
महान दार्शनिक व विद्वान समाजशास्त्री अरस्तू ने कहा है कि,
समाज द्वारा सुसंस्कृत मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठतम
होता हैं, परन्तु जब वह बिना कानून तथा न्याय के जीवन
व्यतीत करता है तो वह निकृष्टतम हो जाता है। यदि कोई मनुष्य ऐसा है जो समाज में न
रह सकता हो, क्योंकि वह अपने
आप में पूर्ण है, तो उसे मानव समाज
का सदस्य मत समझो, वह जंगली जानवर
या देवता हो सकता है।
जन्म लेते ही बच्चा समाज का सदस्य बन जाता है। जन्म के समय
उसमें कुछ शारीरिक व मानसिक विशेषतायें पाई जाती है। इन शारीरिक व मानसिक
विशेषताओं का विकास सामाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा होता है। समाज से सम्बन्ध रखते
हुए धीरे-धीरे एक प्राणी सामाजिक प्राणी में परिर्वतित हो जाता है। इससे सिद्ध
होता है कि समाज प्राणी का रक्षक है, समाज मनुष्य के लिए स्वाभाविक है तथा समाज मनुष्य का
उन्नायक है। इस प्रकार एक व्यक्ति को सामाजिक प्राणी बनाने का सम्पूर्ण कार्य समाज
ही करता है।
टॉमस हॉब्स ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'लेवायथन' में लिखा है कि,
मनुष्य का मूल स्वभाव स्वार्थी और युद्व प्रिय होता हैं। प्राकृतिक अवस्था में
प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे के खून का प्यासा
होकर युद्ध में उलझा रहता हैं। प्राकृतिक अवस्था ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली अवस्था थी।
इस अवस्था में किसी भी व्यक्ति का जीवन सुरक्षित नही था, इस असुरक्षा की भावना से
बचने के लिए सभी मनुष्यों ने मिल कर समाज को जन्म दिया।
वहीं फ्रेंच दार्शनिक जीन जेकस रूसो के अनुसार-
प्राकृतिक अवस्था में मनुष्यों का जीवन सुखमय, भय रहित तथा
चिन्तारहित था। लेकिन जनसंख्या की वृद्धि और व्यक्तिगत सम्पत्ति के उदय होने के
परिणामस्वरूप स्वार्थ, युद्ध, कलह, द्वेष और
हिंसा आदि दुर्गुणों का विकास हुआ। मनुष्य जीवन जटिल और अशान्त बन गया तब मनुष्यों
ने इस अराजक व्यवस्था का अन्त करने के लिए आपस में समझौता करके समाज का निर्माण
किया।
मैकाइबर ने ठीक ही कहा है कि-"समाज सामाजिक सम्बन्धों
का जाल है।" सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना विभिन्न व्यक्तियों एवं समूहों के
बीच होती है। इस प्रकार व्यक्तियों से ही समाज बनता है और समाज में ही सम्बन्धों
का भान कराया जाता है। अतः यह स्पष्ट है कि व्यक्ति और समाज दोनों का आस्तित्व और
विकास एक दूसरे से सम्बन्ध रखता है। दीर्घकाल से समाजिक सम्बन्धों की ही वजह से
व्यक्ति आर्थिक स्तर से, सामाजिक व
साँस्कृतिक स्तर से, व्यावसायिक तथा
शैक्षणिक व धार्मिक स्तर से मजबूत होता है। समाजिक सम्बन्धों ने व्यक्ति को उसकी
पहिचान करायी तथा समाज में सर उठाकर जीने की कला सिखाई है।
शरीर तथा समाज में कई आधारों पर कोई समानता नही है। जिन तत्वों
से शरीर बनता है, उनकी तुलना व्यक्ति से नहीं की जा सकती हैं। शरीर के कोष्ठों का
कोई पृथक व्यक्तित्व इच्छा व चेतना नही होती हैं। किन्तु व्यक्ति का एक पृथक
अस्तित्व इच्छा एवं चेतना शक्ति होती हैं।
शरीर के अन्तर्गत विभिन्न अंगों का स्थान पूर्व निर्धारित
होता हैं। इसके विपरीत व्यक्ति समाज में अपने स्थान और भाग्य का स्वयं ही निर्माता
