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जैविक कृषि – रसायन मुक्त एवं दीर्घकालीन कृषि व्यवस्था

भारतीय कृषि व्यवस्था : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य एवं भविष्य की योजना

भारतीय कृषि व्यवस्था : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य एवं भविष्य की योजना भारतीय कृषि के अंतर्गत विभिन्न पद्धतियां - समग्र अध्ययन

ByDeepika Chaudhary Deepika Chaudhary   Contributors Mrinalini Sharma Mrinalini Sharma 56

जैविक कृषि – रसायन मुक्त एवं दीर्घकालीन कृषि व्यवस्था-

ग्रामों का देश कहे जाने वाले भारत में कृषि अर्थव्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण स्त्रोत माना जाता है. भारत में लगभग 64.5% जनसंख्या कृषि कार्य में संलग्न है और कुल राष्ट्रीय आय का 27.4% भाग कृषि से होता है. देश के कुल निर्यात में कृषि का योगदान 18% है और कृषि ही एक ऐसा आधार है, जिस पर देश के 5.5 लाख से भी अधिक ग्रामीण जनसंख्या 75% प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अपनी आजीविका प्राप्त करती है.

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात वर्ष 1966-67 के दौरान आई हरित क्रांति ने जहां एक ओर कृषि को विकास की ओर अग्रसर किया, वहीं दूसरी ओर बढ़ते रसायनों ने भूमि की उर्वरक क्षमता को कम करने का भी कार्य किया. कृषि पद्धति में आए इस परिवर्तन से हमारी संस्कृति, जीवन, जल, मौसम, वनस्पतियों, नदियों आदि सभी की प्रकृति में बदलाव आया, जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से आज देखा जा रहा है.

कृषि क्षेत्र के विनाश को दृष्टिगोचर करते हुए देश के बहुत से राज्यों में जैविक कृषि की पहल की गयी, जिसमें बढ़ते रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के प्रयोग को सीमित कर प्राकृतिक कृषि पद्धतियों को उन्नत किया गया और किसानों को इसके साथ जोड़ने के प्रयास विभिन्न माध्यमों से किये जाने लगे.

नतीजतन आज देश में जैविक कृषि को लेकर खासी जागरूकता देखी जा रही है, स्वयं किसान आगे बढ़कर जैविक कृषि की पहल करते हुए अन्य किसानों को भी प्रशिक्षित करने का कार्य कर रहे हैं. हमारे देश में श्री भारत भूषण त्यागी, श्री प्रेम सिंह जी, श्री हुकूमचंद पाटीदार जैसे किसान आज जैविक कृषि के क्षेत्र में अन्य किसानों के लिए मिसाल बन रहे हैं.

जैविक कृषि – रसायन मुक्त एवं दीर्घकालीन कृषि व्यवस्था-

(किसानों को जैविक खेती की ओर अग्रसर करते प्रगतिशील किसान भारत भूषण त्यागी जी)

जैविक कृषि पद्धति एवं इसकी आवश्यकताएं -     

जैविक खेती एक ऐसी पद्धति है, जिसमें रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, खरपतवारनाशियों जैसे विषैले रसायनों के स्थान पर जीवांश खाद पोषक तत्वों (गोबर की खाद कम्पोस्ट, हरी खाद, जीवणु कल्चर, जैविक खाद आदि) जैव नाशियों (बायो-पैस्टीसाईड) व बायो एजैन्ट जैसे क्राईसोपा आदि का उपयोग बहुधा किया जाता है.

यह पद्धति पर्यावरण की स्वच्छता, मौलिकता और प्राकृतिक संतुलन को कायम रखते हुए भूमि, जल एवं वायु को प्रदूषण रहित रखकर भूमि की दीर्घकालीन उत्पादन क्षमता को बनाए रखती है. किसानों को भी इस पद्धति से मिलने वाले लाभ अत्याधिक हैं, जिनमें कृषि लागत घटती है और साथ ही उत्पादन की पोषक गुणवत्ता में भी इजाफ़ा होता है.

जैविक कृषि पद्धति में मृदा को एक जीवित माध्यम माना जाता है, जिसका आहार जीवांश होते हैं. यह जीवांश विभिन्न प्राकृतिक वस्तुओं जैसे गोबर, पौधों के अवशेष, गौ मूत्र आदि के समागम से खाद के रूप में भूमि को प्रदान किये जाते हैं.

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इस जीवांश खाद के प्रयोग से फसलों को समस्त पोषक तत्व सरलता से प्राप्त हो जाते हैं. इसके अतिरिक्त इनके प्रयोग से फसलों को होने वाले कीट रोग एवं पादप बीमारियों का प्रकोप भी बहुत कम हो जाता है. साथ ही कीटनाशक एवं खरपतवारनाशी भी जैविक तौर पर ही तैयार किये जाते हैं, जिन्हें परंपरागत स्वरुप और विशेषज्ञों की सलाह के अनुरूप ही तैयार किया जाता है.

