जब देह थी, तब अनुपम नहीं; अब देह नहीं, पर अनुपम हैं। आप इसे मेरा निकटदृष्टि दोष कहें या दूरदृष्टि दोष; जब तक अनुपम जी की देह थी, तब तक मैं उनमें अन्य कुछ अनुपम न देख सका, सिवाय नये मुहावरे गढ़ने वाली उनकी शब्दावली, गूढ से गूढ़ विषय को कहानी की तरह पेश करने की उनकी महारत और चीजों को सहेजकर सुरुचिपूर्ण ढंग से रखने की उनकी कला के। डाक के लिफाफों से निकाली बेकार गांधी टिकटों को एक साथ चिपकाकर कलाकृति का आकार देने की उनकी कला ने उनके जीते-जी ही मुझसे आकर्षित किया। दूसरों को असहज बना दे, ऐसे अति विनम्र अनुपम व्यवहार को भी मैने उनकी देह में ही देखा।
कुर्सियां खाली हों, तो भी गांधी शांति प्रतिष्ठान के अपने कार्यक्रमों में हाथ बांधे एक कोने खडे़ रहना; कुर्सी पर बैठे हों, तो आगन्तुक को देखते ही कुर्सी खाली कर देना। किसी के साथ खडे़-खड़े ही लंबी बात कर लेना और फुर्सत में हों, तो भी किसी के मुंह से बात निकलते ही उस पर लगाम लगा देना। श्रृद्धावश पर्यावरण संबधी पुस्तक भेंट करने आये एक प्रकाशक को अनुपम जी ने यह कहकर तुरंत लौटाया, कि उन्हे पुस्तक देने से उसका कोई मुनाफा नहीं होने वाला।
अरवरी गांव समाज के संवाद पर आधारित 'अरवरी संसद' किताब छपकर आई, तो उन्होने कहा - ''इसे रंगीन छापने की क्या जरूरत थी ?''
उन्होंने इसे पैसे की अनावश्यक बर्बादी माना। वहीं गंवई कार्यकर्ताओं की बाबत तरुण भारत संघ के राजेन्द्र भाई को यह भी कहते भी सुना - ''पैसा आये, तो कभी कार्यकर्ताओं को घूमाने ले जाओ। खूब बढ़िया खिलाओ-पिलाओ। दावत करो।'' कार्यकर्ताओं पर किए खर्च को वह पैसे की बर्बादी नहीं मानते थी। कभी यह सब उनकी स्पष्टवादिता लगता था, कभी साफ दृष्टि, कभी सहजता और कभी विनम्रता। पत्रकार श्री अरविंद मोहन ने ठीक लिखा था, कभी-कभीं संपर्क में आने वाले को यह उनका बनावटीपन भी लग सकता था।
देह के बाद सिखाते अनुपम
'नमस्कार’ और ’कैसे हो ?' - जब तक देह थी, अनुपम जी ने इससे आगे मुझसे कभी नहीं बात की। न मालूम क्यों, उनके सामने मैने भी अपने को हमेशा असहज ही पाया। अब देह नहीं, तो अनुपम जी से लगातार संवाद हो रहा है। उनके सम्मुख अब मैं लगातार सहज हो रहा हूं। अब अनुपम जी मुझे लगातार सिखा रहे हैं, व्यवहार भी और भाषा भी। उनकी देह के जाने के बाद पुष्पाजंलियों और श्रृ़द्धांजलियों ने सिखाया। देह से पूर्व और पश्चात् अनुपम जी के प्रति जगत का व्यवहार भी किसी पाठशाला से कम नहीं।
भाषा का गांधी मार्ग
बकौल अनुपम - ''हिंसा, भाषा की भी होती है। भाषा, भ्रष्ट भी होती है।......गांधी मार्ग की भाषा ऐसी होनी चाहिए, जिसमें न बेवजह का जोश दिखे और न ही नाहक का रोष।''
इससे पता चला कि भाषा का भी अपना एक गांधी मार्ग है। जाहिर है कि हिंसामुक्त-सदाचारी भाषा गांधीवादी लेखन का प्राथमिक कसौटी है। स्वयं को गांधीवादी लेखक से पहले किसी को भी अपने लेखन को भाषा की इस कसौटी पर कसकर देखना चाहिए। मैं और मेरा लेखन, इस कसौटी पर एकदम खोटे सिक्के के माफिक हैं। संभवतः यही वजह रही कि अनुपम जी ने कभी मेरी किसी रचना की न आलोचना की, न ही सराहा और न ही किसी पत्र का कभी उत्तर दिया।
