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नमामि गंगे - मुक्त बाजार में समग्र-गंगा की बातः दिषा एवं विकल्प

Gomti River and Gomti Riverfront Lucknow - Analysis on Restoration and Development

Gomti River and Gomti Riverfront Lucknow - Analysis on Restoration and Development Opinions & Updates

ByVenkatesh Dutta Venkatesh Dutta   {{descmodel.currdesc.readstats }}

Originally Posted by {{descmodel.currdesc.parent.user.name || descmodel.currdesc.parent.user.first_name + ' ' + descmodel.currdesc.parent.user.last_name}} {{ descmodel.currdesc.parent.user.totalreps | number}}   {{ descmodel.currdesc.parent.last_modified|date:'dd/MM/yyyy h:mma' }}

वह गंगा जो भारत की सभ्यता को हजारों वर्षों से संरक्षित और पोशित कर रही है, उसी गंगा के अस्तिव की सुर

वह गंगा जो भारत की सभ्यता को हजारों वर्षों से संरक्षित और पोशित कर रही है, उसी गंगा के अस्तिव की सुरक्षा महसूस की जा रही है। जो गंगा पहले अमृृत-सलिला थी, आज वह विश्व की प्रदूषित नदियों में से एक है। क्या विकास के नाम पर गंगा की अविरलता और निर्मलता के साथ समझौतावादी रवैया रखकर, उसे नष्ट कर देने की प्रवृत्ति हमारी बुद्धिमता होगी? अगर हम नदियों से छेड़-छाड़ बंद कर दे तो नदियाॅं खुद-व-खुद एक-दो साल में ही अपने आप साफ कर लेती हैं। बस हमें बिगाड़ने वाले काम बंद करने होंगें। 

अत्याधिक पर्यटन विकास के चलते हमें ज्यादा बिजली, होटल, सड़क, परिवहन चाहिए और इन सबों से गंगा एंव हिमालय की नाजुक पारिस्थितकी तंत्र पर बहुत ही विपरीत प्रभाव पडे़गा, जिसकी भरपाई हम राजस्व-लाभ से कभी नहीं कर सकते हैं। सदियों से बहती हुई, अथाह प्रेरणा- स्त्रोत गंग-धारा की गरिमा एंव पवित्रता को क्या हम केवल पैसे से माप सकते हैं? नदियाॅं हमारी सृश्टि के रचना चिन्ह हैं- लाखों-हजारो  साल पुरानी। गंगा नदी उतनी ही प्राचीन है जितनी वह भूमि, जिसे वह सींचती है। इन्हें जोड़-तोड़ कर हम इन्हें बिगाड़ने का काम कर सकते हैं-सवाॅंरने का नहीं। 

मैं कोई नई बात नहीं कहूॅंगा न ही कोई विस्तृत आंकड़े पेश करुॅंगा। मैं समय और समाज की समस्याओं, वास्तविकताओं, द्वन्द और आकाॅंक्षाओं से जुड़ा इंसान हूॅं। मैं गंगा जी को अविरल और निर्मल अपने जीवन काल में देखना चाहता हूॅं। पिछले दस वर्षो में मैंने कई नदी या़त्राएॅं की गंगा यमुना और गोमती जैसी नदियों की यशोगाथा व संस्कृति को समझने का प्रयास किया। भारत से बाहर की कुछ प्रमुख नदियों को भी समझने का मौका मिला -फ्राॅस की सीन, इग्लैंड की टेम्स, यूरोप की डेन्यूब, अमेरिका की पोटोमेक, मिशिगन, कोलोराडो, हडसन, आदि नदियों को देखने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुॅंचा हूॅं कि भारत की नदियाॅं पिछले 50 सालों में संपन्न्ता विहीन हो गयी हैं। 

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भारत की सभी नदियाॅं प्रदूषण ,शोषण, और अतिक्रमण से पीडि़त हैं। वर्ष 2020 तक गंगा को निर्मल करने की घोषणा हमने कर रखी है। जब तक गंगा जल गोमुख से गंगा सागर तक गंगा में नही बहेगा तब तक गंगा कैसे निर्मल होगी ? समग्र गंगा से गंगत्व का संरक्षण तथा इसमेें निर्मल  धारा को प्रवाहमय बनाये रखने का अभियान है।

