भारत सरकार व राज्य सरकारों द्वारा संचालित सरकारी स्कूलों की दशा और दिशा से हम सभी परिचित हैं। सरकारी स्कूलों में दी जा रही शिक्षा और उसकी गुणवत्ता पर अमीर और गरीब सभी अभिभावक नाक-मुंह सिकोड़ते ही हैं, लेकिन अब सरकारी स्कूलों में शौचालय जैसी अन्य जरूरी सुविधाओं को लेकर भी अभिभावक गंभीर हो गए हैं।
हालांकि सरकारी स्कूलों में शिक्षा
की गुणवत्ता सबसे बड़ी समस्या है, जहां प्रशिक्षित शिक्षकों की दशा और उनके चयन प्रणाली
में गड़बड़ी से सभी परिचित हैं और यहां छात्र-छात्राओं के लिए अन्य सुख-सुविधाओं
की बात करना ही व्यर्थ है। शिक्षा देना दूर, कई बार तो बच्चों को दोपहर का भोजन
(मिड डे मील) खाकर भी जान से हाथ धोना पड़ जाता है।
वर्ष 2017 में भारत आजादी का 70वां
वर्षगाठ मना रहा होगा और इस अंतराल में भारत में कितनी सरकारें आईं और गईं, लेकिन सरकारी
स्कूलों की शिक्षा और उनकी गुणवत्ता को लेकर अब तक कुछ ठोस काम नहीं हुआ।
वार्षिक आम बजट में शिक्षा
क्षेत्र के लिए आवंटित हिस्सा भारत सरकार की उन तमाम कोशिशों और दावों की पोल खोल
देती है, जिसमें शिक्षा बजट के लिए जीडीपी का महज 2-3 फीसदी हिस्सा ही आवंटित किया
जाता रहा है।
शिक्षा क्षेत्र के स्तर में
सुधार के लिए अब तक के सरकारी प्रयास को नगण्य ही कहा जा सकता है। शायद यही कारण
है कि वर्तमान में गरीब और लाचार अभिभावक भी बच्चों को अच्छी शिक्षा, अच्छा माहौल
व अच्छी सुविधा के लिए निजी स्कूलों की ओर रुख करने को मजबूर हैं।
एक शोध रिपोर्ट कहती है कि वर्ष
2006 में भारत में कुल पढ़ने वाले
बच्चों में 20 फ़ीसदी से कम बच्चे निजी
स्कूलों में पढ़ रहे थे और एक दशक बाद वर्तमान में इनकी संख्या 30 फ़ीसदी से ज़्यादा हो चुकी है।
‘‘सरकारी स्कूल शिक्षाकेन्द्र के बजाय अब सुविधाकेंद्र में तब्दील कर दिए गए हैं, जहां शिक्षकों की दशा सुविधा संचालकों जैसी कर दी गई है। तैनात शिक्षकों की प्राथमिक जिम्मेदारी होती है कि वह बच्चों को सरकार द्वारा संचालित दोपहर का खाना (मिड डे मील), टॉफी, दूध, फल जैसी चीजें समय-समय पर उपलब्ध कराए। सरकारी स्कूलों में शिक्षण कार्य इसीलिए दोयम हो चला है, रही सही कसर विभिन्न सरकारी दायित्वों का बोझ उठाने में पूरी हो जाती है। मसलन, एक सरकारी शिक्षक को स्कूल के अलावा जनगणना, मकानगणना, चुनाव ड्युटी जैसे अनेकोनेक सरकारी काम स्कूल ड्युटी में ही निबटानी पड़ती हैं। बच्चों के लिए शिक्षकों के पास समय ही नहीं कि वे उन्हें पढ़ा सकें।’’ -स्मिता दीक्षित,सहायक अध्यापिका, उरई, उत्तर प्रदेश
सरकारी स्कूलों की अंतहीन दशा से निराश होकर अभिभावकों का निजी स्कूलों की ओर रूख करना मजबूरी भी है, जिसके लिए उन्हें मोटी फीस भी चुकानी पड़ती है, लेकिन इससे कम से कम अभिभावकों को भरोसा होता है कि उनके बच्चों का भविष्य बेहतर हो सकता हैं।
हालांकि निजी स्कूलों में भी
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का दावा कोई नहीं कर सकता है, क्योंकि कई निजी स्कूलों का
स्तर सरकारी स्कूलों से भी ख़राब है। इसी का परिणाम है कि निजी स्कूलों से निकलने
वाले अधिकांश छात्र शिक्षित होकर नहीं, बल्कि महज डिग्री लेकर निकलते हैं।
गैर सरकारी संस्था 'प्रथम' की एक वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2014 में सातवीं क्लास के महज़ 22 फ़ीसदी बच्चे अंग्रेजी की एक पूरी पंक्ति पढ़ने में सक्षम थे, वहीं
वर्ष 2007 में यह संख्या 37 फ़ीसदी थी। ज़ाहिर है कि इससे शिक्षा के
गिरते स्तर का पता चलता है। ये हालात गुजरात के है, जिसे भारत का सबसे विकसित राज्य का तमगा
हासिल है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिकी
सरकार 6 से 15 साल के प्रत्येक अमेरिकी बच्चे की
शिक्षा पर सालाना 1,15,000
