हालांकि इस बार
समय चुनावी था; फिर भी प्रज्ञा
ठाकुर का बयान, गोडसे को
प्रतिष्ठित करने की एक और कोशिश तो थी ही। गोडसे एक प्रतीक है, सांप्रदायिक कट्टरता का। क्या सांपद्रायिक
कट्टरता के रास्ते पर चलकर भारतीयता के मौलिक विचार को समृद्ध करना संभव है? हिंदूवादी भी सोचें और भारतीय भी।
गांधी बनाम गोडसे
यानी हिंदू बनाम हिंदू कट्टरता। जरा सोचिए, गोडसे भी हिंदू था और गांधी भी हिंदू; पक्का सनातनी हिंदू; रामराज्य का सपना लेने वाला हिंदू; एक ऐसा हिंदू, मृत्यु पूर्व जिसकी जिहृा पर अंतिम शब्द ’राम’ ही था; बावजूद इसके नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी को
हिंदूवाद की राह में रोङा माना और हत्या की।
क्यों?
क्योंकि गांधी का
हिंदूवाद सिर्फ किसी एक व्यक्ति, जाति, संप्रदाय, वर्ग या राष्ट्र विशेष से नहीं, बल्कि ’विश्व का कल्याण
हो’ और 'प्राणियों में सद्भावना रहे' के ऐसे दो नारे से परिभाषित होता था, पूजा-पाठ के बाद जिनका उद्घोष कराना हिंदू
पुजारी आज भी कभी नहीं भूलते। गोडसे का राष्ट्रवाद, ऐसा कट्टर और संकीर्ण हिंदूवाद था, जिसमें मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं थी; जबकि गांधी के हिंदू होने का अर्थ, मुसलमानों से घृणा करना नहीं था। जो अपनी जङों
को छोङकर नहीं जाना चाहते थे, गांधी उन
मुसलमानों को भारत से खदेङे जाने के पक्ष में नहीं थे।
दरअसल, गांधी के हिंदू होने का अर्थ था, सर्वधर्म समभाव् में विश्वास। गांधी के 'रामराज्य' का मतलब था, एक ऐसा राज्य,
जिसमें राजकुमार राम को भीलनी के झूठे बेर खाने
में आनंद की अनुभूति हो। ’गांधी जी का जंतर’
याद कीजिए। स्पष्ट होता है कि समाज के सबसे
कमज़ोर यानी अंतिम जन का कल्याण’ ही प्रत्येक
निर्णय, योजना व कार्यों का
सर्वमान्य पैमाना ही गांधी जी के 'रामराज्य'
की आधारशिला थी। दुःखद है कि आज का हिंदू
कट्टरवाद राम का मंदिर तो बनाना चाहता है, लेकिन राजा राम के आदर्शों को आगे रखकर अपने कर्मकाण्ड का आकलन करना नहीं
चाहता।
यह सच है कि इसी
मत भिन्नता ने गोडसे के हाथों, गांधी की हत्या
कराई। किंतु सोचने की बात है कि यह कैसा मजहबी कट्टरवाद है, जो अपने ही मजहबी हाथों से अपने ही मजहब के एक दूसरे
अनुयायी की हत्या करा देता है? ''तकसीम-ए-हिंद मेरी लाश पर होगा'' - गौर कीजिए कि किसी हिंदूवादी ने यह कहने वाले
मौलाना आज़ाद की हत्या नहीं की। इस से यह भी समझ लेना चाहिए कि हिंदू कट्टरवाद की
सिर्फ जुबां पर इसलाम विरोध है, निशाना कहीं और
है।
गांधी-गोडसे के
इस दुःखद प्रसंग को सामने रखकर यह भी समझ जा सकता है कि भारत के कुछ कट्टरपंथी
संगठन, यदा-कदा भारत को जिस
हिंदू राष्ट्र को बनाने का सपना दिखाते रहते हैं, वह कैसा होगा? इसका अनुमान लगाने के लिए कुछ कायरों द्वारा बुलन्दशहर में गोवंश अवशेषों की
आड़ में की गई एक पुलिस इन्सपेक्टर सुबोध की हत्या को याद करना चाहिए।
कहा जा रहा था कि
इन्सपेक्टर सुबोध की हत्या इसलिए की गई, चूंकि वह अखलाक मामले की निष्पक्ष जांच कर रहे थे। क्या हम इसे महज् एक
दुर्घटना कहकर मुंह फेर सकते हैं अथवा विचार करने की ज़रूरत है कि हम कैसा भारत
बनाने की ओर बढ़ रहे हैं? क्या आज हम एक
ऐसा भारत नहीं है, जिसके युवा एक ओर
तो आधुनिकतम सूचना प्रौद्योगिकी के कपाट खोलकर उसमें पूरी दुनिया को अपने से जोड़
लेने को बेताब है, दूसरी तरफ कुछेक
खुदगर्जों की तंगदिली का आलम यह है कि वे ग़ैर मजहबी की खिलाफत के जुनून में अपने
मजहब के अनुयायी को भी बर्दाश्त नहीं करना चाहते?
