सतलुज-यमुना लिंक को लेकर हमने पहले
भी अपनी एक रिपोर्ट (रिपोर्ट देखने के लिए इसपर क्लिक करें) आप सब के समक्ष रखी थी।
जिसमें हमने विस्तार से उसके इतिहास से लेकर आज के हालात के बारे में जानकारी दी
थी। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए हम आपके सामने इसके सियासी खेल, पंजाब-हरियाणा के
बीच का टकराव और उनके तर्कों को आप तक पंहुचा रहे हैं। उम्मीद है सामाजिक सरोकार
से जुड़े लोग इस पर भी अपनी निगाह रखेंगे और हमसे जुड़ कर सतलुज-यमुना लिंक नहर पर मिलकर
कार्य करेंगे।
जमीनी हकीकत : नहर, जिसमें पानी नहीं वोट बहती है
सतलुज यमुना लिंक नहर भारत में सतलुज और यमुना नदियों को आपस में जोड़ने के लिए 214 किलोमीटर लंबी प्रस्तावित नहर परियोजना है। जिस नहर पर पंजाब व हरियाणा के राजनेता सियासी शहीद होने के लिए आस्तीने चढ़ा रहे हैं, वह नहर जमीन पर कब की खत्म हो चुकी है। पंजाब ने तो विधानसभा में प्रस्ताव पास कर नहर की जमीन भी डीनोटिफाई कर दी। 60 किलोमीटर लंबी नहर को बंद कर दिया। इधर नहर के रखरखाव पर बढ़ रहे खर्च से हरियाणा ने भी नहर की ओर ध्यान ही नहीं दिया।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर सियासी दांव
सतलुज यमुना लिंक नहर पर सुप्रीम कोर्ट का एक लाइन के निर्णय ने पंजाब व हरियाणा की राजनीति में सियासी तुफान खड़ा कर दिया। निर्णय यह है कि पंजाब सरकार ने 2004 में जल समझौते रद्द करना असंवैधानिक था। इस मामले पर राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से सलाह मांगी थी। जस्टिस एआर दवे की अध्यक्षता वाली बेंच ने यह निर्णय दिया है। इस निर्णय के बाद अब जोड़ नहर पर सुप्रीम कोर्ट के 2002 और चार जून 2004 के निर्णय प्रभावी होंगे। केंद्र नहर को अपने कब्जे में लेकर बाकी का काम पूरा कराए। पंजाब में अगले साल विधानसभा चुनाव है। ऐसे में जाहिर है इस पर राजनीति होनी है। निर्णय के तुरंत बाद कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष और अमृतसर से सांसद कैप्टन अमरेंदर सिंह ने अपने पद से रिजाइन कर दिया। उनके विधायकों ने भी रिजाइन कर एक तरह से बादल के नहर के मुद्दे पर घेरने की कोशिश की है। इधर पंजाब के डिप्टी सीएम सुखबीर सिंह बादल ने कहा कि हम रिजाइन नहीं करेंगे, बल्कि इस निर्णय के खिलाफ लड़ाई लड़ेंगे। पंजाब ने केबिनेट की बैठक बुला कर इस निर्णय के खिलाफ प्रस्ताव पास कर दिया। इधर 16 तारीख को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया गया है।
सतलुज यमुना लिंक नहर पर 1980 में काम शुरू हुआ था लेकिन पंजाब ने 95 फ़ीसदी काम पूरा होने के बाद काम रोक दिया था. 1986 में हरियाणा इस मामले को सुप्रीमकोर्ट ले गया था। तब से ही इस पर सियासत हो रही है।
पंजाब की राजनीति पर अच्छी पकड़ रखने वाले राजनीतिक विशेषज्ञ डाक्टर गुरमीत सिंह ने बताया कि एसवाइएल पर यह पहला निर्णय नहीं है जो हरियाणा के हक में आया है। इससे पहले भी लगभग सभी निर्णय हरियाणा के पक्ष में आए हैं। सवाल यह है कि क्या हरियाणा को पानी मिलेगा? और इस निर्णय का पंजाब की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा? क्योंकि हरियाणा में अभी चुनाव दूर है। डाक्टर गुरमीत कहते है कि पानी मिलने के आसार बहुत ही कम है। अलबत्ता नहर पर सियासत होती है। यह नहर पानी के लिए नहीं वोट के लिए है। बस…।
निर्णय का असर नहर पर कम सियासत पर ज्यादा
