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भारत का किसान आन्दोलन – जानने योग्य बातें.

Rakesh Prasad

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ByRakesh Prasad Rakesh Prasad   0

अन्नदाता – जय जवान जय किसान में परिपेक्ष्य का संघर्ष

भारत का किसान आन्दोलन – जानने योग्य बातें.-अन्नदाता – जय जवान जय किसान में परिपेक्ष्य का संघर्ष

जहाँ आंदोलित किसान खुद को अन्नदाता घोषित करता है, कई बार भगवान जैसे शब्द भी सुनने को मिलते हैं, और गूगल से रोटी डाउनलोड नहीं होती का दावा करता है.

वहीँ जवान इकॉनमी से जुड़ा ख़रीदार वर्ग गूगल प्ले स्टोर के एप्प पर बटन क्लिक द्वारा रोटी आर्डर कर लेता है, यानि डाउनलोड कर लेता है. ख़रीदार और किसान के बीच में एक लम्बी कड़ी है.

1. रोटी डाउनलोड वाला एप्प, किचन/रसोई.

2. उसके पीछे बैठे सुपर मार्किट या ताऊ की किराना दुकान, 

3. उसके पीछे बैठा होल सेल का आटा सप्लायर, 

4. उसके पीछे पैकेजिंग कंपनी, 

5. उसके पीछे आटा मिल, 

6. उसके पीछे बिजली कंपनी, 

7. बड़ी हार्डवेयर कम्पनी, 

8. स्पेयर सप्लायर, 

9. क्वालिटी कंट्रोलर.

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10. एक बड़ा इंजीनियरिंग व मजदूर वर्ग, 

11. एक बड़ा मार्केटिंग एवं लोगिस्टिक तंत्र, 

12. उसके पीछे पूरा मंडी सिस्टम, 

13. उसके पीछे होलसेल आढ़तियों, 

14. और उसके पीछे बीज कंपनी, 

15. फ़र्टिलाइज़र कंपनी, 

16. सरकारी/गैरसरकारी एजेंसी, 

17. पंचायतें, नीति निर्माता, और

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18. इन सबके अंत में किसान और खेत मजदूर हैं. 

इस लोगिस्टिक तंत्र के बिना रोटी न तो आसानी से उपभोक्ता के पास पहुंचेगी, ना ही अर्थशास्त्र में नौकरियां उत्त्पन्न होंगी, ना ही रिसर्च और बेहतर फसल, उत्पाद के लिए पैसा आएगा. 

बस एक भूपति कृष्ण होंगे और बाकी सब सुदामा, जहाँ किसी को दो जून का चावल मिल जाए तो धन्य समझेगा. यकीन ना हो तो अपनी दादी, नानी या माँ, मौसी से पूछें जिन्होंने चक्की चलायी हो, या कभी चक्की पर गेहूं पिसवाया हो.

क्या ये वही नंबर 18 वाले किसान है?

आज MSP पर जो बवाल मचा है, ऊपर के सिस्टम से जुड़ा वो किसान तो इस पूरे घटना क्रम का हिस्सा ही नहीं हैं. हाँ ये बात ज़रूर है की कुछ लोग जाति विशेष का नाम ले मेहनती किसानों की भड़का कर एक मुफ़्तखोर राजनीतिक समूह बनाना चाहते हैं, जिससे डर से सरकारें अपना खज़ाना लुटाती रहें.

जो घटिया मॉल आन्दोलन वाले किसान सरकारी गारंटी के साथ ऑफलोड करना चाहते हैं, वो तो वैसे भी सरकारी गोदामों में चूहों या मौसम की भेंट, या PDS के माध्यम से मुर्गी पालन के काम आता है, अगर यह बात गलत है तो आज धरना स्थल पर मंडियां लग गयी होती, एक्सप्रेसवे पर दुकानें लग गयी होती. 