डॉलर यानी 7 लाख
रुपए खर्च करती है जबकि भारत सरकार अपनी कुल सलाना बजट की महज 3 से 4 फीसदी हिस्सा
ही शिक्षा के लिए आवंटित करती है।
वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2015- 16 के आम बजट में भारत सरकार ने जीडीपी का महज 3.3 फीसदी हिस्सा ही शिक्षा के लिए आवंटित किया है, जो कि पिछले वर्ष की तुलना में आवंटित राशि सें 16 फीसदी कम है। वहीं, शिक्षा बजट पर खर्च करने वाले अन्य देशों का वैश्विक जीडीपी औसत 4.9 फीसदी है।
सरकारी स्कूलों में लौटे निजी स्कूलों के छात्र
‘आसमां में भी छेद हो सकता है, एक पत्थर तो दिल से उछालों यारों।’
यह उदाहरण उन लाखों सरकारी स्कूलों और वहां तैनात शिक्षकों के लिए एक मिसाल है, जो कभी काम का बोझ, संसाधन की कमी और रोजमर्रा की समस्याओं को बतला कर अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने की लगातार कोशिश करते हैं।
आपको हैरत होगी कि यह सरकारी स्कूल पूरी तरह से वाई-फाई और अन्य अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस है और पर्याप्त शिक्षकों की उपलब्धता के बावजूद बच्चों को ऑनलाइन गेस्ट लैक्चर की सुविधा भी उपलब्ध कराई जाती है ताकि बच्चे किसी भी कन्फ्यूजन पूरी तरह उबर सकें। वहीं, इग्जाम को स्ट्रेस फ्री रखने के लिए बच्चों की काउंसिलिंग की भी व्यवस्था है।
टैग-झारखंड-भिलाई-श्रमिक
कैंप-1-जेपी नगर-शासकीय हायर सेकंडरी स्कूल।
शिक्षा का अधिकार कानून (RTE Act)
के तहत सरकारी स्कूलों में तैनात शिक्षक शिक्षण कार्य के अतिरिक्त कोई और दूसरा
काम नहीं कर सकता है बावजूद इसके सभी सरकारी स्कूलों में तैनात शिक्षकों को तमाम
सरकारी और गैर सरकारी ड्यूटी करनी पड़ती है, जिससे सरकारी स्कूलो में शिक्षण कार्य
प्रभावित होता है।
इसके अलावा शिक्षकों को शिक्षण कार्य के बीच ही
क्लर्क (सैलरी), प्रशासनिक अधिकारी और चपरासी की जिम्मेदारी भी उठानी पड़ती है। यही नहीं,
बच्चों को फिजिकल, म्युजिक और आर्ट जैसे विषयों में प्रशिक्षण देने के लिए स्पेशल शिक्षकों की
नियुक्ति मुश्किल से होती है, जिससे यह अतिरिक्त जिम्मेदारी भी सामान्य शिक्षकों को
निभानी पड़ती है, जिससे बच्चों का मूल शिक्षण कार्य बाधित होता है।
आरटीई एक्ट के तहत 151 बच्चों की संख्या वाले स्कूल में प्राध्यापक समेत कुल 5 शिक्षकों की नियुक्ति जरुरी है यानी प्रति 30 बच्चों पर एक शिक्षक की नियुक्ति अनिवार्य है और 360 बच्चों की संख्या वाले स्कूलो में ही स्पेशल शिक्षकों की नियुक्ति की व्यवस्था है।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम के मुताबिक सभी स्कूलों में नियुक्ति शिक्षकों को 7:30 घंटे की ड्यूटी करनी अनिवार्य है बावजूद इसके अधिकांश सरकारी स्कूलों के शिक्षक 5:30 घंटे की ड्यूटी करके स्कूल से निकल जाते हैं।
"सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को अगर शिक्षण कार्य से इतर कार्यों से मुक्त कर दिया जाए तो सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे निजी स्कूलों के बच्चों से आसानी से मुकाबला कर सकेंगे, लेकिन स्कूलों की मॉनिटरिंग करने वाली संस्थाएं सरकारी स्कूलों की इन समस्याओं पर आंखें मूंदे बैठी रहती है, जिससे सरकारी स्कूलों का शिक्षण कार्य और बच्चों का शैक्षिक स्तर न्यूनतम बना रहता है। हालांकि सरकारी स्कूलों में अभिभावकों की रूचि इसलिए भी नहीं होती है, क्योंकि गरीब अभिभावक भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई कराना चाहता है जबकि सरकारी स्कूलों में नियुक्ति हुए अधिकांश शिक्षक हिंदी माध्यम से पढ़े हुए होते हैं, जो अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देने में पूरी तरह से अक्षम होते हैं।" -एस एस रावत, प्रधानाचार्य, दक्षिणी दिल्ली नगर निगम स्कूल