मोहनदास कर्मचन्द गांधी - किसी एक इंसान का नहीं, बल्कि एक ऐसे दूरदृष्टि सिद्धांत और जीवन शैली का नाम है, जिसमें सृष्टि हितैषी उप-सिद्धांत व व्यवहार खुद-ब-खुद निहित हैं। इस नाते ही मैं गांधी जी के जीवन को किसी एक इंसान का जीवन न मानकर, भारत के आत्मज्ञान, प्राकृतिक जीवन शैली और नैतिक मानदंडों को जीने की कोशिश में लगी एक भरी-पूरी शुभ व आत्मीय प्रयोगशाला मानता हूं। मैं मानता हूं कि गांधी नामक सिद्धांत व जीवन शैली को व्यवहार में उतारने की कोशिश लगातार जारी रखनी चाहिए। ऐसा न करना, मोहनदास कर्मचन्द गांधी की हत्या करना है।
मेरी यह मान्यता, महात्मा व राष्ट्रपिता के सम्मान अथवा आज़ादी के आंदोलनों में गांधी जी की भूमिका के कारण नहीं है। न ही यह किसी प्राचीनता के अंधानुकरण के कारण है। इसके कारण ये हैं कि गांधी जी के आत्म प्रयोगों और सपनों में 'विश्व का कल्याण हो' तथा 'प्राणियों में सद्भावना रहे' की सर्वधर्मी अनुगूंज हमेशा बनी रही। गांधी जी ने जो दूसरों से करने को कहा, उसे पहले खुद पर आजमाया। ऐसा करने वाला गुरु, इस दुनिया में कोई दूसरा हो तो बताइए।
हम मार रहे हैं गांधी को
इस मान्यता को सामने रखूं तो मुझे यह लिखने में कोई संकोच नहीं कि गोडसे की गोली ने तो सिर्फ गांधी जी की देह से आत्मा को अलग किया था; आज़ाद भारत तो पूरी योजना बनाकर अपनी देह को गांधी मार्ग से दूर ले जाने पर लगा है। बीते 74 वर्षों में हम लगातार...बार-बार गांधी जी को मारने में लगे हैं। यह बात और है कि गांधी जी हैं कि मरते ही नहीं। जब-जब लोकतंत्र, गांव व ग़रीब पर संकट आता है, गांधी खुद-ब-खुद जी उठते हैं अपना वसीयतनामा लेकर।
क्यों और कैसे मार रहे हैं हम ? इस प्रश्न के उत्तर में मैं यहां जो लम्बी फेहरिस्त नहीं पेश कर रहा हूं, उस पर शर्मिन्दा होना, न होना मैं आप पर छोड़ता हूं; ख़ासकर, बिना आचार के पद, पैसा और प्रचार पाने की गलाकाट होड़ाहोड़ी में लगे राजनेता तथा गै़र सरकारी संगठन व कार्यकर्ताओं पर। गांधी कार्यकर्ता भी मंथन करें कि क्या गांधी संस्थाओं में गांधी जी की हत्या नहीं हो रही है ?
वसीयत लिखे पर सवाल
फिलहाल, लेख का मसला यह है कि हम वर्ष - 2023 में है। वर्ष - 2023 गांधी जी का 155 वां जयंती वर्ष भी है और 75 वां पुण्यतिथि वर्ष भी। हालांकि, गांधी का वसीयतनामा लंदन से सटे शहर लडलो के रेसकोर्स में कभी का नीलाम किया जा चुका है; फिर भी वर्ष - 2022 जाते-जाते हमें कई इशारे कर गया है कि हम आज 2023 में एक बार फिर उस पर चर्चा करें। हम सोचें कि गांधी जी द्वारा गुजराती में लिखे दो पेजी मसौदे को उनके सहयोगियों ने 'हरिजन' में 'गांधी जी की अंतिम इच्छा व वसीयत' शीर्षक से प्रकाशित क्यों कराया ? गांधी जी, कांग्रेस संविधान का नया मसौदा क्यों लिख रहे थे ? क्यों चाहते थे कि कांग्रेस, लोगों की सेवा करने वालों के संघ के रूप में तब्दील हो जाए ? क्यों चाहते थे कि लोक सेवक संघ के रूप में तब्दील होने पर कांग्रेस अपने मिशन की पूर्ति के लिए ग्रामीणों व अन्य लोगों के बीच से धन जुटाये तथा ग़रीब आदमी के पैसे की वसूली पर विशेष ज़ोर हो। गांधी जी, सैन्य शक्ति पर नागरिकों की प्रधानता के लिए संघर्ष में लोकतांत्रिक लक्ष्य की दिशा और भारत की प्रगति क्यों देखते थे ? उन्होने इस सब को राजनीतिक दलों और सांप्रदायिक निकायों के साथ अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा से दूर रखने के लिए क्यों कहा ? सबसे बड़ा प्रश्न यह कि गांधी जी ने सात लाख गांवों के संदर्भ में ही क्यों कहा कि उनकी सामाजिक, नैतिक व आर्थिक आज़ादी हासिल करना अभी बाकी है; नगरों और कस्बों के बारे में क्यों नहीं ?
