
कहने को 21वीं सदी, नई तकनीकी की युवा
सदी है; एक ऐसी सदी, जब सारी दुनिया डिजीटल
घोङों पर सवारी करने को उत्सुक है। सारी तरक्की, ई मानदण्डों की ओर निहारती ओर नजर
आ रही है। ई शिक्षा, ई चिकित्सा, ई व्यापार, ई निगरानी, ई सुरक्षा और यहां
तक कि विचार, प्रचार और संवाद भी ई ही !
यह एक चित्र है। दूसरा चित्र, तपती धरती और नतीजे में मिटती
प्रजातियों और बढ़ते बीमारों की एक बेबस सदी का है। 21वीं सदी को आप अलगाव, आतंक, औजार के अलावा हमारे
आचार-विचार पर आर्थिक होङा-होङी के दुष्प्रभाव की एक ऐसी सदी भी कह सकते हैं, जिसमें हमें यह
देखने तक की फुर्सत तक नहीं है कि इस सदी का सवार बनकर हमने खोया क्या और पाया
क्या ?
इस 21वीं सदी की भारतीय चुनौतियां विविध
हैं : घटती समरसता, घटती सहिष्णुता, बढता भोग, बढता लोभ, बढते तनाव, बढती राजतांत्रिक
मानसिकता, बढता आतंकवाद-नक्सलवाद और आर्थिक
उदारवाद का नकाब पहनकर घुसपैठ कर चुका नवसाम्राज्यवाद!! विकास और विनाश के बीच की
धूमिल होती अंतर रेखा; अमीर और गरीब... दोनों की संख्या
में बढोतरी का भारतीय विरोधाभास; कमजोर पङती लोकनीति; हावी होती
राजनीति, चेतावनी देती जलवायु तथा पानी, पर्यावरण, परिवेश, समय, संस्कार. सब पर हावी
होता अर्थतंत्र। इतनी सारी चुनौतियों के बीच 2020 तक भारत को दुनिया की महाशक्ति के
रूप में देखने का एक पुराना दावा 21वीं सदी के इस दूसरे दशक का सबसे
बङा झूठ सिद्ध होता दिखाई दे रहा है; खासकर यदि अस्मिता के भारतीय
निशानों को बचाये रखते हुए इस दावे को पूरा करना हो।
जो अपने पास है, उसी में जीवनयापन की स्वावलंबी
जीवन शैली, जड़ी-बूटी, ध्यान, व्यायाम आधारित
स्वावलंबी चिकित्सा पद्धति, प्राणी मात्र के कल्याण को धर्म
मानने वाला भारतीय अध्यात्म, 'वसुधैव कुटुंबकम' का भारतीय
समाजशास़्त्र, समग्र विकास की भारतीय अवधारणा और
सदियों के अनुभवों पर जांचा-परखा भारतीय ज्ञानतंत्र - जब-जब भारत समग्र समृद्धि का
प्रतीक राष्ट्र बनकर उभरा, इसकी नींव में मूल धारायें यही
थीं। इन्ही ने मिलकर भारतीय अस्मिता के निशानों का निर्माण किया।
क्या ये धारायें
आज कमजोर नहीं हुई हैं ? गंगा-जमुनी
तहजीब और गंगा
जैसे भारतीय अस्मिता के कई प्रखर निशानों को क्या हमने आज खुद दांव पर नहीं लगा
दिया है ? गुरु-शिष्य, नारी-पुरुष, पिता-पुत्र, समाज-परिवार, प्रकृति और मानव...
