सतलुज-यमुना लिंक नहर क्या और क्यों ?
भारत विभाजन से पूर्व, सिंधु थाले की, सिंधु नदी एवं इसकी पांच सहायक नदियों के पानी के बंटवारे के सम्बन्ध में पंजाब, सिंध, बहावलपुर और बीकानेर प्रान्तों के बीच में पहले से ही विवाद चल रहा था। भारत के विभाजन के उपरान्त यह विवाद भारत एवं पाकिस्तान के बीच का विवाद बन गया।
झेलम, चेनाब, रावी, ब्यास और सतलुज - भारत की यह पांच नदियां विभाजन पूर्व के भारत के एक बडे़ भू-भाग में पंचनद (पंजाब) नामक प्रदेश बनाती थी। ये एक लंबी यात्रा जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और पंजाब के क्षेत्रा से करती हुई, तिब्बत से निकली और जम्मू कश्मीर के लद्दाख क्षेत्रा से गुजरती सिंधु नदी की सहायक नदियां बनकर सिंधु थाले का हिस्सा हो जाती हैं। इस पूरे भू-खण्ड की प्राचीन सभ्यता को सिंधु घाटी की सभ्यता की संज्ञा दी गई है। ये नदियां सिंधु-बेसिन (थाले) को बनाने में सहायक हैं। सिंधु थाले की ही एक अन्य सहायक नदी है घग्गर, जो पुराने संयुक्त पंजाब और आज के हरियाणा राज्य से गुजर कर राजस्थान को पार करती सिंधु नदी से मिलन करती है। कालांतर में इस नदी का पानी कम हो गया है, जिस कारण अब यह नदी प्रत्यक्ष रूप से सिंधु नदी में नहीं मिलती है परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से इसकी भूमिगत जलधारा आज भी सिंधु नदी में शामिल हो रही है। यह एक अकाट्य प्राकृतिक और भौगोलिक सत्य है कि घग्गर नदी सिंधु थाले का ही एक अंग है।
जब विश्व बैंक के सहयोग से भारत और पाकिस्तान के मध्य उपजे जल विवाद को सुलझाया गया तो यह स्वीकार किया गया कि नदियों के पानी का बंटवारा सिंधु थाले को आधार मानकर ही किया जा सकता है। यही कारण है कि आधिकारिक रूप से भी इस समझौते को ‘सिंधु जल समझौता’ नाम दिया गया। हांलाकि इसके सिन्धु सहित पांच नदियों के जल के बंटवारे के विवाद को भी सुलझाया गया था।
इस समझौते पर वर्ष 1960 में हस्ताक्षर किये गये थे। इसके अन्तर्गत सिंधु नदी की पांच मुख्य सहायक नदियों में से सतलुज, ब्यास और रावी के पानी का उपयोग करने का पूर्ण अधिकार भारत को प्राप्त हुआ तथा सिंधु, झेलम और चेनाब नदियों के पानी के उपयोग का पूर्ण अधिकार पाकिस्तान को दिया गया। इस समझौते के अन्तर्गत भारत ने पाकिस्तान को सतलुज और ब्यास नदियों पर आधारित अपने क्षेत्रों के लिए सिंचाई प्रणालियों को अपने हिस्से में आई चेनाब, झेलम और सिन्धु नदियों पर स्थानान्तरण करने के लिए 110 करोड़ रुपये दिए। ध्यान देने वाली बात यह है कि 110 करोड़ रुपये की राशि किसी एक राज्य ने नहीं अपितु भारत सरकार ने अदा की और इसीलिए सतलुज, रावी और ब्यास नदियों का पानी किसी राज्य विशेष के नहीं अपितु पूरे राष्ट्र के हिस्से में आया।
रावी ब्यास बारे 1955 का समझौता
सिंधु जल समझौते की बातचीत अभी चल ही रही थी कि इस क्षेत्रा के तत्कालीन भारतीय राज्यों ने रावी-ब्यास के जल बंटवारे के सम्बन्ध में आपस में एक समझौता 29 जनवरी, 1955 को किया। इस समझौते के अनुसार पंजाब, पेप्सू, राजस्थान और जम्मू-कश्मीर राज्यों ने रावी और ब्यास नदियों के पानी को अपने बीच इस प्रकार बांटने का निर्णय कियाः-
