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फ़ूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री - अमेरिकी अनुभव एवं भारत की खाद्य संस्कृति पर प्रभाव

  • फ़ूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री - अमेरिकी अनुभव एवं भारत की खाद्य संस्कृति पर प्रभाव
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सार - संक्षेप - 

आवश्यकता अविष्कार की जननी है. इस व्याख्या के आधार पर यह माना जाना उचित होगा कि अधिकांश आविष्कारों या नव प्रवर्तन का उद्देश्य लोकहित ही होता है. यह भी देखा गया है कि कभी कभी किन्ही विशिष्ट समस्याओं के समाधान हेतु ऐसे प्रयोग भी बहुप्रचलित हो जाते है जिनके दूरगामी परिणामों के बारे में तत्कालीन समाज बहुधा अनिभिज्ञ रहता है  और आने वाली पीढ़ियों को उसका भुगतान करना पड़ता है.

 

कोई भी आविष्कार या नया प्रयोग जन साधारण के लिए अच्छा सिद्ध होता है अथवा अहितकारी या इस दोनों के कहीं बीच, इसका समुचित निर्धारण तो सदैव भविष्य में किया जाता रहा है. इसके आंकलन में इस बात का भी संज्ञान लेना ज़रूरी है कि आविष्कार के मूल उद्देश्य में किस प्रकार के आर्थिक उद्देश्य थे ? सामाजिक प्रतिक्रिया कैसी थी? उस नूतन प्रयोग के दूरगामी परिणाम क्या निकले ? समाज में कैसे परिवर्तन देखे गए और वर्तमान या आने वाली पीढ़ियों के जीवन में इसका क्या असर होगा?

 

कोई भी नूतन तकनीक या नयी पद्धति स्वयं में बुरी नहीं होती और उससे उचित आर्थिक लाभ अर्जित करना भी स्वस्थ परंपरा है. समस्या तब उत्पन्न होती है जब नव प्रवर्तन संकीर्ण स्वार्थो से प्रेरित होकर अनैतिक लाभ के लिए स्थापित मूल्यों, परम्पराओं और आदर्शों को ताक पर रख कर किया जाए. इस क्रम में जन साधारण के स्वास्थ्य और पर्यावरण के हितों की घोर उपेक्षा करना भी अनैतिक कृत्य माना जाता है और समाज को स्वीकार्य नहीं होता है.

 

हम ऐसे ही चंद प्रचलित नव प्रवर्तनों व तकनीकों की समीक्षा करेंगे और इनके उद्भव, विकास यात्रा एवं समाज पर इनके दुष्प्रभावी परिणामों को सामने लाने का प्रयास करेंगे. अगर इन प्रयोगों में कोई सुधार या बेहतरी  की गुंजाईश हो तो उसका विचार भी यहाँ विमर्श में लिया जाएगा. इस आलेख में हम खाद्य प्रसंस्करण उद्योग से उत्पन्न सामाजिक दुष्प्रभावों व विसंगतियों  पर अपना शोध विचार प्रस्तुत कर रहे है. संयुक्त राष्ट्र अमेरिका जैसे विकसित देश में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में विगत दशकों में हुए विकास और उसके कारण वर्तमान में सामने आ रहे दुष्परिणामों को हम भारत जैसे विकासशीत देशों में, जहाँ वर्त्तमान में इस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए जोर शोर से प्रचार किया जा रहा है, इसकी उपयोगिता और खामियों से पाठकों को अवगत कराने का प्रयास किया जाएगा.  

 

दोनों देशों में सामुदायिक स्वास्थ्य, सामाजिक संस्कृति एवं पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव पर हम यहाँ विस्तृत चर्चा करेंगे और इस परिपेक्ष्य में वर्त्तमान में हो रहे सुधारों व भविष्य में होने वाले अपेक्षित बदलावों के विषय में भी चिंतन प्रस्तुत करने का प्रयास होगा. हमारे अनुसार भारत में अगर नीति और नियम निर्धारण करने वाले वर्ग के द्वारा औद्योगिक खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में उद्योगपतियों को बेलगाम धन कमाने की छूट दिए जाने की अनुमति प्रदान करने की प्रवृति से यहाँ के खान-पान की विविधताओं की परंपरा, जनसँख्या घनत्व, संकुचित होते प्राकृतिक संसाधनों, निवारक सामुदायिक स्वास्थ सेवाओं की लचर स्थिति और सुगम जीवन शैली में भयावह परिवर्तन देखने मिलेंगे.  