निजी तरक्की, भोग और लालच की दौङ में क्या आज
खुद हमने इन सभी रिश्तों को पिछवाङे की खरपतवार समझ नहीं लिया है ? यदि मैं यह कहूं कि
हम में से कितने तो इन रिश्तों को विकास में बाधक तत्व की तरह देखते हैं, तो अचम्भा नहीं होना
चाहिए। क्या नये तरह के आर्थिक विकास ने समग्र विकास के लिए जरूरी आधारभूत
संसाधनों की लूट के रवैये को नहीं अपना लिया ? ये सभी विचारणीय प्रश्न हैं; विचारिए।
आज हम खुद अपनी शिक्षा प्रणाली से संतुष्ट नहीं हैं।
बुनियादी शिक्षा से अनभिज्ञ बढती डिग्रियां एक ओर रोजगार के बुनियादी क्षेत्रों
में मानवशक्ति की कमी का कारण बन रही हैं, तो अन्य क्षेत्रों में कोचिंग की
दुकान और बेरोजगारी... दोनों को बढ़ावा देने वाली साबित हो रही हैं। एक पीढ़ी-दूसरी
पीढ़ी की संस्कारहीनता को कोस रही है। बूढे मां-बाप अपने ही बनाये घर से बाहर
आशियाने की तलाश कर रहे हैं! विदेशी पूंजी की तरफदारी में देश का शासन, शीर्षासन करता दिखाई
दे रहा है। एक ओर, लोग पानी, प्रदूषण कुपोषण और
भूख के कारण बीमार होकर मर रहे हैं, तो दूसरी ओर राष्ट्र, हथियारों के जखीरे
के लिए बजट बढाने को विवश है। व्यवस्था व इसके संचालकों पर हमें यकीन नहीं रहा।
व्यवस्था परिवर्तन के लिए हम आंदोलनों की मांग कर रहे हैं।
आचरण में गिरावट व्यापक
है।
भ्रष्टाचार से निजात का कोई उपचार सुझाये नहीं सूझ रहा। गांधी जी के नाम पर जी
रही संस्थाओं में ही गांधी चिंतन के आत्मप्रयोग को प्रतिष्ठित करने की लालसा नहीं
रही; ऐसे में यह सवाल
उठना स्वाभाविक है कि क्या गांधी मार्ग.. 21वीं सदी का मार्ग नहीं है ? बुनियादी शिक्षा, कुटीर उद्योग, स्वावलंबी जीवन, बापू के रचनात्मक
कार्यक्रम, ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम का सद्भाव
संदेश, ग्रामस्वराज, हिंदस्वराज की
अवधारणा, बापू के सपने का भारत, सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह और शांति
के बल पर दुनिया की सुरक्षा... क्या ये सभी विचार पुंज 21वीं सदी की
चुनौतियों का समाधान नहीं हैं ? मेरा मानना है कि समाधान ये ही
हैं।
यदि ऐसा न होता, तो दुनिया की सर्वाेच्च संस्था 'संयुक्त राष्ट्र
महासभा' भारत जैसे राष्ट्र के राष्ट्रपिता
के जन्म दिवस को 'अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस' के रूप में
प्रतिवर्ष मनाने का फैसला न लेती। गांधी मार्ग पर चलने वाले नेल्सन मंडेला, आर्म बिशप डेसमंड
टुटु और आंग सां सू की जैसे लोगों को आधुनिक विश्व
के सवोच्च सम्मानों से सम्मानित न किया जाता। गांधी टोपी वाले अन्ना के आंदोलन के
ज्वार में आधुनिक युवा एक नहीं होता।
कोई
कैसे नकार सकता है कि दलितों को अधिकार दिलाने के लिए बाबा साहेब अंबेडकर का
सत्याग्रह, विनोबा का भूदान, जेपी की संपूर्ण
क्रांति, महाराष्ट्र के महाद शहर का पानी
सत्याग्रह, नासिक का धर्म सत्याग्रह, चिपको आंदोलन, टिहरी विरोध में
सुंदरलाल बहुगुणा का हिमालय बचाओ, मेधा का नर्मदा बचाओ, राजेन्द्र सिंह का यमुना सत्याग्रह, प्रो जी डी अग्रवाल और स्वामी निगमानंद
के गंगा अनशन... गांधी मार्ग पर चलकर ही चेतना और चुनौती का पर्याय बन सके। भ्रूण
हत्या को अपराध मानने जैसे कानून, पुलिस जैसे विभाग में मानवाधिकार
आयोग के अधिकार, सूचना का अधिकार, मनरेगा, खाù सुरक्षा, पेयजल सुरक्षा...
