राज्य व केंद्र की राजनीति में महिलाओं का बढ़ता हस्तक्षेप, पंचायतों में महिलाओं की बढ़ती सहभागिता व सक्रियता का भी एक परिणाम है। इसका प्रभाव शेष महिलाओं के बढ़ते आत्मविश्वास के रूप में सामने आ रहा है। तमाम अड़चनों के बावजूद, मिले अवसर को अपने और अपने गांव-समाज के उत्थान की ललक व कोशिशें महिला पंचायत प्रतिनिधियों में दिखाई देने लगी हैं। सार्वजनिक हित के मुद्दों पर डट जाने के उदाहरणों की भी अब कमी नहीं है। तमाम रिपोर्टें बताती हैं कि कैसे कई मिथक टूट रहे हैं। स्वयंसहायता समूहों की सफलताओं की हज़ारों कहानियां मिले अवसर, जागृति व हौंसले के बल पर ही लिखी जा रही हैं। मनरेगा कार्यों में महिला मेट की नियुक्तियों के नतीजे सकारात्मक हैं। कोविड संकटकाल में पंचायत प्रतिनिधि के रूप में महिलाओं की भूमिका का महत्व उभरकर सामने आया है।
महाराष्ट्र - जिला पुणे, तालुका बारामती, गांव निम्बुट। महिलाएं चुनाव में खड़े होने से हिचक रही थीं। कमलाबाई कांकणे ने सवाल उछाला, "डरना क्यों? हम महिलाएं घर चला सकती हैं, तो पंचायत क्यों नहीं?"
खुले आम उछाले इस सवाल ने चमत्कार कर दिया। चुनाव हुआ। निम्बुट में पहली सर्व महिला पंचायत बनी। पंचायती महिलाएं दीया - लालटेन वाले अपने गांव में बिजली की मंजूरी ले आईं। पंचायत भवन बना, स्कूल बना, महिला - पुरुष सभी ने औपचारिक शिक्षा के अवसर का भरपूर लाभ उठाया। महिलाएं आम सभा का ख़ास स्वर बनकर उभरीं। तालुका भर में चर्चा का विषय बनीं । प्रेरणा ने पंख फैलाए। दूसरी ग्राम पंचायतों की महिलाएं भी चुनाव में उम्मीदवारी के लिए आगे आईं।
यह बात 1963 से 1968 के पंचवर्षीय कार्यकाल की है। आज वर्ष 2022 में भारत में महिला पंचायत प्रतिनिधियों की संख्या लगभग 15 लाख है । पहली लोकसभा में 24 महिला सांसद थीं; आज 16वीं लोकसभा में 68 हैं। पहली राज्यसभा में 15 महिला सांसद थी; आज 29 हैं। वर्ष 2022 के हाल के चुनाव नतीजों ने 60 सदस्यीय मणिपुर विधानसभा के इतिहास में महिला विधायकों की संख्या को पहली बार पांच पर पहुंचा दिया है। एक राष्ट्रीय दल द्वारा उत्तर प्रदेश चुनाव-2022 में 40 प्रतिशत उम्मीदवारी महिलाओं को दी गई।
ऐसे अनेक उक्त आंकड़ों और सुश्री मायावती, ममता बैनर्जी, स्मृति ईरानी जैसी गैर-राजनीतिक परिवारों से आने वाली अनेक महिला जनप्रतिनिधियों को सामने रखकर यह कह सकते हैं कि महिलाएं घर चला सकती हैं तो पार्टी, पंचायत, प्रदेश और देश क्यों नहीं? यह दावा... यह सोच अपने आप में प्रमाण है कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में सहभागिता और सक्रियता ने भारतीय महिलाओं के हौंसले बुलंद किए हैं।
सहभागिता बढ़ी, प्रभाव बढ़ा
सबसे बड़ी बेहतरी तो यह कि वोट देने वाली महिलाओं की वृद्धि दर, पुरुषों की तुलना में लगातार बढ़ रही है। 1962 में पहली बार महिला–पुरुष मतदाताओं के आंकड़े अलग-अलग प्रदान किए गए। 1962 में हुए कुल मतदान में 63.31 प्रतिशत पुरुष और 46.63 प्रतिशत महिला मतदान था । 2019, 2020, लोकसभा, विधानसभा, पंचायत किसी भी चुनाव के आंकड़े देख लीजिए सिर्फ वृद्धि दर नहीं, वर्ष 2022 के चुनावों में तो उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर में मतदान करने वालों की कुल संख्या में भी महिलाएं, पुरुषों से आगे निकल गई हैं। सिर्फ पंजाब में महिला मतदान प्रतिशत, पुरुषों से थोड़ा कम (मात्र 0.08 प्रतिशत कम) रहा है।
सीएसडीएस द्वारा किए गए वर्ष 2014 चुनाव सर्वेक्षण का आकलन था कि 70 प्रतिशत महिला मतदाता अब यह खुद तय करने लगी हैं कि वे अपना वोट किसे दें। महिला वोट और सोच का प्रभाव भी अब दिखने लगा है। सीएसडीएस के मुताबिक, दिल्ली में आम आदमी पार्टी और प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की एकतरफा जीत में सबसे बड़ी भूमिका महिला मतदाताओं ने निभाई। उ.प्र. चुनाव 2022 के ताज़ा नतीजों को लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट भी महिला मतदाताओं को प्रभावी बता रही है।
आत्मविश्वास बढ़ा
हम दावा कर सकते हैं कि संवैधानिक भारत की लोकतांत्रिक यात्रा में महिला सहभागिता और सक्रियता की यह रफ्तार धीमी ज़रूर है, लेकिन निष्प्रभावी नहीं। सच कहें तो भारतीय महिलाएं विश्व और लोकतंत्र, दोनों को प्रभावित व पुष्ट करने वाली साबित हो रही हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में महिला प्रधान को रबर स्टेम्प साबित करने वाले किस्से भले ही सच हों; भले ही कहा जा रहा हो कि पंचायत प्रतिनिधि बनकर महिलाएं बहुत कुछ बेहतर नहीं कर सकी हैं; न्याय पंचायतों की न्यायिक भूमिका में महिलाओं की सक्षमता अभी व्यापक रूप से उभरकर सामने न आई हो; किंतु कुलजमा तस्वीर इतनी नहीं है।
राज्य व केंद्र की राजनीति में महिलाओं का बढ़ता हस्तक्षेप पंचायतों में महिलाओं की बढ़ती सहभागिता व सक्रियता का भी एक परिणाम है। इसका प्रभाव शेष महिलाओं के बढ़ते आत्मविश्वास के रूप में सामने आ रहा है। तमाम अड़चनों के बावजूद, मिले अवसर को अपने और अपने गांव-समाज के उत्थान की ललक व कोशिशें महिला पंचायत प्रतिनिधियों में दिखाई देने लगी हैं। सार्वजनिक हित के मुद्दों पर डट जाने के उदाहरणों की भी अब कमी नहीं है।
