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सूने होते मकान और मोहल्ले, भौतिकवादी दौर में पीछे छूटता अपनापन

Dr. Dharmendra Singh Katiyar

Dr. Dharmendra Singh Katiyar Opinions & Updates

ByDr. Dharmendra Singh Katiyar Dr. Dharmendra Singh Katiyar   0

सूने होते मकान और मोहल्ले, भौतिकवादी दौर में पीछे छूटता अपनापन-

शायद आपने कभी ध्यान से देखा नहीं या फिर आपका गली मुहल्ले से इतना वास्ता नहीं पड़ता। आप बस तेजी से अपनी बाइक या कार से सीधे अपने काम पर निकल जाते हैं और वापस अपने घर आ जाते हैं। इसलिए शायद आपकी सूने होते मकानों और मोहल्लों पर नज़र जा नहीं पाती होगी या फिर आप खुद अपना जन्म स्थान छोड़कर किसी बड़े शहर में आकर बस गये हैं, तो आपको आभास ही नहीं कि कब आपके मोहल्ले के मकान सुने हो गये। उनमें सिर्फ बूढ़े माँ बाप पड़े हैं और फिर कब धीरे धीरे ऐसे मकानों से मोहल्ले सूने होते चले गये। खैर कल सुबह उठकर एक बार इसका जायज़ा लीजियेगा कि कितने घरों में अगली पीढ़ी के बच्चे रह रहे हैं और कितने बाहर निकलकर नोएडा, गुड़गांव, पूना, पटना या जयपुर जैसे बड़े शहरों में जाकर बस गये हैं। 

कल आप एक बार उन गली मोहल्लों से पैदल निकलिएगा, जहां से आप बचपन में स्कूल जाते समय या दोस्तों के संग मस्ती करते हुए निकलते थे। तिरछी नज़रों से झांकिए हर घर की ओर आपको एक चुपचाप सी सुनसानियत मिलेगी, न कोई आवाज़, न बच्चों का शोर, बस किसी किसी घर के बाहर या खिड़की में आते जाते लोगों को ताकते बूढ़े जरूर मिल जायेंगे।

आखिर इन सूने होते घरों और खाली होते मुहल्लों के कारण क्या हैं? 

भौतिकवादी युग में हर व्यक्ति चाहता है कि उसके बच्चे बेहतर से बेहतर पढ़ें। उसको लगता है या फिर दूसरे लोग उसको ऐसा महसूस कराने लगते हैं कि छोटे शहर या कस्बे में पढ़ने से उसके बच्चे का कैरियर खराब हो जायेगा या फिर बच्चा बिगड़ जायेगा। बस यहीं से बच्चे निकल जाते हैं बड़े शहरों के होस्टलों में। अब भले ही दिल्ली और उस छोटे शहर में उसी क्लास का सिलेबस और किताबें वही हों मगर मानसिक दवाब सा आ जाता है बड़े शहर में पढ़ने भेजने का। हालांकि इतना बाहर भेजने पर भी मुश्किल से 1%बच्चे IIT, PMT या CLAT वगैरह में निकल पाते हैं और फिर वही मां बाप बाकी बच्चों का पेमेंट सीट पर इंजीनियरिंग, मेडिकल या फिर बिज़नेस मैनेजमेंट में दाखिला कराते हैं।

4 साल बाहर पढ़ते पढ़ते बच्चे बड़े शहरों के माहौल में रच बस जाते हैं और फिर वहीं नौकरी ढूंढ लेते हैं। अब त्योहारों पर घर आते हैं माँ बाप के पास। माँ बाप भी सभी को अपने बच्चों के बारे में गर्व से बताते हैं। उनके पैकेज के बारे में बताते हैं। एक साल, दो साल, कुछ साल बीत गये। मां बाप बूढ़े हो रहे हैं और बच्चों ने लोन लेकर बड़े शहरों में फ्लैट ले लिये हैं। अब अपना फ्लैट है तो त्योहारों पर भी जाना बंद। सिर्फ कोई जरूरी शादी ब्याह में आते जाते हैं। अब शादी ब्याह तो बेनक्वेट हॉल में होते हैं तो मुहल्ले में और घर जाने की भी ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती है। हाँ शादी ब्याह में कोई मुहल्ले वाला पूछ भी ले कि भाई अब कम आते जाते हो तो छोटे शहर, छोटे माहौल और बच्चों की पढ़ाई का उलाहना देकर बोल देते हैं कि अब यहां रखा ही क्या है? 