होता तथा समाज में उसका स्थान पूर्व निर्धारित नही होता हैं।
समाज के अस्तित्त्व का मुख्य तत्त्व व्यक्तियों की अनेकता
है। व्यक्तियों की अनुपस्थित में समाज का निर्माण नहीं हो सकता है। व्यक्ति को
जन्म के समय ही उसके परिवार के सदस्यों के बारे में, रिश्तों के आधार पर नाम दिया जाता है। जिससे उसकी
परिवार व समाज में पहिचान बन जाती है। जैसे- वह किसी का बेटा है, तो उसका कोई
बहन-भाई, चाचा-भतीजा, दादा-दादी, पिता-माता आदि
उससे सम्बन्धित होते हैं। आगे चलकर उसे नाते-रिश्तेदारी व परिवार, कुनबे आदि के साथ
गाँव, प्रदेश व देश के
साथ उसके सम्बन्धों के बारे में भी सम्पूर्ण जानकारी दे दी जाती है, जिसका निर्वाह
करना उसकी जिम्मेदारी है और न करने पर वह समाज व देश का हितैशी नहीं बल्कि द्रोही
माना जाता है।
समाज में वर्ण व्यवस्था जो मानव प्रकृति और व्यक्तित्व के
मौलिक अन्तर पर आधारित है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
पुराणों के अनुसार इन वर्गों की व्यवस्था समाज से सम्बन्ध रखने वाले सभी
व्यक्तियों को काम की प्राथमिकता देते हुए की गयी थी। जिससे समाज में सभी को
रोजगार मिले और उससे वह अपने परिवार का भरण-पोषण करता रहे। जैसे-कुम्हार का कार्य
मिट्टी के बर्तन देना तथा शादी विवाह के अवसरों पर हल्के कार्य करना। उसके बदले
में बर्तनों के मूल्य के बराबर अनाज, पुत्र या पुत्री
की शादी विवाह के अवसर पर अतिरिक्त अनाज दिया जाता था। हज्जाम या नाई का कार्य
समाज में सभी व्यक्तियों के बाल काटना, दाढ़ी बनाना एवं
शादी विवाह आदि जैसे अवसरों पर अन्य सेवायें देना था। उसके बदले में उसे समाज के
प्रति परिवार से फसल की कटाई पर जितना अनाज वह अकेले उठा सकता था ले सकता था तथा
शादी विवाह के अवसरों पर अतिरिक्त अनाज मिलता था। आगे चलकर यही व्यवस्था जाति
आधारित व्यवस्था के रूप में समाज में उभर कर सामने आई और जाति व्यवस्था के आधार पर
ही शादी विवाह अपनी जाति में होने लगे. इससे समाज में विघटन पर रोक लगी तथा जातियता
को प्राथमिकता देते हुए आपस में प्रेम व सौहार्द पनपा।
प्राचीन समय से भारतीय समाज की संरचना आनुवंशिक सिद्धांतों पर
ही आधारित हैं। भारतीय समाज में स्थायित्व रहा है। इस स्थायित्व का आधार सामाजिक
एवं नैतिक मूल्य थे, जिनमें शाश्वतता थी। इन्हीं मूल्यों के द्वारा एक
सुन्दर सामाजिक संरचना की गयी थी। उत्थान–पतन प्रकृति का
नियम हैं। इस नियम के अनुसार संसार का मार्गदर्शक यह समाज भी पतन की ओर अग्रसर हुआ, आकृष्ट और गुलाम
बना और अपना असली अस्तित्त्व खो बैठा। विदेशी शासन के अन्तर्गत इसकी बुराइयां
बढ़ती चली गई और हम अपने आदर्शों से दूर हटते चले गए, समाज के सदस्य आनुवांशिक
जाति समूहों में बटे हुए थे, प्रत्येक जाति का अपना परम्परागत व्यवसाय था।
हमने वर्ण, वर्ग, जाति धर्म, सम्प्रदाय, प्रांत आदि में
अनेकानेक दीवारे खडी कर दी और समानता, स्वतन्त्र न्याय
के दर्शन, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में दुर्लभ हो गए, एक लम्बी अवधि के बाद अंग्रेजी शासनकाल में
हमें यह आभास हुआ कि हम गिर चुके हैं, हम पिछड चुके
हैं तथा हमने जो प्राप्त किया था, उसे हम खो चुके हैं।
भारतीय समाज ने परिवर्तन की प्रक्रिया में कदम रखा। समाज की
सामाजिक सामाजिक संरचना में परिवर्तन का विश्लेषण करने पर हमने पाया कि समाज में