तमाम रिपोर्टें बताती हैं कि कैसे कई मिथक टूट रहे हैं। पर्दानशीं महिलाएं भी सार्वजनिक बैठकों में भाग ले रही हैं। वे स्त्री-पुरुष संबंध, शिक्षा, रोज़गार, दहेज, टीकाकरण, बायोगैस, जैविक खेती के तौर-तरीकों तथा मंडी भाव जैसे मसलों पर चर्चा कर रही हैं। पंचायती काम में बचत के रास्ते सुझा रही हैं। भ्रष्टाचार और विभेद के प्रति प्रतिकार जता रही हैं। स्वयंसहायता समूहों की सफलताओं की हज़ारों कहानियां मिले अवसर, जागृति व हौंसले के बल पर ही लिखी जा रही हैं। मनरेगा कार्यों में महिला मेट की नियुक्तियों के नतीजे सकारात्मक हैं। कोविड संकटकाल में पंचायत प्रतिनिधि के रूप में महिलाओं की भूमिका का महत्व उभरकर सामने आया है।
संवैधानिक पहल
इस सब में सरकारी व स्वयंसेवी प्रयासों तथा शिक्षण-प्रशिक्षण की भूमिका तो सराहनीय है ही, सबसे बड़ी भूमिका है भारतीय संविधान की। संविधान प्रदत्त मौलिक आधार स्त्री - पुरुष में कोई भेदभाव नहीं करते । 'पेसा' नामक कानून आदिवासी व अनुसूचित जाति-जनजाति क्षेत्रों के सामुदायिक अस्तित्व को बचाकर रखने वाला साबित हुआ है। 73वां व 74वां संविधान संशोधन स्त्रियों को भेदभाव से उबरने का एक विशेष अवसर प्रदान करते हैं।
73वें व 74वें संविधान संशोधन से पहले भारत में द्वि-स्तरीय सरकारें थीं; संघ सरकार और राज्य सरकार। मूल संविधान के अनुच्छेद 40 में पंचायतों को स्वशासन इकाई के रूप में प्रतिस्थापित करने का निर्देश भी था। किंतु उस निर्देश की पालना हुई अप्रैल 1993 में 73वें संविधान संशोधन प्रस्ताव मंजूर कर लिए जाने के बाद। 73वें संविधान संशोधन के बाद भारत के साढ़े छह लाख गांवों में तीसरे स्तर की ढाई लाख सरकारों के अस्तित्व में आने का मार्ग प्रशस्त हुआ। 73वें व 74वें संविधान संशोधन ने राज्यों को अवसर दिया कि वे क्रमशः ग्राम पंचायतों तथा नगरपालिकाओं को 'सेल्फ गवर्नमेंट' का वैधानिक दर्जा प्रदान कर सकें और एक-तिहाई आरक्षण देकर इनमें महिलाओं को सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर दें।
आरक्षण
हालांकि श्री जी.के.वी. राव समिति ने 1985 में ही पंचायतों में महिलाओं को अधिक प्रतिनिधित्व दिए जाने की सिफारिश कर दी थी; 1980 के दशक के एक अन्य संशोधन में उत्तर प्रदेश सरकार ने पंचायतों के 30 प्रतिशत पद महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिए थे; किंतु संविधान संशोधन ने अवसर को व्यापकता प्रदान की। बिहार सरकार ने 33 प्रतिशत को बढ़ाकर 50 प्रतिशत करने का हौंसला दिखाया। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश ने भी इस राह पर कदम बढ़ाए। राज्यों के अनुभवों को देखते हुए भारत सरकार ने एक और संविधान संशोधन प्रस्ताव लाने का निर्णय लिया।
वर्ष 2009 में संविधान के अनुच्छेद 243 (डी) में संशोधन करके नगालैंड, मेघालय, मिज़ोरम, असम के आदिवासी क्षेत्रों, त्रिपुरा व मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़कर शेष सभी राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों में महिला आरक्षण को 50 प्रतिशत तक लागू करना सुनिश्चित किया गया। यह बढ़ी हुई आरक्षण सीमा सीधे निर्वाचित पदों, पंचायत अध्यक्ष, तथा आदिवासी, अनुसूचित जाति व जनजाति क्षेत्रों की पंचायतों पर भी लागू होना तय हुआ। पुरुष प्रधान मानसिकता के बीच यह निर्णय कितना मुश्किल और असाधारण रहा होगा; किंतु हुआ। इससे समता हासिल करने के अवसर और बढ़े।
आरक्षण अवसर दे सकता है, किंतु सक्षमता तो खुद के संकल्प से ही हासिल होती है। किंतु घूंघट वाली जिन महिलाओं ने कभी घर अथवा गांव की दहलीज न लांघी हो, क्या पंचायत की सार्वजनिक ज़िम्मेदारी निभाना इतना आसान होता है? ज़मीनी अनुभव दिखाते है कि कई दिक्कतें आज भी व्यापक पैमाने पर मौजूद हैं।
चुनौतियां
महाराष्ट्र में महिला पंचायत प्रतिनिधियों को संगठित कर कार्य कर रहे एक कार्यकर्ता का अनुभव सुनिए,
"चुने जाने और पद पर यथासम्भव अच्छा कार्य करने के बावजूद वे दोबारा उम्मीदवार नहीं बनना चाहतीं। कारण? उन्हें चरित्र हनन के स्तर पर उतरकर हतोत्साहित किए जाने के अतिवादी दुष्कर्म सामने आए है। ऐसी स्थिति में स्वयं उन महिलाओं के परिवारों द्वारा उनका साथ न देना भी महिलाओं में उम्मीदवारी की हिम्मत में कमी की वजह बन रहा है।"
मेरा आकलन है कि लिंग आधारित विभेद के अलावा जातीय विभेद और दलगत राजनीति भी महिला पंचायत प्रतिनिधियों की राह में बड़ा रोड़ा है। बड़ी वजह यह भी है कि पद पर चुन लिए जाने और उस पर कार्य करते हुए पांच साल बीत जाने के बावजूद ज़्यादातर महिला पंचायत प्रतिनिधि न पंचायत की तय कार्यप्रणाली से वाकिफ होती हैं और न ही नियम, अधिनियम, निर्देश व शासनादेशों से। जानकारी का स्तर आज भी योजना, कार्यक्रम, कोष, कर्मचारी, ग्रामसभा की बैठक और मनरेगा से आगे नहीं पहुंचा है। लेखा-जोखा रखने संबंधी कमज़ोरी है ही। इन कारणों से भी पंचायत प्रतिनिधि, ग्राम सचिवों के अनुसार गलत - सही चलने पर मज़बूर हैं। कागजी कामों में परावलम्बन इतना अधिक है कि उम्मीदवारी के साधारण दस्तावेज़ तैयार करने तक के कार्य हेतु वे वकीलों का सहारा ले रहे हैं। डिजिटल निरक्षरता, खासकर महिला पंचायत प्रतिनिधियों के लिए नया रोड़ा बनकर सामने आई है।