पंजाब एवं पेप्सू राज्य = 7.20 मिलियन एकड़ फीट
जम्मू तथा कश्मीर = 0.65 मिलियन एकड़ फीट
राजस्थान = 8.00 मिलियन एकड़ फीट
कुल =15.85 मिलियन एकड़ फीट
स्पष्टतः न केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि घरेलू स्तर पर भी यह सभी ने स्वीकार किया है कि पानी के बंटवारे का आधार केवल मात्रा सिंधु थाला ही है। जो भी भू-भाग इस थाले में आता है, वह पानी के बंटवारे का हकदार सहज रूप से ही बन जाता है। यही कारण है कि इस न्यायसंगत तर्क और आवश्यकता के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए रावी-ब्यास के पानी में सबसे अधिक हिस्सा 8.00 मिलियन एकड़ फीट राजस्थान को दिया गया। पंजाब और पेप्सू राज्य, जो आज के पंजाब, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा राज्य हैं, को 7.20 मिलियन एकड़ फीट पानी दिया गया। ध्यान देने योग्य बात है कि इस समय और बाद में जब 1960 में भारत-पाक सिंधु जल समझौता हो गया, तब भी, इस सिद्धांत पर किये गये बंटवारे पर किसी प्रकार का विवाद नहीं था। वर्ष 1955 में, रावी-ब्यास के जल का बंटवारा भारतीय राज्य किस प्रकार करेंगे, इस पर सिंधु थाले के सिद्धांत और समानता व न्यायौचित आवश्यकता के आधार को स्वीकार किये जाने के कारण ही सहमति थी।
यही नहीं नवम्बर, 1954 में विद्युत एवं सिंचाई मंत्रालय द्वारा सम्बन्धित राज्यों के मुख्य अभियंताओं की बुलाई गई बैठकों में यह निर्णय लिया गया कि रावी-ब्यास जल उन क्षेत्रों में उपयोग होगा जहां सिंचाई की अत्याधिक आवश्यकता है ऐसे क्षेत्रों में राजस्थान के साथ-साथ आज के हरियाणा प्रांत का हिस्सा शामिल है। संयुक्त पंजाब में तब स्वीकृत योजनाओं द्वारा यह जल पश्चिमी-यमुना केनाल, गुड़गांव केनाल और भाखड़ा केनाल के क्षेत्रों को दिया जाना था। जाहिर है, सिद्धांत रूप से पंजाब को रावी-ब्यास जल में हरियाणा क्षेत्र के अधिकार के बारे में कोई संशय नहीं था।
पंजाब का पुनर्गठन और जल विवाद
सहमति की यह स्थिति तब तक बनी रही, जब तक पंजाब का पुनर्गठन नहीं हुआ। जैसे ही वर्ष 1966 में लंबे समय से हरियाणा प्रांत के साथ चले आ रहे क्षेत्रीय अन्याय और अकाली आन्दोलन को समाप्त करने के लिए पंजाब का पुनर्गठन किया गया, एक अनचाहा और कृत्रिम जल विवाद उठ खड़ा हुआ।
1976-रावी-ब्यास जल बंटवारा
पंजाब पुनर्गठन अधिनियम, 1966 की धारा 78 के अनुसार दोनों राज्यों की सहमति से पंजाब में उपलब्ध जल स्त्रोतों का बंटवारा किया जाना था। अगर दोनों राज्यों के मध्य दो साल के भीतर ऐसा कोई समझौता न हो पाता तो केन्द्र सरकार द्वारा इन दोनों राज्यों को मिलने वाले पानी का हिस्सा निर्धारित किया जाना था। क्योंकि दोनों राज्यों के मध्य ऐसा कोई समझौता न हो पाया इसलिए हरियाणा के अनुरोध पर केन्द्र सरकार ने 24 अप्रैल, 1970 को एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया। इस समिति ने फरवरी, 1971 में दी गई अपनी रिपोर्ट द्वारा हरियाणा को 3.78 मिलियन एकड़ फीट पानी देने की सिफारिश की। तभी केन्द्र सरकार द्वारा योजना आयोग के उपाध्यक्ष को इस रिपोर्ट पर विचार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। उन्होंने