
16 जुलाई 2020 को भूगर्भ जल सप्ताह की शुरुआत माननीय
केंद्रीय जल संसाधन मंत्री श्री गजेंद्र सिंह शेखावत व उत्तर प्रदेश के जल मंत्री
श्री महेंद्र सिंह द्वारा की गयी. इस अवसर पर
श्री शेखावत ने कहा कि जिस तरह श्री लछमन सिंह लापोड़िया ने लोगो को प्रेरत
कर 56 गाँवो को जल समृद्ध बनाया, इसी तरह की पहल देश
के हर गांव में होनी चाहिए. इसके लिए पानी की गति को कम करके उसको संरंक्षित करना
होगा. उन्होंने इस जल सप्ताह के विषय जल है, तो कल है, पर बोलते हुए कहा कि हम प्रकृति के मालिक नहीं बल्कि उसके
रखवाले है अतः जिस अवस्था में हमको पंचतत्व मिले, उसी अवस्था में आने वाली पीढ़ी को
देकर जाए इसी में हमारी समझदारी है. उन्होंने इस बात की भी जानकारी दी कि मनरेगा
का बजट बढ़ाया गया है और इसका 65% हिस्सा पानी के
प्रबंधन पर खर्च होगा. क्योंकि हमारे देश में सिर्फ 4% जल 18% आबादी के लिए उपलब्ध
है जो कि बहुत कम है. जल प्रबंधन पर भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय एक्वीफर
प्रोग्रामिंग के अंतर्गत देश की 2.5 लाख पंचायतों का
अध्ययन किया जाएगा एवं गांव में जल समिति के माध्यम से जल की समस्याओं को दूर किया
जाएगा. भारत सरकार के द्वारा हर घर नल प्रोग्राम के तहत पानी पहुंचाया जाएगा जिसकी
शुरुआत बुंदेलखंड के जिलों से की गयी है. इससे लोगों के स्वास्थय पर जो धनराशि
खर्च होती है उसमे रु 50,000 प्रति घर से
स्वच्छ जल मिलने के कारण बचत होगी. इस सप्ताह के उद्घाटन पर श्री महेंद्र सिंह
द्वारा ने बताया कि इस योजना के अंतर्गत 19 करोड़ घरों को नल
के द्वारा जल पहुंचाया जाएगा.
हालांकि भूगर्भ जल पर चेक डैम, तालाब, मेड बंदी आदि
कार्यक्रम सरकार द्वारा चलाये गए, लेकिन नतीजा कुछ लाभदायक नहीं रहा.
भूगर्भ जल की दयनीय स्थिति पर प्रगतिशील किसान श्री प्रेम
सिंह कहते हैं कि पिछले 3 दशकों से, पूरी दुनिया में, भूमिगत जल का
अंधाधुंध दोहन किया गया है. पीने के लिये भी और खेती के लिए भी. नतीजा यह हुआ कि
धरती में पानी का संतुलन बिगड़ गया. अर्थात पर्याप्त एवं सही समय पर पानी न बरसने
की आवृत्ति बढ़ गई. यूरोप, जो कि पर्यावरण
की दृष्टि से सबसे सुरक्षित माना जाता था, वहां भी भयंकर सूखा है. यदि धरती को
रहने योग्य बनाये रखना है,
तो धरती के अन्दर
पानी को पहुंचाने के निम्न प्राकृतिक तरीकों को विकसित करना होगा :
1. वनों/बागों का
समुचित अनुपात बनाना या बनाये रखना. जमीन के अंदर सर्वाधिक पानी सघन वनों से जाता
है.
2. चरागाहों का
निश्चित अनुपात बनाना या बनाये रखना. उदाहरण के लिए जहां गाय या भैंस गोबर करते
हैं, उसको दूसरे दिन उठा कर देखें तो पायेंगे कि सैकडों छेद हैं. इनसे तमाम जीव
माइक्रोब्स और अन्य भोजन लेने के लिये आते जाते हैं. इनमें से कुछ बहुत गहरे तक
होते हैं, इन्हीं के माध्यम से बरसात का जल धरती के अंदर चला जाता है.