इसलिए वसीयत चाहती है वारिस
मेरा मानना है कि प्रश्नों का उत्तर तलाशने के लिए साल-दर-साल कैलेण्डर पलटने की ज़रूरत नहीं; 2023 के वातावरण में उक्त हर प्रश्न का उत्तर मौजूद है। क्या विरोधाभासी स्थिति है! मानसिक तौर बीमार कर देने वाली दलगत व सांप्रदायिक प्रतिस्पर्धाओं और खेमेबंदी ने मीडिया, फिल्म, खेल व बौद्धिक जगत की हस्तियों से लेकर हम आमजन तक को अपना औजार व शिकार... दोनों बनाया हुआ है। यह वैश्विक तापमान से धधकते, सूचना-प्रौद्योगिकी के पीछे भागते तथा दरकते रिश्तों वाले दशक का तीसरा वर्ष है और हम हैं कि 'गांधी-गोडसे युद्ध: एक टीजर' जैसे वीडियो लेकर आ रहे हैं। संसद, विधानसभा व नगर चुनावों ने समुदायों तो पंचायती चुनावों ने गांवों व परिवारों तक में विभेद पैदा कर दिए हैं। दूसरी तरफ हमारे लिए हमारे द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ हमारी सेवा के लिए नियुक्त प्रशासनिक अफसर भी हमारे साथ ऐसा रुआब से पेश कर ही रहे हैं, जैसे ये किसी अन्य अति विशिष्ट लोक के प्राणी हों।
तीनो सेनाओं के ऊपर संयुक्त रूप से एक प्रमुख (सीडीएस) पद तथा इसकी नियुक्ति अर्हता व प्रक्रिया पर विचार कीजिए। क्या अब हम अब इस संभावना से इंकार कर सकते हैं कि चंद तानाशाह चाहें तो मिलकर भारत के नागरिकों पर सैन्य शासन थोप सकते हैं ? तीनों सेनाओं के प्रमुख के तौर पर राष्ट्रपति होते हैं; फिर सीडीएस का पद क्यों ? क्या कोई प्रश्न कर रहा है ?
गलाकाट बाज़ारू प्रतियोगिता और बेईमानी ने छोटी काश्तकारी को लाकर जिस मुकाम पर पटक दिया है; यह किसी से छिपा नहीं है। पढ़ाई व नौकरियों में नंबर दौड़ तथा दवाई व इलाज़ में सीधे डकैती की मार सब पर है। कोरोना ने खेती व प्रकृति की अहमियत बताई ही। पलायन - गांवों में बदलते हालात व हावी होती शहरी मानसिकता को बता रहा है।
प्रश्नों के उत्तर इस विश्लेषण में भी है कि वर्ष-2023 के साथ कुछ पुरानी आफतें बढ़ने वाली हैं: अधिक मंहगाई, अधिक बेरोज़गारी, अमीरी-गरीबी के बीच अधिक बड़ी खाई के साथ-साथ वैश्विक तापमान व मौसम में ज्यादा उठापटक। सबसे बुरी बात यह कि इन सभी का सबसे बुरा असर सबसे गरीबों, कमज़ोरों के साथ-साथ मार्ग तलाशते हमारे युवाओं पर भी पड़ने वाला है। युवाओं को सोचना होगा।
वर्ष-2023 में भारतीय वर्तमान के उक्त परिदृश्य को सामने रखिए और गांधी जी द्वारा तैयार कांग्रेस संविधान के नये मसौदे के एक-एक प्रावधान को पूरी सावधानी से पढ़िए। समझना आसान हो जाएगा कि गांधी जी बार-बार क्यों जिंदा हो उठते हैं। वसीयत क्यों चाहती है वारिस ?
वसीयत के केन्द्र में गांव क्यों ?