मार्च, 1973 में सिफारिश की कि हरियाणा को 3.74 मिलियन एकड़ फीट, पंजाब को 3.26 मिलियन एकड़ फीट तथा दिल्ली को 0.20 मिलियन एकड़ फीट पानी दिया जाएगा। परन्तु, हरियाणा ने जरूरतों के आधार पर 6.90 मिलियन एकड़ फीट पानी की मांग की। जब इस मसले का आपसी बातचीत से कोई समाधान न हो पाया तो केन्द्र सरकार ने पंजाब पुनर्गठन अधिनियम, 1966 के प्रावधानों के अनुसार अपनी 24 मार्च, 1976 की अधिसूचना के द्वारा पानी का बंटवारा निम्नानुसार कर दियाः-
पंजाब 3.50 मिलियन एकड़ फीट
हरियाणा 3.50 मिलियन एकड़ फीट
जम्मू तथा कश्मीर 0.65 मिलियन एकड़ फीट
राजस्थान 8.00 मिलियन एकड़ फीट
दिल्ली 0.20 मिलियन एकड़ फीट
कुल 15.85 मिलियन एकड़ फीट
न्यायोचित आवश्यकता के सिद्धान्त पर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को पीने के पानी के लिए 0.20 मिलियन एकड़ फीट पानी दिया गया। इस बंटवारे में ब्यास परियोजना के उद्देश्यों के अन्तर्गत हरियाणा प्रांत के शुष्क और सूखा ग्रस्त क्षेत्रों की पानी की आवश्यकता का विशेष ध्यान रखा गया।
रावी-ब्यास जल हरियाणा को कैसे दिया जाये ?
वर्ष 1976 के बंटवारे के अनुसार हरियाणा के रावी-ब्यास के उपरोक्त जल भाग को लोहान्ड खडड् (आनन्दपुर हाईडल चैनल की टेल से) के नज़दीक शुरू होने वाली सतलुज-यमुना लिंक नहर के द्वारा करनाल ज़िले के उचानी में पश्चिमी यमुना केनाल में लाया जाना था।
हरियाणा क्षेत्रा का रावी-ब्यास जल पर अधिकार है। इसे एक लंबे समय तक पंजाब ने भी स्वीकार किया है। यह इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि साठ एवं सत्तर के दशक में आज के हरियाणा क्षेत्रा को जल पहुंचाने के लिए पंडोह बांध बनाकर एक इंजीनियरिंग चमत्कार के द्वारा पहाड़ों के नीचे से सुरंग के माध्यम से ब्यास के पानी को सलापड़ तक लाकर सतलुज में मिलाया गया। यही नहीं, इस चमत्कार पर पंजाब सहित पूरा देश गर्व करता दिखाई दिया था।
हरियाणा के न्यायोचित दावे पर स्वीकृति की मुहर पूरे देश ने लगाई है। ब्यास-सतलुज लिंक परियोजना उसका प्रमाण है। इस परियोजना की सफलता के कारण ही हरियाणा न केवल ब्यास नदी से अपने हिस्से के पानी ले पा रहा है, बल्कि अपने अधिकार का रावी का पानी भी ‘विनिमय’ के सिद्धान्त द्वारा ब्यास नदी से इस परियोजना के माध्यम से लेने की स्थिति में पहंुचा है। इस ‘विनिमय’ के सिद्धान्त के अनुसार हरियाणा अपने हिस्से के रावी के जल की मात्रा ब्यास से लेगा।
लिंक नहर निर्माण
पंजाब के क्षेत्रा मेंं इस नहर की लम्बाई 121 किलोमीटर और हरियाणा के क्षेत्रा में 91 किलोमीटर है। क्योंकि हरियाणा पंजाब क्षेत्रा में बनने वाली नहर के बगैर अपने जल भाग का उपयोग नहीं कर सकता था इसलिए सन् 1976 में हरियाणा ने पंजाब राज्य के साथ इस नहर को बनाने का मामला उठाया और 16 नवम्बर 1976 को एक करोड़ रुपये पंजाब सरकार के पास जमा करवाए।
इस बीच हरियाणा ने अपने क्षेत्रा में सतलुज-यमुना लिंक नहर का निर्माण अक्तूबर 1976 में शुरू करके जून 1980 तक पूरा कर लिया था। हरियाणा के क्षेत्रा में इस नहर के निर्माण कार्य पर लगभग 56 करोड़ रुपये खर्च किये गये तथा रावी-ब्यास के अपने हिस्से का पानी उपयोग करने के लिए हरियाणा ने नहर प्रणाली का निर्माण करने पर भी लगभग 250 करोड़ रुपये खर्च किये। इन नहर प्रणालियों में सिवानी, जुई, लोहारू, जवाहरलाल नेहरू उठान नहरें एवं गुड़गांव नहर इत्यादि शामिल हैं।
