बारिश के मौसम में देश के तमाम शहरों के सड़कों में पानी का भराव हम वर्षों से देख रहे है. इससे हमें यह भी पता चलता है कि हम इस महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन के सदुपयोग की अनदेखी कर रहे है. यह एक विडम्बना ही है कि एक ओर तो अनेक शहरों में तेजी से घटते भू गर्भीय जल स्तर पर चिल्ल-पों हो रही है वही दूसरी ओर हम बारिश से प्राप्त होने वाली विशाल जल राशि को नालियों और मोरियों में व्यर्थ बहाकर नष्ट होने दे रहे है. इतना ही नहीं, इस बारिश के पानी के अतिरिक्त बोझ के होने के कारण हमारे शहरों में मौजूदा मल जल निकास तंत्र के संचालन में भी परेशानी होती है.
सभी शहरों में सदियों से बारिश के पानी के निकास के लिए विशेष नालों का निर्माण करने की परंपरा रही है अथवा प्राकृतिक निर्गम मार्ग से बारिश के पानी को बस्ती के पास के किसी जलाशय, तालाब, नदी, इत्यादि में जोड़ देने की व्यवस्था होती रही है. जल सदैव सबसे निचले तल पर जाने की तलाश में रहता है, यह जल का प्राकृतिक गुणधर्म है. किसी भी स्थानीय भौगोलिक स्थलाकृति में भी जो सबसे निचला तल मिलता है, जल का जमाव-भराव भी अंततः वहीँ हो जाता है. कुछ दशकों पहले भी बावली (भाषांतर से कहीं इसे बावड़ी या वापी भी कहा जाता है) का निर्माण भी शहर अथवा गाँव-कसबे के ऐसे ही निचले तल पर बनाये जाने की प्रथा देखी जा सकती है. उस बावली में बारिश के बहते पानी को भूगर्भीय जल स्त्रोतों से जोड़ कर उसे उपयोगी बनाने का रिवाज हमारी संस्कृति में सदियों से रहा है.
इतनी सुदृढ़ और दूरगामी हित की विज्ञानं सम्मत परंपरा को लुप्त करने का दोष आधुनिक युग के निर्दयी और स्वार्थी समाज के माथे ही लगेगा. शहरों के अनियंत्रित और बदहवास नियोजन के कारण पारंपरिक प्रथाओं की घोर अनदेखी हुई है.आधुनिक शहरों में जलाशय और तालाब लुप्तप्राय हो गए है. सन १९६० के आरम्भ में बंगलुरु नगर में २६२ झील थे और आज उनमे से मात्र १० झील ही पानी से भरे हुए मिलते है. सन २००१ में गुजरात स्थित अहमदाबाद के कलेक्टर को माननीय उच्च न्यायालय ने किसी सन्दर्भ में आदेश दिया कि अहमदाबाद के सभी जल निकायों (तालाबों,झीलों, जलाशयों आदि) की सूची सौंपी जाए. इस जांच क्रम में कलेक्टर ने पाया कि दस्तावेजों के अनुसार मौजूद १३७ जल निकायों में से ६५ पर तो मानवी अतिक्रमण हो गया था.
बढ़ते शहरीकरण के कारण पारगम्य भूमि का भी तेजी से अभेद्य सतह में परिवर्तन होता जा रहा है. इस समस्या का एक अन्य कारण ये भी देखा गया है कि बारिश के पानी के निकास के लिए बनी नालियों/नालो में उचित ढलान नहीं रहने के कारण सतही जल उसमे नहीं गिरता है और प्रवाह अपने अभीष्ट गंतव्य तक नहीं पहुच पाता है.
आज से १५० वर्ष पूर्व, सन १८६० में ही बंगलुरु शहर में वृष्टि जल संचयन की जटिल प्रणाली विकसित कर ली गई थी. सन १८६६ में बंगलूरू के तत्कालीन कमिश्नर लेविंग बेन्थम बोवरिंग ने योजना बना कर शहर के नालों को शहर के बाहर स्थित झीलों से जोड़ने का विशद कार्य सुनिश्चित किया जिससे वे वर्ष भर उपयोगी बने रहे. आधुनिकता की अंधी दौड़ में बंगलुरु ने विगत २-३ दशकों में शहर के इस अति महत्वपूर्ण सुरक्षा तंत्र को नज़रंदाज़ कर दिया. आज परिणाम यह सामने आया कि शहर में लोग पानी की घोर किल्लत से परेशान है. चेन्नई में मंदिरों के परिसर में बावली (स्थानीय भाषा में इन्हें कुलम कहा जाता है) बनाने की सदियों पुरानी प्रथा प्रचलित है. इस शहर में वर्षा जल संचयन भी इन्ही कुलम में किया जाता रहा है. यहाँ ०.४ से २.८ हेक्टेयर क्षेत्रफल के ३९ कुलम विद्यमान है. जल के उपयोग के साथ ये कुलम बाढ़ से बचाव भी करते है.