3. पर्याप्त मात्रा
में कम्पोस्ट खाद डाल कर खेती करने से खेत में जल को सोखने एवं धारण करने की
क्षमता बढ़ जाती है.
4. तालाब से पहले एक दो साल तेज गति से पानी जमीन
के अन्दर जाता है, जो धीरे धीरे घटता जाता है. इसके लिए एक निश्चित अन्तराल में नीचे
की मिट्टी को खेतों में पहुंचाने से उत्पादन भी बढ़ता है और जल संभरण भी.
5. रैवाईन इलाकों
में छोटे छोटे नालों को बोरियों में बालू अथवा मिट्टी से जगह जगह रोका जाये, झील की तरह बनाया
जाये. किन्तु जल प्रवाह को रोका न जाये और न ही पक्के निर्माण किये जायें अन्यथा
गाद जमने से सिपेज बन्द हो जाता है. शहरों में छतों का पानी ऐसे रोका जाये कि सीधे
जमीन के अन्दर न जाये अन्यथा भूमिगत जल के भी संदूषण होने की सम्भावना बढेगी.
6. पानी के दुरुपयोग
को रोकने तथा अपरिहार्य स्थिति में ही भौम गत जल के उपयोग के संस्कार डालने चाहिये
एवं जल के उपयोग पर एक अचार संहिता भी होनी चाहिए.
श्री पुष्पेंद्र भाई बताते है कि प्रकृति के अनुसार फार्म
डिजाइनिंग करके हम देश और दुनिया की प्रमुख समस्याओं के समाधान पर्यावरण संतुलन, पानी के प्रबंधन, आजीविका सृजन, रोजगार के अवसर
उन्नयन, कार्बन प्रबंधन, खाद्यान्न
प्रबंधन, कुपोषण से मुक्ति, किसानो की समृद्धि
और सम्मान का मार्ग प्रशस्त करने में भागीदारी कर सकते हैं.
वैश्विक समस्याओं का स्थाई समाधान खेती :
एक नजरिया - देश और दुनियां में अब जो आवाजें सुनाई देने
लगी हैं, वह निकट भविष्य में आने वाले महासंकटों की हैं. वह संकट चाहे असंतुलित हो
रहे पर्यावरण का हो, पानी की उपलब्धता
व गुणवत्ता के साथ पानी के स्त्रोतों के प्रति उदासीनता का हो, मिट्टी में घटते
और वातावरण में बढते कार्बन का हो, आजीविका के अभाव और आजीविका के साधनो का हो या संकट किसानों
के सम्मान और किसानी के भविष्य का हो या कोरोना कोविड 19 का संकट. जिनके
हल खोजने की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कोशिशें की जा रही हैं. इन कोशिशों के चलते
कई बार लगता है कि अब इससे समाधान होगा. किंतु अभी तक तात्कालिक समाधान ही मिल
पाने की सूचनाएं प्रकाश में आई हैं. स्थाई समाधान का अभी भी होना अधर में है. इन
समस्याओं का स्थाई समाधान मौजूदा पीढी का अहम दायित्व भी है. जिसका निर्वहन किए
बिना जाने-अनजाने हम अपनी भावी संतानो के भविष्य के साथ नाइंसाफी ही कर रहे हैं. यह
एक विचारणीय यक्ष प्रश्न है. इन वैश्विक समस्याओं के अनुत्तरित समाधान की एकल राह
खेती हो सकती है. यह सुनने में बुंदेलखंडी कहावत कखरीलरका गांव गुहार को चरितार्थ
करती नजर आ रही है :
भूजल भूजल सब रटे, भूतल समझ न कोय,
जो भूतल साजे प्रकृति सो भूजल भूजल होय.
पर्यावरण, खाद्यान्न, जैविक खेती, जल संरक्षण आदि काम किसान से सम्बंधित है. यही कारण है कि
किसान प्रकृति के द्वारा दी गयी वस्तुओं का सबसे बड़ा हिस्सेदार व उपयोगकर्ता है. अतः किसान को इन
सबसे दूर रख कर ठेकेदारी प्रथा से ये काम करवाना प्रकृति व आमजन के लिए न्यायोचित
नहीं है. इसलिए देश के नीति निर्माताओं को चाहिए कि किसानी शब्द को परिभाषित करके
किसानों की स्थिति संविधान में स्पष्ट करे. ऐसा करने से पंचतत्व का संरक्षण आसानी से हो
सकेगा.