वार्ड सदस्य/पंच का पद त्रिआयामी भूमिका के निर्वाह की मांग करता हैः वार्ड सदस्य की भूमिका, पंचायत सदस्य की भूमिका तथा पंचायती विकास कार्य संबंधी समितियों में सदस्य/अध्यक्ष की भूमिका। ज़्यादातर वार्ड सदस्य इसमें से एक भी भूमिका का सही से निर्वाह नहीं कर रहे। वे इससे वाकिफ ही नहीं हैं। यहां तक कि उन्हें वाकिफ कराने के प्रयासों का प्रशासन व प्रधानों द्वारा विरोध किए जाने के समाचार मिले हैं।
अज्ञानता का ही नतीजा है कि हमारी ग्राम पंचायतें सहभागी लोकतंत्र का अनुपम मंच होने से अभी वंचित हैं। प्रधान और ग्राम सचिवों की मनमानियों के किस्से आए दिन सुनने को मिलते हैं। वार्ड सदस्य के पद को महत्वहीन मान लिया गया है । उत्तर प्रदेश में ग्राम पंचायत सदस्यों के कुल 7,49,362 पद हैं। 2021 में हुए उत्तर प्रदेश पंचायती चुनावों में इसमें से मात्र 1, 10,010 के लिए मतदान हुआ। 4,39,899 निर्विरोध चुन लिए गए। शेष 26.62 प्रतिशत पदों के लिए किसी ने उम्मीदवारी का पर्चा ही दाखिल नहीं किया।
इससे यह भी साबित होता है कि पंचायत प्रतिनिधि ही नहीं, जब तक ग्रामसभा का प्रत्येक सदस्य पंचायती राज प्रणाली के प्रत्येक पहलू के नफे-नुकसान को लेकर पूरी तरह अवगत व सकारात्मक रूप से सक्रिय नहीं हो जाता; लोकतंत्र और इसमें सहभागी स्त्री-पुरुषों के समर्थ होने का सपना पूरा नहीं होगा।
समाधान कईं
परावलम्बन हमेशा कमज़ोर बनाता है। स्वावलम्बन, यदि व्यैक्तिक हो तो सामुदायिक सोच के लिए घातक भी हो सकता है। समुदाय के भीतर परस्परावलंबन साझा बढ़ाता है। यह साझा ही समुदाय और व्यक्ति दोनो के सशक्तीकरण की सीढ़ी का सबसे मज़बूत पायदान है; स्त्री-पुरुष संबंधों के सशक्तीकरण का भी।
भारत सरकार ने 'ग्राम पंचायत विकास योजना' के रूप में अपनी ग्राम पंचायत की विकास योजना खुद बनाने का एक अवसर दिया। सोच को स्वावलम्बी बनाने की दिशा में गांवों को मिला यह एक शानदार अवसर है। अब केंद्रीय ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्री श्री गिरिराज सिंह जी द्वारा किया ऐलान सामने आया है। केंद्र सरकार, राज्य सरकारों के सहयोग से 2047 तक भारत की सभी पंचायतों का मास्टर प्लान बनाएगी। फरवरी, 2022 के प्रथम सप्ताह में किया यह ऐलान परावलम्बन बढ़ाने वाला है।
केंद्र सरकार, राज्य सरकारों के सहयोग से 2047 तक भारत की सभी पंचायतों का मास्टर प्लान बनाएगी। फरवरी, 2022 के प्रथम सप्ताह में किया यह ऐलान परावलम्बन बढ़ाने वाला है। योजना व बजट निर्माण के पिरामिड को उलटने की ज़रूरत है।
सहयोगी कदम के रूप में ज़रूरी है कि बिना कोरम पूरा हुए ग्रामसभा की बैठक न हो; ऐसा प्रावधान किया जाए। ग्राम सचिवों के खाली पदों को भरा जाए। सभी राज्य वार्ड स्तर पर वार्ड सभा गठित करना अनिवार्य करें। ग्राम पंचायत, ग्रामसभा और ग्राम स्तरीय समस्त विकास समितियां - ज़्यादातर राज्यों में ग्राम सचिव ही सबका सचिव होता है, इस व्यवस्था को बदलें।
ग्रामसभा स्तर की सभी सभाओं व समितियों को अधिकार हो कि वे अपने सदस्यों में से अपना सचिव चुनें। ग्राम सचिव की भूमिका सिर्फ कार्यालय सचिव की भूमिका तक सीमित की जाए। पंचायत स्तर के कर्मचारी, कोष और कार्य पूरी तरह ग्रामसभाओं के अधीन किए जाएं। गांव संबंधी समस्त स्थानीय प्रशासनिक काम, गांव के पंचायत भवन में हों। राज्य वित्त आयोगों के गठन और निर्देशों को सशक्त किया जाए। शासन, प्रशासन व पंचायत प्रतिनिधियों में तालमेल का अभाव दूर किया जाए। ग्रामसभााओं के अनुमोदन को राज्य सरकारें महत्व देना शुरू करें। सभी राज्यों में न्याय पंचायतें गठित हों। तीनों स्तर की पंचायतों में दलीय चुनाव चिन्ह अथवा दल समर्थित उम्मीदवारी पर रोक लगे। पंचायती प्रशिक्षण को ज्यादा ज़मीनी और व्यावहारिक बनाया जाए। गांव समाज तथा पंचायतें अपने सामाजिक व सांस्कृतिक विकास की योजना खुद बनाना शुरू करें। इससे न सिर्फ लोकतंत्र, बल्कि गांवों की सामुदायिक सोच व ढांचा मजबूत होंगे; अंततः स्त्री - पुरुष सभी।
संबंधों में समता ही संतुलन है। संतुलन ही सशक्तीकरण है। प्रतिद्वंदिता में अनैतिकता व असंतुलन का खतरा सबसे ज़्यादा है। सामुदायिक सोच का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि हम सब समुदाय ही नहीं, परिवार व स्त्री-पुरुष संबंध के स्तर पर यह समझ सकें कि एक पंख से भरी उड़ान कितनी भी ऊंची क्यों न हो जाए; असंतुलित ही रहने वाली है। यदि हम वाकई स्त्री-पुरुष संबंधों में असंतुलन से उबरकर सशक्त होना चाहते हैं तो हमें समझौते से ज़्यादा एक-दूसरे को समझना होगा; समझना होगा कि रिश्तों में समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व ही समग्र रूप से समर्थ बना सकते हैं। भारतीय संविधान भी तो आखिरकार हम भारत के नागरिकों से इन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति की अपेक्षा रखता है। स्त्री-पुरुष सशक्तीकरण की मांग यही है।