यह बड़े दुख की बात है कि बांधो और टनलो से निकलकर हमारी गंगा अब वही गंगा नहीं रह गयी है। वह गंगा जो भारत की सभ्यता को हजारों वर्शों से संरक्षित और पोशित कर रही है, उसी गंगा के अस्तिव की सुरक्षा महसूस की जा रही है। जो गंगा पहले अमृृत-सलिला थी, आज वह विश्व की प्रदूषित नदियों में से एक है। 

माॅं गंगा की रक्षा हमारी अस्मिता की रक्षा है। कितने लोग इसे समझ पा रहे हैं ? माॅं गंगा का अविरल व निर्मल प्रवाह समग्रता में बना रहे हैं। यह बात शायद भ्रमित दृृष्टि या उपमोक्ता दृृष्टि के कारण हम सब महसूस नहीं कर पा रहे हैं - गंगा को मात्र एक भौतिक नदी समझ बैठे हैं। नदियाॅं चाहे वह गंगा हो या गंगा में मिलने वाली अन्य सहायक नदियाॅं -सभी ने पोषण और संरक्षण का कार्य किया है माॅं की तरह। यह संबंध शायद इसी भारतवर्ष के मनीषियों , ऋषियों ने अनुभुति किया। आज हम सब उसकी उपेक्षा कर रहे हैं, जबकि दूसरी ओर शेष विश्व भारत की ओर आशा की दृृष्टि से देख रहा है कि शायद सभी तरह की समस्यों का समाधान भारत ही देगा। 

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मैं यह देख रहा हूॅं कि आज के युवा वर्ग में यह सोच भीतर तक बैठ गयी है कि अब हम कुछ नहीं कर सकते हैं। समाज के हर क्षे़त्र के व्यावसायीकरण की प्रकिया में हमने अपना मानसिक और भावात्मक संतुलन बहुत हद तक खो दिया है। बहुत कुछ बे-जरूरत की चीजें हमारे लिये आज जरूरी हो गयी हैं। गंगा की अविरलता, निर्मलता या समग्रता का प्रश्न तो दूर हम व्यक्तिवादी अतिरेक से लिप्त हो कर अपने घर आस पास की गंगा या सार्वभौम दृृष्टि की ज्ञान-गंगा या वैचारिक मान्याताओं को भी दार्शनिक परिभाषा से उलझा कर विकास की नई परिभाषा गढ़ रहे हैं, जिसके मूल्य व्यक्तिवादी और निजी उपलब्धियों को महत्व देने वाले हैं। विकास की इस नई मान्यताओं के साथ गंगा विरोधी घोर-व्यक्तिवादी समाज का ही मेल खा सकता है। हमारे सामूहिक संकल्प-शक्ति में निश्चय ही ग्रहण लगा है - हम अपने सामूहिक संकल्प शक्ति से ही भारतवर्ष के इस महान गरिमामयी संस्कृृति की सूचक माॅं गंगा के अस्तित्व को धरती पर बचा सकते हैं। भारत का अस्तित्व गंगा जी के अस्तित्व से है।  गंगा जी भारत भूमि की सर्वप्रधान रक्त धमिनी हैं, जिसके धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व पर कोटि-कोटि भारतीय विश्वास करते हैं। विश्व में इतने बड़े विस्तार का कदाचित ही अन्य कोई ऐसा भूखण्ड हो जहाॅं नदियों ऐसा बाहुल्य है।

