भारत एक प्रजातान्त्रिक देश है और प्रजातन्त्र की सफलता उसके
नागरिकों की साक्षरता पर ही निर्भर करती है। आज साक्षरता समाज की महत्वपूर्ण आवश्यकता
बन गयी है क्योंकि जब तक लोगों को शिक्षित नहीं किया जायेगा, तब तक योजनाओं और कार्यक्रमों
का उचित लाभ उन तक नहीं पहुंच सकेगा। इस दृष्टि से प्रौढ़ शिक्षा के उद्देश्यों को दो
भागों में विभाजित किया जा सकता है, जो इस प्रकार हो सकते है -
1. वैयक्तिक उद्देश्य –
अ.) वयस्कों का आत्मिक, शारीरिक और मानसिक विकास करना
ब.) वयस्कों की सामाजिक एवं व्यावसायिक कुशलता का विकास करना।
स.) वयस्कों का सांस्कृतिक विकास करना।
2. सामाजिक उद्देश्य –
अ.) वयस्कों में सामाजिक एकता का विकास करना।
ब.) वयस्कों को राष्ट्रीय साधनों की सुरक्षा एवं उन्नति का ज्ञान
कराना।
स.) वयस्कों में सामाजिक आदर्शों का समावेश करना तथा सहकारी
समुदायों एवं संस्थाओं का निर्माण करना।
इसका असर यह हुआ कि जहां भारत में आजादी के तुरन्त बाद कुल साक्षरता
दर 16.7 थी, वही 1981 में विभिन्न प्रकार की योजनाओं के कारण प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों
की सहायता से 36.2 हो गयी तथा ठीक 10 वर्ष बाद वर्ष 1991 में की जनगणना के अनुसार साक्षरता दर 52.1 तथा 2001 के जनगणना के अनुसार 65.38 हो गयी. जिससे यह प्रतीत होता है कि प्रौढ़ शिक्षा की बजह से ही देश में साक्षरता
दर उत्तरोत्तर वृद्धि कर रही है। वही पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की साक्षरता दर
में भी वृद्धि हुई। जैसे 1951 में महिला साक्षरता दर मात्र 07.9 थी, वहीं आज महिला साक्षरता दर 46.0 है।
निरक्षरता के कलंक से मुक्ति -
साक्षरता का गुणगान बहुत प्राचीनकाल से होता रहा हैं। ‘बिना पढे़ नर पशु कहावै
; जग में सकड़ों दुख उठावै।’ वाली पंक्तियां प्राचीनकाल से ही चरितार्थ होती आ रही हैं। निरक्षरता के अभिशाप
को लोग पहले भी समझते थे। ‘‘माता शत्रु पिता बैरी येनबालो न पाठिता। न शोभते सभामघ्ये हंसमघ्ये वको यथा।’’ कहकर संस्कृत के विद्वान
निरक्षरता के कलंक से बचने के लिए लोगो को आरम्भ से ही सावधान एवं सर्तक करते आये हैं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांघी ने ‘‘
हरिजन बंधू’’
में लिखा था- ‘‘जन- समूह की निरक्षरता हिन्दुस्तान का पाप है, शर्म है और वह दूर होनी
ही चाहिए। पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था-
‘‘निरक्षरों से छलकते
राष्ट्र में औद्योगिक क्रान्ति सम्भव नहीं’’ प्रघानमंत्री राजीव गांघी ने छह राष्ट्रीय मिशन में से राष्ट्रीय साक्षरता मिशन
को प्राथमिकता देकर देश को निरक्षरता के कलंक से मुक्त कराने की चेष्टा की है।
भारत में 15-35 वर्ष की आयु के लोगो को युवा माना गया हैं। पूरी जनसंख्या में
33 प्रतिशत से कुछ अधिक युवा हैं और युवा जनसंख्या में से 49,99 प्रतिशत निरक्षर हैं। साक्षरता के आभाव में युवाओं को व अन्य
प्रौढ़ों को सभी तरह के उत्साह तथा सामंजस्य से एवं सुखी व संतोषजनक जीवन-यापन करने
से वंचित कर दिया है। हमारी सरकार ने निरक्षरता के विरुद्ध एक सुनियोजित एवं तेज संग्राम
शुरू करने का संकल्प किया, जिससे निरक्षरता, निर्धनता तथा इनसे
जुड़े अन्य कुप्रभाव दूर हो जायेगें।
सभी के लिए स्वास्थ्य शिक्षा -
जब तक उत्पादक कार्यक्रमों में संलग्न हो सकने वाले व्यक्ति
शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ नही होते, वे देश के बहुमुखी विकास में अपना योगदान
नही दे सकते। 1901 में औसत आयु 26 वर्ष थी, जो 1991-95 के दौरान बढ़कर 60.6 वर्ष हो गयी। प्रति हजार मृत्यु दर 1901 में 42.6 थी, जो 1991 में 10.2 रह गयी। इससे स्वास्थ सेवाओं की प्रभवोत्पादकता का पता चलता हैं। आजकल उपचारात्मक
चिकित्सा के स्थान पर रोगों की रोकथाम तथा शारीरिक स्वास्थ में आत्म-निर्भरता पर बल
दिया जाता है। इसके लिए जरूरी है कि लोगो को पोषण, स्वच्छता, संक्रामक रोग, कृमियों व परजीवियों