वर्ष 1977 से लेकर वर्ष 1979 के बीच आशा जगी कि इस योजक नहर का निर्माण कार्य शीघ्र प्रारम्भ होकर पूरा हो जायेगा। हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री चैधरी देवी लाल के दिनांक 18 अप्रैल, 1978 को सरदार प्रकाश सिंह बादल के नाम लिखे गये अर्धसरकारी पत्रा नं. 18ध्16ध्78.2टप्प् से यह स्पष्ट है कि पंजाब के मुख्यमंत्री न केवल शीघ्र ही इस लिंक नहर को शुरू करवाने के लिए तैयार हो गये थे, बल्कि चैधरी देवी लाल को यह आश्वासन भी दिया गया था कि नहर खुदाई के अवसर पर उन्हें समारोह की अध्यक्षता के लिए आमंत्रित किया जायेगा। मार्च, 1979 में हरियाणा ने पंजाब को इस कार्य को पूरा करने के लिए एक करोड़ रुपया और भी दिया। परन्तु इसके बाद भी जब पंजाब ने इस लिंक नहर का कार्य शुरू नहीं किया तो हरियाणा ने भारत सरकार के मार्च, 1976 के फैसले को लागू करवाने के लिए 30 अप्रैल, 1979 को सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की। इस याचिका के उत्तर में पंजाब राज्य ने भी स्र्वोच्च न्यायालय में जुलाई 1979 में एक याचिका दायर की।
समझौतों का दौर
हरियाणा और पंजाब की याचिकाएं अभी सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन थीं जब 31 दिसम्बर, 1981 को पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के मध्य पानी के बंटवारे पर समझौता हो गया। इस समझौते के अनुसार रावी-ब्यास के अतिरिक् पानी की उपलब्धता को वर्ष 1921.60 की फलो-सीरिज़ के आधार पर 15.85 मिलियन एकड़ फीट से बढ़ाकर 17.17 मिलियन एकड़ फीट कर दिया गया तथा उसे निम्नानुसार बांट दिया गयाः-
पंजाब 4.22 मिलियन एकड़ फीट
हरियाणा 3.50 मिलियन एकड़ फीट
जम्मू तथा कश्मीर 0.65 मिलियन एकड़ फीट
राजस्थान 8.60 मिलियन एकड़ फीट
दिल्ली 0.20 मिलियन एकड़ फीट
कुल 17.17 मिलियन एकड़ फीट
इस समझौते के अनुसार सतलुज-यमुना लिंक नहर को दो वर्ष के भीतर अर्थात 31 दिसम्बर, 1983 तक पूरा किया जाना था। इस समझौते के परिणामस्वरूप दोनों सरकारों नेे बिना शर्त याचिकाओं को वापिस ले लिया। अपै्रल, 1982 में पंजाब राज्य द्वारा सतलुज-यमुना लिंक नहर का कार्य शुरू भी कर दिया गया।
‘पंजाब समझौता’ एवं ट्रिब्यूनल का गठन
दुर्भाग्यवश पंजाब क्षेत्रा में इस नहर का निर्माण कार्य वर्ष 1981 के बाद भी धीमी गति से चला। 24 जुलाई 1985 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्राी श्री राजीव गांधी तथा शिरोमणि अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष सन्त हरचन्द सिंह लौंगोवाल के मध्य एक समझौता हुआ जिसे ‘राजीव लौंगोवाल’ के नाम से जाना जाता है। इस समझौते की धारा-9 पंजाब और हरियाणा के मध्य पानी के बंटवारे के सम्बन्ध में है। इस धारा में निम्नलिखित प्रावधान थेः-
9.1 पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान के किसानों को 1.7.85 को रावी-ब्यास का जो पानी मिलता था, उससे कम पानी नहीं मिलेगा। इस पानी का आकलन पैरा 9.2 में वर्णित ट्रिब्यूनल द्वारा किया जायेगा।
