भारत में प्राचीन काल से ही पंचायती राज व्यवस्था कायम रही है. गुप्त काल और फिर चाणक्य द्वारा स्थापित व्यवस्था में पंचायतों का गहरा प्रभाव रहा है. इससे पहले भी वैदिक काल में पंचायती राज व्यवस्था का उल्लेख मिलता है. 1885 मे लार्ड रिवोन ने इस व्यवस्था को “स्थानीय विकास कानून” का नाम दिया. मेटकॉफ़ इसे “सूक्ष्म गणराज्य” कहते थे. किसी ग्राम की मतदाता सूची में सम्मिलित व्यक्तियों के समूह को ग्राम सभा माना गया है और यह अपेक्षा की गई है कि ग्राम-सभाएं ग्राम-स्तर पर जन विकास कार्य व उनके रखरखाव की योजना को पूरा करने के साथ साथ लोगों के कल्याण से संबंधित कार्य कलाप, जिसमें शिक्षा स्वास्थ्य और सामुदायिक के तौर तरीकों की भिन्नता के बावजूद सौहार्द और सद्रश्यता के साथ एक दूसरे के प्रति सम्मान पूर्वक व्यवहार करेंगे.
उक्त गतिविधियों के संचालन के अतिरिक्त आपसी भाईचारा, सामाजिक न्याय, विशेषकर जाति-धर्म, लिंग, भाषा और रहन-सहन के लिए न्यूनतम आवश्यक वातावरण का निर्माण और ऐसे वातावरण को बनाए रखना भी ग्रामसभा का महत्वपूर्ण दायित्व होता है. लिंग, धर्म, समुदाय, जाति-वर्ग और अन्य सामाजिक समरसता के लिए आवश्यक तत्वों का समावेश वांछित स्तर तक बनाए रख कर भेदभाव के बिना सामाजिक न्याय और आपसी झगड़ों का निराकरण करना जीवंत ग्राम सभा के लिए महत्वपूर्ण स्थिति है. क्रमशः द्वितीय और तृतीय स्तर की अर्थात क्षेत्र और जिला-पंचायत राज की सफलता के लिए भी ऐसी प्रबुद्ध और गतिशील ग्राम-सभा आवश्यक है.
भारत में सर्वप्रथम अक्टूबर 1952 में राजस्थान नागोर जिले के बगदरी गाँव में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सार्वजनिक सभा में घोषणा करते हुए ग्राम सभा कानून प्रारंभ किया था, परंतु यह प्रयोग असफल रहा. क्योंकि इस कानून में गरीबों की भागीदारी मुख्य रूप से नहीं हो सकी. कानूनी प्रावधान पर्याप्त सक्षम और कारगर सिद्ध नहीं हुए. 1959 में बलवंत राव मेहता कमीशन की रिपोर्ट आई और इस आधार पर संशोधित व्यवस्था को राजस्थान और आंध्र प्रदेश के कुछ चुनिंदा जिलों में लागू किया गया. इस व्यवस्था में भी अनेक कमियां पाई गई, जिन को दूर करने के लिए 1977 में अशोक मेहता समिति का गठन किया गया. इसी क्रम में 1985 में जीटी के राव की समिति का गठन हुआ. सुधार की यात्रा के अगले पड़ाव के रूप में लक्ष्मी मल सिंघवी समिति और अंततः 73वां संविधान संशोधन कर देश के जनतांत्रिक स्वरूप में एक अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ दिया गया. इस साहसी कार्य के क्रियान्वयन के लिए एक ही झटके में सरकार ने 5,80,000 ग्रामों में इसे लागू कर दिया. ग्राम पंचायत, ब्लॉक पंचायत और जिला पंचायत जैसी त्रिस्तरीय पंचायती राज का श्रीगणेश हुआ.
सुधारों और संशोधनों की इतनी लम्बी श्रंखला से गुज़र कर आखिर में निखार प्राप्त हमारी पंचायत राज व्यवस्था अभी भी वांछित परिणाम देने की स्थिति में नही है क्योंकि इसे इमानदारी से और शुद्ध प्रयोजन से न तो संवारा गया और न ही लागू किया गया. उपरोक्त दृष्टिकोण और स्वार्थपरक चालाकियों के कारण पंचायत राज में जन कल्याण के संबंध में की गई परिकल्पना केवल घोषणाओं और शिलान्यास तक ही सिमट कर रह गई है.
