
इस बार दिल्ली में बारिश बड़ी देर से आई, गर्मी के प्रचंड रूप, पानी की कमी और
लाचार सी दिल्ली को देख कर लगा कि यही है वो ग्लोबल वार्मिंग जिसकी चर्चा अब तक बस
सुनी ही थी. अखबारों में पढ़ा था, ब्लोग्स में लिखा था और वार्तालापों में कहा और
सुना था...पर कभी इतनी नजदीक से ग्लोबल वार्मिंग से मुलाकात करनी पड़ेगी ये तो कभी
सोचा भी नहीं था.
कल विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस था, सभी ने प्रकृति और प्रकृति के संसाधनों के
संरक्षण संवर्धन के लिए एक से बढ़कर एक सुझाव भी दिए. अच्छा लगा कि चलिए लोगों को
फ़िक्र तो है, वरना प्रकृति को मूक-बधिर समझने वालों की कमी थोड़े ही है. फिर सोचा
कि सभी ने सब कुछ तो लिखा तो मैं कहाँ से शुरुआत करूँ...!!
विचार आया कि क्यों न वो बदलाव आप लोगों के साथ साझा करूँ जो एक महानगर में
रहते हुए मैंने महसूस किया. दिल्ली जैसे बड़े शहर ने हर क्षण तरक्की करते हुए कितने
यादगार पलों को बिसरा दिया है, आइये अतीत के कुछ पन्नों को खंगालते हुए देखते
हैं.
अभी कुछ 18-20 साल पहले की ही तो बात है, जब 1 जुलाई को स्कूल खुलने पर घुटनों
तक पानी में छपाक-छपाक करते हुए स्कूल जाया करते थे और मानसूनी बादलों को आसमान
में रेस लगाते देखा करते थे. कभी कभी तो बारिश पूरा दिन नहीं रूकती थी, तब घर के
बड़े कहा करते थे कि शनिवार को लगी बारिश है, पूरा हफ्ता निकालकर जाएगी और कुछ वक्त
के लिए गर बारिश थम भी जाये तो मेंढकों और झींगुरों के तो जैसे पंख निकल जाया करते
थे...आती-जाती लाइट के बीच बस उन्हीं की आवाज तो गूंजा करती थी.
कितना कुछ बदल गया दिल्ली में इन कुछ ही वर्षों में...अब बारिश लम्बे इंतजार के बाद आती तो है पर
ठहरती नहीं है और कभी कभार भूले बिसरे ठहर भी जाये ना तो बारिश के नन्हें मेहमानों
की आवाज अब सुनाई नहीं देती. सुना है कि ग्लोबल वार्मिंग ने मेंढकों, तितलियों, चिड़ियाओं, झींगुरों आदि को दुर्लभ की
केटेगरी में डाल दिया है.

हां हम दिल्लीवासी अब और ज्यादा आधुनिक जरूर हो गए हैं, घर घर एयर कंडीशनर है,
थोड़ी दूर भी जाना हो तो अपनी कारें है, नहीं तो मेट्रो है, एयर कंडीशनर युक्त
डीटीसी बसें हैं, समय पर पानी-बिजली आती ही है....अब दिल्ली के हर छोर पर
अत्याधुनिक मॉल हैं, उनमें भी वातानुकूलित सुविधाओं की कोई कमी नहीं. कुल मिलाकर
देखा जाये तो थ्री इडियट मूवी की तरह यहाँ सभी आल इज़ वेल है.
पर बदलाव बस यहीं तक तो नहीं रुका, पहले यमुना के पुल से गुजरने पर लहराती
यमुना के सामने मां हाथ जोड़ने को कहा करती थी, हाथ जुड़ना तो बदस्तूर आज भी जारी है
पर उसके साथ साथ अब नाक भी बंद करना पड़ता है.
बदलाव जो आ गया है, पहले नदी थी अब नाला है..वजीराबाद पुल से देखें तो यमुना
के एक ओर से नाला आकर मिलता है और दूसरी ओर से कारखानों का झाग भरा दूषित जहर. जब जुलाई-अगस्त में हथिनी कुंड बैराज से पानी छोड़ा जाता है, तब लगता है कि अच्छा ये यमुना है....
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एक बदलाव और आया है, पहले घरों के आस पास बड़े बड़े पेड़ थे. खुद अपनी लोकेलिटी
की बात करूँ तो 8-10 बड़े नीम, गुलर, पीपल, बरगद जैसे तमाम पेड़ अपनी छाया में हम
बच्चों को लेकर खेला करते थे, बड़े लोगों की राजनीतिक चर्चा में भी भागीदारी किया
करते थे और तो और तीज के झूलों से भी ये सभी गुलजार रहते थे...पर थे, हैं नहीं...
