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हम भी देखेंगे, फैज़ अहमद फैज़ की नज़्म पर क्या है विवाद

Rakesh Prasad

Rakesh Prasad Opinions & Updates

ByRakesh Prasad Rakesh Prasad   {{descmodel.currdesc.readstats }}

Originally Posted by {{descmodel.currdesc.parent.user.name || descmodel.currdesc.parent.user.first_name + ' ' + descmodel.currdesc.parent.user.last_name}} {{ descmodel.currdesc.parent.user.totalreps | number}}   {{ descmodel.currdesc.parent.last_modified|date:'dd/MM/yyyy h:mma' }}

अगर साफ़ नज़र से देखे तो कोई विवाद नहीं है, गांधी जी के दिए तलिस्मान में दिया है – ईश्वर अल्लाह तेरो न

अगर साफ़ नज़र से देखे तो कोई विवाद नहीं है, गांधी जी के दिए तलिस्मान में दिया है – 

ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान.

मगर यहाँ इलज़ाम लगाया जा रहा है पोलिटिकल डॉग विस्सल का, यानि राजनितिक कोडेड भाषा का जिसका इस्तेमाल नेता अलग अलग तरह के समूहों को अलग अलग तरह के मेसेज पहुँचाने के लिए करते हैं.

जैसे अमेरिकी दक्षिणी राज्यों टेक्सास, विर्जिनिया इत्यादि में नस्लवाद के दौरान जब कोई राजनीतिज्ञ बोलता था – कानूनी व्यवस्था मज़बूत की जाए, तो आम तौर पर इसे अश्वेत बस्तियों में एक डॉग व्हिस्त्ल की तरह देखा जाता था, मगर बाकि दुनिया में एक आम व्यक्तव्य की तरह.

इस नज़्म पर दो तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आयी हैं, जो इसकी कुछ पंक्तियों को सवालों के घेरे में या बरी करती हैं.

हम देखेंगे

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

वो दिन कि जिसका वादा है

जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है

जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां

रुई की तरह उड़ जाएँगे

हम महकूमों के पाँव तले

ये धरती धड़-धड़ धड़केगी

और अहल-ए-हकम के सर ऊपर

जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी

जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से

सब बुत उठवाए जाएँगे

हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम

मसनद पे बिठाए जाएँगे

सब ताज उछाले जाएँगे

सब तख़्त गिराए जाएँगे

बस नाम रहेगा अल्लाह का

जो ग़ायब भी है हाज़िर भी

जो मंज़र भी है नाज़िर भी

उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

उदारवादी विचारधारा – यानि मध्यमपंथी, मॉडर्निस्ट, आमजन.

एक बड़े शायर की नज़्म, एक भ्रष्ट सरकार के प्रति विद्रोह के स्वर. इतिहास में जो सन्दर्भ था उसके उदहारण, यानि जिस समय की नज़्म थी उस समय आम जनता को समझाने के लिए कुछ शब्दों का प्रयोग किया गया था, इस्लाम में चिन्हों को, इस्लाम का ही इस्तेमाल कर के जनता पर कहर बरपाने वालों का विरोध किया गया. इन पंक्तियों को  वैसे के वैसे लेना गलत है. 

इसको इसके उस समय के सन्दर्भ के मुताबिक लेना चाहिए, और शायर की अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जो की हम सब की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुडी है से जोड़ कर ही देखना चाहिए.

तो मतलब लिया गया.

लौह एक अज़ल –

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यानी सत्य, सत्य की जीत, सत्यमेव जयते, अकाट्य सत्य.

जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से

सब बुत उठवाए जाएँगे

हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम

मसनद पे बिठाए जाएँगे

यानि – जब यह ज़मीन जिसको खुदा या भगवान ने सबके लिए बनाया है, और जहाँ पर कुछ लोग अपने आप को ही खुदा मान कर बैठ गए हैं, उन कुछ लोगों ने जिन्होंने बाकि लोगों वंचित कर दिया है, यानि अमीर, धन्नासेठ, अधिपति, जिनके महल, जिनकी सल्तनत में हर चीज़ पर उनका ही राज है और बाकि सब उससे वंचित. उनको हटा कर जनता का यानि डेमोक्रेसी, जनतंत्र का ही राज होगा.