इन तीनों स्तरों की पंचायतों के गठन की वर्तमान प्रक्रिया का मंतव्य और उद्देश्य शंका के घेरे में आते हैं, यह बड़ा दुर्भाग्य है कि इन पदों के चुनाव में जितना अधिक राजनीतिक दांव-पेंच, घूसखोरी, दंगे-फसाद, मारकाट, बलवा और गुंडागर्दी का खुलेआम नंगा-नाच होता है, उतना देश के किसी अन्य पद पर चुनाव में नहीं होता. किसी विधानसभा या परिषद, लोकसभा या राज्यसभा अथवा अन्य किसी भी पद का चुनाव इतने पाप कर्मों का गवाह नहीं हो सकता. एक-एक बीडीसी (क्षेत्र पंचायत) सदस्य की वोट की कीमत ₹40-50 लाख से प्रारंभ होती है और इस प्रकार करोड़ों का खर्च करके जो व्यक्ति ब्लॉक प्रमुख का चुनाव जीतता है, उसे इमानदारी की लाख शपथ दिलाई जाए, कैसा ही प्रशिक्षण दिलाया जाए, उसे तो न केवल अपना नियोजित धन वापिस वसूल करना है बल्कि अगले किसी चुनाव के लिए अतिरिक्त धन जुटाना भी है.
वोटों की खरीद-फरोख्त की इन चर्चाओं में कोई लुकाछिपी नहीं होती. इसमें सतर्कता अथवा गोपनीयता के प्रति भी किसी का कोई सरोकार नहीं रहता, खुल्लम-खुल्ला सौदेबाजी होती है, वोटों के रेट अखबारों में छपते हैं. लेन-देन के किस्से चटकारे और मिर्च मसाले के साथ मीडिया के हर क्षेत्र में तैरते नजर आते हैं. इन दिनों मदिरालय जाने की जरुरत नहीं, हर गांव की हर गली- मोहल्ला शराब की पर्याप्त आपूर्ति का अड्डा और मदिरालय बन जाता है. नशे में झूमते गांव के बच्चे भी अचानक वयस्क होकर दार्शनिकों की तरह व्यवहार करने लगते हैं. ग्रामीण भारत में आज शराब का जितना चलन है, उसका आधा भी शहरी क्षेत्र में नहीं होगा और इस स्थिति के जिम्मेदार होते हैं, देहाती क्षेत्र में होने वाले विभिन्न चुनाव. चुनावों में चारों ओर से व आसपास के दूसरे प्रांतों से भी अवैध शराब की भारी खेप बड़ी-बड़ी गाड़ियों में भरकर आती है. इस प्रकार की गतिविधियां और देश की भावी पीढ़ी की दशा व दिशा, कुल मिलाकर हमारे भविष्य के लिए खतरे की घंटी है. गंभीर विचार विमर्श करके इस समस्या का निदान शीघ्र ही किया जाना आवश्यक है.
भ्रष्टाचार तो लगभग सभी विभागों में है और उसी अनुपात में अधिकारी कर्मचारी घूसखोर अथवा भ्रष्टाचारी हैं जिस अनुपात में हमारे समाज में भ्रष्टाचार मौजूद है. हर समय हर विभाग में भ्रष्टाचार और भ्रष्ट अधिकारियों का अनुपात हमेशा उतना ही पाया जाएगा, जितना आपके समाज में उपस्थित है. अतः समाज सुधरेगा तो भ्रष्टाचार में कमी आएगी, किसी एक विभाग को कम या अधिक भ्रष्ट कह देना उचित नहीं है. राजनीति में भी शुचिता और ईमानदारी का प्रतिशत वही मिलेगा जो अन्य सभी सेवाओं में पाया जाता है. कहने का तात्पर्य यह है कि मूल समस्या समाज में व्याप्त धारणा और येन-केन-प्रकरेण अधिकतम धन कमाकर धनवान होने के प्रयास करते रहने की लालसा ही हमारी समस्याएं हैं.
निर्माण अथवा विकास के कार्यों के संपादन और क्रियांवयन के अधिकार और उत्तरदायित्व पंचायतों को दे दिये जाने को पंचायती राज की मुख्य उपलब्धि के रूप में माना गया. परन्तु यह उचित नहीं है. क्योंकि हुई चुनी हुई संस्थाएं कार्यपालिका का स्थान नहीं ले सकती. ऐसे कार्योंके लिए न तो वे दक्ष होती हैं और न ही उनसे इसकी अपेक्षा करना उचित है. सम्बंधित विभागीय कर्मचारी को ही उक्त जिम्मेदारी दी जानी चाहिए. पंचायती संस्थाएं केवल उनके कार्य की प्राथमिकता का निर्धारण और पर्यवेक्षण का कार्य करें. पंचायती राज की इन तीनों संस्थाओं को कार्यकारी बना देने से भ्रष्टाचार के विशाल दरवाजे खोल दिए गये. दुर्भाग्य की बात है कि इस व्यवस्था के पीछे बदनीयती की बू आती है.