विषैले रसायनों, कीटनाशकों के छिड़काव से मुक्ति मिलने से जहां किसान की बाज़ार से खाद और कीटनाशकों पर निर्भरता समाप्त होती है, वहीं रसायन मुक्त खाद्यान, फल एवं सब्जी के उपभोग से बेहतर स्वास्थ्य भी प्राप्त किया जा सकता है. खेती की इस परंपरागत तकनीक के सही इस्तेमाल से धरती की प्राकृतिक उपजाऊ क्षमता में निरंतर वृद्धि होती है, साथ ही प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा एवं वातावरण स्वच्छ भी बना रहता है.

जैविक कृषि – रसायन मुक्त एवं दीर्घकालीन कृषि व्यवस्था-

(जैविक उपज में उपयोगी ट्राइकोडर्मा : मृदा जनित रोगों के लिए एक जैव-नियंत्रण एजेंट)

जीवाणु एवं जैविक कृषि तकनीक –

आज हमारे देश में सरकार के साथ ही कई संस्थाएं जैविक कृषि को बढ़ावा देने व किसानों को इसके प्रति जागरूक करने का कार्य कर रही हैं. जैविक कृषि प्रणाली अपनाने वाले किसानों की मानें तो उन्हें इस विधि से काफी लाभ हुआ है, क्योंकि इस विधि से जहां एक ओर सस्ती और स्थाई फसल का उत्पादन होता है, वहीं उर्वरकों के कम प्रयोग से ये फसलें पौष्टिक व कीटों के प्रभाव से मुक्त होती हैं. जैविक कृषि के अंतर्गत विभिन्न विधियों को खेती में उपयोग किया जाता है.

इनमें से कुछ तकनीकें इस प्रकार हैं -

1. जैविक कीटनाशक -

फसलों की सुरक्षा के लिए जैविक कीटनाशक बनाने के लिए 10 कि.ग्रा. गौ गोबर, 10 कि.ग्रा. गौ मूत्र, नीम का फल एवं पत्तियां, लहसुन इत्यादि का प्रयोग किया जाता है. इस विधि के अंतर्गत इन सभी सामग्रियों को एक ड्रम में एकत्रित किया जाता है, फिर उसे किसी भी फसल में डालने से पहले छान लिया जाता है. इसे यदि फसलों में 10-15 दिन में स्प्रे करते हैं, तो उनमें कीटरोग नहीं होते और फसल विभिन्न रोगों के साथ ही तीव्र गंध के कारण नील गाय एवं सुअरों से भी सुरक्षित रहती है. यह विशेष रूप से उड़द, मूंग, भिंडी जैसी सब्जियों और दलहनों के लिए बेहद उपयोगी है.

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जैविक कृषि – रसायन मुक्त एवं दीर्घकालीन कृषि व्यवस्था-

जैविक खाद में प्रमुख रूप से फास्को कम्पोस्ट, इनरिच्ड कम्पोस्ट एवं वर्मी कम्पोस्ट आदि जैविक खाद सम्मिलित हैं.

2. खरपतवार से बना खाद -

इस विधि में बेकार हुए खरपतवार जैसे पराली, नीम के पत्ते आदि को डिकम्पोस्ट करने के लिए पहले उसे छोटे टुकड़ों में एकत्रित किया जाता है, इसके उपरांत इसमें 10 किलो गौ मूत्र एवं गोबर, 2 किलो गुड को 200 किलो जीवामृत में मिलाया जाता हैं. इसके प्रयोग से मृदा को पोषक बनाने वाले जीव जैसे केंचुएं अथवा अन्य सूक्ष्म जीव, जो मृदा के लिए रक्त कणिका के समान होते हैं, वें बने रहते हैं तथा मिट्टी उपजाऊ बनी रहती है.

जैविक कृषि – रसायन मुक्त एवं दीर्घकालीन कृषि व्यवस्था-

3. नील हरित शैवाल खाद

नील हरित शैवाल (काई) प्रकृति में उपलब्ध ऐसा जैविक स्रोत्र है, जिनका उपयोग धान की खेती में जैविक उर्वरक के रूप में किया जाता है. कृषि रसायन विभाग के शोधानुसार नील हरित शैवाल खाद के प्रयोग से 20-30 किलोग्राम अल्गी फसल प्राप्त होती है, जो लगभग 65 किलोग्राम रसायनिक उवर्रक (यूरिया) के समान है. इसके प्रयोग से धान की उपज में 10-15 प्रतिशत की वृद्धि होती है.

