‘‘पिघली हुई बर्फ सरिता बनकर अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए संघर्ष करते हुए आगे बढ़ती है, परंतु उसके मार्ग में आया एक छोटा सा अवरोध भी उस सरिता को बाढ़ के रूप में परिवर्तित कर देता है… मेरा जीवन भी उस सरिता सा रहा, निरंतर संघर्षशील व अवरोधों से परिपूर्ण.’’ - मनोरंजन व्यापारी
वह अपने आप में एक कहानी है. जीवन कई करवटों में बीता है, तह पर तह, परत दर परत, अपने आप में उन्होंने ने कई तस्वीर बनाई हुई है. उनका जीवन किसी फ़िल्मी किस्से से कम नहीं. उनके जीवन में कई इत्तेफाक हुए हैं. जी हां हम बात कर रहे हैं प्रसिद्ध लेखक और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता मनोरंजन व्यापारी की.
विषम परिस्थितियों में भी निरंतर चलायमान रहने का नाम जीवन है, लेकिन इन विषमताओं में भी अपने असीम प्रयत्नों से जो आशा के बीज रोपण करके ‘जिजीविषा’ के फूल खिला दे, उस व्यक्ति का नाम है – मनोरंजन व्यापारी.
सामान्य सी वेशभूषा पहने एवं गले में गमछा डाले व्यापारी जी एक साधारण भारतीय मानुष की छवि को बखूबी उभारते हैं. सामान्य व सादगी पसंद जीवनशैली के दृष्टांत व्यापारी जी असाधारण लेखन क्षमता के धनी हैं. समाज की जिस रोषपूर्ण, मलीनता से भरी संकीर्ण विचारधाराओं के प्रति जहां तमाम सुधारकों के प्रयास मौन हो जाते हैं, वहां व्यापारी जी के रचे शब्द चीत्कार करते हुए एक नव-परिवर्तन का बिगुल बजाते हुए प्रतीत होते हैं.
एक परिचय:
निरक्षर होते हुए भी आज अपने अथक प्रयास से उत्कृष्ट साहित्य की अलख जगाने वाले सुप्रसिद्ध दलित लेखक मनोरंजन व्यापारी का जन्म 1950 में बांग्लादेश के बरिसाल जिले में हुआ था. पश्चिम बंगाल के सर्वप्रमुख दलित साहित्यकार व्यापारी जी सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में भी अग्रगण्य हैं. संभवतः वे देश ही नहीं अपितु संसार के प्रथम रिक्शा चालक हैं जिन्होनें अपने प्रेरणादायक साहित्य संग्रह से तमाम साहित्यवर्ग, आलोचकों एवं पाठकवर्ग को सहज आकर्षित किया है. वर्तमान में वे खुर्रिदाबाद के हेलन कैलर मूक-बधिर विद्यालय में प्रतिदिन 300 छात्रों के लिए भोजन बनाते हैं.
विषमताओं से भरा संघर्षपूर्ण जीवन:
व्यापारी जी का जीवन अवरोधों से भरा हुआ रहा है. विभाजन का दंश झेलते हुए बंकुरा, शिरोमणिपुर के रिफ्यूजी कैम्प में बचपन व्यतीत हुआ. शिक्षा प्राप्त करने की आयु में जीवनयापन हेतु मवेशी चराए. व्यापारी जी का जीवन दरिद्रता की वविभीषिका, सामाजिक विकृतियों की विड़म्बना व अपराधग्रस्त युवा मन के नैराश्य से ओतप्रोत है.
गरीबी व भुखमरी रही हावी:
एक गरीब दलित परिवार में पैदा होना व्यापारी जी के जीवन की घोर विड़म्बना थी. जहां गरीबी की वीभत्सता ने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा. भूख का दंश केवल वही मनुष्य समझ सकता है जिसनें भूख को महसूस किया हो और व्यापारी जी इसका जीता जागता प्रतीयमान हैं. इन्होनें अपने पिता को कुछ पैसों के लिए कठोर श्रम कर गैस्ट्रिक अल्सर का शिकार बनते देखा, अपनी छोटी बहन को भूख से निढ़ाल होकर हडिड्यों के ढांचें में तब्दील हो मरते देखा, यहां तक कि अपनी माता को वस्त्रों के अभाव में दिन के उजालों से खौफग्रस्त देखा. यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि जहां एक वक्त का भर पेट भोजन मिलना भी असंभव रहा हो वहां कोई भी व्यक्ति शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण इत्यादि से सराबोर जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता.