ऐसी हिंदू
कट्टरता के जातीय कनेक्शन और धुव्रीकरण के अनुभवों के आइने में आज देखें, तो कभी पटेल आंदोलन, गुर्जर आंदोलन, मराठा आरक्षण, सांई प्रकरण,
और कभी मुसलिम कौम को आतंकी ठहराने अथवा कभी
कश्मीर में पाकिस्तान समर्थक नारों को हवा देते रहने का मकसद अंततः हिंदू वोटों का
धुव्रीकरण ही है। यह बात और है कि कालांतर में ये सभी हवायें मिलकर इंदिरा गांधी
की तरह, खुद खोदी खाई में गिरने
का एक कारण बन जाने वाली हैं।
ऐसा न हो,
इसलिए जरूरी है कि हम अगङे-पिछङे के भेद से
बाहर निकलें। इसके बगैर, हिंदू कट्टरता से
निजात फिलहाल नामुमकिन लगती है। उत्तर प्रदेश के बीते चुनाव के दौरान कट्टरता पर
ओवैसी-योगी की जुगलबंदी और कट्टर हिंदूवादी योगी जी द्वारा हनुमान जी को दलित
बताने पर भीम सेना प्रमुख द्वारा दलितों से यह आह्वान करना कि वे सभी हनुमान
मंदिरों पर कब्जा कर लें; इन प्रकरणों के
संदेश क्या थे? इस चुनाव में
हिंदुस्तान-पाकिस्तान के ज़रिए क्या संदेश देने की कोशिश की गई? जरा सोचिए।
हालंकि यह सच है
कि विकास की सीढ़ी चढ़कर भारत को दुनिया की बङी आर्थिक ताक़त बना देने को बेताब युवा
वर्ग, कट्टरता से निजात पाना
चाहता है; हिंदू-मुसलिम जैसी मजहबी
कट्टरता से भी और जातीय कट्टरता से भी। किंतु आज अगङी व अनारक्षित कही जाने वाली
जातियों में न सिर्फ राजनैतिक अस्तित्व को लेकर जिस कदर बेचैनी है; वे जातीय सम्मान, रोजगार गांरटी और आर्थिक सुरक्षा को लेकर भी जिस असुरक्षा
के भाव से गुजर रही हैं; दूसरी ओर,
आरक्षण ने पिछङे, दलित और आरक्षण प्राप्त अल्पसंख्यकों को जिस तरह एकजुट कर
दिया है; लगता नहीं कि कट्टरता से
निजात मिलेगी। स्पष्ट है कि विकास और जाति के साथ धर्म की राजनीति के कॉकटेल का
प्रयोग अभी जारी रहने वाला है।
ऐसे हालात में
क्या हमें कश्मीर के बीते पंचायत चुनाव में एक मुसलिम बहुल गांव द्वारा एक हिंदू
को प्रधान बना दिए जाने के सद्भाव से सबक लेने की ज़रूरत नहीं है? क्या हम भूल जाएं कि अयोध्या के मंदिरों में फूल
बेचने वाली ज्यादातर मालिने मुसलमान हैं और खड़ाऊं बनाने वाले कारीगर भी? हम कैसे भूल सकते हैं कि अजमेर शरीफ की दरगाह
में मन्नत मांगने हिंदू भी जाते हैं और मुसलमान भी।
याद कीजिए,
गांव: बिसाहडा, जिला: गौतमबुद्ध नगर, उत्तर प्रदेश। एक पखवाडा पहले गोमांस की आड में 50 वर्षीय मोहम्मद अखलाक की पीट-पीट कर हत्या। एक
