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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष - अनुकरणीय है भारतीय महिला समाज सुधारकों का संघर्ष

Mukhtar Khan

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ByMukhtar Khan Mukhtar Khan   0

 अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष - अनुकरणीय है भारतीय महिला समाज सुधारकों का संघर्ष- 

समाज के विकास और उत्थान में महिलाओं और पुरुषों का समान योगदान रहा है। अक्सर पुरुषों के योगदान की चर्चा होती है, लेकिन महिलाओं द्वारा किए गए सामाजिक कार्यों की उतनी चर्चा नहीं की जाती। महिला दिवस के अवसर पर हम आज दो ऐसी ही महान नारियों के जीवन और कार्य के बारे में जानेंगे, जिन्होंने आज से पौने दो सौ वर्ष पहले स्त्री और दलितों की शिक्षा के क्षेत्र में कार्य किया। ये दो महिलाएँ सावित्री बाई फुले और फातिमा शेख अपने समय की क्रांतिकारी महिलाएं थीं। दोनों ने एक साथ मिलकर शिक्षा और समाज सुधार के लिये कार्य किया। सावित्री बाई फुले के योगदान से तो हम परिचित हैं। लेकिन फातिमा शेख के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। सावित्री बाई के पत्रों द्वारा हमें फातिमा शेख की जानकारी मिलती है।

सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिल्हे में नायगांव नाम में हुआ था। 1840 में सावित्री बाई का विवाह ज्योतिबा फुले से हुआ। ज्योतिबा अपनी मौसेरी बहन सगुना बाई के साथ रहते थे। विवाह के बाद ज्योतिबा फुले ने अपनी पढ़ाई जारी रखी। खुद की पढाई के साथ साथ ज्योतिबा घर पर सावित्री बाई को भी पढ़ाने लगे। बहुत जल्द ही सावित्रीबाई ने मराठी व अंग्रेज़ी पढ़ना लिखना सीख लिया। इस के बाद सावित्री बाई ने स्कूली परीक्षा पास कर ली। सावत्रि बाई शिक्षा का महत्तव जान गयी थीं। सावित्रीबाई और ज्योतिबा चाहते थे कि उन्हीं की तरह समाज के पिछड़े वर्ग की महिलाओं को भी पढ़ने लिखने का अवसर मिले। उस समय दलित व पिछड़ी जातियों के लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। 

ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने अपने मन में लडकियों के लिये विद्यालय खोलने का निश्चय कर लिया। लेकिन समस्या यह थी कि लड़कियों को पढ़ाने के लिए महिला अध्यापिका कहां से लाये? जहां चाह होती है वहां राह निकल ही आती है। इस महान कार्य की ज़िम्मेदारी सावित्री बाई ने संभाली। उन्होंने मिशनरी कॉलेज से टीचर ट्रेनिग का कोर्स पूरा किया। अब वे एक प्रशिक्षित अध्यापिका बन गयीं थीं। इस तरह ज्योतिबा और सावित्री बाई ने पूना में सन 1848 में पहले महिला विद्यालय की नीव रखी। महिलाओं के लिये विद्यालय चलाना आसान काम ना था। शुरुआत में अभिभावक अपनी लडकियों को विद्यालय में भेजने के लिए तैयार नहीं हुए। लोग लड़कियों को पढ़ाने के पक्ष में ही नहीं थे। अज्ञानतावश उन्होंने यह धारणा बना ली थी कि यदि लडकियों को पढ़ाया गया तो उनकी सात पीढियाँ नरक की भागीदार बन जायेगी। ऐसी स्थिति में लोगों को समझना बड़ा कठिन था।

 अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष - अनुकरणीय है भारतीय महिला समाज सुधारकों का संघर्ष- 