आदि के बारे में बताया बताया जाए। प्रौढ़ शिक्षा देते समय हम निरक्षरों तथा नवसाक्षरों
को साधारण रोगो के लक्षणों, कारणों, रोकथाम व प्राथमिक उपचार के बारे में बता सकते हैं। इसके साथ ही उन्हे अच्छे स्वास्थ
हेतु शारीरिक व्यायाम, सन्तुलित भोजन व योग की उपयोगिता भी समझाई जा सकती हैं।
व्यवसायिक कुशलता प्राप्त कराना –
प्रौढ़ शिक्षा केवल साक्षरता तक ही सीमित नहीं है अपितु ऐसी शिक्षा
देती है जिससे व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में सफल हो सके और इसके लिए व्यावसायिक कुशलता
का ज्ञान आवश्यक है। नगरों में व्यापारिक तथा औद्योगिक शिक्षा का ज्ञान और गांवों में
कृषि, लघु उद्योग एवं घरेलू कार्यो में दक्षता का प्रशिक्षण जरूरी है। विशेषत: प्रौढ़
जिस कार्य में लगे हुए हैं, उसमें कौशल, वैज्ञानिक, तकनीकी ज्ञान एवं हुनर की सीख देना
आवश्यक है और वह कार्य प्रौढ़ शिक्षा बखूबी करती है।
नागरिकता के गुणों का विकास –
प्रौढ़ शिक्षा के द्वारा अनपढ़ नागरिकों के अन्दर एक ऐसी चेतना
जगाना, जो उन्हें एक आदर्श नागरिक की भांति अपने जीवन को समाज में व्यतीत करने के योग्य
बना सके। नागरिकता के श्रेष्ठ गुणों के विकास में ही लोग मिल-जुल कर सामाजिक एवं सामुदायिक
कार्यो में भाग ले सकते हैं और अपने अन्दर समाज सेवा की भावना ला सकते हैं, जिससे व्यक्ति
एवं समाज दोनों का कल्याण होता है।
सांस्कृतिक दृष्टिकोण का विकास कराना -
प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से गीत, कविता, नाटक, कहानी आदि से व्यक्ति
के अन्दर सांस्कृतिक चेतना जगाई जाती है। जीवन के प्रति वह उससे कलात्मक दृष्टिकोण
अपना सकता है और अवकाश के समय का सदुपयोग कर सकता है। इससे मनोरंजन के साधनों में भी
वह रूचि ले सकता है।
सामाजिक चेतना का विकास कराना -
प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से प्रौढ़ों के अन्दर ऐसी भावना का विकास
कराया जाता है, जिससे वे पूरे समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से अवगत हो सकें। एक-दूसरे
की सहायता करना, खासकर समाज में कमजोर, असहाय तथा पिछडे़ वर्गों
को यथासम्भव सहयोग देना इसका लक्ष्य है।
मानवीय मूल्यों का विकास करना -
मानवीय मूल्यों के कारण व्यक्ति में नैतिक एवं चारित्रिक गुणों
का विकास होता है। प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से प्रौढ़ों में नैतिक आचरण की शिक्षा दी
जाती है। शिक्षित मष्तिष्क वाला व्यक्ति ही नैतिक व्यवहार सर्व धर्म सम्भाव एवं आदर्श
जीवन को महत्व दे सकता है। प्रौढ़ शिक्षा इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करती
है।
पारिवारिक स्थिति में गुणात्मक विकास कराना -
प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से पारिवारिक विकास एवं अभिभावक के दयित्वों
के प्रति जागरुकता लाती है। परिवार की समस्याओं को प्रेमपूर्वक सुलझाना, फिजूलखर्ची को कम करना, नित्यप्रति मिलने-जुलने
की भावना को बढ़ावा देना, सहयोग आदि गुणों को महत्व देने जैसी प्रवत्तियों का विकास इसका प्रमुख ध्येय है।
सामाजिक बुराइयों के प्रति संवेदनशीलता –
साक्षरता के साथ ही यह भी आवश्यक है कि प्रौढ़ों में ऐसी भावना
का विश्वास कराया जाये, जिससे वे समाज में व्याप्त सामाजिक बुराइयों के प्रति जागरूक
हो सके। विशेषत बाल-विवाह, दहेज, नशीले पदार्थो का सेवन, छुआछूत, अन्धविश्वास आदि को समाप्त करने के प्रयास में जुट सकें, ऐसी चेतना प्रौढ़ शिक्षा
के माध्यम से दी जाती है।
पर्यावरण के प्रति सचेत करना -
पर्यावरण के प्रति समुचित ध्यान न देने के कारण भी आज मानव समाज
में प्रदूषण जैसी समस्या भयंकर होती जा रही है। जल, हवा, मिट्टी, पेड़, नदी आदि प्राकृतिक
तत्वों के बारे में जानने से ही व्यक्ति उसके प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण अपना सकता है।
प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से प्रौढ़ों को जागरूक बनाकर पर्यावरण की समस्याओं का हल खोजा
