प्रकृति के संतुलन एवं शाश्वतता को अक्षुण्ण बनाए रखते हुए
शरीर के पोषण व संरक्षण (स्वास्थ्य) एवं परिवार की समृद्धि को प्रकृति से ही पा
लेने का नाम आवर्तनशील खेती है, अर्थात मिट्टी की उत्पादकता, हवा व पानी की पवित्रता, पेड़-पौधों व
फलों के बीज एवं पशु-पक्षियों के वंश में हस्तक्षेपविहीन विधि से सबको समृद्ध करते
हुए उत्पादन प्रक्रिया को अपनाकर खेती करना।
"आवर्तनशील
अर्थशास्त्र तन-मन-धन रूपी अर्थ के सदुपयोग, सुरक्षा और समृद्धि के रूप मं- दृष्टव्य है। धन वस्तुतः
प्राकृतिक ऐश्वर्य ही है और मिट्टी, वनस्पतियां, जीव-जंतु ये सब धन ही हैं। ये सब निश्चित अनुपात में
आवर्तनशील एवं अक्षुण्ण हैं।" (आवर्तनशील अर्थशास्त्र)
उपरोक्त परिभाषा का विस्तार ही आवर्तनशील खेती है।
आवर्तनशीलता का अर्थ चक्रिक (Cyclic) ही है किंतु परम्परा के रूप में और यह धरती का संपूर्ण वैभव
विभिन्न परम्पराओं का सह-अस्तित्व ही है। जैसे विभिन्न् पेड़-पौधों की परम्परा, विभिन्न
पशु-पक्षियों की परम्परा,
मानव परम्परा
आदि। किसानी बिना कुछ किए,
केवल प्रकृति से
चयन और संग्रह की क्रिया नहीं है और न ही प्रकृति को नियंत्रित करके लाभ की असीम
और अनियंत्रित कामना की आपूर्ति हेतु उत्पादन के प्रयास। अपितु प्रकृति के
नियमानुसार अपनी आजीविका (पोषण और संरक्षण) प्राप्त करने के निरंतर क्रिया कलाप ही
किसानी या खेती है।
मानव क्रिया-कलाप में अवधारणा की भूमिका
मानव में समझदारी अर्थात अवधारणाएं ही उसके समस्त विचारों
एवं क्रियाकलापों के आधार होते हैं। जैसी अवधारणा स्तर पर परिकल्पना होती है वैसे
ही परिणाम क्रिया के रूप में आते हैं। केवल क्रियाओं में परिवर्तन करने मात्र से
परिणाम में अपेक्षित बदलाव नहीं कर सकते। इसलिए आवश्यक है कि अवधारणा स्तर ही
स्पष्टता रखी जाये तदानुसार विचार एवं क्रियाएं ही अपेक्षित परिणाम देंगे। प्रकृति
के संबंध में दो अवधारणाएं प्रचलित हैं। एक ईश्वरवादी (अध्यात्मवादी) अवधारणाएं
जिनमें माना जाता है कि पृथ्वी या प्रकृति को किसी रहस्यमयी ईश्वर ने पैदा किया है, वही इसका संरक्षक
है और एक समय विनाश भी कर देगा। दूसरी पदार्थवादी (भौतिकवादी) अवधारणाएं हैं
जिनमें प्रकृति को किसी बड़े धमाके का परिणाम माना जाता है। इसका कोई लक्ष्य नहीं
है और अगले किसी धमाके में यह सब समाप्त हो जायेगा।
अतः उपरोक्त दोनों अवधारणाओं से खेती का स्पष्ट स्वरुप नहीं
निकला और न ही निकल सकता है, क्योंकि दोनों विचारधाराओं में प्रकृति या पृथ्वी को पहले
से विनाश हो जाना स्वीकार किया गया है। खेती की ऐसी स्पष्ट प्रणाली विकसित करने
हेतु जिसमें हम वर्तमान पीढ़ी को जैसी रसवती, फलवती, शस्य श्यामला प्रकृति अपने पूर्वजों से मिली है, वैसी ही अगली
पीढ़ी को मिले इसलिए अवधारणाओं की पुनः जाँच आवश्यक है।
कुछ अवधारणाएं परिवार, समाज एवं राज्य में प्रचलित रहती हैं, उन्हें ही
सामान्यतः हर मानव सही मानकर जीता है। मानव का यह मूल स्वभाव है कि अपने से अधिक
परिवार को, परिवार से अधिक
समाज को और समाज से अधिक राज्य को अपना हितैषी मानता है और स्वयं को उनके अनुरूप
ढालता रहता है। यह प्रक्रिया निरतंर पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है और आज विश्व की
समस्त राज्य संस्थाएं लालचवादी, संघर्षवादी (संग्रह एवं भोग) अवधारणा से प्रेरित हैं। अतः
व्यक्ति, परिवार एवं समाज
पर इन्हीं प्रवृतियों के प्रभाव परिलक्षित हो रहे हैं। किसानी के क्षेत्र में भी
इन्हें किसान आत्महत्या, घटते उत्पादन, पर्यावरण असंतुलन
अर्थात मिट्टी, जल और वायु
प्रदूषण के रूप में देख सकते हैं।
अवधारणा स्तर का अंतर्विरोध और विसंगतियां स्वयं में
दुःख-द्वंद, परिवार में
दरिद्रता, समाज में
अविश्वास एवं भय तथा प्रकृति में असंतुलन उत्पन्न करती हैं। जबकि अवधारणा स्तर पर
स्पष्टता ही स्थायी सुख, परिवार में
समृद्धि, समाज में विश्वास
और प्रकृति में सह–अस्तित्व
(संतुलन) उत्पन्न करती हैं। मानव ही पूरी धरती पर एकमात्र ऐसी इकाई है जिसको
कल्पनाशीलता एवं कर्म की स्वतंत्रता उपलब्ध है किंतु परिणाम के लिए बाध्य है।
प्रकृति में संतुलन और असंतुलन का कारक एवं जिम्मेदार मानव ही है। चूंकि मूलरूप से
धरती एक है और मानव अविभाज्य परम्परा है। अतः किसी भी व्यक्ति का विचार और कर्म
संपूर्ण मानव जाति एवं प्राकृतिक संतुलन को प्रभावित करती है। जैसाकि एक पेड़ कटने
अथवा लगाने से पूरी पृथ्वी के वातावरण एवं मानवजाति के ऊपर प्रभाव पड़ता है जबकि
यह कार्य किसी एक व्यक्ति,
समूह या समुदाय
का हो सकता है। इसी प्रकार व्यक्ति के सह–अस्तित्ववादी अथवा व्यक्तिवादी विचारों का प्रभाव भी परिवार, समाज एवं राज्य
पर पड़ता है।
मानव सभ्यता के विकास का इतिहास तो मूलतः अवधारणा के विकास
का ही इतिहास है। ग्रामयुग (धातुयुग) के बाद ईश्वरवादी (राजवादी) अवधारणाएं
प्रभावी हुई। जिसमें खेती-किसानी का कोई प्रारूप नहीं उभरा किंतु (भारतीय
परिप्रेक्ष्य में) वैराग्यवाद, मायावाद से उलटे भटकाव के कारण किसानों और समाज के प्रति
उदासीनता उभर गई। जिसके परिणामस्वरूप भौतिकवादी (संघर्ष और लालच आधारित) अवधारणाएं
प्रभावी हुई. आज हम जिनके परिणामों से जुझ रहे हैं। यहाँ यह स्पष्ट करना समीचीन है
कि भले ही सह-अस्तित्ववाद विचार के रूप में पूरी स्पष्टता के साथ प्रचलन में नहीं
रहा किंतु किसानी की संपूर्ण क्रियाएं और खेती के संबंध में अवधारणाएं परम्परा में
उपलब्ध है। जैसे जुताई, बुआई आदि
क्रियाएं बिना प्राकृतिक नियमों की जानकारी और तादात्मय के बिना संभव नहीं है
किंतु इस विचार को राजाश्रय नहीं मिला क्योंकि सह–अस्तित्ववादी अवधारणा में शोषण संभव नहीं है और
बिना शोषण के राज्य और सम्प्रदाय संभव नहीं है।
आज हमारे समक्ष एक सम्पूर्ण समाधान के रूप में सह–अस्तित्व आधारित
अवधारणाएं आ चुकी है। यही प्राकृतिक नियम हैं, जिनके अनुरूप खेती से ही किसान परिवार में सुख-समृद्धि, स्वस्थ्य पौष्टिक
भोजन, खाद्यान सुरक्षा
एवं पर्यावरण संतुलन की एक साथ संभावना उदय होती है।
आवर्तनशील खेती की अवधारणाएं
1.सम्पूर्ण
अस्तित्व सह अस्तित्व के रूप में है -
सह-अस्तित्व का तात्पर्य शून्य (ब्यापक) में एक-एक के रूप
में अनंत प्रकृति संपृक्त है, अर्थात घिरी, डूबी एवं भीगी हुई है। यही नित्य स्थिति है अर्थात हवा, पानी, मिट्टी, पशु-पक्षी, मानव सहित