सच यह है कि बन्दर-बाँट की यह व्यवस्था जान-बूझकर की गई. कुल उपलब्ध बजट के उपयोग करने की होड़ सी लग गई. अधिक से अधिक बजट हथियाने के लिए किस्म किस्म के हथकंडे अपनाए जाने लगे. आवंटन और कार्यों की गुणवत्ता से समझौता करके धन बचा लेना चलन में आ गया. या यूँ कहा जाए कि पंचायतो को कार्यकारी उत्तरदायित्व और उसके लिए बजट का प्रावधान किया ही इसलिए गया ताकि राजनीति में स्थापित नेताओं के भ्रष्टाचार के विरुद्ध ग्राम स्तर पर उभरने वाले असंतोष को नियंत्रित किया जा सके. ग्रामीण अंचल में उभरने वाले नेतृत्व को भी भ्रष्टाचार का स्वाद चखाया जाए और फिर भ्रष्टाचार निर्बाध रूप से और सर्व–सहमती से अनवरत चलता रहे.
परोक्ष रूप से उन्हें भी समझ आ गया कि सब अपनी-अपनी सीमाओं में अपना-अपना हिस्सा प्राप्त करो, खुश रहो. इस प्रकार ग्राम स्तर का वह एक नेतृत्व-वर्ग इस व्यवस्था में समायोजित हो जाता है जो अन्यथा इस के विरुद्ध मुखर होकर शुचिता के लिए जोरदार आवाज़ उठा सकता था. लेकिन लाभांश का यह युक्ति-युक्त संवितरण-सूत्र कम से कम उतने लोगों की आवाज़ तो दबा ही देता है जो तत्समय व्यवस्था के अन्दर किसी न किसी कुर्सी पर विराजमान हैं. शेष में अधिकांश इस कारण चुप रह जाते हैं कि कोई बात नहीं सिस्टम बना रहा तो आज नहीं तो कल हमारा होगा और कुर्सी हमारी होगी तो सिस्टम काम आएगा. आखिर सिस्टम में प्रावधान रहा और अगले अवसर पर एक अदद कुर्सी को पाने में सफलता मिल ही सकती है.
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि ग्राम-प्रधान के पद का चुनाव इतना महंगा और जोखिम भरा हो चुका है कि साधारण व्यक्ति के बूते की बात नही रही, इतनी बड़ी धन-राशि का निवेश करना और फिर उसे लाभांश के साथ पूरा वापिस प्राप्त करना.
चुने गए या हार गए अनेक प्रधान पद के उम्मीदवारों के ऊपर जानलेवा हमले होने और हत्याएं हो जाने की सूचनाएं प्रायः प्रकाशित होती रहती हैं. इसी प्रकार क्षेत्र-स्तर पर बीडीसी बनकर स्वयं को क्रय-विक्रय की मंडी में समुचित मूल्य पर बेच पाना न केवल एक बड़ी भारी कला है बल्कि जिंदगी को हमेशा हथेली पर लेकर चलते रहने का खतरा मोल लेने का दिल भी चाहिए.
प्रत्येक जिले या क्षेत्र में इन चुने गए सदस्यों की वोट का मूल्य पृथक-पृथक होता है. इनकी वोट की हकदारी कब्जाने के लिए चुनाव के कुछ दिन पहले ही इनका अपहरण करके किसी सर्व सुविधायुक्त बड़े से होटल या रिसोर्ट में रखा जाता है हालाँकि इस पूरे कार्य में पर्याप्त प्यार और भाईचारा दिखाया जाता है लेकिन वास्तव में अपहृत व्यक्ति और उसके परिवार के सदस्यों की साँसे लटकी रहती हैं. जब तक अपहृत वोटर वोट डालकर दुश्मन की गोली का शिकार हुए बिना सुरक्षित अपने घर नहीं पहुँच जाता.