बदलाव जो आ गया है, चार मंजिला मकान बनाने की एवज में इन वर्षों पुराने
वृक्षों को बलिदान देना पड़ा. अब बस एक ही पेड़ यहां शेष बचा है तो दिल्ली के अन्य
हिस्सों की कहानी क्या अलग होगी? 10,000 प्रति मंजिल के हिसाब से वार्षिक 36 लाख
कमाने के आगे एक वृक्ष द्वारा दी जा रही वार्षिक 30 लाख की ऑक्सीजन की वैल्यू कहीं
पीछे रह गयी. घाटे का सौदा हम बड़े शहर वाले नहीं करते..यह तो बस सीधे-सादे ग्रामीण किसानों
का ही स्वाभाव है.
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अच्छा पहले ना बिजली बहुत नखरे करती थी, जब मन में आता तब चली जाया करती थी और
घंटों रूठने के बाद जब अचानक आती तो पूरे माहौल में अजीब सी खुशहाली छा जाती...मॉल
कल्चर भी कोई अधिक नहीं था, बस जरूरत पड़ने पर लोकल मार्केट से ही सब कुछ खरीद लिया
जाता था और घुमने फिरने के लिए अपना अप्पू घर, चिड़िया घर, लाल किला, कुतुबमीनार
वगैरह मौजूद थे ही. जीवन में परम्पराएं थी, सादगी थी और सबसे बड़ी बात सहनशीलता
बहुत थी..पर अब नहीं है.
सब कुछ बदल जो गया है, अब बिजली लगातार आती है...जाती भी है तो मैसेज ड्राप
करके. यानि खुली आज़ादी है, कितनी भी बिजली प्रयोग क्यों न की जाये...और जबसे हम
बड़े शहर वालों के आय स्त्रोत बढ़े हैं, हमारे घर में बिजली उपकरणों की संख्या में
भी जबर्दस्त इजाफ़ा हुआ है और साथ ही बढ़ी है बिजली की अंधाधुंध खपत भी.

साथ ही अब वीकेंड का
पर्याय ही मॉल कल्चर बन चुका है, व्यर्थ की खरीददारी, घुमना फिरना, महंगे मोबाइल
फोन रखने का शौक हमारी नई परम्पराओं में शामिल है. शो ऑफ अब बस शब्द नहीं बल्कि
बड़े शहरवासियों के लिए स्टेटस सिंबल का नया अर्थ बन चुका है.

शब्दों को अच्छे से निचोड़ कर सार निकाला जाये तो हमारी दिल्ली ने विकास हद से
ज्यादा किया है पर सब आल इज वेल करने की चाहत ने हमारे बहुत से प्रकृति मित्रों यानि
बारिश, वनस्पति, हरियाली, जीवों, नदियों आदि को हमसे जुदा कर दिया..वो भी इस कदर
कि हम अंदाजा भी नहीं लगा पाए.
मौसम रूठा तो चिड़िया, तितली, मेंढक, झींगुरों जैसे प्यारे दोस्त भी नर्सरी
राइम की किताबों तक सिमट गए और हम दिल्लीवासी सरकार को कोसते रह गए. अपनी जीवनशैली
को परफेक्ट बनाने की चाह ने बचपन की कितनी खुबसूरत यादों को हमसे छीन लिया है..
...आप यकीन करें या नहीं बारिश की बूंदों के बीच मां के हाथ के बने पकौड़े और
घर में लगी प्राकृतिक तुलसी वाली चाय का मुकाबला स्विगी या ज़ोमेटो से आर्डर कर मंगाए महंगे
रेस्टोरेंट के मेन्यु में नहीं..!
....बारिश में भागते हुए बादलों और पौधों पर मंडराती तितलियों..झींगुरों की
आवाज से आप अपने बच्चों का परिचय मात्र अपने होम थिएटर में नहीं करा सकते हैं..!
....यकीन मानिये शान से लहराती यमुना बेहद खुबसूरत लगती है, मैंने देखा है,
नमन किया है. पर भावी पीढ़ी को यमुना की वह भव्यता हम कैसे दिखा पाएंगे यह सोच भी मुझे परेशान कर देती है..!