इसी साल पंजाब विधानसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास कर नहर की जमीन को डीनोटिफाई कर इसकी जमीन को किसानों को वापस दे दी थी। तब बादल को इसका लाभ मिला था। कांग्रेस भी इसका श्रेय लेने के लिए किसानों के लिए साथ मिल कर नहर को भरने के काम में जुट गई थी। हालांकि बाद में हरियणा इस प्रस्ताव के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में गया, कोर्ट ने तब यथास्थिति बनाए रखने के निर्देश दिए थे। राजनीति विशेषज्ञ डाक्टर लहरी सिंह ने ओपिनियन पोस्ट को बताया कि कैप्टन ने रिजाइन कर एक तरह से बादल सरकार से बढ़त लेने की कोशिश की है। इसका उन्हें लाभ भी मिलेगा। क्योंकि यह उनका आक्रमक रूख है। इधर बादलों के लिए दिक्कत यह है कि बीजेपी के साथ उनका गठबंधन है। जिसका उन्हें नुकसान हो रहा है। कुल मिला कर निर्णय से कांग्रेस को लाभ तो बादलों को नुकसान हो रहा है।
चरमपंथी सिखों को भी मौका मिल गया
इधर निर्णय पंजाब के खिलाफ आते ही चरमपंथी सिखों को भी बादल सरकार को घेरने का मौका मिल गया है। आतंकवाद के दौर में नहर पर काम कर रहे इंजीनियर और लेबर की हत्या के बाद ही पंजाब में नहर निर्माण का काम रोक दिया गया था। आतंकवाद की एक वजह नहर को भी माना गया था। चुनाव के मौकेपर यह गुट सक्रिय हो जाता है। इन दिनों सिमरनजीत सिंह और उनके साथ लगातार पंजाब में सक्रिय हो रहेहैं। विदेश में बैठे उनके आका भी इस कोशिश में भीहै कि पंजाब में किस तरह से एक बार फिर से हालात खराब किए जाए। चुनाव का दौर उनके लिए खासा मुफीद मौका होता है। हालांकि डिप्टी सीएम सुखबीर बादल इस तरह किसी संभावना से इंकार करते हैं। पर इसकी वजह है, वजह यह है कि यदि वें यह स्वीकार करते है कि चरमपंथी धड़ा कुछ गड़बड़ कर सकता है तो पंजाब में राष्ट्रपति शासन लगाने की जमीन तैयार होती है।इधर कैप्टन का कहना है कि चरमपंथी सिख पंजाब का माहौल खराब कर सकते हैं।
पानी न देने के पंजाब के तर्क
तर्क एक : क्योंकि पंजाब के पास कानूनी विकल्प खुले हैं
जल विवाद क्यों और समाधान क्या के लेखक डाक्टर हरबंस बेंस ने बताया कि पानी मिलना बहुत ही मुश्किल काम है। वर्तमान में जो हालात है,इसमें यह संभावना बेहद कम है। उन्होंने कहा कि निर्णय में तो पानी देने को कहा गया है। लेकिन यह संभव कहा है? 1986 में एसवाइएल नहर पर काम कर रहे चीफ इंजीनियर और 30 मजदूरों की हत्या कर दी गई थी। तब से प्रोजेक्ट रूका पड़ा है। 1996 में हरियाणा ने कोर्ट में कहा कि पंजाब में हालात सामान्य है, इसलिए नहर बनाई जाए। 15 जनवरी 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नहर का 90 फीसदी हिस्सा बन गया, इसे पूरा किया जाए। एक साल तक इसपर काम नहीं हुआ। तब जून 2004 में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आया कि एक माह के अंदर केंद्रीय लोक निर्माण विभाग इस पर काम शुरू करे। तभी कैप्टन सरकार ने 12 जुलाई 2004 को विधानसभा में नदी जल समझौता रद्द करने का प्रस्ताव पास कर दिया। 22 जुलाई को तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने इसे सुप्रीम कोर्ट के पास सलाह के लिए भेज दिया। 12 साल बाद कोर्ट ने यह प्रस्ताव असंवैधानिक बताया। बेंस के मुताबिक अभी पंजाब के आप्शन खत्म नहीं हुआ है। पंजाब ने पहले ही पंजाब पुनर्गठन कानून की धारा 78 को चैलेंज कर चुका है। इसके अनुसार दो राज्यों में पानी के झगड़े को सुलझाने के लिए केंद्र दखल दे सकता है। एक नॉन राइपेरियन स्टेट यानी जिस राज्य स्टेट से नदी होकर नहीं गुजरती वह राज्य पानी में हिस्सा नहीं मांग सकता।