पखवाडा बाद ग्रामवासियों द्वारा बुलंद नारा और व्यवहार: रोटी भी एक, बेटी भी एक। गांव से बाहर जाकर बेटी की शादी का
आयोजन पर विचार कर रहे हकीम मियां को गांव वालों ने रोका। पूर्ण सुरक्षा और अमन का
भरोसा दिया। 11 अक्तूबर,
2017: बालिका दिवस। दिल्ली से 60 किलोमीटर दूर गांव बिसाहडा में बेटी के लिए
साझी दुआ निकली; हाथ जुटे;
शहनाई बजी; खानपान हुआ और साथ ही फिर प्रमाणित हुआ एक सत्य। घटनाक्रम,
दो: सच, एक! गांव के एक हिंदू बूढे़ ने टीवी रिपोर्टर से कहा –
''75 साल की उम्र
होगी मेरी। हम में कभी फर्क न हुआ। मुसलमान और हम तो एक संगी रये; दुख
में, सुख में। जो कोई
फर्क होगो, तो तुम मीडिया वारेन या
नेतान को होगो; हम तो जैसे पैले
थे, वैसे ई अब है और रहिंगे।''
यह बयान, सिर्फ बिसाहडा का सत्य नहीं है; यह भारत के आम हिंदू और मुसलमां का सच है। यह
सच है उस सांस्कृतिक नींव का, जिस पर गांव बने
और बसे: ’सह-जीवन और सह-अस्तित्व’;
यानी साथ रहना है और एक-दूसरे का अस्तित्व
मिटाये बगैर। यह सच इस बात का भी प्रमाण है कि आमजन के लिए धर्म, आस्था का विषय है, धार्मिक-राजतांत्रिक सत्ता के लिए वर्चस्व का, मीडिया के लिए रेटिंग व पूर्वाग्रह का और
वर्तमान भारतीय नेताओं के लिए वोट की बंदरबांट का।
इस सच को समाने
रखकर हमें नहीं भूलना चाहिए कि जीवन संकट में हो तो हम बचाने वाले की न जात पूछते
हैं और मजहब। आज चंद खुदगर्जों के कारण भारत की भारतीयता का अस्तित्व संकट में है।
चुनाव गुजर चुका। अब भारत के अगले पांच साल का मसौदा तय करने का समय है। मेरा
मानना है कि 'वसुधैव कुटुंबकम्'
के नारे में बसने वाली भारतीयता को बचाने की
दृष्टि से भी और नया भारत बनाने की दृष्टि से भी, हमें न कभी कबीर को भूलना चाहिए और न उस निर्मल रघुबीर को;
मर्यादा की पालना के कारण ही जिसे पुरुषों में
उत्तम कहा गया। नये भारत की चादर जितनी निराकार, निर्विकार, निर्मल और निश्छल
हो, उतनी बेहतर। क्या यह उचित
नहीं होगा?
सम्पादकीय टिपण्णी - हिंसा का प्रयोग खुद अपने आप में ही अपने अध्यात्मं एवं संस्कृति की शक्ति पर अविश्वास को दर्शाता है और इस कमज़ोरी को ढकने के लिए सियासत द्वारा सीधे हस्तक्षेप की मांग करता है, और ना होने पर बल का प्रयोग.