भाषा का मन्ना मार्ग
अनुपम जी के नहीं रहने पर आयोजित आख्यानों में से एक में बोलते हुए अनुपम परिवार की रागिनी नायक ने कानपुर के यशस्वी कवि यश मालवीय की पंक्तियों में समय का संदेश याद दिलाया -
''दबे पांव उजाला आ रहा है।
फिर कथाओं को खंगाला जा रहा है।
धुंध से चेहरा निकलता दिख रहा है।
कौन क्षितिजों पर सवेरा लिख रहा है।''
मैं अनुपम जी में जो अनुपम था, उसे खंगालने में लग गया। मैने पाया कि जब तक देह रही, अनुपम पानी लेख खासम-खास पर प्रतिष्ठित रहे। देह जाने के बाद अब उनका लगातार विस्तार हो रहा है; अनुपम साहित्य अब और अधिक देखने को मिल रहा है। अनुपम जी की प्रकाशित पुस्तकों की संख्या 17 है। ’मन्ना: वे गीत फरोश भी थे’ - साफ माथे का समाज से लिया यह लेख पढ़ रहा हूं, तो कह सकता हूं कि अनुपम जी ने अनुपम लेखन और व्यवहार के गुणसूत्र पिता भवानी भाई और उनकी कविताओं से ही पाये थे।
''जिस तरह तू बोलता है, उस तरह तू लिख
और उसके बाद मुझसे बड़ा तू दिख।''
''कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध।''
''यह कि तेरी भर न हो, तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह।''
मन्ना यानी पिता भवानीशंकर मिश्र को याद करते हुए अनुपम जी ने उक्त पंक्तियों का विशेष उल्लेख किया है। उक्त पंक्तियों के जरिये भाषा और व्यवहार तक के चुनाव का जो परामर्श भवानी भाई ने दिया, अब लगता है कि अनुपम जी ने उनका अक्षरंश पालन किया। अनुपम जी ने पर्यावरण जैसे वैज्ञानिक पर अपने व्याख्यान भी ऐसी शैली में दिए, मानो जैसे कोई कविता कह रहे हों ; नदी से बह रहे हों। इसीलिए वह अपने साथ दूसरों को बहाने में सफल रहे।
लेखन का समाज मार्ग
बाज़ार से काग़ज खरीद कर लाने की बजाय, पीठ कोरे पन्नों पर लिखना; खूब अच्छी अंग्रेजी आते हुए भी उनके दस्तखत, खत-किताबत सब कुछ बिना किसी नारेबाजी के, आंदोलन के हिंदी में करना; ये सब के सब संस्कार अनुपम जी को मन्ना से ही मिले। अनुपम जी खुद लिखते हैं कि कविता छोटी है कि बड़ी है, टिकेगी या पिटेगी; मन्ना को इसमे बहुत फंसते हमने नहीं देखा। अनुपम जी का लिखा देखें, तो कह सकते हैं कि उनका लेखन भी टिकने या पिटने के चक्कर में कभी नहीं फंसा। उन्होने जो लिखा, उसमें आइने की तरह समाज को आगे रखा। यदि मन्ना के गीत ग्राहक की मर्जी से बंधे नहीं थे, तो ग्राहक की मर्जी से बंधना तो अनुपम जी का भी स्वभाव नहीं था। कई वजाहत में शायद यह एक वजह थी कि अनुपम जी जो लिख पाये, वह दूसरों के लिए अनुपम हो गया।
''मूर्ति तो समाज में साहित्यकार की ही खड़ी होती है, आलोचक की नहीं।''
अनुपम जी द्वारा भवानी भाई की किसी कविता का पेश यह भाव एक ऐसा निष्कर्ष है, जो पत्रकार और साहित्यकार के बीच के भेद और उनके लिखे के समाज पर प्रभाव का आकलन सामने रख देता है। इस आकलन को सही अथवा गलत मानने के लिए हम स्वतंत्र हैं और उसके आधार पर अपने कौशल और प्राथमिकता सामने रखकर यह तय करने के लिए भी कि हमें लेखन की किस विधा में अपनी कितनी ऊर्जा लगानी है।
राजरोग का विकास मार्ग