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Gunjan Mishra 24
16 जुलाई 2020 को भूगर्भ जल सप्ताह की शुरुआत माननीय केंद्रीय जल संसाधन मंत्री श्री गजेंद्र सिंह शेखावत व उत्तर प्रदेश के जल मंत्री श्री महेंद्र सिंह द्वारा की गयी. इस अवसर पर श्री शेखावत ने कहा कि जिस तरह श्री लछमन सिंह लापोड़िया ने लोगो को प्रेरत कर 56 गाँवो को जल समृद्ध बनाया, इसी तरह की पहल देश के हर गांव में होनी चाहिए. इसके लिए पानी की गति को कम करके उसको संरंक्षित करना होगा. उन्होंने इस जल सप्ताह के विषय जल है, तो कल है, पर बोलते हुए कहा कि हम प्रकृति के मालिक नहीं बल्कि उसके रखवाले है अतः जिस अवस्था में हमको पंचतत्व मिले, उसी अवस्था में आने वाली पीढ़ी को देकर जाए इसी में हमारी समझदारी है. उन्होंने इस बात की भी जानकारी दी कि मनरेगा का बजट बढ़ाया गया है और इसका 65% हिस्सा पानी के प्रबंधन पर खर्च होगा. क्योंकि हमारे देश में सिर्फ 4% जल 18% आबादी के लिए उपलब्ध है जो कि बहुत कम है. जल प्रबंधन पर भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय एक्वीफर प्रोग्रामिंग के अंतर्गत देश की 2.5 लाख पंचायतों का अध्ययन किया जाएगा एवं गांव में जल समिति के माध्यम से जल की समस्याओं को दूर किया जाएगा. भारत सरकार के द्वारा हर घर नल प्रोग्राम के तहत पानी पहुंचाया जाएगा जिसकी शुरुआत बुंदेलखंड के जिलों से की गयी है. इससे लोगों के स्वास्थय पर जो धनराशि खर्च होती है उसमे रु 50,000 प्रति घर से स्वच्छ जल मिलने के कारण बचत होगी. इस सप्ताह के उद्घाटन पर श्री महेंद्र सिंह द्वारा ने बताया कि इस योजना के अंतर्गत 19 करोड़ घरों को नल के द्वारा जल पहुंचाया जाएगा.
हालांकि भूगर्भ जल पर चेक डैम, तालाब, मेड बंदी आदि कार्यक्रम सरकार द्वारा चलाये गए, लेकिन नतीजा कुछ लाभदायक नहीं रहा.
भूगर्भ जल की दयनीय स्थिति पर प्रगतिशील किसान श्री प्रेम सिंह कहते हैं कि पिछले 3 दशकों से, पूरी दुनिया में, भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन किया गया है. पीने के लिये भी और खेती के लिए भी. नतीजा यह हुआ कि धरती में पानी का संतुलन बिगड़ गया. अर्थात पर्याप्त एवं सही समय पर पानी न बरसने की आवृत्ति बढ़ गई. यूरोप, जो कि पर्यावरण की दृष्टि से सबसे सुरक्षित माना जाता था, वहां भी भयंकर सूखा है. यदि धरती को रहने योग्य बनाये रखना है, तो धरती के अन्दर पानी को पहुंचाने के निम्न प्राकृतिक तरीकों को विकसित करना होगा :
1. वनों/बागों का समुचित अनुपात बनाना या बनाये रखना. जमीन के अंदर सर्वाधिक पानी सघन वनों से जाता है.
2. चरागाहों का निश्चित अनुपात बनाना या बनाये रखना. उदाहरण के लिए जहां गाय या भैंस गोबर करते हैं, उसको दूसरे दिन उठा कर देखें तो पायेंगे कि सैकडों छेद हैं. इनसे तमाम जीव माइक्रोब्स और अन्य भोजन लेने के लिये आते जाते हैं. इनमें से कुछ बहुत गहरे तक होते हैं, इन्हीं के माध्यम से बरसात का जल धरती के अंदर चला जाता है.