वसीयतनामे का एक-एक शब्द के रूप में गांधी जी खुद मौजूद हैं बताने के लिए वह अपने समय से बहुत आगे का विचार थे। गांधी जी जानते थे कि नगर सुविधाओं की बौछार कर सकते हैं, किन्तु बगैर गांवों के नगर टिक नहीं सकते। आनंदमयी जीवन जीने की बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति तो गांव ही कर सकते हैं: साफ हवा, पानी, भोजन, प्राकृतिक आवास, स्वास्थ्य, संस्कार और सामुदायिकता। वह यह भी जानते थे कि हवा-पानी-मिट्टी ही वह फैक्टरी है, जिसमें डाला एक बीज कई गुना होकर वापस लौटता है। दुनिया में कोई अन्य ऐसी फैक्टरियां हों तो बताओ। किसान व कारीगरों की उंगलियां ही ऐसा सामुदायिक औज़ार हैं, जो बगैर किसी प्रतिस्पर्धा में फंसे व्यापक रोज़गार व सभी के लिए समृद्धि को टिकाये रख सकते हैं। गांधी की नई तालीम इसे ही मज़बूत करना चाहती थी। वह जानते थे कि ग्राम स्वराज के उनके मंत्र में गांवों को बाज़ार, सरकार, परावलम्बन व वैमनस्य से आज़ाद बनाये रखने की शक्ति है। आर्थिक लोकतंत्र के बिना सामुदायिक व राजनीतिक लोकतंत्र अधूरा रहने वाला है। उन्हे यह भी पता था कि गांवों की इस शक्ति को बरकार रखने के लिए गांवों को अपनी नैतिक क्षमताओं को बराबर ब़ढाते रहना होगा। इसीलिए गांधी जी ने अंग्रेजी साम्राज्य से आज़ादी के बाद की आज़ादी के केन्द्र में गांवों को रखा।
इसलिए ज़रूरी था कांग्रेस का कायाकल्प
गांधी जी साम्राज्यवाद और सामंतवाद....दोनों के घोर विरोधी थे। गांधी जी जानते थे कि साम्राज्यवाद व सामंतवाद...कमज़ोर के शोषण पर पनपने वाली अमरबेले हैं। ये ऐसी हिंसक प्रवृतियां हैं कि जो मरती नहीं; सिर्फ कमज़ोर पड़ सकती हैं। भारत आज़ाद हो गया तो क्या; अनुकूल परिस्थितियां पाते हीं ये फिर बलवती होंगी किसी न किसी शक्ल में। वह जानते थे कि ऐसा हुआ तो सबसे पहले दुष्प्रभावित़ गांव, गरीब और कमज़ोर ही होगा।
आज ऐसा ही हो रहा है। पानी, किसानी, जवानी को अपने उत्थान के लिए आंदोलन करने पड़ रहे हैं। अमीरी-गरीबी की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। आर्थिक व लोकतांत्रिक परिसरों में सामंतवाद व साम्राज्यवाद...दोनों की नई हनक पूरी बेशर्मी के साथ सुनाई दे रही है। गांधी जी ने इसीलिए कांग्रेस संविधान का नया मसौदा लिखा। इसीलिए वह कांग्रेसी कार्यकताओं को पांच स्वायत्त निकायों से जोड़कर सेवा संस्कार के ऐसे अग्निकुण्ड उतार देना चाहते थे, जिसमें जलने के बाद या तो सूरज बनकर संसार को प्रकाशित किया जा सकता है अथवा भस्म बनकर अन्य को उर्वर।
परमार्थी स्वभाव व विनम्रता - सत्य सेवा से प्राप्त प्रथम दो निधियां ये ही हैं। इन दो निधियों के आते ही सादगी, संयम व स्वानुशासन खुद-ब-खुद चले आते हैं। सर्वस्व लुटाने की चाहत स्वयमेव बलवती होने लगती है। इतिहास गवाह है कि सत्य और सेवा के संस्कारी को यदि कदाचित् राजा बनना ही पड़ जाए तो वह राजर्षि ही रहेगा; सामंती व साम्राज्यवादी तो कदापि नहीं हो सकता; जबकि अकेले बौद्धिक, तकनीकी, आर्थिक अथवा शारीरिक क्षमता का होना, इसकी गारण्टी कदापि नहीं है।
क्या यह सत्य नहीं कि आजकल संगठन चाहे राजनीतिक हों, धार्मिक हों अथवा सामाजिक; सब जगह पूछ इन्ही क्षमताओं की है ?... तो फिर सामंतवाद और साम्राज्यवाद कमजोर कैसे हो ?? हमारी पीढ़ियों में पद, पैसा और प्रचार की लोलुपता कैसे कम हो ? हमारे बच्चों में सेवा संस्कार आगे कैसे बढ़े ?
मैं समझता हूं कि गांधी जी की यह जिद्द कदापि नहीं होगी कि कांग्रेस उनके मसौदे को जस का तस अपना ले। किन्तु उस वक्त यदि कांग्रेस अपने संविधान के गांधी मसौदे पर गंभीर हुई होती तो कांग्रेस सेवा दल और राजीव गांधी पंचायतीराज संगठन के रचनात्मक कार्यक्रम गांव-गांव में सराहे जा रहे होते। कांग्रेस - कोई एक दल न होकर, ज़मीनी रचनात्मक कार्यकर्ताओं का एक ऐसा समुदाय बन गया होता, जो भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में से सत्ता और प्रजा के भाव को कम ही करता; अधिक नहीं। कांग्रेस को देश जोड़ने और कांग्रेस केा मज़बूत करने के लिए यात्रा करने की ज़रूरत न पड़ती। तोड़क चिंगारियां कभी उठती भी तो भारत का समाज ही उसे बुझा देता।
इसलिए बदलना चाहते थे चुनाव पद्धति
यदि कांग्रेस ने अपने आंतरिक चुनाव के लिए गांधी मसौदे की पालना तय कर ली होती तो तय मानिए कि आज किसी भी दल द्वारा जनप्रतिनिधि सभाओं हेतु टिकटों के बंटवारे के तौर-तरीके व चुनावों जीतने की कवायद इतनी बुरी न होतीं। दुखद है कि चुनावों जीतने के लिए अपनाये जा रहे हथकण्डों ने आज हमारे गांवों, समुदायों.. यहां तक कि परिवारों में मनभेद पैदा कर दिए हैं। चुनाव आयोग तक पर उंगलियां उठ रही हैं।
क्या करें हम ?
