जब दिमाग और दुनिया...दोनों का पारा चढ़ रहा हो, खुशियों की हरियाली घट रही हो और मन का रेगिस्तान बढ़ रहा हो तो किसी को आइना भी झूठ लग सकता है। किन्तु सच यह है कि आइना झूठ नहीं बोलता। कहते हैं कि किताबें वक्त का आइना होती हैं। किन्तु दूसरी ओर अनुभव कहता है कि ज़मीनी हक़ीक़त जानने के लिए राइटर्स से ज्यादा प्रेक्टिशनर्स पर यकीन किया जाना चाहिए। इस वर्ष - 2022 के ऐसे वैश्विक माहौल में एक ऐसी भारतीय किताब का आना बेहद अहम् है, जिसे लिखने वाले वे हैं, जिन्होने जंगली जीवों की संवेदनाओं व उनसे इंसानी रिश्तों को खुद जिया है; जिसके एडीटर व राइटर्स पर उनका अनुभवी प्रेक्टिशनर हावी है। किताब के संपादक - मनोज कुमार मिश्र, खुद एक वरिष्ठ वन अधिकारी रहे हैं। अनुभव ने उन्हें अब वाया 'यमुना जिये अभियान' और 'इंडिया रिवर वीक', भारत की नदियां संजोने के काम में लगा दिया है।
वाइल्डलाइफ इंडिया@50 - बीते 50 साला अनुभवों से सीखकर, आगे 50 साल बाद वर्ष-2072 की सुन्दर-सजीव भविष्यरेखा गढ़ने की चाहत में लिखी गई एक किताब है; गै़र हिंदी पट्टी से ज्यादा, हिंदी पट्टी के जंगली जीवों व उनसे रिश्तों के दास्ताने कहता दिलचस्प, किन्तु एक संजीदा दस्तावेज़। रूपा पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित यह किताब भले ही अंग्रेजी में लिखी गई है, किन्तु इसका दिल हिंदोस्तानी ही है। भाषा सरल है और अंदाज़ किस्सागोई। यह इस अंदाज़ की ही ताक़त है कि इस किताब में जीव व्यवहार, विज्ञान, क़ानून और समाज संबंधी गूढ़ से गूढ़ तथ्य को पढ़ते वक्त भी मैं बोर नहीं हुआ।
वाइल्डलाइफ इंडिया@ 50 नामक इस ताज़ा किताब की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह खुद भारत के जंगल, जंगली जीव, जंगलात, इंसानी आबादी, वर्तमान क़ानून और हमारे व्यवहार पर खुली बहस का मंच बनने को तैयार है। यह किताब हवा, चिड़िया व जीवों द्वारा खुद बिखेरे बीजों, छोटी वनस्पतियों, मिट्टी व जल स्त्रोत जैसे जंगल व जंगली जीवों को पुष्ट व प्रभावित करने विभिन्न आयामों को उतने विस्तारित व प्रभावी ढंग से नहीं रख पाई है; बावजूद इसके 517 पेजी इस किताब के कुल 35 लेखकों में शामिल नामी-गिरामी वैज्ञानिक, पत्रकार, अध्ययकर्ता, स्वयंसेवी, लड़ाके और आई ए एस व आई एफ एस अधिकारियों की तारीफ की जानी चाहिए। सुरेश चन्द्र शर्मा, हरभजन सिंह पांवला, विनोद कुमार उनियाल, सुधा रमन, कौस्तुभ शर्मा, सुहास, फैय्याज़ अहमद खुदसर, ऋत्विक दत्ता व प्रेरणा सिंह बिन्द्रा से लेकर ईशान कुकरेती तक। तारीफ इसलिए कि लेखकों ने अपनी कलमकारी से खुद ही खुद के अधिकारिक तौर-तरीकों को आइना दिखाया है। ऐसा ही दिखाया एक आइना शिकार और पर्यटन को लेकर है।
शिकार और पर्यटन: जंगल के दोस्त या दुश्मन ?
पर्यावरणविदों की यह धारणा जगजाहिर है कि जंगली जीवों के शिकार से जंगल को नुक़सान होता है। जंगलों को पर्यटन के लिए खोलने से भी जंगल की शांति और समृद्धि से छेड़छाड़ के अवसर बढ़ जाते हैं। इसी धारणा के कारण कभी कौटिल्य के अर्थशास्त्र ने 'हस्ती वनों' की बात कही। सामुदायिक संरक्षण की परम्परा के तहत् तय 'देवबणी' का मंतव्य भी तो यही था। मद्रास हाथी संरक्षण क़ानून - 1873 को लागू करने के पीछे का कारण यही धारणा थी। यह बात और है कि अंग्रेजी हुकूमत के इस दौर तक भी शिकार करने वालों को इनाम से नवाजे जाने की रस्म कायम थी। इसी धारणा के चलते हमने अब तक कई जंगली इलाकों को आरक्षित वन क्षेत्र का दर्जा दिया है। भारत में जंगलों को जंगलात (वन विभाग) द्वारा नियंत्रित करने के पीछे का तर्क भी यही है।
वनोपज व वन पर्यटन के बहाने जंगल और जीवों का ही शिकार न हो जाए; इसे नियंत्रित करने के लिए हर राज्य में अलग-अलग वन निगम बनाए गये हैं। इंसानी आबादी को जंगल के लिए नुक़सानदेह मानते हुए ही हमारी सरकारों ने अब तक न जाने कितनी परम्परागत् बसावटों को जंगल से बाहर कर दिया है। जंगल में पर्यटन को भी एक सीमा तक ही खोला गया है। जंगली जीवों के शिकार और व्यापार से अर्जित सम्पति को जब्त किए जाने का प्रावधान किया गया है। किन्तु क्या ये धारणा और इसे पोषित करने वाले तमाम क़ानून और व्यवस्थायें सही हैं?