कृष्ण ने गीता की शुरुवात में हीं कर्म आधारित आर्य या अनार्य की बात कही थी, ना की जन्म. मगर सत्ता ने शक्ति की दौड़ में हमेशा इस बात को नज़रंदाज़ किया है, वो चाहे अंग्रेजों या हिटलर की प्रभुता का मसला हो जो नीली आँखों, गोरेपन और सुनहरे बालों में आर्य देखते रहे, या हमारे यहाँ की जाती प्रथा हो जिसमे राम और कृष्ण के निर्गुण परमेश्वर स्वरुप को दरकिनार कर सांसारिक सगुण रूपों पर कब्ज़ा जमा कुछ लोगों की अपनी भाई, पुत्र, भतीजावाद की संप्रभुता को बल दिया. और इस आतंरिक कमज़ोरी को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लिया.
पश्चिम या अरब (हेलेनिस्ट एवं ओटोमन) की कमज़ोर संस्कृति (जिसे बापू ने खुद उद्दत किया था ) को हिंसा की ज़रुरत लगातार पड़ी है और इसी हिंसा की ज़रुरत पूरा करने के लिए संगठित धर्म का सहारा लिया गया, महात्मा गांधी ने इसी हिंसक उपनिवेशवाद को श्रेष्ठ संस्कृति और संस्कृति से ही जुड़े हुए धर्म एवं पंथ के अनूठे स्वरूप से पटखनी दी.
बापू theology यानि धर्म सिद्धांत के महारथी थे और "राम और एबराम" का संबंध समझते थे, समझते शायद जिन्ना भी थे मगर अपने निजी अनुभवों (जातिवाद और उससे जुड़े कट्टरपंथ) की वजह से हिन्द संस्कृति की शक्ति पर अविश्वास था, देश बिना यूरोप या ओटोमन एम्पायर के चल पायेगा इसपर शक था, नतीज़ा पाकिस्तान रहा.
भारत में कई पंथ रहे हैं, सनातनी से ले कर इतिहास में अलग अलग काल खंड में आये अलग अलग पंथ एवं संगठित धर्म, मगर संस्कृति हिन्द की ही रही है, वही हिन्द जिसे पर्शियन "हप्ता हिन्दू" और हेलेनिस्ट (रोमन) "इंडीज़" बोलते थे, जो की एक भौगोलिक शब्द है, और किसी धर्म से इतर भी. "इश्वर अल्लाह तेरो नाम", "हे राम" और "राम और एबराम" इसी हज़ारों साल की अनवरत संस्कृति पर टिप्पणियां ही हैं, जो इस फेसबुक के सेल्फिवाद में हम समझ नहीं पाते. विस्तार से चर्चा बाद में.
By Arun Tiwari {{descmodel.currdesc.readstats }}
हालांकि इस बार समय चुनावी था; फिर भी प्रज्ञा ठाकुर का बयान, गोडसे को प्रतिष्ठित करने की एक और कोशिश तो थी ही। गोडसे एक प्रतीक है, सांप्रदायिक कट्टरता का। क्या सांपद्रायिक कट्टरता के रास्ते पर चलकर भारतीयता के मौलिक विचार को समृद्ध करना संभव है? हिंदूवादी भी सोचें और भारतीय भी।
गांधी बनाम गोडसे यानी हिंदू बनाम हिंदू कट्टरता। जरा सोचिए, गोडसे भी हिंदू था और गांधी भी हिंदू; पक्का सनातनी हिंदू; रामराज्य का सपना लेने वाला हिंदू; एक ऐसा हिंदू, मृत्यु पूर्व जिसकी जिहृा पर अंतिम शब्द ’राम’ ही था; बावजूद इसके नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी को हिंदूवाद की राह में रोङा माना और हत्या की।
क्यों?