देह बिन अनुपम अब मुझे एक और भूमिका में दिखाई दे रहे हैं; एक दूरदृष्टा रणनीतिकार की भूमिका में। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी, तो केन-बेतवा नदी जोड़ बनने की संभावना पूरी मानी जा रही थी। पानी कार्यकर्ता पूछ रहे थे कि अब क्या करें? विकास के नाम पर समाज और प्रकृति विपरीत शासकीय पक्षधरता से क्षुब्ध कई नामी संगठन इस विकल्प पर भी बार-बार विचार करते दिखाई दे रहे थें कि वे खुद एक राजनीतिक दल बनायें; ताकि देश की त्रिस्तरीय जनप्रतिनिधि सभाओं में ज्यादा से ज्यादा जगह घेरकर समाज व प्रकृति अनुकल कार्यों के अनुकूल नीति व निर्णय करा सकें ।
ऐसे में अनुपम जी के लिखे ने आगाह किया - ''अच्छे लोग भी जब राज के करीब पहुंचते है, तो उन्हे विकास का रोग लग जाता है; भूमण्डलीकरण का रोग लग जाता है। उन्हे भी लगता है कि सारी नदियां जोड़ दें, सारे पहाड़ों को समतल कर दें, तो बुलडोजर चलाकर उनमें खेती कर लेंगे।...... इसका सबसे अच्छा उदाहरण रामकृष्ण हेगडे़ का है। कर्नाटक में 37 साल पहले बेड़धी नदी पर एक बांध बनाया जा रहा था। किसानों को इस बांध बनने से उनकी खेती का चक्र नष्ट हो जाने की आशंका हुई। उन्होने इसका विरोध किया। कर्नाटक के किसानों ने संगठन बनाकर सरकार से कहा कि वे उन्हे इस बांध की ज़रूरत नहीं है। संपन्नतम खेती वे बिना बांध के ही कर रहे हैं और इस बांध के बनने से उनका सारा चक्र नष्ट हो जायेगा। रामकृष्ण हेगडे़, उस आंदोलन के अगुवा बने। पांच साल तक वह इस आंदोलन के एकछत्र नेता रहे। बाद में वह राज्य के मुख्यमंत्री बने। बांध बनने के बाद हेगडे़ खुद बेड़धी बांध के पक्ष में हो गये। उन्हे भी राजरोग हो गया।''
राजरोग का चिकित्सा मार्ग
मैने पूछा कि ऐसे में एक कार्यकर्ता की भूमिका क्या हो ? अनुपम जी ने नदी जोड़ को राजरोगियों की ख़तरनाक रज़ामंदी कहा। आवाज़ दी कि इस रज़ामंदी के बीच हमारी आवाज़ दृढ़ता और संयम से उठनी चाहिए। जो बात कहनी है, वह दृढ़ता से कहनी पडे़गी। प्रेम से कहने के लिए हमें तरीका निकालना पडे़गा।
''देखो भाई, प्रकृति के खिलाफ हो रहे अक्षम्य अपराधों को न तो क्षमा नहीं किया जा सकता है और न ही इसकी कोई सजा भी दी जा सकती है। नदी जोड़ना, विकास की कड़ी में सबसे भंयकर दर्जे पर किया जाने वाला काम होगा। इसे बिना कटुता जितने अच्छे ढंग से समझ सकते हैं, समझना चाहिए। नहीं तो कहना चाहिए कि भाई अपने पैर पर तुम कुल्हाड़ी मारना चाहते हो, तो मारो; लेकिन यह निश्चित ही पैर-कुल्हाड़ी है। ऐसा कहने वालों के नाम एक शिलालेख में लिखकर दर्ज कर देना चाहिए। और कुछ विरोध नहीं हो सके, तो किसी बड़े पर्वत की चोटी पर यह शिलालेख लगा दें कि भैया आने वाले दो सौ सालों तक के लिए अमर रहेंगे ये नाम। इनका कुछ नहीं किया जा सका।''
अनुपम जी ने यह भी कहा - ''हमें अब सरकार का पक्ष समझने की कोई ज़रूरत नहीं है। उसे समझने लगे, तो ऐसी भूमिका हमें थका देगी। हम कोई पक्ष नहीं जानना चाहते। हम कहना चाहते हैं कि यह पक्षपात है देश के साथ, देश के भूगोल के साथ, इतिहास के साथ; इसे रोकें।''