ऐसे पवि़त्र गंगा में प्रतिदिन एक अरब लीटर मल-मू़त्र और औद्यौगिक अपशिष्ट बहाये जाना पवि़त्रता के साथ आस्था को समाप्त करने की प्रकिया है। नैसर्गिक विरासत, ऋषि-मुनियों, ज्ञानी-महर्षियों की तपस्थली व कर्मभूमि, सनातन धर्म, प्राचीन दर्शन आदि हमें विरासत में मिली। गंगा जैसे नदियों ने हमारा संपोषण किया- लेकिन, भावी पीढ़ी के लिए विरासत में हम क्या छोड़ना चाहते हैं ? किस मूल्य पर विकास चाहते हैं ? आधुनिक विकास का अर्थशास़्त्र केवल भौतिक खपत से होने वाले लाभों की गणना करता है- क्या आधि-व्याधियों से जर्जर सिंथेटिक -संस्कृंित से हम अपने आपको जोड़ना चाहते हैं ? सदियों से बहती हुई, अथाह प्रेरणा-स्त्रोत गंग-धारा की गरिमा एंव पवित्रता को क्या हम केवल पैसे से माप सकते हैं ?

यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि इन बुनियादी सवालों का बिना जवाब दिये ही हमारी वर्तमान पीढ़ी, तथाकथित बुद्विजीवी और  नीति -निर्माता आदि गलत दिशा में आगे कदम रख रहे हैं। क्या विकास के नाम पर गंगा की अविरलता और निर्मलता के साथ समझौतावादी रवैया रखकर, उसे नष्ट कर देने की प्रवृत्ति हमारी बुद्धिमता होगी? यह कैसा विरोधाभास है -जो सबसे श्रद्धेय है, उसका हम सबसे ज्यादा शोषण कर रहे हैं-अपने स्वार्थ के लिये। 300 से भी अधिक बाधों की योजना बनाई गयी है गंगा और उसकी सहायक नदियों पर -लाखों, सालो में बनी नदियों को हम एक झटके के साथ बांध पर मोड़ कर या फिर नदी की नैसर्गिक क्षमता से अधिक प्रदूषित कर विरासत में मिली नदी संस्कृति को ध्वस्त करने पर तुले हैं -इसके विपरीत परंपरागत रूप से हमने नदियों का सम्मान किया  है। गंगा और गंगा जैसी नदियों का सम्मान किया है। गंगा और गंगा जैसी नदियों को धर्म और  मोक्ष का साधन माना है गंगा नदी सिर्फ एक नदी नही है वरन -एक विशाल संस्कृति की जननी है। महान नदियाॅं महान सभ्याताओं को जन्म देती हैं। मानव -विकास की समस्त महत्वपूर्ण सभ्यताएॅं किसी-न-किसी नदी के तट पर ही फली-बढ़ी हैं। मिश्र की सभ्यता का उदय नील नदी के तट पर हुआ। मेसोपोटेमिया युफरेटस एंव टिग्रिस नदियों पर पनपी। यूरोपीय सभ्यता दान्यूब नदी से उत्पन्न एंव पोषित हुई। गंगा नदी उतनी ही प्राचीन है जितनी वह भूमि, जिसे वह सींचती है।

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अगर हमारे पास पर्याप्त राजनति इच्छा शक्ति हो और हम सब ईमानदारी से, काम करें तो गंगा का निर्मल - अविरल बनाने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा -मेरे हिसाब से 7 या 8 साल में गंगा-विरोधी कार्य - कलापों को रोका जा सकता है -बशर्ते यदि सामूहिक रूप से हम सब यही चाहते हो। लेकिन बड़े खेद के साथ मुझे यह कहना पड़ता है कि आज जिस तरह गंगा के जलीय जीव वनस्पति जैसे लुप्त हो रहे हैं,उसी तरह गंगा भक्त या गंगा पु़त्र भी बड़ी मात्रा में लुप्त प्राय प्रजातियों में शामिल होते जा रहे है। 

कई प्रयासों के बाद भी गंगा का संकट अभी तक ठीक से सरकार या जनता द्वारा सम्बोधित नही किया गया है - अभी तक गंगा आन्दोलन जनमानस के चेतना से परे है। हमने नदियों के सम्मान में स्तुति गान और आरती तो खूब किये पर उसके अस्तित्व की रक्षा के लिये जरूरी कार्य को लेकर धीरे-धीरे संज्ञा शून्य व उदासीन होते गये। 