9.2 बाकी के पानी में पंजाब एवं हरियाणा के दावों के निर्णय के लिए एक ट्रिब्यूनल को सौंप दिया जाएगा, जिसके अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश होंगे।
9.3 सतलुज-यमुना लिंक नहर का कार्य जारी रहेगा। इस नहर को 15 अगस्त, 1986 तक पूरा कर लिया जाएगा।’’
समझौते के उपरोक्त प्रावधानों के अनुसार भारत सरकार ने 2 अप्रैल, 1986 को न्यायमूर्ति श्री वी.बी. इराडी की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय रावी-ब्यास वाटर ट्रिब्यूनल का गठन किया। इस ट्रिब्यूनल ने जनवरी 1987 को अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंप दी। इस रिपोर्ट में रावी-ब्यास का पानी निम्नानुसार बांटा गयाः-
पंजाब 5.00 मिलियन एकड़ फीट
हरियाणा 3.83 मिलियन एकड़ फीट
जम्मू तथा कश्मीर 0.65 मिलियन एकड़ फीट
राजस्थान 8.60 मिलियन एकड़ फीट
दिल्ली 0.20 मिलियन एकड़ फीट
कुल 18.28 मिलियन एकड़ फीट
पानी की 1921.60 फलो-सीरिज़ में उपलब्ध 17.17 मिलियन एकड़ फीट पानी में रिम-स्टेशन (रावी पर माधोपुर एवं ब्यास पर मण्डी प्लेन) के नीचे के 1.11 मिलियन एकड़ फीट पानी को भी शामिल करके ट्रिब्यूनल द्वारा उपलब्ध पानी की मात्रा 18.28 मिलियन एकड़ फीट कर दी गई।
ट्रिब्यूनल के निर्णय में हरियाणा के लगभग सभी पक्षों को स्वीकार किया गया और पंजाब द्वारा पेश किये गये ज्यादातर तर्काें को ट्रिब्यूनल ने अस्वीकार कर दिया।
अन्तर्राज्यीय जल विवाद अधिनियम, 1956 की धारा-5 (3) के अनुसार ट्रिब्यूनल के निर्णयोपरांत केवल स्पष्टीकरण एवं मार्गदर्शन लेने के लिए ही सम्बन्धित राज्य ट्रिब्यूनल के समक्ष प्रार्थना-पत्रा दाखिल कर सकते थे। पंजाब ने ट्रिब्यूनल द्वारा दिये गये लगभग सभी निर्णयों पर आपत्तियां दिखाई, जबकि हरियाणा ने ट्रिब्यूनल के निर्णय को लगभग स्वीकार करते हुए उसे और अधिक पानी दिए जाने की मांग की। ट्रिब्यूनल ने इन प्रार्थना-पत्रों पर सुनवाई का कार्य शुरू ही किया था कि वर्ष 1988 में माननीय न्यायाधीश श्री ऐ.एम. अहमदी ने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने पर ट्रिब्यूनल से त्यागपत्रा दे दिया। वर्ष 1988 से 1996 तक इस रिक्त पद पर कोई नियुक्ति नहीं की गई। वर्ष 1996 में माननीय न्यायाधीश श्री यू.सी.बैनर्जी को ट्रिब्यूनल का सदस्य नियुक्त किया गया। ट्रिब्यूनल ने जब प्रारम्भिक बैठकों के उपरान्त इन प्रार्थना पत्रों के लिए निपटान के लिए 9 जनवरी, 1989 की तिथि निर्धारण की, उससे पूर्व ही माननीय न्यायाधीश श्री यू.सी.बैनर्जी ने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश नियुक्त होने पर दिसम्बर 1998 में ट्रिब्यूनल से त्यागपत्रा दे दिया था। वर्ष 1998 से अब तक यह पद रिक्त है और ट्रिब्यूनल अपने कार्यों को करने मे ंसक्षम नहीं है। इस सम्बन्ध में हरियाणा सरकार बार-बार केन्द्र सरकार से अनुरोध करती रही है।
कानूनी रूप से भले ही ट्रिब्यूनल के निर्णय की अधिसूचना जारी करना बाकी रह गया हो, तब भी ट्रिब्यूनल द्वारा जनवरी 1987 में दिया गया निर्णय अंतिम है और उसमें कोई फेरबदल नहीं किया जा सकता। अब ट्रिब्यूनल अपने निर्णय पर सिर्फ स्पष्टीकरण एवं मार्गदर्शन ही दे सकता है।