एक दफा मेरठ में मेयर पद का सीधा चुनाव हुआ था और वोटों की खरीद-फरोख्त संभव नहीं थी. प्रधान के चुनाव के साथ ही सम्बंधित बीडीसी जिला पंचायत-सदस्यों और जिला-पंचायत अध्यक्ष के पद हेतु भी वोटिंग एक साथ कराई जा सकती है. चुनाव की इस व्यवस्था में मारकाट कम होगी, यदि पंचायतों को कार्यकारी अधिकारों से मुक्त करके केवल विधायी कार्य दिए जाए तो भृष्टाचार भी कम हो जाएगा.
आपको आश्चर्य हो सकता है की ऐसा अनाचार इतना खुलेआम और वह भी एक ऐसी पंचायत के गठन में कैसे हो सकता है, जिसके लिए संविधान निर्माताओं से लेकर सत्ता-विकेंद्रीकरण के हिमायती नेताओं तक हमेशा चिंतित और प्रयासरत रहे. परन्तु यह सच भी है और उतना ही उजागर भी कि सबकी जानकारी में है. यह भी साफ़ हो चुका है कि इतनी मारामारी करके पद हथियाना किसी संभ्रांत नागरिक और साधारण परन्तु सर्वथा पात्र व्यक्ति के वश की बात नहीं रह गई है और यह स्थिति कोई शुभ संकेत नहीं है.
श्री धर्म वीर कपिल,
(लेखक सेवानिवृत भारतीय वन सेवा म. प्र. संवर्ग के अधिकारी हैं)
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भारत में प्राचीन काल से ही पंचायती राज व्यवस्था कायम रही है. गुप्त काल और फिर चाणक्य द्वारा स्थापित व्यवस्था में पंचायतों का गहरा प्रभाव रहा है. इससे पहले भी वैदिक काल में पंचायती राज व्यवस्था का उल्लेख मिलता है. 1885 मे लार्ड रिवोन ने इस व्यवस्था को “स्थानीय विकास कानून” का नाम दिया. मेटकॉफ़ इसे “सूक्ष्म गणराज्य” कहते थे. किसी ग्राम की मतदाता सूची में सम्मिलित व्यक्तियों के समूह को ग्राम सभा माना गया है और यह अपेक्षा की गई है कि ग्राम-सभाएं ग्राम-स्तर पर जन विकास कार्य व उनके रखरखाव की योजना को पूरा करने के साथ साथ लोगों के कल्याण से संबंधित कार्य कलाप, जिसमें शिक्षा स्वास्थ्य और सामुदायिक के तौर तरीकों की भिन्नता के बावजूद सौहार्द और सद्रश्यता के साथ एक दूसरे के प्रति सम्मान पूर्वक व्यवहार करेंगे.
उक्त गतिविधियों के संचालन के अतिरिक्त आपसी भाईचारा, सामाजिक न्याय, विशेषकर जाति-धर्म, लिंग, भाषा और रहन-सहन के लिए न्यूनतम आवश्यक वातावरण का निर्माण और ऐसे वातावरण को बनाए रखना भी ग्रामसभा का महत्वपूर्ण दायित्व होता है. लिंग, धर्म, समुदाय, जाति-वर्ग और अन्य सामाजिक समरसता के लिए आवश्यक तत्वों का समावेश वांछित स्तर तक बनाए रख कर भेदभाव के बिना सामाजिक न्याय और आपसी झगड़ों का निराकरण करना जीवंत ग्राम सभा के लिए महत्वपूर्ण स्थिति है. क्रमशः द्वितीय और तृतीय स्तर की अर्थात क्षेत्र और जिला-पंचायत राज की सफलता के लिए भी ऐसी प्रबुद्ध और गतिशील ग्राम-सभा आवश्यक है.
सुधारों और संशोधनों की इतनी लम्बी श्रंखला से गुज़र कर आखिर में निखार प्राप्त हमारी पंचायत राज व्यवस्था अभी भी वांछित परिणाम देने की स्थिति में नही है क्योंकि इसे इमानदारी से और शुद्ध प्रयोजन से न तो संवारा गया और न ही लागू किया गया. उपरोक्त दृष्टिकोण और स्वार्थपरक चालाकियों के कारण पंचायत राज में जन कल्याण के संबंध में की गई परिकल्पना केवल घोषणाओं और शिलान्यास तक ही सिमट कर रह गई है.