ये किसान ख़ाली हाथ वाला किसान है, जिसके ट्रैक्टर ख़ाली हैं, जो सिर्फ डराने के काम आता है,  जिसका उत्पाद बाज़ार के लायक नहीं है. नहीं तो ये हज़ारों किसान अब तक कईं सहकारी समितियों का गठन कर के अपना माल अब तक देश दुनिया में बेच रहे होते. जिस तरह बाकि किसान बेच रहे हैं.

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राष्ट्र के प्रति ज़िम्मेदारी

धरती राष्ट्र की धरोहर है, पानी और हवा पर सबका अधिकार है. अगर कोई किसान लालचवश अप्राकृतिक रूप से खेती करता है, जिससे स्वदेशी फसलें लुप्त हो रही हों, जिससे अति उप्ताद होता हो, प्राकृतिक धरोहर का तेज़ी से विनाश, मानव, पशु, प्रकृति, पानी हवा में ज़हर घुलता हो तो ऐसे किसानों की जवाबदेही राष्ट्र के प्रति है. 

भारत में जल का तकरीबन 80% दोहन खेती में होता है, जिसमे फ्लड इरीगेशन के इस्तेमाल से भूजल का अति दोहन होता है, कैनाल और पानी के बटवारे की लडाई पंजाब बनाम हरियाणा उत्तर प्रदेश, बनाम बिहार को समग्रता में लें तो तस्वीर काफी मैली है, पराली का वायु प्रदूषण हो या फ़र्टिलाइज़र का जल प्रदूषण. 

जंगलों का लगातार खत्म होते जाना हो, पशुओं, पौधों, पक्षियों की प्रजातियों का अंत, सब इसी MSP या इसी तरह के राजनीतिक तंत्रों द्वारा अति उप्ताद को कर दाताओं पर मढ़ देने के खेल की वजह से है.

आज पश्चिमी उत्तर प्रदेश से उठे कुछ किसानों से उनके गन्ने की ब्रीड के बारे में कोई पूछे, और उसके पीछे चीनी मीलों के सरकारी तंत्र, जल प्रदूषण, लुप्त स्वदेशी गन्ने की ब्रीड, तो स्थिति साफ़ हो जाएगी.

उसी तरह पंजाब के किसानों से उनका पेस्टिसाइड वाला उत्पाद यूरोप, अमेरिका अरब देशो में क्यों बैन किया गया अगर पूछा जाए तो आन्दोलन वाले किसानों को माफ़ी मांगनी पड़ जाएगी.

चावल की खेती से भारत का भूजल विदेशो में एक्सपोर्ट कर देने की रिसर्च रिपोर्ट तो आम हैं हीं.

जाति, संप्रदाय-वाद और सामंतवादी सोच

आन्दोलन एक जाति-समुदाय विशेष के शक्ति प्रदर्शन का रूप ले चुका है, नेताओं की भाषा यह साफ़ कर दे रही है. चाहे वो – “हमारी कौम झुकने वाली नहीं है”, “हम ज़मींदार हैं”, “हम अन्नदाता भगवान हैं” का उद्घोष हो या अलगाववादी ताकतों द्वारा लालकिले पर समुदाय विशेष का झंडा जबरन फहरा देना. 

ये सब भारत के प्रजातान्त्रिक स्वरुप पर गहरे आघात हैं. भारत जब भारत नहीं था तब यही जाति, समुदाय आधारित राज्य बनते बिगड़ते, लड़ते एक दूसरे को मारते काटते रहते थे, नतीज़ा लम्बी गुलामी का दौर रहा. 

यदि आन्दोलन की आड़ में संविधान को कमज़ोर कर समुदाय आधारित राजनीतिक समूह इसी तरह मज़बूत होते रहे तो हम जल्द ही वही पुराना विपन्न, कमज़ोर राष्ट्र देखेंगे. इस तरह के समूहों को हमारी राजधानी में घुसने से रोकने के लिए अगर मज़बूत किले बंदी की जा रही है, तो इसे माहौल सुधारने की एक कड़ी की तरह ही देखना चाहिए.

photo Source - @DelhiPolice

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