्सेतुंग, लेनिन, या स्टॅलिन का साम्यवाद हो या साम्यवाद के ये ध्वजवाहक व्यक्ति हो, प्रजातंत्र में मोदी हों या मोदी का ये प्रजातंत्र हो, सभी राजनैतिक व्यवस्थायें शनै-शनै दूषित होती जाती है और जब ये सर्वाधिकारवाद की सीमा में प्रविष्ट हो जाती हैं तब इनमे शासन अपनी सीमा नहीं मानता. जीवन के सभी पहलुओं को किसी एक व्यक्ति , किसी एक समूह या किसी एक वर्ग विशेष के शासन द्वारा नियंत्रित किए जाने की व्यवस्था की संकल्पना को ही सर्वाधिकारवाद की व्यवस्था कहा गया है. स्पष्ट है कि इस व्यवस्था में राजनैतिक शक्ति का केन्द्रीकरण किसी एक व्यक्ति या व्यक्ति-विशेष के समूह में निहित है. इस स्थिति में द्रष्टि कोणों की भिन्नता के लिए स्थान नहीं है, किसी के व्यक्तिगत साहस अथवा क्रियाशीलता के लिए भी कोई स्थान नहीं है. अधिनायकवाद और साम्यवाद एक दुसरे के विपरीत सोच को प्रतिपादित भले ही करते हों लेकिन दोनों ही की परिणति सर्वाधिकारवाद हैं. स्टॅलिन और हिटलर एक सामान हैं. मोदी जी अभी इससे बस थोड़ी सी दूर हैं.
भगवा आंधी के दौर में श्री अरविन्द कुमार शर्मा आई ए एस (1988) (गुजरात केडर) ने गत दिवस स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले कर भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली. अगले ही दिन उनको पार्टी का एमएलसी प्रत्याशी भी घोषित कर दिया गया. मोदी के भरोसेमंद इस अफसर को प्रदेश अध्यक्ष ने एक सादे कार्यक्रम में सदस्यता दिलाई. किसी के प्रवेश पर ढोल तमाशे फिर असहनीय शांति हो जाती है, लेकिन किसी किसी का प्रवेश तो चुप चाप लेकिन बाद में बल्लेबाजी धुंआधार होती है. श्री शर्मा का प्रवेश तो शांतिपूर्ण है लेकिन उतना ही सनसनीखेज़ भी है. अनुमान है कि उनके लिए बड़ी कुर्सी की खोज हो रही है. वे हमारे देश के प्रधान मंत्री जी के विश्वसनीय अधिकारी रहे हैं. गुजरात में अपने सेवा काल में मोदी जी उनके कार्य से बड़े प्रसन्न रहे.
श्री अरविन्द शर्मा के अचानक सत्ता-प्रवेश और राजतिलक ने न जाने कितने ऐसे नेताओं के माथे से आशा का टीका एक झटके में पोंछ दिया, जिन्होंने सारा जीवन इस दल की सेवा में झोक दिया. पार्टी नेतृत्व जाति-आधारित राजनीति को प्रत्यक्ष रूप से तो अस्वीकार करता है लेकिन कहाँ कितनी सीट किस जाति को देना है यह सब जातियों को देखकर तय होता है. अब अरविन्द शर्मा जी को लाया गया तो किसी ब्राह्मण का ही संहार करना निश्चित है. केवल मेरठ की ही बात करें तो प. लक्ष्मीकांत वाजपेयी, जो प्रदेश अध्यक्ष जैसे पद पर रहे जीवन भर संघर्ष किये अभी भी पूरी ताकत से लगे हैं, वे स्वयं भी आशान्वित रहे होंगे. लेकिन एक-एक करके कई अवसर उनके सामने से बिना रुके निकल गए.