सम्पूर्ण धरती की समस्त इकाईयां एक-दूसरे के साथ सह–अस्तित्व के रूप में पूरक हैं। यही नहीं पृथ्वी
अन्य ग्रहों एवं सूर्य के साथ तथा अनन्त ब्रम्हाण्ड सब एक दूसरे के सहअस्तित्व में
हैं। सह–अस्तित्व ही
सर्वत्र पूरकता एवं सन्तुलन के रूप में द्रष्टव्य है। मानव भी प्रकृति का एक अंग
है और पूर्णता ही इसका लक्ष्य हैं, सह–अस्तित्व की समझ
(अनुभव) एवं तदानुसार जी पाना ही पूर्णता है। यहीं से आवर्तनशील खेती का स्वरूप
स्पष्ट एवं मार्ग प्रशस्त होता है।
वर्तमान कृषि विज्ञान भौतिकवादी (संघर्षवादी) अवधारणा पर
आधारित है। जिसके मूल अवधारणानुसार सम्पूर्ण प्रकृति में सर्वत्र संघर्ष हो रहा
है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, मानव सब एक-दूसरे
से आगे बढ़ने की होड़ में नित्य प्रतिस्पर्धारत हैं। जो इस प्रतिस्पर्धा में सफल
होता है वही जीवित बचता है,
बाकी सब समाप्त
हो जाते हैं। इस दृष्टिकोण के आधार पर यह सम्पूर्ण प्रकृति, मानव के ही दोहन
शोषण के लिये है। इसी अवधारणा के आधार पर मानव आपस में भी अविश्वास एवं शोषणपूर्वक
जी रहा है। जबकि यह स्थिति न स्वयं के लिए सहज स्वीकृत है और ना ही प्रकृति के
लिए।
दूसरी भौतिकवादी मूल अवधारणा यह है कि संग्रह (अधिकाधिक
उत्पादन) और अतिभोग ही मानव लक्ष्य है। उपरोक्त दोनों अवधारणाओं का प्रायोगिक
स्वरूप ही हरित क्रांति है और हरित क्रांति का परिणाम पूरी दुनिया में जमीन की
स्वभाविक उत्पादकता में कमी, प्रदूषित एवं जहरीला भोजन, बढ़ती स्वास्थ्य विकृतियां, पर्यावरण असंतुलन
और किसानों का कर्जग्रस्त होकर आत्महत्या के कगार तक पहुँचने के रूप में दृष्टव्य
है।
आज आवश्यक है कि उपरोक्त अवधारणाओं की पुनः समीक्षा की जाए
क्योंकि अवधारणा स्तर पर ही यदि हमने पृथ्वी को नष्ट होने वाली वस्तु मान लिया है, तो हमारी समस्त
अर्थशास्त्रीय अवधारणाएं एवं कृषि क्रियाएं विनाशवादी ही होंगी। यदि हम पृथ्वी को
शाश्वत बनाए रखना चाहते तो हमें अपनी अवधारणाओं को पुन: व्यवस्थित एवं परिमार्जित
करना होगा। आवर्तनशील खेती ऐसी शाश्वतवादी दृष्टिकोण से विकसित कृषि की अवधारणा
है। इसमें ही मानव के सुखी एवं प्रकृति के शाश्वत एवं संतुलित होने की पूरी
सम्भावना है।
2. प्रकृति निश्चित
अनुपात में है -
संपूर्ण प्रकृति चार अवस्थाओं में द्रष्टव्य है
पदार्थ अवस्था - मिट्टी, पत्थर, मणि,
धातुएं, पानी, हवा आदि।
प्राण अवस्था - सभी पेड़-पौधे एवं वन-वनस्पतियां।
जीवावस्था - पशु-पक्षी एवं संपूर्ण जीव-जगत।
ज्ञानावस्था - मानव।
पानी पहली जीवंत इकाई है। यह स्वयं हाइड्रोजन एवं आक्सीजन
का निश्चित अनुपात है और पृथ्वी में पानी भी एक निष्चित अनुपात में है, तभी अन्य जीवन का
निर्माण होता है। मानव सहित अन्य सभी अवस्थाएं एक निश्चित अनुपात में ही रहती हैं।
इसमें मानव ही हस्तक्षेप कर पाता है क्योंकि वह कल्पना एवं कर्म के लिए स्वतंत्र
है। प्रकृति एक निश्चित अनुपात में ही बनी रहती है। अनुपात बिगड़ने से इसमें
असंतुलन हो जाता है। पानी,
हवा एवं ताप इन
तीनों के संतुलन से ही पृथ्वी का संपूर्ण प्राकृतिक वातावरण बना रहता है। पृथ्वी
के जिस हिस्से में ताप की अधिकता हो जाती है उस ताप को संतुलित करने के लिए हवाएं
लगातार बहती रहती है। हवा अपने साथ पानी लेकर तप्त हिस्से में ताप संतुलित करने का
कार्य निरंतर करती रहती है। यह हवा, पानी एवं ताप की आवर्तनशीलता ही ऋतुएं कहलाती हैं।
पृथ्वी भी मिट्टी, पत्थर मणि एवं धातुओं का निश्चित अनुपात है। पृथ्वी के कोर
में भारी धातुएं और क्रमशः पर्पटी की ओर हल्की धातुएं एवं मिट्टी सजी रहती है।
इतना ही नहीं पृथ्वी पर भी निश्चित मात्रा में पानी विभिन्न रूपों में सदा बना
रहता है और हवा में भी भारी गैसें पर्पटी की ओर एवं हल्की गैसें आयनों स्फेयर की
ओर सजी रहती हैं। इसके अतिरिक्त पूरी पृथ्वी में वन-वनस्पतियां, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी एवं
मानव भी निश्चित अनुपात में ही हैं। उपरोक्त अनुपात को समझकर जीने योग्य मानव ही
है अर्थात यह ही इस अनुपात को बनाए रखने का पूर्ण जिम्मेवार भी है। आज प्रकृति के
समानुपातिक सिद्धांत को न समझने के कारण धातुओं के अननुपातिक दोहन एवं
वन-वनस्पतियों, जीव-जन्तुओं एवं
मानव के अनुपात को समझकर न जीने का परिणाम ही पर्यावरण असंतुलन के रूप में
द्रष्टव्य है।
अभी तक प्रचलित सिद्धांतों के अनुसार यह संपूर्ण प्रकृति
परमात्मा द्वारा पैदा की गई वस्तु है, वही इसका नियंत्रण करता है एवं जब चाहे इसको समाप्त कर सकता
है। इस अवधारणा के कारण ही न तो प्रकृति की सानुपातिक सिद्धांत के अध्ययन की जरूरत
रही और न ही जिम्मेदारी। इसका परिणाम अंधाधुंध वनदोहन (काटने की प्रवृत्ति पर जोर
एवं संरक्षण–रोपण के प्रति
उदासीनता) एवं जीव-जंतुओं को खाद्य सामग्री बना लेने के रूप में प्रचलित है ही, धरती पर 98 फीसदी लोग
मांसाहार करते हैं जिसके कारण से लाखों जीव-जंतुओं की प्रजातियां विलुप्त हो गई
हैं।
इसी प्रकार वर्तमान में प्रचलित एवं प्रभावी भौतिकवादी
सिद्धांत के अनुसार भी प्रकृति एक आकस्मिक धमाके का परिणाम है और यह कभी भी अगले
धमाके में समाप्त हो सकती है। अतः इस सिद्धांत के अनुसार भी प्रकृति के सानुपातिक
व्यवस्था के अध्ययन की आवश्यकता नहीं महसूस की गई। यदि हम प्रकृति को शाश्वत और
अक्षुण्ण बनाये रखना चाहते हैं तो हमें उत्पादक मिट्टी, पवित्र जल, फलों व
पशु-पक्षियों से भरपूर सुरम्य शस्यश्यामला प्रकृति के सानुपातिक सिद्धांत को समझना
होगा और अपनी कृषि प्रणाली को तदानुसार विकसित करना होगा। आवर्तनशील खेती प्रकृति
के सान्नुपातिक संबंध को समझकर ही विकसित की गई है।
3. प्रकृति में नियम, नियंत्रण व
संतुलन है -
संपूर्ण प्रकृति सत्ता (शून्य) में संपृक्त है अर्थात
सह-अस्तित्व में है। प्रकृति स्वउद्भूत (Self-Emerged) है। प्रकृति की प्रत्येक इकाई दूसरी इकाई के
साथ एक निश्चित संबंध अर्थात दूरी को बनाए रखते हुए क्रियारत हैं. इस निश्चित
क्रिया एवं दूरी को बनाए रखते हुए क्रियारत है, इस निश्चित क्रिया एवं दूरी को नियम कहते हैं। जैसे बीज का
धरती से संपर्क होने पर एक क्रिया, पेड़-पौधों का पशु-पक्षियों के साथ एक क्रिया और इन सबका
मानव के साथ क्रियाकलाप। इस प्रकार हम देखते हैं कि हर क्रिया का एक निश्चित
परिणाम होता है। यह परिणाम यदि नियम को बनाये रखने के अनुकूल है तो इससे नियम ही