 प्रस्तावना

 प्राचीन काल से ही मानव समुदाय ने खाद्य पदार्थों को लम्बे समय तक सुरक्षित संचय करने के लिए विभिन्न तरीके जैसे धुप में सुखाकर, नमक के साथ मिलाकर, आग में भुन कर, भाप में पकाकर इत्यादि विधियों का उपयोग जान लिया था. तथापि इनका उपयोग नाविकों व सैनिकों  द्वारा और जन सामान्य द्वारा प्रतिकूल मौसम या आपद परिस्थितियों में भी किया जाता था. रसायनों के उपयोग से ताजे खाद्य पदार्थों को लम्बी अवधि तक संरक्षित करने की आवश्यकता का मूल कारक युद्ध में गए सैनिकों को रसद मुहैय्या कराने के लिए ही था. विशेषकर दुसरे विश्व युद्ध के दौरान खाद्य प्रसंस्करण उद्योग की विशाल औद्योगिक संरचनाओं का व्यापक विस्तार देखा गया (रोबर्ट्स, २००८) जो कि विकसित देशों में हथियार व अन्य युद्ध सामग्रियों के निर्माण के कल – कारखानों से कमतर नहीं था.

दुसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात, पश्चिमी देशों में विशेष कर संयुक्त राष्ट्र अमरीका में कारखानों से उत्पादित प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों का उपयोग प्रचलित हो गया था. धन कुबेरों द्वारा किये गए सृजनात्मक विपणन और प्रचार माध्यमों के व्यापक उपयोग से इन प्रसंस्कृत भोज्य पदार्थों के उपभोग को मध्यम वर्ग के लिए सुविधा व समृद्धि का प्रतीक दिखलाते हुए जोरों से प्रचारित किया गया. उदहारण के लिए, सन १९७७ में १०० सर्वोच्च प्रचलित विज्ञापनों में ४८ विज्ञापन प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के थे. इन पदार्थों के निर्माताओं ने विज्ञापनों पर सन १९७७ में ४ ख़रब डॉलर का व्यय किया था जो कि सकल निर्माण क्षेत्र का २५% होता था ( माथेर & डेविस, १९७९). यह उस काल खंड के आंकड़ें है जब उपभोक्तावाद अपने चरम पर था और लोग विमानों में भी सिगरेट पीने का प्रचलन था.

उस दौर में औद्योगिक अथवा सेवा क्षेत्रों में रोज़गार करने वाले अधिकांश नौकरी पेशा युवा देर तक काम करते हऐ धन अर्जन करने में जुटे थे और उन्हें ये सिखलाया गया था कि “समय ही धन है”. उस वर्ग विशेष में यह विचार प्रचारित किया गया  कि आपका भोजन कहीं और कोई अन्य पकाकर दे रहा है जो उन्हें सहज रूप से स्वीकार्य हो गया. इन विज्ञापनों में इस बात का भ्रामक प्रचार किया गया कि डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों में बेहतर गुणवत्ता व स्वाद के साथ समुचित पौष्टिकता भी सुदृढ़ की गयी है. जनमानस में इसे ऐसे बैठा दिया गया कि जैसे उपभोक्ताओं के लिए उनका भोजन मात्र कहीं अन्यत्र किसी अन्य के द्वारा तुरंत तैयार किया गया है और इसका उपभोग अमेरिकी अर्थ व्यवस्था के लिए भी हितकर है! 

देखते ही देखते अमेरिका के तमाम विशाल दुकानों के अन्दर डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों की भरमार हो गयी. यहाँ पर नए नए डिब्बाबंद तैयार भोजन जैसे ठन्डे फ्रोजेन खाद्य सामग्री जिन्हें गर्म करो और खाओ, गाढे किये हुए, बुकनी किये हुए, चूर्ण किये हुए, लोना (नमकीन) किये हुए, मशीनो द्वारा सुखाये हुए व अन्य कई तरह के संरक्षित भोज्य पदार्थों को लुभावने रंगीन प्लास्टिक, एल्युमीनियम  और टेट्रा पैक में सीलबंद कर के वहां के उपभोक्ता के लिए कतारें बिछा दी गयी. सन २००६ में अमेरिकी अर्थ व्यवस्था में ५३८ खरब डॉलर का योगदान अमेरिकी खाद्य पदार्थों का था (US डिपार्टमेंट ऑफ़ कॉमर्स इंडस्ट्री, २००८). अब हम विश्लेषण करेंगे कि इस के प्रचलन से अमेरिकी खान पान की शैली में क्या परिवर्तन देखे गए और उसका उनके समाज पर क्या प्रभाव पड़ा और वर्तमान में उसकी दशा –दिशा क्या है.  

सबसे पहले हम कुछ तथ्यों पर गौर करेंगे :

 

·         अमरीका में अभी लगभग दो तिहाई (२/३) व्यस्क मोटापे या अधिक वजन होने से परेशान है (Ng et al., 2014).