जा रहा है।
जनसंख्या के प्रति जागरुकता फैलाना -
बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण आज समाज में अनेक बुराइयां पैदा हो
गईं हैं, आवास, भोजन, शिक्षा एवं जीवन की अन्य
आवश्यक वस्तुएं नहीं मिल पा रहीं है। परिवार कल्याण कार्यक्रमों की सफलता शिक्षा से
घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। प्रौढ़ शिक्षा में जनसंख्या शिक्षा को समेकित करके छोटे
परिवार के आदर्श को अपनाने में सहायता मिली है। ऐसा करने से प्रौढ़ों में भावना भी जाग्रत
हुई है कि परिवार नियोजन न केवल उनके परिवार वरन् सम्पूर्ण समाज के लिए हितकर है।
राष्ट्रीय लक्ष्य एवं विकास की जानकारी देना -
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कुछ महत्वपूर्ण राष्ट्रीय लक्ष्य
रखे गये, जिनकी जानकारी प्रत्येक मनुष्य को देना आवश्यक है। राष्ट्रीय एकता, पुरातन संस्कृति की
रक्षा, विकास से सम्बन्धित योजनाओं की जानकारी एवं नये तकनीकी ज्ञान के प्रति प्रौढ़ो में
जागरुकता लाना आवश्यक है। प्रौढ़ शिक्षा इस ओर अपनी अहम भूमिका निभा रही है।
आशा और आत्म विश्वास की भावनाओं को जाग्रत करना –
प्रायः मानव में जीवन के प्रति निराशा की भावना पायी जाती है,
इससे उसका जीवन दिग्भ्रमित रहता है। अतः प्रौढ़ शिक्षा प्रत्येक साक्षर व्यक्ति में
आशा और आत्मविश्वास की भावना जाग्रत करती है। जिससे वे अपने जीवन में रचनात्मक दृष्टिकोण
अपनाकर अपने जीवन को सही मार्ग की ओर ले जा सकें।
महिलाओं और कमजोर वर्ग का उत्थान करना –
समाज में महिलाओं के प्रति घोर उपेक्षा की भावना पाई जाती है,
साथ ही कमजोर एवं सुविधा विहीन लोगों का समुचित विकास न होने के कारण राष्ट्र की प्रगति
का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। अतः प्रौढ़ शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य यह है कि महिलाओं
को साक्षर बनाकर उन्हें समाज में उचित स्थान दिया जाए, उनके अनुरूप व्यावसायिक शिक्षा दी जाये, साथ ही कमजोर वर्गो
के प्रति अन्याय व शोषण न हो सके, इसके लिए उन्हें भी जागरुक नागरिक बनने के लिए शिक्षा
दी जाती है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना –
आज वैज्ञानिक दृष्टिकोण का महत्व समाज में बढ़ रहा है। इसके कारण
परम्परागत रीति-रिवाज, अन्ध विश्वास एवं पुराने तौर-तरीके आदि पर काफी प्रभाव पड़ा है। प्रौढ़ शिक्षा के
माध्यम से वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया जाता है।
राष्ट्रीय साधनों की सुरक्षा एवं वृद्धि -
मानव को प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों साधनों की जानकारी देनी
चाहिए, जिससे वे राष्ट्रीय सम्पदाओं के विकास में सहयोग दे सकते हैं। प्रौढ़ शिक्षा
मानवीय क्षमताओं में विश्वास करती है। इसके माध्यम से राष्ट्रीय उत्पादक शक्ति एवं
संसाधनों में वृद्धि लायी जा रही है।
सामाजिक सेवा और हित का विकास –
जनसहयोग के माध्यम से सामाजिक एवं सेवा का कार्य आसानी से किया
जा सकता है। अतः मानव के अन्दर सामाजिक आदर्श लाने के लिए रचनात्मक कार्यो के माध्यम
से सामाजिक सेवा की भावना जाग्रत की जाती है।
राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं से अवगत कराना –
जनसंचार के साधनों के माध्यम से प्रौढ़ों को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय
समस्याओं के बारे में जानकारी देना भी आवश्यक है। इससे वे उत्पन्न समस्याओं के विषय
में सोच-समझ सकते हैं और उनके समाधान में अपनी अहम भूमिका प्रस्तुत कर सकते हैं।
प्रजातंत्र की रक्षा –
प्रजातन्त्र की रक्षा के लिए शिक्षा जरूरी हैं। सचेत निर्वाचकों
के हाथ में ही प्रजातन्त्र सुरक्षित रहता हैं। शिक्षा मनुष्य को अपने कर्तव्यों के
प्रति जागरूक बनाती है। प्रजातन्त्र में निरक्षरता का विनाश करके और सभी लोगों के लिए
शिक्षा की सुविधा उपलब्घ करके नागरिक चेतना लाई जा सकती हैं। शिक्षा विहीन व्यक्ति