बस नाम रहेगा अल्लाह का – इसे भी लिटरली लेना गलत है, ये नज़्म जिया उल हक ने प्रतिबंधित कर दी थी, तो क्या वो अल्लाह के खिलाफ़ था? इसका मतलब उस भगवान, या अल्लाह यानि गाँधी के तलिस्मान –

रघुपति राघव राजाराम,

पतित पावन सीताराम

सीताराम सीताराम,

भज प्यारे तू सीताराम

ईश्वर अल्लाह तेरो नाम,

सब को सन्मति दे भगवान

राम रहीम करीम समान

हम सब है उनकी संतान

सब मिला मांगे यह वरदान

हमारा रहे मानव का ज्ञान

से है. आप इसे राम राज्य कह लें, या उस खुदा की सल्तनत, मतलब समानता से है, जनता के राज से है, जिसमे कोई राजा है न रंक है, सब जैसे उस भगवान या खुदा के सामने एक सामान हैं, वैसे ही रहें, वंचित एवं सर्वहारा वर्ग भी गद्दी पर यानी सम्मान के अधिकारी हों.

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राईट विंग – यानी परंपरावादी, ट्रेडिशनलिस्ट. 

ये लोग इसे एक डॉग व्हिस्त्ल की तरह ले रहे हैं. पूरे विश्व में चाहे वो ईरान बनाम अरब एमिराती हों, या सरिया बनाम तुर्की, अफ़गानिस्तान या पाकिस्तान में फैला खून खराबा. 

धर्म और उसके सांस्कृतिक अवधारण, जन आचरण से जुडी राजनीती पर बड़े ही लम्बे युद्ध चल रहे हैं. तो क्या एक पक्ष की कविता अगर हम गायें जो दुसरे पक्ष का भले ही विरोध करती हो तो भी क्या जो दोनों पक्षों की मूल अवधारणा है उससे उसका मतलब इतर हो सकता है.

ये लोग इस नज़्म की उत्पत्ति के मूल और भाषा पर सवाल करते हैं, उससे किस तरह के लोगों को डॉग व्हिस्क्ल जाती है उसपर चिंता व्यक्त करते हैं.

लौह एक अज़ल –

यानि –कमांडमेंट जो की संगठित धर्म का मूल है, जिन्हें सीधे खुदा या भगवान के ही शब्द कहा जाता है, यानी अकाट्य. 

जैसे माउंट सिनाई से मोसेज़ या मूसा को जब उस परमपिता ने 10 आदेश दिए थे, और एक वादा किया था की मैं आऊंगा और अपना शासन संभालूँगा और इन आदेशों को जो भी मानेगा वही मेरा प्रिय होगा, सज्जन होगा जो मेरे शासन में रहेगा.

उन आदेशों को मूसा पत्थर की चट्टानों से बनी स्लेट पर लिख कर नीचे उतारे थे, जो की उनके बाद आये संतों, पैगम्बरों द्वारा उस समय मेसोपोटामिया में उभरे संगठित धर्मो का मूल बना.

I am the LORD thy God

मैं ही इश्वर हूँ, और एक ही ईश्वर हूँ, जिसका कोई आकार, आदि, अंत नहीं है.

No other gods before me

मेरे पहले कोई इश्वर नहीं था. मैं ही आदि हूँ, मैं ही अनंत हूँ.

No graven images or likenesses

मेरी कोई भी प्रतिमा, या उकेरा गया चिन्ह नहीं है या होगा.

Not take the LORD's name in vain

मेरा नाम आप हलके में नहीं ले सकते, या आम दिनचर्या में. पूरी तन्मयता के साथ आप सिर्फ़ सही मनोयोग के साथ ही मेरा नाम लें.

Remember the sabbath day

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मुबारक दिन या जो मुझे याद करने का दिन है उसे हमेशा याद रखें.

Honour thy father and thy mother

अपने माता पिता का आदर करें, उनके वचनों का पालन करें.