·         ह्रदय रोग, कैंसर, मधुमेह, मस्तिष्काघात जैसी बीमारियां यहाँ मृत्यु के सबसे बड़े कारण है और ये सभी रोग खान पान से सम्बंधित है. (Center for Disease Control and Prevention, 2014)

  • सौ वर्ष पूर्व सन १९०० में आधे से अधिक अमेरिकी लोग या तो किसान थे अथवा गाँवों में रहते थे. दुसरे विश्व युद्ध के पहले अमेरिकी किसान अपने खेतों में भांति भांति के फसलें उपजाते थे और अपने पालतू पशुओं के साथ सुगमता व सरलता से जीवन निर्वाह करते थे. इस तरह की व्यवस्था को आजकल लोग विविधतापूर्ण किसानी (डाइवर्सिफाइड फार्मिंग) भी नाम देते है. वर्तमान काल में अमेरिका कमोबेश सिर्फ एक ही फसल वाला देश बन गया है और यह मक्के की उपज में दुनिया का शीर्ष देश है जहाँ वर्ष में ४७८० लाख टन मक्के की उपज होती है (United States Department of Agriculture, 2015). यह मक्के की प्रजाति भी आनुवंशिक तौर पर संशोधित की गयी होती है और प्रति हेक्टेयर सर्वाधिक उपज देती है. इसका वृहद् औद्योगिक उपयोग होता है और इससे ही इंधन बनाया जा रहा है, दुधारू और मांस प्रदान करने वाले पशुओं का आहार बन रहा है, शर्करा युक्त शीरा और ऐसे अनेक यौगिक उत्पाद हासिल किये जा रहे है जो अंततः खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों द्वारा इस्तेमाल हो रहे है. कहने का सार ये है कि यहाँ फसल का उपयोग सीधे भोज्य पदार्थ के रूप में नागरिकों द्वारा नहीं किया जा रहा है. (John Hopkins Bloomberg School of Public Health, 2015).
  • हाल में ही शोधकर्ताओं ने यह पाया है कि अमेरिकी नागरिकों के शारीरिक पाचन तंत्र में विशेषकर पेट और आंत में वैसे सूक्ष्म और जीवन के हितकारी मित्र जीवाणुओं का अभाव पाया गया है जो कि शरीर में मोटापा थामने का कार्य करते है. प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों में घटकों की विविधता सीमित होती है और नवजात पीढ़ियों को ये माता के शरीर से भी प्राप्त नहीं हो रहे है, परिणामतः अमेरिकियों में मोटापा एक विकराल समस्या हो गयी है. (Maria Dominguez-Bello, 2015)
  • एक अन्य शोध में यह भी पाया गया कि मुख में दो हानिकारक जीवाणुओं (बैक्टीरिया) के कारण दांतों और मसूढ़ों के रोगों की आशंका बढ़ रही है. (Science Education Partnership Award (SEPA) program of the National Institutes of Health (NIH), 2013)

अब हमारे पिछले दस वर्षों में अमेरिका में प्रवास के दौरान हुए कुछ अनुभव आपसे बांटते है:

·         यहाँ बाजारों में स्थानीय और ताज़ा खाद्य पदार्थ बमुश्किल मिलते है और डिब्बाबंद या फ्रोजेन खाद्य पदार्थों की तुलना में काफी महंगे मिलते है.

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·         अधिकतर अमेरिकी परिवार भोजन पकाने की कला भूल चुके है. वो या तो बाहर से खाना मंगवा लेते है या ले आते है और बहुत हुआ तो ठन्डे जमे हुए डिब्बाबंद खाने को गरम कर के खा लेते है. यहाँ मिलने वाले खाद्य पदार्थों में विविधता भी अत्यंत सीमित होती है.

·         अधिकतर बच्चे को और उनके अभिवावक खाने की सामग्रियों का नाता खेतों- खलिहानों से होता है यह भी भूलते जा रहे है. सीलबंद प्रसंस्कृत भोजन पदार्थों के रंगीन आवरण में सारे विवरण खो जाते है.

प्रसंस्कृत भोजन स्वास्थ्य के लिए क्यों और किन कारणों से अहितकर है, अब हम इसका विश्लेषण करेंगे. खाद्य प्रसंस्करण एक व्यवसाय है और सारे निर्माता अधिक से अधिक लाभ अर्जन करना चाहते है. सभी निर्माता अपने उत्पादों का मूल्य कम रखते हुए भी उसमे उम्दा सुगंध और उसे अधिक समय तक संरक्षित व सेवनयोग्य बनाए रखने की जुगत में मशगुल रहते है. और ये इस तरह होता है .... 

·         नमक, चीनी और चिकनी वसा को किसी भी भोज्य सामग्री को सबसे अधिक खुशबुनुमा बनाने में सक्षम माना जाता है और इसीलिए इनका प्रसंस्कृत भोजन बनाने में प्रचुरता से उपयोग किया जाता है.

·         सीलबंद या डिब्बाबंद भोज्य पदार्थों को अधिक समय तक संरक्षित रखने के लिए कृत्रिम रसायनों का उपयोग हर निर्माता की पहली पसंद होती है और दुसरे विकल्प में अतिरिक्त नमक, शर्करा व चिकनाई का इस्तेमाल किया जाता है.