इन तीनों स्तरों की पंचायतों के गठन की वर्तमान प्रक्रिया का मंतव्य और उद्देश्य शंका के घेरे में आते हैं, यह बड़ा दुर्भाग्य है कि इन पदों के चुनाव में जितना अधिक राजनीतिक दांव-पेंच, घूसखोरी, दंगे-फसाद, मारकाट, बलवा और गुंडागर्दी का खुलेआम नंगा-नाच होता है, उतना देश के किसी अन्य पद पर चुनाव में नहीं होता. किसी विधानसभा या परिषद, लोकसभा या राज्यसभा अथवा अन्य किसी भी पद का चुनाव इतने पाप कर्मों का गवाह नहीं हो सकता. एक-एक बीडीसी (क्षेत्र पंचायत) सदस्य की वोट की कीमत ₹40-50 लाख से प्रारंभ होती है और इस प्रकार करोड़ों का खर्च करके जो व्यक्ति ब्लॉक प्रमुख का चुनाव जीतता है, उसे इमानदारी की लाख शपथ दिलाई जाए, कैसा ही प्रशिक्षण दिलाया जाए, उसे तो न केवल अपना नियोजित धन वापिस वसूल करना है बल्कि अगले किसी चुनाव के लिए अतिरिक्त धन जुटाना भी है.
वोटों की खरीद-फरोख्त की इन चर्चाओं में कोई लुकाछिपी नहीं होती. इसमें सतर्कता अथवा गोपनीयता के प्रति भी किसी का कोई सरोकार नहीं रहता, खुल्लम-खुल्ला सौदेबाजी होती है, वोटों के रेट अखबारों में छपते हैं. लेन-देन के किस्से चटकारे और मिर्च मसाले के साथ मीडिया के हर क्षेत्र में तैरते नजर आते हैं. इन दिनों मदिरालय जाने की जरुरत नहीं, हर गांव की हर गली- मोहल्ला शराब की पर्याप्त आपूर्ति का अड्डा और मदिरालय बन जाता है. नशे में झूमते गांव के बच्चे भी अचानक वयस्क होकर दार्शनिकों की तरह व्यवहार करने लगते हैं. ग्रामीण भारत में आज शराब का जितना चलन है, उसका आधा भी शहरी क्षेत्र में नहीं होगा और इस स्थिति के जिम्मेदार होते हैं, देहाती क्षेत्र में होने वाले विभिन्न चुनाव. चुनावों में चारों ओर से व आसपास के दूसरे प्रांतों से भी अवैध शराब की भारी खेप बड़ी-बड़ी गाड़ियों में भरकर आती है. इस प्रकार की गतिविधियां और देश की भावी पीढ़ी की दशा व दिशा, कुल मिलाकर हमारे भविष्य के लिए खतरे की घंटी है. गंभीर विचार विमर्श करके इस समस्या का निदान शीघ्र ही किया जाना आवश्यक है.
भ्रष्टाचार तो लगभग सभी विभागों में है और उसी अनुपात में अधिकारी कर्मचारी घूसखोर अथवा भ्रष्टाचारी हैं जिस अनुपात में हमारे समाज में भ्रष्टाचार मौजूद है. हर समय हर विभाग में भ्रष्टाचार और भ्रष्ट अधिकारियों का अनुपात हमेशा उतना ही पाया जाएगा, जितना आपके समाज में उपस्थित है. अतः समाज सुधरेगा तो भ्रष्टाचार में कमी आएगी, किसी एक विभाग को कम या अधिक भ्रष्ट कह देना उचित नहीं है. राजनीति में भी शुचिता और ईमानदारी का प्रतिशत वही मिलेगा जो अन्य सभी सेवाओं में पाया जाता है. कहने का तात्पर्य यह है कि मूल समस्या समाज में व्याप्त धारणा और येन-केन-प्रकरेण अधिकतम धन कमाकर धनवान होने के प्रयास करते रहने की लालसा ही हमारी समस्याएं हैं.
निर्माण अथवा विकास के कार्यों के संपादन और क्रियांवयन के अधिकार और उत्तरदायित्व पंचायतों को दे दिये जाने को पंचायती राज की मुख्य उपलब्धि के रूप में माना गया. परन्तु यह उचित नहीं है. क्योंकि हुई चुनी हुई संस्थाएं कार्यपालिका का स्थान नहीं ले सकती. ऐसे कार्योंके लिए न तो वे दक्ष होती हैं और न ही उनसे इसकी अपेक्षा करना उचित है. सम्बंधित विभागीय कर्मचारी को ही उक्त जिम्मेदारी दी जानी चाहिए. पंचायती संस्थाएं केवल उनके कार्य की प्राथमिकता का निर्धारण और पर्यवेक्षण का कार्य करें. पंचायती राज की इन तीनों संस्थाओं को कार्यकारी बना देने से भ्रष्टाचार के विशाल दरवाजे खोल दिए गये. दुर्भाग्य की बात है कि इस व्यवस्था के पीछे बदनीयती की बू आती है.