इस वक्त भी सरकार का पक्ष समझने की भूमिका ने देश के कई लोगों को सचमुच थका दिया है। लिखते, कहते, प्रेम की भाषा में प्रतिरोध करते हुए भी काफी समय बीत गया। बकौल अनुपम, जब राज हाथ से जाता है, तो यह रोग अपने आप चला जाता है। हेगडे़ के पाला बदलने के बावजूद किसान आंदोलन चलता रहा। हेगड़े का राज चला गया। राजरोग भी चला गया। आंदोलन के कारण वह बांध आज भी नहीं बन सका है। राजरोग से निपटने का आखिरी तरीका यही है।
अच्छे विचारों की हिमायत का संदेश
भारतीय ज्ञानपीठ ने हाल ही में अनुपम जी के व्याख्यानों को प्रकाशित किया है। पुस्तक का शीर्षक है - 'अच्छे विचारों का अकाल'। व्याख्यानों के चयन और प्रस्तुति का दायित्व निभा राकी गर्ग ने बता दिया है कि अच्छे विचारों के हिमायती सदैव रहते हैं, देह से पूर्व भी, पश्चात् भी। अकाल से भयंकर होता है, अकाल में अकेले पड़ जाना। अतः देह के बाद अनुपम मिश्र जी के इस संदेश को कोई सुने, न सुने; यदि अच्छा लगे तो हम सुने; कहना शुरु करें; कहते रहें; कहने वालों का शिलालेख बनाते रहें; इससे अकाल में भी साझा बना रहेगा। अकाल में भी अच्छे विचारों का अकाल नहीं पडे़गा, तो एक दिन ऐसा ज़रूर आयेगा, जब ऐसे राजरोगियों का राज जायेगा। जाहिर है कि तब राजरोग खुद-ब-खुद चला जायेगा। किंतु यह सब कहते-करते हम यह न भूलें कि कोई भी पतन, गड्डा इतना गहरा नहीं होता, जिसमें गिरे हुए को स्नेह की उंगली से उठाया न जा सके। हालांकि व्यवहार की इस सीढ़ी को लगाने की सामर्थ्य सहज संभव नहीं, लेकिन किसी भी गांधी स्वभाव की बुनियादी शर्त तो आखिरकार यही है।
अंत में यही कह सकता हूं कि अनुपम जी तो गए। हम उन्हें अनुपम बनाने वाली भाषा, संवेदना और मूल्यों को संजो सकें, तो समझिए कि हम पर कुछ छाप अनुपम है।
By Arun Tiwari {{descmodel.currdesc.readstats }}
जब देह थी, तब अनुपम नहीं; अब देह नहीं, पर अनुपम हैं। आप इसे मेरा निकटदृष्टि दोष कहें या दूरदृष्टि दोष; जब तक अनुपम जी की देह थी, तब तक मैं उनमें अन्य कुछ अनुपम न देख सका, सिवाय नये मुहावरे गढ़ने वाली उनकी शब्दावली, गूढ से गूढ़ विषय को कहानी की तरह पेश करने की उनकी महारत और चीजों को सहेजकर सुरुचिपूर्ण ढंग से रखने की उनकी कला के। डाक के लिफाफों से निकाली बेकार गांधी टिकटों को एक साथ चिपकाकर कलाकृति का आकार देने की उनकी कला ने उनके जीते-जी ही मुझसे आकर्षित किया। दूसरों को असहज बना दे, ऐसे अति विनम्र अनुपम व्यवहार को भी मैने उनकी देह में ही देखा।
कुर्सियां खाली हों, तो भी गांधी शांति प्रतिष्ठान के अपने कार्यक्रमों में हाथ बांधे एक कोने खडे़ रहना; कुर्सी पर बैठे हों, तो आगन्तुक को देखते ही कुर्सी खाली कर देना। किसी के साथ खडे़-खड़े ही लंबी बात कर लेना और फुर्सत में हों, तो भी किसी के मुंह से बात निकलते ही उस पर लगाम लगा देना। श्रृद्धावश पर्यावरण संबधी पुस्तक भेंट करने आये एक प्रकाशक को अनुपम जी ने यह कहकर तुरंत लौटाया, कि उन्हे पुस्तक देने से उसका कोई मुनाफा नहीं होने वाला।
अरवरी गांव समाज के संवाद पर आधारित 'अरवरी संसद' किताब छपकर आई, तो उन्होने कहा - ''इसे रंगीन छापने की क्या जरूरत थी ?''