·         प्रसंस्कृत खाद्य सामग्रियों को डिब्बाबंद करने का उद्योग (पैकेजिंग उद्योग) खाद्य प्रसंस्करण व्यवसाय का एक अभिन्न अंग है और वो भी लगभग ३०६ खरब डॉलर का हो गया है (Markets and Markets, 2014). इससे निकले प्लास्टिक एवं अन्य कूड़े की विशाल मात्रा का कितना भयावह दबाव हमारे पर्यावण और कचरा प्रबंधन व्यवस्था पर पडता है इसका सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है.  

  • अपने लागत मूल्य को नियंत्रित व कम रखने के लिए प्रसंस्करण उद्योग व्यवसायी किसानों को अधिक उत्पादन करने के लिए दबाव बनाते हैं और सुनिश्चित करते है कि किसान उन्ही फसलों को खेतों में उपजाए जिनका उपयोग प्रसंस्करण उद्योग द्वारा किया जा सके. (John Hopkins Bloomberg School of Public Health, 2015)
  • किसी भी खाद्य पदार्थ को जितना अधिक संसाधित/प्रसंस्कृत किया जाएगा उसके पोषक तत्व उतने ही कम होते चले जाते है. उदहारण स्वरुप, दूध में पाया जाने वाला गुणकारी विटामिन B 12 की मात्रा उसे बार बार गरम करने से ७० प्रतिशत तक कम हो जाती है (USDA, 2007). निर्माताओं द्वारा अपने उत्पादों में ऊपर से  डाले या जोड़े गए उन तथाकथित पोषक तत्वों से गुणवता या पौष्टिकता में  कितना इजाफा होता है, इसके विषय में वैज्ञानिकों और जानकारों में गहरे मतभेद है. (Paul Malik, 2007)

·         प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों को अधिक काल तक संरक्षित योग्य बनाने के लिए उसके नैसर्गिक किन्वकों (एंजाइमों) को निष्क्रिय करना होता है अतएव उसे पचाने के लिए शरीर के पाचन तंत्र को ज्यादा तनाव और परिश्रम करना पड़ता है.

जो उद्योग ३३००० ख़रब डॉलर जितना विशाल हो गया हो  (Allied Market Research, 2015), वो अपने आर्थिक सामर्थ्य के बल से ऊपर बतलाये गए सभी कुत्सित उद्देश्यों को येन-केन-प्रकारेण हासिल करने में सक्षम होता रहता है. फलस्वरूप हम पाते है कि वर्तमान में क्या हो रहा है –

·         एक ही तरह की फसल/खाद्यान्न उगाये जा रहे है

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·         कीटनाशकों का अत्यधिक और बेलगाम अपयोग बढ़ रहा है.

·         रासायनिक उर्वरको का अनियंत्रित प्रयोग किया जा रहा है

·         औद्योगिक खेती के मद्देनज़र भूमिगत जल, पुष्ट धरती, मिटटी इत्यादि प्राकृतिक संसाधनों का बेहिसाब दोहन बढ़ रहा है

·         आनुवंशिक रूप से संशोधित बीजों/फसलों की मदद से गुणवत्ता और पोषक तत्वों पर जोर देने  की बजाय अधिक मात्रा में उत्पादन ही मुख्य ध्येय हो गया है और ये मान लिया जाता है कि प्रसंस्करण के दौरान इसमें किंचित रसायनों को डाल देने से भोज्य पदार्थों के पोषण तत्वों व गुण - गंध की भरपायी हो जाएगी.

हम इस उद्योग के फलने फूलने के पीछे के अथाह आर्थिक सामर्थ्य और ताकत का सहज अंदाज़ा लगा सकते है. अमेरिका में ठीक ये ही देखने को मिला और कोई आश्चर्य नहीं कि प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ जैसे बर्गर, पिज़्ज़ा, तले हुए भोजन, वातयुक्त ठन्डे पेय, इत्यादि आधुनिक पाक कला सामग्री संभवतः अमेरिका  द्वारा विश्व को दिया सब बड़ा प्रवर्तन उपहार है.  

 

क्या अमेरिकी समाज ने इससे कोई सबक सीखा है? यकीनन हाँ और स्थितिया शनै-शनै ही सही पर यहाँ निश्चित बदल रही है. अमेरिका में प्राकृतिक व जैविक खाद्य सामग्रियों की बिक्री सन २००८ की तुलना में ७२ % बढ़ गयी है (USDA, 2015). जैविक (आर्गेनिक) भोजन सामग्री व्यवसाय में जुड़े व्यावसायिक कंपनियों का सकल पूँजी बाज़ार बढ़कर ९.८५ ख़राब डॉलर हो गया है (NYSE २०१६). ताजे और जैविक भोज्य पदार्थों को ही उपयोग करने वाली रेस्टोरेंट श्रंखला चिपोटेल की भी पूँजी बाज़ार में हिस्सेदारी उल्लेखनीय वृद्धि दर्शाते हुए १३.७५ ख़रब डॉलर हो चुकी है (NYSE २०१६). ज्यादा कीमत होने पर भी विविध ताज़े और जैविक भोजन पदार्थों का प्रचलन अमेरिका में बढ़ रहा है.