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इसके बावजूद सावित्री बाई ने हिम्मत नहीं हारी। वे लोगो के घर-घर जाती, उन्हें प्यार से समझती। शिक्षा का महत्त्व बताती। उनके इस कार्य से प्रेरित होकर पूना की एक और साहसी महिला शिक्षिका फातिमा शेख सामने आयीं। फातिमा शेख के साथ आ जाने से सावित्री बाई का हौसला दुगुना हो गया। फातिमा शेख का सम्बंध एक सामान्य मुस्लिम परिवार से था। उनका जन्म 9 जनवरी 1831 को हुआ था। ।अपनी बिरादरी की वह पहली पढ़ी लिखी महिला थीं। फातिमा शेख बड़े भाई उस्मान शेख के साथ पूना में ही रहती थीं। उस्मान शेख महात्मा फुले के बचपन के मित्र थे। महात्मा फुले की तरह वे भी खुले विचारों के थे। उन्हीं के प्रयास से फातिमा भी पढ़ लिख पाई थीं। फातिमा शेख के साथ जुड़ जाने से लडकियों के स्कूल में जान आ गयी ।

अब लड़कियों के स्कूल का काम बड़े उत्साह के साथ चलने लगा। फातिमा और सावित्री बाई दोनों सवेरे जल्दी उठ जातीं। पहले अपने घर का काम पूरा करतीं। इसके बाद पूरा समय अपने स्कूल को देती। ज्योतिबा और उस्मान शेख का सहयोग भी इन्हें बराबर मिलता रहता। शुरुआत में विद्यालय में केवल छह ही लड़कियां थीं। धीरे धीरे यह संख्या बढ़ने लगी। सब कुछ योजना अनुसार चल रहा था। लेकिन शहर के संभ्रांत वर्ग को लडकियों का यूं पढ़ना लिखना ठीक ना लगा। इस कार्य को शास्त्र विरोधी बताकर उन्होंने फुले परिवार का विरोध किया। इसके बावजूद सावित्री बाई अपने कार्य में जुटी रही। विरोध करने वालों ने ज्योतिबा के पिता गोविंदराव पर दबाव बनाया। गोविंदराव को सामाज से बहिष्कृत करने की धमकी दी गयी। इस विरोध के चलते गोविन्दराव ने ज्योतिबा से विद्यालय बन्द करने या घर छोड़ देने की शर्त रखी। ज्योतिबा और सावित्री बाई किसी भी सूरत में अपना मिशन जारी रखना चाहते थे। पिता की बात उन्होंने नहीं मानी। अंत में उन्हें अपना घर छोड़कर जाना ही पड़ा। 

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पूणे शहर में कोई उन्हें सहारा देने को तैयार नहीं था। सावित्री बाई को अपने घर से अधिक लडकियों के पढ़ाई की चिंता सताये जा रही थी। इधर संभ्रांत वर्ग ने फुले दंपति का सामजिक बहिष्कार कर रखा था। सामजिक बहिष्कार के डर से कोई उनकी सहयता के लिये आगे नहीं आया। फुले परिवार को धर्म विरोधी घोषित कर दिया गया था। ऐसी संकट की घड़ी में महात्मा फुले के बचपन के मित्र उस्मान शेख फरिश्ता बनकर सामने आये। उस्मान शेख ने अपना निजी बाड़ा फुले परिवार के लिये खोल दिया। शेख परिवार ने सावित्री बाई और ज्योतिबा को सहारा ही नहीं दिया बल्कि अपने घर का एक हिस्सा स्कूल चलाने के लिये भी दे दिया। इस तरह लड़कियों का विद्यालय अब फातिमा शेख के घर से ही चलने लगा। उस्मान शेख और फातिमा को भी अपने समाज के भीतर लगातार विरोध झेलना पड़ रहा था।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष - अनुकरणीय है भारतीय महिला समाज सुधारकों का संघर्ष-  

सावित्री बाई की तरह ही फातिमा शेख को भी बुरा-भला कहा जाता। उन पर ताने कसे जाते, गालियां दी जाती। उन पर कीचड़, गोबर फेंका जाता, उनके कपड़े गंदे हो जाया करते। दोनों महिलाएं चुपचाप ये यातनाएँ सहती रहीं। फातिमा शेख और सावित्री बाई दोनों बड़ी निडर और साहसी महिलाएँ थीं। दोनों ने हार नहीं मानी, वे दूनी लगन और मेहनत के साथ लड़कियों का भविष्य संवारने में जुटी रहीं। उन्होंने 1850 में उन्होंने ‘द नेटिव फीमेल स्कूल। पुणे’ नामी संस्था बनाई। इस संस्था के अंतर्गत पुणे शहर के आस पास 18 विद्यालय खोल गये। उस ज़माने में महिलाओं की तरह ही दलित बच्चों के लिये भी शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। इस समस्या को दूर करने के लिये महात्मा फुले ने‘सोसायटी फ़ॉर द प्रमोटिंग एजुकेशन ऑफ़ महार एन्ड मांग’ नामक संस्था की स्थापना की इस तरह महिलाओं के साथ-साथ वंचित समाज के बच्चों के लिए भी विद्यालय की शुरुआत हुई।