पुष्ट होते हैं, जिसके कारण नित्य
संतुलन शाश्वतता के रुप में बना रहता है। नियंत्रण का अधिकार कल्पना एवं क्रिया की
स्वतंत्रता के कारण मानव को उपलब्ध है। इसलिए मानव ही प्राकृतिक संतुलन-असंतुलन
दोनों का जिम्मेदार है।
विगत से ही मानव अध्यवसाय पूर्वक हजारों वर्षों के प्रयास
से प्रकृति के नियमों को समझकर जीने का प्रयास करता रहा हैं। जैसे मिट्टी की
उर्वरता की पहचान, बीज-वृक्ष की
प्रक्रिया, ऋतुज्ञान, नक्षत्र ज्ञान, पशुओं के उपयोग
का ज्ञान, धातु उपयोग के
ज्ञान के आधार पर ही बुआई जुताई आदि की प्रणालियां विकसित कर मनुष्य हजारों वर्षों
से खेती कर रहा है। इतना ही नहीं प्रकृति को ही माँ मानता रहा है। प्रकृति भी
संतुलनपूर्वक सुख-समृद्धि प्रदायी रही, साथ में कृषि के कारण समाज व्यवस्था का भी प्रार्दुभाव हुआ
जो भारतवर्ष में गांव कहलाते हैं। जहां पर अद्भूत रूप से प्रत्येक परिवार को
आर्थिक एवं सामाजिक न्याय सहज उपलब्ध रहता था। अतः गांव ही समाज है।
4. प्रकृति की समस्त
इकाईयों आवर्तनशीलता के साथ पंरपरा के रूप में अक्षुण्ण हैं –
आवर्तनशीलता का तात्पर्य ही अक्षुण्य परम्परा है। जैसे
सम्पूर्ण पदार्थ (पानी, हवा, नदी, पहाड़, मिट्टी, धातुएं आदि) अपने
अस्तित्व के रूप में परम्परा है। इसी प्रकार सम्पूर्ण पेड़-पौधे, वन-वनस्पतियां
प्राणी वर्ग) बीजों के आधार पर परम्परा है। समस्त जीव संसार अर्थात पशु-पक्षी अपने
वंश के आधार पर आवर्तनशील है, अर्थात परम्परा है। मानव अपने संस्कारों अर्थात अवधारणाओं
के आधार पर एक परम्परा या आवर्तनशीलता है। आवर्तनशीलता प्रकृति की स्वतः संचालित
होने की एक सतत् प्रक्रिया है, जिससे प्रकृति स्वयं को नित्य वातावरण के अनुरूप अनुकूलित
(वातावरण के अनुकूल बनाते हुए) करते हुए प्रकृति की प्रत्येक इकाई विकास क्रम में
अपनी परम्परा को बनाए रखते हैं।
इस परम्परा की उपेक्षा करके या प्रकृति के इस नियम की समझ
के अभाव में पदार्थ के अस्तित्व, वन-वनस्पतियों के बीज एवं जीव जगत की वंश परम्परा में
हस्तक्षेप कर रहे हैं। विगत में प्रचलित ईश्वरवादी अवधारणाओं में भी प्रकृति की इस
आवर्तनशीलता के नियम को नहीं समझा गया और ना ही वर्तमान में प्रचलित कृषि विज्ञान
के मूल अवधारणाओं में यह है। दोनों दृष्टिकोणों की मूल अवधारणों में प्रकृति विनाश
होने के रूप में स्वीकृत है। वर्तमान कृषि विज्ञान में प्राणावरस्था के बीजों में, जीव-जन्तुओं के
वंशों, धरती की उर्वरता
की अक्षुण्णता या शाश्वतता को दरकिनार करके अधिकाधिक दोहन/शोषण की प्रवृत्ति से
नियंत्रित करने का प्रयास जारी है। जिसके कारण अनेक पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं की
प्रजातियां लुप्त हो गई है एवं आगे भी विकास की भयावहता बढ़ाने का कार्य जारी है।
अतः आवश्यक है कि प्रकृति की इस स्वभाव या व्यवस्था को
समझकर ही अपनी कृषि पद्धतियों को विकसित किया जाए, जिससे वर्तमान एवं भविष्य में आगे की पीढ़ी को
उपजाऊ उर्वर भूमि पर पेड़-पौधे, वन वनस्पतियां, खाद्यान, फल-सब्जियां एवं जीव-जंतुओं की विविध परम्पराओं को अक्षुण्ण
बनाएं रखकर उन्हें अर्पित किया जा सकें, यही खाद्य सुरक्षा है।
5. प्रकृति कम लेकर
ज्यादा देने (Qualitative
Growth) के रूप में शाश्वत है -
प्रकृति की चारों अवस्थाएं एक विकासक्रम में हैं। प्रत्येक
अवस्था एक, दूसरे से विकसित
अवस्था में है, अर्थात पदार्थ
अवस्था का विकसित स्वरूप प्राणावस्था, प्राणावस्था का विकसित स्वरूप जीवावस्था एवं जीवावस्था का
विकसित स्वरुप ज्ञानावस्था है। किंतु यह चारों अवस्थाएं हर वर्तमान में बनी रहती
हैं और ये एक-दूसरे के पोषण एवं संवर्धन का आधार होती हैं। जैसे पेड़-पौधे अपने
पोषण व वृद्धि (बढ़ने, फलने-फूलने, बीज बनाने हेतु)
के लिए पदार्थ अवस्था अर्थात मृदा से खनिज तत्त्व, हवा से जीवन तत्त्व, जल तत्त्व एवं
प्रकाश तत्व से ऊर्जा प्राप्त करते हैं। यही पेड़-पौधे अपने द्वारा लिये गये समस्त
आदानों को पहले से अधिक विकसित कर उर्वरक के रूप में पुनः धरती को लौटा देते हैं।
इससे मृदा की उर्वरता और अधिक बढ़ जाती है, जो वन-वनस्पतियों की अपनी परम्परा को और अधिक विकसित होने
में सहायक बनते हैं।
इसी प्रकार जीव-जानवर अपने पोषण हेतु खाद्य सामग्री
वनस्पतियों एवं धरती से प्राप्त करते हैं। जिसे वह पचाकर वनस्पतियों के विकास में
सहायक अपने अपशिष्ट सूक्ष्म जीवांषयुक्त खाद के रूप में लौटाते हैं फलस्वरूप
वनस्पतियों का विकास तीव्रता से हो पाता है। इस प्रक्रिया से स्वयं जीव जगत और
मानव के लिए अधिक पौष्टिक एवं प्रचुर अनुपात में आहार उपलब्ध हो जाता है। मानव
ज्ञानावस्था की इकाई है जो समझ के आधार पर ही जीता है। उपरोक्त तीनों अवस्थाओं के
गुणात्मक विकासक्रम को समझकर और उस परम्परा को बनाए रखने के लिए अपनी भूमिका को
निर्धारित करता है, तब तीनों
अवस्थाओं से जो भी लेता है उसको पुनः गुणात्मक वृद्धि करके वापस कर पाता है। ऐसे
में ही पृथ्वी के गुणात्मक वृद्धि की आवर्तनशीलता बनी रह सकती है और अनन्त काल तक
मानव जाति अपने लिए पोषण एवं खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित एवं सुस्थिर रख सकता है।
गुणात्मक वृद्धि का सिद्धांत वस्तुतः मानव की विकसित चेतना
का प्रमाण है, यह एक चेतना का
संक्रमण है। जैसे ही गुणात्मकता की समझ विकसित होती है, संख्यात्मक
वृद्धि के प्रति विवशता या मोह समाप्त हो जाता है। पूरा ध्यान कम से कम मात्रा में
अधिकाधिक एवं गुण वृद्धि पर केन्द्रित हो जाता है। जैसे एक - एकड़ खेत में सौ
आंवले के पेड़ लगे तो उससे लगभग दो सौ
क्विटल आंवला प्राप्त होता है और यदि पांच सौ रूपये की दर से बाज़ार मूल्य आके तो
एक लाख रुपये का हुआ। यदि उसी का मुरब्बा बना दे तो वही दो सौ क्विटल आंवला चार सौ
क्विटल बनेगा। जो सौ रूपये प्रति किलो की दर से चालीस लाख रूपये हुआ और यदि उसी दो
सौ क्विटल आंवले से आमलकी रसायन या च्यवनप्राश बना दिया जाए तो इसका मूल्य करोड़ों
में पहुंच जाता है। साथ ही अनेकों लोगों को रोजगार उपलब्ध हो जाता है। गुणात्मक
विकास समझ में आ जाए तो दुनिया के प्रति कृतज्ञता भाव होता है, संघर्ष समाप्त हो
जाता है। जबकि वर्तमान में प्रचलित कृषि अवधारणाओं में संघर्ष अवश्यंभावी है। अतः
यह पुनः विचार योग्य तथ्य है।
6. प्रकृति में उभय
तृप्ति है, लाभ-हानि नहीं -