विगत कुछ वर्षों के दौरान चेन्नई में अनेकों नालों का परंपरागत मार्ग, जो इन कुलमों से उन्हें जोड़ता था, का परिवर्तन इसलिए किया गया क्योंकि अनियोजित विकास की दौड़ में (या स्वार्थवश!) शहर के प्राकृतिक जल ग्रहण क्षेत्र में लोगों को बसने की इजाज़त दे दी गई. इन नइ रिहाहिशी बस्तियों के कारण वर्षा जल संचयन के लिए परमावश्यक इन नालों को, कुलमों में जल संग्रहण होने की जगह, सीधे समुद्र से जोड़ दिया गया. राजस्थान की मरुभूमि में बने भव्य किलों और महलों में भी वर्षा जल संचयन के लिए इन नालों का उपयोग का पुराना इतिहास रहा है. जयपुर स्थित जयगढ़ किला इस विधा का एक श्रेष्ठ उदहारण है. इस किले के अन्दर तीन विशालकाय हौदी या निगर्त बने है जो अरावली पर्वत की सतह से बहने वाले बारिश के पानी को सुयोजित रूप रेखा से बने नालों के माध्यम से वहां संगृहीत करते है. यह किला आज भी इसमें संगृहीत जल का उपयोग ग्रीष्मकाल में उत्पन्न जल की किल्लत में यदा कदा करता है.
शहरों में बारिश में उत्पन्न जल भराव की स्थिति का निश्चित निदान है बशर्ते हम शहर में वर्षा जल निकास की उचित व्यवस्था करने में अपना समुचित ध्यान केन्द्रित करने को तैयार हो.
शहरों में वर्षा जल प्रबंधन के दो प्रमुख पहलु है – गुणात्मक और परिमाणात्मक. हमारे नगर निगमों में कार्यरत विद्वान अभियंतागण मात्रात्मक पक्ष पर अपना ध्यान केन्द्रित करते है व उसका सतत पर्यवेक्षण करते रहते है.
तथापि यहाँ हम कुछ मुख्य मुद्दों को पुनरुक्त करना आवश्यक समझते है.
- सतही निविड़ता अथवा अप्रवेश्यता को ५० प्रतिशत से कम रखना अनिवार्य है और बारिश के पानी का सतही अपवाह भी नियंत्रित होना अपेक्षित है.
- नगरवासियों को अपने मकानों पर हरियाली बढाने के लिए प्रेरित करें.
- भारत में अनेक शहरों में प्रत्येक भूखंड इकाई में बारिश के पानी के संग्रहण को अनिवार्य किया है. इस की गुणवत्ता और उचित रख रखाव भी अत्यंत महत्वपूर्ण है. नगर निकायों को इसके प्रभावी जांच हेतु फौरी तौर पर एक सुस्पष्ट कार्यप्रणाली व जांच सूची विकसित करनी होगी. भवन निर्माण के नियम-कायदों को वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप और सख्त बनाने होगे.
- सड़कों के किनारे फूटपाथों को पारगम्य बनाने, मार्गों में हरियाली घास उगाने आदि कार्यों में स्थानीय निवासियों को सहयोगी और सहभागी बनाना चाहिए.
- गहन आबादी वाले क्षेत्रों के नाले जिन जलाशयों में जाकर मिलते हो उन जल निकायों में जमी हुई मिटटी, गाद, आदि नहीं होनी चाहिए. इससे उन निकायों की अनुमानित जल संग्रहण क्षमता में कमी हो जाती है.
