नाम – संजय दीक्षित
पद - वरिष्ठ कांग्रेस नेता, पूर्व सदस्य एआईसीसी, पूर्व मनरेगा काउंसिल सदस्य, उत्तर प्रदेश
नवप्रवर्तक कोड – 71188958
परिचय –
निर्धन, वंचित व मजदूर वर्ग के अधिकारों के लिए पिछले 15 वर्षों से महात्मा गांधी नरेगा योजना के तहत संघर्ष कर रहे संजय दीक्षित एक सामाजिक नवप्रवर्तक हैं, जो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सिद्धांतों का अनुसरण करते हैं। मुख्य रूप से कानपुर एवं उन्नाव में कार्य कर रहे संजय दीक्षित वस्तुत: 2001 से सामाजिक जीवन से जुड़े हैं। वर्तमान में वह मनरेगा संविदा कर्मियों के हितों की रक्षा के लिए आवाज उठाए हुए हैं और उन्हें सरकारी योजनाओं का पूरा लाभ दिलवाने के क्रम में जागृति लाने के लिए प्रयत्नशील हैं।
राजनीतिक जीवन -
अपने सामाजिक जीवन की शुरुआत संजय दीक्षित ने सामाजिक संस्था के मुखिया के रूप में की थी लेकिन उन्हें आभास हुआ कि राजनैतिक मंच सामाजिक गतिविधियों के लिए सबसे सशक्त माध्यम है, इसलिए उन्होंने राजनीति से जुडने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी से प्रभावित होने के चलते वह कॉंग्रेस से जुड़े।
लगभग 17-18 साल उन्होंने कॉंग्रेस में सेवा दी और उसी दौरान 2006 में मनरेगा योजना भी लॉन्च हुई। यह योजना उनके हृदय के काफी करीब रही इसलिए उन्होंने 2006 के बाद से एक पूर्णकालिक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में इस योजना पर काम किया और केंद्रीय भारत सरकार के अंतर्गत केंद्रीय रोजगार परिषद में दो कार्यकाल सदस्य भी नामित रहे। इस परिषद में अरुणा राय, जॉन रे, निखिल देश, मणिशंकर अय्यर जैसे बड़े बड़े नाम शामिल थे। उनकी दोनों की कार्यकाल काफी प्रभावशाली रहे, जिसकी जानकारी आज भी ग्राम विकास मंत्रालय की वेबसाईट पर है।
वह बताते हैं कि तीन वर्ष पहले उन्हें कॉंग्रेस से निष्काषित कर दिया गया था क्योंकि उन्होंने भ्रष्टाचार का मुद्दा, एक राजनीति में शुचिता का मुद्दा उठाया, जो कुछ राजनीतिक नेताओं को नहीं पसंद आया। इसके बाद उन्होंने राजनीति की धारा से मुक्त होकर उन्होंने एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर मनरेगा योजना के लिए काम किया क्योंकि मनरेगा के चलते प्रदेश में उन्हें जाना पहचाना जाता था।
उन्होंने पाया कि मनरेगा योजना में संविदा कर्मियों के साथ बंधुआ मजदूरों की तरह व्यवहार हो रहा था और उन्हें समान कार्य के समान वेतन का प्रावधान भी नहीं मिल रहा था। कर्मियों का समायोजन नहीं होने से उनकी नरकीय स्थिति थी। पिछले तीन वर्षों से उन्होंने अधिकतर समय इन संविदा कर्मियों के मुद्दों को उठाने में दिया।
मनरेगा योजना के अंतर्गत अनुभव -
संजय दीक्षित जब केन्द्रीय परिषद में थे तो मनरेगा के भ्रष्टाचार ने उन्हें बहुत अधिक विचलित किया और उत्तर प्रदेश में 1000 करोड़ के भ्रष्टाचार के मामले उन्होंने पकड़े, जिनकी सीबीआई जांच आज भी चल रही है। वह मानते हैं कि ऐसी कोई योजना नहीं है, जो पाक साफ हो और जिसके क्रियान्वयन में कमियां नहीं हो। लेकिन मनरेगा अधिक बदनाम हुई है।
उनका मानना है कि औद्योगिक घराने या सामंतवादी किसान है, वह मनरेगा को पसंद नहीं करते हैं क्योंकि जो मजदूर गाँव में 50-60 रुपये में मिलता था और जो महिलाएं आधी मजदूरी पर काम किया करती थी। मनरेगा के आने के बाद उनका सशक्तिकरण हुआ, आज मजदूर वर्ग अपने पैरों पर खड़ा है, दूरस्थ पलायन कम हुआ, गरीबी के कारण होने वाली आत्महत्याओं में भी कमी आई है। इस योजना के इन सभी सकारात्मक पहलुओं ने उन्हें बहुत अधिक प्रभावित किया। इसी के चलते वह पिछले 15 वर्षों से मनरेगा संविदा कर्मियों के हितों के लिए खड़े हुए हैं।
संघर्ष से मिली जीत -