3. पर्याप्त मात्रा में कम्पोस्ट खाद डाल कर खेती करने से खेत में जल को सोखने एवं धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है.
4. तालाब से पहले एक दो साल तेज गति से पानी जमीन के अन्दर जाता है, जो धीरे धीरे घटता जाता है. इसके लिए एक निश्चित अन्तराल में नीचे की मिट्टी को खेतों में पहुंचाने से उत्पादन भी बढ़ता है और जल संभरण भी.
5. रैवाईन इलाकों में छोटे छोटे नालों को बोरियों में बालू अथवा मिट्टी से जगह जगह रोका जाये, झील की तरह बनाया जाये. किन्तु जल प्रवाह को रोका न जाये और न ही पक्के निर्माण किये जायें अन्यथा गाद जमने से सिपेज बन्द हो जाता है. शहरों में छतों का पानी ऐसे रोका जाये कि सीधे जमीन के अन्दर न जाये अन्यथा भूमिगत जल के भी संदूषण होने की सम्भावना बढेगी.
6. पानी के दुरुपयोग को रोकने तथा अपरिहार्य स्थिति में ही भौम गत जल के उपयोग के संस्कार डालने चाहिये एवं जल के उपयोग पर एक अचार संहिता भी होनी चाहिए.
श्री पुष्पेंद्र भाई बताते है कि प्रकृति के अनुसार फार्म डिजाइनिंग करके हम देश और दुनिया की प्रमुख समस्याओं के समाधान पर्यावरण संतुलन, पानी के प्रबंधन, आजीविका सृजन, रोजगार के अवसर उन्नयन, कार्बन प्रबंधन, खाद्यान्न प्रबंधन, कुपोषण से मुक्ति, किसानो की समृद्धि और सम्मान का मार्ग प्रशस्त करने में भागीदारी कर सकते हैं.
वैश्विक समस्याओं का स्थाई समाधान खेती :
एक नजरिया - देश और दुनियां में अब जो आवाजें सुनाई देने लगी हैं, वह निकट भविष्य में आने वाले महासंकटों की हैं. वह संकट चाहे असंतुलित हो रहे पर्यावरण का हो, पानी की उपलब्धता व गुणवत्ता के साथ पानी के स्त्रोतों के प्रति उदासीनता का हो, मिट्टी में घटते और वातावरण में बढते कार्बन का हो, आजीविका के अभाव और आजीविका के साधनो का हो या संकट किसानों के सम्मान और किसानी के भविष्य का हो या कोरोना कोविड 19 का संकट. जिनके हल खोजने की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कोशिशें की जा रही हैं. इन कोशिशों के चलते कई बार लगता है कि अब इससे समाधान होगा. किंतु अभी तक तात्कालिक समाधान ही मिल पाने की सूचनाएं प्रकाश में आई हैं. स्थाई समाधान का अभी भी होना अधर में है. इन समस्याओं का स्थाई समाधान मौजूदा पीढी का अहम दायित्व भी है. जिसका निर्वहन किए बिना जाने-अनजाने हम अपनी भावी संतानो के भविष्य के साथ नाइंसाफी ही कर रहे हैं. यह एक विचारणीय यक्ष प्रश्न है. इन वैश्विक समस्याओं के अनुत्तरित समाधान की एकल राह खेती हो सकती है. यह सुनने में बुंदेलखंडी कहावत कखरीलरका गांव गुहार को चरितार्थ करती नजर आ रही है :
पर्यावरण, खाद्यान्न, जैविक खेती, जल संरक्षण आदि काम किसान से सम्बंधित है. यही कारण है कि किसान प्रकृति के द्वारा दी गयी वस्तुओं का सबसे बड़ा हिस्सेदार व उपयोगकर्ता है. अतः किसान को इन सबसे दूर रख कर ठेकेदारी प्रथा से ये काम करवाना प्रकृति व आमजन के लिए न्यायोचित नहीं है. इसलिए देश के नीति निर्माताओं को चाहिए कि किसानी शब्द को परिभाषित करके किसानों की स्थिति संविधान में स्पष्ट करे. ऐसा करने से पंचतत्व का संरक्षण आसानी से हो सकेगा.