·         पूरे अमेरिका में आजकल समाज के अनेक लोग स्थानीय और ताजे खाद्य पदार्थों के इस्तेमाल के लिए आगे आ रहे है और वैसे व्यवसाईयों को प्रोत्साहन प्रदान कर रहे है जो इसे बढ़ावा दे रहे है. अनेकों प्रसिद्ध रसोइये और पाक शास्त्री आजकल सीधे किसान के खेतों से अपने उपयोग के लिए ताज़ी खाद्य सामग्रियों को मंगा रहे है और सार्वजनिक स्थानों में लोगों के समक्ष इनसे स्वादिष्ट पकवान तैयार कर उनमे पाक शास्त्र के प्रति अभिरुचि जागृत करने का भी सन्देश देने का प्रयास जोरों से कर रहे है.

·         खाद्य विषयों  के विख्यात विशेषज्ञ अन्थोनी बौर्दैन, जो न्यूयॉर्क सिटी के चेल्सी पियर में ताजे खाद्य पदार्थों को उपलब्ध करवाने के लिए एक विशाल बहुसांस्कृतिक मॉल का निर्माण करवा रहे है (Newyork Times, २०१५) जहाँ १०० से अधिक थोक विक्रेता, अमेरिका और विदेशों से भी, ताजा वस्तुओं का विक्रय करेंगे. साथ ही यहाँ ताज़ी मछलिया, गोश्त, रोटी व पाक कला में निष्णात कारीगरों द्वारा निर्मित ताज़ी वस्तुएं भी लोगों को सुलभ होंगी. उन्होंने हाल ही में एक सार्वजनिक वक्तव्य दिया (CNN २०१४) कि “ किसी भी आदर्श समाज में हर व्यक्ति को स्वयं को, अपने परिवार व मित्रों को उचित भोजन प्राप्त करवाना ही चाहिए. अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो इसके कारणों को चिन्हित करना होगा व उनका बहिष्कार, तिरस्कार करना पड़ेगा”. 

 

·         एक युगांतरकारी बदलाव देखा जा रहा है और इसका असर तेजी से फ़ैल रहा है. विज्ञानं शोधार्थियों, खाद्य मामलों के विशेषज्ञ, आहार क्षेत्र से जुड़े पेशेवर और जागरूक जन समुदाय के सम्मिलित प्रयासों से कोशिश हो रही है कि आने वाली पीढ़ी को स्वस्थ्य और परिपूर्ण जीवन का लाभ मिले.

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भारत में भोजन प्रथा में आता हुआ परिवर्तन, इसके प्रभाव और उनमे अपेक्षित सुधार की आवश्यकता

 

प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज को घर में पकाया हुआ भोजन ही रास आता रहा है यहाँ हम ज्यादातर  स्थानीय मंडियों से जहाँ आस पास के खेतों की उपज ही उपलब्ध होती है वहीँ से हम खरीददारी करके अपने घरों में ले जाते है. भारत में अमूमन लोग दिन में तीन बार पका कर खाने के आदी है और यहाँ की भोजन विविधता भी उल्लेखनीय है. यहाँ के भोजन में  गेहूं, चावल, मकई, बाजरा, रागी जैसे मुख्य अनाजों के अलावा भांति भांति की मौसमी व हरी पत्तेदार सब्जियां, ताजे फल, अनेक प्रकार की दालें, बीन्स, इत्यादि के साथ चुनींदा मसाले भी भरपूर इस्तेमाल होते है. विशेषता ये भी है कि यहाँ उत्तर से लेकर दक्षिण तक फैले विभिन्न क्षेत्र अलग अलग स्वाद और विशिष्ट पाक शैली की संस्कृति से समृद्ध है. हम लोग खेतों, अनाजों और ताजे उत्पादों से गहरे जुड़े हुए है और स्थानीय मंडियों में विभिन्न विकल्पों में से अपने रुचि के खाद्यान्न व दैनिक आवश्यकता की वस्तुएं इच्छानुसार क्रय करना पसंद करते है. अगर हम ध्यान से गौर करेंगे तो पायेंगे कि जो कार्य हम पीढ़ियों से सुगमतापूर्वक करते आ रहे है, अमेरिका आज उसी को अपनाना चाह रहा है और अपनी भावी पीढ़ी को प्रसंस्कृत खाद्य उद्योग द्वारा उत्पन्न विभीषिका से सुरक्षित करने का प्रयास कर रहा है.