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खैर, बेटे बहुओं के साथ फ्लैट में शहर में रहने लगे हैं। अब फ्लैट में तो इतनी जगह होती नहीं कि बूढ़े, खांसते बीमार माँ बाप को साथ में रखा जाये। बेचारे पड़े रहते हैं अपने बनाये या पैतृक मकानों में। कोई बच्चा बागवान पिक्चर की तरह मां बाप को आधा - आधा रखने को भी तैयार नहीं। अब साहब, घर खाली खाली, मकान खाली खाली और धीरे धीरे मुहल्ला खाली हो रहा है। अब ऐसे में छोटे शहरों में कुकुरमुत्तों की तरह उग आये "प्रॉपर्टी डीलरों" की गिद्ध जैसी निगाह इन खाली होते मकानों पर पड़ती है और वो इन बच्चों को घुमा फिरा कर उनके मकान के रेट समझाने शुरू करते हैं। उनको गणित समझाते हैं कि कैसे घर बेचकर फ्लैट का लोन खत्म किया जा सकता है और एक प्लाट भी लिया जा सकता है। ये प्रॉपर्टी डीलर सबसे ज्यादा ज्ञान बांटते हैं कि छोटे शहर में रखा ही क्या है। साथ ही ये किसी बड़े लाला को इन खाली होते मकानों में मार्केट और गोदामों का सुनहरा भविष्य दिखाने लगते हैं। 

बाबू जी और अम्मा जी को भी बेटे बहू के साथ बड़े शहर में रहकर आराम से मज़ा लेने के सपने दिखाकर मकान बेचने को तैयार कर लेते हैं। आप खुद अपने ऐसे पड़ोसी के मकान पर नज़र रखते हैं और खरीद कर डाल देते हैं कि कब मार्केट बनाएंगे या गोदाम, जबकि आपका खुद का बेटा छोड़कर पूना की IT कंपनी में काम कर रहा है, इसलिए आप खुद भी इसमें नहीं बस पायेंगे। हर दूसरा घर, हर तीसरा परिवार सभी के बच्चे बाहर निकल गये हैं। वहीं बड़े शहर में मकान ले लिया है, बच्चे पढ़ रहे हैं, अब वो वापस नहीं आयेंगे। छोटे शहर में रखा ही क्या है । इंग्लिश मीडियम स्कूल नहीं है, हॉबी क्लासेज नहीं है, IIT/PMT की कोचिंग नहीं है, मॉल नहीं है, माहौल नहीं है, कुछ नहीं है साहब, आखिर इनके बिना जीवन कैसे चलेगा। 

पर कभी UPSC CIVIL SERVICES का रिजल्ट उठा कर देखियेगा, सबसे ज्यादा लोग ऐसे छोटे शहरों से ही मिलेंगे। बस मन का वहम है। मेरे जैसे लोगों के मन के किसी कोने में होता है कि भले ही कहीं फ्लैट खरीद लो, मगर रहो अपने उसी छोटे शहर में अपने लोगों के बीच में। पर जैसे ही मन की बात रखते हैं, बुद्धिजीवी अभिजात्य पड़ोसी समझाने आ जाते है कि "अरे बावले हो गये हो, यहाँ बसोगे, यहां क्या रखा है?”, वो भी गिद्ध की तरह मकान बिकने का इंतज़ार करते हैं, बस सीधे कह नहीं सकते। 

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अब ये मॉल, ये बड़े स्कूल, ये बड़े टॉवर वाले मकान सिर्फ इनसे तो ज़िन्दगी नहीं चलती। एक वक्त, यानि बुढ़ापा ऐसा आता है जब आपको अपनों की ज़रूरत होती है। ये अपने आपको छोटे शहरों या गांवो में मिल सकते हैं, फ्लैटों की रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन में नहीं। मैंने कोलकाता, दिल्ली, मुंबई में देखा कि वहां शव यात्रा चार कंधों पर नहीं बल्कि एक खुली गाड़ी में पीछे शीशे की केबिन में जाती है, सीधे शमशान, एक दो रिश्तेदार बस और सब खत्म। 

भाईसाब ये खाली होते मकान, ये सूने होते मुहल्ले, इन्हें सिर्फ प्रॉपर्टी की नज़र से मत देखिए, बल्कि जीवन की खोती जीवंतता की नज़र से देखिए। आप पड़ोसी विहीन हो रहे हैं। आप वीरान हो रहे हैं। आज गांव सूने हो चुके हैं, शहर कराह रहे हैं। सूने घर आज भी राह देखते हैं.. बंद दरवाजे बुलाते हैं पर कोई नहीं आता। भूपेन हजारिका का यह गीत याद आता है -- 

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गली के मोड़ पे.. सूना सा कोई दरवाजा, 

तरसती आंखों से रस्ता किसी का देखेंगे, 

निगाह दूर तलक.. जा के लौट आयेगी, 

करोगे याद तो हर बात याद आयेगी..!!!

......

समझाइए, बसाइए लोगों को छोटे शहरों में और अपने जन्मस्थानों के प्रति मोह जगाइए, प्रेम जगाइए। पढ़ने वाले तो सब जगह पढ़ ही लेते हैं।

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