मनुष्येत्तर प्रकृति के समस्त क्रिया-कलापों में कहीं
लाभ-हानि एवं लालच नही दिखता, इसलिये कहीं पर संग्रह एवं अभाव भी नहीं दिखता है। जबकि
मानव अपने लालच एवं संग्रह से स्वयं भी अभावग्रस्त हुआ है और धरती को भी असंतुलित
एवं अभावग्रस्त कर दिया। प्रचलित कृषि लालचवादी अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों पर
आधारित है जो कृषि के स्वभाव से बिलकुल भिन्न है। कृषि के किसी भी क्रियाकलाप में
कोई क्षरण (Depreciation)
नहीं होता है, उलटे
मल्टीपीलिकेशन होता है। जैसे गाय दूध देती है और बछड़े-बछड़िया भी देती है और
मधुमक्खी शहद भी देती है और अपनी वंशवृद्धि भी बनाये रखती है, जबकि वर्तमान
अर्थशास्त्र उत्पादकों एवं प्रकृति के शोषण का तर्कशास्त्र है जो मानवीय संबंधों
में अविश्वास एवं अतृप्ति पर आधारित है।
समस्त लाभवादी अर्थशास्त्र प्रतीक मुद्रा एवं बाजार के बिना
नहीं चलते। जबकि प्रतीक मुद्रा नितांत अस्थिर वस्तु है। जो शासकों की अनुकूलता के
अनुसार शोषण हेतु अस्त्र के रूप में प्रयोग किया जाता है। बाजार संबंधविहीन मुद्रा
आधारित लेन-देन का स्थान है जो कभी तृप्ति नहीं देता। इसके उलटे कृषि आवर्तनशील
अर्थशास्त्र पर आधारित है। जो प्रकृति को शाश्वत बनाए रहते हुए अपना पोषण प्राप्त
कर लेने एवं संबंधों के आधार पर विनिमय पर आधारित है, यह उभय
तृप्तिदायक है। ऐसी कृषि व्यवस्था जो प्राकृतिक नियमों पर आधारित हो, से सर्वत्र शुभ
की आशा की जा सकती है; लाभ-हानि (परस्पर
शोषण) आधारित सिद्धांतों के आधार पर नहीं।
7. खेती परिवार एवं
गाँव (समाज) का विषय (कार्यकलाप) है, न कि व्यक्तिगत -
खेती एक बहुविध, बहुआयामी एवं बहुकोणीय कार्यकलाप है। इसमें हर आयु, हर क्षमता, हर हुनर की जरूरत
होती है। परिवार एवं गांव के समस्त लोग एक-दूसरे का सहयोग करते हैं, तब खेती एक उत्सव
बन जाता है एवं समृद्धि का अनुभव होता है, जबकि व्यक्तिरूप से हर जगह पराश्रितता एवं कठिनाई का सामना
करना पड़ता है।
भौतिकवादी समाजशास्त्रीय अवधारणाओं में व्यक्ति को समाज की
इकाई मान लिया गया। तदानुसार समस्त अर्थशास्त्रीय एवं राजनैतिक प्रक्रियाएं विकसित
हुई। जिसके परिणामस्वरूप विश्व में व्यक्तिवादी, अहमवादी प्रवृत्तियां प्रभावी हैं, जो संबंधविहीन
एवं तनावयुक्त परिवेश पैदा करता है। यह खेती के लिए अनुपयुक्त परिस्थितियां हैं।
इसका प्रमाण यह है कि दुनिया के कुल खाद्यान, सब्जी एवं दूध घी का 70 प्रतिशत हिस्सा छोटे काश्तकारों, जहां पूरा परिवार
मिलकर खेती करता है, वहां से आता है, जबकि व्यक्तिवादी
बड़े फार्महाउस जहाँ भारी मात्रा में बड़ी मशीनरी, भारी मात्रा में रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक, हाईब्रीड एवं
जीएम बीज प्रयोग किये जाते हैं। उनके उत्पादन की कुल विश्व के उत्पादन में 10 प्रतिशत भी
भागीदारी नहीं है। उलटे यदि ऊर्जा, पर्यावरण संतुलन, रोजगार एवं उत्पादन के आधार पर मूल्यांकन किया जाए तो यह
पूरे विश्व के लिए खतरे का कारक है।
एक और तथ्य, जिन-जिन देशों में कृषि, परिवार एवं समाज आधारित एवं नियोजित व्यवसाय है। वहां-वहां
किसानों की संख्या अधिक होने से सामाजिक व्यवस्था स्वनियंत्रण के रूप में उपलब्ध
है। जहां-जहां बड़े फार्महाउस हैं वहां किसान परिवार कम हैं और उसी मात्रा में
शासन व्यवस्था एवं शहरीकरण अधिक है, जोकि मानव के लिए सहज स्वीकार्य नही है।
8. प्राकृतिक
ऐश्वर्य का मूल्य शून्य (अमूल्य) है जबकि उत्पादन में स्वत्वाधिकार है -
प्रकृति द्वारा प्रदत्त वस्तुओं में मानव का विवेक एवं श्रम
न्यूनतम होता है। जैसा कि गेहूँ के बीज से पौधा बनने एवं फलने तक की प्रक्रिया में
मानव का न तो कोई मानसिक श्रम है और न ही विवेक है। यह कार्य प्रकृति में
अंर्तनिहित गेहंा की क्षमता से सम्पादित होता है। इसलिए मनुष्य प्रकृति के सम्पादन
से प्राप्त वस्तुओं का मूल्य लगाने में सक्षम नही होता है। यह सबकी है और जब
मनुष्य अपने विवेक और श्रम के संयोजन से इन वस्तुओं में उपयोगिता एवं कला–मूल्य स्थापित
करके उत्पादन करता है, तब वह अपने
उत्पाद का मूल्य लगाने में सक्षम हो जाता है, जो समृद्धि का मुख्य आधार है। जिसको आवश्यकतानुसार
बढ़ाया-घटाया जा सकता है। जैसे चने का मूल्य लेने वाला तय करता है, जबकि उसी में से
दाल, बेसन या कुछ अन्य
गुणात्मक वृद्धि कर देने से उसका मूल्य लगाने में उत्पादक सक्षम हो जाता है।
9. स्वायत्तता
(आत्मनिर्भरता) ही समझदारी का प्रमाण है -
स्वायत्तता का आशय जहां मानव अपने परिवार को न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, उत्पादन एवं
विनिमय को बिना किसी अपव्यय एवं बाधा के सुलभतापूर्वक उपलब्ध करा सके। यह
परिवारमूलक ग्राम स्वराज में ही सम्भव है। इसमें भागीदारी, समझदारी और
समृद्धि का प्रमाण है। यह आत्मनिर्भरता या स्वायत्तता ही मानव लक्ष्य है। जिसमें
समाजिक जिम्मेदारी निर्वाह के रूप में प्रमाणित होती है।
किसान परिवार को यदि शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय आदि वहीं उपलब्ध नहीं है, जहाँ वह (गांव
में) रहता है। तो वह कितना भी उत्पादन करें, पूरा नहीं पड़ता। किसान की दरिद्रता का मूल कारण दूरस्थ और
मंहगी शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय की सेवाएं
भी हैं। राज्य संस्था जिसका दायित्व शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय, उत्पादन के अवसर तथा विनिमय सुलभ कराना है। इसके बजाय राज्य
शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय का स्वयं
व्यापार करती हैं और दूसरे को व्यापार करने की अनुमति प्रदान करती है। यह
उत्पादकों के लूट का एक तरीका है, क्योंकि उपरोक्त पांचों (शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय, उत्पादन एवं
विनिमय) के बिना कोई व्यक्ति नहीं रह सकता। धरती पर अखण्ड समाज एवं सार्वभौम
व्यवस्था (सबके सुखपूर्वक साथ रह पाने की संभावना) अर्थात सर्व मानव के
सुख-समृद्धि पूर्वक रह पाने का आधार भी यही है। अतः समृद्ध एव आत्मनिर्भर समाज
रचना के लिए परिवार मूलकग्राम स्वराज आवश्यक है। इसके लिए सह–अस्तित्ववादी
अवधारणा के आधार पर संविधान की पुर्नरचना कर उसकी स्थापना की जाए। तदानुरूप सहज
मानवापेक्षा यानि समाधान,
समृद्धि, अभय और
सह-अस्तित्व के लिए समस्त सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक प्रणालियां विकसित की जाए।