सम्बन्धों की वजह से हम विकास कर रहे हैं। जैसे–सामाजिक स्तरीकरण
की संस्थाएं और सामाजिक गातिशीलता की प्रक्रियाएं, जनसांख्यिकी
परिवर्तनों की प्रकृति और शहरीकरण एवं औद्योगीकरण के विस्तार ने शक्ति संरचना तथा
महत्वपूर्ण भूमिकाओं में परिवर्तन के रूप में पिछड़े वर्गों ने सम्बन्धों को आधार
मानकर अब राजनीति में अपनी भूमिका निभानी प्रारम्भ की है। जाति संरचना एवं
सामुदायिक संरचना में भी बहुत परिवर्तन आए तथा भारतीय समाज के ऐतिहासिक सम्बन्धों
की संरचना, इसकी पारिवारिक प्रणाली तथा विवाह एवं संबंधों के कारण
संस्थाओं में भी परिवर्तन आया। आर्थिक विकास की प्रकिया तथा नवीन मध्यम वर्ग का
प्रादुर्भाव जो कि ग्रामीण तथा शहरी दोनों क्षेत्रों में प्रवृत हुआ, समाज के
आधुनिकीकरण में उनकी भूमिका, विशेष रूप से नये व्यवसायों बैंकिंग, प्रबंधन, संचार तथा सूचना
और सेवा के अन्य क्षेत्रों में उनकी भूमिका ने सामाजिक सम्बन्धों की तरफ ध्यान
देते हुए समाज वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया।
आधुनिक भारतीय समाज कुछ मूल सिद्धान्तों पर आधारित है, जिसके द्वारा
सम्पूर्ण व्यक्तिगत जीवन तथा समूह की कियाएं प्रदर्शित होती है। वे हैं लोकतन्त्र, समाजवाद तथा धर्म
निरपेक्षता। लोकतान्त्रिक सिद्धान्त जैसे स्वतन्त्रता, समानता, दूसरों के
विचारों को देखने की सहनशक्ति, लेन-देन की इच्छा, समायोजन की
योग्यता तथा समूह के साथ कार्य करना। इसके बाद आता है, समाजवादी सिद्धान्त, जिसके
तहत धन का समान वितरण, अधिकतम उत्पादन, स्तरों और अवसरों
पर समानता के लिए आदर और फिर है धर्मनिरपेक्ष सिद्धान्त..जिसमें यह आता है कि सभी
धर्मों के लिए आदर, पूजा करने की स्वतन्त्रता तथा धर्म के संदर्भ
के विना नागरिक कार्यों को देखने तथा प्रबंध करने के लिए तत्परता। हमारे देश में
26 जनवरी, 1950 से यह व्यवस्था लागू है, जो कि एक तरह से समाज में
सम्बन्धों की ही कहानी कहता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सम्बन्धों का इतिहास
है समाज।
डॉ. धर्मेन्द्र सिंह कटियार
प्रौढ़ सतत शिक्षा एवं प्रसार विभाग
छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय,
कानपुर, उत्तर प्रदेश
By
Dr. Dharmendra Singh Katiyar 45
महान दार्शनिक व विद्वान समाजशास्त्री अरस्तू ने कहा है कि,
जन्म लेते ही बच्चा समाज का सदस्य बन जाता है। जन्म के समय उसमें कुछ शारीरिक व मानसिक विशेषतायें पाई जाती है। इन शारीरिक व मानसिक विशेषताओं का विकास सामाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा होता है। समाज से सम्बन्ध रखते हुए धीरे-धीरे एक प्राणी सामाजिक प्राणी में परिर्वतित हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि समाज प्राणी का रक्षक है, समाज मनुष्य के लिए स्वाभाविक है तथा समाज मनुष्य का उन्नायक है। इस प्रकार एक व्यक्ति को सामाजिक प्राणी बनाने का सम्पूर्ण कार्य समाज ही करता है।
टॉमस हॉब्स ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'लेवायथन' में लिखा है कि,
वहीं फ्रेंच दार्शनिक जीन जेकस रूसो के अनुसार-