पंजाब द्वारा फैलाये जा रहे निरर्थक भ्रम
रावी-ब्यास के पानी के बंटवारे के सम्बन्ध में कोई अंतिम निर्णय न होने का जो भ्रम पंजाब की सरकार द्वारा फैलाया जा रहा है, वह बेबुनियाद है। आज भी 31 दिसम्बर, 1981 के समझौते के अनुसार भाखड़ा-ब्यास प्रबन्धन बोर्ड द्वारा पानी हरियाणा को छोड़ा जा रहा है। इस पानी का एक भाग पंजाब द्वारा अपनी भाखड़ा मुख्य नहर द्वारा हरियाणा को दिया जा रहा है। दूसरी तरफ रावी-ब्यास ट्रिब्यूनल का भी अंतिम निर्णय आ चुका है, जिसकी सिर्फ भारत सरकार द्वारा अधिसूचना ही की जानी बाकी है। सत्य यह है कि अब रावी-ब्यास के बटवारे बारे हरियाणा का पंजाब के साथ कोई विवाद शेष नहीं है। अब केवल पंजाब के क्षेत्रा में सतलुज यमुना लिंक नहर के बकाया पांच प्रतिशत निर्माण कार्य की समस्या सुलझानी रह गई है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 15 जनवरी 2002 को दिए गए अपने ऐतिहासिक निर्णय द्वारा इस समस्या का भी पटाक्षेप कर दिया गया है।
एस.वाई.एल. निर्माण कार्य में अड़चनें एवं प्रगति
पंजाब क्षेत्रा में सतलुज-यमुना लिंक नहर का लगभग 95 प्रतिशत कार्य पंजाब द्वारा जुलाई 1990 तक पूरा कर लिया गया था। यह कार्य 23 जुलाई, 1990 को कुछ आतंकवादियों द्वारा इस कार्य पर लगे पंजाब के इंजीनियर्स की हत्या कर देने के बाद पूर्णतः ठप्प हो गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री, हरियाणा ने 23 नवम्बर, 1990 को प्रधानमंत्राी से प्रार्थना की कि इस नहर का बाकी कार्य किसी केन्द्रीय एजेंसी जैसे कि राष्ट्रीय पन बिजली निगम (नेशनल हाईडल पाॅवर कारपोरेशन), सीमा सड़क संगठन (बार्डर्स रोड्स आॅरगेनाईजेशन) इत्यादि को सौंप दिया जाए। तत्कालीन प्रधानमंत्राी द्वारा 20 फरवरी, 1991 को यह फैसला लिया गया कि इस कार्य को बार्डर्स रोड्स आॅरगेनाईजेशन को सौंप दिया जाये। परन्तु, इस सम्बन्ध में आगे कोई कार्यवाही नहीं हो सकी।
बढ़ती लागत और हरियाणा को क्षति
इस परियोजना की लागत, जो कि 16 दिसम्बर, 1986 से केन्द्र सरकार द्वारा वहन की जा रही है, 176 करोड़ रुपये से बढ़कर नवम्बर, 1994 के मूल्य सूचकांक के अनुसार 601 करोड़ रुपये हो गई थी। यह कीमत और भी बढ़ने की संभावना है क्योंकि सितम्बर, 2001 तक इस नहर के पंजाब भाग पर 679.90 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। इस नहर के पूरा न किये जाने के कारण हरियाणा में तीन लाख हैक्टेयर सिंचाई क्षमता का प्रयोग नहीं हो पा रहा है। इसके फलस्वरूप राष्ट्र को प्रतिवर्ष आठ लाख टन अतिरिक्त कृषि उत्पादन का नुकसान हो रहा है, जिसकी वार्षिक कीमत 500 करोड़ रुपये बनती है। अगर सतलुज-यमुना लिंक नहर के माध्यम से रावी-ब्यास का पानी मिला होता तो इस वर्ष सूखे के कारण हरियाणा के लोगों के सामने कम कठिनाइयां आती।
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
हरियाणा सरकार ने इस नहर के समयबद्ध निर्माण के लिए भारत सरकार और पंजाब सरकार को प्रतिवादी बनाकर एक सिविल याचिका नवम्बर, 1995 में सर्वोच्च न्यायालय में दायर की। धारा 80 सी.पी.सी. के तहत नोटिस जारी होने के पश्चात् सितम्बर, 1996 में सूट नम्बर 6/96 पुनः दायर किया गया।