एक अन्य बड़े सशक्त उम्मीदवार, प. सुनील भराला की उम्मीदों पर पानी फिर गया. श्री सुनील भराला उत्तर प्रदेश श्रम कल्याण परिषद् के अध्यक्ष हैं और पदेन राज्य मंत्री भी हैं. रात दिन एक करके लगातार दौड़ते हुए जन सेवा करने का श्रेय शून्य हो गया. पिछले 28 वर्ष में अनगिनत आन्दोलनों में लाठी डंडे खाकर जनता की आवाज़ को बुलंद करना व्यर्थ ही रहा. श्री विमल शर्मा की लम्बी पारी की राजनीति, साफ़ स्वच्छ छवि, निर्विवाद व्यतित्व और जमीन से जुडा समर्पित नेता, किस से क्या कहे अपनी व्यथा. प्रतीक्षारत नेता और भी बहुत हैं जो अलग अलग पायदान पर खड़े निहार रहे हैं. अरुण वशिष्ठ, अमित अग्रवाल, कमल दत्त शर्मा, जीतेन्द्र वर्मा, दीपक शर्मा, अजय भराला भारद्वाज, देवेंदर चौधरी और पीयूष शास्त्री आदि की लाइन लम्बी है. राजनैतिक हितों की हानि इनकी भी होती है, जो अभी मंझले या निचले पायदान पर हैं. बस सबसे सरल मार्ग है, किसी एक बड़े नेता को गॉड-फादर बनालो, परिक्रमा करो चापलूसी करो, जरुरत पड़े तो वहां धन –राशि भी भेंट करो और पदार्जित करो. चारों ओर यही माहौल है.
आज़ाद भारत की राजनीति में ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं, जिनमे नेताओं ने अपनी अपनी पसंद के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को राजनीतिक परिदृश्य पर लाकर सीधे उच्च पदों पर आसीन कर दिया. कुछ नाम उदाहरणार्थ देखें. सर्व श्री अजित जोगी, शेखर दत्त, यशवंत सिन्हा, हरदीप पूरी, राजकुमार सिंह, अपराजिता सारंगी, ओ पी सैनी, एम एस गिल, पवन वर्मा, पी एल पूनिया, वी एस चंद्रलेखा और अरविन्द शर्मा. इनके अतिरिक्त विदेश सेवा के और पुलिस सेवा के भी कुछ नाम हैं जैसे सत्यपाल सिंह, जय शंकर, किरण बेदी आदि.
शासकीय सेवाओं में अखिल भारतीय सेवा वर्ग में तीन सेवाए आती हैं, आई ए एस, आई पी एस और आई एफ एस (भारतीय प्रशासनिक, भा.पुलिस और भा. वन सेवा), अन्य सेवाओं में भा. विदेश सेवा व सेन्ट्रल सर्विस ग्रुप ए, बी और सी आदि आती हैं. लेकिन अधिकांशतः केवल आई ए एस को ही शासन में, राजनैतिक नियुक्तियों मे बोर्डों, कमिशनों, कार्पोरेशनों, आयोगों, कुलपति अथवा राज्यपाल जैसे पदों और शासन के अन्य महत्वपूर्ण उपक्रमों के शिखर पदों पर पदस्थ किया जाता है. पुलिस सेवा और विदेश सेवा के भी कतिपय उन अधिकारियों को यह बख्शीश मिल जाती है, जिन्होंने किसी नेता जी के प्रारम्भिक दौर में कुछ उल्लेखनीय सहायता की हो. लेकिन तीसरी अखिल भारतीय सेवा (भा.वन सेवा ) के अधिकारियों को इस योग्य नहीं समझा जाता क्योंकि वे नेताओं के निर्माण काल में या उनके राज काज के समय के किसी घोटाले में मददगार होने के अवसर से वंचित रहता है.