क्योंकि गांधी का हिंदूवाद सिर्फ किसी एक व्यक्ति, जाति, संप्रदाय, वर्ग या राष्ट्र विशेष से नहीं, बल्कि ’विश्व का कल्याण हो’ और 'प्राणियों में सद्भावना रहे' के ऐसे दो नारे से परिभाषित होता था, पूजा-पाठ के बाद जिनका उद्घोष कराना हिंदू पुजारी आज भी कभी नहीं भूलते। गोडसे का राष्ट्रवाद, ऐसा कट्टर और संकीर्ण हिंदूवाद था, जिसमें मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं थी; जबकि गांधी के हिंदू होने का अर्थ, मुसलमानों से घृणा करना नहीं था। जो अपनी जङों को छोङकर नहीं जाना चाहते थे, गांधी उन मुसलमानों को भारत से खदेङे जाने के पक्ष में नहीं थे।
दरअसल, गांधी के हिंदू होने का अर्थ था, सर्वधर्म समभाव् में विश्वास। गांधी के 'रामराज्य' का मतलब था, एक ऐसा राज्य, जिसमें राजकुमार राम को भीलनी के झूठे बेर खाने में आनंद की अनुभूति हो। ’गांधी जी का जंतर’ याद कीजिए। स्पष्ट होता है कि समाज के सबसे कमज़ोर यानी अंतिम जन का कल्याण’ ही प्रत्येक निर्णय, योजना व कार्यों का सर्वमान्य पैमाना ही गांधी जी के 'रामराज्य' की आधारशिला थी। दुःखद है कि आज का हिंदू कट्टरवाद राम का मंदिर तो बनाना चाहता है, लेकिन राजा राम के आदर्शों को आगे रखकर अपने कर्मकाण्ड का आकलन करना नहीं चाहता।
यह सच है कि इसी मत भिन्नता ने गोडसे के हाथों, गांधी की हत्या कराई। किंतु सोचने की बात है कि यह कैसा मजहबी कट्टरवाद है, जो अपने ही मजहबी हाथों से अपने ही मजहब के एक दूसरे अनुयायी की हत्या करा देता है? ''तकसीम-ए-हिंद मेरी लाश पर होगा'' - गौर कीजिए कि किसी हिंदूवादी ने यह कहने वाले मौलाना आज़ाद की हत्या नहीं की। इस से यह भी समझ लेना चाहिए कि हिंदू कट्टरवाद की सिर्फ जुबां पर इसलाम विरोध है, निशाना कहीं और है।
गांधी-गोडसे के इस दुःखद प्रसंग को सामने रखकर यह भी समझ जा सकता है कि भारत के कुछ कट्टरपंथी संगठन, यदा-कदा भारत को जिस हिंदू राष्ट्र को बनाने का सपना दिखाते रहते हैं, वह कैसा होगा? इसका अनुमान लगाने के लिए कुछ कायरों द्वारा बुलन्दशहर में गोवंश अवशेषों की आड़ में की गई एक पुलिस इन्सपेक्टर सुबोध की हत्या को याद करना चाहिए।
कहा जा रहा था कि इन्सपेक्टर सुबोध की हत्या इसलिए की गई, चूंकि वह अखलाक मामले की निष्पक्ष जांच कर रहे थे। क्या हम इसे महज् एक दुर्घटना कहकर मुंह फेर सकते हैं अथवा विचार करने की ज़रूरत है कि हम कैसा भारत बनाने की ओर बढ़ रहे हैं? क्या आज हम एक ऐसा भारत नहीं है, जिसके युवा एक ओर तो आधुनिकतम सूचना प्रौद्योगिकी के कपाट खोलकर उसमें पूरी दुनिया को अपने से जोड़ लेने को बेताब है, दूसरी तरफ कुछेक खुदगर्जों की तंगदिली का आलम यह है कि वे ग़ैर मजहबी की खिलाफत के जुनून में अपने मजहब के अनुयायी को भी बर्दाश्त नहीं करना चाहते?