निसंकोच सार्वजनिक स्थानो, मसलन सड़कों, पुलो, सरकारी सम्पत्ति आदि
का दुरूपयोग करता हैं। उसकी समझ में सरकार उसकी न होकर किसी गैर की है। इसलिए ऐसे स्थानो
की क्षति करने में वह अपनी बहादुरी ही समझता हैं। निरक्षर वर्ग प्रजातान्त्रिक प्रणाली
की सरकार को असफल बनाकर तानाशाही एवं फौजी शासन वाली सरकार में बदल सकता हैं। जबकि
साक्षर वर्ग अपने देश के साधनों का समुचित उपयोग करके व अपने अघिकारो का सदुपयोग कर
प्रजातन्त्र की सुरक्षा तथा राष्ट्र के सर्वग्राही विकास के लिए शिक्षा को अनिवार्य
शर्त मानते हैं। मौलाना अबुल कलाम आजाद के मतानुसार –
‘‘प्रौढ़ शिक्षा को लोगों को साक्षर बनाने तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए, इसमें उस शिक्षा को
भी शामिल करना चाहिए, जो प्रत्येक नागरिक को प्रजातान्त्रिक सामाजिक व्यवस्था में भाग
लेने के लिए तैयार करे।’’
जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण –
1901 में भारत की जनसंखा 23.8 करोड़ थी, 1921 में वह 25.1 करोड़ हुई, 1941 में 31.8 करोड़ तथा 1951 में 36.1 करोड़ हो गई। 1961 में भारत की जनसंख्या 43.9 करोड़ थी, जो 1971 व 1981 में बढ़कर क्रमश: 54.8 तथा 68.3 करोड़ हो गई। 1991 में यह 86.6 करोड़ हो गई। स्पष्ट है कि देश की जनसंख्या द्रुत गति से बढ़ रही
है तथा तथा इस गति को रोकना ही इस समय देश की सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या है। यह समस्या
देश की विकास-दर को कुछ निष्प्रभावी बनाने का कारण बनी।
जनसंख्या नियन्त्रण करने के लिए सरकार ने परिवार कल्याण कार्यक्रम
को क्रियान्वित किया है, परन्तु इस कार्यक्रम की सफलता पर विचार तथा समझाने-बुझाने के उपायों का प्रभाव
सीमित मात्रा में ही पढ़ा है। परिवार कल्याण कार्यक्रमों की सफलता शिक्षा से घनिष्ठ
रूप से सम्बन्धित है। प्रौढ़ शिक्षा में जनसंख्या शिक्षा को समेकित करके छोटे परिवार
के आदर्श को अपनाने में सहायता मिल सकती है। ऐसा करने से प्रौढ़ों में भावना भी जाग्रत
होगी कि परिवार नियोजन के कार्यक्रम न केवल उनके परिवार वरन सम्पूर्ण समाज के लिए हितकर
है।
सामाजिक पुनरगठन एवं परिवर्तन –
प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों की सहायता से हम शिक्षित को गरीबों
के दुःखों के प्रति संवेदनशील बना सकते हैं और फिर उनके अलगाव को कम कर सकते हैं। शिक्षित
लोग जनता के सामाजिक मूल्यों से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। कुल मिलाकर यह लगता है कि
हम प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से साक्षर बनकर एक समानतावादी, वर्ग-विहीन व सुगठित
समाज का निर्माण करने की दिशा में बहुमूल्य योगदान दे सकते हैं।
बोनानी ने “ए लिट्रेसी जर्नीं” नामक अपनी पुस्तक में यह विचार व्यक्त किया है कि साक्षरता से जनता में एक नये
अन्तःकरण का विकास हो सकता है तथा यह सामाजिक क्रान्ति के लिए एक प्रोत्साहन हो सकता
है तथा यह यह सामाजिक क्रान्ति के लिए एक प्रोत्साहन हो सकती है। अनेक सरकारें इसके
लिए तैयार नहीं होतीं, पालो फ्रायरे को इसी आशंका के कारण अपना देश छोड़ना पड़ा था।
एक साक्षर व्यक्ति निरक्षर व्यक्ति की अपेक्षा समाज के प्रति
ज्यादा उत्तरदायी और समझदार होता है। इस कारण अपराध कम हो सकते हैं। आजकल समाज में
दहेज प्रथा, दासी प्रथा, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, मदिरापान, वैष्यागमन, जुआ खेलना जैसी बुराइयाँ
पनप रहीं हैं। निरक्षरता की गर्त में पड़ा विवेकहीन प्राणी इन बुराइयों का नहीं समझ
पाता है। वह जीवन के भार को हल्का करने के लिए या स्वयं को समाज में प्रख्यात करने
के लिए कभी नियमों को तोड़ता है। अज्ञानतावश अपने अभावों से पीड़ित होकर वह क्षणिक सुख
के लिए सामाजिक बुराइयों के चंगुल में फंसता है।
प्रौढ़ साक्षरता कार्यक्रमों के माध्यम से हम निरक्षरों को सामाजिक