सच यह है कि बन्दर-बाँट की यह व्यवस्था जान-बूझकर की गई. कुल उपलब्ध बजट के उपयोग करने की होड़ सी लग गई. अधिक से अधिक बजट हथियाने के लिए किस्म किस्म के हथकंडे अपनाए जाने लगे. आवंटन और कार्यों की गुणवत्ता से समझौता करके धन बचा लेना चलन में आ गया. या यूँ कहा जाए कि पंचायतो को कार्यकारी उत्तरदायित्व और उसके लिए बजट का प्रावधान किया ही इसलिए गया ताकि राजनीति में स्थापित नेताओं के भ्रष्टाचार के विरुद्ध ग्राम स्तर पर उभरने वाले असंतोष को नियंत्रित किया जा सके. ग्रामीण अंचल में उभरने वाले नेतृत्व को भी भ्रष्टाचार का स्वाद चखाया जाए और फिर भ्रष्टाचार निर्बाध रूप से और सर्व–सहमती से अनवरत चलता रहे.
परोक्ष रूप से उन्हें भी समझ आ गया कि सब अपनी-अपनी सीमाओं में अपना-अपना हिस्सा प्राप्त करो, खुश रहो. इस प्रकार ग्राम स्तर का वह एक नेतृत्व-वर्ग इस व्यवस्था में समायोजित हो जाता है जो अन्यथा इस के विरुद्ध मुखर होकर शुचिता के लिए जोरदार आवाज़ उठा सकता था. लेकिन लाभांश का यह युक्ति-युक्त संवितरण-सूत्र कम से कम उतने लोगों की आवाज़ तो दबा ही देता है जो तत्समय व्यवस्था के अन्दर किसी न किसी कुर्सी पर विराजमान हैं. शेष में अधिकांश इस कारण चुप रह जाते हैं कि कोई बात नहीं सिस्टम बना रहा तो आज नहीं तो कल हमारा होगा और कुर्सी हमारी होगी तो सिस्टम काम आएगा. आखिर सिस्टम में प्रावधान रहा और अगले अवसर पर एक अदद कुर्सी को पाने में सफलता मिल ही सकती है.
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि ग्राम-प्रधान के पद का चुनाव इतना महंगा और जोखिम भरा हो चुका है कि साधारण व्यक्ति के बूते की बात नही रही, इतनी बड़ी धन-राशि का निवेश करना और फिर उसे लाभांश के साथ पूरा वापिस प्राप्त करना.
प्रत्येक जिले या क्षेत्र में इन चुने गए सदस्यों की वोट का मूल्य पृथक-पृथक होता है. इनकी वोट की हकदारी कब्जाने के लिए चुनाव के कुछ दिन पहले ही इनका अपहरण करके किसी सर्व सुविधायुक्त बड़े से होटल या रिसोर्ट में रखा जाता है हालाँकि इस पूरे कार्य में पर्याप्त प्यार और भाईचारा दिखाया जाता है लेकिन वास्तव में अपहृत व्यक्ति और उसके परिवार के सदस्यों की साँसे लटकी रहती हैं. जब तक अपहृत वोटर वोट डालकर दुश्मन की गोली का शिकार हुए बिना सुरक्षित अपने घर नहीं पहुँच जाता.
एक दफा मेरठ में मेयर पद का सीधा चुनाव हुआ था और वोटों की खरीद-फरोख्त संभव नहीं थी. प्रधान के चुनाव के साथ ही सम्बंधित बीडीसी जिला पंचायत-सदस्यों और जिला-पंचायत अध्यक्ष के पद हेतु भी वोटिंग एक साथ कराई जा सकती है. चुनाव की इस व्यवस्था में मारकाट कम होगी, यदि पंचायतों को कार्यकारी अधिकारों से मुक्त करके केवल विधायी कार्य दिए जाए तो भृष्टाचार भी कम हो जाएगा.
श्री धर्म वीर कपिल,
(लेखक सेवानिवृत भारतीय वन सेवा म. प्र. संवर्ग के अधिकारी हैं)
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