 

परन्तु आजकल  भारत क्या कर रहा है और नीतियों के स्तर पर कैसी योजनाऐ बन रही है.

 

हाल में सम्पन्न हुए शोध कार्य के आंकड़ों से ज्ञात होता है कि प्रसंस्कृत खाद्य व्यवसाय सन २०२० तक ३३००० खरब डॉलर का होने का अनुमान है और चीन तथा भारत के बाजारों में इसका व्यापक विस्तार होने की संभावना है  (Allied Market Research, 2015). पैकेजिंग उद्योग के बारे में भी ऐसे ही अनुमान सामने आये है और इस क्षेत्र में शीघ्र ही भारत विश्व के दो सर्वोच्च बाजारों में शुमार होगा. ये कैसे मुमकिन है? भारत में भोजन व पाक कला की समृद्ध संस्कृति रही है और इतिहास देखें तो जब विश्व के कई देश विध्वंसकारी हथियारों का आविष्कार करने में लींन थे तब हमारा देश पाक कला शास्त्र (और संगीत शास्त्र) से प्रयोग कर रहा था. हजारों वर्षों की संस्कृति की धरोहर से प्राप्त हमारी उत्कृष्ट पाक शैली - कला और विविध व्यंजन विधियां जो पीढ़ियों से विरासत में चली आ रही है; ये हमारे लिए गौरव का विषय है. हम ताज़ा भोजन खाने के आदी है, पौष्टिक भोजन करते है और संभवतः सारे विश्व के लिए एक प्रेरणा है. 

 

ऐसा क्या बदल गया? आज क्यों हमारे बाजारों में कीटनाशकों से युक्त भोज्य पदार्थों की भरमार हो गई है? आज खाने की वस्तुओं का स्वाद वैसा क्यों नहीं रहा जैसा एक दशक पहले होता था? क्यों मधुमेह रोगियों की संख्या सन २००० की तुलना में दुगुनी हो गयी है? (SA Kaveeshwar, 2014)

किसी भी सांख्यिकी आंकड़ों में जाने की ज़रुरत नहीं है – भारत में किसी भी सड़क –बाज़ार में नजर दौड़ा कर देखें तो अनेकों थुलथुल पेटवाले और मोटापे से ग्रसित लोग देखने को मिल जायेंगे. उससे भी शोचनीय बात है कि हमारे देश के बच्चों का स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है. एक विकासशील देश की श्रेणी में खड़ा हमारा देश जो प्रति व्यक्ति आय से गिना जाए तो विश्व में १४३ वें स्थान पर है, उसे मोटापे से ग्रसित लोगों की संख्या में दुनिया में तीसरा स्थान मिलता है (M Ng, T Fleming, M Robinson, et al., 2013).  हमारी पौष्टिक खाद्य शैली की सुस्थापित संस्कृति के बाद भी ऐसा कैसे हो गया?

 

इन प्रश्नों के उत्तर हमें छिपे मिलते हैं उन प्रदर्शन चित्रों (प्रेजेंटेशन) से जो भारत में ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के तहत बन रहे ४८ खाद्य प्रसंस्करण पार्कों में से किसी एक के है. इस योजना के अंतर्गत शीत श्रंखला (कोल्ड चैन) का विस्तार और किसानों को खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों से सीधे जुड़ने को प्रोत्साहित करने का लक्ष्य रखा गया है. खाद्यान्नों की बर्बादी रोकने के लिए शीत श्रंखला कड़ियों का विस्तार एक स्वागत योग्य कदम है परन्तु नीचे दिए गए चित्रों पर ध्यान देने से गंभीर चिंता होती है. ये चित्र सन २०१६ में आयोजित मेक इन इंडिया सप्ताह के दौरान एक प्रस्तावित प्रसंस्करण पार्क ने अपने भविष्य के कार्यकलाप की  प्रदर्शनी देने के क्रम में किया था.

 ार - संक्षेप - 

Figure 1: Major food processing segments – scalability and sustainability (Ministry of food processing Industries India, 2016)

 ार - संक्षेप - 

चित्र १ – खाद्य प्रसंकरण व्यवसाय के मुख्य खंड – मापक्रमणियता व संपोषणियता   (स्केलेबिलिटी और सस्टेनेबिलिटी)  (Ministry of food processing Industries India, 2016)

 

Figure 2: What is fueling domestic growth – growth built on fundamentals (Ministry of food processing Industries India, 2016)

 

चित्र २ भारत में घरेलु वृद्धि के कारक – मूलभूत विकास पर आधारित (Ministry of food processing Industries India, 2016)

 

ये चित्र पूरी कहानी बयां कर देते है.

·         द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी खाद्य प्रसंस्करण उद्योग की तर्ज पर आज भारत में वातयुक्त पेय, डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों, बोतल बंद पानी आदि को आने वाले भविष्य के व्यवसाय अवसर के रूप में प्रचारित किया जा रहा है.