Thou shalt not kill

किसी की हत्या ना करें.

Thou shalt not commit adultery

व्यभिचार ना करें.

Thou shalt not steal

चोरी ना करें.

Thou shalt not bear false witness

किसी की झूठी गवाही ना दें, यानी हमेशा सत्य का ही साथ दें.

Thou shalt not covet

लालच ना करें.

ऐसी कमांडमेंट और वादे गीता में भी हैं, जब कृष्ण आदि अनंत स्वरुप की व्याख्या करते हैं, धर्म और अधर्म को कर्म और ज्ञान से नापते हैं, और एक ओंकार ईश्वर के साम्राज्य की बात कहते हैं, कलयुग में मानव आचरण को परिभाषित करते हैं और कालकी अवतार का ज़िक्र करते हैं, जिसके बाद इश्वर का युग यानि सत युग फिर से शुरू होगा, जिसमे धर्म आचरण वाले सज्जन ही रहेंगे.

परम्परावादी गुट का मानना यह है की कट्टरपंथी या जो लोग धार्मिक आतकवाद फैलाते हैं, बिना ये समझे हुए की इश्वर एक ही है, और भाषा का भेद मिटा दें, तो हर जगह उसने एक ही तरह की बात की है.

इन शब्दों का संकीर्ण मतलब निकाल लेंगे, और इन पंक्तियों का गलत इस्तेमाल करेंगे.

जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से

सब बुत उठवाए जाएँगे

हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम

मसनद पे बिठाए जाएँगे

इस तरह के संकीर्ण मतलब से ये पंक्तियाँ उस तालिबानी व्यवहार को बढ़ावा देती है जिसकी वजह से तालिबान ने बामियान में मूर्तियों को ध्वस्त किया था, आईसिल ने इन्ही कमांडमेंट, का संकीर्ण मतलब निकाल हर तरह के चिन्हों और थोड़े भी अलग तरीक़े से स्वधर्मी नमाज़ अता करने वालों को निर्ममता के साथ नरसंहार किया था, और हर तरह के संतों की मजारों को चिन्ह या मूर्ति मान के तोडा गया.

जिहाद जो की एक पवित्र तार्किक शब्द है उसका चरमपंथी या सीधे शाब्दिक ऐतिहासिक अर्थ लिया गया. - जब काबा के पुराने अरब अधिपतियों से युद्ध के बाद जब 650 CE में उनकी 350 मूर्तियों, चिन्हों इत्यादि को हटा कर उमराह और हज की स्थापना की गयी थी. और खुद पैगम्बर जिनको एक समय इन्ही अधिपतियों ने इज्जत नहीं बक्शी और काबा जो की एक पवित्र स्थल था, छोड़ जाने को कहा, उनकी सत्ता काबिज़ हुई.

जैसे की जावेद अक्तर जी ने ठीक ही कहा है, जाहिल और मूर्ख जिनको शायरी और उर्दू की समझ नहीं है वही इस नज़्म से संकीर्ण मतलब निकालेंगे. 

ट्रेडिशनलिस्ट गुट यही बोलता है की, यही जाहिल तालिबानी, या इसी तरह का चरम पंथ जो आज विश्व में कहर बरपा रहा है क्या इस नज़्म की इन पंक्तियों का इस्तेमाल भारत में भी इसी तरह का चरम पंथ फ़ैलाने में तो नहीं कर पाएगा, क्योंकि भारत भूमि में भी हर जीवन पद्धति में जाहिलों की कमी नहीं है. और एक खुला मंच होने की वजह से कई तरह के तत्व सक्रिय हो राजनीतिक लाभ उठाना चाहेंगे.

इस मसले पर वही शाब्दिक बनाम तार्किक मतलब का विवाद है, जिसे इस नज़्म को गुनगुनाने से पहले समझना ज़रूरी है.

शांति बनाये रखें, और इस नज़्म के तार्किक मतलब का वही स्वरुप अपनाएं जिससे किसी के प्रति दुर्भावना ना आये.

सबको सन्मति दे भगवान, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम...

Article Source: Personal blog by Rakesh Prasad.

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