जंगलात का एक रिटायर्ड आला अफसर ऐसा भी है कि जो इस धारणा को बेझिझक खारिज करता है। आखिरकार क्यों? क्या शिकार पर रोक...जंगल और जंगली आबादी के हितों का वाकई अनादर है? वह आला अफसर कौन है? अनुभव क्या कहते हैं? वह किस तरह के शिकार के हिमायती हैं? ये सवाल कितने वाजिब हैं, कितने फिजूल? वाइल्डलाइफ इंडिया@ 50 पढ़िए; तब तय कीजिए।
जंगल में इंसानी बसावट : उचित या अनुचित?
राजनीतिक गलियारों से लेकर समाज की पर्यावरण मंचों पर यह सवाल आए दिन उठता रहता है। आज के समय में समाज के सहयोग बिना जंगल सुरक्षा की कल्पना कितनी व्यावहारिक है? जंगल के आसपास की आबादी ग़रीब हो तो जंगल भी गरीब ही होगा। जंगल के समृद्ध होने के लिए ज़रूरी है कि आसपास की आबादी आर्थिक व मानसिक रूप से समृद्ध व शुभ हो। यह तर्क कितना सही है? एक अन्य आला अफसर के अनुभव, जंगली जीवों के साथ इंसानी साहचर्य को नुक़सानदेह मानने से इंकार करते हैं। मत यह है कि क़ानून, किताबों में हैं। उन्हे ज़मीन पर उतारना है तो क़ानून और जंगल के बीच में इंसानी मन के पुल का बनना और बने रहना ज़रूरी है। यह किताब, इस पर विमर्श का मौका देती है।
सुधार की ज़रूरत : वन क़ानूनों में अथवा व्यवहार में?
यह सवाल हम उठाते ही हैं कि यदि क़ानून हैं; लागू करने के लिए हर स्तर पर जंगलात का अमला है तो फिर भारतीय जंगलों की समृद्धि घटती क्यों जा रही है? जंगलात की सीमा क्या है और सामर्थ्य क्या? जंगलात अपने स्तर पर कार्रवाई तो शुरु कर सकते हैं, लेकिन क़ानूनी संज्ञान लेने के लिए पुलिस पर निर्भर हैं। क्या जंगलात को मिले अधिकारों में वाकई कोई कमी है? दिलचस्प है कि जैसे लकड़ी, फल को वनोत्पाद माना जाता है, वैसे ही बाघ, शेर, नेवले को भी। जो सजा लकड़ी काटने व सूखी पत्तियों को नष्ट करने पर है, वही बाघ को क्षति पहुंचाने पर भी; अधिकतम छह महीने की जेल या पांच सौ रुपए जुर्माना अथवा दोनो। क्या यह सही है? जंगल सीमा के कितने किलोमीटर के दायरे में किसी व्यक्ति को हथियार का नया लाइसेंस नहीं दिया जा सकता? क्या हम घरेलू मवेशियों के जंगल प्रवेश की रोक पर सवाल उठायें? ओपन सीजन और क्लोज्ड सीजन का मसला क्या है? यह कितना उपयोगी है? जानवर और पक्षी का संरक्षण केन्द्र सूची का विषय है या राज्य सूची का? यह अलग जानकारी की बात है, किन्तु यहां तो राज्यों का रवैये पर ही सवाल है। क्या भारत के वन क़ानूनों व संबद्ध पक्षों के रवैये तो बदल डालने की ज़रूरत है?? क्या राजनीतिज्ञों व सिविल सेवा अफसरशाही द्वारा जंगलात के अफसरों को तवज्जो न देना भी एक कारण है?