अमेरिका और भारत में नदी कार्य योजनाओं के तरीके 

 

अमेरिका

भारत

पर्यावरण संरक्षण ऐंजेसी (EPA) नदियों की सफाई व संरक्षण के लिए पूर्णतरू जिम्मेदार

ऐजेंसियों की बहुलता - पर्यावरण मंत्रालय, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड] NGRBA, NRCD आदि

दूरदर्शिता, ईमानदारी, पारदर्शिता के साथ योजनाओं का कार्यान्वयन

दोषपूर्ण नीतिया एंव योजनाओं के क्रियान्वयन में अनियमितता तथा हड़बड़ी 

सख्त कानून एंव नीति निर्धारण

कानून के अनुश्रवण में ढ़ीलापन एंव निगरानी का अभाव

कई उद्योग प्रदूषण नियंत्रण कानून की अनदेखी करने के कारण बन्द किये गये

कानून के अनुश्रवण में ढ़ीलापन एंव निगरानी का अभाव

नदी कार्य योजनाओं में श्रेष्ठ वैज्ञानिक, पर्यावरण विशेषज्ञ, योग समाजसेवियों और आम जनता का योगदान

नदियों के प्रति समाज एंव आम नागरिको की संवेदनहीनता और उदासीनता

पर्यावरण मानकों का कड़ाई से निगरानी

नागरिक निकाय एंव सरकारी संस्थानों द्वारा पर्यावरण मानकों की उपेक्षा

कुछ जरूरी ठोस कदम

  • भविष्य में बनने वाले सीवेज  ट्रीटमेंट  प्लान्ट (STP) जहाॅं तक संभव हो विकेन्द्रित हो और कम बिजली से चलने वाले हों या बिजली आपूर्ति से स्वतन्त्र हों।
  • गंगा कार्य योजना में कई गलतियों को अभी तक ठीक से नहीं समझा गया है , और हम ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने की बजाय, नई गलतियाॅं कर रहे हैं। गंगा व अन्य नदियों को बड़े-बड़े केन्द्रित  ट्रीटमेंट प्लान्ट बनाकर निर्मल नही किया जा सकता है।
  •  मांग-प्रबंधन ; डिमांड-साईड मैनेजमेंट -  हम जल संकट को कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं। याद रहे अगर हमारे बाल्टी में छेद रहे तो कितना भी पानी हमारी जरूरतो को पूरा करने के लिए हो कम ही होगा। जब तक हमारी बुनियादी व्यवहारों में बदलाव नहीं आयेगा तब तक हम नदियों से पानी दोहते रहेंगें। चाहे जल -विधुत परियोजनाओं से या नहरों के माध्यम से।
  • हिमालय क्षेत्र में जल एंव जंगल को केन्द्र में रखकर हीे पर्यटन का विकास हो न कि पारिस्थितकी को बिगाड़ने एंव राजस्व उगाही के लिए। अत्याधिक पर्यटन विकास के चलते हमें ज्यादा बिजली होटल, परिवहन चाहिए और इन सबों से गंगा एंव हिमालय की नाजुक पारिस्थितकी तंत्र पर बहुत ही विपरीत प्रभाव पडे़गा जिसकी भरपाई हम राजस्व लाभ से कभी नहीं कर सकते हैं। पर्यटन के संदर्भ में गांधी जी की यह हिदायत याद रखनी चाहिए कि धरती के पास सभी की जरूरतों के लिए पर्याप्त सामग्री है लेकिन सभी के लालच के लिए नहीं। 