मेरा मानना है कि जैसे ही हमारे मनभेद दूर होंगे, हम किसी एक मजहब, जाति, वर्ग का होते हुए भी भारतीय नागरिक में तब्दील होते जायेंगे। आर्थिक, सामाजिक व लोकतांत्रिक असमानता की बढ़ती खाई को कम करने के लिए हम खुद बेचैन होने लगेंगे। उपाय भी हम खुद खोज लेंगे। 2023 के समक्ष खड़ी बाकी चुनौतियों के समाधान की नीति-रीति, कार्यक्रम, औजार सब कुछ सध जायेंगे।
वसीयत का वर्तमान आह्यन
सेवा, सहकार और सह-अस्तित्व की भारतीय संस्कृति की बुनियाद पर खड़ा गांधी विचार यह करा सकता हैं। कांग्रेस चाहे तो अभी भी गांधी के सपनों को हिंदोस्तान बनाने की राह अपना अपना सकती है। कठिन है, लेकिन नामुमकिन नहीं। यदि हमारे अन्य स्वयंसेवी संगठन, कांग्रेस संविधान के गांधी मसौदे मात्र को ही अपना संविधान बना ले; उसे पूरी ईमानदारी सातत्य, सादगी व सेवा भाव के साथ अमल में उतारने की सामुदायिक कोशिश करें तो मौजूदा चुनौतियों के समाधान संभव हैं।
स्वयंसेवी जगत् को एक बार फिर नए सिरे से पहल करनी होगी। बाहरी पहल से पहले अपनी सफाई करनी होगी। सर्वप्रथम वही कार्य व उसी समुदाय के बीच में करना होगा, जिसे उसकी ज़रूरत है। उसी तरीके से करना होगा, जिससे वह समुदाय लम्बे समय तक उस कार्य के लिए किसी बाहरी संगठन पर आश्रित न रहें; सामुदायिक तौर पर परस्परावलंबी बन जायें।
वसीयतनामे का एक संकेत स्पष्ट है कि आंदोलन को प्रचार आवश्यक है; रचनात्मक कार्य को प्रचार से दूर रहना चाहिए। रचना के लिए राजमार्ग नहीं, पगडण्डी ही अच्छी। सीख साफ है कि रचनात्मक कार्य में लगे संगठनों को अपने बैनर को पीछे, कार्य व समुदाय को आगे रखना चाहिए। वे ऐसा करें।
स्वयंसेवी संगठनों को संसाधन की शुचिता का ख्याल रखना होगा। अन्य स्त्रोतों से सशर्त मिल रहे संसाधनों को लेना बंद करना होगा। स्वयंसेवी संगठनों को अपने मिशन की ज़रूरत के संसाधनों को उन्ही समुदायों के बीच से जुटाना चाहिए, जिनके बीच वे कार्य कर रहे हैं। ये सब करते हुए संगठनों को सेवाग्राम की नींव रखने आये गांधी जी के उस संबोधन तथा बापू कुटी की सादगी व उपयोग करने वाले अनुशासन को नहीं भूलना होगा, जो सामाजिक कार्यकर्ताओं को गांवों में एक शिक्षक अथवा अपनी मंशा थोपने वाले की तरह नहीं, एक सेवक की तरह जाने का आह्वान करता है; उन्हे अपनी वसीयत का गांधी बनते देखना चाहता है।
ताज्जुब नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर. एस. एस), गांधी जी की वसीयत में दर्ज कार्य पद्धति को पूरी शिद्दत के साथ बार-बार... लगातार पढ़ रहा है; लोकसेवक बनने की कोशिश कर रहा है। उलट व खतरनाक यही है कि सेवा से सद्भाव उसका लक्ष्य नहीं है। आर. एस. एस. का डी एन ए साम्प्रदायिक व विभेदकारी है। वह वसीयत का गांधी नहीं, धर्मान्ध गोडसे बनने में लगा है।
अंतिम निवेदन
...और अंत में यह कि मैं गांधी नहीं हूं। बहुत संभव है कि मेरे और आपके आसपास कहीं कोई गांधी ज़िंदा हों। आइए, हम वसीयत के गांधी की तलाश करें। उनकी सुने। गुन न सकें तो सहयोग करें; उनकी पीठ थपथपायें। उनके कार्य और विचार को आगे बढ़ायें। युवाओं को यह काम; ताकि एक दिन सरकार व शासन में शासक भाव नहीं, सेवा से सद्भाव का इकबाल बुलन्द हो; राजनीति दूर हो, लोकनीति व्यवहार में आये...ताकि संस्कृति रह सके सतरंगी; पीढ़ियां रह सकें खुशहाल।
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बॉक्स - एक
एक सेवक का संबोधन