ऐसा न हो, इसलिए जरूरी है कि हम अगङे-पिछङे के भेद से बाहर निकलें। इसके बगैर, हिंदू कट्टरता से निजात फिलहाल नामुमकिन लगती है। उत्तर प्रदेश के बीते चुनाव के दौरान कट्टरता पर ओवैसी-योगी की जुगलबंदी और कट्टर हिंदूवादी योगी जी द्वारा हनुमान जी को दलित बताने पर भीम सेना प्रमुख द्वारा दलितों से यह आह्वान करना कि वे सभी हनुमान मंदिरों पर कब्जा कर लें; इन प्रकरणों के संदेश क्या थे? इस चुनाव में हिंदुस्तान-पाकिस्तान के ज़रिए क्या संदेश देने की कोशिश की गई? जरा सोचिए।
हालंकि यह सच है कि विकास की सीढ़ी चढ़कर भारत को दुनिया की बङी आर्थिक ताक़त बना देने को बेताब युवा वर्ग, कट्टरता से निजात पाना चाहता है; हिंदू-मुसलिम जैसी मजहबी कट्टरता से भी और जातीय कट्टरता से भी। किंतु आज अगङी व अनारक्षित कही जाने वाली जातियों में न सिर्फ राजनैतिक अस्तित्व को लेकर जिस कदर बेचैनी है; वे जातीय सम्मान, रोजगार गांरटी और आर्थिक सुरक्षा को लेकर भी जिस असुरक्षा के भाव से गुजर रही हैं; दूसरी ओर, आरक्षण ने पिछङे, दलित और आरक्षण प्राप्त अल्पसंख्यकों को जिस तरह एकजुट कर दिया है; लगता नहीं कि कट्टरता से निजात मिलेगी। स्पष्ट है कि विकास और जाति के साथ धर्म की राजनीति के कॉकटेल का प्रयोग अभी जारी रहने वाला है।
याद कीजिए, गांव: बिसाहडा, जिला: गौतमबुद्ध नगर, उत्तर प्रदेश। एक पखवाडा पहले गोमांस की आड में 50 वर्षीय मोहम्मद अखलाक की पीट-पीट कर हत्या। एक पखवाडा बाद ग्रामवासियों द्वारा बुलंद नारा और व्यवहार: रोटी भी एक, बेटी भी एक। गांव से बाहर जाकर बेटी की शादी का आयोजन पर विचार कर रहे हकीम मियां को गांव वालों ने रोका। पूर्ण सुरक्षा और अमन का भरोसा दिया। 11 अक्तूबर, 2017: बालिका दिवस। दिल्ली से 60 किलोमीटर दूर गांव बिसाहडा में बेटी के लिए साझी दुआ निकली; हाथ जुटे; शहनाई बजी; खानपान हुआ और साथ ही फिर प्रमाणित हुआ एक सत्य। घटनाक्रम, दो: सच, एक! गांव के एक हिंदू बूढे़ ने टीवी रिपोर्टर से कहा –
यह बयान, सिर्फ बिसाहडा का सत्य नहीं है; यह भारत के आम हिंदू और मुसलमां का सच है। यह सच है उस सांस्कृतिक नींव का, जिस पर गांव बने और बसे: ’सह-जीवन और सह-अस्तित्व’; यानी साथ रहना है और एक-दूसरे का अस्तित्व मिटाये बगैर। यह सच इस बात का भी प्रमाण है कि आमजन के लिए धर्म, आस्था का विषय है, धार्मिक-राजतांत्रिक सत्ता के लिए वर्चस्व का, मीडिया के लिए रेटिंग व पूर्वाग्रह का और वर्तमान भारतीय नेताओं के लिए वोट की बंदरबांट का।
इस सच को समाने रखकर हमें नहीं भूलना चाहिए कि जीवन संकट में हो तो हम बचाने वाले की न जात पूछते हैं और मजहब। आज चंद खुदगर्जों के कारण भारत की भारतीयता का अस्तित्व संकट में है। चुनाव गुजर चुका। अब भारत के अगले पांच साल का मसौदा तय करने का समय है। मेरा मानना है कि 'वसुधैव कुटुंबकम्' के नारे में बसने वाली भारतीयता को बचाने की दृष्टि से भी और नया भारत बनाने की दृष्टि से भी, हमें न कभी कबीर को भूलना चाहिए और न उस निर्मल रघुबीर को; मर्यादा की पालना के कारण ही जिसे पुरुषों में उत्तम कहा गया। नये भारत की चादर जितनी निराकार, निर्विकार, निर्मल और निश्छल हो, उतनी बेहतर। क्या यह उचित नहीं होगा?