बुराइयों के चंगुल में फंसने से रोक सकते हैं। इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी बात को
विराम देते हुए कह सकता हूं कि,
‘‘मानव विकास में प्रौढ़ शिक्षा का विशेष योगदान’’ हो सकता है।
By Dr. Dharmendra Singh Katiyar {{descmodel.currdesc.readstats }}
भारत एक प्रजातान्त्रिक देश है और प्रजातन्त्र की सफलता उसके नागरिकों की साक्षरता पर ही निर्भर करती है। आज साक्षरता समाज की महत्वपूर्ण आवश्यकता बन गयी है क्योंकि जब तक लोगों को शिक्षित नहीं किया जायेगा, तब तक योजनाओं और कार्यक्रमों का उचित लाभ उन तक नहीं पहुंच सकेगा। इस दृष्टि से प्रौढ़ शिक्षा के उद्देश्यों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है, जो इस प्रकार हो सकते है -
1. वैयक्तिक उद्देश्य –
अ.) वयस्कों का आत्मिक, शारीरिक और मानसिक विकास करना
ब.) वयस्कों की सामाजिक एवं व्यावसायिक कुशलता का विकास करना।
स.) वयस्कों का सांस्कृतिक विकास करना।
2. सामाजिक उद्देश्य –
अ.) वयस्कों में सामाजिक एकता का विकास करना।
ब.) वयस्कों को राष्ट्रीय साधनों की सुरक्षा एवं उन्नति का ज्ञान कराना।
स.) वयस्कों में सामाजिक आदर्शों का समावेश करना तथा सहकारी समुदायों एवं संस्थाओं का निर्माण करना।
इसका असर यह हुआ कि जहां भारत में आजादी के तुरन्त बाद कुल साक्षरता दर 16.7 थी, वही 1981 में विभिन्न प्रकार की योजनाओं के कारण प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों की सहायता से 36.2 हो गयी तथा ठीक 10 वर्ष बाद वर्ष 1991 में की जनगणना के अनुसार साक्षरता दर 52.1 तथा 2001 के जनगणना के अनुसार 65.38 हो गयी. जिससे यह प्रतीत होता है कि प्रौढ़ शिक्षा की बजह से ही देश में साक्षरता दर उत्तरोत्तर वृद्धि कर रही है। वही पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की साक्षरता दर में भी वृद्धि हुई। जैसे 1951 में महिला साक्षरता दर मात्र 07.9 थी, वहीं आज महिला साक्षरता दर 46.0 है।
निरक्षरता के कलंक से मुक्ति -
साक्षरता का गुणगान बहुत प्राचीनकाल से होता रहा हैं। ‘बिना पढे़ नर पशु कहावै ; जग में सकड़ों दुख उठावै।’ वाली पंक्तियां प्राचीनकाल से ही चरितार्थ होती आ रही हैं। निरक्षरता के अभिशाप को लोग पहले भी समझते थे। ‘‘माता शत्रु पिता बैरी येनबालो न पाठिता। न शोभते सभामघ्ये हंसमघ्ये वको यथा।’’ कहकर संस्कृत के विद्वान निरक्षरता के कलंक से बचने के लिए लोगो को आरम्भ से ही सावधान एवं सर्तक करते आये हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांघी ने ‘‘ हरिजन बंधू’’ में लिखा था- ‘‘जन- समूह की निरक्षरता हिन्दुस्तान का पाप है, शर्म है और वह दूर होनी ही चाहिए। पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था-
भारत में 15-35 वर्ष की आयु के लोगो को युवा माना गया हैं। पूरी जनसंख्या में 33 प्रतिशत से कुछ अधिक युवा हैं और युवा जनसंख्या में से 49,99 प्रतिशत निरक्षर हैं। साक्षरता के आभाव में युवाओं को व अन्य प्रौढ़ों को सभी तरह के उत्साह तथा सामंजस्य से एवं सुखी व संतोषजनक जीवन-यापन करने से वंचित कर दिया है। हमारी सरकार ने निरक्षरता के विरुद्ध एक सुनियोजित एवं तेज संग्राम शुरू करने का संकल्प किया, जिससे निरक्षरता, निर्धनता तथा इनसे जुड़े अन्य कुप्रभाव दूर हो जायेगें।
सभी के लिए स्वास्थ्य शिक्षा -
जब तक उत्पादक कार्यक्रमों में संलग्न हो सकने वाले व्यक्ति शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ नही होते, वे देश के बहुमुखी विकास में अपना योगदान नही दे सकते। 1901 में औसत आयु 26 वर्ष थी, जो 1991-95 के दौरान बढ़कर 60.6 वर्ष हो गयी। प्रति हजार मृत्यु दर 1901 में 42.6 थी, जो 1991 में 10.2 रह गयी। इससे स्वास्थ सेवाओं की प्रभवोत्पादकता का पता चलता हैं। आजकल उपचारात्मक चिकित्सा के स्थान पर रोगों की रोकथाम तथा शारीरिक स्वास्थ में आत्म-निर्भरता पर बल दिया जाता है। इसके लिए जरूरी है कि लोगो को पोषण, स्वच्छता, संक्रामक रोग, कृमियों व परजीवियों आदि के बारे में बताया बताया जाए। प्रौढ़ शिक्षा देते समय हम निरक्षरों तथा नवसाक्षरों को साधारण रोगो के लक्षणों, कारणों, रोकथाम व प्राथमिक उपचार के बारे में बता सकते हैं। इसके साथ ही उन्हे अच्छे स्वास्थ हेतु शारीरिक व्यायाम, सन्तुलित भोजन व योग की उपयोगिता भी समझाई जा सकती हैं।