उन्होंने इसे पैसे की अनावश्यक बर्बादी माना। वहीं गंवई कार्यकर्ताओं की बाबत तरुण भारत संघ के राजेन्द्र भाई को यह भी कहते भी सुना - ''पैसा आये, तो कभी कार्यकर्ताओं को घूमाने ले जाओ। खूब बढ़िया खिलाओ-पिलाओ। दावत करो।'' कार्यकर्ताओं पर किए खर्च को वह पैसे की बर्बादी नहीं मानते थी। कभी यह सब उनकी स्पष्टवादिता लगता था, कभी साफ दृष्टि, कभी सहजता और कभी विनम्रता। पत्रकार श्री अरविंद मोहन ने ठीक लिखा था, कभी-कभीं संपर्क में आने वाले को यह उनका बनावटीपन भी लग सकता था।
देह के बाद सिखाते अनुपम
'नमस्कार’ और ’कैसे हो ?' - जब तक देह थी, अनुपम जी ने इससे आगे मुझसे कभी नहीं बात की। न मालूम क्यों, उनके सामने मैने भी अपने को हमेशा असहज ही पाया। अब देह नहीं, तो अनुपम जी से लगातार संवाद हो रहा है। उनके सम्मुख अब मैं लगातार सहज हो रहा हूं। अब अनुपम जी मुझे लगातार सिखा रहे हैं, व्यवहार भी और भाषा भी। उनकी देह के जाने के बाद पुष्पाजंलियों और श्रृ़द्धांजलियों ने सिखाया। देह से पूर्व और पश्चात् अनुपम जी के प्रति जगत का व्यवहार भी किसी पाठशाला से कम नहीं।
भाषा का गांधी मार्ग
बकौल अनुपम - ''हिंसा, भाषा की भी होती है। भाषा, भ्रष्ट भी होती है।......गांधी मार्ग की भाषा ऐसी होनी चाहिए, जिसमें न बेवजह का जोश दिखे और न ही नाहक का रोष।''
इससे पता चला कि भाषा का भी अपना एक गांधी मार्ग है। जाहिर है कि हिंसामुक्त-सदाचारी भाषा गांधीवादी लेखन का प्राथमिक कसौटी है। स्वयं को गांधीवादी लेखक से पहले किसी को भी अपने लेखन को भाषा की इस कसौटी पर कसकर देखना चाहिए। मैं और मेरा लेखन, इस कसौटी पर एकदम खोटे सिक्के के माफिक हैं। संभवतः यही वजह रही कि अनुपम जी ने कभी मेरी किसी रचना की न आलोचना की, न ही सराहा और न ही किसी पत्र का कभी उत्तर दिया।
भाषा का मन्ना मार्ग
अनुपम जी के नहीं रहने पर आयोजित आख्यानों में से एक में बोलते हुए अनुपम परिवार की रागिनी नायक ने कानपुर के यशस्वी कवि यश मालवीय की पंक्तियों में समय का संदेश याद दिलाया -
मैं अनुपम जी में जो अनुपम था, उसे खंगालने में लग गया। मैने पाया कि जब तक देह रही, अनुपम पानी लेख खासम-खास पर प्रतिष्ठित रहे। देह जाने के बाद अब उनका लगातार विस्तार हो रहा है; अनुपम साहित्य अब और अधिक देखने को मिल रहा है। अनुपम जी की प्रकाशित पुस्तकों की संख्या 17 है। ’मन्ना: वे गीत फरोश भी थे’ - साफ माथे का समाज से लिया यह लेख पढ़ रहा हूं, तो कह सकता हूं कि अनुपम जी ने अनुपम लेखन और व्यवहार के गुणसूत्र पिता भवानी भाई और उनकी कविताओं से ही पाये थे।
मन्ना यानी पिता भवानीशंकर मिश्र को याद करते हुए अनुपम जी ने उक्त पंक्तियों का विशेष उल्लेख किया है। उक्त पंक्तियों के जरिये भाषा और व्यवहार तक के चुनाव का जो परामर्श भवानी भाई ने दिया, अब लगता है कि अनुपम जी ने उनका अक्षरंश पालन किया। अनुपम जी ने पर्यावरण जैसे वैज्ञानिक पर अपने व्याख्यान भी ऐसी शैली में दिए, मानो जैसे कोई कविता कह रहे हों ; नदी से बह रहे हों। इसीलिए वह अपने साथ दूसरों को बहाने में सफल रहे।
लेखन का समाज मार्ग