ऐसे जिज्ञासा प्रश्नों के उत्तर में किताब वाइल्डलाइफ इंडिया@ 50 विरोधाभासों की ओर इशारा करने से नहीं चूकती। ऐसे विरोधाभासों पर सोच विकसित करने के लिए हमें किताब के अखिरी दो अध्यायों तक जाना होगा। बदलते मौसम के वर्तमान दौर और फिर अगले 50 साल बाद के आइने को सामने रखकर वन्यजीव संरक्षक क़ानूनों में बदलाव व उन्हे लागू करने की कैसी सोच व व्यवस्था की ज़रूरत है? निवेदिता खांडेकर और नेहा सिन्हा इसे लेकर ’क्रिस्टल क्लियर’ हैं। संभव है कि किताब के आखिरी पन्नों पर छपे दो लेख, पाठकों को चिंतन के प्रथम पायदान पर ले जायें। पुस्तक का मुख्य विचार बिन्दु भी यही है: सेविंग द वाइल्ड, स्क्यिुरिंग द फ्युचर।
समग्र दृष्टिकोण, संजीदा प्रयास: क्यों ज़रूरी?
जंगलात खुद लकड़ी आदि वनोपज का व्यापार करता है। अवैध कारोबार होने की खबरें भी आए दिन आती ही हैं। लेकिन जंगलात, जंगली जीवन आधारित चीजों के उद्योग नहीं लगाना चाहता। क्यों? लगाना उचित होगा या अनुचित? जंगल में परमिट सिस्टम क्या है? कितना उपयोगी है?? दस्तावेज़ीकरण की तक़नीकें और महत्व। जंगल को व्यापारिक निगाहों से बचाने के लिए क्या सूचना प्रौद्यागिकी को बेहतर इस्तेमाल करने की ज़रूरत है अथवा सूचना प्रौद्यागिकी क़ानूनों में किस तरह का बदलाव करना चाहिए? व्यापार से जुड़े जंगल चुनौतियों से पार पाने में प्रवर्तन निदेशालय की भूमिका क्या है? क्या वह उसे पूरी ईमानदारी और क्षमता के साथ वाकई निभा रहा है? जंगल के प्रति हमारा नज़रिया व्यापारिक से वापस संरक्षा सुलभ कैसे बने? जंगल के भविष्य की संभावनायें और ज़रूरतें क्या हैं?
पावलगढ़ रिजर्व के पर्यटन और सबरीमाला के तीर्थ का फर्क बताते हैं कि जंगलों को राजमार्ग नहीं, पगडंडियां पसन्द हैं। यह जानकर भी यदि हम वन क्षेत्रों में एक्सप्रेस-वे बनाते गए तो फिर 2072 के भारत जंगलों की तसवीर वह नहीं हो सकती, जो खुद हम इंसानों की सेहत, अर्थिकी और रोज़गार के लिए भी ज़रूरी है। हमें समझना ही होगा कि जंगल को अलग-थलग अंग की तरह नहीं, सम्पूर्ण प्रकृति के संग समग्रता से देखे बगैर श्रेष्ठ प्रबंधन असंभव है।
भारत के जंगल व जंगल विभाग - 1991 का आर्थिक उदारीकरण से पहले और उदारीकरण के बाद। कछुआ गति के वन सुधार और डॉ रंजीत सिंह, एस. पी. गोदरेज के लिए पहले क्या - जंगल या निजी दोस्त?? पहला पक्षी महोत्सव। जंगल का व्यापारिक कनेक्शन। देशी और विदेशी व्यापार। चिड़ियाघरों की दुनिया चलाना कितना चुनौतीपूर्ण है? चिड़ियाघरों को कोई मनोरंजक और पोषक मान सकता है तो कोई शोषक। किताब में जंगल व जंगली जीवों के प्रति इंदिरा गांधी और मेनका गांधी की शासकीय प्रतिबद्धता के दर्शन भी हैं तो बतौर पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावेड़कर राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड के दायित्व बोध को नष्ट करते हुए खुश होने का ट्वीट भी; वनों के प्रति बतौर प्रधानमंत्री देवेगौड़ा और आई के गुजराल जी का सुप्त भाव भी।
ऐसे अनेक तथ्य, विश्लेषण, और लीक को चुनौती देते सवालों व सुझावों को समेटे वाइल्डलाइफ इंडिया@ 50 नामक यह किताब हमारी लोकप्रतिनिधि सभाओं, सरकार, अफसरशाही व नागरिकों को हमारे जंगलों और उनकी परिस्थितिकी को लेकर कुछ बेहतर सोचने व संजीदा होने के लिए चेताने की सामर्थ्य रखती है।
भारत आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। क्या हमारे जंगल भी आज़ाद और आनन्दित हैं? क्या हमारे पास हमारे जंगलों की भी ऐसी कोई कहानी है कि जिसकी गारंटी पर भारत के जंगल अपनी समृद्धि का गारंटी महोत्सव मना सकें? हम सोचें और चेतें।
भाग-दो: दिलचस्प एहसासों की दुनिया