सह जीवन और सह-अस्तित्व
आज हम संस्कृति और सभ्यता के उस कालखंड में पहुंच गए हैं, जहां स्त्री-पुरुष संबंध को साहचर्य से ज़्यादा, प्रतिद्वंदी भाव से देखा, परखा और तोला जाने लगा है। प्रतिद्वंदिता का यह भाव आज अतिवादिता के उस स्तर पर पहुंच गया है, जहां हर रोज़ महिला, उत्पीड़न की कोई-न-कोई शिकायत पर थाना-कचहरी पहुंच रही है; ग़रीब-गुरबा, अनपढ़ ही नहीं, संपन्न और उच्च शिक्षा प्राप्त परिवारों से भी। स्थिति यह कि हमें इसके लिए महिला पुलिस, महिला थाना, मध्यस्थता एकांशों का गठन करना पड़ा है। दूसरी ओर, स्त्री पीड़ित पति मंच बनने लगे हैं। दुनिया के अधिकांश पुरुष एक बार फिर से खुले आम यह ऐलान करने लगे हैं कि स्त्रियों को पुरुषों के अधीन होना चाहिए ।
केरल के नायर समुदाय के मातृवंशात्मक चरित्र को भेदभावपूर्ण मानते हुए 1925 में एक कानून द्वारा बदल दिया गया। आज शिलांग की गारो, खासी और जयंतिया जनजातियां भारत की एकमात्र शेष मातृवंशात्मक समुदाय हैं। सेयम और मैथशाफॉन्ग संस्था अपने समुदाय के इस मातृवंशात्मक चरित्र के खिलाफ गत् 30 वर्षों से आवाज़ उठा रही है। मातृवंशात्मकता के खिलाफ उठती इन आवाज़ों में निहित आकांक्षाएं, मातृ सशक्तीकरण के समक्ष चुनौतियां पेश कर रही हैं। हमें यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि जैसे-जैसे अलग–अलग अस्तित्व, पहचान व सुविधाओं की चाहत, पूरी तरह निजी लाभ का लालच तथा दूसरों पर कब्ज़ा करने का साम्राज्यवादी चरित्र बढ़ते जाएंगे, यह अतिवादिता बढ़ती जाएगी। लिंग-आधारित सशक्तीकरण की होड़ भी बढ़ती ही जाएगी। जीत होगी, हार होगी, लेकिन संबंधों में सद्भाव नहीं होगा।
समाधान क्या है?
समाधान है कि हम सदैव याद रखें कि हम स्त्री-पुरुष की दैहिक भिन्नता सिर्फ गुणसूत्रों के सम-विषम हो जाने का परिणाम है; वरना दोनों युग्मजा हैं। दोनो का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं। स्त्री-पुरुष ही क्यों, अंतरिक्ष, अंतरिक्ष का एक गृह हमारी पृथ्वी तथा पृथ्वी की सम्पूर्ण प्रकृति के प्रत्येक अंश का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं। प्रत्येक अंश अन्योन्याश्रित है। सूक्ष्म भौतिकी की आधुनिकतम खोजें यही बताती हैं।
श्री, वाक्च नरीणां, स्मृतिमेधा, धृति, क्षमा
अर्थात् श्री, वाणी, स्मृति, मेधा, धैर्य और क्षमा को नारी को उसके प्रकृतिप्रदत्त गुण कहा गया है। शारीरिक बल, निडरता, मुखरता, निर्णय, संरक्षण - पौरुष के प्रतीक हैं। ऐसे ही गुणों के नाते स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे का पूरक कहा गया है। विवाह-पूर्व कुण्डलियों के मिलान का उद्देश्य एक-दूसरे को पुष्ट करने वाले ऐसे गुणों का मिलान ही तो है। गठबंधन, सात फेरों के दौरान कुछ में स्त्री व कुछ में पुरुष का आगे चलना, हर दुख-सुख में एक-दूसरे के साथ व संरक्षण का संकल्प; आखिरकार ये सब वर-वधू में एक-दूसरे को पुष्ट करने के भावों से भर देने की तो प्रक्रिया है । अध्यात्म और समाजशास्त्री इसे सहजीवन और सह-अस्तित्व का नाम देते हैं अर्थात् साथ रहना है और वह भी एक-दूसरे का अस्तित्व मिटाए बग़ैर। इसमें न कोई नकारात्मक प्रतिद्वंदिता है और न एक-दूसरे को कमज़ोर करने अथवा मिटा देने का भाव। इसमें एक संकल्प है संबंधों में समरसता, सातत्य, समग्रता, संतुष्टि व समृद्धि सुनिश्चित करने का।
ये ही वे संकल्प हैं, जिनकी नींव पर कभी भारत के गांव बनें, बसे और समृद्ध हुए। संबंध और इसका संकल्प कमज़ोर न होने पाए; इसके लिए आपसी देखभाल और कभी-कभार ज़रूरत होने पर हस्तक्षेप की ज़रूरत पड़ती है । ऐसा हस्तक्षेप, जो सबका ध्यान रख सके; सबके साथ न्याय कर सके। जैसे परिवार में कोई, ऐसे ही गांव में पंचायतें। यह हस्तक्षेप सिर्फ हस्तक्षेप ही रहे; सत्ता न बन जाए। इसके लिए मुंशी प्रेमचन्द की कहानी 'पंच परमेश्वर' वाली परम्परागत पंचायत के स्वरूप को याद कीजिए। पंचायत यानी गांव में दो के बीच में कोई विवाद होने अथवा किसी साझी ज़रूरत की स्थिति में गठित तथा ज़रूरत की पूर्ति हो जाने पर स्वतः विघटित हो जाने वाली व्यवस्था।
'पंच परमेश्वर' कहानी को बार- बार पढ़िए और आपसी रिश्ते में दरार के बावजूद अलगू चौधरी व जुम्मन खां की पंचायती भूमिका का विश्लेषण कीजिए। कहना न होगा कि हस्तक्षेप की उस व्यवस्था में किसी की अधीनता नहीं थी; बल्कि स्वाधीनता थी विचार करने, उसे अभिव्यक्त करने तथा अपने विश्वास व धर्म के अनुरूप उपासना करने की। भारत की पारम्परिक पंचायतें सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय सुलभ कराने का केंद्र थीं। हमारी पंचायतों में सभी के लिए समान अवसर था। पंचायतें प्रतिष्ठा के आधार पर राजा-रंक में भेदभाव नहीं करती थीं। बंधुत्व का गुण तो पंचायती तथा ग्रामीण संरचना में स्वयंमेव निहित था ही।