इस केस में सर्वोच्च न्यायालय ने 15 जनवरी, 2002 को अपना विस्तृत निर्णय देते हुए पंजाब सरकार को निर्देश दिए कि पंजाब क्षेत्रा में इस नहर का निर्माण एक वर्ष की अवधि में पूरा किया जाए। अगर पंजाब सरकार इस काम को निश्चित अवधि में पूरा नहीं करती तो केन्द्र सरकार यथासंभव शीघ्रता से इसे अपनी एजंेसियों से पूर्ण करवाये।
इस फैसले के विरुद्ध पंजाब सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में एक समीक्षा याचिका दायर की, जिसे न्यायालय ने अपने दिनांक 5 मार्च, 2002 के आदेश द्वारा खारिज कर दिया।
अधिकारों की लड़ाई
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद हरियाणा विधानसभा में सभी सदस्यों ने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर यह प्रस्ताव पारित किया कि पंजाब सरकार को सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का पालन करना चाहिए और अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वहन करते हुए एक वर्ष की निर्धारित अवधि में अपने क्षेत्रा में नहर को पूरा करना चाहिए। पारित प्रस्ताव की प्रति हरियाणा के मुख्यमंत्री ने 27 मार्च, 2002 को प्रधानमंत्राी, केन्द्रीय गृह मंत्राी, केन्द्रीय जल संसाधन मंत्राी और पंजाब के मुख्यमंत्री को अर्धसरकारी पत्रा द्वारा भेजी। इन पत्रों में मुख्यमंत्री हरियाणा ने भारत सरकार से अनुरोध किया कि सर्वोच्च न्यायालय के 15 जनवरी, 2002 के निर्णय को लागू करवाने के लिए कदम उठाए। पंजाब सरकार को भी इस कार्य को अविलम्ब शुरू करने के लिए अनुरोध किया गया। मई, 2002 में केन्द्रीय जल संसाधन मंत्राी ने पत्रा के उत्तर में सूचित किया कि उनके मंत्रालय ने यह मामला पंजाब सरकार के साथ उठाया है।
केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री ने पंजाब क्षेत्रा में सतलुज-यमुना लिंक नहर के निर्माण के सम्बन्ध में 25 जुलाई, 2002 को हरियाणा, पंजाब और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों की एक बैठक बुलाई। इस बैठक में हरियाणा ने जोर देकर कहा कि पंजाब के पास न्यायालय के निर्णय को मानने के अतिरिक्त एवं नहर को निर्धारित अवधि में पूर्ण करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। परन्तु पंजाब नहर के काम को न करने में अड़ियल प्रतीत हुआ। पंजाब के नकारात्मक रवैये को भांपते हुए हरियाणा के मुख्यमंत्री ने केन्द्रीय जल संसाधन मंत्राी को 25 जुलाई, 2002 को एक अर्धसरकारी पत्रा लिखा, जिससे मांग की गई कि वे पंजाब पर दबाव डालें कि वह सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का पालन करे और नहर को 15 जनवरी, 2003 तक पूर्ण करे।