जैसे तमाम कायदे-कानूनों के आधार गांधी मार्ग से भिन्न नहीं हैं।
''मेरी समझ में राजनीतिक सत्ता अपने
आप में साध्य नहीं है। वह जीवन के प्रत्येक विभाग में लोगों के लिए अपनी हालत
सुधारने का साधन है।...राष्ट्रीय प्रतिनिधि यदि आत्मनियमन कर लें, तो फिर किसी
प्रतिनिधित्व की आवश्यकता नहीं रह जाती। उस समय ज्ञानपूर्ण अराजकता की स्थिति हो
जाती है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक अपने में राजा होता है।
वह ऐसे ढंग से अपने पर शासन करता है कि अपने पङोसियों के लिए कभी बाधक नहीं बनता।
इसलिए आदर्श व्यवस्था में कोई राजनीतिक सत्ता नहीं होती, क्योंकि कोई राज्य
नहीं होता। परंतु जीवन में आदर्श की पूरी सिद्धि कभी नहीं बनती; इसीलिए थोरो ने कहा
है कि जो सबसे कम शासन करे, वही सबसे उत्तम सरकार है।''
यहां 'सबसे कम' का तात्पर्य, सबसे कम समय न होकर, सरकार में जनता को
शासित करने की मंशा का सबसे न्यून होना है। क्या गांधी के इस कथन में आपको
जातिवादी राजनीति, बढती मसल पावर.. मनीपावर जैसी सबसे
चिंतित करने वाली चुनौतियों को उत्तर देने की ताकत स्पष्ट दिखाई नहीं देती ? मैं साफ देख रहा हूं
कि गांधी के बुनियादी चिंतन को व्यवहार में उतारने मात्र से बलात्कार की उग्र होती
प्रवृति से मुिक्त से लेकर वैश्विक नवसाम्राज्यवाद के पुराने चक्रव्यूह में फंस
चुके भारत की आर्थिक आजादी तक स्वयंमेव सुरक्षित हो जायेगी।
गांधी जी ने देश का बंटवारा होते हुए भी राष्ट्रीय
कांग्रेस के जुटाये साधनों के जरिए हिंदुस्तान की आजादी मिलने के कारण
कांग्रेस की उपयोगिता को खत्म मानते हुए कहा था - ''शहरों, कस्बों से भिन्न सात
लाख गांवों वाली आबादी की दृष्टि से अभी हिंदुस्तान को सामाजिक, नैतिक और आर्थिक
आजादी हासिल करना अभी बाकी है।'' इस आजादी को हासिल करने में
कांग्रेस की भूमिका को परिभाषित करते हुए उन्होने तीन बातें कही थी - ''लोकशाही के ध्येय की
तरफ हिंदुस्तान की प्रगति के दरमियान फौजी सत्ता पर मुख्य सत्त को प्रधानता देने
की लङाई की अनिवार्यता; कांग्रेस को राजनैतिक पार्टियों और
संाप्रदायिक संस्थाओं के साथ गंदी होङ से बचना तथा कांग्रेस के तत्कालीन स्वरूप को
तोङकर सुझाये नये नियमों के मुताबिक लोक सेवक संघ के रूप में प्रकट होना।''
लोक सेवक संघ के लिए सुझाये नियमों को गौर से पढें, तो स्पष्ट हो जायेगा
कि व्यवस्था परिवर्तन उपाय नहीं है। समस्याओं के समाधानों को व्यवस्था या राजनीति
नहीं, पंचायतों
तथा मोहल्ला समितियों के रूप में गठित बुनियादी लोक इकाई से लेकर हमारे निजी
चरित्र में आई गिरावट में खोजने की जरूरत है। चरित्र निर्माण.. गांधी मार्ग का भी
मूलाधार है और विवेकानंद द्वारा युवाशक्ति के आहृान् का भी। लोकतंत्र से बेहतर कोई
तंत्र नहीं होता। सदाचारी होने पर यही नेता, अफसर और जनता... यही व्यवस्था
सर्वश्रेष्ठ में तब्दील हो जायेंगे।
माता-पिता और शिक्षक.. मूलतः इन तीन पर चरित्र
निर्माण का दायित्व है। इन तीनों की उपेक्षा और दायित्वहीनता का ही परिणाम है कि
दुनिया को गांधी मार्ग बताने वाले भारत को आज खुद गांधी मार्ग को याद करने की
जरूरत आन पङी है। जो व्यवहार खुद के साथ अच्छा लगे, वही दूसरे के साथ करें। यही है
गांधी मार्ग। आइये, इसका आत्मप्रयोग शुरु करें। हो सके, तो बापू की इस पुण्य तिथि से ही। हे
राम!!