तर्क दो : पंजाब में पानी ही कम हो गया
यह समझौता 1966 में हुआ था। तब हरियाणा को 1.3 एमएएफ पानी दिया जाना था। पंजाब सिंचाई विभाग के पूर्व चीफ इंजीनियर एएस दुलेटा ने बताया कि जब समझौता हुआ तब पंजाब में 171.70 लाख एकड़ फीट पानी था। अब पंजाब में 40 लाख एकड़ फीट पानी कम हो गया। पंजाब के मालवा की नौ लाख एकड़ जमीन बंजर हो गई। एसवाइएल नहर भी अब दोबारा बनेगी। जिस पर 1500 करोड़ रुपए खर्च होंगे।
तर्क तीन : निर्णय जनभावना के विपरीत बताया जा सकता है
सोशल साइंस के प्रोफेसर डाक्टर राजेश तनेजा ने बताया कि पंजाब यह भी तर्क दे सकता है कि यह निर्णय जनभावना के विपरीत है। पंजाब की जनता नहीं चाहती कि पानी हरियाणा को दिया जाए। यूं भी पंजाब में नहर 60 फीसदी बंद कर दी गई है। इसे दोबारा खोलना किसी भी सरकार के लिए मुश्किल काम होगा। यदि पंजाब इसमें सीधे हस्तक्षेप करता है तो हालात खराब हो सकते हैं।
क्यों चाहिए हरियाणा को पानी
दक्षिण हरियाणा की सिंचाई के लिए पानी चाहिए। क्योंकि हरियाणा पंजाब का हिस्सा है, इसलिए वहां के पानी में भी प्रदेश का हिस्सा है। हरियाणा की अभी 35 हजार हेक्टर जमीन की सिंचाई नहीं हो पा रही है। यदि यह पानी मिल जाता है तो दक्षिण हरियाणा में पानी की कमी दूर हो सकती है। हरियाणा का यह भी तर्क है कि उन्हें यमुना नदी का पानी दिल्ली के साथ बांटना पड़ रहा है। ऐसे में उन्हें भी सतलुज के पानी में अपना हिस्सा चाहिए।
और जिस नहर पर लड़ रहे वह है कहा?
34 सालों में कागजों में सिमट गया एसवाईएल प्रोजेक्ट। हरियाणा के सबसे पहले जिला अंबाला के गांव कुरड़ी, गोगपुर, दारसी, बजगावां, दबखेड़ी, झुआंसा, ठोल, जनसूई, नगगल से होते हुए एसवाईएल कुरूक्षेत्र के गांवों से निकलकर करनाल जिले के मूनक हैड तक जाती है। पंजाब के बाद इसका पहला हैड जनसूई में स्थापित किया गया है जबकि अंतिम हैड करनाल जिला के मूनक में है। सिंचाईविभाग ने एसवाईएल का बकायदा एक अलग विंग बनाया। इस विंग की कमान एक्शियन स्तर के अधिकारी को सौंपी गई और फील्ड में भी कर्मचारियों की तैनाती करते हुए एसवाईएल का निर्माण कार्य पूरा किया गया। एसवाईएल का एक कार्यालय चंडीगढ़ को दूसरा मुख्य कार्यालय अंबाला में स्थापित किया गया।
इसके बाद यह मुद्दा पंजाब व हरियाणा के बीच इतना गहरा चला गया कि विवाद अदालतों तक पहुंच गया। जैसे-जैसे अदालतों में केस कीसुनवाई चलती रही वैसे-वैसे विभागीय तंत्र इस मामले में कमजोर पड़ता चला गया। इस लंबी अवधि के दौरान सत्ता में आई हरियाणा की सरकारों ने एक तरफ अदालती लड़ाई जारी रखी तो दूसरी तरफ काम के अभाव में कर्मचारियों व अधिकारियों को समायोजन शुरू कर दिया।
यह मामला अदालत में इतना लंबा खींच गया कि एसवाईएल विंग में जिन अधिकारियों व कर्मचारियों को तैनात किया गया था उन्हें नरवाना ब्रांच या अन्य शाखाओं में समायोजित कर दिया ।
पंजाब में नहर बहुत सी जगह से बंद कर दी। हरियाणा में भी नहर की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। जगह जगह नहर टूट चुकी है। इसे रिपेयर करने के लिए करोड़ों रूपए खर्च करने होंगे। कई जगह तो नहर का वजूद ही खत्म हो गया है। जहां से नहर गुजर रही है, वहां के किसानों की तो यह मांग है कि इस नहर को पंजाब तर्ज पर बंद ही कर दिया जाना चाहिए। क्योंकि नहर से पानी तो मिलेगा नहीं लेकिन बरसात के दिनों में नहर से उनके खेतों में बाढ़ जरूर आ जाती है।
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