इस सम्बन्ध में हरियाणा के मुख्यमंत्री 30 जुलाई, 2002 को प्रधानमंत्राी से भी मिले थे और उनसे यही मांग दोहराई थी। 14 अगस्त, 2002 को हरियाणा के सभी राजनैतिक दलों की एक बैठक में सभी दलों ने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर प्रदेश हित में मुख्यमंत्रात्री के साथ इस विषय पर कंधे से कंधा मिलाकर चलने का ऐलान किया। बैठक के बाद सभी दलों का एक शिष्टमण्डल मुख्यमंत्री के नेतृत्व में पंजाब के राज्यपाल से भी मिला और उन्हें ज्ञापन देकर कहा कि राज्य का संवैधानिक मुखिया होने के नाते वे अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके पंजाब के मुख्यमंत्री से कहें कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय की गई सीमा के भीतर लिंक नहर का शेष कार्य पूरा करे ताकि हरियाणा को अपने हिस्से का पानी मिल सके।
हरियाणा के सिंचाई विभाग ने त्वरित कार्यवाही करते हुए लम्बे समय से इस्तेमाल न किये जाने के कारण क्षतिग्रस्त सतलुज-यमुना लिंक नहर के हरियाणा भाग की मरम्मत के लिये पांच करोड़ रुपये के विस्तृत अनुमान अनुमोदित किये हैं। इस कार्य के शीघ्र शुरू होने की सम्भावना है और इसे 15 जनवरी, 2003 से पूर्व पूरा किये जाने का अनुमान है, क्योंकि उसी तिथि तक पंजाब सतलुज-यमुना लिंक नहर के अपने क्षेत्रा का निर्माण कार्य पूरा करने के लिए बाध्य है।
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि पंजाब का पक्ष न्याय संगत नहीं है, जिस कारण वह ट्रिब्यूनल और सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष असफल रहा है। खेद की बात है कि देश की तीन लाख हैक्टेयर भूमि सिंचाई से वंचित होते हुए भी राष्ट्र हित को दरकिनार करते हुए पंजाब सरकार के नेताओं द्वारा जनता को भावनात्मक रूप से भड़काने वाले बयान जारी किए जा रहे हैं। उनका तो अब यह भी कहना है कि हरियाणा सिंधु थाले का भाग नहीं है एवं राईपेरीयन सिद्धांत के अनुसार उसका रावी-ब्यास के पानी में कोई हिस्सा नहीं बनता। सच यह है कि राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर राईपेरीयन सिद्धांत को इस तरह के विवादों में आधार नहीं बनाया जाता।
रावी-ब्यास ट्रिब्यूनल के सम्मुख भी पंजाब ने अपने उपरोक्त दोनों कथन दोहराए थे। ट्रिब्यूनल ने सभी उपलब्ध दस्तावेजों और तर्कों पर गहराई से विचार करके यह स्पष्ट निर्णय दिया था कि हरियाणा एवं राजस्थान सिंधु थाले का ही एक भाग है। ट्रिब्यूनल ने पंजाब की इस दलील को भी अस्वीकार कर दिया था कि रावी-ब्यास के पानी पर पंजाब का मालिकाना हक है और राईपेरीयन सिद्धांत के अनुसार इस पानी को किसी और राज्य को नहीं दिया जा सकता। ट्रिब्यूनल के निर्णय के अनुसार नदियों के पानी को समानता व निष्पक्षता पर आधारित न्यायोचित आबंटन के सिंद्धात पर ही बांटा जा सकता है। बंटवारा थाले के सभी भागीदारों की न्यायसंगत आवश्यकताओं के आधार पर ही किया जा सकता है।
ट्रिब्यूनल एवं सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद पंजाब को सच्चाई को स्वीकार कर लेना चाहिए तथा ऐसी कोई भी नौबत नहीं आने देनी चाहिए, जिससे कि न्यायालय की अवमानना हो और संवैधानिक संकट की स्थिति पैदा हो।
हरियाणा को अब भी आशा है कि पंजाब सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के आगे नतमस्तक होगा एवं अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को समझते हुए सतलुज-यमुना लिंक नहर का पांच प्रतिशत बाकी का पड़ा कार्य पूरा होगा।
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