  • मलजल के निष्कासन पर रोक लगाकर मल को ठोस रूप से संगहित कर, कालोनी स्तर पर हम बड़ी मात्रा में गैस का उत्पादन कर सकते है और एक निश्चित समय के बाद जैव उर्वरक को बनाने में उपयोग लाया जा सकता है। टनलिंग और लाइनिंग के द्वारा हम जमीन के अंदर बड़े सैप्टिक टैंक ;मेट्रो टनल या अंडरग्राउंड पार्किग की तर्ज पर बना सकते हैं जिनको एक निश्चित समय के बाद ; 10-15 वर्ष पर उपचारित कर लैंड टिटमेंट प्लान्ट तक जल के साथ पम्प के द्वारा सिवेज टिटमेंट प्लान्ट तक ले जाकर उसे उपचारित कर ,पुनः नदी में गिराने की प्रणाली अत्यधिक दोषपूर्ण है। यह एक बेहद खर्चीला एंव अव्यवहारिक तरीका हैं। मल को जल में मिलाकर करोड़ो लीटर शुद्ध जल व्यर्थ ही बहा दिया जाता हैं।
  • गंगा एंव उसकी सहायक नदियों की व्यापक लैंड मैपिंग एवं लैंड डिर्माकेशन करा कर नदी का भू-क्षे़त्र चिन्हित किया जाना चाहिए। इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति अशोक भूषण एंव न्यायमूर्ति अरूण टंडन की खण्डपीठ ने 20 मई 2011 को इलाहाबाद के संदर्भ में महत्वपूर्ण निर्णय दिया है कि गंगा यमुना के अधिकतम बाढ़ बिन्दू से 500 मीटर के दायरे में कोई भी निर्माण कार्य न हो। इसका पालन गंगा में मिलने वाली सभी नदियों में किया जाये। यदि कोई निर्माण कार्य जारी हो तो उसे सील कर देना चाहिए।
  • NGRB को गंगा नदी में प्रदूषण रोकने के लिए सरकार द्वारा पोषित योजनाओं और कार्यक्रमोें की सख्ती  से निगरानी करनी चाहिए। राज्य सरकारों और नगर पालिकाओं से यह उम्मीद की जा सकती है कि गंगा कार्य योंजनाओं में पारदर्शिता और ईमानदारी बरतें। 
  • गंगा का संरक्षण करने के लिए गंगा में मिलने वाली सभी नदियों पर काम करना होगा। नदी में पूरे वर्ष पर्यावरणीय बहाव एंव प्राकृतिक नालाओं में जल संरक्षण का कार्य दीर्घकालिक उपचारात्मक योजनाओं को बनाकर आम लोगों को रोजगार से जोड़ना होगा। जो नदी-नाले या प्राकृतिक तालाब बनाए गये हैं उनमेें वर्षा संचयन द्वारा चैकडेम बनाकर या अन्य तरीकों से रिचार्जिंग की व्यापक व्यवस्था करनी होगी। नदी के तटीय व पर्यावरणीय सुन्दरता को बनाने हेतु वनस्पतियों एंव प्राकृतिक जैवविविधताओं को संबधित करना होगा। व्यापक वृक्षारोपण से नदी तट को हेरिटेज पार्क बनाया जा सकता है जिससे लोग नदी से अच्छी तरह से जुड़ सकते हैं। रिवर गार्डेन में किसी तरह का कंक्रीट निर्माण न हो व प्राकृतिक जैवविविधाताओं को ध्यान रखकर ही रिवरफ्रंट बनाया जाये। 
  • किसी भी हालात मे प्राकृतिक नालाओं में नगरीय अपशिष्ट का प्रवाह न हो। आज के कई शहरी नाले एक समय में छोटी-बड़ी नदियाॅं थीं।
  • उत्तराखण्ड की जल-विधुत उत्पादन क्षमता को विस्तार देने पर एक बार फिर से विचार करना होगा। क्या हम अन्य वैकल्पिक उर्जा स्त्रोतों का व्यापक विस्तार नहीं कर सकते हैं- हमारे देश में सौर उर्जा और पवन उर्जा की अभूतपूर्व सम्भवानाएॅं हैं। हिमालय क्षेत्र में गंगा एंव इसकी सहायक नदियों पर प्रस्तावित जल विधुत परियोजनाएॅं दीर्घकालिक नुकसान की दृष्टि से सोचनीय हैं। 20-30 सालों के बाद नदी सहित हिमालय की पारिस्थितिकी तंत्र पर होने वाले नकरात्मक प्रभावों का मूल्यांकन नितांत जरूरी है।