तीन वर्ष पहले जब संजय दीक्षित ने संविदा कर्मियों के अधिकार के लिए सत्याग्रह शुरू किया तो उन्होंने सबसे पहले 400 किमी पदयात्रा उत्तर प्रदेश में की। इन रोजगार सेवकों का तीन साल का 300 करोड़ रुपये का मानदेय बकाया था। छह महीने की पदयात्रा और प्रयासों के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इन सभी 35 हजार रोजगार सेवकों का मानदेय दिया और एक बड़े वर्ग को इससे लाभ मिला।
एक दूसरे मामले में 700 रोजगार सेवकों की ग्राम पंचायतें नए परिसीमन के अनुसार शहरों में विलीन हो गई थी, जिसके कारण उनकी सेवाएं भी समाप्त हो गई थी। इस मुद्दे पर संजय दीक्षित ने उत्तर प्रदेश के अधिकारियों से तीन महीने तक इस मुद्दे पर चर्चा की और दबाव बनाया कि जब सभी पंचायतों में कर्मचारी नहीं हैं तो नियमों को शिथिल करके रिक्त पंचायतों में इनका समायोजन किया जाए, नहीं तो 14 साल सेवा करने के बाद यह 700 परिवार सड़क पर आ जाएंगे। दो से तीन महीने के उनके प्रयासों, बहस व दबाव के बाद उन 700 रोजगार सेवकों के लिए भी आदेश जारी हुआ कि उनको विलीन पंचायतों में समायोजित कर लिया गया।
भावी परियोजनाएं -
संजय दीक्षित का मानना है कि हर प्रयास एक सफल गाथा नहीं बनता लेकिन यदि प्रयास ईमानदारी से किया जाए तो वह स्वयं में एक सफल गाथा है। यदि हार-जीत, सफलता-असफलता के बारे में सोच कर कोई कार्य किया जाए तो वह कभी पूरा नहीं हो पाता है। वह कहते हैं कि जिस भी मुद्दे पर आप काम करें, उस पर पूरी ईमानदारी से सच को पकड़ कर पूरा प्रयास करें और अभी तक जीवन में जिस चीज को लेकर प्रयास किया, कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सफलता मिली है। वर्तमान में वह "समान काम का समान वेतन" के लिए संघर्ष कर रहे हैं और आने वाले समय के लिए उनकी बहुत सी भावी परियोजनाएं हैं, जो इस प्रकार हैं,
1. महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के स्वप्न को यथार्थ करना। पंचायती राज योजना को आत्मनिर्भर बनाना और संविधान के अनुसार उसे मूल रूप देना।
2. देश के सर्वाधिक उत्पीड़ित वर्ग असंगठित क्षेत्र के अनियोजित मजदूरों व अकुशल श्रमिकों को उनके अधिकारों की प्राप्ति कराना।
3. नौजवानों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रही वर्तमान संविदा व्यवस्थाओं (जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी अमानवीय बताया है) के खिलाफ संघर्ष करना।
यह वास्तविकता है कि शिक्षित मैरिट प्राप्त युवाओं को मजदूरों के समान वेतन दिया जा रहा है। बेरोजगारी के नाम पर उनसे 18 घंटे काम कराया जा रहा है और मजदूरों की मजदूरी उन्हें दी जा रही है। संजय दीक्षित कहते हैं कि इस व्यवस्था के कारण नौजवान भ्रष्टाचार करने पर मजबूर हैं। इस बंधुआ मजदूरी की प्रथा को आज से चालीस साल पहले बंद किया गया था लेकिन आज भी यह अप्रत्यक्ष रूप से जारी है। इसके खिलाफ भी वह आवाज उठाए हुए हैं और संघर्ष जारी है।
मार्ग में आने वाली बाधाएं -
समाज कल्याण कार्यों में बाधाएं तो आती ही हैं लेकिन व्यक्ति अपने मनोबल व दृढ़ इच्छाशक्ति से इनका सामना कर सकता है। संजय दीक्षित कहते हैं कि गरीब तबके की दुआएं व शुभकामनाएं हमेशा उनके साथ रहती हैं। उनका कहना है कि सरकारी तंत्र, राजनीतिक तंत्र और गरीब वर्ग की अगुवाई कर रहे नेता, जिनमें से 99 फीसदी निर्धनों के अधिकारों के लिए लड़ते लड़ते धनवान बन जाते हैं लेकिन गरीब तबकों के मुद्दे उठाने ही भूल जाते हैं।
सामाजिक परिवर्तन -
संजय दीक्षित के अनुसार गरीब-अमीर के बीच की खाई को दूर करने और जो वंचित वर्ग तथाकथित विकास का लाभ नहीं ले पाया, उनके लिए वह समाज में परिवर्तन लाना चाहते हैं। उनका मानना है कि कमी योजनाओं में नहीं है बल्कि योजनाओं के क्रियान्वयन में होने वाली व्यवस्थाओं में हैं। यदि व्यवस्थागत कमियों को दूर किया जाए और जागरूकता लाई जाए तो बदलाव आ सकता है। आज गरीब वर्ग ने हताश होकर आवाज उठानी बंद कर दी है। बैठकों व चौपालों के जरिए हाशिये पर खड़ी जनता को जागरूक करने का उनका प्रयास जारी है।