टीम गोमती समाज सेवा और गोमती संरक्षण में जुटें पर्यावरण प्रेमियों के लिए लखीमपुर खीरी से एक सुखद समाचार है, जिला प्रशासन लखीमपुर खीरी में इस वर्ष साठा धान की बुवाई पर प्रतिबंध लगा दिया है. लगातार बढ़ रहे भूगर्भीय जल के दोहन और पराली से होने वाले वायु प्रदूषण को देखते हुए लखीमपुर खीरी के डीएम श्री शैलेन्द्र कुमार सिंह ने साठा धान की खेती पर पूरे जिले में रोक लगा दी है. यदि इस वर्ष किसान साठा धान की फसल रोपेंगे तो उनपर कार्यवाही की जाएगी.
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उच्चतम न्यायालय और एनजीटी के निर्देश पर जिला प्रशासन के इस कदम से जिले में गोमती के हालात में कुछ हद तक सुधार अवश्य होगा, गोमती सेवा समाज ने प्रशासन के इस कदम का स्वागत करते हुए कहा कि गोमती नदी के संरक्षण के लिए यह बेहद अच्छी खबर है. टीम गोमती सेवा समाज सहित बहुत से पर्यावरण विशेषज्ञ साठा धान की खेती के खिलाफ याचिका दायर कर चुके हैं, जिसका अभी तक कोई खास असर नहीं दिख रहा था.
गौरतलब है कि साठा धान, धान की एक ऐसी किस्म है जो अत्याधिक पानी की खपत करता है. चैनी यानि चाईनीज धान के नाम से भी जाने जाना वाला यह धान पर्यावरण और पानी का दुश्मन है. सामान्यत: धान की फसल में दस से पंद्रह दिन के अंतराल पर पानी दिया जाता है, वहीं साठा धान की फसल को हर तीसरे दिन पानी की जरुरत होती है. मुख्य धान की फसल से एक एकड़ के हिसाब से लगभग 20 क्विंटल धान का उत्पादन होता है और साठा धान की फसल से यही उत्पादन 38 से 40 क्विंटल प्रति एकड़ तक पहुंच जाता है. इसी लाभ को देखते हुए किसान अधिक से अधिक साठा धान बोते हैं. जिससे उत्तर प्रदेश के अधिकतर जिलों में भूजल तेजी से नीचे जा रहा है, यहां तक कि प्राकृतिक जल के स्त्रोत भी इससे सूखने लगे हैं. खासतौर से लखीमपुर खीरी, पुवैयां, पीलीभीत आदि स्थानों पर इसका सर्वाधिक असर देखने को मिल रहा है.
यदि गोमती नदी की संरचना की बात की जाये तो भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (Geological Survey of India) के पूर्व निदेशक वीके जोशी बताते हैं कि जहां गंगा-यमुना जैसी बड़ी नदियां पहाड़ों की बर्फ पिघलने से बनी नदियां हैं तो वहीं गोमती पूर्णत: भूजल सिंचित नदी है. उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में माधोटांडा स्थित फुलहर झील से गोमती उद्गमित होती हैं, जहां आगे जाने पर बहुत से ताल बने हैं. इन्हीं से गोमती को जल मिलता है और वह आगे बढ़ती है..लेकिन पिछले कुछ सालों से बरसात के बदलते पैटर्न से ये सभी प्राकृतिक स्त्रोत भी सूख गए हैं, जिससे गोमती भी अलग अलग स्थानों पर सूखने लगी है.
गोमती सेवा समाज के सदस्यों ने गोमती यात्रा के अंतर्गत इस मुद्दे को उठाया था कि साठा धान के खेती से कैसे जगह जगह गोमती सूख रही है, उन्होंने तस्वीरों के जरिये समाज तक यह बात पहुंचाई कि पुरैनाघाट, टेढ़ेनाथ घाट, जंगलीनाथ घाट सहित और भी बहुत से स्थानों पर गोमती की धारा टूट चुकी है, जबकि इन सभी स्थानों पर गोमती पहले अच्छे प्रवाह के साथ बहा करती थी.