By
Arun Tiwari Contributors
Amit Kumar Yadav 80
कहने को 21वीं सदी, नई तकनीकी की युवा सदी है; एक ऐसी सदी, जब सारी दुनिया डिजीटल घोङों पर सवारी करने को उत्सुक है। सारी तरक्की, ई मानदण्डों की ओर निहारती ओर नजर आ रही है। ई शिक्षा, ई चिकित्सा, ई व्यापार, ई निगरानी, ई सुरक्षा और यहां तक कि विचार, प्रचार और संवाद भी ई ही ! यह एक चित्र है। दूसरा चित्र, तपती धरती और नतीजे में मिटती प्रजातियों और बढ़ते बीमारों की एक बेबस सदी का है। 21वीं सदी को आप अलगाव, आतंक, औजार के अलावा हमारे आचार-विचार पर आर्थिक होङा-होङी के दुष्प्रभाव की एक ऐसी सदी भी कह सकते हैं, जिसमें हमें यह देखने तक की फुर्सत तक नहीं है कि इस सदी का सवार बनकर हमने खोया क्या और पाया क्या ?
इस 21वीं सदी की भारतीय चुनौतियां विविध हैं : घटती समरसता, घटती सहिष्णुता, बढता भोग, बढता लोभ, बढते तनाव, बढती राजतांत्रिक मानसिकता, बढता आतंकवाद-नक्सलवाद और आर्थिक उदारवाद का नकाब पहनकर घुसपैठ कर चुका नवसाम्राज्यवाद!! विकास और विनाश के बीच की धूमिल होती अंतर रेखा; अमीर और गरीब... दोनों की संख्या में बढोतरी का भारतीय विरोधाभास; कमजोर पङती लोकनीति; हावी होती राजनीति, चेतावनी देती जलवायु तथा पानी, पर्यावरण, परिवेश, समय, संस्कार. सब पर हावी होता अर्थतंत्र। इतनी सारी चुनौतियों के बीच 2020 तक भारत को दुनिया की महाशक्ति के रूप में देखने का एक पुराना दावा 21वीं सदी के इस दूसरे दशक का सबसे बङा झूठ सिद्ध होता दिखाई दे रहा है; खासकर यदि अस्मिता के भारतीय निशानों को बचाये रखते हुए इस दावे को पूरा करना हो।
जो अपने पास है, उसी में जीवनयापन की स्वावलंबी जीवन शैली, जड़ी-बूटी, ध्यान, व्यायाम आधारित स्वावलंबी चिकित्सा पद्धति, प्राणी मात्र के कल्याण को धर्म मानने वाला भारतीय अध्यात्म, 'वसुधैव कुटुंबकम' का भारतीय समाजशास़्त्र, समग्र विकास की भारतीय अवधारणा और सदियों के अनुभवों पर जांचा-परखा भारतीय ज्ञानतंत्र - जब-जब भारत समग्र समृद्धि का प्रतीक राष्ट्र बनकर उभरा, इसकी नींव में मूल धारायें यही थीं। इन्ही ने मिलकर भारतीय अस्मिता के निशानों का निर्माण किया।
क्या ये धारायें आज कमजोर नहीं हुई हैं ? गंगा-जमुनी तहजीब और गंगा जैसे भारतीय अस्मिता के कई प्रखर निशानों को क्या हमने आज खुद दांव पर नहीं लगा दिया है ? गुरु-शिष्य, नारी-पुरुष, पिता-पुत्र, समाज-परिवार, प्रकृति और मानव... निजी तरक्की, भोग और लालच की दौङ में क्या आज खुद हमने इन सभी रिश्तों को पिछवाङे की खरपतवार समझ नहीं लिया है ? यदि मैं यह कहूं कि हम में से कितने तो इन रिश्तों को विकास में बाधक तत्व की तरह देखते हैं, तो अचम्भा नहीं होना चाहिए। क्या नये तरह के आर्थिक विकास ने समग्र विकास के लिए जरूरी आधारभूत संसाधनों की लूट के रवैये को नहीं अपना लिया ? ये सभी विचारणीय प्रश्न हैं; विचारिए।