जैविक कृषि – रसायन मुक्त एवं दीर्घकालीन कृषि व्यवस्था-

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इसके अंतर्गत बेकार पड़ी भूमि में गड्डा खोदकर पॉलिथीन शीत बिछाई जाती है, जिसके बाद दोमट मिट्टी की परत बिछाई जाती है, मिट्टी में 200 ग्राम सुपर फास्फेट खाद में एवं 2 ग्राम सोडियम मोलीब्डेट नामक रसायन मिलाया जाता है. फिर इसे 5-10 मीटर ऊंचाई तक पानी डालकर कुछ घंटों के लिए मिट्टी बैठने तक छोड़ दिया जाता है. अब इस मिट्टी में अल्गी कल्चर किया जा सकता है, जिसमें अल्गी बीजों को छिड़क कर 10-15 दिनों तक गर्म एवं हवादार मौसम में रखा जाता है और अल्गी फसल तैयार हो जाने पर इसे लम्बे समय तक स्टोर कर रख लिया जाता है.

इसके साथ ही बहुत सी अन्य विधियों जैसे राइजोबियम कल्चर, एजोटोबैक्टर कल्चर आदि के प्रयोग से खाद में जैविक तत्व बने रहते हैं, जिससे खेतों की जैविक ताकत बढ़ती है व उपजाऊ फसल पैदा होती है.

यह वास्तव में आश्चर्यजनक है कि सरकार द्वारा लगभग 70,000 करोड़ का खर्चा भारतीय सेना पर किया जाता है और उतना ही खर्चा रासायनिक उर्वरकों की सब्सिडी पर भी किया जाता है. जबकि रासायनिक प्रणाली से पर्यावरण को क्षति पहुंचती है और यह प्रणाली अस्थायी व अत्याधिक खर्चीली भी है, इसलिए किसान लगातार जैविक कृषि के प्रति जागरूक हो रहे हैं.

जैविक कृषि के लाभ -

जैविक खेती में कंपोस्ट खाद के अलावा नाडेप, कंपोस्ट खाद, केंचुआ खाद, नीम खली, लेमन ग्रास एवं फसल अवशेषों जैसे प्राकृतिक अवयवों को शामिल किये जाने के कारण यह अत्यंत लाभप्रद है. इसके प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं..

1. मृदा की उर्वरक क्षमता में विस्तार होता है, स्थायित्व बढ़ता है तथा भूमि की नमी बढ़ने से सूखे मौसम का प्रभाव फसल पर अधिक नहीं पड़ता है.

2. कृषि की इस पद्धति के अंतर्गत कम पानी की आवश्यकता होती है, जिससे भूजल धारण क्षमता बढती है.

3. रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों पर निर्भरता कम होने से मृदा में सूक्ष्म तत्वों की संख्या बढती है, जो फसलों के विकास में अहम भूमिका निभाते हैं.

4. मृदा में पाएं जाने वाले माइक्रो बैक्टीरियल जीवों की संख्या जैविक खाद द्वारा बढती है, जो फसल की गुणवत्ता में वृद्धि करते हैं.

5. खतरनाक रसायनों से वातावरण में होने वाला भूमिगत, वायु एवं जल प्रदूषण कम होता है.

6. फसल अवशेषों का उचित प्रयोग किये जाने से उन्हें जलाने की आवश्यकता नहीं होती.

7. कम लागत में अधिक लाभ मिलता है, साथ ही स्वास्थ्य में भी अपेक्षाकृत सुधार आता है. बहुत से अध्ययनों में यह स्पष्ट हुआ है कि विषैले रसायन युक्त फलों, सब्जियों एवं खाद्यान्नों के प्रयोग से कैंसर जैसे खतरनाक रोगों को बढ़ावा मिलता है, वहीं जैविक रूप में इन्हें ग्रहण करने पर इनके सभी पोषक तत्वों का लाभ शरीर को होता है.    

जैविक कृषि – रसायन मुक्त एवं दीर्घकालीन कृषि व्यवस्था- 

इस प्रकार जैविक कृषि वह सदाबहार कृषि पध्दति है, जो यथार्थ में पर्यावरण की शुध्दता को यथावत स्थापित रखने में सहायक है. जैविक पद्धति किसानों के लिए अत्याधिक उपयोगी होने के साथ साथ भारतीय कृषि की परंपरा को बनाये रखने में लाभप्रद है और वर्तमान उपभोगतावाद एवं बाजारीकरण के दौर में किसानों को स्वावलंबी व आत्मनिर्भर बनाकर कृषि को विकसित बनाने में अहम भूमिका निभा रही है.

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