कोरोना वायरस को सौ साल में एक बार आने वाला वायरस कहा गया है, 1918 के स्पेनिश फ्लू ने पांच करोड़ जानें ली और इसके तेज़ी से फैलने का कारण यूरोप और इनकी एशियाई कॉलोनियों में सैनिकों का और मजदूरों का भारी संख्या में आना जाना था.
कोरोना वायरस के तेज़ी फैलने का भी मुख्य कारण भी वैश्विक व्यापारिक गतिविधियाँ ही हैं. वही वैश्विक व्यापार जो विश्व के औद्योगिक क्रांति से वंचित रहे या हाल फिलहाल ही स्वायत्त हुए देशो की एक बड़ी जनसंख्या को अब तक ग़रीबी से तेज़ी से उबार रहा था.
स्टीम इंजन और कोयले से
शुरू हुई औद्योगिक क्रान्ति से साम्राज्यवाद, साम्राज्यवाद से स्पेनिश फ्लू, उसके
बाद द ग्रेट डिप्रेशन यानि महा आर्थिक मंदी और इसके बाद के दो विश्व युद्धों ने पिछली
सदी की शुरुआत की.
कुछ इसी तरह की शुरुआत, तेल,
पेट्रोल चालित वैश्विक व्यापार से अमीर हुई पिछली अर्धसदी के अंत और एक लॉक डाउन
वाले, कांटेक्ट लेस युग की दिखाई देती है.
ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव
की वजह से दो साल पहले खबर आई थी की पिछली सर्दी के मच्छर नहीं मरे, और डेंगू सीजन
फरवरी में ही आ गया था,
ऐसे अनेकों नए नए वायरस और
जीवाणुओं के बारे में ग्लोबल वार्मिंग की डिबेट में चेतावनी दी जाती है.
इंसान और चमगादड़ आज पहली
बार चीन में आमने सामने तो नहीं आये,
विश्व के एक तिहाई काली
मिर्च की खेती चमगादड़ की बीट से बनी खाद पर आधारित है, राजस्थान की मशहूर मथानिया
मिर्च की खेती में चमगादड़ की बीट खाद का इस्तेमाल किया जाता है.
वायरस कहाँ से आया, अगर
वहां से नहीं आता तो क्या कहीं और से नहीं आ सकता. एक सदी बाद आज स्पेनिश फ्लू के
बारे में भी ये कहा नहीं जा सकता.
चीन की वेट मार्किट, यानि
खुले बूचड़ खाने, जो की दुनिया के हर देश में हैं. दिल्ली में हम इन्हें मुर्गा
मंडी कहते हैं, हमारी नदियों में प्रदूषण का एक बड़ा कारण स्लॉटर हाउस हैं और भारत
खुद दुनिया में मीट का दूसरा सबसे बड़ा सप्लायर है.
क्या ये वहां से आया, या
चीनी लैब से?
क्या लैब में वो इस वायरस
को बना रहे थे, या इस तरह के वायरस को इकठ्ठा कर उन पर शोध, ये शायद कभी पता ना
चले.
आज भी फ्लू का टीका कोई
रामबाण नहीं है बस आपको 40-60% ही प्रतिरोध करने की क्षमता देता है.
आज भी WHO के मुताबिक 3-6.5 लाख सालाना मौतें फ्लू और उससे जुडी रेस्पिरेटरी बीमारीयों
की वजह से है, डाटा में विसंगतियां हो सकती हैं.
रिपोर्ट करने वाले देश और
राज्य किस तरह रिपोर्ट करें इस पर सब कुछ निर्भर रहता है, मगर समाज का व्यवहार,
मेडिकल अर्थशास्त्र और राजनीति और विकसित देशों का कोरोना के प्रति शुरुआती व्यवहार
इन्ही डाटा पॉइंट के आधार पर रहा है.
अमेरिका तो यही कहता रहा कि
आज भी कोरोना के आंकड़े उनके सालाना संक्रमण और मौतों के आंकड़ों से कम ही हैं, तो
इस तरह का लॉक डाउन क्यों?