सम्पादकीय टिपण्णी - हिंसा का प्रयोग खुद अपने आप में ही अपने अध्यात्मं एवं संस्कृति की शक्ति पर अविश्वास को दर्शाता है और इस कमज़ोरी को ढकने के लिए सियासत द्वारा सीधे हस्तक्षेप की मांग करता है, और ना होने पर बल का प्रयोग.
कृष्ण ने गीता की शुरुवात में हीं कर्म आधारित आर्य या अनार्य की बात कही थी, ना की जन्म. मगर सत्ता ने शक्ति की दौड़ में हमेशा इस बात को नज़रंदाज़ किया है, वो चाहे अंग्रेजों या हिटलर की प्रभुता का मसला हो जो नीली आँखों, गोरेपन और सुनहरे बालों में आर्य देखते रहे, या हमारे यहाँ की जाती प्रथा हो जिसमे राम और कृष्ण के निर्गुण परमेश्वर स्वरुप को दरकिनार कर सांसारिक सगुण रूपों पर कब्ज़ा जमा कुछ लोगों की अपनी भाई, पुत्र, भतीजावाद की संप्रभुता को बल दिया. और इस आतंरिक कमज़ोरी को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लिया.
पश्चिम या अरब (हेलेनिस्ट एवं ओटोमन) की कमज़ोर संस्कृति (जिसे बापू ने खुद उद्दत किया था ) को हिंसा की ज़रुरत लगातार पड़ी है और इसी हिंसा की ज़रुरत पूरा करने के लिए संगठित धर्म का सहारा लिया गया, महात्मा गांधी ने इसी हिंसक उपनिवेशवाद को श्रेष्ठ संस्कृति और संस्कृति से ही जुड़े हुए धर्म एवं पंथ के अनूठे स्वरूप से पटखनी दी.
बापू theology यानि धर्म सिद्धांत के महारथी थे और "राम और एबराम" का संबंध समझते थे, समझते शायद जिन्ना भी थे मगर अपने निजी अनुभवों (जातिवाद और उससे जुड़े कट्टरपंथ) की वजह से हिन्द संस्कृति की शक्ति पर अविश्वास था, देश बिना यूरोप या ओटोमन एम्पायर के चल पायेगा इसपर शक था, नतीज़ा पाकिस्तान रहा.
भारत में कई पंथ रहे हैं, सनातनी से ले कर इतिहास में अलग अलग काल खंड में आये अलग अलग पंथ एवं संगठित धर्म, मगर संस्कृति हिन्द की ही रही है, वही हिन्द जिसे पर्शियन "हप्ता हिन्दू" और हेलेनिस्ट (रोमन) "इंडीज़" बोलते थे, जो की एक भौगोलिक शब्द है, और किसी धर्म से इतर भी. "इश्वर अल्लाह तेरो नाम", "हे राम" और "राम और एबराम" इसी हज़ारों साल की अनवरत संस्कृति पर टिप्पणियां ही हैं, जो इस फेसबुक के सेल्फिवाद में हम समझ नहीं पाते. विस्तार से चर्चा बाद में.
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