आज हम खुद अपनी शिक्षा प्रणाली से संतुष्ट नहीं हैं। बुनियादी शिक्षा से अनभिज्ञ बढती डिग्रियां एक ओर रोजगार के बुनियादी क्षेत्रों में मानवशक्ति की कमी का कारण बन रही हैं, तो अन्य क्षेत्रों में कोचिंग की दुकान और बेरोजगारी... दोनों को बढ़ावा देने वाली साबित हो रही हैं। एक पीढ़ी-दूसरी पीढ़ी की संस्कारहीनता को कोस रही है। बूढे मां-बाप अपने ही बनाये घर से बाहर आशियाने की तलाश कर रहे हैं! विदेशी पूंजी की तरफदारी में देश का शासन, शीर्षासन करता दिखाई दे रहा है। एक ओर, लोग पानी, प्रदूषण कुपोषण और भूख के कारण बीमार होकर मर रहे हैं, तो दूसरी ओर राष्ट्र, हथियारों के जखीरे के लिए बजट बढाने को विवश है। व्यवस्था व इसके संचालकों पर हमें यकीन नहीं रहा। व्यवस्था परिवर्तन के लिए हम आंदोलनों की मांग कर रहे हैं।
आचरण में गिरावट व्यापक है। भ्रष्टाचार से निजात का कोई उपचार सुझाये नहीं सूझ रहा। गांधी जी के नाम पर जी रही संस्थाओं में ही गांधी चिंतन के आत्मप्रयोग को प्रतिष्ठित करने की लालसा नहीं रही; ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या गांधी मार्ग.. 21वीं सदी का मार्ग नहीं है ? बुनियादी शिक्षा, कुटीर उद्योग, स्वावलंबी जीवन, बापू के रचनात्मक कार्यक्रम, ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम का सद्भाव संदेश, ग्रामस्वराज, हिंदस्वराज की अवधारणा, बापू के सपने का भारत, सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह और शांति के बल पर दुनिया की सुरक्षा... क्या ये सभी विचार पुंज 21वीं सदी की चुनौतियों का समाधान नहीं हैं ? मेरा मानना है कि समाधान ये ही हैं।
यदि ऐसा न होता, तो दुनिया की सर्वाेच्च संस्था 'संयुक्त राष्ट्र महासभा' भारत जैसे राष्ट्र के राष्ट्रपिता के जन्म दिवस को 'अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस' के रूप में प्रतिवर्ष मनाने का फैसला न लेती। गांधी मार्ग पर चलने वाले नेल्सन मंडेला, आर्म बिशप डेसमंड टुटु और आंग सां सू की जैसे लोगों को आधुनिक विश्व के सवोच्च सम्मानों से सम्मानित न किया जाता। गांधी टोपी वाले अन्ना के आंदोलन के ज्वार में आधुनिक युवा एक नहीं होता।
कोई कैसे नकार सकता है कि दलितों को अधिकार दिलाने के लिए बाबा साहेब अंबेडकर का सत्याग्रह, विनोबा का भूदान, जेपी की संपूर्ण क्रांति, महाराष्ट्र के महाद शहर का पानी सत्याग्रह, नासिक का धर्म सत्याग्रह, चिपको आंदोलन, टिहरी विरोध में सुंदरलाल बहुगुणा का हिमालय बचाओ, मेधा का नर्मदा बचाओ, राजेन्द्र सिंह का यमुना सत्याग्रह, प्रो जी डी अग्रवाल और स्वामी निगमानंद के गंगा अनशन... गांधी मार्ग पर चलकर ही चेतना और चुनौती का पर्याय बन सके। भ्रूण हत्या को अपराध मानने जैसे कानून, पुलिस जैसे विभाग में मानवाधिकार आयोग के अधिकार, सूचना का अधिकार, मनरेगा, खाù सुरक्षा, पेयजल सुरक्षा... जैसे तमाम कायदे-कानूनों के आधार गांधी मार्ग से भिन्न नहीं हैं।