आज स्त्री-पुरुष संबंधों को भी हस्तक्षेप की ऐसी ही अंतरंग व्यवस्था और व्यक्तिक समता व सम्भाव की ज़रूरत है, जो दोनों के एक-दूसरे के पूरक होने के आधार पर सोची समझी व संचालित हो। स्त्री-पुरुष में से जो भी, जब भी कमज़ोर हो, दूसरे को अशक्त किए बग़ैर उसे सशक्तीकरण का विशेष अवसर प्रदान करे। यही तो सहभागी लोकतंत्र है; स्त्री-पुरुष संबंध से लेकर परिवार, समाज, राष्ट्र से लेकर वैश्विक संबंधों में समता व समरसता के लिए आवश्यक लोकतंत्र। जहां लोकतंत्र हैं, वहां सत्ता नहीं, स्वाधीनता है, वहीं शक्ति है; वहां किसी दूसरे के अधीन होने की गुंजाइश ही कहां? आइए, इस गुंजाइश को खत्म करें; सशक्त हों।
By Arun Tiwari {{descmodel.currdesc.readstats }}
राज्य व केंद्र की राजनीति में महिलाओं का बढ़ता हस्तक्षेप, पंचायतों में महिलाओं की बढ़ती सहभागिता व सक्रियता का भी एक परिणाम है। इसका प्रभाव शेष महिलाओं के बढ़ते आत्मविश्वास के रूप में सामने आ रहा है। तमाम अड़चनों के बावजूद, मिले अवसर को अपने और अपने गांव-समाज के उत्थान की ललक व कोशिशें महिला पंचायत प्रतिनिधियों में दिखाई देने लगी हैं। सार्वजनिक हित के मुद्दों पर डट जाने के उदाहरणों की भी अब कमी नहीं है। तमाम रिपोर्टें बताती हैं कि कैसे कई मिथक टूट रहे हैं। स्वयंसहायता समूहों की सफलताओं की हज़ारों कहानियां मिले अवसर, जागृति व हौंसले के बल पर ही लिखी जा रही हैं। मनरेगा कार्यों में महिला मेट की नियुक्तियों के नतीजे सकारात्मक हैं। कोविड संकटकाल में पंचायत प्रतिनिधि के रूप में महिलाओं की भूमिका का महत्व उभरकर सामने आया है।
खुले आम उछाले इस सवाल ने चमत्कार कर दिया। चुनाव हुआ। निम्बुट में पहली सर्व महिला पंचायत बनी। पंचायती महिलाएं दीया - लालटेन वाले अपने गांव में बिजली की मंजूरी ले आईं। पंचायत भवन बना, स्कूल बना, महिला - पुरुष सभी ने औपचारिक शिक्षा के अवसर का भरपूर लाभ उठाया। महिलाएं आम सभा का ख़ास स्वर बनकर उभरीं। तालुका भर में चर्चा का विषय बनीं । प्रेरणा ने पंख फैलाए। दूसरी ग्राम पंचायतों की महिलाएं भी चुनाव में उम्मीदवारी के लिए आगे आईं।
यह बात 1963 से 1968 के पंचवर्षीय कार्यकाल की है। आज वर्ष 2022 में भारत में महिला पंचायत प्रतिनिधियों की संख्या लगभग 15 लाख है । पहली लोकसभा में 24 महिला सांसद थीं; आज 16वीं लोकसभा में 68 हैं। पहली राज्यसभा में 15 महिला सांसद थी; आज 29 हैं। वर्ष 2022 के हाल के चुनाव नतीजों ने 60 सदस्यीय मणिपुर विधानसभा के इतिहास में महिला विधायकों की संख्या को पहली बार पांच पर पहुंचा दिया है। एक राष्ट्रीय दल द्वारा उत्तर प्रदेश चुनाव-2022 में 40 प्रतिशत उम्मीदवारी महिलाओं को दी गई।
ऐसे अनेक उक्त आंकड़ों और सुश्री मायावती, ममता बैनर्जी, स्मृति ईरानी जैसी गैर-राजनीतिक परिवारों से आने वाली अनेक महिला जनप्रतिनिधियों को सामने रखकर यह कह सकते हैं कि महिलाएं घर चला सकती हैं तो पार्टी, पंचायत, प्रदेश और देश क्यों नहीं? यह दावा... यह सोच अपने आप में प्रमाण है कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में सहभागिता और सक्रियता ने भारतीय महिलाओं के हौंसले बुलंद किए हैं।
सहभागिता बढ़ी, प्रभाव बढ़ा
सबसे बड़ी बेहतरी तो यह कि वोट देने वाली महिलाओं की वृद्धि दर, पुरुषों की तुलना में लगातार बढ़ रही है। 1962 में पहली बार महिला–पुरुष मतदाताओं के आंकड़े अलग-अलग प्रदान किए गए। 1962 में हुए कुल मतदान में 63.31 प्रतिशत पुरुष और 46.63 प्रतिशत महिला मतदान था । 2019, 2020, लोकसभा, विधानसभा, पंचायत किसी भी चुनाव के आंकड़े देख लीजिए सिर्फ वृद्धि दर नहीं, वर्ष 2022 के चुनावों में तो उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर में मतदान करने वालों की कुल संख्या में भी महिलाएं, पुरुषों से आगे निकल गई हैं। सिर्फ पंजाब में महिला मतदान प्रतिशत, पुरुषों से थोड़ा कम (मात्र 0.08 प्रतिशत कम) रहा है।
सीएसडीएस द्वारा किए गए वर्ष 2014 चुनाव सर्वेक्षण का आकलन था कि 70 प्रतिशत महिला मतदाता अब यह खुद तय करने लगी हैं कि वे अपना वोट किसे दें। महिला वोट और सोच का प्रभाव भी अब दिखने लगा है। सीएसडीएस के मुताबिक, दिल्ली में आम आदमी पार्टी और प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की एकतरफा जीत में सबसे बड़ी भूमिका महिला मतदाताओं ने निभाई। उ.प्र. चुनाव 2022 के ताज़ा नतीजों को लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट भी महिला मतदाताओं को प्रभावी बता रही है।
आत्मविश्वास बढ़ा
हम दावा कर सकते हैं कि संवैधानिक भारत की लोकतांत्रिक यात्रा में महिला सहभागिता और सक्रियता की यह रफ्तार धीमी ज़रूर है, लेकिन निष्प्रभावी नहीं। सच कहें तो भारतीय महिलाएं विश्व और लोकतंत्र, दोनों को प्रभावित व पुष्ट करने वाली साबित हो रही हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में महिला प्रधान को रबर स्टेम्प साबित करने वाले किस्से भले ही सच हों; भले ही कहा जा रहा हो कि पंचायत प्रतिनिधि बनकर महिलाएं बहुत कुछ बेहतर नहीं कर सकी हैं; न्याय पंचायतों की न्यायिक भूमिका में महिलाओं की सक्षमता अभी व्यापक रूप से उभरकर सामने न आई हो; किंतु कुलजमा तस्वीर इतनी नहीं है।