By Prem Singh Contributors Deepika Chaudhary {{descmodel.currdesc.readstats }}
प्रकृति के संतुलन एवं शाश्वतता को अक्षुण्ण बनाए रखते हुए शरीर के पोषण व संरक्षण (स्वास्थ्य) एवं परिवार की समृद्धि को प्रकृति से ही पा लेने का नाम आवर्तनशील खेती है, अर्थात मिट्टी की उत्पादकता, हवा व पानी की पवित्रता, पेड़-पौधों व फलों के बीज एवं पशु-पक्षियों के वंश में हस्तक्षेपविहीन विधि से सबको समृद्ध करते हुए उत्पादन प्रक्रिया को अपनाकर खेती करना।
उपरोक्त परिभाषा का विस्तार ही आवर्तनशील खेती है। आवर्तनशीलता का अर्थ चक्रिक (Cyclic) ही है किंतु परम्परा के रूप में और यह धरती का संपूर्ण वैभव विभिन्न परम्पराओं का सह-अस्तित्व ही है। जैसे विभिन्न् पेड़-पौधों की परम्परा, विभिन्न पशु-पक्षियों की परम्परा, मानव परम्परा आदि। किसानी बिना कुछ किए, केवल प्रकृति से चयन और संग्रह की क्रिया नहीं है और न ही प्रकृति को नियंत्रित करके लाभ की असीम और अनियंत्रित कामना की आपूर्ति हेतु उत्पादन के प्रयास। अपितु प्रकृति के नियमानुसार अपनी आजीविका (पोषण और संरक्षण) प्राप्त करने के निरंतर क्रिया कलाप ही किसानी या खेती है।
मानव क्रिया-कलाप में अवधारणा की भूमिका
मानव में समझदारी अर्थात अवधारणाएं ही उसके समस्त विचारों एवं क्रियाकलापों के आधार होते हैं। जैसी अवधारणा स्तर पर परिकल्पना होती है वैसे ही परिणाम क्रिया के रूप में आते हैं। केवल क्रियाओं में परिवर्तन करने मात्र से परिणाम में अपेक्षित बदलाव नहीं कर सकते। इसलिए आवश्यक है कि अवधारणा स्तर ही स्पष्टता रखी जाये तदानुसार विचार एवं क्रियाएं ही अपेक्षित परिणाम देंगे। प्रकृति के संबंध में दो अवधारणाएं प्रचलित हैं। एक ईश्वरवादी (अध्यात्मवादी) अवधारणाएं जिनमें माना जाता है कि पृथ्वी या प्रकृति को किसी रहस्यमयी ईश्वर ने पैदा किया है, वही इसका संरक्षक है और एक समय विनाश भी कर देगा। दूसरी पदार्थवादी (भौतिकवादी) अवधारणाएं हैं जिनमें प्रकृति को किसी बड़े धमाके का परिणाम माना जाता है। इसका कोई लक्ष्य नहीं है और अगले किसी धमाके में यह सब समाप्त हो जायेगा।
अतः उपरोक्त दोनों अवधारणाओं से खेती का स्पष्ट स्वरुप नहीं निकला और न ही निकल सकता है, क्योंकि दोनों विचारधाराओं में प्रकृति या पृथ्वी को पहले से विनाश हो जाना स्वीकार किया गया है। खेती की ऐसी स्पष्ट प्रणाली विकसित करने हेतु जिसमें हम वर्तमान पीढ़ी को जैसी रसवती, फलवती, शस्य श्यामला प्रकृति अपने पूर्वजों से मिली है, वैसी ही अगली पीढ़ी को मिले इसलिए अवधारणाओं की पुनः जाँच आवश्यक है।
कुछ अवधारणाएं परिवार, समाज एवं राज्य में प्रचलित रहती हैं, उन्हें ही सामान्यतः हर मानव सही मानकर जीता है। मानव का यह मूल स्वभाव है कि अपने से अधिक परिवार को, परिवार से अधिक समाज को और समाज से अधिक राज्य को अपना हितैषी मानता है और स्वयं को उनके अनुरूप ढालता रहता है। यह प्रक्रिया निरतंर पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है और आज विश्व की समस्त राज्य संस्थाएं लालचवादी, संघर्षवादी (संग्रह एवं भोग) अवधारणा से प्रेरित हैं। अतः व्यक्ति, परिवार एवं समाज पर इन्हीं प्रवृतियों के प्रभाव परिलक्षित हो रहे हैं। किसानी के क्षेत्र में भी इन्हें किसान आत्महत्या, घटते उत्पादन, पर्यावरण असंतुलन अर्थात मिट्टी, जल और वायु प्रदूषण के रूप में देख सकते हैं।
अवधारणा स्तर का अंतर्विरोध और विसंगतियां स्वयं में दुःख-द्वंद, परिवार में दरिद्रता, समाज में अविश्वास एवं भय तथा प्रकृति में असंतुलन उत्पन्न करती हैं। जबकि अवधारणा स्तर पर स्पष्टता ही स्थायी सुख, परिवार में समृद्धि, समाज में विश्वास और प्रकृति में सह–अस्तित्व (संतुलन) उत्पन्न करती हैं। मानव ही पूरी धरती पर एकमात्र ऐसी इकाई है जिसको कल्पनाशीलता एवं कर्म की स्वतंत्रता उपलब्ध है किंतु परिणाम के लिए बाध्य है। प्रकृति में संतुलन और असंतुलन का कारक एवं जिम्मेदार मानव ही है। चूंकि मूलरूप से धरती एक है और मानव अविभाज्य परम्परा है। अतः किसी भी व्यक्ति का विचार और कर्म संपूर्ण मानव जाति एवं प्राकृतिक संतुलन को प्रभावित करती है। जैसाकि एक पेड़ कटने अथवा लगाने से पूरी पृथ्वी के वातावरण एवं मानवजाति के ऊपर प्रभाव पड़ता है जबकि यह कार्य किसी एक व्यक्ति, समूह या समुदाय का हो सकता है। इसी प्रकार व्यक्ति के सह–अस्तित्ववादी अथवा व्यक्तिवादी विचारों का प्रभाव भी परिवार, समाज एवं राज्य पर पड़ता है।
मानव सभ्यता के विकास का इतिहास तो मूलतः अवधारणा के विकास का ही इतिहास है। ग्रामयुग (धातुयुग) के बाद ईश्वरवादी (राजवादी) अवधारणाएं प्रभावी हुई। जिसमें खेती-किसानी का कोई प्रारूप नहीं उभरा किंतु (भारतीय परिप्रेक्ष्य में) वैराग्यवाद, मायावाद से उलटे भटकाव के कारण किसानों और समाज के प्रति उदासीनता उभर गई। जिसके परिणामस्वरूप भौतिकवादी (संघर्ष और लालच आधारित) अवधारणाएं प्रभावी हुई. आज हम जिनके परिणामों से जुझ रहे हैं। यहाँ यह स्पष्ट करना समीचीन है कि भले ही सह-अस्तित्ववाद विचार के रूप में पूरी स्पष्टता के साथ प्रचलन में नहीं रहा किंतु किसानी की संपूर्ण क्रियाएं और खेती के संबंध में अवधारणाएं परम्परा में उपलब्ध है। जैसे जुताई, बुआई आदि क्रियाएं बिना प्राकृतिक नियमों की जानकारी और तादात्मय के बिना संभव नहीं है किंतु इस विचार को राजाश्रय नहीं मिला क्योंकि सह–अस्तित्ववादी अवधारणा में शोषण संभव नहीं है और बिना शोषण के राज्य और सम्प्रदाय संभव नहीं है।
आज हमारे समक्ष एक सम्पूर्ण समाधान के रूप में सह–अस्तित्व आधारित अवधारणाएं आ चुकी है। यही प्राकृतिक नियम हैं, जिनके अनुरूप खेती से ही किसान परिवार में सुख-समृद्धि, स्वस्थ्य पौष्टिक भोजन, खाद्यान सुरक्षा एवं पर्यावरण संतुलन की एक साथ संभावना उदय होती है।
आवर्तनशील खेती की अवधारणाएं
1.सम्पूर्ण अस्तित्व सह अस्तित्व के रूप में है -
सह-अस्तित्व का तात्पर्य शून्य (ब्यापक) में एक-एक के रूप में अनंत प्रकृति संपृक्त है, अर्थात घिरी, डूबी एवं भीगी हुई है। यही नित्य स्थिति है अर्थात हवा, पानी, मिट्टी, पशु-पक्षी, मानव सहित सम्पूर्ण धरती की समस्त इकाईयां एक-दूसरे के साथ सह–अस्तित्व के रूप में पूरक हैं। यही नहीं पृथ्वी अन्य ग्रहों एवं सूर्य के साथ तथा अनन्त ब्रम्हाण्ड सब एक दूसरे के सहअस्तित्व में हैं। सह–अस्तित्व ही सर्वत्र पूरकता एवं सन्तुलन के रूप में द्रष्टव्य है। मानव भी प्रकृति का एक अंग है और पूर्णता ही इसका लक्ष्य हैं, सह–अस्तित्व की समझ (अनुभव) एवं तदानुसार जी पाना ही पूर्णता है। यहीं से आवर्तनशील खेती का स्वरूप स्पष्ट एवं मार्ग प्रशस्त होता है।