''मैं आपके गांव आया हूं, आप लोगों की सेवा की दृष्टि से।......परन्तु मेरा बचपन से यह सिद्धांत रहा है कि मुझे उन लोगों पर अपना भार नहीं डालना चाहिए, जो अपने बीच में मेरा आना अविश्वास, सन्देह या भय की दृष्टि से देखते हैं... इस भय के पीछे यह कारण है कि अस्पृश्यता निवारण को मैंने अपने जीवन का एक ध्येय बना लिया है। मीरा बहन से तो आपको मालूम ही हो गया होगा कि मैंने अपने दिल से अस्पृश्यता सम्पूर्णतया दूर कर दी है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, महार, चमार...सभी को मैं समान दृष्टि से देखता हूं और जन्म के आधार पर माने जाने वाले इन तमाम ऊंच-नीच के भेद को मैं पाप मानता हूं......पर मैं आपको यह बता दूं कि अपने इन विश्वासों को मैं आप पर लादना नहीं चाहता। मैं तो दलीलें देकर, समझा-बुझाकर और सबसे बढ़कर अपने उदाहरण के द्वारा आप लोगों के हृदय से अस्पृश्यता या ऊंच-नीच का भाव दूर करने का प्रयत्न करुंगा।आपकी सड़कों और बस्तियों की चारों तरफ से सफाई करना, गांव में कोई भी बीमारी हो तो यथाशक्ति लोगों की सहायता पहुंचाने की कोशिश करना और गांव के नष्टप्राय उद्योगों या दस्तकारियों के पुनरोद्धार के काम में सहायता देकर आप लोगों को स्वावलम्बी शिक्षा देना - इस तरह मैं आपकी सेवा करने का प्रयत्न करुंगा। आप मुझे इसमें अपना सहयोग देंगे तो मुझे प्रसन्नता होगी।''
*(गांधी जी द्वारा सेवाग्राम की नींव रखने के अवसर दिए गए संबोधन के अंश)
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By Arun Tiwari {{descmodel.currdesc.readstats }}
मोहनदास कर्मचन्द गांधी - किसी एक इंसान का नहीं, बल्कि एक ऐसे दूरदृष्टि सिद्धांत और जीवन शैली का नाम है, जिसमें सृष्टि हितैषी उप-सिद्धांत व व्यवहार खुद-ब-खुद निहित हैं। इस नाते ही मैं गांधी जी के जीवन को किसी एक इंसान का जीवन न मानकर, भारत के आत्मज्ञान, प्राकृतिक जीवन शैली और नैतिक मानदंडों को जीने की कोशिश में लगी एक भरी-पूरी शुभ व आत्मीय प्रयोगशाला मानता हूं। मैं मानता हूं कि गांधी नामक सिद्धांत व जीवन शैली को व्यवहार में उतारने की कोशिश लगातार जारी रखनी चाहिए। ऐसा न करना, मोहनदास कर्मचन्द गांधी की हत्या करना है।
मेरी यह मान्यता, महात्मा व राष्ट्रपिता के सम्मान अथवा आज़ादी के आंदोलनों में गांधी जी की भूमिका के कारण नहीं है। न ही यह किसी प्राचीनता के अंधानुकरण के कारण है। इसके कारण ये हैं कि गांधी जी के आत्म प्रयोगों और सपनों में 'विश्व का कल्याण हो' तथा 'प्राणियों में सद्भावना रहे' की सर्वधर्मी अनुगूंज हमेशा बनी रही। गांधी जी ने जो दूसरों से करने को कहा, उसे पहले खुद पर आजमाया। ऐसा करने वाला गुरु, इस दुनिया में कोई दूसरा हो तो बताइए।
हम मार रहे हैं गांधी को
इस मान्यता को सामने रखूं तो मुझे यह लिखने में कोई संकोच नहीं कि गोडसे की गोली ने तो सिर्फ गांधी जी की देह से आत्मा को अलग किया था; आज़ाद भारत तो पूरी योजना बनाकर अपनी देह को गांधी मार्ग से दूर ले जाने पर लगा है। बीते 74 वर्षों में हम लगातार...बार-बार गांधी जी को मारने में लगे हैं। यह बात और है कि गांधी जी हैं कि मरते ही नहीं। जब-जब लोकतंत्र, गांव व ग़रीब पर संकट आता है, गांधी खुद-ब-खुद जी उठते हैं अपना वसीयतनामा लेकर।
क्यों और कैसे मार रहे हैं हम ? इस प्रश्न के उत्तर में मैं यहां जो लम्बी फेहरिस्त नहीं पेश कर रहा हूं, उस पर शर्मिन्दा होना, न होना मैं आप पर छोड़ता हूं; ख़ासकर, बिना आचार के पद, पैसा और प्रचार पाने की गलाकाट होड़ाहोड़ी में लगे राजनेता तथा गै़र सरकारी संगठन व कार्यकर्ताओं पर। गांधी कार्यकर्ता भी मंथन करें कि क्या गांधी संस्थाओं में गांधी जी की हत्या नहीं हो रही है ?