राज्य व केंद्र की राजनीति में महिलाओं का बढ़ता हस्तक्षेप पंचायतों में महिलाओं की बढ़ती सहभागिता व सक्रियता का भी एक परिणाम है। इसका प्रभाव शेष महिलाओं के बढ़ते आत्मविश्वास के रूप में सामने आ रहा है। तमाम अड़चनों के बावजूद, मिले अवसर को अपने और अपने गांव-समाज के उत्थान की ललक व कोशिशें महिला पंचायत प्रतिनिधियों में दिखाई देने लगी हैं। सार्वजनिक हित के मुद्दों पर डट जाने के उदाहरणों की भी अब कमी नहीं है।
तमाम रिपोर्टें बताती हैं कि कैसे कई मिथक टूट रहे हैं। पर्दानशीं महिलाएं भी सार्वजनिक बैठकों में भाग ले रही हैं। वे स्त्री-पुरुष संबंध, शिक्षा, रोज़गार, दहेज, टीकाकरण, बायोगैस, जैविक खेती के तौर-तरीकों तथा मंडी भाव जैसे मसलों पर चर्चा कर रही हैं। पंचायती काम में बचत के रास्ते सुझा रही हैं। भ्रष्टाचार और विभेद के प्रति प्रतिकार जता रही हैं। स्वयंसहायता समूहों की सफलताओं की हज़ारों कहानियां मिले अवसर, जागृति व हौंसले के बल पर ही लिखी जा रही हैं। मनरेगा कार्यों में महिला मेट की नियुक्तियों के नतीजे सकारात्मक हैं। कोविड संकटकाल में पंचायत प्रतिनिधि के रूप में महिलाओं की भूमिका का महत्व उभरकर सामने आया है।
संवैधानिक पहल
इस सब में सरकारी व स्वयंसेवी प्रयासों तथा शिक्षण-प्रशिक्षण की भूमिका तो सराहनीय है ही, सबसे बड़ी भूमिका है भारतीय संविधान की। संविधान प्रदत्त मौलिक आधार स्त्री - पुरुष में कोई भेदभाव नहीं करते । 'पेसा' नामक कानून आदिवासी व अनुसूचित जाति-जनजाति क्षेत्रों के सामुदायिक अस्तित्व को बचाकर रखने वाला साबित हुआ है। 73वां व 74वां संविधान संशोधन स्त्रियों को भेदभाव से उबरने का एक विशेष अवसर प्रदान करते हैं।
73वें व 74वें संविधान संशोधन से पहले भारत में द्वि-स्तरीय सरकारें थीं; संघ सरकार और राज्य सरकार। मूल संविधान के अनुच्छेद 40 में पंचायतों को स्वशासन इकाई के रूप में प्रतिस्थापित करने का निर्देश भी था। किंतु उस निर्देश की पालना हुई अप्रैल 1993 में 73वें संविधान संशोधन प्रस्ताव मंजूर कर लिए जाने के बाद। 73वें संविधान संशोधन के बाद भारत के साढ़े छह लाख गांवों में तीसरे स्तर की ढाई लाख सरकारों के अस्तित्व में आने का मार्ग प्रशस्त हुआ। 73वें व 74वें संविधान संशोधन ने राज्यों को अवसर दिया कि वे क्रमशः ग्राम पंचायतों तथा नगरपालिकाओं को 'सेल्फ गवर्नमेंट' का वैधानिक दर्जा प्रदान कर सकें और एक-तिहाई आरक्षण देकर इनमें महिलाओं को सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर दें।
आरक्षण
हालांकि श्री जी.के.वी. राव समिति ने 1985 में ही पंचायतों में महिलाओं को अधिक प्रतिनिधित्व दिए जाने की सिफारिश कर दी थी; 1980 के दशक के एक अन्य संशोधन में उत्तर प्रदेश सरकार ने पंचायतों के 30 प्रतिशत पद महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिए थे; किंतु संविधान संशोधन ने अवसर को व्यापकता प्रदान की। बिहार सरकार ने 33 प्रतिशत को बढ़ाकर 50 प्रतिशत करने का हौंसला दिखाया। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश ने भी इस राह पर कदम बढ़ाए। राज्यों के अनुभवों को देखते हुए भारत सरकार ने एक और संविधान संशोधन प्रस्ताव लाने का निर्णय लिया।
वर्ष 2009 में संविधान के अनुच्छेद 243 (डी) में संशोधन करके नगालैंड, मेघालय, मिज़ोरम, असम के आदिवासी क्षेत्रों, त्रिपुरा व मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़कर शेष सभी राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों में महिला आरक्षण को 50 प्रतिशत तक लागू करना सुनिश्चित किया गया। यह बढ़ी हुई आरक्षण सीमा सीधे निर्वाचित पदों, पंचायत अध्यक्ष, तथा आदिवासी, अनुसूचित जाति व जनजाति क्षेत्रों की पंचायतों पर भी लागू होना तय हुआ। पुरुष प्रधान मानसिकता के बीच यह निर्णय कितना मुश्किल और असाधारण रहा होगा; किंतु हुआ। इससे समता हासिल करने के अवसर और बढ़े।
आरक्षण अवसर दे सकता है, किंतु सक्षमता तो खुद के संकल्प से ही हासिल होती है। किंतु घूंघट वाली जिन महिलाओं ने कभी घर अथवा गांव की दहलीज न लांघी हो, क्या पंचायत की सार्वजनिक ज़िम्मेदारी निभाना इतना आसान होता है? ज़मीनी अनुभव दिखाते है कि कई दिक्कतें आज भी व्यापक पैमाने पर मौजूद हैं।
चुनौतियां
महाराष्ट्र में महिला पंचायत प्रतिनिधियों को संगठित कर कार्य कर रहे एक कार्यकर्ता का अनुभव सुनिए,
मेरा आकलन है कि लिंग आधारित विभेद के अलावा जातीय विभेद और दलगत राजनीति भी महिला पंचायत प्रतिनिधियों की राह में बड़ा रोड़ा है। बड़ी वजह यह भी है कि पद पर चुन लिए जाने और उस पर कार्य करते हुए पांच साल बीत जाने के बावजूद ज़्यादातर महिला पंचायत प्रतिनिधि न पंचायत की तय कार्यप्रणाली से वाकिफ होती हैं और न ही नियम, अधिनियम, निर्देश व शासनादेशों से। जानकारी का स्तर आज भी योजना, कार्यक्रम, कोष, कर्मचारी, ग्रामसभा की बैठक और मनरेगा से आगे नहीं पहुंचा है। लेखा-जोखा रखने संबंधी कमज़ोरी है ही। इन कारणों से भी पंचायत प्रतिनिधि, ग्राम सचिवों के अनुसार गलत - सही चलने पर मज़बूर हैं। कागजी कामों में परावलम्बन इतना अधिक है कि उम्मीदवारी के साधारण दस्तावेज़ तैयार करने तक के कार्य हेतु वे वकीलों का सहारा ले रहे हैं। डिजिटल निरक्षरता, खासकर महिला पंचायत प्रतिनिधियों के लिए नया रोड़ा बनकर सामने आई है।