व्यवसायिक कुशलता प्राप्त कराना –
प्रौढ़ शिक्षा केवल साक्षरता तक ही सीमित नहीं है अपितु ऐसी शिक्षा देती है जिससे व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में सफल हो सके और इसके लिए व्यावसायिक कुशलता का ज्ञान आवश्यक है। नगरों में व्यापारिक तथा औद्योगिक शिक्षा का ज्ञान और गांवों में कृषि, लघु उद्योग एवं घरेलू कार्यो में दक्षता का प्रशिक्षण जरूरी है। विशेषत: प्रौढ़ जिस कार्य में लगे हुए हैं, उसमें कौशल, वैज्ञानिक, तकनीकी ज्ञान एवं हुनर की सीख देना आवश्यक है और वह कार्य प्रौढ़ शिक्षा बखूबी करती है।
नागरिकता के गुणों का विकास –
प्रौढ़ शिक्षा के द्वारा अनपढ़ नागरिकों के अन्दर एक ऐसी चेतना जगाना, जो उन्हें एक आदर्श नागरिक की भांति अपने जीवन को समाज में व्यतीत करने के योग्य बना सके। नागरिकता के श्रेष्ठ गुणों के विकास में ही लोग मिल-जुल कर सामाजिक एवं सामुदायिक कार्यो में भाग ले सकते हैं और अपने अन्दर समाज सेवा की भावना ला सकते हैं, जिससे व्यक्ति एवं समाज दोनों का कल्याण होता है।
सांस्कृतिक दृष्टिकोण का विकास कराना -
प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से गीत, कविता, नाटक, कहानी आदि से व्यक्ति के अन्दर सांस्कृतिक चेतना जगाई जाती है। जीवन के प्रति वह उससे कलात्मक दृष्टिकोण अपना सकता है और अवकाश के समय का सदुपयोग कर सकता है। इससे मनोरंजन के साधनों में भी वह रूचि ले सकता है।
सामाजिक चेतना का विकास कराना -
प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से प्रौढ़ों के अन्दर ऐसी भावना का विकास कराया जाता है, जिससे वे पूरे समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से अवगत हो सकें। एक-दूसरे की सहायता करना, खासकर समाज में कमजोर, असहाय तथा पिछडे़ वर्गों को यथासम्भव सहयोग देना इसका लक्ष्य है।
मानवीय मूल्यों का विकास करना -
मानवीय मूल्यों के कारण व्यक्ति में नैतिक एवं चारित्रिक गुणों का विकास होता है। प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से प्रौढ़ों में नैतिक आचरण की शिक्षा दी जाती है। शिक्षित मष्तिष्क वाला व्यक्ति ही नैतिक व्यवहार सर्व धर्म सम्भाव एवं आदर्श जीवन को महत्व दे सकता है। प्रौढ़ शिक्षा इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करती है।
पारिवारिक स्थिति में गुणात्मक विकास कराना -
प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से पारिवारिक विकास एवं अभिभावक के दयित्वों के प्रति जागरुकता लाती है। परिवार की समस्याओं को प्रेमपूर्वक सुलझाना, फिजूलखर्ची को कम करना, नित्यप्रति मिलने-जुलने की भावना को बढ़ावा देना, सहयोग आदि गुणों को महत्व देने जैसी प्रवत्तियों का विकास इसका प्रमुख ध्येय है।
सामाजिक बुराइयों के प्रति संवेदनशीलता –
साक्षरता के साथ ही यह भी आवश्यक है कि प्रौढ़ों में ऐसी भावना का विश्वास कराया जाये, जिससे वे समाज में व्याप्त सामाजिक बुराइयों के प्रति जागरूक हो सके। विशेषत बाल-विवाह, दहेज, नशीले पदार्थो का सेवन, छुआछूत, अन्धविश्वास आदि को समाप्त करने के प्रयास में जुट सकें, ऐसी चेतना प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से दी जाती है।
पर्यावरण के प्रति सचेत करना -
पर्यावरण के प्रति समुचित ध्यान न देने के कारण भी आज मानव समाज में प्रदूषण जैसी समस्या भयंकर होती जा रही है। जल, हवा, मिट्टी, पेड़, नदी आदि प्राकृतिक तत्वों के बारे में जानने से ही व्यक्ति उसके प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण अपना सकता है। प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से प्रौढ़ों को जागरूक बनाकर पर्यावरण की समस्याओं का हल खोजा जा रहा है।