इसी वर्ष अगस्त माह में भारतीय किसान यूनियन के वरिष्ठ जिला उपाध्यक्ष सरदार मंजीत सिंह ने भी साठा धान लगाने के खिलाफ एनजीटी में याचिका लगायी थी और इसे रुकवाने के खिलाफ भाकियू के सदस्य लगातार क्रियाशील भी हैं. उन्होंने याचिका में बताया था कि साठा धान की उपज से भूगर्भीय जल तो तेजी से घट ही रहा है अपितु इसमें दुगनी मात्रा में डाले जाने वाले फर्टिलाइजर से जमीन जहरीली हो रही है. इस धान की फसल में नमी अत्याधिक रहती है, जिससे कीटों का हमला दुगनी गति से होता है और जाहिर सी बात है इसमें फिर दुगनी-तिगुनी मात्रा में कीटनाशक भी डाला जाता है. इन सबका हानिकारक प्रभाव जल और जमीन पर तो पड़ता ही है बल्कि हमारे और पशुओं के खाद्य पदार्थों में भी यही जहर घुल रहा है और कैंसर जैसी बीमारी बढ़ रही है, लिहाजा इस पर रोक लगनी चाहिए.
देश के दो राज्यों पंजाब और हरियाणा में पहले से ही साठा की बुवाई पर रोक लगी हुयी है, बता दें कि पंजाब सरकार ने वर्ष 2009 में पानी एक्ट लागू किया था, जिसके अंतर्गत 10 जून से पहले धान की बुवाई नहीं की जा सकती है. इसी तरह हरियाणा में भी मई से पहले धान की फसल तैयार करने पर रोक लगी हुयी है. वहीं इसके विपरीत शासन प्रशासन के लाख प्रयासों के बावजूद भी उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में साठा की बुवाई तेजी से जारी रहती है. विशेषत: यहां के तराई क्षेत्र में किसान अधिक लाभ के लिए इसे आज भी उगा रहे हैं. कृषि वैज्ञानिक चेता चुके हैं कि अगर इसी गति से साठा धान की बुवाई जारी रही तो वह दिन दूर नहीं जब भू सिंचित जल के भंडार समाप्त हो जायेंगे और जमीन पूरी तरह बंजर हो जाएगी. यही स्थितियां रही तो तराई को बुंदेलखंड बनने से कोई नहीं रोक सकता है.
लखीमपुर खीरी जिले में साठा पर रोक लगना सराहना का विषय है और यह इससे भी अधिक स्वागत योग्य कदम माना जायेगा यदि उचित कार्यवाही के साथ इसे लागू किया जा सके. किसानों को विचारगोष्ठी, सभाओं आदि के जरिये प्रगतिशील किसान इसके दुष्प्रभावों को समझाएं. साठा के स्थान पर मिश्रित कृषि की अवधारणा को किसानों के सम्मुख लाया लाया जाये, उन्हें उन्नतशील कृषि के लिए प्रोत्साहित किया जाये, जैविक कृषि को किसानों के लिए आसान बनाने के प्रयास किये जाये और सबसे प्रमुख बात नदियों के संरक्षण के साथ ग्रामीणों व किसानों को जोड़ा जाए. पर्यावरण और नदियों के संरक्षण के लिए लोगों में जागरूकता लानी होगी.
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Mandeep Singh 285
टीम गोमती समाज सेवा और गोमती संरक्षण में जुटें पर्यावरण प्रेमियों के लिए लखीमपुर खीरी से एक सुखद समाचार है, जिला प्रशासन लखीमपुर खीरी में इस वर्ष साठा धान की बुवाई पर प्रतिबंध लगा दिया है. लगातार बढ़ रहे भूगर्भीय जल के दोहन और पराली से होने वाले वायु प्रदूषण को देखते हुए लखीमपुर खीरी के डीएम श्री शैलेन्द्र कुमार सिंह ने साठा धान की खेती पर पूरे जिले में रोक लगा दी है. यदि इस वर्ष किसान साठा धान की फसल रोपेंगे तो उनपर कार्यवाही की जाएगी.
उच्चतम न्यायालय और एनजीटी के निर्देश पर जिला प्रशासन के इस कदम से जिले में गोमती के हालात में कुछ हद तक सुधार अवश्य होगा, गोमती सेवा समाज ने प्रशासन के इस कदम का स्वागत करते हुए कहा कि गोमती नदी के संरक्षण के लिए यह बेहद अच्छी खबर है. टीम गोमती सेवा समाज सहित बहुत से पर्यावरण विशेषज्ञ साठा धान की खेती के खिलाफ याचिका दायर कर चुके हैं, जिसका अभी तक कोई खास असर नहीं दिख रहा था.