....महीने में दर्जनों बार ऑनलाइन शॉपिंग करने या मॉल से ब्रांडेड समान खरीद
कर उपयोग करने के बावजूद भी वो ख़ुशी और अपनत्व नहीं मिल पाता, जो पहले पापा की लाई
छोटी सी खिलौना गुडिया से मिल जाता था..!
पहले सुविधाएं थोड़ी थी, पर उन्हीं में संतुष्ट रहकर खुश हो जाने का दस्तूर
अधिक था. लेकिन विदेशी तर्ज पर चलने के लिए आज प्रकृति से कितना कुछ छीन बैठे हैं
हम, इसका एहसास कहीं न कहीं हम सभी को है. विकास कब विनाश बन गया हम समझ ही नहीं
पाए...एक महानगरवासी होने के नाते प्रकृति की ओर हमारे दायित्त्व कहीं अधिक होने
चाहिए क्योंकि हमारे उपयोग के लिए ही प्राकृतिक संसाधनों जमीन, जल, जंगल, वायु पर
अनावश्यक दबाव पड़ता है.
कुछ खास मत कीजिये बस प्रकृति से प्रेम कीजिये, उसके मर्म को, अनकहे को समझने
का प्रयास कीजिये...मेरे शब्दों पर न जाते हुए आप स्वयं एक छोटा सा प्रयास प्रकृति
को बेहतर महसूस कराने के लिए कीजिये और भरोसा कीजिये कि आप एक दिन इसके लिए खुद को
ही धन्यवाद करेंगे. वृक्ष लगायें, बिजली-पानी बचाएँ, नदियों को संवारें या किसी
पर्यावरण संवर्धन अभियान का हिस्सा बनें....
तभी शायद प्रकृति भी बूंदों के रूप में
हौले से कह पाएगी “आल इज़ वेल”.
By
Deepika Chaudhary 72
इस बार दिल्ली में बारिश बड़ी देर से आई, गर्मी के प्रचंड रूप, पानी की कमी और लाचार सी दिल्ली को देख कर लगा कि यही है वो ग्लोबल वार्मिंग जिसकी चर्चा अब तक बस सुनी ही थी. अखबारों में पढ़ा था, ब्लोग्स में लिखा था और वार्तालापों में कहा और सुना था...पर कभी इतनी नजदीक से ग्लोबल वार्मिंग से मुलाकात करनी पड़ेगी ये तो कभी सोचा भी नहीं था.
कल विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस था, सभी ने प्रकृति और प्रकृति के संसाधनों के संरक्षण संवर्धन के लिए एक से बढ़कर एक सुझाव भी दिए. अच्छा लगा कि चलिए लोगों को फ़िक्र तो है, वरना प्रकृति को मूक-बधिर समझने वालों की कमी थोड़े ही है. फिर सोचा कि सभी ने सब कुछ तो लिखा तो मैं कहाँ से शुरुआत करूँ...!!
विचार आया कि क्यों न वो बदलाव आप लोगों के साथ साझा करूँ जो एक महानगर में रहते हुए मैंने महसूस किया. दिल्ली जैसे बड़े शहर ने हर क्षण तरक्की करते हुए कितने यादगार पलों को बिसरा दिया है, आइये अतीत के कुछ पन्नों को खंगालते हुए देखते हैं.
अभी कुछ 18-20 साल पहले की ही तो बात है, जब 1 जुलाई को स्कूल खुलने पर घुटनों तक पानी में छपाक-छपाक करते हुए स्कूल जाया करते थे और मानसूनी बादलों को आसमान में रेस लगाते देखा करते थे. कभी कभी तो बारिश पूरा दिन नहीं रूकती थी, तब घर के बड़े कहा करते थे कि शनिवार को लगी बारिश है, पूरा हफ्ता निकालकर जाएगी और कुछ वक्त के लिए गर बारिश थम भी जाये तो मेंढकों और झींगुरों के तो जैसे पंख निकल जाया करते थे...आती-जाती लाइट के बीच बस उन्हीं की आवाज तो गूंजा करती थी.
हां हम दिल्लीवासी अब और ज्यादा आधुनिक जरूर हो गए हैं, घर घर एयर कंडीशनर है, थोड़ी दूर भी जाना हो तो अपनी कारें है, नहीं तो मेट्रो है, एयर कंडीशनर युक्त डीटीसी बसें हैं, समय पर पानी-बिजली आती ही है....अब दिल्ली के हर छोर पर अत्याधुनिक मॉल हैं, उनमें भी वातानुकूलित सुविधाओं की कोई कमी नहीं. कुल मिलाकर देखा जाये तो थ्री इडियट मूवी की तरह यहाँ सभी आल इज़ वेल है.