क्या यह पक्षपात सेवाओं में भेद भाव को जन्म नहीं देता और क्या यह राजनीति की शुचिता और आई ए एस वर्ग की सेवाओं में खोट साबित नहीं करता, क्या इस सेवा की सन्निष्ठा पर बड़ा प्रश्न चिन्ह नहीं है और क्या हमारे राजनेता स्वयं एक ऐसी परम्परा को नहीं सींच रहे हैं जिसमें स्पष्ट रूप से संकेत है कि इधर दो और उधर पाओ. क्या इसी कारण हमारा प्रशासनिक तंत्र भ्रष्टाचार की दल-दल से निकलने की कोशिश भी नहीं कर रहा है. जब भ्रष्टाचार नाम और इनाम, दोनों की, गारंटी देता हो तो ऐसे लाभप्रद मार्ग को कोई क्यों छोड़ने पर विचार करेगा. अकेले मोदी जी नहीं लगभग सभी राजनेता अपने निजी सचिवों और विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी का चुनाव अपने उन पुराने मित्र अधिकारियों में से ही लेते हैं, जिन्होंने उनका बुरे समय में और आवश्यकता के अनुरूप सहयोग किया था. विधायी सेवा के अधिकारी और ब्यूरोक्रेट्स को किसी भी संवैधानिक पद या अन्य लाभ के पद पर नियुक्त न किये जाने बाबत एक क़ानून बनाना चाहिए.
मूल्यों की राजनीति करने का दम भरने वाली पार्टी में भी वही चारित्रिक दोष हर अवसर पर प्रदर्शित हुआ है जो अन्य दलों में पाया जाता है. होगा भी क्यों नहीं जब इसके सदस्य भी उसी समाज से आते हैं जिस से अन्य दलों में जाते हैं, नेता की निजी पसंद और नापसंद सभी दलों की कमजोरी रही है, उस व्यक्ति के लिए जो प्रतीक्षा में है, क्यू में खड़ा है, बरसों से दरी बिछाता कुर्सी पोंछता दरबार सजाता रहा है. उसके लिए इस बात में अंतर नहीं है कि उसका हक भाई-भतीजावाद की भेंट चढ़ गया या किसी अधिकारी की झोली में गया. किसी को अपना बेटा पसंद आये या पत्नी, भाई – भतीजे पसंद आये या कोई अन्य मित्र. उसको तो फर्क इस परिणाम से पड़ता है कि कुर्सी पाने का यह अवसर भी कोई अन्य ले गया. भाजपा स्वयं को पार्टी विथ डिफरेंस कहती है एक डिफरेंस तो अवश्य है कि इस के शीर्ष नेतृत्व सहित यह पूरी पार्टी कार्यकर्ताओं के प्रति भी असहिष्णु है. तात्कालिक लाभ के लिए किसी को भी अडवानी बना देने में इनको कोई हिचक नहीं होती. पर्याप्त सतर्कता के अभाव में देश की जनता शीघ्र ही केवल सांसदों –विधायकों और अन्य सदनों को चुनने की मशीन मात्र रह जायेगी.
सतयुग के राम राज से लेकर त्रेता और द्वापर से गुज़रते हुए जब हम कलियुग में प्रवेश करते हैं और प्रत्येक युग की किसी प्रतिनिधि घटना पर विचार करते हैं और समीक्षा करते हैं, तो पता चलता है कि राजनीति साफ़ सुथरी और शुचितायुक्त तो कभी भी नहीं रही. राज्य प्राप्त करने के लिए या एक दूसरे पर आधिपत्य ज़माने के लिए अथवा निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए छल-कपट होता रहा है. परन्तु ऐसा कहकर हम इस अवांछित व दोषपूर्ण स्थिति का औचित्य स्वीकार नहीं कर रहे हैं. भाई-भतीजावाद राजनीति का अभिन्न अंग बन कर रह गया है. अतः आदर्श आचरण वाले नेता की कल्पना व्यर्थ है. गंगा को यदि मैला कर लिया है तो मैले जल से ही आचमन करिए. अर्थात जैसा हमने समाज बनाया है उसी में से जो थोडा बेहतर हो उसे नेता स्वीकार करना होगा. लेकिन यह भी तभी संभव है जब नेतागण राज-काज में शुचिता, समर्पण, निष्काम भाव की स्थापना के प्रयास करें.
(धर्म वीर कपिल, IFS Rtd)
T-122 फेज़ 2, पल्लवपुरम, मेरठ
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