जनसंख्या के प्रति जागरुकता फैलाना -
बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण आज समाज में अनेक बुराइयां पैदा हो गईं हैं, आवास, भोजन, शिक्षा एवं जीवन की अन्य आवश्यक वस्तुएं नहीं मिल पा रहीं है। परिवार कल्याण कार्यक्रमों की सफलता शिक्षा से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। प्रौढ़ शिक्षा में जनसंख्या शिक्षा को समेकित करके छोटे परिवार के आदर्श को अपनाने में सहायता मिली है। ऐसा करने से प्रौढ़ों में भावना भी जाग्रत हुई है कि परिवार नियोजन न केवल उनके परिवार वरन् सम्पूर्ण समाज के लिए हितकर है।
राष्ट्रीय लक्ष्य एवं विकास की जानकारी देना -
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कुछ महत्वपूर्ण राष्ट्रीय लक्ष्य रखे गये, जिनकी जानकारी प्रत्येक मनुष्य को देना आवश्यक है। राष्ट्रीय एकता, पुरातन संस्कृति की रक्षा, विकास से सम्बन्धित योजनाओं की जानकारी एवं नये तकनीकी ज्ञान के प्रति प्रौढ़ो में जागरुकता लाना आवश्यक है। प्रौढ़ शिक्षा इस ओर अपनी अहम भूमिका निभा रही है।
आशा और आत्म विश्वास की भावनाओं को जाग्रत करना –
प्रायः मानव में जीवन के प्रति निराशा की भावना पायी जाती है, इससे उसका जीवन दिग्भ्रमित रहता है। अतः प्रौढ़ शिक्षा प्रत्येक साक्षर व्यक्ति में आशा और आत्मविश्वास की भावना जाग्रत करती है। जिससे वे अपने जीवन में रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाकर अपने जीवन को सही मार्ग की ओर ले जा सकें।
महिलाओं और कमजोर वर्ग का उत्थान करना –
समाज में महिलाओं के प्रति घोर उपेक्षा की भावना पाई जाती है, साथ ही कमजोर एवं सुविधा विहीन लोगों का समुचित विकास न होने के कारण राष्ट्र की प्रगति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। अतः प्रौढ़ शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य यह है कि महिलाओं को साक्षर बनाकर उन्हें समाज में उचित स्थान दिया जाए, उनके अनुरूप व्यावसायिक शिक्षा दी जाये, साथ ही कमजोर वर्गो के प्रति अन्याय व शोषण न हो सके, इसके लिए उन्हें भी जागरुक नागरिक बनने के लिए शिक्षा दी जाती है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना –
आज वैज्ञानिक दृष्टिकोण का महत्व समाज में बढ़ रहा है। इसके कारण परम्परागत रीति-रिवाज, अन्ध विश्वास एवं पुराने तौर-तरीके आदि पर काफी प्रभाव पड़ा है। प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया जाता है।
राष्ट्रीय साधनों की सुरक्षा एवं वृद्धि -
मानव को प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों साधनों की जानकारी देनी चाहिए, जिससे वे राष्ट्रीय सम्पदाओं के विकास में सहयोग दे सकते हैं। प्रौढ़ शिक्षा मानवीय क्षमताओं में विश्वास करती है। इसके माध्यम से राष्ट्रीय उत्पादक शक्ति एवं संसाधनों में वृद्धि लायी जा रही है।
सामाजिक सेवा और हित का विकास –
जनसहयोग के माध्यम से सामाजिक एवं सेवा का कार्य आसानी से किया जा सकता है। अतः मानव के अन्दर सामाजिक आदर्श लाने के लिए रचनात्मक कार्यो के माध्यम से सामाजिक सेवा की भावना जाग्रत की जाती है।
राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं से अवगत कराना –
जनसंचार के साधनों के माध्यम से प्रौढ़ों को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के बारे में जानकारी देना भी आवश्यक है। इससे वे उत्पन्न समस्याओं के विषय में सोच-समझ सकते हैं और उनके समाधान में अपनी अहम भूमिका प्रस्तुत कर सकते हैं।
प्रजातंत्र की रक्षा –