जीविकार्जन के लिए संघर्ष:
सोलह वर्ष की आयु में ही व्यापारी जी परिवार को छोड़कर जगह-जगह काम की तलाश में भटकने लगे थे. असम से गुवाहाटी, लखनऊ से कानपुर, इलाहाबाद से दिल्ली, हरिद्वार से मथुरा आदि स्थानों पर कठिन परिश्रम करते हुए न जाने कितने प्रताड़ित किरदारों को इन्होनें खुद में समाहित किया. कभी चाय की दुकान पर काम, कभी कूली, कभी लॉरी सहायक, कभी रिक्शा चालक, कभी चैकीदार, कभी सफाईकर्मी, यहां तक की शवदाह का कार्य कर अपने कई किरदार को भी अपने जीवन में यथार्थ किया. बाल शोषण, बाल श्रम व समाज की छूआछूत भरी विकृत मानसिकता को झेलते हुए व्यापारी जी निरंतर संघर्षशील जीवन से दो-चार होते रहे.
नक्सलवाद व अपराधिक कृत्यों से जुड़ाव:
1969 में नक्सलवाद अपने चरम पर था, प्रशासन व्यवस्था से खिन्न एक वर्ग अपने अधिकारों के लिए सही गलत को भूल कर सरकार को सबक सिखाने पर अमादा था. व्यापारी जी का मन भी गरीबी से तृप्त था और साथ ही वे अल्पायु भी थे, इसी कारण वे संयोगवश नक्सलवाद से जुड़ गए. इन्होनें लूटमार, चोरी, चाकू चलाना, दंगें भड़कानें जैसे कईं अपराधिक कृत्य किए. इन सबके परिणामस्वरूप व्यापारी जी का जेल आना जाना लगा रहा. 1971 में बंगाल मुक्ति आन्दोलन के कारण इन्हें परिवार के साथ दण्डकारण्य भी जाना पड़ा, जहां जंगलों से लकड़ी काटकर भरण पोषण करना उनके जीवन का हिस्सा रहा, परन्तु अथाह जल संकट के कारण वे वापस जाधवपुर भाग आए व अपराधिक कार्यों में सलंग्न हो गए.
जब जेल को बनाया विद्यालय:
24 वर्ष की आयु में हत्या व दंगें भड़काने के आरोप में व्यापारी जी को दस वर्ष का कारावास हुआ. कलकत्ता की अलीपुर जेल में बीता उनका शुरूआती समय बेहद निराशापूर्ण था, जहां जेल की दीवारों के पीछे उन्हें अपना सम्पूर्ण जीवन अन्धकारमय नजर आने लगा था.
उस समय जेल में मिले एक अग्रज व्यक्ति ने व्यापारी जी को खिड़की से बाहर कंक्रीट की दीवार से निकलते एक नन्हें पौधे का उदाहरण देते हुए जीवन के रस को समझाया और विषम परिस्थितियों में भी उस पौधे को अंकुरित होते देख व्यापारी जी के मन में भी नवउमंग का संचारण हुआ. उन्हीं सज्जन व्यक्ति अर्थात् व्यापारी जी के मास्टर मोशाय ने उन्हें प्राथमिक शिक्षा की ओर अग्रसर किया.
“व्यापारी जी की प्रथम पाठशाला जेल थी, जिसमें उन्होंने धरती को स्लेट व सूखी टहनियों को कलम बनाकर अनौपचारिक शिक्षा प्रारम्भ की.”
अक्षरों के प्रति उनकी रूचि धीरे-धीरे गहराती चली गई. यहां तक की जेल में उन्होनें कागज व कलम प्राप्त करने के लिए खून का विक्रय तक किया. शब्दों को जोड़-जोड़ कर पढ़ते हुए उन्होनें जेल में बिताए दो वर्षों में दो पुस्तकें (मनोज बासु की ‘निशी कुटुम्ब’ एवं जरासंध की ‘लौह कपट’) पढ़ी. उनकी शिक्षा की गति मंद अवश्य थी परन्तु शिक्षण के प्रति उनकी निष्ठा में कभी कमी नहीं आई.