वार्ड सदस्य/पंच का पद त्रिआयामी भूमिका के निर्वाह की मांग करता हैः वार्ड सदस्य की भूमिका, पंचायत सदस्य की भूमिका तथा पंचायती विकास कार्य संबंधी समितियों में सदस्य/अध्यक्ष की भूमिका। ज़्यादातर वार्ड सदस्य इसमें से एक भी भूमिका का सही से निर्वाह नहीं कर रहे। वे इससे वाकिफ ही नहीं हैं। यहां तक कि उन्हें वाकिफ कराने के प्रयासों का प्रशासन व प्रधानों द्वारा विरोध किए जाने के समाचार मिले हैं।
अज्ञानता का ही नतीजा है कि हमारी ग्राम पंचायतें सहभागी लोकतंत्र का अनुपम मंच होने से अभी वंचित हैं। प्रधान और ग्राम सचिवों की मनमानियों के किस्से आए दिन सुनने को मिलते हैं। वार्ड सदस्य के पद को महत्वहीन मान लिया गया है । उत्तर प्रदेश में ग्राम पंचायत सदस्यों के कुल 7,49,362 पद हैं। 2021 में हुए उत्तर प्रदेश पंचायती चुनावों में इसमें से मात्र 1, 10,010 के लिए मतदान हुआ। 4,39,899 निर्विरोध चुन लिए गए। शेष 26.62 प्रतिशत पदों के लिए किसी ने उम्मीदवारी का पर्चा ही दाखिल नहीं किया।
इससे यह भी साबित होता है कि पंचायत प्रतिनिधि ही नहीं, जब तक ग्रामसभा का प्रत्येक सदस्य पंचायती राज प्रणाली के प्रत्येक पहलू के नफे-नुकसान को लेकर पूरी तरह अवगत व सकारात्मक रूप से सक्रिय नहीं हो जाता; लोकतंत्र और इसमें सहभागी स्त्री-पुरुषों के समर्थ होने का सपना पूरा नहीं होगा।
समाधान कईं
परावलम्बन हमेशा कमज़ोर बनाता है। स्वावलम्बन, यदि व्यैक्तिक हो तो सामुदायिक सोच के लिए घातक भी हो सकता है। समुदाय के भीतर परस्परावलंबन साझा बढ़ाता है। यह साझा ही समुदाय और व्यक्ति दोनो के सशक्तीकरण की सीढ़ी का सबसे मज़बूत पायदान है; स्त्री-पुरुष संबंधों के सशक्तीकरण का भी।
भारत सरकार ने 'ग्राम पंचायत विकास योजना' के रूप में अपनी ग्राम पंचायत की विकास योजना खुद बनाने का एक अवसर दिया। सोच को स्वावलम्बी बनाने की दिशा में गांवों को मिला यह एक शानदार अवसर है। अब केंद्रीय ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्री श्री गिरिराज सिंह जी द्वारा किया ऐलान सामने आया है। केंद्र सरकार, राज्य सरकारों के सहयोग से 2047 तक भारत की सभी पंचायतों का मास्टर प्लान बनाएगी। फरवरी, 2022 के प्रथम सप्ताह में किया यह ऐलान परावलम्बन बढ़ाने वाला है।
केंद्र सरकार, राज्य सरकारों के सहयोग से 2047 तक भारत की सभी पंचायतों का मास्टर प्लान बनाएगी। फरवरी, 2022 के प्रथम सप्ताह में किया यह ऐलान परावलम्बन बढ़ाने वाला है। योजना व बजट निर्माण के पिरामिड को उलटने की ज़रूरत है।
सहयोगी कदम के रूप में ज़रूरी है कि बिना कोरम पूरा हुए ग्रामसभा की बैठक न हो; ऐसा प्रावधान किया जाए। ग्राम सचिवों के खाली पदों को भरा जाए। सभी राज्य वार्ड स्तर पर वार्ड सभा गठित करना अनिवार्य करें। ग्राम पंचायत, ग्रामसभा और ग्राम स्तरीय समस्त विकास समितियां - ज़्यादातर राज्यों में ग्राम सचिव ही सबका सचिव होता है, इस व्यवस्था को बदलें।
ग्रामसभा स्तर की सभी सभाओं व समितियों को अधिकार हो कि वे अपने सदस्यों में से अपना सचिव चुनें। ग्राम सचिव की भूमिका सिर्फ कार्यालय सचिव की भूमिका तक सीमित की जाए। पंचायत स्तर के कर्मचारी, कोष और कार्य पूरी तरह ग्रामसभाओं के अधीन किए जाएं। गांव संबंधी समस्त स्थानीय प्रशासनिक काम, गांव के पंचायत भवन में हों। राज्य वित्त आयोगों के गठन और निर्देशों को सशक्त किया जाए। शासन, प्रशासन व पंचायत प्रतिनिधियों में तालमेल का अभाव दूर किया जाए। ग्रामसभााओं के अनुमोदन को राज्य सरकारें महत्व देना शुरू करें। सभी राज्यों में न्याय पंचायतें गठित हों। तीनों स्तर की पंचायतों में दलीय चुनाव चिन्ह अथवा दल समर्थित उम्मीदवारी पर रोक लगे। पंचायती प्रशिक्षण को ज्यादा ज़मीनी और व्यावहारिक बनाया जाए। गांव समाज तथा पंचायतें अपने सामाजिक व सांस्कृतिक विकास की योजना खुद बनाना शुरू करें। इससे न सिर्फ लोकतंत्र, बल्कि गांवों की सामुदायिक सोच व ढांचा मजबूत होंगे; अंततः स्त्री - पुरुष सभी।
संबंधों में समता ही संतुलन है। संतुलन ही सशक्तीकरण है। प्रतिद्वंदिता में अनैतिकता व असंतुलन का खतरा सबसे ज़्यादा है। सामुदायिक सोच का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि हम सब समुदाय ही नहीं, परिवार व स्त्री-पुरुष संबंध के स्तर पर यह समझ सकें कि एक पंख से भरी उड़ान कितनी भी ऊंची क्यों न हो जाए; असंतुलित ही रहने वाली है। यदि हम वाकई स्त्री-पुरुष संबंधों में असंतुलन से उबरकर सशक्त होना चाहते हैं तो हमें समझौते से ज़्यादा एक-दूसरे को समझना होगा; समझना होगा कि रिश्तों में समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व ही समग्र रूप से समर्थ बना सकते हैं। भारतीय संविधान भी तो आखिरकार हम भारत के नागरिकों से इन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति की अपेक्षा रखता है। स्त्री-पुरुष सशक्तीकरण की मांग यही है।
