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जरूरत है जलवायु परिवर्तन को समझने की

Gunjan Mishra

Gunjan Mishra Opinions & Updates

ByGunjan Mishra Gunjan Mishra   26

जरूरत है जलवायु परिवर्तन को समझने की- 

जिस तरह से प्राकृतिक आपदायें क्रम से लगातार हो रही है, उससे अब यही महसूस होता है, कि जलवायु परिवर्तन/स्थानांतरण ने अपनी गति बढ़ा दी है. जनवरी 2020 में ही 7 आपदायें जिनमें ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में आग, हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने के कारण हिमालय में वनस्पति को हानि, दुबई में बाढ़ आदि, हाल ही में चक्रवात अम्फान, दिल्ली में हलके भूकंप का आना और चक्रवात निसर्ग (मुंबई में ये चक्रवात पूरे 100 साल बाद आया) यह सब इस बात का सबूत है, कि जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं की घटनायें बढ़ती जा रही हैं. इसलिए अब जलवायु परिवर्तन नहीं, प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती गति/आवृत्ति एक चिंता का विषय है.

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वैसे भी भारत अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण बाढ़, चक्रवात, हिमस्खलन, गर्मी/ठंड की लहरों, भूस्खलन, भूकंप और सूखे की अत्याधिक चपेट में है. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, भारत में लगभग 40 मिलियन हेक्टेयर भूमि बाढ़, कुल भूमि क्षेत्र का लगभग 12 प्रतिशत, 68 प्रतिशत भूमि सूखे, भूस्खलन और हिमस्खलन की चपेट में है, 58.6 प्रतिशत भूमि भूकंप-प्रवण है और सुनामी व चक्रवात 7,516 किलोमीटर लंबी तटीय रेखा के 5,700 किमी के लिए एक नियमित घटना है. इस तरह की कमजोर स्थितियों ने भारत को शीर्ष आपदाग्रस्त देशों में रखा है. भारत में बाढ़ सबसे बड़ी आपदा है, आपदाओं की कुल घटनाओं का 52%, फिर चक्रवात 30%, भूस्खलन 10%, भूकंप 5% और सूखा 2%. 1999-2020 में अब तक के मौजूदा वित्त वर्ष में देश में बाढ़ और सूखे के कारण लाखों हेक्टेयर कृषि भूमि नष्ट हुई है, हज़ारों लोगों और मवेशियों ने अपनी जान गंवाई है.

जलवायु परिवर्तन की धारणा तो ठीक है, जो जलवायु परिवर्तन होना था वो हो गया या हो रहा है. सच ये है कि प्राकतिक आपदाओं की आवृत्ति या गति बढ़ने के कारण जो नुकसान हो रहा है, वो एक चिंता का विषय है. बारिश से लेकर समुद्र के उच्च स्तर तक तेजी से प्रभाव पड़ रहा हैं. जलवायु परिवर्तन की गति ऊष्मागतिकी के नियम पर आधारित होती है. वातावरण में जो गैसे ईंधन के जलने के कारण निकलती है, उनमें नमी होती है और तापमान की वजह से ये नमी बारिश के रूप में गिरती है, तो यह गर्मी के रूप में अपनी ऊर्जा वातावरण में छोड़ती है. यह आग के लिए एक त्वरक की कार्य करती है, जिससे अधिक गर्मी, अधिक नमी होती है और इसका परिणाम हमको मूसलाधार बारिश के रूप में मिलता हैं. वैज्ञानिकों के पास समुद्र स्तर को लेकर 1921 से आंकड़े हैं. तब से, समुद्र का स्तर लगभग 1 फुट बढ़ गया. हम 1970 के दशक की तुलना में आज दुगनी गर्मी की लपटों से मुकाबला कर रहे हैं. समुद्र इस गर्मी का 90 प्रतिशत हिस्सा सोख लेता है और संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों के द्वारा किये गए अध्धयन की तुलना में, समुद्र के तापमान में 40 प्रतिशत तेजी से वृद्धि हो रही है. परिणाम समुद्र का स्तर तेज़ी से बढ़ रहा है.

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इन सब आपदाओं का मुख्य कारण जैवविविधता का ह्रास होना है. जैव विविधता कई गतिविधियों को संतुलन में रखती है और जो जैव विविधता के उत्पाद है, उनसे मानव का पोषण होता है.  भोजन, ईंधन, सूक्ष्मजीव जिनके साथ मानव सह-अस्तित्व में रहता है एवं जलवायु परिस्थितियां, सूखा, बाढ़, फसलों के परागण, कृषि, नई बीमारियों और विपत्तियों का उद्भव व नई दवाओं की खोज और यहां तक की आनुवंशिक डेटा, और मानव जाति के नए वातावरण के अनुकूल होने की क्षमता, ये सब जैव विविधता की देन है. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, 10 लाख पशु और पौधों की प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है. अपनी 2018 की लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट में, वन्य जीव संरक्षण संगठन, (वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर) ने अनुमान लगाया कि 1970 के बाद से कशेरुकी विशिष्ट आबादी में 60 प्रतिशत औसत से गिरावट हो रही है. इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र ने यह भी कहा कि, सभी समुद्री स्तनधारियों में से एक तिहाई से अधिक 40 प्रतिशत उभयचर, और पृथ्वी के 33 प्रतिशत प्रवाल प्रकृति मानवीय गतिविधियों के कारण जोखिम में हैं.

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दुनिया की बढ़ती आबादी के कारण विभिन्न संसाधनों के शोषण में एक अपरिहार्य वृद्धि हुई है. प्रत्येक वर्ष 60 बिलियन टन नवीकरणीय और असाध्य संसाधनों का दोहन किया जाता है. इस नुकसान की भरपाई करने का एकमात्र समाधान प्रकृति के साथ हमारे संबंधों को फिर से परिभाषित करना है. सभी वैज्ञानिक उपलब्धियों और तकनीकों के बावजूद, मानव जाति पूरी तरह से जीवित पारिस्थितिकी प्रणालियों पर निर्भर करती है. जैव विविधता के नुकसान ने बाजारों को डुबो दिया है और आर्थिक प्रगति के लिए एक प्रमुख बाधा का रूप इसने ले लिया है. विश्व आर्थिक मंच जैसी संस्थाएं पहले से ही मानती हैं, कि जैव विविधता का नुकसान, जलवायु परिवर्तन से होने वाली आपदाओं में वृद्धि का कारण बनेगा अर्थात इससे आर्थिक, सामाजिक सभी तरह के नुकसान भविष्य में होंगे. यही कारण है कि इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस जैव विविधता पर केंद्रित है.

अतः हम सबकी ये जिम्मेदारी है कि जलवायु परिवर्तन से होने वाली प्राकृतिक आपदाओं की गति को कैसे रोका या घटाया जाएं, इस पर ध्यान देने की जरूरत है, नहीं तो, इसके परिणाम हमको अकाल और अन्य आपदाओं के रूप में मिलेंगे क्योंकि प्रकृति की समस्याओं का हल विज्ञान के पास नहीं, सह अस्तित्व के सिद्धांत में निहित है.

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