कबाड़ से किया किताबों का जुगाड़:
कहावत है कि यदि मनुष्य कुछ करने की ठान ले तो संसार की कोई ताकत उसे रोक नहीं सकती, इसी कहावत को व्यापारी जी ने चरितार्थ कर दिखाया. पठन-पाठन की जो असीम लगन इनके भीतर जेल में उत्पन्न हुई वह जेल से रिहा होने पर भी जस की तस बनी रही. कलकत्ता की सड़कों पर रिक्शा खींचना उनकी मूलभूत आवश्यकताओं की तो पूर्ति कर सकता था, परन्तु अध्ययन के प्रति उनकी असीम तृष्णा को नहीं. खरीद कर पुस्तकें पढ़ने में अक्षम व्यापारी जी कबाड़ की दुकानों पर पड़ी पुस्तकों को पढ़कर अपना ज्ञान भण्डार बढ़ाते रहे और जब इतने से भी काम नहीं चला तो उन्होनें घर-घर जाकर भी पुस्तकें मांगी. अपने ज्ञान की भूख को व्यापारी जी ने कदापि कम नहीं होने दिया और धीरे-धीरे विभिन्न बंगला साहित्यकारों की रचनाओं को इन्होंने सारगर्भित कर लिया.
एक शब्द ‘जिजीविषा’ ने बदल दी दुनिया:
कुछ इत्तेफाक ऐसे होते हैं जो आपकी पूरी जिंदगी ही बदल देते हैं. आप जहां पहुंचने की सोचते भी नहीं वह आपको वहां पहुंचा देती है. मनोरंजन व्यापारी ऐसे ही एक इत्तेफाक के साक्षी रहे हैं. जिंदगी में कई उठापटक, कई हलचलों के बाद एक ऐसा दौर आया जब सिर्फ एक शब्द ने उनके पूरे जीवन को ही बदल कर रख दिया. प्रचंड गर्मी में रिक्शा लिए सवारी के इंतजार में रिक्शा वालों की लाइन में सबसे आगे खड़े मनोरंजन जी उपन्यास पढ़ रहे थे, ऐसे में दो लोगों की एक सवारी आई मनोरंजन जी ने अपने साथी रिक्शाचालक को कहा कि तुम यह सवारी ले जाओ मेरी किताब थोड़ी ही बची है, मैं इसको पढ़ लूं. वैसे में उस रिक्शा वाले ने समझा कि दो सवारी को एक साथ बैठाने के डर से यह ऐसा कह रहा है और उसने एक बात कही कि - "तेरी किस्मत में जो आया है तू उसे ले जा,मेरी किस्मत में जो आएगा मैं उसे ले जाऊंगा." वाकई उस किस्मत ने उनकी पूरी पूरे जीवन का स्वरूप ही बदल कर रख दिया.
अनिश्चितता के भंवर से शुरू उनके जीवन के सफर को एक शब्द का अर्थ जानने की उत्सुकता ने अविश्वसनीय एवं रोचक मोड़ दिया. प्रसिद्ध बंगला उपन्यासकार चाणक्य सेन की पुस्तक पिता-पुत्र को पढ़ते हुए एक शब्द जिजीविषा पर व्यापारी जी अटक गए. रिक्शा चालक के रूप में अनजाने में अपनी सवारी सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी से उन्होनें ‘जिजीविषा’ शब्द का अर्थ जानना चाहा, जिसमें वे काफी समय से उलझे थे. महाश्वेता जी ने उन्हें ‘जिजीविषा ’ शब्द का अर्थ ‘जीने की चाह’ बताया. इसके बाद व्यापारी जी को न केवल इस शब्द का अपितु अपने जीवन का अर्थ भी समझ आ गया.
व्यापारी जी को लेखन के लिए प्रेरित करने वाली महाश्वेता देवी ही थी, जिनकी पत्रिका ‘वर्तिका’ के लिए सर्वप्रथम 1981 में व्यापारी जी ने लघुकथा ‘रिक्शा चलाई’ लिख कर अपने स्वर्णिम साहित्यिक सफर की शुरूआत की.
साहित्यिक उपलब्धियां:
वंचित वर्ग के ख्यातिप्राप्त रचनाकर व्यापारी जी अब तक 10 उपन्यास व 100 से अधिक लघुकथाएं लिख चुके हैं. वह सर्वप्रथम आर्थिक और राजनीतिक साप्ताहिक पत्रिका में प्रकाशित एवं मीनाक्षी मुखर्जी द्वारा अनुवादित निबंध ‘क्या बंगला में दलित लेखन है?’ के माध्यम से चर्चा में आए.
इन्हें सर्वाधिक ख्याति 2014 में प्रकाशित दलित आत्मकथा ‘इतिवृति चांडाल जीवन’ से मिली, जिसमें व्यापारी जी ने उपेक्षित वर्ग के जीवन की मार्मिक झांकी प्रस्तुत की. इस कृति के लिए पश्चिम बंगाल साहित्य अकादमी ने उन्हें ‘सुप्रभा मजूमदार पुरस्कार’ से सम्मानित किया.