सह जीवन और सह-अस्तित्व
आज हम संस्कृति और सभ्यता के उस कालखंड में पहुंच गए हैं, जहां स्त्री-पुरुष संबंध को साहचर्य से ज़्यादा, प्रतिद्वंदी भाव से देखा, परखा और तोला जाने लगा है। प्रतिद्वंदिता का यह भाव आज अतिवादिता के उस स्तर पर पहुंच गया है, जहां हर रोज़ महिला, उत्पीड़न की कोई-न-कोई शिकायत पर थाना-कचहरी पहुंच रही है; ग़रीब-गुरबा, अनपढ़ ही नहीं, संपन्न और उच्च शिक्षा प्राप्त परिवारों से भी। स्थिति यह कि हमें इसके लिए महिला पुलिस, महिला थाना, मध्यस्थता एकांशों का गठन करना पड़ा है। दूसरी ओर, स्त्री पीड़ित पति मंच बनने लगे हैं। दुनिया के अधिकांश पुरुष एक बार फिर से खुले आम यह ऐलान करने लगे हैं कि स्त्रियों को पुरुषों के अधीन होना चाहिए ।
केरल के नायर समुदाय के मातृवंशात्मक चरित्र को भेदभावपूर्ण मानते हुए 1925 में एक कानून द्वारा बदल दिया गया। आज शिलांग की गारो, खासी और जयंतिया जनजातियां भारत की एकमात्र शेष मातृवंशात्मक समुदाय हैं। सेयम और मैथशाफॉन्ग संस्था अपने समुदाय के इस मातृवंशात्मक चरित्र के खिलाफ गत् 30 वर्षों से आवाज़ उठा रही है। मातृवंशात्मकता के खिलाफ उठती इन आवाज़ों में निहित आकांक्षाएं, मातृ सशक्तीकरण के समक्ष चुनौतियां पेश कर रही हैं। हमें यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि जैसे-जैसे अलग–अलग अस्तित्व, पहचान व सुविधाओं की चाहत, पूरी तरह निजी लाभ का लालच तथा दूसरों पर कब्ज़ा करने का साम्राज्यवादी चरित्र बढ़ते जाएंगे, यह अतिवादिता बढ़ती जाएगी। लिंग-आधारित सशक्तीकरण की होड़ भी बढ़ती ही जाएगी। जीत होगी, हार होगी, लेकिन संबंधों में सद्भाव नहीं होगा।
समाधान क्या है?
समाधान है कि हम सदैव याद रखें कि हम स्त्री-पुरुष की दैहिक भिन्नता सिर्फ गुणसूत्रों के सम-विषम हो जाने का परिणाम है; वरना दोनों युग्मजा हैं। दोनो का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं। स्त्री-पुरुष ही क्यों, अंतरिक्ष, अंतरिक्ष का एक गृह हमारी पृथ्वी तथा पृथ्वी की सम्पूर्ण प्रकृति के प्रत्येक अंश का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं। प्रत्येक अंश अन्योन्याश्रित है। सूक्ष्म भौतिकी की आधुनिकतम खोजें यही बताती हैं।
श्री, वाक्च नरीणां, स्मृतिमेधा, धृति, क्षमा
अर्थात् श्री, वाणी, स्मृति, मेधा, धैर्य और क्षमा को नारी को उसके प्रकृतिप्रदत्त गुण कहा गया है। शारीरिक बल, निडरता, मुखरता, निर्णय, संरक्षण - पौरुष के प्रतीक हैं। ऐसे ही गुणों के नाते स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे का पूरक कहा गया है। विवाह-पूर्व कुण्डलियों के मिलान का उद्देश्य एक-दूसरे को पुष्ट करने वाले ऐसे गुणों का मिलान ही तो है। गठबंधन, सात फेरों के दौरान कुछ में स्त्री व कुछ में पुरुष का आगे चलना, हर दुख-सुख में एक-दूसरे के साथ व संरक्षण का संकल्प; आखिरकार ये सब वर-वधू में एक-दूसरे को पुष्ट करने के भावों से भर देने की तो प्रक्रिया है । अध्यात्म और समाजशास्त्री इसे सहजीवन और सह-अस्तित्व का नाम देते हैं अर्थात् साथ रहना है और वह भी एक-दूसरे का अस्तित्व मिटाए बग़ैर। इसमें न कोई नकारात्मक प्रतिद्वंदिता है और न एक-दूसरे को कमज़ोर करने अथवा मिटा देने का भाव। इसमें एक संकल्प है संबंधों में समरसता, सातत्य, समग्रता, संतुष्टि व समृद्धि सुनिश्चित करने का।
ये ही वे संकल्प हैं, जिनकी नींव पर कभी भारत के गांव बनें, बसे और समृद्ध हुए। संबंध और इसका संकल्प कमज़ोर न होने पाए; इसके लिए आपसी देखभाल और कभी-कभार ज़रूरत होने पर हस्तक्षेप की ज़रूरत पड़ती है । ऐसा हस्तक्षेप, जो सबका ध्यान रख सके; सबके साथ न्याय कर सके। जैसे परिवार में कोई, ऐसे ही गांव में पंचायतें। यह हस्तक्षेप सिर्फ हस्तक्षेप ही रहे; सत्ता न बन जाए। इसके लिए मुंशी प्रेमचन्द की कहानी 'पंच परमेश्वर' वाली परम्परागत पंचायत के स्वरूप को याद कीजिए। पंचायत यानी गांव में दो के बीच में कोई विवाद होने अथवा किसी साझी ज़रूरत की स्थिति में गठित तथा ज़रूरत की पूर्ति हो जाने पर स्वतः विघटित हो जाने वाली व्यवस्था।
'पंच परमेश्वर' कहानी को बार- बार पढ़िए और आपसी रिश्ते में दरार के बावजूद अलगू चौधरी व जुम्मन खां की पंचायती भूमिका का विश्लेषण कीजिए। कहना न होगा कि हस्तक्षेप की उस व्यवस्था में किसी की अधीनता नहीं थी; बल्कि स्वाधीनता थी विचार करने, उसे अभिव्यक्त करने तथा अपने विश्वास व धर्म के अनुरूप उपासना करने की। भारत की पारम्परिक पंचायतें सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय सुलभ कराने का केंद्र थीं। हमारी पंचायतों में सभी के लिए समान अवसर था। पंचायतें प्रतिष्ठा के आधार पर राजा-रंक में भेदभाव नहीं करती थीं। बंधुत्व का गुण तो पंचायती तथा ग्रामीण संरचना में स्वयंमेव निहित था ही।
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