वसीयत लिखे पर सवाल
फिलहाल, लेख का मसला यह है कि हम वर्ष - 2023 में है। वर्ष - 2023 गांधी जी का 155 वां जयंती वर्ष भी है और 75 वां पुण्यतिथि वर्ष भी। हालांकि, गांधी का वसीयतनामा लंदन से सटे शहर लडलो के रेसकोर्स में कभी का नीलाम किया जा चुका है; फिर भी वर्ष - 2022 जाते-जाते हमें कई इशारे कर गया है कि हम आज 2023 में एक बार फिर उस पर चर्चा करें। हम सोचें कि गांधी जी द्वारा गुजराती में लिखे दो पेजी मसौदे को उनके सहयोगियों ने 'हरिजन' में 'गांधी जी की अंतिम इच्छा व वसीयत' शीर्षक से प्रकाशित क्यों कराया ? गांधी जी, कांग्रेस संविधान का नया मसौदा क्यों लिख रहे थे ? क्यों चाहते थे कि कांग्रेस, लोगों की सेवा करने वालों के संघ के रूप में तब्दील हो जाए ? क्यों चाहते थे कि लोक सेवक संघ के रूप में तब्दील होने पर कांग्रेस अपने मिशन की पूर्ति के लिए ग्रामीणों व अन्य लोगों के बीच से धन जुटाये तथा ग़रीब आदमी के पैसे की वसूली पर विशेष ज़ोर हो। गांधी जी, सैन्य शक्ति पर नागरिकों की प्रधानता के लिए संघर्ष में लोकतांत्रिक लक्ष्य की दिशा और भारत की प्रगति क्यों देखते थे ? उन्होने इस सब को राजनीतिक दलों और सांप्रदायिक निकायों के साथ अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा से दूर रखने के लिए क्यों कहा ? सबसे बड़ा प्रश्न यह कि गांधी जी ने सात लाख गांवों के संदर्भ में ही क्यों कहा कि उनकी सामाजिक, नैतिक व आर्थिक आज़ादी हासिल करना अभी बाकी है; नगरों और कस्बों के बारे में क्यों नहीं ?
इसलिए वसीयत चाहती है वारिस
मेरा मानना है कि प्रश्नों का उत्तर तलाशने के लिए साल-दर-साल कैलेण्डर पलटने की ज़रूरत नहीं; 2023 के वातावरण में उक्त हर प्रश्न का उत्तर मौजूद है। क्या विरोधाभासी स्थिति है! मानसिक तौर बीमार कर देने वाली दलगत व सांप्रदायिक प्रतिस्पर्धाओं और खेमेबंदी ने मीडिया, फिल्म, खेल व बौद्धिक जगत की हस्तियों से लेकर हम आमजन तक को अपना औजार व शिकार... दोनों बनाया हुआ है। यह वैश्विक तापमान से धधकते, सूचना-प्रौद्योगिकी के पीछे भागते तथा दरकते रिश्तों वाले दशक का तीसरा वर्ष है और हम हैं कि 'गांधी-गोडसे युद्ध: एक टीजर' जैसे वीडियो लेकर आ रहे हैं। संसद, विधानसभा व नगर चुनावों ने समुदायों तो पंचायती चुनावों ने गांवों व परिवारों तक में विभेद पैदा कर दिए हैं। दूसरी तरफ हमारे लिए हमारे द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ हमारी सेवा के लिए नियुक्त प्रशासनिक अफसर भी हमारे साथ ऐसा रुआब से पेश कर ही रहे हैं, जैसे ये किसी अन्य अति विशिष्ट लोक के प्राणी हों।
तीनो सेनाओं के ऊपर संयुक्त रूप से एक प्रमुख (सीडीएस) पद तथा इसकी नियुक्ति अर्हता व प्रक्रिया पर विचार कीजिए। क्या अब हम अब इस संभावना से इंकार कर सकते हैं कि चंद तानाशाह चाहें तो मिलकर भारत के नागरिकों पर सैन्य शासन थोप सकते हैं ? तीनों सेनाओं के प्रमुख के तौर पर राष्ट्रपति होते हैं; फिर सीडीएस का पद क्यों ? क्या कोई प्रश्न कर रहा है ?
प्रश्नों के उत्तर इस विश्लेषण में भी है कि वर्ष-2023 के साथ कुछ पुरानी आफतें बढ़ने वाली हैं: अधिक मंहगाई, अधिक बेरोज़गारी, अमीरी-गरीबी के बीच अधिक बड़ी खाई के साथ-साथ वैश्विक तापमान व मौसम में ज्यादा उठापटक। सबसे बुरी बात यह कि इन सभी का सबसे बुरा असर सबसे गरीबों, कमज़ोरों के साथ-साथ मार्ग तलाशते हमारे युवाओं पर भी पड़ने वाला है। युवाओं को सोचना होगा।
वर्ष-2023 में भारतीय वर्तमान के उक्त परिदृश्य को सामने रखिए और गांधी जी द्वारा तैयार कांग्रेस संविधान के नये मसौदे के एक-एक प्रावधान को पूरी सावधानी से पढ़िए। समझना आसान हो जाएगा कि गांधी जी बार-बार क्यों जिंदा हो उठते हैं। वसीयत क्यों चाहती है वारिस ?