वाइल्डलाइफ इंडिया@ 50 दो भागों में बंटी है। सालिम अली जैसे अप्रतिम बर्डमैन गुरु की दास्तान को ए आर रहमानी जैसे उत्कृष्ट पक्षी विज्ञानी चेले की कलम लिखा पढ़ना बेहद दिलचस्प है। मैट्रिक ड्रॉप आउट सालिम अली के वर्ल्ड फेम बर्डमैन बनने की कहानी; यहीं से शुरु होता किताब का वह दूसरा हिस्सा, जिसमें दस्तावेज़ से ज्यादा अंदाजे़-किस्सागोई है और एहसासों की एक भरी-पूरी दुनिया है।
यहां जंगल संरक्षण के नाम पर लोगों के साथ धोखे की कहानी भी है और साझे की कहानी भी। जंगल हेतु उपयोगी बूमा व ट्रैकिंग आदि तकनीकों की बातें हैं। जंगल क़ानूनों व संस्थानों के परिचय हैं। चैसिंघा, बारहसिंघा, टाइगर, कठफोड़वा की दास्ताने हैं। किताब पढ़ते हुए आप नौजवान जयेन और किशोरउम्र अनीश की जंगल गुरु प्रतिभा से रुबरु होंगे। पन्ना, कान्हा.. कई जंगल घूमने को मिलेंगे। कैमरामैन अथवा एक शोधकर्ता की आंखों से जंगल व जीवों को देखना हो तो भी और जंगलात के अफसर की ज़िन्दगी को पढ़ना हो तो भी; इस किताब को पढ़ना चाहिए। जब कोई नदी ज़िंदा होती है तो कैसे जंगल खुश होता है। जंगल से जुडे़ संगठनों के बारे में भी जानकारी मिलेगी। आप जंगल-जीव फोटोग्राफी व फिल्म निर्माण के निर्माण कार्य में धीरज व मेहनत की ज़रूरत को जान पायेंगे।
बड़ी पिक्चर
किसी रिपोर्टर द्वारा किसी जंगल पर किसी रिपोर्टर द्वारा पेश बड़ी पिक्चर का मतलब जानना हो या फिर जानना हो कि एक्टिविस्टों के संपर्क में आने से एक रिपोर्टर पर क्या प्रभाव पड़ता है; तो ऊषा राय का लिखा अध्याय अवश्य पढ़ना चाहिए - इन द वाइल्ड्स : रिपोर्टर एट लार्ज। डब्लयू डब्लयू एफ - इंडिया और देहरादून के वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट की दास्ताने गवाह हैं कि कोई इंस्टीट्यूट सिर्फ ईंट-गारा नहीं होता। इतिहास दोहराने की तुलना में भूगोल की वापसी कर पाना, कितना मुश्किल काम है? जंगल के चुम्बक और उसके सम्पर्क में आने वालों पर जंगल की आभा कितनी प्राकृतिक और निर्मल रूप में चस्पां होती है? क्रमशः शरद गौड़, विश्वास बी़ सावरकर और आऱ श्रीनिवास मूर्ति के लेख ये आभास कराने में सक्षम हैं। अरुणोदय के प्रदेश के जंगलों और लोगों के बीच टहलती-खोजती अपराजिता दत्ता के एहसास आपको सीखना सिखा सकते हैं। स्टेला जेम्स, नयना जयशंकर और भुवन बालाजी की मन्नार नेशनल पार्क डायरी के पन्ने पलटे बगैर तो पढ़ना अधूरा ही रहने वाला है; अतः ज़रूर पढ़िएगा।
बूमरेंग
जब सफलता लिखते-लिखते प्रतियोगिता सिर उठाने लगे तो क्या होता है? एक अलसुबह बोपचे की बकरियों के बाड़े में क्या हुआ? ईशान कुकरेती के किस्से में ऐसा क्या है, जो जंगल के हमारे प्रबंधन में ’बूमरेंग’ साबित हो रहा है? सोचिए कि यदि घनी शहरी आबादी में जंगली हाथी घुस आये तो आप क्या करेंगे? ग्रेट इंडियन बास्टर्ड पर संकट मंडराया तो हमने जो किया, क्या वह पर्याप्त है? राजस्थान की वन्यजीव संपदा को कौन बचा रहा है? जंगल-जीव संरक्षक चैंपियनों को आप जानना चाहेंगे ही। जंगलों की दुनिया के गै़र सरकारी प्रयासों और प्रतिष्ठानों से परिचय कराने की कोशिश को आप एक पुस्तक के ज़रिए जंगल का समग्र पेश करने की कोशिश कह सकते हैं।
रबीन्द्र के सिंह, सुमित डुकिया, ईशान धर, धमेन्द्र खंडाल, आदित्य 'डिकी' सिंह, आनन्द बैनर्जी और पुस्तक के संपादक मनोज मिश्र लिखित अध्याय पढ़कर आप खुद तय करें कि वाइल्डलाइफ इंडिया@ 50 आपके लिए कितनी उपयोगी है, कितनी अनुपयोगी?? बतौर पाठक, मैं इतना ज़रूर कह सकता हूं कि वन संबंधी नीति, प्रबंधन, अध्ययन व लेखन से जुडे़ लोगों को यह किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए।
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By Arun Tiwari {{descmodel.currdesc.readstats }}