(इस सन्दर्भ में ये उदहारण समीचीन होगा. गुडगाँव शहर के वर्षा जल निकास के नालों को नजफगढ़ नाले से जुडाव अभी तक नहीं हो पाया है और वर्तमान में उसे विकल्प में बादशाहपुर झील ही एकमात्र निकाय उपलब्ध है. बादशाहपुर झील में इतनी अधिक मात्रा में जल संग्रहण की क्षमता नहीं है (झील में जमी हुई गाद के कारण?) जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक वर्ष भारी बारिश के बाद पुराने गुडगाँव व् पालम विहार इलाके में जल भराव की समस्या देखने को मिलती है. गुडगाँव के शहरी क्षेत्र के नालों को नजफगढ़ के नाले से जोड़ने के लिए १४० करोड़ रुपयों की लागत वाली परियोजना सरकार द्वारा २०१४ में ही स्वीकृत हुई है. बादशाहपुर झील को NH-8 से बक्सानुमा नाले से जोड़ने के लिए ४६ किलोमीटर लम्बी एक परियोजना हरियाणा सरकार द्वारा सन २०१३ में स्वीकृत हुई है, पर इसकी प्रभावकारिता पर विशेषज्ञों में मतैक्य नहीं है.)
- बारिश के जल निकास के लिए लम्बी दूरी के नाले बनने से बेहतर विकल्प ये माना गया है स्थानीय स्तर पर छोटे जल संग्रहण निकायों (तालाब, झील आदि) को बनाया जाये. हालाँकि इन जल निकायों की विशेष रख रखाव जरूरी है अन्यथा इनमे कालांतर में मिटटी,गाद जमा होने से संग्रहण क्षमता में ह्रास हो जाता है.
अब हम इस विषय के दुसरे पहलु यानी गुणात्मक पक्ष की भी संक्षिप्त चर्चा करते है.
भारी बारिश के बाद तेज बहाव में बहते हुए जल (झंझ-नीर) से विभिन्न जल निकायों में अनेक प्रदूषित तत्व प्रवेश पा जाते है. नगर निर्माण के विभिन्न आयामों जैसे भवनों, सडकों, पार्किंग अड्डा आदिके फलस्वरूप सतही पक्कीकरण और अन्यान्य मानवीय निर्माण गतिविधियों से भी मिटटी के ठोस संघनन के कारण से भूमि के अप्रवेश्य क्षेत्रफल का परिमाण बढ़ता जा रहा है. इसके परिणामस्वरूप झंझनीर के सतही अपवाह में मैल, गाद, जैसे गन्दगी के अलावा कई जहरीले रासायनिक तत्व भी शामिल हो जाते है. विशेष रूप से मोटर वाहनों के रिसाव से निकले तेल, कृषि हेतु रासायनिक खाद व कीटनाशक, वायुमंडलीय निक्षेप, विभिन्न मशीनी कचरों के अतिरंजित मिश्रण से अनेक अवांछित घटक इस अपवाह को विषैला बनाते है. झंझ नीर का अत्यधिक अपवाह इसे बाहर निकालने के लिए बने पाइपों और नालों पर भी अतिरिक्त बोझ बनकर उनके सुचारू संचालन में भी बाधक ही होता है. प्रभावी झंझ नीर प्रबंधन के लिए ऐसा माना गया कि जल अपवाह से ८० प्रतिशत ठोस तत्वों को अनिवार्यतः हटाने की निश्चित व्यवस्था होनी चाहिए और इस लक्ष्य को विभिन्न निगरानी तंत्रों से अनवरत कसौटी पर कसना चाहिए.
निम्नलिखित प्रचलित तकनीकों को अपनाकर अपवाह से ठोस तत्वों को हटाने का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है.

• रिसाव घाटी
• रिसाव खाई
• वनस्पति जनित रिसाव करने में सक्षम भूखंड पट्टियां
• वनस्पति-घास के सघन भूखंड
• झरझरे फूटपाथ का निर्माण
• जालीदार फूटपाथ का निर्माण
• कंकड़ी/बजरी युक्त घाटिया जिसमे से निथराई हो सके
• तेल/कंकरी विभाजक
• ऐसे विशेषीकृत सूखे तालाब/पोखर जिनमे अतिरिक्त अपवाह दीर्घ अवधि तक ठहर सके
• विशेषीकृत गीले तालाब
उपरोक्त तकनीकों से अपवाह के ६०-९० प्रतिशत तक ठोस प्रदुषक तत्वों को हटाने में कामयाबी मिलती देखी गई है एवं इन्हें झंझ नीर के श्रेष्ठतम प्रबंधन साधन के रूप में मान्यता मिली है.