पर बदलाव बस यहीं तक तो नहीं रुका, पहले यमुना के पुल से गुजरने पर लहराती यमुना के सामने मां हाथ जोड़ने को कहा करती थी, हाथ जुड़ना तो बदस्तूर आज भी जारी है पर उसके साथ साथ अब नाक भी बंद करना पड़ता है.
एक बदलाव और आया है, पहले घरों के आस पास बड़े बड़े पेड़ थे. खुद अपनी लोकेलिटी की बात करूँ तो 8-10 बड़े नीम, गुलर, पीपल, बरगद जैसे तमाम पेड़ अपनी छाया में हम बच्चों को लेकर खेला करते थे, बड़े लोगों की राजनीतिक चर्चा में भी भागीदारी किया करते थे और तो और तीज के झूलों से भी ये सभी गुलजार रहते थे...पर थे, हैं नहीं...
अच्छा पहले ना बिजली बहुत नखरे करती थी, जब मन में आता तब चली जाया करती थी और घंटों रूठने के बाद जब अचानक आती तो पूरे माहौल में अजीब सी खुशहाली छा जाती...मॉल कल्चर भी कोई अधिक नहीं था, बस जरूरत पड़ने पर लोकल मार्केट से ही सब कुछ खरीद लिया जाता था और घुमने फिरने के लिए अपना अप्पू घर, चिड़िया घर, लाल किला, कुतुबमीनार वगैरह मौजूद थे ही. जीवन में परम्पराएं थी, सादगी थी और सबसे बड़ी बात सहनशीलता बहुत थी..पर अब नहीं है.
साथ ही अब वीकेंड का पर्याय ही मॉल कल्चर बन चुका है, व्यर्थ की खरीददारी, घुमना फिरना, महंगे मोबाइल फोन रखने का शौक हमारी नई परम्पराओं में शामिल है. शो ऑफ अब बस शब्द नहीं बल्कि बड़े शहरवासियों के लिए स्टेटस सिंबल का नया अर्थ बन चुका है.
शब्दों को अच्छे से निचोड़ कर सार निकाला जाये तो हमारी दिल्ली ने विकास हद से ज्यादा किया है पर सब आल इज वेल करने की चाहत ने हमारे बहुत से प्रकृति मित्रों यानि बारिश, वनस्पति, हरियाली, जीवों, नदियों आदि को हमसे जुदा कर दिया..वो भी इस कदर कि हम अंदाजा भी नहीं लगा पाए.
...आप यकीन करें या नहीं बारिश की बूंदों के बीच मां के हाथ के बने पकौड़े और घर में लगी प्राकृतिक तुलसी वाली चाय का मुकाबला स्विगी या ज़ोमेटो से आर्डर कर मंगाए महंगे रेस्टोरेंट के मेन्यु में नहीं..!
....बारिश में भागते हुए बादलों और पौधों पर मंडराती तितलियों..झींगुरों की आवाज से आप अपने बच्चों का परिचय मात्र अपने होम थिएटर में नहीं करा सकते हैं..!
....यकीन मानिये शान से लहराती यमुना बेहद खुबसूरत लगती है, मैंने देखा है, नमन किया है. पर भावी पीढ़ी को यमुना की वह भव्यता हम कैसे दिखा पाएंगे यह सोच भी मुझे परेशान कर देती है..!
....महीने में दर्जनों बार ऑनलाइन शॉपिंग करने या मॉल से ब्रांडेड समान खरीद कर उपयोग करने के बावजूद भी वो ख़ुशी और अपनत्व नहीं मिल पाता, जो पहले पापा की लाई छोटी सी खिलौना गुडिया से मिल जाता था..!
कुछ खास मत कीजिये बस प्रकृति से प्रेम कीजिये, उसके मर्म को, अनकहे को समझने का प्रयास कीजिये...मेरे शब्दों पर न जाते हुए आप स्वयं एक छोटा सा प्रयास प्रकृति को बेहतर महसूस कराने के लिए कीजिये और भरोसा कीजिये कि आप एक दिन इसके लिए खुद को ही धन्यवाद करेंगे. वृक्ष लगायें, बिजली-पानी बचाएँ, नदियों को संवारें या किसी पर्यावरण संवर्धन अभियान का हिस्सा बनें....
तभी शायद प्रकृति भी बूंदों के रूप में हौले से कह पाएगी “आल इज़ वेल”.