जब दिमाग और दुनिया...दोनों का पारा चढ़ रहा हो, खुशियों की हरियाली घट रही हो और मन का रेगिस्तान बढ़ रहा हो तो किसी को आइना भी झूठ लग सकता है। किन्तु सच यह है कि आइना झूठ नहीं बोलता। कहते हैं कि किताबें वक्त का आइना होती हैं। किन्तु दूसरी ओर अनुभव कहता है कि ज़मीनी हक़ीक़त जानने के लिए राइटर्स से ज्यादा प्रेक्टिशनर्स पर यकीन किया जाना चाहिए। इस वर्ष - 2022 के ऐसे वैश्विक माहौल में एक ऐसी भारतीय किताब का आना बेहद अहम् है, जिसे लिखने वाले वे हैं, जिन्होने जंगली जीवों की संवेदनाओं व उनसे इंसानी रिश्तों को खुद जिया है; जिसके एडीटर व राइटर्स पर उनका अनुभवी प्रेक्टिशनर हावी है। किताब के संपादक - मनोज कुमार मिश्र, खुद एक वरिष्ठ वन अधिकारी रहे हैं। अनुभव ने उन्हें अब वाया 'यमुना जिये अभियान' और 'इंडिया रिवर वीक', भारत की नदियां संजोने के काम में लगा दिया है।
वाइल्डलाइफ इंडिया@50 - बीते 50 साला अनुभवों से सीखकर, आगे 50 साल बाद वर्ष-2072 की सुन्दर-सजीव भविष्यरेखा गढ़ने की चाहत में लिखी गई एक किताब है; गै़र हिंदी पट्टी से ज्यादा, हिंदी पट्टी के जंगली जीवों व उनसे रिश्तों के दास्ताने कहता दिलचस्प, किन्तु एक संजीदा दस्तावेज़। रूपा पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित यह किताब भले ही अंग्रेजी में लिखी गई है, किन्तु इसका दिल हिंदोस्तानी ही है। भाषा सरल है और अंदाज़ किस्सागोई। यह इस अंदाज़ की ही ताक़त है कि इस किताब में जीव व्यवहार, विज्ञान, क़ानून और समाज संबंधी गूढ़ से गूढ़ तथ्य को पढ़ते वक्त भी मैं बोर नहीं हुआ।
वाइल्डलाइफ इंडिया@ 50 नामक इस ताज़ा किताब की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह खुद भारत के जंगल, जंगली जीव, जंगलात, इंसानी आबादी, वर्तमान क़ानून और हमारे व्यवहार पर खुली बहस का मंच बनने को तैयार है। यह किताब हवा, चिड़िया व जीवों द्वारा खुद बिखेरे बीजों, छोटी वनस्पतियों, मिट्टी व जल स्त्रोत जैसे जंगल व जंगली जीवों को पुष्ट व प्रभावित करने विभिन्न आयामों को उतने विस्तारित व प्रभावी ढंग से नहीं रख पाई है; बावजूद इसके 517 पेजी इस किताब के कुल 35 लेखकों में शामिल नामी-गिरामी वैज्ञानिक, पत्रकार, अध्ययकर्ता, स्वयंसेवी, लड़ाके और आई ए एस व आई एफ एस अधिकारियों की तारीफ की जानी चाहिए। सुरेश चन्द्र शर्मा, हरभजन सिंह पांवला, विनोद कुमार उनियाल, सुधा रमन, कौस्तुभ शर्मा, सुहास, फैय्याज़ अहमद खुदसर, ऋत्विक दत्ता व प्रेरणा सिंह बिन्द्रा से लेकर ईशान कुकरेती तक। तारीफ इसलिए कि लेखकों ने अपनी कलमकारी से खुद ही खुद के अधिकारिक तौर-तरीकों को आइना दिखाया है। ऐसा ही दिखाया एक आइना शिकार और पर्यटन को लेकर है।
शिकार और पर्यटन: जंगल के दोस्त या दुश्मन ?
पर्यावरणविदों की यह धारणा जगजाहिर है कि जंगली जीवों के शिकार से जंगल को नुक़सान होता है। जंगलों को पर्यटन के लिए खोलने से भी जंगल की शांति और समृद्धि से छेड़छाड़ के अवसर बढ़ जाते हैं। इसी धारणा के कारण कभी कौटिल्य के अर्थशास्त्र ने 'हस्ती वनों' की बात कही। सामुदायिक संरक्षण की परम्परा के तहत् तय 'देवबणी' का मंतव्य भी तो यही था। मद्रास हाथी संरक्षण क़ानून - 1873 को लागू करने के पीछे का कारण यही धारणा थी। यह बात और है कि अंग्रेजी हुकूमत के इस दौर तक भी शिकार करने वालों को इनाम से नवाजे जाने की रस्म कायम थी। इसी धारणा के चलते हमने अब तक कई जंगली इलाकों को आरक्षित वन क्षेत्र का दर्जा दिया है। भारत में जंगलों को जंगलात (वन विभाग) द्वारा नियंत्रित करने के पीछे का तर्क भी यही है।
वनोपज व वन पर्यटन के बहाने जंगल और जीवों का ही शिकार न हो जाए; इसे नियंत्रित करने के लिए हर राज्य में अलग-अलग वन निगम बनाए गये हैं। इंसानी आबादी को जंगल के लिए नुक़सानदेह मानते हुए ही हमारी सरकारों ने अब तक न जाने कितनी परम्परागत् बसावटों को जंगल से बाहर कर दिया है। जंगल में पर्यटन को भी एक सीमा तक ही खोला गया है। जंगली जीवों के शिकार और व्यापार से अर्जित सम्पति को जब्त किए जाने का प्रावधान किया गया है। किन्तु क्या ये धारणा और इसे पोषित करने वाले तमाम क़ानून और व्यवस्थायें सही हैं?