''मेरी समझ में राजनीतिक सत्ता अपने आप में साध्य नहीं है। वह जीवन के प्रत्येक विभाग में लोगों के लिए अपनी हालत सुधारने का साधन है।...राष्ट्रीय प्रतिनिधि यदि आत्मनियमन कर लें, तो फिर किसी प्रतिनिधित्व की आवश्यकता नहीं रह जाती। उस समय ज्ञानपूर्ण अराजकता की स्थिति हो जाती है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक अपने में राजा होता है। वह ऐसे ढंग से अपने पर शासन करता है कि अपने पङोसियों के लिए कभी बाधक नहीं बनता। इसलिए आदर्श व्यवस्था में कोई राजनीतिक सत्ता नहीं होती, क्योंकि कोई राज्य नहीं होता। परंतु जीवन में आदर्श की पूरी सिद्धि कभी नहीं बनती; इसीलिए थोरो ने कहा है कि जो सबसे कम शासन करे, वही सबसे उत्तम सरकार है।''
यहां 'सबसे कम' का तात्पर्य, सबसे कम समय न होकर, सरकार में जनता को शासित करने की मंशा का सबसे न्यून होना है। क्या गांधी के इस कथन में आपको जातिवादी राजनीति, बढती मसल पावर.. मनीपावर जैसी सबसे चिंतित करने वाली चुनौतियों को उत्तर देने की ताकत स्पष्ट दिखाई नहीं देती ? मैं साफ देख रहा हूं कि गांधी के बुनियादी चिंतन को व्यवहार में उतारने मात्र से बलात्कार की उग्र होती प्रवृति से मुिक्त से लेकर वैश्विक नवसाम्राज्यवाद के पुराने चक्रव्यूह में फंस चुके भारत की आर्थिक आजादी तक स्वयंमेव सुरक्षित हो जायेगी।
गांधी जी ने देश का बंटवारा होते हुए भी राष्ट्रीय कांग्रेस के जुटाये साधनों के जरिए हिंदुस्तान की आजादी मिलने के कारण कांग्रेस की उपयोगिता को खत्म मानते हुए कहा था - ''शहरों, कस्बों से भिन्न सात लाख गांवों वाली आबादी की दृष्टि से अभी हिंदुस्तान को सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजादी हासिल करना अभी बाकी है।'' इस आजादी को हासिल करने में कांग्रेस की भूमिका को परिभाषित करते हुए उन्होने तीन बातें कही थी - ''लोकशाही के ध्येय की तरफ हिंदुस्तान की प्रगति के दरमियान फौजी सत्ता पर मुख्य सत्त को प्रधानता देने की लङाई की अनिवार्यता; कांग्रेस को राजनैतिक पार्टियों और संाप्रदायिक संस्थाओं के साथ गंदी होङ से बचना तथा कांग्रेस के तत्कालीन स्वरूप को तोङकर सुझाये नये नियमों के मुताबिक लोक सेवक संघ के रूप में प्रकट होना।''
लोक सेवक संघ के लिए सुझाये नियमों को गौर से पढें, तो स्पष्ट हो जायेगा कि व्यवस्था परिवर्तन उपाय नहीं है। समस्याओं के समाधानों को व्यवस्था या राजनीति नहीं, पंचायतों तथा मोहल्ला समितियों के रूप में गठित बुनियादी लोक इकाई से लेकर हमारे निजी चरित्र में आई गिरावट में खोजने की जरूरत है। चरित्र निर्माण.. गांधी मार्ग का भी मूलाधार है और विवेकानंद द्वारा युवाशक्ति के आहृान् का भी। लोकतंत्र से बेहतर कोई तंत्र नहीं होता। सदाचारी होने पर यही नेता, अफसर और जनता... यही व्यवस्था सर्वश्रेष्ठ में तब्दील हो जायेंगे।
माता-पिता और शिक्षक.. मूलतः इन तीन पर चरित्र निर्माण का दायित्व है। इन तीनों की उपेक्षा और दायित्वहीनता का ही परिणाम है कि दुनिया को गांधी मार्ग बताने वाले भारत को आज खुद गांधी मार्ग को याद करने की जरूरत आन पङी है। जो व्यवहार खुद के साथ अच्छा लगे, वही दूसरे के साथ करें। यही है गांधी मार्ग। आइये, इसका आत्मप्रयोग शुरु करें। हो सके, तो बापू की इस पुण्य तिथि से ही। हे राम!!