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फातिमा शेख ऐसी पहली मुस्लिम महिला बनी जिसने मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा के साथ साथ बहुजन समाज की शिक्षा के लिए भी काम किया। फातिमा शेख के बारे में बहुत कम जानकारी प्राप्त है। सावित्री बाई के पत्रों से हमें उनकी जानकारी मिलती है। हम समझ सकते हैं, आज से दो सौ वर्ष पूर्व किसी मुस्लिम महिला का इस तरह घर की चार दीवारी से बाहर आकर समाज कार्य करना, कितने साहस का काम रहा होगा? फातिमा शेख ने सावित्री बाई के मिशन को आगे ही नहीं बढ़ाया ब्लकि संकट की घड़ी में सदा उनके साथ खड़ी रही। सावित्री बाई की अनुपस्थिति में स्कूल प्रशासन की सारी जिम्मेदारी फातिमा शेख ही संभाला करती थी। विद्यालय में छात्राओं की संख्या बढ़ने लगी। शिक्षा ग्रहण करने के बाद उनकी छात्राएँ भी अध्यापिका की भूमिका निभाने लगी। आगे चलकर सावित्री बाई ने अपने सामाजिक कार्य को और विस्तार दिया।

उन दिनों समाज में बाल विवाह प्रथा का चलन आम था। बहुत सी लड़कियां छोटी उम्र में ही विधवा हो जाया करती। इसके अतिरिक्त ऐसी अविवाहित माताएँ जिन्हें समाज पूरी तरह से बहिष्कृत कर देता, ऐसी पीड़ित महिलाओं के सामने सिवाय आत्महत्या के कोई और मार्ग नहीं रहता। महात्मा फुले और सावित्री बाई ने ऐसी पीडित महिलाओं के लिये 28 जनवरी 1853 को ‘बाल हत्या प्रतिबंधक गृह’ नाम से एक आश्रम खोला। देश में महिलाओं के लिए इस तरह का यह पहला आश्रम था। इस आश्रम में महिलाओं को छोटे-मोटे काम सिखाए जाते, उनके बच्चों की देख भाल की जाती। बड़े होने पर उन्हें स्कूल में दाखिल कराया जाता।

एक दिन आश्रम में काशीबाई नाम की एक अविवाहित गर्भवती महिला आई। सावित्री बाई ने उसे सहारा दिया, आगे चलकर उस महिला के पुत्र को ही उन्होंने गोद लिया। यह बालक बड़ा हो कर डॉ. यशवंत कहलाया। सावित्री बाई ने यशवंत को पढ़ा लिखा कर एक सफल डॉक्टर बनाया। 1896 की बात है मुंबई, पुणे में उन दिनों प्लेग फैला हुआ था। सावित्री बाई लोगों की सेवा में जुटी रहती। इसी दौरान वे भी प्लेग की चपेट में आ गयीं। और 10 मार्च 1897 को इस महान समाज सेविका ने अपने प्राण त्याग दिए। 

सावित्री बाई और फातिमा शेख ने सैकड़ों महिलाओं के जीवन में शिक्षा और ज्ञान की ज्योत जलाई। शिक्षा के द्वारा शूद्रों, स्त्रियों को स्वाभिमान के साथ जीने का रास्ता दिखाया। आज महिलाएं प्रगति के मार्ग पर अग्रसर हैं, पहले से अधिक स्वतंत्र हैं। महिलाओं के उत्थान में महत्मा फुले, सावित्री बाई और फातिमा शेख जैसी महान विभूतियों का संघर्ष और त्याग छिपा है। 8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर सावित्री बाई और फातिमा शेख जैसी महान नारियों के योगदान को याद करना हम सब के लिये गर्व की बात है।

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