जंगलात का एक रिटायर्ड आला अफसर ऐसा भी है कि जो इस धारणा को बेझिझक खारिज करता है। आखिरकार क्यों? क्या शिकार पर रोक...जंगल और जंगली आबादी के हितों का वाकई अनादर है? वह आला अफसर कौन है? अनुभव क्या कहते हैं? वह किस तरह के शिकार के हिमायती हैं? ये सवाल कितने वाजिब हैं, कितने फिजूल? वाइल्डलाइफ इंडिया@ 50 पढ़िए; तब तय कीजिए।
जंगल में इंसानी बसावट : उचित या अनुचित?
राजनीतिक गलियारों से लेकर समाज की पर्यावरण मंचों पर यह सवाल आए दिन उठता रहता है। आज के समय में समाज के सहयोग बिना जंगल सुरक्षा की कल्पना कितनी व्यावहारिक है? जंगल के आसपास की आबादी ग़रीब हो तो जंगल भी गरीब ही होगा। जंगल के समृद्ध होने के लिए ज़रूरी है कि आसपास की आबादी आर्थिक व मानसिक रूप से समृद्ध व शुभ हो। यह तर्क कितना सही है? एक अन्य आला अफसर के अनुभव, जंगली जीवों के साथ इंसानी साहचर्य को नुक़सानदेह मानने से इंकार करते हैं। मत यह है कि क़ानून, किताबों में हैं। उन्हे ज़मीन पर उतारना है तो क़ानून और जंगल के बीच में इंसानी मन के पुल का बनना और बने रहना ज़रूरी है। यह किताब, इस पर विमर्श का मौका देती है।
सुधार की ज़रूरत : वन क़ानूनों में अथवा व्यवहार में?
यह सवाल हम उठाते ही हैं कि यदि क़ानून हैं; लागू करने के लिए हर स्तर पर जंगलात का अमला है तो फिर भारतीय जंगलों की समृद्धि घटती क्यों जा रही है? जंगलात की सीमा क्या है और सामर्थ्य क्या? जंगलात अपने स्तर पर कार्रवाई तो शुरु कर सकते हैं, लेकिन क़ानूनी संज्ञान लेने के लिए पुलिस पर निर्भर हैं। क्या जंगलात को मिले अधिकारों में वाकई कोई कमी है? दिलचस्प है कि जैसे लकड़ी, फल को वनोत्पाद माना जाता है, वैसे ही बाघ, शेर, नेवले को भी। जो सजा लकड़ी काटने व सूखी पत्तियों को नष्ट करने पर है, वही बाघ को क्षति पहुंचाने पर भी; अधिकतम छह महीने की जेल या पांच सौ रुपए जुर्माना अथवा दोनो। क्या यह सही है? जंगल सीमा के कितने किलोमीटर के दायरे में किसी व्यक्ति को हथियार का नया लाइसेंस नहीं दिया जा सकता? क्या हम घरेलू मवेशियों के जंगल प्रवेश की रोक पर सवाल उठायें? ओपन सीजन और क्लोज्ड सीजन का मसला क्या है? यह कितना उपयोगी है? जानवर और पक्षी का संरक्षण केन्द्र सूची का विषय है या राज्य सूची का? यह अलग जानकारी की बात है, किन्तु यहां तो राज्यों का रवैये पर ही सवाल है। क्या भारत के वन क़ानूनों व संबद्ध पक्षों के रवैये तो बदल डालने की ज़रूरत है?? क्या राजनीतिज्ञों व सिविल सेवा अफसरशाही द्वारा जंगलात के अफसरों को तवज्जो न देना भी एक कारण है?