वसीयत के केन्द्र में गांव क्यों ?
वसीयतनामे का एक-एक शब्द के रूप में गांधी जी खुद मौजूद हैं बताने के लिए वह अपने समय से बहुत आगे का विचार थे। गांधी जी जानते थे कि नगर सुविधाओं की बौछार कर सकते हैं, किन्तु बगैर गांवों के नगर टिक नहीं सकते। आनंदमयी जीवन जीने की बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति तो गांव ही कर सकते हैं: साफ हवा, पानी, भोजन, प्राकृतिक आवास, स्वास्थ्य, संस्कार और सामुदायिकता। वह यह भी जानते थे कि हवा-पानी-मिट्टी ही वह फैक्टरी है, जिसमें डाला एक बीज कई गुना होकर वापस लौटता है। दुनिया में कोई अन्य ऐसी फैक्टरियां हों तो बताओ। किसान व कारीगरों की उंगलियां ही ऐसा सामुदायिक औज़ार हैं, जो बगैर किसी प्रतिस्पर्धा में फंसे व्यापक रोज़गार व सभी के लिए समृद्धि को टिकाये रख सकते हैं। गांधी की नई तालीम इसे ही मज़बूत करना चाहती थी। वह जानते थे कि ग्राम स्वराज के उनके मंत्र में गांवों को बाज़ार, सरकार, परावलम्बन व वैमनस्य से आज़ाद बनाये रखने की शक्ति है। आर्थिक लोकतंत्र के बिना सामुदायिक व राजनीतिक लोकतंत्र अधूरा रहने वाला है। उन्हे यह भी पता था कि गांवों की इस शक्ति को बरकार रखने के लिए गांवों को अपनी नैतिक क्षमताओं को बराबर ब़ढाते रहना होगा। इसीलिए गांधी जी ने अंग्रेजी साम्राज्य से आज़ादी के बाद की आज़ादी के केन्द्र में गांवों को रखा।
इसलिए ज़रूरी था कांग्रेस का कायाकल्प
गांधी जी साम्राज्यवाद और सामंतवाद....दोनों के घोर विरोधी थे। गांधी जी जानते थे कि साम्राज्यवाद व सामंतवाद...कमज़ोर के शोषण पर पनपने वाली अमरबेले हैं। ये ऐसी हिंसक प्रवृतियां हैं कि जो मरती नहीं; सिर्फ कमज़ोर पड़ सकती हैं। भारत आज़ाद हो गया तो क्या; अनुकूल परिस्थितियां पाते हीं ये फिर बलवती होंगी किसी न किसी शक्ल में। वह जानते थे कि ऐसा हुआ तो सबसे पहले दुष्प्रभावित़ गांव, गरीब और कमज़ोर ही होगा।
आज ऐसा ही हो रहा है। पानी, किसानी, जवानी को अपने उत्थान के लिए आंदोलन करने पड़ रहे हैं। अमीरी-गरीबी की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। आर्थिक व लोकतांत्रिक परिसरों में सामंतवाद व साम्राज्यवाद...दोनों की नई हनक पूरी बेशर्मी के साथ सुनाई दे रही है। गांधी जी ने इसीलिए कांग्रेस संविधान का नया मसौदा लिखा। इसीलिए वह कांग्रेसी कार्यकताओं को पांच स्वायत्त निकायों से जोड़कर सेवा संस्कार के ऐसे अग्निकुण्ड उतार देना चाहते थे, जिसमें जलने के बाद या तो सूरज बनकर संसार को प्रकाशित किया जा सकता है अथवा भस्म बनकर अन्य को उर्वर।
क्या यह सत्य नहीं कि आजकल संगठन चाहे राजनीतिक हों, धार्मिक हों अथवा सामाजिक; सब जगह पूछ इन्ही क्षमताओं की है ?... तो फिर सामंतवाद और साम्राज्यवाद कमजोर कैसे हो ?? हमारी पीढ़ियों में पद, पैसा और प्रचार की लोलुपता कैसे कम हो ? हमारे बच्चों में सेवा संस्कार आगे कैसे बढ़े ?