  • यहाँ भी मध्यम वर्ग की समृधि और आधुनिक दैनिक जीवन की व्यस्तता से उपजा समय के अभाव को खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के उदय का  सुअवसर बतलाने का बेतुका प्रयास किया जा रहा है और इसके प्रचार में  मीडिया की भी सहयोगी भूमिका है. 

इन बातो के साथ, गौर करें:

  • भारत के खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को वर्तमान में विश्व में उत्पादन मात्रा में पांचवा सबसे बड़ा देश माना जाता है. इसमें से अभी ३२% उत्पाद निर्यात हो रहे है और हमारी गैर कृषि क्षेत्र के सकल घरेलु उत्पादन में १४% हिस्सेदारी रखता है. माना जा रहा है कि सन २०१८ में यह व्यवसाय ७८ खरब अमेरिकी डॉलर तक पहुच जाएगा. (IBEF, 2016)

·         इस क्षेत्र में १०० % विदेशी पूँजी निवेश को प्रोत्साहन सरकारी नीति के अंतर्गत दिया जा रहा है और आने वाले १० वर्षों में इस क्षेत्र में लगभग ३३ ख़रब अमेरिकी डॉलर का विदेशी निवेश प्राप्त होने का अनुमान है. (IBEF २०१६)

·         अगले ४ वर्षों सिर्फ खाद्य प्रसंस्करण को बढ़ावा देने के लिए ४२ मेगा फ़ूड पार्क खोले जाने का निर्णय लिया गया है. (IBEF २०१६)

·         इस उद्योग के प्रोत्साहन देने के लिए ३०० मिलियन अमेरिकी डॉलर के एक विशेष कोष का गठन किया गया है. इन उद्योगों में लगने वाले मशीनों और अन्य कल पूर्जो के एक्साइज ड्यूटी को भी १० % से घटा कर ६ % कर दिया गया है. (IBEF २०१६)

क्या भारत आज उसी गलती का अन्धानुकरण नहीं करने के लिए प्रवृत हो रहे है जो अमेरिका ने दशकों पूर्व की थी और आज वो उस भयावह भूल से उबरने के रास्ते खोज रहा है? सनद रहे कि आज समस्या अमेरिका के लिए भी बड़ी चुनौती दे रही है जबकि वहां का समाज हमारी तुलना में अधिक शिक्षित, आर्थिक रूप से सम्पन्न और विज्ञानं तकनीक में भी मीलों आगे है.

·         क्या हम समझ नहीं पा रहे कि औद्योगिक खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में उद्योगपतियों को मनमानी छूट दिए जाने की अनुमति प्रदान करके यहाँ के खान-पान की विविधताओं की परंपरा, जनसँख्या घनत्व, संकुचित होते प्राकृतिक संसाधनों और निवारक सामुदायिक स्वास्थ सेवाओं की चिंताजनक स्थिति से भयावह परिणाम निकलेंगे.  

·         क्या देश के पास कोई ऐसी व्यवस्था या कारगर उपाय विकसित है जिससे हम अपनी सदियों पुरानी कृषि परंपरा जो यहाँ की मिटटी और लोगों से गहरी जुडी है को खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के चंगुल से बचाया जा सके.

·         हम किस तरह प्रसंस्करण उद्योग द्वारा प्रोत्साहित अधिक उत्पादन पर निम्न गुणवत्ता के कृषि उपजों को उनकी कुत्सित मुनाफाखोर मनोवृत्ति से बचा पाने में समर्थ होंगे और उनके इस मिथ्या प्रचार को रोक पाएंगे कि उद्योग द्वारा कृत्रिम रासायनिक घटकों से इन्हें पुनः पुष्टिकृत किया जाना संभव नहीं है.

·         एक ओर तो हम प्लास्टिक की थैलियों के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने का प्रयास कर रहे है पर प्रसंस्कृत खाद्यों की पैकिंग में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक की बेतहाशा वृद्धि के बारे में हमारी क्या नीति है?

·         क्या हम एक ऐसे माहौल को बढ़ावा नहीं दे रहे है जहाँ अत्यधिक उत्पादन की अंधी दौड़ में हमारे प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास तेज गति से होता जाये और एक अनिश्चित कृषि परंपरा को हम आर्थिक प्रोत्साहन देने की शुरुआत कर रहे है और वो भी तब जब हम तथाकथित हरित क्रांति के कतिपय दुष्प्रभावों से पूरी तरह उबर भी नहीं पाए है? (RY Babu, 2008)

·         क्या हम इस उद्योग, विशषकर पैकिंग, परिवहन इत्यादि से उत्पन्न पर्यावरण की क्षति की  भरपाई देश के करदाताओं द्वारा जमा किये सार्वजनिक कोष से करेंगे? और बड़े धनकुबेर उद्योगपतियों को बेजा छूट देंगे?