वर्तमान कृषि विज्ञान भौतिकवादी (संघर्षवादी) अवधारणा पर आधारित है। जिसके मूल अवधारणानुसार सम्पूर्ण प्रकृति में सर्वत्र संघर्ष हो रहा है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, मानव सब एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में नित्य प्रतिस्पर्धारत हैं। जो इस प्रतिस्पर्धा में सफल होता है वही जीवित बचता है, बाकी सब समाप्त हो जाते हैं। इस दृष्टिकोण के आधार पर यह सम्पूर्ण प्रकृति, मानव के ही दोहन शोषण के लिये है। इसी अवधारणा के आधार पर मानव आपस में भी अविश्वास एवं शोषणपूर्वक जी रहा है। जबकि यह स्थिति न स्वयं के लिए सहज स्वीकृत है और ना ही प्रकृति के लिए।
दूसरी भौतिकवादी मूल अवधारणा यह है कि संग्रह (अधिकाधिक उत्पादन) और अतिभोग ही मानव लक्ष्य है। उपरोक्त दोनों अवधारणाओं का प्रायोगिक स्वरूप ही हरित क्रांति है और हरित क्रांति का परिणाम पूरी दुनिया में जमीन की स्वभाविक उत्पादकता में कमी, प्रदूषित एवं जहरीला भोजन, बढ़ती स्वास्थ्य विकृतियां, पर्यावरण असंतुलन और किसानों का कर्जग्रस्त होकर आत्महत्या के कगार तक पहुँचने के रूप में दृष्टव्य है।
आज आवश्यक है कि उपरोक्त अवधारणाओं की पुनः समीक्षा की जाए क्योंकि अवधारणा स्तर पर ही यदि हमने पृथ्वी को नष्ट होने वाली वस्तु मान लिया है, तो हमारी समस्त अर्थशास्त्रीय अवधारणाएं एवं कृषि क्रियाएं विनाशवादी ही होंगी। यदि हम पृथ्वी को शाश्वत बनाए रखना चाहते तो हमें अपनी अवधारणाओं को पुन: व्यवस्थित एवं परिमार्जित करना होगा। आवर्तनशील खेती ऐसी शाश्वतवादी दृष्टिकोण से विकसित कृषि की अवधारणा है। इसमें ही मानव के सुखी एवं प्रकृति के शाश्वत एवं संतुलित होने की पूरी सम्भावना है।
2. प्रकृति निश्चित अनुपात में है -
संपूर्ण प्रकृति चार अवस्थाओं में द्रष्टव्य है
पदार्थ अवस्था - मिट्टी, पत्थर, मणि, धातुएं, पानी, हवा आदि।
प्राण अवस्था - सभी पेड़-पौधे एवं वन-वनस्पतियां।
जीवावस्था - पशु-पक्षी एवं संपूर्ण जीव-जगत।
ज्ञानावस्था - मानव।
पानी पहली जीवंत इकाई है। यह स्वयं हाइड्रोजन एवं आक्सीजन का निश्चित अनुपात है और पृथ्वी में पानी भी एक निष्चित अनुपात में है, तभी अन्य जीवन का निर्माण होता है। मानव सहित अन्य सभी अवस्थाएं एक निश्चित अनुपात में ही रहती हैं। इसमें मानव ही हस्तक्षेप कर पाता है क्योंकि वह कल्पना एवं कर्म के लिए स्वतंत्र है। प्रकृति एक निश्चित अनुपात में ही बनी रहती है। अनुपात बिगड़ने से इसमें असंतुलन हो जाता है। पानी, हवा एवं ताप इन तीनों के संतुलन से ही पृथ्वी का संपूर्ण प्राकृतिक वातावरण बना रहता है। पृथ्वी के जिस हिस्से में ताप की अधिकता हो जाती है उस ताप को संतुलित करने के लिए हवाएं लगातार बहती रहती है। हवा अपने साथ पानी लेकर तप्त हिस्से में ताप संतुलित करने का कार्य निरंतर करती रहती है। यह हवा, पानी एवं ताप की आवर्तनशीलता ही ऋतुएं कहलाती हैं।
पृथ्वी भी मिट्टी, पत्थर मणि एवं धातुओं का निश्चित अनुपात है। पृथ्वी के कोर में भारी धातुएं और क्रमशः पर्पटी की ओर हल्की धातुएं एवं मिट्टी सजी रहती है। इतना ही नहीं पृथ्वी पर भी निश्चित मात्रा में पानी विभिन्न रूपों में सदा बना रहता है और हवा में भी भारी गैसें पर्पटी की ओर एवं हल्की गैसें आयनों स्फेयर की ओर सजी रहती हैं। इसके अतिरिक्त पूरी पृथ्वी में वन-वनस्पतियां, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी एवं मानव भी निश्चित अनुपात में ही हैं। उपरोक्त अनुपात को समझकर जीने योग्य मानव ही है अर्थात यह ही इस अनुपात को बनाए रखने का पूर्ण जिम्मेवार भी है। आज प्रकृति के समानुपातिक सिद्धांत को न समझने के कारण धातुओं के अननुपातिक दोहन एवं वन-वनस्पतियों, जीव-जन्तुओं एवं मानव के अनुपात को समझकर न जीने का परिणाम ही पर्यावरण असंतुलन के रूप में द्रष्टव्य है।
अभी तक प्रचलित सिद्धांतों के अनुसार यह संपूर्ण प्रकृति परमात्मा द्वारा पैदा की गई वस्तु है, वही इसका नियंत्रण करता है एवं जब चाहे इसको समाप्त कर सकता है। इस अवधारणा के कारण ही न तो प्रकृति की सानुपातिक सिद्धांत के अध्ययन की जरूरत रही और न ही जिम्मेदारी। इसका परिणाम अंधाधुंध वनदोहन (काटने की प्रवृत्ति पर जोर एवं संरक्षण–रोपण के प्रति उदासीनता) एवं जीव-जंतुओं को खाद्य सामग्री बना लेने के रूप में प्रचलित है ही, धरती पर 98 फीसदी लोग मांसाहार करते हैं जिसके कारण से लाखों जीव-जंतुओं की प्रजातियां विलुप्त हो गई हैं।
इसी प्रकार वर्तमान में प्रचलित एवं प्रभावी भौतिकवादी सिद्धांत के अनुसार भी प्रकृति एक आकस्मिक धमाके का परिणाम है और यह कभी भी अगले धमाके में समाप्त हो सकती है। अतः इस सिद्धांत के अनुसार भी प्रकृति के सानुपातिक व्यवस्था के अध्ययन की आवश्यकता नहीं महसूस की गई। यदि हम प्रकृति को शाश्वत और अक्षुण्ण बनाये रखना चाहते हैं तो हमें उत्पादक मिट्टी, पवित्र जल, फलों व पशु-पक्षियों से भरपूर सुरम्य शस्यश्यामला प्रकृति के सानुपातिक सिद्धांत को समझना होगा और अपनी कृषि प्रणाली को तदानुसार विकसित करना होगा। आवर्तनशील खेती प्रकृति के सान्नुपातिक संबंध को समझकर ही विकसित की गई है।
3. प्रकृति में नियम, नियंत्रण व संतुलन है -
संपूर्ण प्रकृति सत्ता (शून्य) में संपृक्त है अर्थात सह-अस्तित्व में है। प्रकृति स्वउद्भूत (Self-Emerged) है। प्रकृति की प्रत्येक इकाई दूसरी इकाई के साथ एक निश्चित संबंध अर्थात दूरी को बनाए रखते हुए क्रियारत हैं. इस निश्चित क्रिया एवं दूरी को बनाए रखते हुए क्रियारत है, इस निश्चित क्रिया एवं दूरी को नियम कहते हैं। जैसे बीज का धरती से संपर्क होने पर एक क्रिया, पेड़-पौधों का पशु-पक्षियों के साथ एक क्रिया और इन सबका मानव के साथ क्रियाकलाप। इस प्रकार हम देखते हैं कि हर क्रिया का एक निश्चित परिणाम होता है। यह परिणाम यदि नियम को बनाये रखने के अनुकूल है तो इससे नियम ही पुष्ट होते हैं, जिसके कारण नित्य संतुलन शाश्वतता के रुप में बना रहता है। नियंत्रण का अधिकार कल्पना एवं क्रिया की स्वतंत्रता के कारण मानव को उपलब्ध है। इसलिए मानव ही प्राकृतिक संतुलन-असंतुलन दोनों का जिम्मेदार है।