इसके अतिरिक्त उन्होनें 2013 में नक्सली जीवन को अंकित करता उपन्यास ‘बाताशे बारूदोर गोंधों’ तथा 2016 में 22 लघुकथाओं का संग्रह ‘गोल्पो सोमोग्रों’ प्रकाशित किया. ‘गोल्पो सोमोग्रों’ में प्रकाशित लघु कथाएं स्वयं व्यापारी जी के जीवन से जुड़ी हुई हैं. वह प्रत्येक किरदार जो उन्होनें अपने वास्तविक जीवन में निभाया, इन लघु कृतियों के माध्यम से उन किरदारों को यथार्थवादी दर्शाया. राशन की दुकान में मजदूरी करते एक गरीब की कहानी स्वाधीनता, पैसों के लिए खून बेचने वाले व्यक्ति की कथा उतोरोन, शिक्षा के प्रति वंचित वर्ग की अनकही दिनकाल, जमींदारी प्रथा से जुड़ी दलित वर्ग के संघर्ष की झांकी नारायन सेवा इत्यादि के माध्यम से व्यापारी जी ने वंचित वर्ग की दयनीय स्थिति को बखूबी अंकित किया.
व्यापारी जी को 2015 में ‘शर्मिला घोष स्मृति साहित्य पुरस्कार’ से भी वविभूषित किया जा चुका है तथा राज्यसभा टीवी द्वारा इनके जीवन पर बना वृतचित्र बेहद सराहा गया.
समाजिक बदलाव के प्रेरणास्रोत:
व्यापारी जी छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (80 के दशक में कार्यरत) के जुझारू शहीद नेता शंकर गुआ नियोगी जी से बेहद प्रभावी रहे हैं, यहां तक कि उनकी साहित्यिक रचनाओं में भी नियोगी जी के क्रांतिकारी जीवन की छाप दिखाई देती है. व्यापारी जी शाब्दिक क्रांति के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों पर चोट करते हैं और पिछड़े कमजोर वर्ग को जागरूक करते हैं. इनके लेखन का मुख्य ध्येय समाज में एकता व समानता लाना है. व्यापारी जी का मानना है कि लोग मंदिर-मस्जिद, जात-पात, धर्म आदि पर बहस छोड़कर अपने मौलिक हितों (खाद्य, वस्त्र, आश्रय, चिकित्सा) की लड़ाई लड़ें.
नवलोकतंत्र के प्रवक्त्ता:
वर्तमान कमजोर शासन व्यवस्था को बदलकर स्वस्थ लोकतंत्र की स्थापना होते देखना व्यापारी जी का स्वपन है. उनके अनुसार केवल सत्ता परिवर्तन से समाज नहीं बदला जा सकता अपितु एक बेहतर कल के लिए युवा जन-आंदोलन, नव-नेतृत्व, जुझारू युवान शक्ति की आवश्यकता है जो पारदर्शी व स्पष्टवादी शासन व्यवस्था के प्रतीक बनें. अपनी कलम की ताकत से सामाजिक कल्याण का बिगुल बजाने वाले मनोरंजन व्यापारी केवल एक दलित लेखक ही नहीं बल्कि जनता की आशा व आकांक्षा के प्रतीक हैं और एक बेहतर समतापूर्ण समाज की अवधारणा के लिए निरंतर प्रयासरत हैं.
कथनीय है कि एक साहित्यकार की सराहना का कोई अंत नहीं होता, परंतु शब्दों की अपनी एक महिमा है यदि शब्द अपनी सीमा से परे हो तो उबाऊ बनकर निज गौरव खो बैठते हैं. अतः हम भी अद्भुत लेखन क्षमता के सूर्य मनोरंजन व्यापारी जी को काव्यरूपी अध्र्य प्रदान कर अपने शब्दों को विराम अर्पित करते हैं:
गमछा डाले उस सहज से भालो मानुष को देखा है?
प्रतिकूल जीवन के विषाद् से तृप्त उसकी आंखें,
आक्रोश की नई चमक लिए है.
खिलखिलाते बचपन, स्वछंद यौवन से रिक्त उसकी बातें,
यातनाओं की तीव्र धमक लिए है.
समाज की क्रूरताओं से कुपोषित उसकी सांसें,
‘जिजीविषा’ की अनूठी खनक लिए है.
गमछा डाले उस सहज से भालो मानुष को देखा है?