स्पेनिश फ्लू के सौ साल बाद
शीत युद्ध और दुनिया भर का नक्शा बदलने के बाद भी मुक्त व्यापार और कनेक्टेड समाज
में समझ का आदान प्रदान ही सामान प्रगति के स्तम्भ माने जा रहे हैं.
इसी खुली अर्थव्यवस्था की
सोच के कारण ही अकेले इंदिरा गाँधी एयरपोर्ट ने ही 2018 में 6.5 करोड़ लोगों को देश
में आते और जाते देखा.
तो इस बार क्या नया है, जिसकी
वजह से सरकारों ने सब एक झटके में बंद कर सबको घरों में बंद कर दिया है.
क्यों आज रोज़ी रोटी के साधन
एकदम से खत्म होने पर मजदूर सड़क पर चला जा रहा है, हर बॉर्डर पर पिट रहा है.
क्या लॉक डाउन से रोज़ी रोटी
गवां चुके लोग लगतार बढ़ते संक्रमण का खर्चा उठा पाएँगे, जो कि शुरुआती इंश्योरेंस
के आंकड़ो के मुताबिक 2-3 लाख और कई बार इससे भी ज्यादा आ सकता है.
सरकार, प्रचार, टीवी
मीडिया, ट्विटर, फेसबुक, टिक टोक कब तक लोगों घर में रख पाएगा, और जब भूख लगेगी तो
क्या एक रेला बाहर निकलेगा, और उनके साथ हिटलर जैसे नेता,
और क्या ये युग भी वैश्विक
मंदी और उसके बाद के युद्ध को झेल कर ही आगे बढेगा?
स्पेनिश फ्लू के समय भी लॉक
डाउन हुआ था और उसके बाद पश्चिमी सभ्यता ने अपने आप को लाईजोल में पूरी तरह डूबा
लिया, साबुन, हैण्ड सेनेटाईजर, एंटी बायोटिक, सालाना टीकों ने मेडिकल बिल
lको आसमान तक बढाया और इस लाइफ स्टाइल को सपोर्ट करने का अर्थशास्त्र वैश्विक
सप्लायर चीन के मध्य से ही निकला.
वह चीन और वही गूगल, वालमार्ट, अमेज़न पर टिका व्यापार जिसने विश्व को ग्लोबल वार्मिंग और नए नए तरह के वायरस फ़ैलाने के अवसर भी दिए.
आज विश्व पिछली सदी के
मुकाबले काफी बड़ी जनसँख्या और अर्थव्यवस्था को ले कर खड़ा सोच रहा है, अब करें तो
क्या करें.
क्या जान और जहान के साथ सम्मान भी बच पाएगा? वो सम्मान जो मुक्त व्यापार, मुक्त आवागमन और प्राइवेट एंटरप्राइज से ही संभव हो पाया.
क्या हम सूर्य
देव और चन्द्र देव के वंशजों का वो समय देख रहे हैं,....जब कर्ण और
एकलव्यों का सम्मान उतना ही होता था जितना राजा ने दान में दे दिया. वहां से यहाँ तक आने में ना जाने कितने अवतार, प्रोफेट, गांधी और
लिंकन लग गए.
क्या आज की
सरकारें जो डिजिटल होने का मतलब ट्विटर, फेसबुक और अब टिक टोक वाला पी.आर का बड़ा
बजट मानती हैं, अपनी इस डिजिटल सोच से कैसे सोशल डिस्टेंस वाले युग को संभाल पाएंगी.
ये वायरस तो पिछले वाले से
काफी ज्यादा मज़बूत जान पड़ता है और सबको हमेशा लॉक डाउन में रखना तो हो नहीं पाएगा.
मास सर्विलांस और और ब्रूट बल का प्रयोग लम्बे समय तक कारगर नहीं है.
तो सवाल ये उठता है कि ...लॉकडाउन के बाद क्या.