ऐसे जिज्ञासा प्रश्नों के उत्तर में किताब वाइल्डलाइफ इंडिया@ 50 विरोधाभासों की ओर इशारा करने से नहीं चूकती। ऐसे विरोधाभासों पर सोच विकसित करने के लिए हमें किताब के अखिरी दो अध्यायों तक जाना होगा। बदलते मौसम के वर्तमान दौर और फिर अगले 50 साल बाद के आइने को सामने रखकर वन्यजीव संरक्षक क़ानूनों में बदलाव व उन्हे लागू करने की कैसी सोच व व्यवस्था की ज़रूरत है? निवेदिता खांडेकर और नेहा सिन्हा इसे लेकर ’क्रिस्टल क्लियर’ हैं। संभव है कि किताब के आखिरी पन्नों पर छपे दो लेख, पाठकों को चिंतन के प्रथम पायदान पर ले जायें। पुस्तक का मुख्य विचार बिन्दु भी यही है: सेविंग द वाइल्ड, स्क्यिुरिंग द फ्युचर।
समग्र दृष्टिकोण, संजीदा प्रयास: क्यों ज़रूरी?
जंगलात खुद लकड़ी आदि वनोपज का व्यापार करता है। अवैध कारोबार होने की खबरें भी आए दिन आती ही हैं। लेकिन जंगलात, जंगली जीवन आधारित चीजों के उद्योग नहीं लगाना चाहता। क्यों? लगाना उचित होगा या अनुचित? जंगल में परमिट सिस्टम क्या है? कितना उपयोगी है?? दस्तावेज़ीकरण की तक़नीकें और महत्व। जंगल को व्यापारिक निगाहों से बचाने के लिए क्या सूचना प्रौद्यागिकी को बेहतर इस्तेमाल करने की ज़रूरत है अथवा सूचना प्रौद्यागिकी क़ानूनों में किस तरह का बदलाव करना चाहिए? व्यापार से जुड़े जंगल चुनौतियों से पार पाने में प्रवर्तन निदेशालय की भूमिका क्या है? क्या वह उसे पूरी ईमानदारी और क्षमता के साथ वाकई निभा रहा है? जंगल के प्रति हमारा नज़रिया व्यापारिक से वापस संरक्षा सुलभ कैसे बने? जंगल के भविष्य की संभावनायें और ज़रूरतें क्या हैं?
पावलगढ़ रिजर्व के पर्यटन और सबरीमाला के तीर्थ का फर्क बताते हैं कि जंगलों को राजमार्ग नहीं, पगडंडियां पसन्द हैं। यह जानकर भी यदि हम वन क्षेत्रों में एक्सप्रेस-वे बनाते गए तो फिर 2072 के भारत जंगलों की तसवीर वह नहीं हो सकती, जो खुद हम इंसानों की सेहत, अर्थिकी और रोज़गार के लिए भी ज़रूरी है। हमें समझना ही होगा कि जंगल को अलग-थलग अंग की तरह नहीं, सम्पूर्ण प्रकृति के संग समग्रता से देखे बगैर श्रेष्ठ प्रबंधन असंभव है।
भारत के जंगल व जंगल विभाग - 1991 का आर्थिक उदारीकरण से पहले और उदारीकरण के बाद। कछुआ गति के वन सुधार और डॉ रंजीत सिंह, एस. पी. गोदरेज के लिए पहले क्या - जंगल या निजी दोस्त?? पहला पक्षी महोत्सव। जंगल का व्यापारिक कनेक्शन। देशी और विदेशी व्यापार। चिड़ियाघरों की दुनिया चलाना कितना चुनौतीपूर्ण है? चिड़ियाघरों को कोई मनोरंजक और पोषक मान सकता है तो कोई शोषक। किताब में जंगल व जंगली जीवों के प्रति इंदिरा गांधी और मेनका गांधी की शासकीय प्रतिबद्धता के दर्शन भी हैं तो बतौर पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावेड़कर राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड के दायित्व बोध को नष्ट करते हुए खुश होने का ट्वीट भी; वनों के प्रति बतौर प्रधानमंत्री देवेगौड़ा और आई के गुजराल जी का सुप्त भाव भी।
ऐसे अनेक तथ्य, विश्लेषण, और लीक को चुनौती देते सवालों व सुझावों को समेटे वाइल्डलाइफ इंडिया@ 50 नामक यह किताब हमारी लोकप्रतिनिधि सभाओं, सरकार, अफसरशाही व नागरिकों को हमारे जंगलों और उनकी परिस्थितिकी को लेकर कुछ बेहतर सोचने व संजीदा होने के लिए चेताने की सामर्थ्य रखती है।
भारत आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। क्या हमारे जंगल भी आज़ाद और आनन्दित हैं? क्या हमारे पास हमारे जंगलों की भी ऐसी कोई कहानी है कि जिसकी गारंटी पर भारत के जंगल अपनी समृद्धि का गारंटी महोत्सव मना सकें? हम सोचें और चेतें।
भाग-दो: दिलचस्प एहसासों की दुनिया