गौरतलब है कि साठा धान, धान की एक ऐसी किस्म है जो अत्याधिक पानी की खपत करता है. चैनी यानि चाईनीज धान के नाम से भी जाने जाना वाला यह धान पर्यावरण और पानी का दुश्मन है. सामान्यत: धान की फसल में दस से पंद्रह दिन के अंतराल पर पानी दिया जाता है, वहीं साठा धान की फसल को हर तीसरे दिन पानी की जरुरत होती है. मुख्य धान की फसल से एक एकड़ के हिसाब से लगभग 20 क्विंटल धान का उत्पादन होता है और साठा धान की फसल से यही उत्पादन 38 से 40 क्विंटल प्रति एकड़ तक पहुंच जाता है. इसी लाभ को देखते हुए किसान अधिक से अधिक साठा धान बोते हैं. जिससे उत्तर प्रदेश के अधिकतर जिलों में भूजल तेजी से नीचे जा रहा है, यहां तक कि प्राकृतिक जल के स्त्रोत भी इससे सूखने लगे हैं. खासतौर से लखीमपुर खीरी, पुवैयां, पीलीभीत आदि स्थानों पर इसका सर्वाधिक असर देखने को मिल रहा है.
गोमती सेवा समाज के सदस्यों ने गोमती यात्रा के अंतर्गत इस मुद्दे को उठाया था कि साठा धान के खेती से कैसे जगह जगह गोमती सूख रही है, उन्होंने तस्वीरों के जरिये समाज तक यह बात पहुंचाई कि पुरैनाघाट, टेढ़ेनाथ घाट, जंगलीनाथ घाट सहित और भी बहुत से स्थानों पर गोमती की धारा टूट चुकी है, जबकि इन सभी स्थानों पर गोमती पहले अच्छे प्रवाह के साथ बहा करती थी.
इसी वर्ष अगस्त माह में भारतीय किसान यूनियन के वरिष्ठ जिला उपाध्यक्ष सरदार मंजीत सिंह ने भी साठा धान लगाने के खिलाफ एनजीटी में याचिका लगायी थी और इसे रुकवाने के खिलाफ भाकियू के सदस्य लगातार क्रियाशील भी हैं. उन्होंने याचिका में बताया था कि साठा धान की उपज से भूगर्भीय जल तो तेजी से घट ही रहा है अपितु इसमें दुगनी मात्रा में डाले जाने वाले फर्टिलाइजर से जमीन जहरीली हो रही है. इस धान की फसल में नमी अत्याधिक रहती है, जिससे कीटों का हमला दुगनी गति से होता है और जाहिर सी बात है इसमें फिर दुगनी-तिगुनी मात्रा में कीटनाशक भी डाला जाता है. इन सबका हानिकारक प्रभाव जल और जमीन पर तो पड़ता ही है बल्कि हमारे और पशुओं के खाद्य पदार्थों में भी यही जहर घुल रहा है और कैंसर जैसी बीमारी बढ़ रही है, लिहाजा इस पर रोक लगनी चाहिए.
देश के दो राज्यों पंजाब और हरियाणा में पहले से ही साठा की बुवाई पर रोक लगी हुयी है, बता दें कि पंजाब सरकार ने वर्ष 2009 में पानी एक्ट लागू किया था, जिसके अंतर्गत 10 जून से पहले धान की बुवाई नहीं की जा सकती है. इसी तरह हरियाणा में भी मई से पहले धान की फसल तैयार करने पर रोक लगी हुयी है. वहीं इसके विपरीत शासन प्रशासन के लाख प्रयासों के बावजूद भी उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में साठा की बुवाई तेजी से जारी रहती है. विशेषत: यहां के तराई क्षेत्र में किसान अधिक लाभ के लिए इसे आज भी उगा रहे हैं. कृषि वैज्ञानिक चेता चुके हैं कि अगर इसी गति से साठा धान की बुवाई जारी रही तो वह दिन दूर नहीं जब भू सिंचित जल के भंडार समाप्त हो जायेंगे और जमीन पूरी तरह बंजर हो जाएगी. यही स्थितियां रही तो तराई को बुंदेलखंड बनने से कोई नहीं रोक सकता है.
लखीमपुर खीरी जिले में साठा पर रोक लगना सराहना का विषय है और यह इससे भी अधिक स्वागत योग्य कदम माना जायेगा यदि उचित कार्यवाही के साथ इसे लागू किया जा सके. किसानों को विचारगोष्ठी, सभाओं आदि के जरिये प्रगतिशील किसान इसके दुष्प्रभावों को समझाएं. साठा के स्थान पर मिश्रित कृषि की अवधारणा को किसानों के सम्मुख लाया लाया जाये, उन्हें उन्नतशील कृषि के लिए प्रोत्साहित किया जाये, जैविक कृषि को किसानों के लिए आसान बनाने के प्रयास किये जाये और सबसे प्रमुख बात नदियों के संरक्षण के साथ ग्रामीणों व किसानों को जोड़ा जाए. पर्यावरण और नदियों के संरक्षण के लिए लोगों में जागरूकता लानी होगी.