प्रजातन्त्र की रक्षा के लिए शिक्षा जरूरी हैं। सचेत निर्वाचकों के हाथ में ही प्रजातन्त्र सुरक्षित रहता हैं। शिक्षा मनुष्य को अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाती है। प्रजातन्त्र में निरक्षरता का विनाश करके और सभी लोगों के लिए शिक्षा की सुविधा उपलब्घ करके नागरिक चेतना लाई जा सकती हैं। शिक्षा विहीन व्यक्ति निसंकोच सार्वजनिक स्थानो, मसलन सड़कों, पुलो, सरकारी सम्पत्ति आदि का दुरूपयोग करता हैं। उसकी समझ में सरकार उसकी न होकर किसी गैर की है। इसलिए ऐसे स्थानो की क्षति करने में वह अपनी बहादुरी ही समझता हैं। निरक्षर वर्ग प्रजातान्त्रिक प्रणाली की सरकार को असफल बनाकर तानाशाही एवं फौजी शासन वाली सरकार में बदल सकता हैं। जबकि साक्षर वर्ग अपने देश के साधनों का समुचित उपयोग करके व अपने अघिकारो का सदुपयोग कर प्रजातन्त्र की सुरक्षा तथा राष्ट्र के सर्वग्राही विकास के लिए शिक्षा को अनिवार्य शर्त मानते हैं। मौलाना अबुल कलाम आजाद के मतानुसार –
जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण –
1901 में भारत की जनसंखा 23.8 करोड़ थी, 1921 में वह 25.1 करोड़ हुई, 1941 में 31.8 करोड़ तथा 1951 में 36.1 करोड़ हो गई। 1961 में भारत की जनसंख्या 43.9 करोड़ थी, जो 1971 व 1981 में बढ़कर क्रमश: 54.8 तथा 68.3 करोड़ हो गई। 1991 में यह 86.6 करोड़ हो गई। स्पष्ट है कि देश की जनसंख्या द्रुत गति से बढ़ रही है तथा तथा इस गति को रोकना ही इस समय देश की सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या है। यह समस्या देश की विकास-दर को कुछ निष्प्रभावी बनाने का कारण बनी।
जनसंख्या नियन्त्रण करने के लिए सरकार ने परिवार कल्याण कार्यक्रम को क्रियान्वित किया है, परन्तु इस कार्यक्रम की सफलता पर विचार तथा समझाने-बुझाने के उपायों का प्रभाव सीमित मात्रा में ही पढ़ा है। परिवार कल्याण कार्यक्रमों की सफलता शिक्षा से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। प्रौढ़ शिक्षा में जनसंख्या शिक्षा को समेकित करके छोटे परिवार के आदर्श को अपनाने में सहायता मिल सकती है। ऐसा करने से प्रौढ़ों में भावना भी जाग्रत होगी कि परिवार नियोजन के कार्यक्रम न केवल उनके परिवार वरन सम्पूर्ण समाज के लिए हितकर है।
सामाजिक पुनरगठन एवं परिवर्तन –
प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों की सहायता से हम शिक्षित को गरीबों के दुःखों के प्रति संवेदनशील बना सकते हैं और फिर उनके अलगाव को कम कर सकते हैं। शिक्षित लोग जनता के सामाजिक मूल्यों से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। कुल मिलाकर यह लगता है कि हम प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से साक्षर बनकर एक समानतावादी, वर्ग-विहीन व सुगठित समाज का निर्माण करने की दिशा में बहुमूल्य योगदान दे सकते हैं।
बोनानी ने “ए लिट्रेसी जर्नीं” नामक अपनी पुस्तक में यह विचार व्यक्त किया है कि साक्षरता से जनता में एक नये अन्तःकरण का विकास हो सकता है तथा यह सामाजिक क्रान्ति के लिए एक प्रोत्साहन हो सकता है तथा यह यह सामाजिक क्रान्ति के लिए एक प्रोत्साहन हो सकती है। अनेक सरकारें इसके लिए तैयार नहीं होतीं, पालो फ्रायरे को इसी आशंका के कारण अपना देश छोड़ना पड़ा था।
एक साक्षर व्यक्ति निरक्षर व्यक्ति की अपेक्षा समाज के प्रति ज्यादा उत्तरदायी और समझदार होता है। इस कारण अपराध कम हो सकते हैं। आजकल समाज में दहेज प्रथा, दासी प्रथा, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, मदिरापान, वैष्यागमन, जुआ खेलना जैसी बुराइयाँ पनप रहीं हैं। निरक्षरता की गर्त में पड़ा विवेकहीन प्राणी इन बुराइयों का नहीं समझ पाता है। वह जीवन के भार को हल्का करने के लिए या स्वयं को समाज में प्रख्यात करने के लिए कभी नियमों को तोड़ता है। अज्ञानतावश अपने अभावों से पीड़ित होकर वह क्षणिक सुख के लिए सामाजिक बुराइयों के चंगुल में फंसता है।
प्रौढ़ साक्षरता कार्यक्रमों के माध्यम से हम निरक्षरों को सामाजिक बुराइयों के चंगुल में फंसने से रोक सकते हैं। इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी बात को विराम देते हुए कह सकता हूं कि,
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