बाज़ार से काग़ज खरीद कर लाने की बजाय, पीठ कोरे पन्नों पर लिखना; खूब अच्छी अंग्रेजी आते हुए भी उनके दस्तखत, खत-किताबत सब कुछ बिना किसी नारेबाजी के, आंदोलन के हिंदी में करना; ये सब के सब संस्कार अनुपम जी को मन्ना से ही मिले। अनुपम जी खुद लिखते हैं कि कविता छोटी है कि बड़ी है, टिकेगी या पिटेगी; मन्ना को इसमे बहुत फंसते हमने नहीं देखा। अनुपम जी का लिखा देखें, तो कह सकते हैं कि उनका लेखन भी टिकने या पिटने के चक्कर में कभी नहीं फंसा। उन्होने जो लिखा, उसमें आइने की तरह समाज को आगे रखा। यदि मन्ना के गीत ग्राहक की मर्जी से बंधे नहीं थे, तो ग्राहक की मर्जी से बंधना तो अनुपम जी का भी स्वभाव नहीं था। कई वजाहत में शायद यह एक वजह थी कि अनुपम जी जो लिख पाये, वह दूसरों के लिए अनुपम हो गया।
अनुपम जी द्वारा भवानी भाई की किसी कविता का पेश यह भाव एक ऐसा निष्कर्ष है, जो पत्रकार और साहित्यकार के बीच के भेद और उनके लिखे के समाज पर प्रभाव का आकलन सामने रख देता है। इस आकलन को सही अथवा गलत मानने के लिए हम स्वतंत्र हैं और उसके आधार पर अपने कौशल और प्राथमिकता सामने रखकर यह तय करने के लिए भी कि हमें लेखन की किस विधा में अपनी कितनी ऊर्जा लगानी है।
राजरोग का विकास मार्ग
देह बिन अनुपम अब मुझे एक और भूमिका में दिखाई दे रहे हैं; एक दूरदृष्टा रणनीतिकार की भूमिका में। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी, तो केन-बेतवा नदी जोड़ बनने की संभावना पूरी मानी जा रही थी। पानी कार्यकर्ता पूछ रहे थे कि अब क्या करें? विकास के नाम पर समाज और प्रकृति विपरीत शासकीय पक्षधरता से क्षुब्ध कई नामी संगठन इस विकल्प पर भी बार-बार विचार करते दिखाई दे रहे थें कि वे खुद एक राजनीतिक दल बनायें; ताकि देश की त्रिस्तरीय जनप्रतिनिधि सभाओं में ज्यादा से ज्यादा जगह घेरकर समाज व प्रकृति अनुकल कार्यों के अनुकूल नीति व निर्णय करा सकें ।
ऐसे में अनुपम जी के लिखे ने आगाह किया - ''अच्छे लोग भी जब राज के करीब पहुंचते है, तो उन्हे विकास का रोग लग जाता है; भूमण्डलीकरण का रोग लग जाता है। उन्हे भी लगता है कि सारी नदियां जोड़ दें, सारे पहाड़ों को समतल कर दें, तो बुलडोजर चलाकर उनमें खेती कर लेंगे।...... इसका सबसे अच्छा उदाहरण रामकृष्ण हेगडे़ का है। कर्नाटक में 37 साल पहले बेड़धी नदी पर एक बांध बनाया जा रहा था। किसानों को इस बांध बनने से उनकी खेती का चक्र नष्ट हो जाने की आशंका हुई। उन्होने इसका विरोध किया। कर्नाटक के किसानों ने संगठन बनाकर सरकार से कहा कि वे उन्हे इस बांध की ज़रूरत नहीं है। संपन्नतम खेती वे बिना बांध के ही कर रहे हैं और इस बांध के बनने से उनका सारा चक्र नष्ट हो जायेगा। रामकृष्ण हेगडे़, उस आंदोलन के अगुवा बने। पांच साल तक वह इस आंदोलन के एकछत्र नेता रहे। बाद में वह राज्य के मुख्यमंत्री बने। बांध बनने के बाद हेगडे़ खुद बेड़धी बांध के पक्ष में हो गये। उन्हे भी राजरोग हो गया।''
राजरोग का चिकित्सा मार्ग