विगत से ही मानव अध्यवसाय पूर्वक हजारों वर्षों के प्रयास से प्रकृति के नियमों को समझकर जीने का प्रयास करता रहा हैं। जैसे मिट्टी की उर्वरता की पहचान, बीज-वृक्ष की प्रक्रिया, ऋतुज्ञान, नक्षत्र ज्ञान, पशुओं के उपयोग का ज्ञान, धातु उपयोग के ज्ञान के आधार पर ही बुआई जुताई आदि की प्रणालियां विकसित कर मनुष्य हजारों वर्षों से खेती कर रहा है। इतना ही नहीं प्रकृति को ही माँ मानता रहा है। प्रकृति भी संतुलनपूर्वक सुख-समृद्धि प्रदायी रही, साथ में कृषि के कारण समाज व्यवस्था का भी प्रार्दुभाव हुआ जो भारतवर्ष में गांव कहलाते हैं। जहां पर अद्भूत रूप से प्रत्येक परिवार को आर्थिक एवं सामाजिक न्याय सहज उपलब्ध रहता था। अतः गांव ही समाज है।
4. प्रकृति की समस्त इकाईयों आवर्तनशीलता के साथ पंरपरा के रूप में अक्षुण्ण हैं –
आवर्तनशीलता का तात्पर्य ही अक्षुण्य परम्परा है। जैसे सम्पूर्ण पदार्थ (पानी, हवा, नदी, पहाड़, मिट्टी, धातुएं आदि) अपने अस्तित्व के रूप में परम्परा है। इसी प्रकार सम्पूर्ण पेड़-पौधे, वन-वनस्पतियां प्राणी वर्ग) बीजों के आधार पर परम्परा है। समस्त जीव संसार अर्थात पशु-पक्षी अपने वंश के आधार पर आवर्तनशील है, अर्थात परम्परा है। मानव अपने संस्कारों अर्थात अवधारणाओं के आधार पर एक परम्परा या आवर्तनशीलता है। आवर्तनशीलता प्रकृति की स्वतः संचालित होने की एक सतत् प्रक्रिया है, जिससे प्रकृति स्वयं को नित्य वातावरण के अनुरूप अनुकूलित (वातावरण के अनुकूल बनाते हुए) करते हुए प्रकृति की प्रत्येक इकाई विकास क्रम में अपनी परम्परा को बनाए रखते हैं।
इस परम्परा की उपेक्षा करके या प्रकृति के इस नियम की समझ के अभाव में पदार्थ के अस्तित्व, वन-वनस्पतियों के बीज एवं जीव जगत की वंश परम्परा में हस्तक्षेप कर रहे हैं। विगत में प्रचलित ईश्वरवादी अवधारणाओं में भी प्रकृति की इस आवर्तनशीलता के नियम को नहीं समझा गया और ना ही वर्तमान में प्रचलित कृषि विज्ञान के मूल अवधारणाओं में यह है। दोनों दृष्टिकोणों की मूल अवधारणों में प्रकृति विनाश होने के रूप में स्वीकृत है। वर्तमान कृषि विज्ञान में प्राणावरस्था के बीजों में, जीव-जन्तुओं के वंशों, धरती की उर्वरता की अक्षुण्णता या शाश्वतता को दरकिनार करके अधिकाधिक दोहन/शोषण की प्रवृत्ति से नियंत्रित करने का प्रयास जारी है। जिसके कारण अनेक पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं की प्रजातियां लुप्त हो गई है एवं आगे भी विकास की भयावहता बढ़ाने का कार्य जारी है।
अतः आवश्यक है कि प्रकृति की इस स्वभाव या व्यवस्था को समझकर ही अपनी कृषि पद्धतियों को विकसित किया जाए, जिससे वर्तमान एवं भविष्य में आगे की पीढ़ी को उपजाऊ उर्वर भूमि पर पेड़-पौधे, वन वनस्पतियां, खाद्यान, फल-सब्जियां एवं जीव-जंतुओं की विविध परम्पराओं को अक्षुण्ण बनाएं रखकर उन्हें अर्पित किया जा सकें, यही खाद्य सुरक्षा है।
5. प्रकृति कम लेकर ज्यादा देने (Qualitative Growth) के रूप में शाश्वत है -
प्रकृति की चारों अवस्थाएं एक विकासक्रम में हैं। प्रत्येक अवस्था एक, दूसरे से विकसित अवस्था में है, अर्थात पदार्थ अवस्था का विकसित स्वरूप प्राणावस्था, प्राणावस्था का विकसित स्वरूप जीवावस्था एवं जीवावस्था का विकसित स्वरुप ज्ञानावस्था है। किंतु यह चारों अवस्थाएं हर वर्तमान में बनी रहती हैं और ये एक-दूसरे के पोषण एवं संवर्धन का आधार होती हैं। जैसे पेड़-पौधे अपने पोषण व वृद्धि (बढ़ने, फलने-फूलने, बीज बनाने हेतु) के लिए पदार्थ अवस्था अर्थात मृदा से खनिज तत्त्व, हवा से जीवन तत्त्व, जल तत्त्व एवं प्रकाश तत्व से ऊर्जा प्राप्त करते हैं। यही पेड़-पौधे अपने द्वारा लिये गये समस्त आदानों को पहले से अधिक विकसित कर उर्वरक के रूप में पुनः धरती को लौटा देते हैं। इससे मृदा की उर्वरता और अधिक बढ़ जाती है, जो वन-वनस्पतियों की अपनी परम्परा को और अधिक विकसित होने में सहायक बनते हैं।
इसी प्रकार जीव-जानवर अपने पोषण हेतु खाद्य सामग्री वनस्पतियों एवं धरती से प्राप्त करते हैं। जिसे वह पचाकर वनस्पतियों के विकास में सहायक अपने अपशिष्ट सूक्ष्म जीवांषयुक्त खाद के रूप में लौटाते हैं फलस्वरूप वनस्पतियों का विकास तीव्रता से हो पाता है। इस प्रक्रिया से स्वयं जीव जगत और मानव के लिए अधिक पौष्टिक एवं प्रचुर अनुपात में आहार उपलब्ध हो जाता है। मानव ज्ञानावस्था की इकाई है जो समझ के आधार पर ही जीता है। उपरोक्त तीनों अवस्थाओं के गुणात्मक विकासक्रम को समझकर और उस परम्परा को बनाए रखने के लिए अपनी भूमिका को निर्धारित करता है, तब तीनों अवस्थाओं से जो भी लेता है उसको पुनः गुणात्मक वृद्धि करके वापस कर पाता है। ऐसे में ही पृथ्वी के गुणात्मक वृद्धि की आवर्तनशीलता बनी रह सकती है और अनन्त काल तक मानव जाति अपने लिए पोषण एवं खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित एवं सुस्थिर रख सकता है।
गुणात्मक वृद्धि का सिद्धांत वस्तुतः मानव की विकसित चेतना का प्रमाण है, यह एक चेतना का संक्रमण है। जैसे ही गुणात्मकता की समझ विकसित होती है, संख्यात्मक वृद्धि के प्रति विवशता या मोह समाप्त हो जाता है। पूरा ध्यान कम से कम मात्रा में अधिकाधिक एवं गुण वृद्धि पर केन्द्रित हो जाता है। जैसे एक - एकड़ खेत में सौ आंवले के पेड़ लगे तो उससे लगभग दो सौ क्विटल आंवला प्राप्त होता है और यदि पांच सौ रूपये की दर से बाज़ार मूल्य आके तो एक लाख रुपये का हुआ। यदि उसी का मुरब्बा बना दे तो वही दो सौ क्विटल आंवला चार सौ क्विटल बनेगा। जो सौ रूपये प्रति किलो की दर से चालीस लाख रूपये हुआ और यदि उसी दो सौ क्विटल आंवले से आमलकी रसायन या च्यवनप्राश बना दिया जाए तो इसका मूल्य करोड़ों में पहुंच जाता है। साथ ही अनेकों लोगों को रोजगार उपलब्ध हो जाता है। गुणात्मक विकास समझ में आ जाए तो दुनिया के प्रति कृतज्ञता भाव होता है, संघर्ष समाप्त हो जाता है। जबकि वर्तमान में प्रचलित कृषि अवधारणाओं में संघर्ष अवश्यंभावी है। अतः यह पुनः विचार योग्य तथ्य है।
6. प्रकृति में उभय तृप्ति है, लाभ-हानि नहीं -