मैकाइबर ने ठीक ही कहा है कि-"समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है।" सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना विभिन्न व्यक्तियों एवं समूहों के बीच होती है। इस प्रकार व्यक्तियों से ही समाज बनता है और समाज में ही सम्बन्धों का भान कराया जाता है। अतः यह स्पष्ट है कि व्यक्ति और समाज दोनों का आस्तित्व और विकास एक दूसरे से सम्बन्ध रखता है। दीर्घकाल से समाजिक सम्बन्धों की ही वजह से व्यक्ति आर्थिक स्तर से, सामाजिक व साँस्कृतिक स्तर से, व्यावसायिक तथा शैक्षणिक व धार्मिक स्तर से मजबूत होता है। समाजिक सम्बन्धों ने व्यक्ति को उसकी पहिचान करायी तथा समाज में सर उठाकर जीने की कला सिखाई है।
शरीर तथा समाज में कई आधारों पर कोई समानता नही है। जिन तत्वों से शरीर बनता है, उनकी तुलना व्यक्ति से नहीं की जा सकती हैं। शरीर के कोष्ठों का कोई पृथक व्यक्तित्व इच्छा व चेतना नही होती हैं। किन्तु व्यक्ति का एक पृथक अस्तित्व इच्छा एवं चेतना शक्ति होती हैं।
शरीर के अन्तर्गत विभिन्न अंगों का स्थान पूर्व निर्धारित होता हैं। इसके विपरीत व्यक्ति समाज में अपने स्थान और भाग्य का स्वयं ही निर्माता होता तथा समाज में उसका स्थान पूर्व निर्धारित नही होता हैं।
समाज के अस्तित्त्व का मुख्य तत्त्व व्यक्तियों की अनेकता है। व्यक्तियों की अनुपस्थित में समाज का निर्माण नहीं हो सकता है। व्यक्ति को जन्म के समय ही उसके परिवार के सदस्यों के बारे में, रिश्तों के आधार पर नाम दिया जाता है। जिससे उसकी परिवार व समाज में पहिचान बन जाती है। जैसे- वह किसी का बेटा है, तो उसका कोई बहन-भाई, चाचा-भतीजा, दादा-दादी, पिता-माता आदि उससे सम्बन्धित होते हैं। आगे चलकर उसे नाते-रिश्तेदारी व परिवार, कुनबे आदि के साथ गाँव, प्रदेश व देश के साथ उसके सम्बन्धों के बारे में भी सम्पूर्ण जानकारी दे दी जाती है, जिसका निर्वाह करना उसकी जिम्मेदारी है और न करने पर वह समाज व देश का हितैशी नहीं बल्कि द्रोही माना जाता है।
समाज में वर्ण व्यवस्था जो मानव प्रकृति और व्यक्तित्व के मौलिक अन्तर पर आधारित है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। पुराणों के अनुसार इन वर्गों की व्यवस्था समाज से सम्बन्ध रखने वाले सभी व्यक्तियों को काम की प्राथमिकता देते हुए की गयी थी। जिससे समाज में सभी को रोजगार मिले और उससे वह अपने परिवार का भरण-पोषण करता रहे। जैसे-कुम्हार का कार्य मिट्टी के बर्तन देना तथा शादी विवाह के अवसरों पर हल्के कार्य करना। उसके बदले में बर्तनों के मूल्य के बराबर अनाज, पुत्र या पुत्री की शादी विवाह के अवसर पर अतिरिक्त अनाज दिया जाता था। हज्जाम या नाई का कार्य समाज में सभी व्यक्तियों के बाल काटना, दाढ़ी बनाना एवं शादी विवाह आदि जैसे अवसरों पर अन्य सेवायें देना था। उसके बदले में उसे समाज के प्रति परिवार से फसल की कटाई पर जितना अनाज वह अकेले उठा सकता था ले सकता था तथा शादी विवाह के अवसरों पर अतिरिक्त अनाज मिलता था। आगे चलकर यही व्यवस्था जाति आधारित व्यवस्था के रूप में समाज में उभर कर सामने आई और जाति व्यवस्था के आधार पर ही शादी विवाह अपनी जाति में होने लगे. इससे समाज में विघटन पर रोक लगी तथा जातियता को प्राथमिकता देते हुए आपस में प्रेम व सौहार्द पनपा।