मैने पूछा कि ऐसे में एक कार्यकर्ता की भूमिका क्या हो ? अनुपम जी ने नदी जोड़ को राजरोगियों की ख़तरनाक रज़ामंदी कहा। आवाज़ दी कि इस रज़ामंदी के बीच हमारी आवाज़ दृढ़ता और संयम से उठनी चाहिए। जो बात कहनी है, वह दृढ़ता से कहनी पडे़गी। प्रेम से कहने के लिए हमें तरीका निकालना पडे़गा।
''देखो भाई, प्रकृति के खिलाफ हो रहे अक्षम्य अपराधों को न तो क्षमा नहीं किया जा सकता है और न ही इसकी कोई सजा भी दी जा सकती है। नदी जोड़ना, विकास की कड़ी में सबसे भंयकर दर्जे पर किया जाने वाला काम होगा। इसे बिना कटुता जितने अच्छे ढंग से समझ सकते हैं, समझना चाहिए। नहीं तो कहना चाहिए कि भाई अपने पैर पर तुम कुल्हाड़ी मारना चाहते हो, तो मारो; लेकिन यह निश्चित ही पैर-कुल्हाड़ी है। ऐसा कहने वालों के नाम एक शिलालेख में लिखकर दर्ज कर देना चाहिए। और कुछ विरोध नहीं हो सके, तो किसी बड़े पर्वत की चोटी पर यह शिलालेख लगा दें कि भैया आने वाले दो सौ सालों तक के लिए अमर रहेंगे ये नाम। इनका कुछ नहीं किया जा सका।''
अनुपम जी ने यह भी कहा - ''हमें अब सरकार का पक्ष समझने की कोई ज़रूरत नहीं है। उसे समझने लगे, तो ऐसी भूमिका हमें थका देगी। हम कोई पक्ष नहीं जानना चाहते। हम कहना चाहते हैं कि यह पक्षपात है देश के साथ, देश के भूगोल के साथ, इतिहास के साथ; इसे रोकें।''
इस वक्त भी सरकार का पक्ष समझने की भूमिका ने देश के कई लोगों को सचमुच थका दिया है। लिखते, कहते, प्रेम की भाषा में प्रतिरोध करते हुए भी काफी समय बीत गया। बकौल अनुपम, जब राज हाथ से जाता है, तो यह रोग अपने आप चला जाता है। हेगडे़ के पाला बदलने के बावजूद किसान आंदोलन चलता रहा। हेगड़े का राज चला गया। राजरोग भी चला गया। आंदोलन के कारण वह बांध आज भी नहीं बन सका है। राजरोग से निपटने का आखिरी तरीका यही है।
अच्छे विचारों की हिमायत का संदेश
भारतीय ज्ञानपीठ ने हाल ही में अनुपम जी के व्याख्यानों को प्रकाशित किया है। पुस्तक का शीर्षक है - 'अच्छे विचारों का अकाल'। व्याख्यानों के चयन और प्रस्तुति का दायित्व निभा राकी गर्ग ने बता दिया है कि अच्छे विचारों के हिमायती सदैव रहते हैं, देह से पूर्व भी, पश्चात् भी। अकाल से भयंकर होता है, अकाल में अकेले पड़ जाना। अतः देह के बाद अनुपम मिश्र जी के इस संदेश को कोई सुने, न सुने; यदि अच्छा लगे तो हम सुने; कहना शुरु करें; कहते रहें; कहने वालों का शिलालेख बनाते रहें; इससे अकाल में भी साझा बना रहेगा। अकाल में भी अच्छे विचारों का अकाल नहीं पडे़गा, तो एक दिन ऐसा ज़रूर आयेगा, जब ऐसे राजरोगियों का राज जायेगा। जाहिर है कि तब राजरोग खुद-ब-खुद चला जायेगा। किंतु यह सब कहते-करते हम यह न भूलें कि कोई भी पतन, गड्डा इतना गहरा नहीं होता, जिसमें गिरे हुए को स्नेह की उंगली से उठाया न जा सके। हालांकि व्यवहार की इस सीढ़ी को लगाने की सामर्थ्य सहज संभव नहीं, लेकिन किसी भी गांधी स्वभाव की बुनियादी शर्त तो आखिरकार यही है।
अंत में यही कह सकता हूं कि अनुपम जी तो गए। हम उन्हें अनुपम बनाने वाली भाषा, संवेदना और मूल्यों को संजो सकें, तो समझिए कि हम पर कुछ छाप अनुपम है।
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