मनुष्येत्तर प्रकृति के समस्त क्रिया-कलापों में कहीं लाभ-हानि एवं लालच नही दिखता, इसलिये कहीं पर संग्रह एवं अभाव भी नहीं दिखता है। जबकि मानव अपने लालच एवं संग्रह से स्वयं भी अभावग्रस्त हुआ है और धरती को भी असंतुलित एवं अभावग्रस्त कर दिया। प्रचलित कृषि लालचवादी अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों पर आधारित है जो कृषि के स्वभाव से बिलकुल भिन्न है। कृषि के किसी भी क्रियाकलाप में कोई क्षरण (Depreciation) नहीं होता है, उलटे मल्टीपीलिकेशन होता है। जैसे गाय दूध देती है और बछड़े-बछड़िया भी देती है और मधुमक्खी शहद भी देती है और अपनी वंशवृद्धि भी बनाये रखती है, जबकि वर्तमान अर्थशास्त्र उत्पादकों एवं प्रकृति के शोषण का तर्कशास्त्र है जो मानवीय संबंधों में अविश्वास एवं अतृप्ति पर आधारित है।
समस्त लाभवादी अर्थशास्त्र प्रतीक मुद्रा एवं बाजार के बिना नहीं चलते। जबकि प्रतीक मुद्रा नितांत अस्थिर वस्तु है। जो शासकों की अनुकूलता के अनुसार शोषण हेतु अस्त्र के रूप में प्रयोग किया जाता है। बाजार संबंधविहीन मुद्रा आधारित लेन-देन का स्थान है जो कभी तृप्ति नहीं देता। इसके उलटे कृषि आवर्तनशील अर्थशास्त्र पर आधारित है। जो प्रकृति को शाश्वत बनाए रहते हुए अपना पोषण प्राप्त कर लेने एवं संबंधों के आधार पर विनिमय पर आधारित है, यह उभय तृप्तिदायक है। ऐसी कृषि व्यवस्था जो प्राकृतिक नियमों पर आधारित हो, से सर्वत्र शुभ की आशा की जा सकती है; लाभ-हानि (परस्पर शोषण) आधारित सिद्धांतों के आधार पर नहीं।
7. खेती परिवार एवं गाँव (समाज) का विषय (कार्यकलाप) है, न कि व्यक्तिगत -
खेती एक बहुविध, बहुआयामी एवं बहुकोणीय कार्यकलाप है। इसमें हर आयु, हर क्षमता, हर हुनर की जरूरत होती है। परिवार एवं गांव के समस्त लोग एक-दूसरे का सहयोग करते हैं, तब खेती एक उत्सव बन जाता है एवं समृद्धि का अनुभव होता है, जबकि व्यक्तिरूप से हर जगह पराश्रितता एवं कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
भौतिकवादी समाजशास्त्रीय अवधारणाओं में व्यक्ति को समाज की इकाई मान लिया गया। तदानुसार समस्त अर्थशास्त्रीय एवं राजनैतिक प्रक्रियाएं विकसित हुई। जिसके परिणामस्वरूप विश्व में व्यक्तिवादी, अहमवादी प्रवृत्तियां प्रभावी हैं, जो संबंधविहीन एवं तनावयुक्त परिवेश पैदा करता है। यह खेती के लिए अनुपयुक्त परिस्थितियां हैं। इसका प्रमाण यह है कि दुनिया के कुल खाद्यान, सब्जी एवं दूध घी का 70 प्रतिशत हिस्सा छोटे काश्तकारों, जहां पूरा परिवार मिलकर खेती करता है, वहां से आता है, जबकि व्यक्तिवादी बड़े फार्महाउस जहाँ भारी मात्रा में बड़ी मशीनरी, भारी मात्रा में रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक, हाईब्रीड एवं जीएम बीज प्रयोग किये जाते हैं। उनके उत्पादन की कुल विश्व के उत्पादन में 10 प्रतिशत भी भागीदारी नहीं है। उलटे यदि ऊर्जा, पर्यावरण संतुलन, रोजगार एवं उत्पादन के आधार पर मूल्यांकन किया जाए तो यह पूरे विश्व के लिए खतरे का कारक है।
एक और तथ्य, जिन-जिन देशों में कृषि, परिवार एवं समाज आधारित एवं नियोजित व्यवसाय है। वहां-वहां किसानों की संख्या अधिक होने से सामाजिक व्यवस्था स्वनियंत्रण के रूप में उपलब्ध है। जहां-जहां बड़े फार्महाउस हैं वहां किसान परिवार कम हैं और उसी मात्रा में शासन व्यवस्था एवं शहरीकरण अधिक है, जोकि मानव के लिए सहज स्वीकार्य नही है।
8. प्राकृतिक ऐश्वर्य का मूल्य शून्य (अमूल्य) है जबकि उत्पादन में स्वत्वाधिकार है -
प्रकृति द्वारा प्रदत्त वस्तुओं में मानव का विवेक एवं श्रम न्यूनतम होता है। जैसा कि गेहूँ के बीज से पौधा बनने एवं फलने तक की प्रक्रिया में मानव का न तो कोई मानसिक श्रम है और न ही विवेक है। यह कार्य प्रकृति में अंर्तनिहित गेहंा की क्षमता से सम्पादित होता है। इसलिए मनुष्य प्रकृति के सम्पादन से प्राप्त वस्तुओं का मूल्य लगाने में सक्षम नही होता है। यह सबकी है और जब मनुष्य अपने विवेक और श्रम के संयोजन से इन वस्तुओं में उपयोगिता एवं कला–मूल्य स्थापित करके उत्पादन करता है, तब वह अपने उत्पाद का मूल्य लगाने में सक्षम हो जाता है, जो समृद्धि का मुख्य आधार है। जिसको आवश्यकतानुसार बढ़ाया-घटाया जा सकता है। जैसे चने का मूल्य लेने वाला तय करता है, जबकि उसी में से दाल, बेसन या कुछ अन्य गुणात्मक वृद्धि कर देने से उसका मूल्य लगाने में उत्पादक सक्षम हो जाता है।
9. स्वायत्तता (आत्मनिर्भरता) ही समझदारी का प्रमाण है -
स्वायत्तता का आशय जहां मानव अपने परिवार को न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, उत्पादन एवं विनिमय को बिना किसी अपव्यय एवं बाधा के सुलभतापूर्वक उपलब्ध करा सके। यह परिवारमूलक ग्राम स्वराज में ही सम्भव है। इसमें भागीदारी, समझदारी और समृद्धि का प्रमाण है। यह आत्मनिर्भरता या स्वायत्तता ही मानव लक्ष्य है। जिसमें समाजिक जिम्मेदारी निर्वाह के रूप में प्रमाणित होती है।
किसान परिवार को यदि शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय आदि वहीं उपलब्ध नहीं है, जहाँ वह (गांव में) रहता है। तो वह कितना भी उत्पादन करें, पूरा नहीं पड़ता। किसान की दरिद्रता का मूल कारण दूरस्थ और मंहगी शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय की सेवाएं भी हैं। राज्य संस्था जिसका दायित्व शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय, उत्पादन के अवसर तथा विनिमय सुलभ कराना है। इसके बजाय राज्य शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय का स्वयं व्यापार करती हैं और दूसरे को व्यापार करने की अनुमति प्रदान करती है। यह उत्पादकों के लूट का एक तरीका है, क्योंकि उपरोक्त पांचों (शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय, उत्पादन एवं विनिमय) के बिना कोई व्यक्ति नहीं रह सकता। धरती पर अखण्ड समाज एवं सार्वभौम व्यवस्था (सबके सुखपूर्वक साथ रह पाने की संभावना) अर्थात सर्व मानव के सुख-समृद्धि पूर्वक रह पाने का आधार भी यही है। अतः समृद्ध एव आत्मनिर्भर समाज रचना के लिए परिवार मूलकग्राम स्वराज आवश्यक है। इसके लिए सह–अस्तित्ववादी अवधारणा के आधार पर संविधान की पुर्नरचना कर उसकी स्थापना की जाए। तदानुरूप सहज मानवापेक्षा यानि समाधान, समृद्धि, अभय और सह-अस्तित्व के लिए समस्त सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक प्रणालियां विकसित की जाए।
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