वाइल्डलाइफ इंडिया@ 50 दो भागों में बंटी है। सालिम अली जैसे अप्रतिम बर्डमैन गुरु की दास्तान को ए आर रहमानी जैसे उत्कृष्ट पक्षी विज्ञानी चेले की कलम लिखा पढ़ना बेहद दिलचस्प है। मैट्रिक ड्रॉप आउट सालिम अली के वर्ल्ड फेम बर्डमैन बनने की कहानी; यहीं से शुरु होता किताब का वह दूसरा हिस्सा, जिसमें दस्तावेज़ से ज्यादा अंदाजे़-किस्सागोई है और एहसासों की एक भरी-पूरी दुनिया है।
यहां जंगल संरक्षण के नाम पर लोगों के साथ धोखे की कहानी भी है और साझे की कहानी भी। जंगल हेतु उपयोगी बूमा व ट्रैकिंग आदि तकनीकों की बातें हैं। जंगल क़ानूनों व संस्थानों के परिचय हैं। चैसिंघा, बारहसिंघा, टाइगर, कठफोड़वा की दास्ताने हैं। किताब पढ़ते हुए आप नौजवान जयेन और किशोरउम्र अनीश की जंगल गुरु प्रतिभा से रुबरु होंगे। पन्ना, कान्हा.. कई जंगल घूमने को मिलेंगे। कैमरामैन अथवा एक शोधकर्ता की आंखों से जंगल व जीवों को देखना हो तो भी और जंगलात के अफसर की ज़िन्दगी को पढ़ना हो तो भी; इस किताब को पढ़ना चाहिए। जब कोई नदी ज़िंदा होती है तो कैसे जंगल खुश होता है। जंगल से जुडे़ संगठनों के बारे में भी जानकारी मिलेगी। आप जंगल-जीव फोटोग्राफी व फिल्म निर्माण के निर्माण कार्य में धीरज व मेहनत की ज़रूरत को जान पायेंगे।
बड़ी पिक्चर
किसी रिपोर्टर द्वारा किसी जंगल पर किसी रिपोर्टर द्वारा पेश बड़ी पिक्चर का मतलब जानना हो या फिर जानना हो कि एक्टिविस्टों के संपर्क में आने से एक रिपोर्टर पर क्या प्रभाव पड़ता है; तो ऊषा राय का लिखा अध्याय अवश्य पढ़ना चाहिए - इन द वाइल्ड्स : रिपोर्टर एट लार्ज। डब्लयू डब्लयू एफ - इंडिया और देहरादून के वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट की दास्ताने गवाह हैं कि कोई इंस्टीट्यूट सिर्फ ईंट-गारा नहीं होता। इतिहास दोहराने की तुलना में भूगोल की वापसी कर पाना, कितना मुश्किल काम है? जंगल के चुम्बक और उसके सम्पर्क में आने वालों पर जंगल की आभा कितनी प्राकृतिक और निर्मल रूप में चस्पां होती है? क्रमशः शरद गौड़, विश्वास बी़ सावरकर और आऱ श्रीनिवास मूर्ति के लेख ये आभास कराने में सक्षम हैं। अरुणोदय के प्रदेश के जंगलों और लोगों के बीच टहलती-खोजती अपराजिता दत्ता के एहसास आपको सीखना सिखा सकते हैं। स्टेला जेम्स, नयना जयशंकर और भुवन बालाजी की मन्नार नेशनल पार्क डायरी के पन्ने पलटे बगैर तो पढ़ना अधूरा ही रहने वाला है; अतः ज़रूर पढ़िएगा।
बूमरेंग
जब सफलता लिखते-लिखते प्रतियोगिता सिर उठाने लगे तो क्या होता है? एक अलसुबह बोपचे की बकरियों के बाड़े में क्या हुआ? ईशान कुकरेती के किस्से में ऐसा क्या है, जो जंगल के हमारे प्रबंधन में ’बूमरेंग’ साबित हो रहा है? सोचिए कि यदि घनी शहरी आबादी में जंगली हाथी घुस आये तो आप क्या करेंगे? ग्रेट इंडियन बास्टर्ड पर संकट मंडराया तो हमने जो किया, क्या वह पर्याप्त है? राजस्थान की वन्यजीव संपदा को कौन बचा रहा है? जंगल-जीव संरक्षक चैंपियनों को आप जानना चाहेंगे ही। जंगलों की दुनिया के गै़र सरकारी प्रयासों और प्रतिष्ठानों से परिचय कराने की कोशिश को आप एक पुस्तक के ज़रिए जंगल का समग्र पेश करने की कोशिश कह सकते हैं।
रबीन्द्र के सिंह, सुमित डुकिया, ईशान धर, धमेन्द्र खंडाल, आदित्य 'डिकी' सिंह, आनन्द बैनर्जी और पुस्तक के संपादक मनोज मिश्र लिखित अध्याय पढ़कर आप खुद तय करें कि वाइल्डलाइफ इंडिया@ 50 आपके लिए कितनी उपयोगी है, कितनी अनुपयोगी?? बतौर पाठक, मैं इतना ज़रूर कह सकता हूं कि वन संबंधी नीति, प्रबंधन, अध्ययन व लेखन से जुडे़ लोगों को यह किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए।
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