मैं समझता हूं कि गांधी जी की यह जिद्द कदापि नहीं होगी कि कांग्रेस उनके मसौदे को जस का तस अपना ले। किन्तु उस वक्त यदि कांग्रेस अपने संविधान के गांधी मसौदे पर गंभीर हुई होती तो कांग्रेस सेवा दल और राजीव गांधी पंचायतीराज संगठन के रचनात्मक कार्यक्रम गांव-गांव में सराहे जा रहे होते। कांग्रेस - कोई एक दल न होकर, ज़मीनी रचनात्मक कार्यकर्ताओं का एक ऐसा समुदाय बन गया होता, जो भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में से सत्ता और प्रजा के भाव को कम ही करता; अधिक नहीं। कांग्रेस को देश जोड़ने और कांग्रेस केा मज़बूत करने के लिए यात्रा करने की ज़रूरत न पड़ती। तोड़क चिंगारियां कभी उठती भी तो भारत का समाज ही उसे बुझा देता।
इसलिए बदलना चाहते थे चुनाव पद्धति
यदि कांग्रेस ने अपने आंतरिक चुनाव के लिए गांधी मसौदे की पालना तय कर ली होती तो तय मानिए कि आज किसी भी दल द्वारा जनप्रतिनिधि सभाओं हेतु टिकटों के बंटवारे के तौर-तरीके व चुनावों जीतने की कवायद इतनी बुरी न होतीं। दुखद है कि चुनावों जीतने के लिए अपनाये जा रहे हथकण्डों ने आज हमारे गांवों, समुदायों.. यहां तक कि परिवारों में मनभेद पैदा कर दिए हैं। चुनाव आयोग तक पर उंगलियां उठ रही हैं।
क्या करें हम ?
मेरा मानना है कि जैसे ही हमारे मनभेद दूर होंगे, हम किसी एक मजहब, जाति, वर्ग का होते हुए भी भारतीय नागरिक में तब्दील होते जायेंगे। आर्थिक, सामाजिक व लोकतांत्रिक असमानता की बढ़ती खाई को कम करने के लिए हम खुद बेचैन होने लगेंगे। उपाय भी हम खुद खोज लेंगे। 2023 के समक्ष खड़ी बाकी चुनौतियों के समाधान की नीति-रीति, कार्यक्रम, औजार सब कुछ सध जायेंगे।
वसीयत का वर्तमान आह्यन
सेवा, सहकार और सह-अस्तित्व की भारतीय संस्कृति की बुनियाद पर खड़ा गांधी विचार यह करा सकता हैं। कांग्रेस चाहे तो अभी भी गांधी के सपनों को हिंदोस्तान बनाने की राह अपना अपना सकती है। कठिन है, लेकिन नामुमकिन नहीं। यदि हमारे अन्य स्वयंसेवी संगठन, कांग्रेस संविधान के गांधी मसौदे मात्र को ही अपना संविधान बना ले; उसे पूरी ईमानदारी सातत्य, सादगी व सेवा भाव के साथ अमल में उतारने की सामुदायिक कोशिश करें तो मौजूदा चुनौतियों के समाधान संभव हैं।
स्वयंसेवी जगत् को एक बार फिर नए सिरे से पहल करनी होगी। बाहरी पहल से पहले अपनी सफाई करनी होगी। सर्वप्रथम वही कार्य व उसी समुदाय के बीच में करना होगा, जिसे उसकी ज़रूरत है। उसी तरीके से करना होगा, जिससे वह समुदाय लम्बे समय तक उस कार्य के लिए किसी बाहरी संगठन पर आश्रित न रहें; सामुदायिक तौर पर परस्परावलंबी बन जायें।
वसीयतनामे का एक संकेत स्पष्ट है कि आंदोलन को प्रचार आवश्यक है; रचनात्मक कार्य को प्रचार से दूर रहना चाहिए। रचना के लिए राजमार्ग नहीं, पगडण्डी ही अच्छी। सीख साफ है कि रचनात्मक कार्य में लगे संगठनों को अपने बैनर को पीछे, कार्य व समुदाय को आगे रखना चाहिए। वे ऐसा करें।
स्वयंसेवी संगठनों को संसाधन की शुचिता का ख्याल रखना होगा। अन्य स्त्रोतों से सशर्त मिल रहे संसाधनों को लेना बंद करना होगा। स्वयंसेवी संगठनों को अपने मिशन की ज़रूरत के संसाधनों को उन्ही समुदायों के बीच से जुटाना चाहिए, जिनके बीच वे कार्य कर रहे हैं। ये सब करते हुए संगठनों को सेवाग्राम की नींव रखने आये गांधी जी के उस संबोधन तथा बापू कुटी की सादगी व उपयोग करने वाले अनुशासन को नहीं भूलना होगा, जो सामाजिक कार्यकर्ताओं को गांवों में एक शिक्षक अथवा अपनी मंशा थोपने वाले की तरह नहीं, एक सेवक की तरह जाने का आह्वान करता है; उन्हे अपनी वसीयत का गांधी बनते देखना चाहता है।
ताज्जुब नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर. एस. एस), गांधी जी की वसीयत में दर्ज कार्य पद्धति को पूरी शिद्दत के साथ बार-बार... लगातार पढ़ रहा है; लोकसेवक बनने की कोशिश कर रहा है। उलट व खतरनाक यही है कि सेवा से सद्भाव उसका लक्ष्य नहीं है। आर. एस. एस. का डी एन ए साम्प्रदायिक व विभेदकारी है। वह वसीयत का गांधी नहीं, धर्मान्ध गोडसे बनने में लगा है।
अंतिम निवेदन
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बॉक्स - एक
एक सेवक का संबोधन
*(गांधी जी द्वारा सेवाग्राम की नींव रखने के अवसर दिए गए संबोधन के अंश)
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Attached Images