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By
Rakesh Prasad 104
गुड बनाम संगमरमर
पहले मैं ज्यादा ध्यान नहीं देता था मगर कुछ समय पहले एक वरिष्ट सेवानिवृत अधिकारी से मुलाकात हुई. बनियान रोल कर के पेट के ऊपर टिका कर तोंद पर हाथ फिरते हुए घूम रहे थे.
मुझे देखते ही बोले, आज कल के बच्चे ए.सी के पीछे पागल हो रखे है, मैं तो नहीं झेल सकता. जोड़ो में दर्द, तबियत ख़राब होने लगती है. मेरा पेट ही मेरा ए.सी. है.
मैंने पूछा वो कैसे, बोले हाथ मेरे पेट पर रखो, फिर पूछे की ठंडा है की गरम, मैंने कहा ये तो ठंडा है. वो बोले बस यही मूल है. इस पेट के सहारे मैं इस चालीस डिग्री में सिर्फ थोड़ी हवा चल रही हो तब भी आराम से घूम सकता हूँ.
ए.सी. के एग्जॉस्ट से चाहे बाहर का दो डिग्री तापमान बढ़ गया हो, मगर जबतक ये पेट है, ऐसे ही बनियान तोंद के ऊपर टिकाओ और मस्त घूमो.
मेरे काम में ऐसे ज्ञानी पुरुष मिलते रहते हैं.
दूसरा प्रकरण हुआ एक मित्र ने एक अँगरेज़ इतिहासकार की किताब दी, बोले तुम्हे दूसरी तरफ का इतिहास भी देखना चाहिए. उसमे अँगरेज़ सैनिकों ने कहा था की कैसे बंगाल बिहार में लोग अधनंगे घुमते हैं. सबका पेट बाहर ही रहता है.
तीसरा प्रकरण रहा- 2018 बंगाल बिहार के बॉर्डर पर महानंदा बेल्ट, जून में हर आदमी वैसे ही बनियान, शर्ट तोंद पर टिकाये घूम रहा है.
चौथा प्रकरण रहा – 2019 पेरिस में चौवालीस डिग्री के तापमान के बाद फ्रेंच लोगों ने दुनिया के गरम देशो की तरफ़ देखना शुरू किया, अरब लोग सर और कान मजबूती से ढकते हैं, मगर पेट हवादार रहता है.
एक बिहारी से भी पूछा गया तो वही बात – सर ढक लो, कपडा पहनो मगर पेट पर हवादार.
मुद्दा की बात ये रही की.
पेट का सतही इलाका शरीर में सबसे बड़ा होता है, और अगर हवा लगती रहे तो पसीना बहने और सूखने की प्रक्रिया में एक तो शरीर के विकार बाहर निकलते हैं, दूसरे पेट ठंडा होने लगता है, पेट ठंडा तो पूरा शरीर भी ठंडा.
शरीर ठंडा रकने का ये तरीका गरम क्षेत्र जैसे भारत में प्रचलित है ही, जाली वाली बनियान, ढीले सूते कुरते, सारी, सलवार-सूट इत्यादि को ध्यान से देखें तो पहनावे के तरीकों ने इसी को आधार भी बनाया है.
कॉलोनी के समय की भी बात करें तो अँगरेज़ यही राज़ नहीं समझ पाए, और भारत में सिर्फ सेना ही टिक पाई, इनके अलावा यूरोपियन काश्तकार, किसान इत्यादि को बसा नहीं पाए. जैसे की अमेरिकी महाद्वीप पर हुआ, जहाँ साउथ अमेरका के एजटेक हों या नार्थ अमेरिका के अपाचे - आधी सेना को चिकन-पॉक्स, स्वाइन फ्लू, डेंगू, पीला बुखार से और आधी को उन्नत हथियारों से मार कर बड़े आराम से कालोनी की स्थापना हो पाई.
बहरहाल इससे पहले इतिहास में उलझ जाएँ, मुद्दे को पकड़ते हैं.
अभी हाल फ़िलहाल ही चीन के एक इलाके में पेट पर बनियान टांग के घूमने पर पाबन्दी लगा दी गयी है.
मसला ये है की यहाँ काफी गर्मी पड़ती है और चीनी दादाजी, और उनके बेटे और उनके पोते इसी पुराने तरीके का इस्तेमाल करते हैं.
ये तरीका मगर पर्यटकों को भा नहीं रहा है और, क्षेत्र सुन्दर दिखे इस चक्कर में दादा, बेटे, पोते सबको पेट ढक कर घूमने की सलाह दी गयी है.
ये मुद्दा अहम् है और इसपर चर्चा ज़रूर होनी ही चाहिए.
अगर इतने लोग सुदर तंग कपडे पहन कर घुमते हैं तो बिजली की खपत कितनी बढ़ेगी?
कितने ए.सी. लगेंगे, कितना प्रदूषण होगा?
कितनी बीमारियाँ बढेंगी? कितने नए हस्पताल, केमिकल की कंपनियों को स्थापना करनी होगी?
कितने दादाओं के घुटने और कूल्हे बदले जाएँगे?
गरम प्रदेश में लोग जो बनियान ऊपर कर के घूम पाते हैं, ए.सी. बक्सों में बंद होंगे, सामाजिक ताने बानो पर इसका कितना असर होगा, और कितनी पुलिस और आर्मी की और ज़रुरत पड़ेगी?
क्या एक आम आदमी की आवाज़ जो आज थोड़ी बहुत ही सही कुछ मायने रखती है, उसको ए.सी. और एंटरटेनमेंट के नीचे दबा देना गूगल के एक बटन का खेल नहीं रह जाएगा.
बीजिंग बिकिनी का मामला पूरे एशिया महाद्वीप की आज़ादी का मसला लगता है, और पूरे ग्लोबल वार्मिंग की गुत्थी की एक अहम् कड़ी भी, जिसमे संगमरमर जैसी चिकनी मगर मृत सुन्दरता बनाम गुड जैसी चिपचिपी मगर जीवन से भरी प्राकृतिक शैलिओं के ज़मीनी महायुद्ध की झलक है.
चीनी लोग की तरह पेट उघारने का समर्थन तो नहीं मगर इस पूरे मसले पर एक फैशन लाइन बन सकती है जो शायद बिजली खपत बढाओ, अप्राकृतिक हो जाओ लॉबी के सामने टिक पाए.
इतिश्री.