प्राचीन समय से भारतीय समाज की संरचना आनुवंशिक सिद्धांतों पर ही आधारित हैं। भारतीय समाज में स्थायित्व रहा है। इस स्थायित्व का आधार सामाजिक एवं नैतिक मूल्य थे, जिनमें शाश्वतता थी। इन्हीं मूल्यों के द्वारा एक सुन्दर सामाजिक संरचना की गयी थी। उत्थान–पतन प्रकृति का नियम हैं। इस नियम के अनुसार संसार का मार्गदर्शक यह समाज भी पतन की ओर अग्रसर हुआ, आकृष्ट और गुलाम बना और अपना असली अस्तित्त्व खो बैठा। विदेशी शासन के अन्तर्गत इसकी बुराइयां बढ़ती चली गई और हम अपने आदर्शों से दूर हटते चले गए, समाज के सदस्य आनुवांशिक जाति समूहों में बटे हुए थे, प्रत्येक जाति का अपना परम्परागत व्यवसाय था। हमने वर्ण, वर्ग, जाति धर्म, सम्प्रदाय, प्रांत आदि में अनेकानेक दीवारे खडी कर दी और समानता, स्वतन्त्र न्याय के दर्शन, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में दुर्लभ हो गए, एक लम्बी अवधि के बाद अंग्रेजी शासनकाल में हमें यह आभास हुआ कि हम गिर चुके हैं, हम पिछड चुके हैं तथा हमने जो प्राप्त किया था, उसे हम खो चुके हैं।
भारतीय समाज ने परिवर्तन की प्रक्रिया में कदम रखा। समाज की सामाजिक सामाजिक संरचना में परिवर्तन का विश्लेषण करने पर हमने पाया कि समाज में सम्बन्धों की वजह से हम विकास कर रहे हैं। जैसे–सामाजिक स्तरीकरण की संस्थाएं और सामाजिक गातिशीलता की प्रक्रियाएं, जनसांख्यिकी परिवर्तनों की प्रकृति और शहरीकरण एवं औद्योगीकरण के विस्तार ने शक्ति संरचना तथा महत्वपूर्ण भूमिकाओं में परिवर्तन के रूप में पिछड़े वर्गों ने सम्बन्धों को आधार मानकर अब राजनीति में अपनी भूमिका निभानी प्रारम्भ की है। जाति संरचना एवं सामुदायिक संरचना में भी बहुत परिवर्तन आए तथा भारतीय समाज के ऐतिहासिक सम्बन्धों की संरचना, इसकी पारिवारिक प्रणाली तथा विवाह एवं संबंधों के कारण संस्थाओं में भी परिवर्तन आया। आर्थिक विकास की प्रकिया तथा नवीन मध्यम वर्ग का प्रादुर्भाव जो कि ग्रामीण तथा शहरी दोनों क्षेत्रों में प्रवृत हुआ, समाज के आधुनिकीकरण में उनकी भूमिका, विशेष रूप से नये व्यवसायों बैंकिंग, प्रबंधन, संचार तथा सूचना और सेवा के अन्य क्षेत्रों में उनकी भूमिका ने सामाजिक सम्बन्धों की तरफ ध्यान देते हुए समाज वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया।
आधुनिक भारतीय समाज कुछ मूल सिद्धान्तों पर आधारित है, जिसके द्वारा सम्पूर्ण व्यक्तिगत जीवन तथा समूह की कियाएं प्रदर्शित होती है। वे हैं लोकतन्त्र, समाजवाद तथा धर्म निरपेक्षता। लोकतान्त्रिक सिद्धान्त जैसे स्वतन्त्रता, समानता, दूसरों के विचारों को देखने की सहनशक्ति, लेन-देन की इच्छा, समायोजन की योग्यता तथा समूह के साथ कार्य करना। इसके बाद आता है, समाजवादी सिद्धान्त, जिसके तहत धन का समान वितरण, अधिकतम उत्पादन, स्तरों और अवसरों पर समानता के लिए आदर और फिर है धर्मनिरपेक्ष सिद्धान्त..जिसमें यह आता है कि सभी धर्मों के लिए आदर, पूजा करने की स्वतन्त्रता तथा धर्म के संदर्भ के विना नागरिक कार्यों को देखने तथा प्रबंध करने के लिए तत्परता। हमारे देश में 26 जनवरी, 1950 से यह व्यवस्था लागू है, जो कि एक तरह से समाज में सम्बन्धों की ही कहानी कहता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सम्बन्धों का इतिहास है समाज।
डॉ. धर्मेन्द्र सिंह कटियार
प्रौढ़ सतत शिक्षा एवं प्रसार विभाग
छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय,
कानपुर, उत्तर प्रदेश