एक ऐसी जनक्रांति जो परिवर्तन का रास्ता दिखाये

 आज हम सब विकास के परिणाम से वाकिफ हैं। हमारी सुख-सुविधाओं में भले ही वृद्धि हुई होे हमारे जंगल, तालाब, नदियाॅं, पशु-पक्षी सब त्रस्त हैं। ऐसा लगता है जैसे किसी ने हम सबों की बुद्धि को हर लिया है- सर्वसम्मति का दौर है विनाश के लिए। मैं पीछे मुड़ के देखता हूॅं तो लगता है पिछले 30-40 वर्षो में हमने अपनी विरासत, संस्कृति और प्राकृतिक संसाधनों को आधुनिकीकरण के बहाने, कहीं पीछे छोड़ दिया है। हम सभी के आवेग, अतिरेक और आक्रोश में काफी इजाफा हुआ है। बुद्धिहरण का दौर है हम सब उसके हिस्से बनते जा रहे हैं। दोहन, शोषण और अतिक्रमण की संस्कृति से हमारी सभ्यता खत्म हो जायेगी। 

नदियों की साफ-सफाई का काम हमारे अंदर की यात्रा है जो हमें परमात्मा तक पहुॅंचायेगी -मेरा विश्वास है। पवित्र लक्ष्यों को अपवित्र माध्यामों से नहीं प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए हम सबको अपने स्वार्थ छोड़कर इस पवित्र काम में सहयोग देना होगा। हमारी दृष्टि और विश्वास, इस संसार की रचना को परिभाषित करता है। हमारी गंगा और गोमती जैसे पवित्र नदियों को देखने की दृष्टि क्या है। नदियाॅं लाखों-हजारो  साल पुरानीहमारी सृष्टि की रचना चिन्ह है इन्हें जोड़-तोड़ कर हम इन्हें बिगाड़ने का काम कर रहे हैं-सवाॅंरने का नहीं। हमें ढ़ोग करने की जरूरत नहीं है। अगर हम नदियों से छेड़-छाड़ बंद कर दे तो नदियाॅं खुद-व-खुद एक साल में ही अपने आप को साफ कर लेगीं। बस हमें बिगाड़ने वाले काम बंद करने होंगें। 

अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा जैसे देश नदियों को बचाने हेतु सख्त कानून बना कर सत्तर और अस्सी के दशक में ठोस उपाय किया जिसकी बदौलत आज उनकी नदियाॅं साफ-सुथरी हैं। उनकी कुछ अच्छी चीजें हमारे लिये भी अच्छी हो सकती हैं। पूरी नदी बेसिन मेें समग्रता से काम करना होगा। सरकार की चेतना इसमें लाइये, आवेग, अतिरेक और आक्रोश से नहीं बल्कि प्यार और ईमानदारी से। एक ऐसी क्रांति जो परिवर्तन का रास्ता दिखाये और आगे विराट रूप ले। इसे पिपुल्स मुवमेंट बनाने की जरूरत है- उसे करने की व्यवस्था हो- करने का आर्गनाइजेशनल स्ट््रक्चर क्या हो - रचनात्मक प्रयोग अगर सफल हुए तो उन्हें आगे बढ़ाने की व्यवस्था हो- इन सभी बातों पर हमारी सामूहिक चिंतन हो और हमारी सामूहिक भूमिका क्या हो, इस पर भी कुछ ठोस समाधान आगे निकल कर आये। याद रहे कई बार शार्ट-कट्स समाधान आगे चलकर नदियों के स्वास्थ के लिए अच्छे साबित नही होंगे। 

डा0 वेंकटेष दत्ता

पर्यावरण वैज्ञानिक एवं समन्वयक, गोमती अध्यन दल

पर्यावरण विज्ञान विद्यापीठ - बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर केन्द्रिय विश्वविद्यालय, लखनऊ

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