·         क्या हम जनसाधारण के स्वास्थ्य पर प्रसंस्कृत भोज्य पदार्थों में अवांछित वसा, शर्करा, नमक, रासायनिक यौगिकों के इस्तेमाल से पड़ने वाले कुप्रभावों को भी किसी अन्य बहिवर्ति खाते में डाल देंगे?सामुदायिक स्वास्थ्य की कीमत पर हम क्या उद्योगपतियों को धनार्जन करने की छूट देते रहेंगे?

·         अगर हम नीतिगत रूप से खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को बढ़ावा देने की कोशिश में लगे रहेंगे तो हमारे यहाँ कृषि आधारित सुदृढ़ मंडी-बाजार की व्यवस्था पर जीविका उपार्जन करने वाले लाखों- करोड़ों लोगों का क्या होगा? सनद रहे कि प्रसंस्करण उद्योग को नीतिगत बढ़ावा देने से एक अलग तरह की आपूर्ति श्रंखला अमल में आ जाएगी जो वर्तमान व्यवस्था को ध्वस्त कर सकती है.

·         क्या हमें एक राष्ट्रीय नीति के अंतर्गत में देश की विविधतापूर्ण खाद्य संस्कृति और सुरक्षा को कतिपय उद्योगपतियों व व्यापारसंघों के निजी लाभ के लिए गिरवी रखने की मंशा रखनी चाहिए?

 

यहाँ ये भी स्वीकार करना होगा कि खाद्य प्रसंस्करण उद्योग की विकास यात्रा में कुछ ऐसे भी तकनीकी नव प्रवर्तन देखने मिले है जो कि खाद्य पदार्थों को सड़ने-गलने से बर्बादी के बचाव के लिए बहुत ही कारगर है. खाद्य पदार्थों को लम्बे समय तक सहेजने के लिए खेतों से लेकर विपणन तक की शीत ताप नियंत्रित श्रंखला की कड़ियों का विकसित होना, भोजन पदार्थों के गुणवत्ता जांच में वैज्ञानिक-प्रायोगिक पद्धति -उन्नयन, विपणन श्रंखला कड़ियों का प्रचलन (जैसे HACCP), आदि स्वागत योग्य है. अगर इन अभिनव तकनीकों का उपयोग हमारे देश के सामुदायिक मंडियों तक पहुंचा दिया जाता है तो ये ना केवल सार्थक आर्थिक प्रयास होगा अपितु देश के हर नागरिक के लिए स्वास्थ्यकारी भी सिद्ध होगा और हमारी संमृद्ध संस्कृति भी अक्षुण्ण  रह पाएगी.

 

अगर अमेरिका जैसे देशों के कटु अनुभवों से शिक्षा नहीं लेता है और अपने नए चयनित मार्ग पर कायम रहने और बढ़ने की भूल करता है तो अपने सीमित विकल्पों और आर्थिक हथियारों से हम भविष्य में आने वाली दुश्वारियों से कैसे निपट पायेगे? यकीनन इससे हमारे देश को अपार क्षति पहुंचेगी और देश जल्द ही ऐसे गर्त की ओर इतना आगे चला जाएगा जहाँ से वापस आने का रास्ता भी नहीं मिलेगा.

 

कोई भी वैज्ञानिक तकनीक या नयी पद्धति स्वयं में बुरी नहीं होती और उससे उचित आर्थिक लाभ अर्जित करना भी स्वस्थ परंपरा है. समस्या तब उत्पन्न होती है जब नव प्रवर्तन संकीर्ण स्वार्थो से प्रेरित होकर अनैतिक लाभ के लिए स्थापित मूल्यों, परम्पराओं और आदर्शों को ताक पर रख कर किया जाए. इस क्रम में देखा जा रहा है कि सकल घरेलु उत्पादन की वृद्धि के नाम पर हम राष्ट्र की दीर्घकालीन सम्पोषनीयता व पर्यावरण पर पड़ने वाले कुप्रभावों की कीमत को नजरंदाज कर अन्य किसी सार्वजनिक मद में डालते है और सामुदायिक स्वास्थ की कीमत पर किंचित निजी स्वार्थों को अनुचित धन लाभ कमाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते है 

 

खाद्य प्रसंस्करण उद्योग एक ऐसा ही ज्वलंत उदाहरण है जो  मनुष्य की सबसे प्राथमिक आवश्यकता अर्थात भोजन पर केन्द्रित है और इसमे इतनी असीम क्षमता अन्तर्निहित है कि ये विश्व की भूख मिटा सकता है.  अगर इसे भी जनहित में सावधानीपूर्वक, नैतिक नियंत्रण में नहीं रखा जाए तो आणविक ऊर्जा की तरह पूरे विश्व को भयावह परिणाम भी भुगतने पड़ सकते है.

 

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